मिदनापुर, जो वर्तमान में पश्चिम बंगाल का एक प्रमुख जिला है, भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का एक महत्वपूर्ण केंद्र बन चुका था। 1902 से ही मिदनापुर क्रांतिकारियों के संघर्ष का गढ़ बन गया था, जहां पर नेताजी सुभाष चंद्र बोस द्वारा गठित “बंगाल वॉलिंटियर्स” के क्रांतिकारी सक्रिय रूप से आंदोलन में भाग ले रहे थे। मिदनापुर के अंग्रेज अधिकारियों का अत्याचार और भारतीयों के प्रति उनका अमानवीय व्यवहार बढ़ता जा रहा था। इस पर क्रांतिकारियों ने यह तय किया कि जब तक मिदनापुर में भारतीय अधिकारियों की नियुक्ति नहीं होगी, वे अंग्रेज कलेक्टरों को मौत के घाट उतार देंगे।
प्रथम शिकार: मिस्टर जेम्स पैड्डी (1931)
7 अप्रैल 1931 को मिदनापुर में कलेक्टर मिस्टर जेम्स पैड्डी का पहला शिकार बने। वे स्कूल की एक प्रदर्शनी में गए हुए थे, तभी हाई स्कूल के दो छात्रों विमल दास गुप्त और यति जीवन घोष ने पैडी साहब को गोलियों से भून डाला। अगले दिन पैड्डी की मौत हो गई। दोनों बाल क्रांतिकारी मौके से भागने में सफल रहे, और उनकी पहचान भी नहीं हो पाई।
दूसरा शिकार: मिस्टर रॉबर्ट डग्लस (1932)
इसके बाद मिदनापुर में कलेक्टर मिस्टर रॉबर्ट डग्लस की नियुक्ति की गई। क्रांतिकारी अपने निर्णय पर अडिग थे। 30 अप्रैल 1932 को उन्हें उनके कार्यालय में गोलियों से भून दिया गया। इस बार क्रांतिकारी प्रद्योत कुमार को पकड़ लिया गया, जबकि प्रभाशू शेखर मौके से भागने में सफल रहे और वे कभी पकड़े नहीं गए। प्रद्योत की जेब से एक पत्र मिला जिसमें लिखा था:
“हिजली कैदियों पर अमानुषिक अत्याचारों का हल्का सा प्रतिरोध”
हिजली जेल में 16 सितंबर 1931 को जेल सैनिकों ने क्रांतिकारियों पर लाठियों से हमला किया और गोलियां चलाईं, जिसमें दो क्रांतिकारी संतोष कुमार और तारकेश्वर मित्रा शहीद हो गए थे। प्रद्योत कुमार को मिदनापुर केंद्रीय कारागार में 12 जनवरी 1933 को फांसी दी गई।
तीसरा शिकार: मिस्टर बी.ई.जे. बर्ग (1933)
मिदनापुर में अंग्रेज अधिकारियों के खिलाफ क्रांतिकारी संघर्ष का अगला शिकार बने मिस्टर बी.ई.जे. बर्ग, जो डग्लस के बाद मिदनापुर के कलेक्टर नियुक्त किए गए थे। 2 सितंबर 1933 को मृगेंद्र कुमार दत्त और अनाथ बंधु पंजा ने उन्हें फुटबॉल मैदान में गोलियों से भून दिया। अनाथ बंधु मौके पर ही शहीद हो गए, जबकि मृगेंद्र घायल हो गए। अगले दिन मृगेंद्र भी शहीद हो गए।
इस घटना के बाद निर्मल जीवन घोष, बृजकिशोर चक्रवर्ती और रामकृष्ण राय पर मुकदमा चलाया गया और उन्हें फांसी की सजा सुनाई गई। 26 अक्टूबर 1934 को निर्मल घोष को, जबकि बृजकिशोर चक्रवर्ती और रामकृष्ण राय को 25 अक्टूबर 1934 को मिदनापुर केंद्रीय जेल में फांसी दी गई।
अंतिम परिणाम: भारतीय कलेक्टर की नियुक्ति
तीन अंग्रेज कलेक्टरों की मौत के बाद, मिदनापुर में कोई भी अंग्रेज अधिकारी नियुक्त होने के लिए तैयार नहीं था। अंततः ब्रिटिश सरकार ने घुटने टेकते हुए मिदनापुर में भारतीय अधिकारियों की नियुक्ति की। यह क्रांतिकारियों की मेहनत और बलिदान का ही परिणाम था कि मिदनापुर में अंग्रेजों के शासन को समाप्त कर दिया गया और भारतीय अधिकारी नियुक्त किए गए।
शहीदों को शत शत नमन
मिदनापुर एक्शन ने यह साबित कर दिया कि जब देशभक्ति और साहस के साथ कोई उद्देश्य तय किया जाता है, तो उसे पूरा किया जा सकता है, चाहे इसके लिए कितनी भी बड़ी कीमत चुकानी पड़े। इन शहीदों के बलिदान को हमेशा याद किया जाएगा, जिन्होंने भारत को स्वतंत्रता की ओर एक कदम और बढ़ाया।
भारतीय सशस्त्र क्रांति के इतिहास में 18 अप्रैल 1930 का दिन स्वर्ण अक्षरों में लिखा जाने योग्य है।
इस दिन भारत के महान क्रांतिवीर सूर्य सेन “मास्टर दा” के नेतृत्व में चटगांव के क्रांतिकारी दल “इंडियन रिपब्लिकन आर्मी “ ने चटगांव के पुलिस और सहायक बलों के शस्त्रागार के हथियारों को अपने कब्जे में ले लिया।
चटगांव का समस्त संचार तंत्र समाप्त कर अपना प्रशासन स्थापित कर लिया। चटगांव जिला मुख्यालय पर यूनियन जैक को उतार कर भारत का तिरंगा लहरा दिया व फ़िरंगियों को उनकी औकात बतादी। चार दिन तक चटगांव का प्रशासन क्रांतिकारीयों के हाथ मे रहा।
चटगांव में एक अध्यापक मास्टर सूर्य सेन ने “साम्याश्रम ” के नाम से एक क्रांतिकारी दल की स्थापना की । जिसने चटगांव के युवाओं व बच्चों में क्रांति ऊर्जा भर दी । ये लोग गांधी जी के आव्हान पर असहयोग आंदोलन के समय कांग्रेस में शामिल हो गए। पर चोराचोरी घटना के बाद गांधी जी ने आंदोलन वापस ले लिया तो इनका अहिंसा से विश्वास उठ गया।
दिसंबर 1928 में कांग्रेस का 43वां अधिवेशन कलकत्ता में था। इस अधिवेशन में चटगांव ” साम्याश्रम” के सदस्यों की एक टीम भी शामिल हुइ।
सुभाष चंद्र बोस के नेतृत्व में 7000 स्वयं सेवको ने सैनिक वर्दी में कांग्रेस अध्यक्ष मोतीलाल नेहरू को गार्ड ऑफऑनर प्रदान किया जिसे देख चटगांव की टीम अतिप्रभवित हुई ।
टीम ने चटगांव आकर मास्टर दा व साथियों को बताया । विमर्श किया गया व साम्याश्रम का नाम “इंडियन रिपब्लिकन आर्मी” रख लिया तथा सशस्त्र क्रांति की तैयारी में लग गए।
चटगांव क्रांतिकारीयों ने चंद्रशेखर आजाद से भी संपर्क किया था। आजाद जी ने इन्हें सहायता का आश्वासन दिया तथा दो बढ़िया रिवॉल्वर भी दिए। चटगांव इंडियन रिपब्लिकन आर्मी के अध्यक्ष मास्टर सूर्य सेन थे । आर्मी के आदर्श संगठन, साहस और बलिदान तय किये गए।
इंडियन रिपब्लिकन आर्मी ने अपने 20लक्ष्य निर्धारित किये । (1) ऑग्ज़ीलियरी फोर्स ऑफ इंडिया के शस्त्रागार को लूटना (2) पुलिस के शस्त्रागार को लूटना।
(3) आयूरोपियन क्लब के सदस्यों का वध कर क्लब के शोध संस्थान को नष्ट करना। 4)चटगांव के निकटवर्ती रेलवे स्टेशन की पटरियां उखाड़ देना ।
(5) टेलीफोन एक्सचेंज के तार काटकर अन्य स्थानों से उसका संबंध विच्छेद करना। ( 6)तार व्यवस्था नष्ट करना ।
(7)डाकघर को अधिकार में लेना। (8)बंदरगाह की वायरलेस व्यवस्था भंग कर देना। (9) जेल तोड़कर कैदियों को मुक्त कर देना और राजनीतिक कैदियों को मुक्ति सेना में सम्मिलित करना।
(10)नगर की हथियारों की दुकान लूट लेना।
( 11 )इंपीरियल बैंक और कोष लूटकर धन प्राप्त करना ।
(12)नगर के उन मार्गों को नियंत्रण । (13)पुलिस लाइन के कार्यालय पर अधिकार करके उसे मुक्ति सेना का कार्यालय बनाना। (14)चटगांव में स्वतंत्र सरकार की स्थापना करना। (15)यूनियन जैक उतार कर उसके स्थान पर तिरंगा ध्वज फहराना। (16)गुरिल्ला युद्ध के योग्य स्थलों की खोज करना। (17)फ्रांस अधिकृत प्रदेश में आश्रय स्थलों की खोज करना।
(18)अंग्रेज भक्त अवसरों का वध करना। (19)नागरिक क्षेत्रों में सुरक्षा की भावना उत्पन्न करके उन्हें अपने पक्ष में करना। (20)खतरे की स्थिति में बाहर की क्रांतिकारी पार्टियों से सहायता प्राप्त करना।
इस रूपरेखा के अनुरूप तैयारियां करने के बाद दिनाँक 18 अप्रैल 1930 को इंडियन रिपब्लिकन आर्मी के सभी सैनिक वर्दी पहन कर निजाम पलटन के मैदान में एकत्रित हुए। रात्रि के ठीक 9:45 बजे सभी टुकड़ियों के दल नायकों को आक्रमण का आदेश दिया गया । निश्चित योजना अनुसार समय पर सभी टुकड़ियों ने अपने अपने कार्य में जुट गए। तार व्यवस्था को ठप किया , रेल की पटरीयों को उखाड़ा , वायरलेस व्यवस्था ठप्प की , शस्त्रागार पर कब्जा कर हथियार कब्जे में लिये,
गणेश घोष और अनंत सिंह पुलिस अफसरों की वर्दी पहने अपनी गाड़ी में पुलिस शस्त्रागार के अंदर तक जा पहुंचे। पहरे पर तैनात बंदूकधारी ने समझा बड़े अफसर निरीक्षण के लिए आए हैं। सिपाही कुछ समझता इससे पहले ही गोली का शिकार हुआ।
क्रांतिकारीयों ने माल खाने से हथियार व अपने लिए उपयोगी सामान गाड़ी में लाद लियाया तथा शेष को पेट्रोल छिड़ककर आग लगा दी ।
लोकनाथ बल कर मिलिट्री की वर्दी में हेलमेट लगाए हुए सेना के शस्त्रागार तक पहुंचे । सामने एक सिपाही खड़ा था। जिसे गोली मार दी गई। अंग्रेज अफसरों का भोजनालय पास में ही था । वहां से कुछ सैनिक आये । गोलियां चली जिसमें सार्जेंट मेजर केरल मारा गया । फौज के शस्त्रागार का ताला तोड़कर सफलतापूर्वक सारे हथियार कब्जे में लिए गए।
मास्टर दा सूर्यसेन एक्शन मौजूद थे ।उन्होंने चटगांव जिला मुख्यालय यूनियन जैक को उतारकर भारत का तिरंगा ध्वज फहराया और संक्षिप्त भाषण भी दिया।
अर्धेन्दू एक्शन से एक दिन पूर्व बम्ब बनाते हुए घायल हो गए थे फिर भी एक्शन में भाग लिया।
अर्धेन्दू को 22 अप्रेल 1930 को घायल अवस्था मे गिरफ्तार किया गया था । अगले दिन अपने प्राणों की आहुति दी।
इस एक्शन में बच्चों सहित कुल 65 क्रांतिकारीयों ने भाग लिया। एक्शन के बाद दिनाँक 22 अप्रैल 1930 को क्रांतिकारीयों ने जलालाबाद पहाड़ी पर डेरा लगा रखा था। पहले पुलिस ने घेरा डाला। क्रांतिकारीयों ने एक सार्जेंट सहित कई सिपाहियों को मार डाला। तीन दिन बाद अंग्रेजों ने गोरखा राइफल्स बटालियन के 15000 जवान और भेजे । 22 अप्रेल को शाम 5 बजे बंगाल की भूमि पर क्रांतिकारीयों व फ़िरंगियों की फ़ौज व पुलिस के दलों में कई घंटों तक अनोखा लड़ाई हुई ।
क्रांतिकारियों ने दो मोर्चे बनाएं एक मोर्चे को मास्टर दा खुद संभाल रहे थे। दूसरे को लेफ्टिनेंट लोकनाथ दल संभाल रहे थे ।
इस लड़ाई की शुरुआत देखने योग्य थी 13 वर्ष का एक बाल क्रांतिकारी हरि गोपाल राइफल लेकर मोर्चे से बाहर निकल कर फौज के सामने खड़े होकर फायरिंग की और अकेले ने ही फौज के 6 जवानों को ढेर कर दिया और ख़ुद शहीद हो गया। इसी प्रकार 13 वर्षीय 11 वर्षीय बालक निर्मल लाल और फिर भट्टाचार्य आदि शहीद हुए।
आधुनिक हथियारों से सज्जित गोरखा राइफल व पुलिस की सयुंक्त टीम से बाल क्रांतिकारियों के साथ अंतिम लड़ाई के परिणाम की संभावना को समझ यामास्टर दा ने मध्य रात्रि में अपने साथियों को पहाड़ी से निकल अलग अलग गांवो में जाकर छिपने के आदेश दे दिए । जलालाबाद की इस लड़ाई में 12 क्रांतिकारी शहीद हुए व गोरख राइफल व पुलिस के 160 जवानों को मौत के घाट उतार दिया ।
शहीदों में हरि गोपाल बल ,त्रिपुर सेन, निर्मल लाला , विधुभूषण भट्टाचार्य, नरेश रे, शंशाकदत्त, मधुसूदन दत्त , पुलिन विकासघोष, जितेंद्र दास गुप्त, प्रभास बल और मोतीलाल कानून को थे।
एक्शन के बाद अमरेंद्र नंदी चटगांव चटगांव के एक विद्यालय में छिपे हुए थे जिसकी पुलिस खबर लग गई । नंदी स्कूल से निकल भागकर एक पुलिया के नीचे छिपे पर पुलिस ने पीछा कर पुलिया को चारों तरफ से घेर लिया और गोलियां चलाने लगी। कुछ देर तक नंदी मुकाबला करते रहे और गोलियां खत्म हो गई तो ख़ुद को गोली मारकर आत्म बलिदान किया ।
चटगांव जिला का कुमीरा गांव एक चूड़ी वाला रंग बिरंगी चूड़ियां बेचते हुए घूम रहा था। एक लड़की ने आवाज लगाई चूड़ी वाला भैया चूड़ियां दिखाना जरा और चूड़ीवाला लड़की को चूड़ियां दिखाने लगा । इसी बीच लड़की ने एक कागज का टुकड़ा चूड़ी वाले के हाथ में थमा दिया चूड़ी वालों ने देखा कागज बिल्कुल सफेद है ।
चूड़ी वाले ने कागज पर डाला तो उस पर कुछ अक्षर उभर आये ‘”‘ कच्ची पक्की रोटियां और पतली दाल खाते खाते हम लोग परेशान हैं। लड्डू जलेबियाँ भिजवाने का प्रबंध कीजिए ।” यह चूड़ी वाला कोई और नहीं मास्टर दा सूर्य सेन थे और लड़की उनकी शिष्या कूदनी कुमुद थी । जो क्रांतिकारियों के पोस्ट बॉक्स के रूप में काम करती थी । यह समाचार सांकेतिक भाषा में जेल से क्रांतिकारीयों ने भिजवाया था । लड्डू जलेबियाँ मतलब बम्ब व हथियार।
जेल से फ़रार होने की योजना बानी । क्रांतिकारियों को जेल में विस्फोटक पदार्थ , डायनामाइट आदि भिजवाए गए ।
सुरंग बनने लगी जेल के पास में एक मकान किराए पर लिया गया। जिसमें बम व डायनामाइट लगाए गए ।
जेल से भी डायनामाइट से विस्फोट कर रास्ता बनाकर भाग लिया जाए । सब कुछ तैयारियां चल रही थी ।
दुर्भाग्य से एक दिन मकान मालकिन झाड़ू लगा रही थी तो उसे दीवार के नीचे दबे तार देख कर आसपास के लोगों को इकट्ठा कर लिया। बात पुलिस तक पहुंच गई और पुलिस को पता चल गया । मकान की तलासी में विस्फोटक आदि पकड़ लिए गए । इसे घटना को डायलॉग डायनामाइट नाम से जाना जाता है। इस घटना के बाद प्रशासन पर दबाव पड़ा और प्रशासन ने क्रांतिकारियों के साथ यह समझौता किया कि डायनामाइट मामले में किसी भी क्रांतिकारी के विरुद्ध कोई केस नहीं बनाया जाएगा तथा चटगांव एक्शन शस्त्र आगरा लूटने के मामले में सरकार बड़ी सजाएं नहीं देगी। यह बहुत बड़ी जीत थी। जनवरी 1932 में एक्शन के बाद में गिरफ्तार किए गए लोगों पर मुकदमा चलाया गया । मुकदमा का निर्णय 1 मार्च 1932 को दिया गया। गणेश घोष, लोकेनाथ ‘आनन्द गुप्ता (सोलह वर्षीय) अनन्त सिंह सहित 12 क्रांतिकारीयों अजीवन निर्वासन की सजा देकर अंडमान भेज दिया गया। दो को तीन साल की जेल की सजा मिली । शेष 32 व्यक्तियों को बरी कर दिया गया।
क्रांतिकारियों को पकड़ने के लिये एक तीव्र छापेमारी शुरू हुई। पूर्व मे गिरफ्तार क्रांतिकारियों का जेल की यातनाओं से मनोबल न कम नहीं हो इसलिए मास्टर दा के निर्देशानुसार अनंत सिंह दिनाँक 28 जून 1930 को चंदन नगर से कलकत्ता आकर आत्मसमर्पण किया व गिरफ्तार हुए। इस एक्शन में अंनत सिंह द्वारा हथियारों व बम्बो की व्यवस्था की गई थी। एक्शन में अनंत सिंह पुलिस शस्त्रागार को लूटने में गणेश घोष के मुख्य सहायक थे। दिनांक 22 अप्रैल 1930 को चटगांव हिंदुस्तान रिपब्लिकन आर्मी के कुछ क्रांतिकारी जलालाबाद की पहाड़ियों में पुलिस से युद्ध कर रहे थे उसी दिन गणेश घोष ,अनंत सिंह जीवन घोषाल और आनंद गुप्त चटगांव में थे । उन्होंने अपने घायल साथी हिमांशु को अपने एक मित्र के यहां छोड़ा था । दोनों ने चटगांव से कलकत्ता जाने का प्रोग्राम बनाया । तब तक रेलवे सर्विस शुरू हो चुकी थी । दूरदर्शिता से काम में लेते हुए दोनों ने कलकत्ता की बजाय फैनी स्टेशन के लिए टिकेट लिए। स्टेशन मास्टर को शक हो गया उसने फैनी स्टेशन मास्टर को तार से सूचना दे दी । जब चारों कांतिवीर फैनी पहुंचे तो पुलिस का तैयार पाया। पुलिस ने काफी देर तक गोलियां चलाई।मुकाबले में पुलिस को हराकर भागने सफल हुए।
ये चंद्रनगर (फ्रांस अधिकार क्षेत्र )में एक मकान में छुपे हुए थे। लोकनाथ भी चंद्र नगर आ गए।
वरिष्ठ पुलिस अधिकारी चार्ल्स टेगार्ट खूंखार और होशियार पुलिस अधिकारी था । टेगार्ट ने गुप्त रूप से योजना बनाई तथा अपने साथ सारे फिरंगी सिपाही व पुलिस अधिकारी लिए। किसी को कोई ख़बर नहीं होने दी।
वादेदार ने इंडियन रिपब्लिकन आर्मी के 20 सूत्रीय कार्यक्रम में से यूरोपीयन क्लब जिसके गेट पर लिखा होता था Dogs and Indian not allowed पर 24 सितंबर 1932 को हमला किया क्लब में अधिक फ़िरंगियों के होने के कारण अपने साथियों को सुरक्षित भेजा। प्रीतिलता के गोली लगने से वह घायल हो गयी । इसलिए जहर खाकर आत्म बलिदान किया।
क्रांतिकारियों को पता चला कि पुलिस महा निरीक्षक मिस्टर किंग क्रेग कोलकाता से चटगांव दौरे पर आने वाला है क्रांतिकारियों की योजना थी बनी की निरीक्षण के बाद पुलिस सुरक्षा कम होगी इसलिए करेक्ट को निरीक्षण के बाद वापस लूटते हुए मारा जाए।
रामकृष्ण विश्वास व काली पद चक्रवर्ती ने अपनी योजना के अनुसार हथियार लेकर ट्रेन में सवार हो गए ।
गाड़ी 1 दिसंबर 1930 को कानपुर स्टेशन पर चांदपुर स्टेशन पर रुकी तो चांदपुर स्टेशन पर इंस्पेक्टर तारिणी मुखर्जी ट्रेन से उतरा तो वहां खड़े एक पुलिस वाले ने तारिणी मुखर्जी को सेल्यूट किया।
मुखर्जी की पीठ क्रांतिकारियों की तरफ थी। उन्होंने मुखर्जी को अपना टारगेट समझ कर गोलियां चलादी।
मिस्टर क्रैक ट्रेन में बैठा था उसने खिड़की से क्रांतिकारियों को गोलियां चलाते देखा व क्रांतिकारियों पर गोलियां चलाई।
पुलिस से मुकाबला हुआ दोनों पकड़े गए। राम विश्वास के पास जिंदा बम्ब और दोनों के पास एक एक रिवाल्वर बरामद हुआ।
पुलिस इंस्पेक्टर तारिणी मुखर्जी हॉस्पिटल ले जाते वक्त रास्ते मे मर गया।
रामकृष्ण विश्वास को फांसी व पद चक्रवर्ती को आजन्म काला पानी की सजा हुई । रामकृष्ण विश्वास को अलीपुर सेंट्रल जेल में 4 अगस्त 1931 को फांसी दी गई
हिंदुस्तान रिपब्लिकन आर्मी चटगांव के 6 क्रांतिकारियों का एक दल मुकाबले के बाद अलग हो गया था। इन लोगों ने चटगांव के यूरोपियन क्लब पर आक्रमण करने की योजना बनाई। यूरोपियन क्लब चटगांव क्रांतिकारियों के एजेंडे में था। स्वदेश रे , रजत सेन देव प्रसाद गुप्ता और मनोरंजन सेन पूरी तैयारी के साथ चले । पुलिस को इसकी सूचना मिल गई और पुलिस ने पीछा किया कालारपोल स्थान पर पुलिस ने घेर लिया। यहां से मुकाबला करते हुए निकल गए व रात्रि को पास ही जुलडा गांव में रुके पुलिस रात भर पीछा करती हुई वहां पर भी पहुंच गई पुलिस ने चारों तरफ से घेर लिया फायरिंग शुरू हुई । क्रांतिकारियों के पास गोलियां खत्म होने लगी तो इन्होंने निर्णय लिया कि पुलिस के हाथों गिरफ्तार होने से पुलिस को सम्मान मिलेगा व जेल यातनाएं झेलने से अच्छा है आत्म बलिदान करें। सब ने एक दूसरे के गोली मारकर आत्मबल दान का एक विचित्र उदाहरण पेश किया ।
तारकेश्वर दस्तीदार व दल के कुछ क्रांतिकारी ‘गोहिरा” नामक गांव में रुके हुए थे पुलिस को सूचना मिल गई दिनांक 19 मई 1933 को पुलिस ने मकान को घेर कर निराकरण कर दिया कुछ देर दोनों तरफ से मुकाबला हुआ तारकेश्वर दस्तीदार और 1 साथी भागने में सफल हुए। पूर्ण चंद तालुकदार और मनोरंजन दास पुलिस फायरिंग में शहीद हो गए।
एक 15 वर्ष के बाल क्रांतिकारी हरिपद भट्टाचार्य ने 30 अगस्त 1931 को पुलिस इंस्पेक्टर खान बहादुर असनुल्ला का वध करने हेतु फुटबॉल मैदान में खान को गोलियों से उड़ा दिया बालक भागा नहीं मौका पर पकड़ लिया गया ।
बाल क्रांतिकारी की मुक्कों व ठोकर से पिटाई गई। गिरफ्तारी के बाद मुकदमा व दिनाँक 22 दिशम्बर 1931 को हरिपद को हत्या एवं अवैध हथियार रखने के जुर्म में आजीवन काला पानी की सजा दी गई।
दिनाँक 31 अगस्त 1930 रात्रि को चंदननगर मकान को लिया गया ।दोनों तरफ से मुकाबला हुआ एक क्रांतिकारी जीवन घोषाल को गोली लगी और गणेश घोष, लोकनाथ बल व आनंद गुप्त को गिरफ्तार कर लिया गया। इस एक्शन को “मिडनाइट ड्रामा” के नाम से जाना जाता है।
चटगांव क्षेत्र के पाटिया नामक स्थान के थानेदार माखनलाल दीक्षित ने कोइराला गांव के एक जमीदार नेत्रसेन को अपने साथ मिला लिया और उसे 10000 रुपये का प्रलोभन दिया। इस षड्यंत्र के द्वारा नेत्रसेन ने मास्टर दा को अपने पास बुलाया। मास्टर दा दिनांक 16 फरवरी 1933 को रात्रि को अपने आठ साथियों के साथ गांव कोइराला में नेत्रसेन के पास मेहमान बन पहुंच गए ।
उनके साथ दल की एक महिला सैनिक कल्पना दत्त भी थी।
नेत्रसेन ने इनाम के लालच में मुखबिरी की जिस पर मास्टर दा को 16 फरवरी 1933 को गिरफ्तार कर लिया गया । लेकिन चटगांव क्रांतिकारियों ने नेत्र सेन को ब्रिटिश सरकार से इनाम के 10,000 रुपये प्रप्त करने से पहले कुछ गोलीयां इनाम में दे दी।
जेल में अमानवीय यातनाओं को सहने के बाद 12 जनवरी 1934 मास्टर दा व तारेश्वर दस्तीदार को फांसी दी गयी।
मास्टर दा ने आखरी सांस बंदे मातरम् के साथ लिया। अत्याचारियों ने शव को फांसी के तख्ते लटका दिया। उसी रात तारकेश्वर दस्तीदार को भी फाँसी दे दी गई । दोनों की शवों को समुद्र में फेंक दिया गया।
अल्लूरी सीताराम राजू: आदिवासियों के नायक और अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष
अल्लूरी सीताराम राजू भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के उन क्रांतिकारियों में से एक थे, जिन्होंने जंगलों में रहकर और आदिवासी समुदायों के साथ मिलकर ब्रिटिश शासन के खिलाफ संघर्ष किया। उनका जन्म तिथि स्पष्ट नहीं है, लेकिन माना जाता है कि उनका जन्म 4 जुलाई, 4 जनवरी या 15 जनवरी 1897 को पाण्डुरंगी (पन्ड्रिक), विशाखापटनम, आंध्र प्रदेश में हुआ था।
सीताराम राजू ने अपनी जिंदगी के पहले कुछ साल संन्यासी के रूप में बिताए, लेकिन 1921 में असहयोग आंदोलन में भाग लिया और स्वतंत्रता संग्राम की दिशा में कदम बढ़ाया। असहयोग आंदोलन के असफल होने के बाद, उन्होंने सशस्त्र संघर्ष को अपनाने का निर्णय लिया और एक 300 सैनिकों की मजबूत सेना तैयार की।
बीरेयादौरा और सीताराम राजू की मुलाकात
सीताराम राजू का नाम आदिवासियों के बीच बड़े सम्मान के साथ लिया जाता था। उनके संघर्ष के सबसे अहम मोड़ पर बीरेयादौरा नामक एक वीर ने आदिवासी समुदाय के बीच छापामार दस्ते का गठन किया और ब्रिटिश शासन के खिलाफ बिगुल बजाया था। बीरेयादौरा को गिरफ्तार कर लिया गया, लेकिन वह जेल से फरार होकर जंगल में लौट आया। ब्रिटिश सरकार ने उसकी फांसी की सजा तय कर दी थी, लेकिन सीताराम राजू ने उसे बचाने की ठान ली।
एक दिन पुलिस बीरेयादौरा को अदालत ले जा रही थी, तब सीताराम राजू और उनके सैनिकों ने रास्ते में घेराबंदी की और एक भयंकर गोलीबारी के बीच बीरेयादौरा को छुड़ा लिया। इस मुठभेड़ में राजू के किसी भी सैनिक को कोई हानि नहीं हुई, और राजू ने ब्रिटिश पुलिस को खुली चुनौती दी कि वह चाहे तो उन्हें पकड़कर दिखाए।
गदर पार्टी के क्रांतिकारी और राजू की योजना
राजू का विरोध ब्रिटिश सरकार के लिए बहुत बढ़ चुका था। उन्होंने कई पुलिस थानों को लूटकर हथियार इकट्ठा किए और गदर पार्टी के क्रांतिकारी बाबा पृथ्वी सिंह को छुड़ाने का ऐलान किया। राजू की योजना से पुलिस ने सतर्क होकर आस-पास के थानों से पुलिस को तैनात कर दिया। फिर भी, राजू ने अपनी चतुराई का इस्तेमाल किया और अलग-अलग टोलियों के माध्यम से कई थानों पर हमला किया, हथियार लूटे और अपने अभियान को और मजबूत किया।
रम्पा क्षेत्र और ब्रिटिश पुलिस के खिलाफ संघर्ष
राजू का ठिकाना आंध्र प्रदेश का रम्पा क्षेत्र था, जहाँ के आदिवासी समुदाय ने उन्हें दिल से अपना नेता मान लिया था। यहां राजू और उनकी सेना को मुखबिरी का डर नहीं था। ब्रिटिश सरकार ने बाहर से भारी पुलिस दल भेजा, लेकिन राजू और उनके सैनिकों ने उनकी चुनौती का सामना किया। ओजेरी गांव में एक बड़ी मुठभेड़ हुई, जिसमें राजू और उनके सैनिकों ने ब्रिटिश पुलिस अधिकारियों नेस्कोर्ट और आर्थर को मार गिराया।
अंतिम संघर्ष और शहादत
ब्रिटिश सरकार ने राजू के खिलाफ अपनी कार्रवाई को और तेज किया। 6 मई 1924 को ब्रिटिश सेना की असम राइफल्स ब्रिगेड को भेजा गया, और राजू को पकड़कर पेड़ से बांध दिया गया। उनके शरीर में गोलियां दागी गईं, और वह शहीद हो गए। इस संघर्ष में राजू के 12 सैनिक भी शहीद हुए, जबकि उनके सेनापति गौतम डोरे ने कमान संभाली, लेकिन वह भी शहीद हो गए। मल्लूडोरे को गिरफ्तार कर फांसी दी गई।
शत शत नमन शहीदों को
अल्लूरी सीताराम राजू और उनके साथी क्रांतिकारियों का संघर्ष भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में अमिट धरोहर के रूप में दर्ज है। उनका बलिदान यह दर्शाता है कि हर परिस्थिति में ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ संघर्ष करने के लिए साहस, समर्पण और अपार देशभक्ति की आवश्यकता होती है। राजू ने अपने संघर्ष से न केवल आदिवासी समुदायों को जागरूक किया, बल्कि ब्रिटिश शासन को भी चुनौती दी और भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका अदा की।
क्रांतिवीर गोपी मोहन साहा: एक साहसी क्रांतिकारी का अद्भुत संघर्ष
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में कई क्रांतिकारी थे जिन्होंने अपने प्राणों की आहुति देकर ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ जंग लड़ी। इनमें से एक क्रांतिकारी थे गोपी मोहन साहा, जिन्होंने अपनी वीरता और साहस के कारण इतिहास में अपना नाम दर्ज कराया। उनका संघर्ष बंगाल के आतंकित क्रांतिकारियों के बीच महत्वपूर्ण स्थान रखता है, खासकर टेगार्ट जैसे खतरनाक पुलिस अधिकारी के खिलाफ।
बंगाल में टेगार्ट का आतंक
1923 तक बंगाल में ब्रिटिश सरकार ने अपने नियंत्रण को सख्त किया था। बंगाल ऑर्डिनेंस के तहत क्रांतिकारियों के सभी ठिकानों पर छापे मारे जा चुके थे, और ब्रिटिश पुलिस अधिकारी टेगार्ट का आतंक चरम पर था। टेगार्ट, एक बेहद खतरनाक अधिकारी था, जिसकी मेज पर हमेशा एक बम पड़ा रहता था। एक बार तो उसके कार्यालय में बम फट गया, लेकिन टेगार्ट के चेहरे पर कोई शिकन नहीं आई। टेगार्ट ने ही बाघा जतिन और उनके साथियों का एनकाउंटर किया था, और उनके आतंक से पूरा बंगाल त्रस्त था।
गोपी मोहन साहा का साहसिक कदम
जनवरी 1924 में एक सुबह, जब कलकत्ता में घना कोहरा छाया हुआ था, एक युवक ने चौरंगी रोड पर एक ब्रिटिश अफसर को गोलियों से उड़ा दिया। यह युवक गोपी मोहन साहा था। वह टेगार्ट को मारने के लिए निकला था, लेकिन कोहरे के कारण उसने टेगार्ट को पहचानने में गलती की और एक अन्य ब्रिटिश अधिकारी, ई डे को मार डाला। इस घटना में गोपी मोहन साहा ने और भी तीन लोगों को घायल किया, लेकिन अंततः वह पकड़े गए।
अदालत में गोपी मोहन साहा का साहस
गोपी मोहन साहा की गिरफ्तारी के बाद उन्हें अदालत में पेश किया गया। जब अदालत में उनके खिलाफ आरोप लगाए जा रहे थे, तो गोपी मोहन साहा ने बिना किसी डर के अपना बयान दिया। उन्होंने कहा, “मैं तो मिस्टर टेगार्ट को मारना चाहता था, लेकिन पहचान में गलती हो गई। निर्दोष ई डे के मारे जाने का मुझे अफसोस है।” इसके साथ ही उन्होंने अदालत में टेगार्ट को चुनौती देते हुए कहा, “अगर बंगाल में एक भी क्रांतिकारी है, तो वह मेरा अधूरा काम पूरा करेगा।”
गोपी मोहन साहा ने अदालत में अपने आरोपियों को खुले तौर पर चुनौती दी और कहा, “आरोप लगाने में कंजूसी मत कीजिए, दो-चार धाराएं लगाई जा सकती हैं तो लगाइए।” उनकी यह साहसिकता और सच्चाई की ओर झुकी हुई निष्ठा उन्हें अन्य क्रांतिकारियों से अलग बनाती है।
फांसी की सजा और शहादत
अदालत ने 16 फरवरी 1924 को गोपी मोहन साहा को फांसी की सजा सुनाई और 1 मार्च 1924 को उन्हें फांसी दे दी गई। उनकी शहादत भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में एक मील का पत्थर है। गोपी मोहन साहा का बलिदान यह बताता है कि स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए न केवल बलिदान की आवश्यकता होती है, बल्कि दृढ़ संकल्प और साहस भी बहुत महत्वपूर्ण होते हैं।
शत शत नमन शहीद गोपी मोहन साहा को
गोपी मोहन साहा जैसे क्रांतिकारी हमारे देश के स्वतंत्रता संग्राम के अनमोल नायक हैं, जिन्होंने अपनी जान की बाजी लगा दी, लेकिन कभी अपनी ज़िंदगी का मूल्य नहीं समझा। उनका यह साहस, समर्पण और देशभक्ति आज भी हमें प्रेरित करता है। हमें गर्व है कि हमें ऐसे महान क्रांतिकारियों के बारे में जानने और उन्हें याद करने का अवसर मिला है।
मुकंदी लाल गुप्ता: एक महान क्रांतिकारी की संघर्षगाथा
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में कई ऐसे क्रांतिकारी थे, जिन्होंने देश को स्वतंत्रता दिलाने के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया। ऐसे ही एक महान क्रांतिकारी थे मुकंदी लाल गुप्ता। उनका योगदान भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में अत्यधिक महत्वपूर्ण रहा है, और उनकी वीरता तथा बलिदान हमेशा याद रखे जाएंगे।
प्रारंभिक जीवन और मातृ देवी संगठन में भागीदारी
मुकंदी लाल गुप्ता का जन्म औरैया, इटावा में हुआ था। उनका परिचय उस समय के प्रमुख क्रांतिकारी नेता गेंदालाल दीक्षित के साथ हुआ, जो “मातृ देवी” क्रांतिकारी संगठन के कमांडर इन चीफ थे। मातृ देवी का उद्देश्य ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ सशस्त्र क्रांति करना था। इस संगठन के सदस्य हथियारों के लिए धन जुटाने के लिए धनी व्यक्तियों के यहां डाका डालने की योजना बनाते थे, ठीक वैसे ही जैसे आयरलैंड के क्रांतिकारी करते थे।
एक दिन, मातृ देवी के संगठन ने एक बड़े आसामी के यहां डाका डालने की योजना बनाई, लेकिन दुर्भाग्यवश एक पुलिस मुखबिर ने जानकारी दे दी, जिससे संगठन के सदस्यों को गिरफ्तार किया गया। इस योजना की विफलता ने मुकंदी लाल गुप्ता को जेल की हवा दी, और उन्हें मैनपुरी केस में 6 वर्ष का कठोर कारावास हुआ। जेल में रहते हुए उन्हें अमानवीय यातनाएं दी गईं, लेकिन उनका साहस और संघर्ष कभी कम नहीं हुआ।
क्रांतिकारी गतिविधियों में फिर से सक्रियता
6 वर्ष की सजा काटने के बाद, मुकंदी लाल गुप्ता ने शांत बैठने के बजाय, क्रांतिकारी संगठन हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन (HRA) में अपनी सक्रिय भागीदारी बढ़ाई। इस दौरान पंडित राम प्रसाद बिस्मिल और उनके साथियों ने काकोरी एक्शन की योजना बनाई थी। मुकंदी लाल गुप्ता को काकोरी एक्शन के दौरान एक महत्वपूर्ण कार्य सौंपा गया था। उन्हें ट्रेन में बैठे यात्रियों को डराने के लिए रिवाल्वर से फायरिंग करनी थी, ताकि कोई भी क्रांतिकारी पकड़ में न आए।
9 अगस्त 1925 को काकोरी एक्शन सफलता पूर्वक संपन्न हुआ। इस एक्शन के दौरान कोई भी क्रांतिकारी पकड़ा नहीं गया, लेकिन एक सरकारी गवाह बनवारी लाल ने पुलिस को दल की सारी जानकारी दे दी। इसके परिणामस्वरूप मुकंदी लाल गुप्ता समेत कुल 40 क्रांतिकारियों को गिरफ्तार किया गया। काकोरी केस में बिस्मिल, राजेंद्र लाहिड़ी, अशफाक उल्ला खान और ठाकुर रोशन सिंह को फांसी की सजा दी गई, जबकि शचिंद्र सान्याल, शचींद्र बख्शी और मुकंदी लाल गुप्ता को आजीवन काला पानी की सजा दी गई।
द्वितीय विश्व युद्ध और पुनः संघर्ष
द्वितीय विश्व युद्ध के बाद, जब ब्रिटिश सरकार ने आम रिहाई की प्रक्रिया शुरू की, तो मुकंदी लाल गुप्ता को भी रिहा किया गया। लेकिन उन्होंने न तो देश की गुलामी को स्वीकार किया और न ही अपने संघर्ष को खत्म किया। 1942 में, उन्होंने असहयोग आंदोलन में भाग लिया और इसके लिए उन्हें फिर से 7 साल की कठोर कारावास की सजा हुई।
मैनपुरी एक्शन में भागीदारी और मातृ देवी की योजनाएं
मुकंदी लाल गुप्ता मैनपुरी एक्शन में भी सक्रिय थे, हालांकि इस समय बिस्मिल फरार थे। मैनपुरी एक्शन की कार्यवाही में उन्हें एक अखबार बांटने वाला हॉकर बताया गया था। इस दौरान, मातृ देवी संगठन ने संयुक्त प्रांत के पुलिस और प्रशासन के 12 बड़े अधिकारियों की हत्या करने की योजना बनाई थी, लेकिन पुलिस को यह योजना पहले ही भांपने में सफलता मिल गई, जिससे यह प्रयास असफल हो गया।
समाप्ति और शहादत
मुकंदी लाल गुप्ता का जीवन भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के अद्वितीय वीरता और बलिदान की मिसाल है। उनके संघर्षों ने हमें यह सिखाया कि स्वतंत्रता की प्राप्ति के लिए न केवल शारीरिक बल की आवश्यकता होती है, बल्कि मानसिक दृढ़ता और देशभक्ति भी अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। उनका जीवन समर्पण, संघर्ष और बलिदान का प्रतीक बना, और वे हमारे लिए हमेशा प्रेरणा स्रोत रहेंगे।
शत शत नमन शहीद मुकंदी लाल गुप्ता को
उनके योगदान को याद करना और उनके कार्यों को सम्मानित करना हमारे कर्तव्य की तरह है। हम सभी को उनकी वीरता से प्रेरणा लेनी चाहिए, ताकि हम भी अपने देश की सेवा में अपना योगदान दे सकें।
काकोरी वीर रामकृष्ण खत्री: एक महान क्रांतिकारी की प्रेरक यात्रा
भारत का स्वतंत्रता संग्राम उन वीर क्रांतिकारियों की प्रेरणादायक गाथाओं से भरा पड़ा है जिन्होंने अपनी जान की परवाह किए बिना देश को स्वतंत्रता दिलाने के लिए संघर्ष किया। इनमें से एक महत्त्वपूर्ण नाम है रामकृष्ण खत्री का। उनका जीवन हमें यह सिखाता है कि देशप्रेम और बलिदान के लिए किसी भी रूप में समर्पण की आवश्यकता होती है, चाहे वह धर्म, समाज या किसी भी रूप में हो।
प्रारंभिक जीवन और सन्यास
रामकृष्ण खत्री का जन्म 3 मार्च 1902 को चिखली, जिला बुलढाणा, महाराष्ट्र में हुआ था। वे बचपन से ही बाल गंगाधर तिलक के विचारों से प्रभावित थे। तिलक जी के विचारों ने उन्हें युवा अवस्था में ही संन्यास लेने के लिए प्रेरित किया। रामकृष्ण ने अपनी ज़िंदगी को तपस्वी रूप में बिताने का निर्णय लिया और स्वामी गोविंद प्रकाश के नाम से सन्यासी बन गए।
चंद्रशेखर आजाद से मुलाकात
स्वामी गोविंद प्रकाश के रूप में रामकृष्ण खत्री एक महंत के शिष्य के रूप में रहे। इस दौरान उनकी मुलाकात चंद्रशेखर आजाद से हुई। दोनों पहले से एक दूसरे को जानते थे। चंद्रशेखर आजाद ने रामकृष्ण से महंत के संपत्ति से जुड़ी योजना के बारे में बताया। यह योजना क्रांतिकारी दल के लिए थी, ताकि महंत की संपत्ति का उपयोग भारत की स्वतंत्रता के लिए किया जा सके।
बातचीत के दौरान आजाद ने रामकृष्ण को देशभक्ति के लिए प्रेरित किया और उनका हृदय परिवर्तित हो गया। इसके बाद, रामकृष्ण खत्री ने अपने सन्यासी जीवन को छोड़कर हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन (HRA) से जुड़ने का निर्णय लिया। अब वे एक क्रांतिकारी के रूप में देश की स्वतंत्रता संग्राम में भागीदार बन गए।
काकोरी एक्शन में भूमिका
रामकृष्ण खत्री को अपनी मराठी भाषा के ज्ञान की वजह से भारतीय क्रांतिकारी दल ने महत्वपूर्ण कार्य सौंपे। बिस्मिल ने उन्हें उत्तरप्रदेश से मध्यप्रदेश भेजा, ताकि दल का विस्तार किया जा सके। काकोरी एक्शन के बाद जब पूरे भारत में गिरफ्तारी की लहर दौड़ी, तो रामकृष्ण खत्री को भी गिरफ्तार कर लिया गया। हालांकि, वे काकोरी एक्शन में सीधे तौर पर शामिल नहीं थे, फिर भी उन्हें इस घटना से जोड़ते हुए मुकदमा चलाया गया।
उन्हें मध्य भारत और महाराष्ट्र में HRA के विस्तार के लिए दोषी ठहराया गया और दस साल की सजा सुनाई गई। वे लखनऊ जेल में अन्य क्रांतिकारियों के साथ कैद रहे।
सजा और पुनः संघर्ष
रामकृष्ण खत्री ने जेल में सजा काटने के बाद कभी भी संघर्ष नहीं छोड़ा। जेल से रिहा होने के बाद, उन्होंने क्रांतिकारी राजकुमार सिन्हा के घर का प्रबंध किया और योगेश चन्द्र चटर्जी की रिहाई के लिए प्रयास किए। उन्होंने केवल क्रांतिकारी आंदोलन को आगे बढ़ाने के लिए काम नहीं किया, बल्कि जेल में बंद अन्य राजनीतिक कैदियों की रिहाई के लिए भी संघर्ष किया।
“शहीदों की छाया” पुस्तक
रामकृष्ण खत्री का योगदान केवल शारीरिक संघर्ष तक ही सीमित नहीं था। उन्होंने अपने अनुभवों और संघर्षों को लेखन के रूप में भी प्रस्तुत किया। उन्होंने एक पुस्तक “शहीदों की छाया” प्रकाशित की, जिसमें उन्होंने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के क्रांतिकारियों के बारे में लिखा। यह पुस्तक न केवल उनके संघर्षों को रेखांकित करती है, बल्कि आने वाली पीढ़ी के लिए एक अमूल्य धरोहर बन गई है।
समाप्ति और श्रद्धांजलि
रामकृष्ण खत्री का जीवन एक प्रेरणा है, जो हमें बताता है कि वास्तविक स्वतंत्रता केवल बाहरी संघर्ष से नहीं, बल्कि आंतरिक परिवर्तन और दृढ़ निश्चय से प्राप्त होती है। उन्होंने अपना जीवन देश के लिए समर्पित किया, और उनकी शहादत हमेशा हमारे दिलों में जीवित रहेगी।
शत शत नमन शहीद रामकृष्ण खत्री को।
उनके संघर्ष और बलिदान को याद करते हुए, हम सभी को यह संकल्प लेना चाहिए कि हम अपने देश की सेवा में अपना योगदान देंगे।
काकोरी वीर मन्मंथ गुप्त: एक महान क्रांतिकारी का जीवन संघर्ष
भारत के स्वतंत्रता संग्राम में कई वीर योद्धाओं का योगदान रहा है, जिन्होंने अपने जीवन को देश की सेवा में समर्पित कर दिया। उनमें से एक महत्त्वपूर्ण नाम है मन्मंथ गुप्त का, जो अपनी निर्भीकता, साहस और संघर्ष के लिए हमेशा याद किए जाएंगे। उनका जीवन एक प्रेरणा है, जो हमें यह सिखाता है कि किस तरह एक युवा भी अपने देश के लिए अपार बलिदान दे सकता है।
प्रारंभिक जीवन और शिक्षा
मन्मंथ गुप्त का जन्म 7 फरवरी 1908 को बनारस में हुआ था। आपके पिता श्री वीरेश्वर जी एक सज्जन और उच्च विचार वाले व्यक्ति थे। मन्मंथ गुप्त ने अपनी शिक्षा काशी विद्यापीठ से प्राप्त की और विशारद की परीक्षा उत्तीर्ण की। मात्र 14 वर्ष की आयु में जब प्रिंस एडवर्ड बनारस आए थे, तो आपने क्रांतिकारी कार्य के तहत पर्चे बांटे थे। इस कृत्य के कारण आपको तीन माह की सजा भी भुगतनी पड़ी, लेकिन इसका असर उनके संकल्प पर नहीं पड़ा।
असहयोग आंदोलन और सशस्त्र क्रांति की ओर
महात्मा गांधी द्वारा असहयोग आंदोलन को वापस लेने के बाद मन्मंथ गुप्त का संपर्क बंगाल के क्रांतिकारियों से हुआ और उन्होंने सशस्त्र क्रांति के पथ पर आगे बढ़ने का निर्णय लिया। उन्होंने हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन (HRA) से जुड़कर क्रांतिकारी गतिविधियों में भाग लिया। उनका समर्पण और कड़ा संघर्ष भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में अमूल्य योगदान के रूप में उभरा।
काकोरी एक्शन में भूमिका
मन्मंथ गुप्त काकोरी एक्शन के समय भी दल के साथ थे। जब काकोरी ट्रेन में अशफाक उल्ला खान खजाने वाला बक्सा तोड़ रहे थे, तो मन्मंथ गुप्त को माउज़र दिया गया था ताकि वे ट्रैन में बैठे यात्रियों को डराकर स्थिति को नियंत्रित कर सकें। इसी दौरान एक दुर्घटना हुई, जिसमें अहमद अली नामक यात्री की मृत्यु हो गई, और मन्मंथ गुप्त को इस हत्या का दोषी ठहराया गया। हालांकि उनकी आयु कम होने के कारण उन्हें केवल 14 वर्ष की सजा सुनाई गई।
संघर्ष और जीवन की शिक्षाएँ
मन्मंथ गुप्त के पिता, श्री वीरेश्वर जी, जब उनसे मिलने जेल आए, तो वे अपने पुत्र को रोते हुए देख कर भावुक हो गए। लेकिन मन्मंथ गुप्त के पिता ने उन्हें समझाया और कहा, “I don’t expect tears in eyes of my son.” यह शब्द मन्मंथ गुप्त के जीवन का एक अहम मोड़ साबित हुए। इसके बाद उन्होंने न केवल अपनी सजा को धैर्य से सहा, बल्कि क्रांतिकारी आंदोलन में अपनी भागीदारी को भी मजबूती से जारी रखा।
लेखन और पुस्तकें
मन्मंथ गुप्त का जीवन केवल क्रांतिकारी कार्यों तक सीमित नहीं था, बल्कि वे एक लेखक भी थे। उन्होंने हिंदी, इंग्लिश और बंगाली में लगभग 120 पुस्तकें लिखीं। उनकी लिखी किताबों में ‘भारतीय क्रांतिकारी आंदोलन का इतिहास’, ‘क्रांति युग के अनुभव’, ‘चंद्रशेखर आजाद’, ‘विजय यात्रा’, ‘यतींद्र नाथ दास’, ‘कांग्रेस के सौ वर्ष’ और ‘भगत सिंह एंड हिज टाइम्स’ जैसी प्रमुख पुस्तकें शामिल हैं। उनकी पुस्तकों ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम और क्रांतिकारियों की कड़ी मेहनत और संघर्ष को लोगों के सामने रखा। आपके द्वारा लिखित पुस्तकों में “द लिवड़ डेंजरसली“, ” रेमिनीसेंसेज ऑफ़ अ रेवोल्यूशनरी“, “आधी रात के अतिथि“, ” कांग्रेस के सौ वर्ष“, “दिन दहाड़े” ” सर पर कफन बाँध कर“, “तोड़म फोड़म“, “अपने समय का सूर्य:दिनकर“, और “शहादतनामा” मुख्य है।
सजा और रिहाई के बाद जीवन
मन्मंथ गुप्त को 1937 में जेल से रिहा किया गया। इसके बाद, उन्होंने सूचना प्रसारण मंत्रालय में कार्य किया और देश की सेवा में अपना योगदान दिया। उनके अनुभव और विचार उनके लेखन के माध्यम से देशवासियों तक पहुंचे।
काकोरी एक्शन पर आत्ममंथन
1997 में जब डीडी ने काकोरी एक्शन के 70 वर्ष पूरे होने पर एक डॉक्यूमेंट्री बनाई, तो मन्मंथ गुप्त ने उसमें अपनी भूमिका पर आत्ममंथन किया। उन्होंने काकोरी एक्शन के समय हुई गोली चलाने की गलती को स्वीकार किया। एक समय ऐसा भी आया था जब चंद्रशेखर आजाद ने भी गलती से माउज़र को खाली समझकर मन्मंथ गुप्त पर गोली चला दी थी, लेकिन वह गोली उनके सिर के पास से निकल गई थी।
अंतिम समय और श्रद्धांजलि
मन्मंथ गुप्त का स्वर्गवास 26 अक्टूबर 2000 को हुआ। उनका जीवन भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में हमेशा एक प्रेरणा के रूप में याद किया जाएगा। उन्होंने अपनी जवानी और समर्पण से यह साबित कर दिया कि एक युवा भी बड़े से बड़े संघर्ष में भाग लेकर देश के लिए बहुत कुछ कर सकता है।
बसंत कुमार बिश्वास: एक शहीद क्रांतिकारी का साहस और बलिदान
भारत के स्वतंत्रता संग्राम में उन क्रांतिकारियों का योगदान अत्यंत महत्वपूर्ण है जिन्होंने अपनी जान की परवाह किए बिना देश को ब्रिटिश शासन से मुक्त करने के लिए संघर्ष किया। ऐसे ही एक महान क्रांतिकारी थे बसंत कुमार बिश्वास, जिनका जीवन साहस, संघर्ष और बलिदान का प्रतीक बन गया।
प्रारंभिक जीवन और शिक्षा
बसंत कुमार बिश्वास का जन्म 6 फरवरी 1895 को पोरागाचा गाँव, जिला नादिया, पश्चिम बंगाल में हुआ था। उनका पालन-पोषण एक सामान्य भारतीय परिवार में हुआ, लेकिन उनके अंदर बचपन से ही देशप्रेम और क्रांति का जुनून था। इस जुनून ने उन्हें भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने के लिए प्रेरित किया।
रासबिहारी बोस के साथ क्रांतिकारी पथ
बसंत कुमार बिश्वास का संपर्क रासबिहारी बोस से हुआ, जो उस समय भारत के प्रमुख क्रांतिकारियों में से एक थे। रासबिहारी बोस के सानिध्य में उन्होंने ‘युगांतर’ नामक क्रांतिकारी दल में सक्रिय सदस्य के रूप में काम करना शुरू किया। इसके बाद बसंत कुमार बिश्वास ने देहरादून में रासबिहारी बोस के घर पर हरिदास के नाम से काम किया, और बाद में लाहौर में एक क्लीनिक में कंपाउंडर के रूप में कार्य किया।
क्रांतिकारी गतिविधियाँ और कार्य
बसंत कुमार बिश्वास और उनके साथियों ने कई क्रांतिकारी कार्रवाइयों को अंजाम दिया, जिनमें से सबसे प्रमुख दिल्ली और लाहौर के बम हमले थे। 23 दिसम्बर 1912 को दिल्ली में वॉयसराय हार्डिंग पर एक महिला के रूप में बम फेंका गया, और 17 मई 1913 को लाहौर में लॉरेंस गार्डन में सिविल ऑफिसर्स को उड़ाने के लिए बम फेंके गए। इन दोनों हमलों के बाद किसी की गिरफ्तारी नहीं हुई, लेकिन पुलिस ने छापेमारी की और संदिग्ध व्यक्तियों को गिरफ्तार किया।
इन कार्यों में टीमवर्क का बहुत बड़ा योगदान था। किसी ने टारगेट की सूचना दी, कोई टारगेट पर बम फेंकता या गोली चलाता, और एक सहायक सुनिश्चित करता था कि कार्य पूरा हुआ या नहीं। संभवत: बसंत कुमार बिश्वास और प्रताप सिंह बारठ इन दोनों हमलों में शामिल थे और उन्होंने इन कार्रवाईयों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।
गिरफ्तारी और सजा
इन क्रांतिकारी कार्यों के बाद पुलिस ने पूरे देश में छापे मारे और संदिग्ध व्यक्तियों को गिरफ्तार किया। इसी दौरान, कलकत्ता में राजा बाजार स्थित एक मकान से बम की टोपी और एक पत्र बरामद हुआ, जिसके आधार पर पुलिस ने दीनानाथ को गिरफ्तार किया। उसने अपने बयान में सब कुछ उगल दिया, जिसके चलते 26 फरवरी 1914 को बसंत कुमार बिश्वास की गिरफ्तारी हुई।
दिल्ली और लाहौर में हुए इन हमलों को लेकर दिल्ली षड्यंत्र के तहत बसंत कुमार बिश्वास और उनके साथियों को उम्रकैद की सजा सुनाई गई। लेकिन बाद में, ब्रिटिश शासक ओ डायर द्वारा अपील किए जाने पर इन सभी को फांसी की सजा दी गई।
शहादत
बसंत कुमार बिश्वास को 11 मई 1915 को अम्बाला केंद्रीय कारागार में फांसी दे दी गई। उनकी शहादत ने यह साबित कर दिया कि भारतीय क्रांतिकारी अपने देश की आज़ादी के लिए हर प्रकार का बलिदान देने के लिए तैयार थे। उनका बलिदान भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में हमेशा याद रखा जाएगा।
आखिरकार बलिदान का मूल्य
बसंत कुमार बिश्वास ने अपने प्राणों की आहुति देकर यह सिद्ध कर दिया कि स्वतंत्रता की प्राप्ति के लिए केवल विचार ही नहीं, बल्कि कार्य और संघर्ष की भी आवश्यकता होती है। उनका जीवन उन सभी युवाओं के लिए प्रेरणा है जो अपने देश की स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करना चाहते हैं।
शत-शत नमन शहीद बसंत कुमार बिश्वास को।
उनका जीवन हमारे लिए एक अमूल्य धरोहर है, जो हमें यह सिखाता है कि अपनी मातृभूमि के लिए किसी भी स्तर पर संघर्ष किया जा सकता है, चाहे वह आस्थाएँ हो, या जीवन का सर्वोत्तम बलिदान।
भाई बालमुकुंद: एक क्रांतिकारी जो इतिहास में अमर हो गए
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में अनेक शहीदों और क्रांतिकारियों का योगदान अत्यंत महत्वपूर्ण रहा है। इन महापुरुषों में से एक थे भाई बालमुकुंद, जिनका जीवन साहस, बलिदान और संघर्ष का प्रतीक बन गया। उनका योगदान न केवल भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में अनमोल है, बल्कि उनका नाम आज भी हर भारतीय के दिल में जीवित है।
प्रारंभिक जीवन और शिक्षा
भाई बालमुकुंद का जन्म 1889 में गांव खरियाला, जिला झेलम, पंजाब में हुआ था। एक सामान्य परिवार में जन्मे बालमुकुंद ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा में अच्छा प्रदर्शन किया। उन्होंने लाहौर डी. ए. वी. कॉलेज से B.A. की डिग्री प्राप्त की। शिक्षा में उत्कृष्टता के बावजूद, उनके मन में एक गहरी असंतोष था, जो उन्हें भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में कूदने के लिए प्रेरित किया।
क्रांतिकारी कार्यों की शुरुआत
लाहौर में शिक्षा प्राप्त करने के बाद, भाई बालमुकुंद का संपर्क रासबिहारी बोस से हुआ, जो उस समय भारत के प्रमुख क्रांतिकारी नेता थे। रासबिहारी बोस के नेतृत्व में उन्होंने ‘युगांतर’ जैसे क्रांतिकारी दल में सक्रिय भाग लिया और दल के कामकाज को संभाला। वे क्रांतिकारी पर्चा “लिबर्टी” का वितरण करते थे, जिसका उद्देश्य भारतवासियों में ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ विद्रोह की भावना जागृत करना था।
महत्वपूर्ण क्रांतिकारी घटनाएँ
भाई बालमुकुंद ने अपनी क्रांतिकारी गतिविधियों में सक्रिय रूप से भाग लिया। 23 दिसम्बर 1912 को दिल्ली में वॉयसराय हार्डिंग पर बम फेंका गया, और 17 मई 1913 को लाहौर के लॉरेंस गार्डन में ब्रिटिश सिविल ऑफिसर्स को निशाना बनाकर बम विस्फोट किए गए। दोनों ही घटनाओं ने ब्रिटिश शासन को हिलाकर रख दिया था, हालांकि इन घटनाओं के बाद कोई गिरफ्तारियाँ नहीं हुईं। इन क्रांतिकारी कार्रवाइयों से ब्रिटिश सरकार की नींव हिल गई थी और पुलिस ने देशभर में तलाशी और गिरफ्तारी की कार्रवाई शुरू कर दी।
गिरफ्तारी और फांसी की सजा
क्रांतिकारी गतिविधियों के बाद पुलिस ने जोधपुर में राजकुमार को शिक्षा देने वाले भाई बालमुकुंद को गिरफ्तार कर लिया। गिरफ्तार होने के बाद, पुलिस ने उन्हें दिल्ली-लाहौर षड्यंत्र के मामले में आरोपित किया। क्रांतिकारियों के खिलाफ उनके पास कोई ठोस सबूत नहीं था, केवल संभावनाओं और संदेह के आधार पर उन्हें फांसी की सजा दी गई।
फिर ओ डायर की अपील पर, सभी क्रांतिकारियों को फांसी की सजा दी गई, जिसमें मास्टर अमीरचंद, अवधबिहारी, बसंत कुमार बिस्वास, और भाई बालमुकुंद शामिल थे। इन सभी क्रांतिकारियों के खिलाफ किसी ठोस साक्ष्य की कमी थी, लेकिन ब्रिटिश सरकार ने उनके विरोध और संघर्ष को दबाने के लिए उन्हें मौत की सजा दी।
शहादत और अमरता
8 मई 1915 को दिल्ली जेल में भाई बालमुकुंद को फांसी दे दी गई। उनकी शहादत ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में एक नया मोड़ दिया। वे केवल एक क्रांतिकारी नहीं थे, बल्कि उन तमाम युवाओं के लिए प्रेरणा थे, जो अपने देश को ब्रिटिश साम्राज्य से मुक्ति दिलाने के लिए तैयार थे।
धरोहर और प्रेरणा
भाई बालमुकुंद का बलिदान यह साबित करता है कि भारत के स्वतंत्रता संग्राम के दौरान क्रांतिकारियों ने अपने प्राणों की आहुति दी, ताकि आने वाली पीढ़ियाँ स्वतंत्र और सम्मानित जीवन जी सकें। उनका जीवन एक प्रेरणा है कि हमें अपनी मातृभूमि के लिए किसी भी स्तर तक संघर्ष करने के लिए तैयार रहना चाहिए।
शत-शत नमन शहीद भाई बालमुकुंद को।
उनका बलिदान भारतीय इतिहास में सदैव अमर रहेगा, और उनकी शहादत हमें यह सिखाती है कि यदि हम एकजुट होकर अपने देश के लिए संघर्ष करें, तो कोई भी शक्ति हमें हमारे लक्ष्य से हटा नहीं सकती।
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में ऐसे अनेकों वीर क्रांतिकारी हुए हैं, जिन्होंने अपने प्राणों की आहुति देकर देश की स्वतंत्रता के लिए अपना योगदान दिया। उन्हीं शहीदों में से एक थे अवधबिहारी, जिनका जीवन साहस, संघर्ष और मातृभूमि के प्रति अनन्य निष्ठा का प्रतीक बन गया। उनका बलिदान भारतीय इतिहास में हमेशा याद किया जाएगा।
प्रारंभिक जीवन और शिक्षा
अवधबिहारी का जन्म 1869 में दिल्ली में हुआ था। प्रारंभिक शिक्षा पूरी करने के बाद उन्होंने B.A. की डिग्री प्राप्त की और फिर लाहौर सेंट्रल ट्रेनिंग कॉलेज से B.T. की डिग्री ली। शिक्षा के क्षेत्र में उनका सफर काफी प्रेरणादायक था, लेकिन उनका मन हमेशा से अपनी मातृभूमि की स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करने के लिए तैयार था।
क्रांतिकारी गतिविधियों में भागीदारी
रासबिहारी बोस के नेतृत्व में देश में कई स्थानों पर एक साथ बम विस्फोट करने की योजना बनाई गई, जिसका उद्देश्य अंग्रेजी अधिकारियों को निशाना बनाना था। अवधबिहारी ने इस क्रांतिकारी योजना में सक्रिय रूप से भाग लिया। उन्होंने उत्तर प्रदेश और पंजाब में क्रांतिकारी संगठन की जिम्मेदारी संभाली और अंग्रेजी साम्राज्य के खिलाफ अपने संघर्ष को तेज किया।
23 दिसम्बर 1912 को दिल्ली और 17 मई 1913 को लाहौर के लॉरेंस गार्डन में बम विस्फोट किए गए। इन हमलों के पीछे अवधबिहारी का हाथ था। लॉरेंस गार्डन में हुए बम विस्फोट को उन्होंने बसंत कुमार के साथ मिलकर अंजाम दिया था। यह एक्शन भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की महत्वपूर्ण घटनाओं में से एक माना जाता है।
गिरफ्तारी और फांसी की सजा
अवधबिहारी को अंततः कलकत्ता के राजा बाजार स्थित एक मकान से गिरफ्तार किया गया। वहां से पुलिस को बम की टोपी और लाहौर से हस्ताक्षरित एक पत्र मिला, जो दीनानाथ द्वारा लिखा गया था। दीनानाथ की गिरफ्तारी के बाद उसने पुलिस को सब कुछ बता दिया, जिससे अवधबिहारी की गिरफ्तारी सुनिश्चित हो गई।
अवधबिहारी और उनके साथियों को दिल्ली-लाहौर षड्यंत्र के आरोप में गिरफ्तार किया गया। इस षड्यंत्र के तहत वॉयसराय हार्डिंग पर बम हमले की योजना बनाई गई थी। पहले इन सभी क्रांतिकारियों को उम्रकैद की सजा सुनाई गई, लेकिन बाद में ओ डायर द्वारा अपील करने पर सभी को फांसी की सजा दी गई।
इस योजना में प्रतापसिंह जी बारठ और उनके बहनोई भी शामिल थे, लेकिन क्रांतिकारियों ने किसी भी अन्य का नाम नहीं लिया। यह उनका साहस और अनुशासन था, जो उन्हें एक सच्चे सेनानी बनाता है।
अंतिम शब्द और शहादत
11 मई 1915 को अंबाला जेल में अवधबिहारी को फांसी दी गई। फांसी से पहले एक अंग्रेज अधिकारी ने उनसे उनकी अंतिम इच्छा पूछी, तो उन्होंने उत्तर दिया, “यही कि अंग्रेजी साम्राज्य नष्ट भ्रष्ट हो जाए।”
अवधबिहारी ने हंसते हुए फांसी का फंदा अपने हाथों से पहना और ‘वंदेमातरम’ का उद्घोष करते हुए स्वतंत्रता संग्राम के यज्ञ में अपने प्राणों की आहुति दे दी। उनका यह साहस और बलिदान आज भी भारतीयों के दिलों में जीवित है।
धरोहर और प्रेरणा
अवधबिहारी का जीवन हमें यह सिखाता है कि स्वतंत्रता संग्राम केवल एक संघर्ष नहीं, बल्कि देश की आज़ादी के लिए शहादत देने का एक रास्ता था। उनका साहस, आत्मबल और मातृभूमि के प्रति निष्ठा आज भी हमारे लिए प्रेरणा का स्रोत है।
आपकी की गुनगुनाई हुई एक प्रसिद्ध लाइन थी:
“एहसान ना ख़ुदा का उठाएं मेरी बला, किश्ती ख़ुदा पे छोड़ दूं, लंगर को तोड़ दूं!“
शत-शत नमन शहीद अवधबिहारी को।
उनकी शहादत यह याद दिलाती है कि स्वतंत्रता के लिए हमें किसी भी कठिनाई से डरने की जरूरत नहीं है, बल्कि हमें अपने देश के लिए हर हाल में संघर्ष करना चाहिए।
मास्टर अमीरचंद भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के उन महान क्रांतिकारियों में से एक थे, जिनका योगदान भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन में अत्यधिक महत्वपूर्ण रहा। उनका जन्म 1869 में हैदराबाद में हुआ था, और वे दिल्ली के दो विद्यालयों में बच्चों को निःशुल्क शिक्षा देते थे। वे उर्दू, संस्कृत और अंग्रेजी के ज्ञाता थे, जो उनकी बहुमुखी प्रतिभा को दर्शाता है।
क्रांतिकारी यात्रा की शुरुआत
मास्टर अमीरचंद का जीवन देश की स्वतंत्रता के लिए समर्पित था। वे स्वदेशी आंदोलन के समर्थक थे और लाला हरदयाल के इंग्लैंड जाने के बाद उन्होंने उनके क्रांतिकारी दल का कार्य संभाला। उनका संबंध रासबिहारी बॉस से भी था, जो भारतीय क्रांतिकारी गतिविधियों का एक प्रमुख चेहरा थे। रासबिहारी बॉस के नेतृत्व में देश में कई स्थानों पर एक साथ बम विस्फोट कर फ़िरंगी अधिकारियों का वध करने की योजना बनाई गई थी, जिसमें मास्टर अमीरचंद का योगदान भी था।
स्वदेशी प्रदर्शनी और क्रांतिकारी योजनाएँ
मास्टर अमीरचंद ने 1912 में स्वदेशी प्रदर्शनी का आयोजन किया, जो उनके देशप्रेम और स्वदेशी वस्त्रों व उत्पादों के प्रचार-प्रसार का एक महत्वपूर्ण कदम था। इसी समय वे रासबिहारी बॉस के संपर्क में थे और क्रांतिकारी गतिविधियों में सक्रिय रूप से भाग लेते थे।
दिल्ली और पंजाब में बम विस्फोट
क्रांतिकारियों का उद्देश्य अंग्रेजों को यह एहसास दिलाना था कि वे दिल्ली ही नहीं, बल्कि लंदन में भी सुरक्षित नहीं हैं। 23 दिसंबर 1912 को वायसराय हार्डिंग की सवारी का जुलूस चाँदनी चौक में पंजाब नेशनल बैंक के पास पहुंचा, तो क्रांतिकारियों ने उसकी सवारी पर बम फेंका। दुर्भाग्यवश हार्डिंग बच गया, लेकिन उसका अंगरक्षक मारा गया। इस हमले से ब्रिटिश अधिकारियों के होश उड़ गए, और पूरी सुरक्षा व्यवस्था के बावजूद कोई भी क्रांतिकारी पकड़ में नहीं आया। इस हमले में प्रतापसिंह जी बारठ और उनके बहनोई भी शामिल थे। यह आक्रमण ब्रिटिश शासन के लिए एक बड़ा संदेश था।
गिरफ्तारियां और सजा
वायसराय हार्डिंग पर बम हमले के बाद ब्रिटिश सरकार ने दिल्ली-लाहौर षड्यंत्र या दिल्ली षड्यंत्र के नाम से एक मामला दर्ज किया, जिसमें सम्राट के विरुद्ध विद्रोह का आरोप लगाया गया। इस मामले में मास्टर अमीरचंद, अवध बिहारी, बालमुकुंद, और बसंत कुमार बिस्वास को उम्रभर की सजा दी गई। बाद में ओ डायर द्वारा अपील किए जाने पर सभी को फांसी की सजा दे दी गई।
मास्टर अमीरचंद के खिलाफ उनके ही दत्तक पुत्र सुल्तान चंद ने गवाही दी थी, और इसके बाद उन्होंने मास्टर साहब की सम्पत्ति प्राप्त की।
शहादत
मास्टर अमीरचंद का जीवन एक संघर्ष की गाथा है। वे भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के उन महान सेनानियों में से एक थे, जिन्होंने अपनी जान की बाजी लगाकर देश की स्वतंत्रता की नींव रखी। 19 फरवरी 1914 को गिरफ्तार होने के बाद उन्हें फांसी की सजा दी गई, और उनका बलिदान भारतीय इतिहास में अमर रहेगा।
शत-शत नमन शहीदों को!
मास्टर अमीरचंद के साहस, बलिदान और देशभक्ति को हमेशा याद किया जाएगा। उनके योगदान ने न केवल स्वतंत्रता संग्राम को गति दी, बल्कि आने वाली पीढ़ियों को भी संघर्ष और बलिदान का असली मतलब समझाया।
भारत के स्वतंत्रता संग्राम में जिन महान वीरों ने अपनी जान की बाज़ी लगाकर अंग्रेजों से स्वतंत्रता की मांग की, उनमें से एक क्रांतिवीर नाम था शिववर्मा का। उनका जन्म 9 फरवरी 1904 को उत्तरप्रदेश के हरदोई जिले के कलौरी गांव में हुआ था। शिववर्मा हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन (HRA) के महत्वपूर्ण और सक्रिय सदस्य थे। इस संगठन के प्रमुख क्रांतिकारियों जैसे चंद्रशेखर आज़ाद, भगतसिंह, सुखदेव, राजगुरु, और महावीर सिंह के साथ उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम की दिशा में कई महत्वपूर्ण कदम उठाए।
क्रांतिकारी जीवन की शुरुआत
शिववर्मा का छात्र जीवन डी.ए.वी. कॉलेज, कानपुर में बीता, जहां पर उनकी पहली मुलाकात भगतसिंह से जनवरी 1927 में हुई थी। इसी कॉलेज में हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन का गठन हुआ था और शिववर्मा इस दल में अग्रिम भूमिका में रहे।
शिववर्मा का छद्म नाम ‘प्रभात’ था और उन्होंने चंद्रशेखर आज़ाद और भगतसिंह जैसे क्रांतिकारियों के साथ काम किया। 8-9 सितम्बर 1928 को दिल्ली के फिरोजशाह कोटला में इस दल के पुनर्गठन में भी वह केंद्रीय समिति के सदस्य थे। इसके अलावा, उन्होंने ‘चांद’ पत्रिका में कई महत्वपूर्ण लेख भी लिखे, जिसमें उन्होंने भारतीय क्रांतिकारी गतिविधियों पर प्रकाश डाला।
बम निर्माण और साहसिक कार्य
शिववर्मा का योगदान केवल विचारों तक सीमित नहीं था। उन्होंने नूरी गेट, दिल्ली में एक मकान किराए पर लेकर बम बनाने का प्रशिक्षण लिया था। इसके बाद, उन्होंने सहारनपुर में एक बम फैक्ट्री भी स्थापित की थी। 1929 में वायसराय इरविन को बम से उड़ाने के एक्शन में वह बैकअप भूमिका में थे। हालांकि, एक ग़लत सिग्नल के कारण यह एक्शन पूरा नहीं हो सका, लेकिन शिववर्मा की साहसिकता और रणनीति का उदाहरण मिलता है।
गिरफ्तारी और जेल यात्रा
शिववर्मा की क्रांतिकारी यात्रा एक कठिन दौर से गुज़री। उन्हें और उनके साथी जयदेव कपूर को जेल से फरार होने के बाद फिर से पकड़ लिया गया। द्वितीय लाहौर एक्शन में उन्हें उम्र भर की सजा दी गई। इसके बाद उन्होंने लाहौर, राजमुंद्री, दमदम, नैनी, लखनऊ, हरदोई, और अंडमान की जेलों में कुल 16 साल, 9 महीने और 7 दिन तक कठिन यातनाएँ सहन कीं।
अंडमान में उनकी आँखें खराब हो गईं, लेकिन उनके संघर्ष की भावना कभी कमजोर नहीं पड़ी। उन्होंने कई बार सशर्त रिहाई के प्रस्तावों को ठुकराया और एक पत्र लिखा, जो आज एक ऐतिहासिक दस्तावेज के रूप में प्रसिद्ध है। शिववर्मा और जयदेव ने इस पत्र में साफ़ कहा कि वे किसी भी सशर्त रिहाई को स्वीकार नहीं करेंगे और न ही कैदियों को दी जाने वाली पेंशन लेंगे।
स्वतंत्रता संग्राम के बाद की यात्रा
आजादी के बाद भी शिववर्मा ने अपनी राजनीतिक गतिविधियों को जारी रखा। वह कम्युनिस्ट पार्टी में शामिल हो गए और भारतीय राजनीति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। 1948, 1962 और 1965 में भी उन्हें गिरफ्तार कर जेल भेजा गया। उनका जीवन स्वतंत्रता संग्राम की अद्वितीय गाथा का प्रतीक बन गया।
अंतिम समय
शिववर्मा का निधन 10 जनवरी 1997 को हुआ, जब वे अपने साथियों और शहीदों से मिलने के लिए दुनिया को अलविदा कह गए। उनका जीवन संघर्ष, समर्पण और देशभक्ति का अद्वितीय उदाहरण है। उनके योगदान को कभी भुलाया नहीं जा सकता।
शत-शत नमन शहीद शिववर्मा को!
उनके साहस और देशभक्ति के कार्य हमेशा प्रेरणा के रूप में जीवित रहेंगे।
क्रांतिवीर सत्येंद्र कुमार बसु : स्वतंत्रता संग्राम के अद्वितीय योद्धा
भारत के स्वतंत्रता संग्राम की गाथा अनगिनत वीरों के त्याग और बलिदान से सजी हुई है। ऐसे ही एक अप्रतिम क्रांतिकारी थे सत्येंद्र कुमार बसु, जिनका जन्म 30 जुलाई 1882 को मिदनापुर, बंगाल में हुआ था। वे बाल्यकाल से ही ओजस्वी प्रवृत्ति के थे और जब वे अरविंद घोष जैसे महान विचारक और क्रांतिकारी के संपर्क में आए, तब उन्होंने देश को आज़ाद कराने का संकल्प लिया।
क्रांतिकारी पथ की शुरुआत
सत्येंद्र बसु ने विदेशी वस्त्रों के बहिष्कार आंदोलन में बढ़-चढ़कर भाग लिया। वे युवाओं को जागरूक करने के लिए “छात्र-भंडार” नाम की संस्था चलाते थे, जो देशभक्ति की भावना का प्रचार-प्रसार करती थी। वे युवाओं को स्वतंत्रता संग्राम से जोड़ने में सक्रिय भूमिका निभाते थे।
खुदीराम बोस को युगांतर दल से जोड़ने की भूमिका
प्रसिद्ध क्रांतिकारी खुदीराम बोस, जिन्होंने प्रफ्फुल चाकी के साथ मिलकर मुजफ्फरपुर में ब्रिटिश अधिकारी किंग्सफोर्ड की गाड़ी पर बम फेंका था, को युगांतर दल से जोड़ने का श्रेय भी सत्येंद्र बसु को जाता है। उन्होंने ऐसे अनेक युवाओं को क्रांतिकारी गतिविधियों से जोड़ा।
गिरफ्तारी और अलीपुर षड्यंत्र
सत्येंद्र बसु को बिना लाइसेंस के अपने भाई की बंदूक रखने के आरोप में दो वर्ष की कारावास की सजा हुई और उन्हें अलीपुर जेल भेजा गया। संयोगवश, उस समय अलीपुर जेल में पहले से ही कई क्रांतिकारी “अलीपुर एक्शन” (बम बनाने के मामले) में बंद थे। सत्येंद्र बसु के इन क्रांतिकारियों से संबंध पाए जाने पर उनके खिलाफ एक और नया मुकदमा दर्ज किया गया।
जेल में ही न्याय की मिसाल
अलीपुर षड्यंत्र मामले में एक आरोपी नरेंद्र गोस्वामी सरकारी गवाह बन गया था और सितंबर 1908 में उसकी गवाही होनी थी। सत्येंद्र बसु ने अन्य क्रांतिकारियों के साथ विचार-विमर्श कर तय किया कि इस विश्वासघाती का अंत किया जाना चाहिए। इस मिशन में उनके साथ थे कन्हाई लाल दत्त। दोनों ने 31 अगस्त या 1 सितंबर 1908 को (तिथि विवादित है) जेल के अस्पताल में ही नरेंद्र गोस्वामी को गोली मारकर मौत के घाट उतार दिया।
बलिदान
ब्रिटिश सरकार ने सत्येंद्र बसु को इस “अपराध” के लिए मृत्युदंड दिया। 21 नवंबर 1908 को उन्हें फांसी दे दी गई। यह भारतमाता का वह सपूत था जिसने मुस्कराते हुए फांसी का फंदा चूमा। उनका अंतिम संस्कार जेल में ही कर दिया गया।
नमन है ऐसे अमर शहीद को
सत्येंद्र बसु जैसे वीरों के बलिदान से ही भारत स्वतंत्र हुआ। उनका साहस, संकल्प और बलिदान आज भी आने वाली पीढ़ियों को प्रेरणा देता है। शत-शत नमन है इस अमर बलिदानी को।
क्रांतिवीर कन्हाई लाल दत्त : मातृभूमि पर न्योछावर एक महान बलिदानी भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में अनेक ऐसे वीर क्रांतिकारी हुए जिन्होंने अपने प्राणों की आहुति देकर देश को गुलामी की जंजीरों से मुक्त करने का मार्ग प्रशस्त किया। इन्हीं अमर शहीदों में एक नाम है कन्हाई लाल दत्त का, जिनका बलिदान आज भी युवाओं के लिए प्रेरणा का स्रोत है।
जन्म और प्रारंभिक जीवन
कन्हाई लाल दत्त का जन्म सन 1887 में कृष्णाष्टमी के दिन चंदननगर (जिला हुगली, पश्चिम बंगाल) स्थित अपने ननिहाल में हुआ था। उनका पैतृक निवास श्रीरामपुर (बंगाल) में था। प्रारंभिक शिक्षा पूरी करने के बाद उन्होंने चंदननगर से स्नातक की डिग्री प्राप्त की और फिर कलकत्ता आ गए।
क्रांति पथ पर अग्रसर
कलकत्ता में वे ‘युगांतर’ क्रांतिकारी दल से जुड़ गए और सक्रिय सदस्य के रूप में कार्य करने लगे। उन्हें क्रांति की प्रेरणा अपने शिक्षक श्री चारु चंद्र राय से मिली थी, जिन्हें ब्रिटिश सरकार ने 19 मार्च 1909 को फांसी पर चढ़ा दिया था। चारु चंद्र राय पर आरोप था कि उन्होंने अलीपुर के सरकारी वकील आशुतोष की हत्या की थी।
मुजफ्फरपुर एक्शन और गिरफ्तारी
युगांतर दल के ही खुदीराम बोस और प्रफुल्ल चाकी ने कसाई काजी के नाम से कुख्यात मुजफ्फरपुर के जज किंग्सफोर्ड की गाड़ी पर बम फेंका था। इस एक्शन के बाद ब्रिटिश सरकार ने युगांतर के कलकत्ता स्थित सभी ठिकानों पर छापेमारी की। मानिकतला बाग से कन्हाई लाल दत्त को 34 अन्य क्रांतिकारियों के साथ गिरफ्तार कर अलीपुर जेल भेज दिया गया।
जेल में ऐतिहासिक बलिदान
अलीपुर षड्यंत्र मामले में युगांतर दल का एक सदस्य नरेंद्र गोस्वामी सरकारी गवाह बन रहा था। जब यह बात दल को पता चली, तब कन्हाई लाल दत्त और सत्येंद्र बसु ने एक योजना बनाई। उन्होंने नाटक करते हुए नरेंद्र से कहा कि वे भी सरकारी गवाह बनना चाहते हैं, जिससे उन्हें उससे मिलने का अवसर मिल गया।
इसके बाद उन्होंने जेल में दो रिवॉल्वर मंगवाए – एक अपने लिए और एक सत्येंद्र बसु के लिए। जैसे ही मौका मिला, 1 सितंबर 1908 को जेल के अस्पताल में दोनों ने मिलकर नरेंद्र गोस्वामी का अंत कर दिया।
बलिदान
ब्रिटिश सरकार ने इस कार्यवाही को देशद्रोह मानते हुए कन्हाई लाल दत्त को मृत्युदंड दिया। 10 नवंबर 1908 को उन्हें फांसी पर लटका दिया गया। उन्होंने हंसते-हंसते देश के लिए अपने प्राण न्योछावर कर दिए।
अमर शहीद को श्रद्धांजलि
कन्हाई लाल दत्त का जीवन साहस, त्याग और देशभक्ति की मिसाल है। उनका बलिदान आज भी हर देशभक्त के हृदय को गर्व से भर देता है। शत-शत नमन है ऐसे वीर बलिदानी को, जिन्होंने भारत माता की सेवा में अपना सर्वस्व अर्पण कर दिया।
यतींद्र नाथ दास उर्फ जतिन्द्र नाथ दास क्रांतिकारीयों के इतिहास में अनशन करते हए आत्मबलिदान करने वालों में थे।
आपका का जन्म 27 अक्टूबर 1904 को कलकत्ता में हुआ था ।
आप असहयोग आंदोलन में सक्रिय रहे थे । आपको दो बार कारावास में रखा गया था। असहयोग आंदोलन वापिस लिए जाने के बाद के आप भगत सिंह व अन्य साथियों के साथ क्रांतिकारी कार्यो में लग गए।
आपको काकोरी एक्शन में गिरफ्तार किया गया था परंतु आपके विरुद्ध कोई सबूत होने के कारण आपको काकोरी केस से तो निकाल दिया गया पर बंगाल ऑर्डिनेंस के अंतर्गत बंगाल में नजरबंद कर दिया गया।
आप जैसे ही नजरबंदी के मुक्त उन भगतसिंह कलकत्ता आये हुए थे।
शचींद्र सान्याल ने नेशनल स्कूल भवन में देश भर के क्रांतिकारीयों की बैठक बुलाई हुई थी ।
इस बैठक में सर्वसम्मति से देश के सभी उपस्थित क्रांतिकारियों का एक संगठन घोषित किया गया ।
जिसका नाम “हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन ” रखा गया ।
शचींद्र सान्याल ने इस क्रांतिकारी दल के कार्यक्रम तथा उसके अंतिम लक्ष्य को स्पष्ट करते हुए एक दस्तावेज पहले से ही तैयार किया हुए थे ।
जिन्हें सर्वसम्मति से स्वीकार किया गया। ये दस्तावेज ” दिरिवॉल्यूशनरी ” तथा “येलो पेपर ” के नाम से विख्यात हुए।
इन दोनों पर्चो के छपवाने कीव्यवस्था यतींद्रनाथ दास ने की थी ।
यतींद्र नाथ दास द्वारा हथियार खरीदने के लिए धन की व्यवस्था हेतु कई बार डाके डाले। जिनमे एक डाका इंडो बर्मा पेट्रोल पेट्रोलियम कंपनी का नगद रुपया लूटना था।
इस एक्शन में यतींद्र दा के साथ प्रेम रंजन थे ।दोनों ने कंपनी के आदमियों की आंखों में एक एक मुट्ठी पीसी लाल मिर्च डालकर नगदी का थैला छीन कर ले गए और आराम से कॉलेज में जाकर अपनी-अपनी कक्षाओं में बैठ गए ।
जितेंद्र नाथ दास बम बनाने के भी विधि विशेषज्ञ थे ।
उन्होंने आगरा में हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन के सदस्यों को बम बनाने की ट्रेनिंग दी थी।
लाहौर एक्शन में आपको भी गिरफ्तार कर लाहौर जेल मे रखा गया था । क्रांतिकारियों को जेल में रहने की अच्छी व्यवस्था व खाना के लिये अनशन किया तब आपने अनशन को कठिन रास्ता बताते हुए सब को आगाह किया था। थे।
आपने बंगाल में नजरबंदी के दौरान 23 दिन तक अनशन किया था । जिसके फल स्वरुप जेल सुपरिटेंडेंट ने माफी मांगी थी व आपको पंजाब की मियांवाली जेल में भेज दिया गया था। लाहौर जेल में अनशन के दौरान आपको नाक से पेट मे नलकी डाल कर दुध पिलाने की जबरदस्ती की गई। नलकी आपके फेफड़े में चली गई और नलकी से डाला गया दूध फेफड़ों में चला गया।
जिसके कारण स्थिति खराब होती गई । आपने दवाई लेने से इनकार कर दिया ।
सरकार ने बिना शर्त जमानत देनी चाही परंतु आपने इसे भी इन्कार कर दिया।
आपके अनशन के 63 वें दिन दिनांक 13 सितंबर 1929 को आपने अपने प्राणों की आहुति दे दी।
आपके पार्थिक शरीर को लाहौर से कलकत्ता ट्रेन से ले जाया गया था। रास्ते के सभी स्टेशनों पर लोगों की अपार भीड़ श्रंद्धाजलि देने पहुंची।
आपकी अंतिम यात्रा के जुलूस में करीब पांच लाख लोग इकट्ठे हुए ।आपने अपने अंतिम समय में अपने भाई किरणदास से काजी नजरुल इस्लाम की ” बोलो वीर चीर उन्नत मम शीर ” कविता सुनी और वंदेमातरम के साथ ही अपनी आंखें हमेशा के लिए बंद करली।
बोलो वीर बोलो चिर उन्नत मेरा शीश मेरा मस्तक निहार झुका पड़ा है हिमद्र शिखर बोलो वीर बोलो महाविश्व महाआकाश चीर सूर्य चंद्र से आगे धरती पाताल स्वर्ग भेद ईश्वर का सिंहासन छेद उठा हूं मैं मैं धरती का एकमात्र शाश्वत विस्मय देखो मेरे नेत्रों में दीप्त जय का दिव्य तिलक ललाट पर चिर स्थिर बोलो वीर बोलो चिर उन्नत मेरा शीश
मैं दायित्वहीन क्रूर नृशंस महाप्रलय का नटराज मैं चक्रवात विध्वंस मैं महाभय, मैं पृथ्वी का अभिताप मैं निर्दयी, सबकुछ तोड़फोड़ मैं नहीं करता विलाप मैं अनियम, उच्छृंखल कुचल चलूं मैं नियम क़ानून श्रृंखल नहीं मानता कोई प्रभुता मैं अंधड़, मैं बारूदी विस्फोट शीश बन कर उठा मैं दुर्जटी शिव, काल बैशाखी का परम अंधड़ विद्रोही मैं मैं विश्वविधात्री का विद्रोही पुत्र नंग धड़ंग अंधड़ बोलो वीर बोलो चिर उन्नत मेरा शीश
मैं बवंडर, मैं तूफ़ान मैं उजाड़ चलता मैं नित्य पागल छंद अपने ताल पर नाचता मैं मुक्त जीवन आनंद मैं चिर-चंचल उछल कूद मैं नित्य उन्माद करता मैं अपने मन की नहीं कोई लज्जा मैं शत्रु से करूं आलिंगन चाहे मृत्यु से लडाऊं पंजा मैं उन्मत्त, मैं झंझा मैं महामारी, धरती की बेचैनी शासन का खौफ़, संहार मैं प्रचंड चिर-अधीर बोलो वीर बोलो चिर उन्नत मेरा शीश
मैं चिर दुरंत, दुर्मति, मैं दुर्गम भर प्राणों का प्याला पीता, भरपूर मद हरदम मैं होम शिखा, मैं जमदग्नि मैं यक्ष पुरोहित अग्नि मैं लोकालय, मैं श्मशान मैं अवसान, निशा अवसान मैं इंद्राणी पुत्र, हाथों में चांद मैं नीलकंठ, मंथन विष पीकर मैं व्योमकेश गंगोत्री का पागल पीर बोलो वीर बोलो चिर उन्नत मेरा शीश
मैं संन्यासी, मैं सैनिक मैं युवराज, बैरागी मैं चंगेज़, मैं बागी सलाम ठोकता केवल खुद को मैं वज्र, मैं ब्रह्मा का हुंकार मैं इसाफील की तुरही मैं पिनाक पानी डमरू, त्रिशूल, ओंकार मैं धर्मराज का दंड, मैं चक्र महाशंख प्रणव नाद प्रचंड मैं आगबबूला दुर्वासा का शिष्य जलाकर रख दूंगा विश्व मैं प्राणभरा उल्लास मैं सृष्टि का शत्रु, मैं महा त्रास मैं महा प्रलय का अग्रदूत राहू का ग्रास मैं कभी प्रशांत, कभी अशांत बावला स्वेच्छाचारी मैं सुरी के रक्त से सिंची एक नई चिंगारी मैं महासागर की गरज मैं अपगामी, मैं अचरज मैं बंधन मुक्त कन्या कुमारी नयनों की चिंगारी
सोलह वर्ष का युवक मैं प्रेमी अविचारी मैं ह्रदय में अटका हुआ प्रेम रोग की हूक मैं हर्ष असीम अनंत और मैं वंध्या का दुःख मैं विधि का श्वास मैं अभागे का दीर्घ श्वास मैं वंचित व्यथित पथवासी मैं निराश पथिकों का संताप अपमानितों का परिताप अस्वीकृत प्रेमी की उत्तेजना मैं विधवा की जटिल वेदना मैं अभिमानी, मैं चित चुंबन मैं चिर कुमारी कन्या के थरथर हाथों का प्रथम स्पर्श मैं झुके नैनों का खेल कसे आलिंगन का हर्ष मैं यौवन चंचल नारी का प्रेम चूड़ियों की खनखन
मैं सनातन शिशु, नित्य किशोर, मैं तनाव मैं यौवन से सहमी बाला के आंचल का खिंचाव मैं उत्तरवायु, अनिल शामक उदास पूर्वी हवा मैं पथिक कवि की रागिनी, मैं गीत, मैं दवा मैं आग में जलती निरंतर प्यास मैं रूद्र, रौद्र, मैं घृणा अविश्वास मैं रेगिस्तान झर-झर झरता एक झरना मैं शामल, शांत, धुंधला एक सपना
मैं दिव्य आनंद में दौड़ रहा ये क्या उन्माद जान लिया है मैंने खुद को आज खुल गए हैं सब वाद मैं उत्थान, मैं पतन मैं अचेतन में भी चेतन मैं विश्व द्वार पर वैजयंती मानव विजय केतन मैं जंगल में फैलता दावानल मैं पाताल पतीत पागल अग्नी का दूत, मैं कलरव, मैं कोलाहल मैं धंसती धरती के ह्रदय में भूकंप मैं वासुकी का फन स्वर्गदूत जिब्राइल का जलता अंजन मैं विष, मैं अमृत, मैं समुद्र मंथन
मैं देवशिशु मैं चंचल मैं दांतों से नोच डालता विश्व मां का अंचल और बांसुरी बजाता ज्वरग्रस्त संसार को मैं बड़ी ममता से सुलाता मैं शाम की बंसी नदी से उछल छू लेता महा आकाश मेरे भय से धूमिल स्वर्ग का निखिल प्रकाश मैं बगावत का अखिल दूत मैं उबकाई नरक का प्राचीन भूत मैं अन्याय, मैं उल्का, मैं शनि मैं धूमकेतु में जलता विषधर कालफनी मैं छिन्नमस्ता, चंडी मैं सर्वनाश का दस्ता मैं नर्क की आग में बैठ बच्चे सा हंसता
मैं चिन्मय मैं अजर, अमर, अक्षय मैं मानव, दानव, देवताओं का भय जगदीश्वर ईश्वर मैं पुरुषोत्तम सत्य मैं रौंदता फिरता स्वर्ग, नर्क मैं अश्वत्थामा कृत्य मैं नटराज का नृत्य मैं परशुराम का कठोर प्रहार निक्षत्रिय करूंगा विश्व मैं लाऊंगा शांति शांत उदार मैं बलराम का यज्ञ यज्ञकुंड में होगा दाहक दृश्य मैं महाविद्रोही अक्लांत उस दिन होऊंगा शांत जब उत्पीड़ितों का क्रंदन षोक आकाश वायु में नहीं गूंजेगा जब अत्याचारी का खड्ग निरीह के रक्त से नहीं रंजेगा मैं विद्रोही रणक्लांत मैं उस दिन होऊंगा शांत पर तब तक मैं विद्रोही दृढ बन भगवान के वक्ष को भी लातों से देता रहूंगा दस्तक तब तक मैं विद्रोही वीर पी कर जगत का विष बन कर विजय ध्वजा विश्व रणभूमि के बीचो-बीच खड़ा रहूंगा अकेला चिर उन्नत शीश मैं विद्रोही वीर बोलो वीर… (क़ाज़ी नज़रुल )
गुरु रामसिंह कूका: स्वतंत्रता संग्राम के अग्रदूत और कूका आंदोलन के प्रणेता भारत के स्वतंत्रता संग्राम में कई ऐसे वीर हुए जिन्होंने न सिर्फ ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ आवाज़ उठाई, बल्कि सामाजिक बदलाव की अलख भी जगाई। ऐसे ही महान संत और क्रांतिकारी थे गुरु रामसिंह कूका, जो कूका आंदोलन के प्रणेता और नामधारी पंथ के संस्थापक थे। उनका जन्म 3 फरवरी 1816 को भैणी साहिब, जिला लुधियाना (पंजाब) में हुआ था।
आध्यात्मिक संत से क्रांतिकारी नेता तक
रामसिंह जी पहले महाराजा रणजीत सिंह की सेना में थे, लेकिन जल्द ही उन्होंने नौकरी छोड़कर आध्यात्मिक और सामाजिक सेवा का रास्ता अपनाया। वे लोगों को गोरक्षा, नारी सुरक्षा, कन्या शिक्षा, अंतर्जातीय विवाह और सामूहिक विवाह जैसे सुधारों के लिए प्रेरित करते थे। उन्होंने दहेज प्रथा, खर्चीली शादी और कन्या भ्रूण हत्या के खिलाफ आवाज़ उठाई।
उनकी शिक्षाओं से प्रभावित होकर हजारों लोग उनके अनुयायी बन गए और धीरे-धीरे एक अलग नामधारी सिख पंथ अस्तित्व में आया। उन्होंने स्त्रियों को भी पुरुषों की तरह अमृत छका कर सिखी दी और विवाह के लिए सिर्फ सवा रुपया तय किया, जिसे आनंद कारज कहा गया। 3 जून 1863 को उन्होंने फिरोजपुर जिले के खोटे गांव में 6 अंतर्जातीय विवाह करवा कर सामाजिक क्रांति की शुरुआत की।
कूका आंदोलन और स्वतंत्रता का बिगुल
रामसिंह जी को जल्दी ही यह समझ आ गया कि सामाजिक सुधार तभी संभव हैं जब देश राजनीतिक रूप से स्वतंत्र हो। उन्होंने ब्रिटिश साम्राज्य का बहिष्कार करते हुए स्वतंत्र डाक और प्रशासनिक व्यवस्था शुरू की। उन्होंने अंग्रेजों की शिक्षा, अदालत, रेल, डाक, तार और विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार का आह्वान किया।
उन्होंने पंजाब को 22 जिलों में बाँटकर हर जिले में एक अध्यक्ष नियुक्त किया। ब्रिटिश सत्ता को नकारते हुए उन्होंने भारत को स्वतंत्र राष्ट्र घोषित किया।
बलिदान और वीरता की अमर कहानी
1871 में कूकों और कसाइयों के बीच हुए संघर्ष में कई कूकों ने कसाइयों को मार दिया। रामसिंह जी के आदेश पर सभी कूका स्वयं अमृतसर जाकर आत्मसमर्पण कर दिए। इससे ब्रिटिश अधिकारी घबरा उठे।
मकर संक्रांति 1872 को एक कूका ने मलेरकोटला में एक व्यक्ति को बैल पर अत्यधिक भार डालते देखा और टोकाटाकी की। इससे विवाद हुआ और गांव वालों ने उस कूका को पीटा, यहाँ तक कि उसके मुंह में गाय का मांस भी ठूंस दिया गया।
इस अपमान की खबर भैणी पहुंची तो कूका समुदाय में आक्रोश फैल गया। रामसिंह जी ने खुद पुलिस को सूचना दी कि अब यह मामला उनके नियंत्रण में नहीं है। 154 कूका वीरों ने मलेरकोटला पर हमला कर दिया। हालांकि बाद में उन्हें पीछे हटना पड़ा।
29 नवम्बर 1885 को रढ़ गांव के पास 68 कूकों को गिरफ्तार कर लिया गया। 17 जनवरी 1872 को लुधियाना के डिप्टी कमिश्नर कॉवन के आदेश पर 49 कूकों को तोपों से उड़ा दिया गया। इसमें 13 वर्षीय किशन सिंह भी था, जिसे देखकर कॉवन की पत्नी ने उसकी जान बख्शने की प्रार्थना की। लेकिन जब किशन सिंह ने रामसिंह जी को “गुरु” कहने से मना नहीं किया और कॉवन की दाढ़ी पकड़ ली, तो कॉवन ने क्रूरता से उसके दोनों हाथ काट कर उसे मार दिया।
18 अन्य कूकों को अगले दिन फांसी दे दी गई।
अंतिम बलिदान
इन घटनाओं के बाद गुरु रामसिंह जी को भी गिरफ्तार कर बर्मा (अब म्यांमार) की मांडले जेल में भेज दिया गया, जहाँ 1885 में उनका निधन हो गया।
यदि यह आंदोलन अचानक और असमय उग्र न होता, तो संभवतः पंजाब से फिरंगियों को खदेड़ने का सपना बहुत पहले साकार हो जाता।
शत-शत नमन उन वीर कूका योद्धाओं को, जिन्होंने भारत की स्वतंत्रता के लिए अपने प्राणों की आहुति दी।
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की असंख्य वीरांगनाओं में से एक, दुर्गा भाभी का नाम आज भी अदम्य साहस, राष्ट्रप्रेम और बलिदान की मिसाल है। उनका असली नाम दुर्गा देवी था, लेकिन क्रांतिकारी दल में उन्हें स्नेहपूर्वक “दुर्गा भाभी” कहा जाता था।
प्रारंभिक जीवन और विवाह
दुर्गा भाभी का जन्म 7 अक्टूबर 1907 को उत्तर प्रदेश के कौशांबी जिले के शहजादपुर गाँव में हुआ था। मात्र 10 वर्ष की आयु में उनका विवाह प्रसिद्ध क्रांतिकारी भगवती चरण वोहरा से हुआ। विवाह के बाद उन्होंने ‘प्रभाकर’ डिग्री हासिल की और अपने पति के साथ क्रांतिकारी गतिविधियों में सक्रिय भाग लेने लगीं।
क्रांति में कदम
वे ‘नौजवान भारत सभा’ और ‘हिंदुस्तान समाजवादी प्रजातांत्रिक संघ’ की सक्रिय सदस्य थीं। उन्होंने महात्मा गांधी के सत्याग्रह में भाग लिया, परंतु चोरा-चोरी की घटना के बाद गांधी जी द्वारा आंदोलन वापसी से उनका और अन्य युवाओं का अहिंसात्मक आंदोलन से मोहभंग हो गया।
त्याग और वीरता की मूर्ति
लाहौर में साइमन कमीशन के विरोध प्रदर्शन में उन्होंने महिला क्रांतिकारियों का नेतृत्व किया। उसी दौरान उन्होंने अंगुली से रक्त निकालकर करतार सिंह सराभा की तस्वीर पर छिड़का और ब्रिटिश राज से डंके की चोट पर टक्कर लेने की शपथ ली।
एक विशेष घटना में, जब भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त केंद्रीय असेम्बली में बम फेंकने जा रहे थे, तब दुर्गा भाभी ने विदाई के रूप में उन्हें कुरदसिया पार्क में तिलक किया और मनपसंद भोजन करवाया। कार्रवाई के दौरान वे अपने बेटे शची को गोद में लेकर असेंबली के बाहर घूमती रहीं ताकि पुलिस का ध्यान न जाए।
शौर्य की पराकाष्ठा
सांडर्स वध के बाद दुर्गा भाभी ने अंग्रेज महिला के वेश में ‘भगत सिंह की पत्नी’ बनकर भगत सिंह और राजगुरु को लाहौर से कलकत्ता तक सुरक्षित पहुँचाया। यह यात्रा भारतीय महिला के साहस और त्याग का अनुपम उदाहरण है।
जब गांधी जी ने भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव की फांसी रोकने की शर्त को वार्ता में शामिल करने से इनकार किया, तब दुर्गा भाभी ने दल की अनुमति के बिना ही वायसराय लॉर्ड इरविन की ट्रेन उड़ाने की योजना में भाग लिया।
व्यक्तिगत आघात और संघर्ष
28 मई 1930 को बम परीक्षण के दौरान उनके पति भगवती चरण वोहरा शहीद हो गए। दुर्गा भाभी ने गहरी वेदना में भी हिम्मत नहीं हारी और रावी तट पर पति का अंतिम संस्कार स्वयं किया।
8 अक्टूबर 1930 को उन्होंने पृथ्वी सिंह और सुखदेव राज के साथ मिलकर बंबई में एक्शन लिया। योजना गवर्नर हैली की हत्या की थी, परंतु वह मौजूद नहीं था। इसके बाद उन्होंने एक यूरोपीय दंपति पर गोलीबारी की जिसमें सार्जेंट टेलर घायल हुआ।
बाद का जीवन और शिक्षा क्षेत्र में योगदान
उन्हें 1932 में दो माह के लिए और 1935 में एक सप्ताह के लिए जेल में रखा गया। जेल से निकलने के बाद वे गाजियाबाद में कन्या विद्यालय में शिक्षिका बनीं। 1937 में वे दिल्ली कांग्रेस कमेटी की अध्यक्ष चुनी गईं। काकोरी केस के क्रांतिकारियों के अभिनंदन में कार्यक्रम रखने पर उन्हें एक सप्ताह की सजा हुई।
कांग्रेस की नीतियों से असहमत होकर उन्होंने राजनीति से दूरी बनाई और मद्रास जाकर मोंटेसरी शिक्षा का प्रशिक्षण लिया। 1940 में लखनऊ में उन्होंने अपना निजी विद्यालय शुरू किया।
अंतिम विदाई
भारत माता की यह सच्ची सपूती 14 अक्टूबर 1999 को इस दुनिया से विदा हो गईं। उन्होंने न केवल क्रांति की ज्वाला में योगदान दिया बल्कि स्वतंत्रता के बाद शिक्षा के क्षेत्र में भी आदर्श प्रस्तुत किया।
शत-शत नमन दुर्गा भाभी को
जिन्होंने मातृत्व, वीरता और राष्ट्रभक्ति को एक साथ जीकर दिखाया।
:- क्रांतिवीर वीर -: -:- भगवतीचरण वोहरा -:- आपका जन्म 4 जुलाई 1903 को आगरा में हुआ था। आपके पिता श्री शिवचरण रेलवे में अधिकारी थे। जो कालांतर में आगरा से लाहौर आ गए थे । आपने नेशनल कॉलेज , लाहौर से बी.ए. की थी ।उस भगत सिंह व सुखदेव भी इसी कॉलेज में थे । आपने भगत सिंह, सुखदेव व अन्य साथियों की एक अध्ययन मंडली बनाई थी । आप सभी देश की आज़ादी के लिए गहरा अध्ययन करते थे। क्रांतिकारी दल “नौजवान भारत सभा” के गठन में आपकी अहम भूमिका थी । इसके घोषणा पत्र बनाने में भी मुख्य भूमिका आपका ही थी।
शचिंद्र सान्याल द्वारा तैयार ” दि रेवोल्यूशनरी “‘ पर्चा 1 जनवरी 1925 को बंटवाने का काम भी आपने किया था।
आप बम बनाने में दक्ष थे। आपने काकोरी वीरों को लखनऊ जेल से छुड़ाने हेतु काफी तैयारियां की थी परंतु सयुंक्त प्रांत व पंजाब के दो अन्य क्रांतिकारियों की सहमति नहीं होने के कारण यह एक्शन नहीं लिया जा सका लाहौर में कश्मीर बिल्डिंग का कमरा नंबर 69 आपके नाम से किराए पर लिया हुआ था। इसी में आपने बम बनाने का कारखाना स्थापित किया गया था इस फैक्ट्री में 15 अप्रैल 1936 को पुलिस ने छापा मारा।
इसके बाद आपको वहां से फरार होना पड़ा। केंद्रीय असेंबली में बम डाले जाने के बाद भगत सिंह व बटुकेश्वर दत्त मौका पर ही गिरफ्तार हो गए थे । लाहौर बम फैक्ट्री में सुखदेव, किशोरीलाल व जय गोपाल की गिरफ्तारी हो चुकी थी। सहारनपुर बम फैक्ट्री में तीन अन्य साथियों की गिरफ्तारी हो चुकी थी ।उस समय आप ,यशपाल ,आज़ादजी व वैशंपायन फ़रारी थे।
इन विकट परिस्थितियों में आपने श्रद्धानंद बाजार दिल्ली की एक गली में मकान किराए पर लिया और इसमें बम बनाने का काम शुरू किया। उन दिनों वायसराय इरविन व गांधीजी में समझौता वार्ता होनेवाली थी ।आप कांग्रेस व गांधी जी की गिड़गिड़ाने की नीति के पक्ष में नहीं थे। आपका कहना था गांधीजी पूंजीपतियों के एक प्रतिनिधि के रूप में एक साम्राज्यवादी के साथ बातचीत करेंगे। जिससे देश की जनता का कोई लाभ नहीं होगा। इसलिए आपने यह निर्णय लिया कि वायसराय इरविन की स्पेशल ट्रेन को बम्ब से उड़ाकर वॉयसराय को ही मार दिया ताकि इरविन- गांधी वार्ता ही नहीं हो सके ।आपने इस संबंध में इरविन के कार्यक्रम का सुराग लगा कर अपने साथियों यशपाल ,धर्मपाल व इंद्रपाल के साथ समस्त कार्यक्रम तैयार कर लिया । वायसराय की स्पेशल ट्रेन दिल्ली से मथुरा 23 दिसंबर 1929 को कोल्हापुर जानी थी। आपने मथुरा रोड पर पांडवों के किले के पास रेलवे लाईन पर बम्ब लगा दिये। बम्ब विस्फोट जोरदार हुआ गाड़ी का एक डिब्बा भी उड़ गया पर दुर्भाग्य से इरविन बच गया।
आपने यह एक्शन दल की केंद्रीय समिति के निर्णय के विरूद्ध किया था। आपने नाराज़ होकर दल के राजनीतिक महत्व को समझाते हुए घोषणा पत्र भी आज़ाद जी को लौटा दिया ।
इस एक्शन के बाद गांधी जी ने ईश्वर को धन्यवाद देते हुए इरविन को तार भेजकर सहानुभूति प्रकट की । क्रांतिकारियों के विरुद्ध कांग्रेस अधिवेशन में क्रांतिकारी एक्शन के विरुद्ध निंदा प्रस्ताव पारित किया गया। गांधीजी ने समाचार पत्र यंग इंडिया में “कल्ट ऑफ द बम” शीर्षक से एक लेख प्रकाशित किया । इसके उत्तर में भगवती चरण वर्मा ने न केवल गांधी जी के लेख का उत्तर दिया बल्कि क्रांतिकारीयों की राजनीतिक समझ व उद्देश्यों का उलेख करते हुए ‘ फिलॉस्फी ऑफ द बम” लेख प्रकाशित किया।
इस लेख को जेल में भगतसिंह द्वारा अंतिम रूप दिया गया था।
आपने आजाद जी इसे विचार विमर्श कर भगत सिंह व साथियों को जेल गाड़ी पर हमला करके छुड़ाने का कार्यक्रम तय किया। इस एक्शन के क्रम में दिनांक 28 मई 1930 को रावी नदी के तट पर बम परीक्षण करते समय दुर्भाग्यवश बम आपके हाथ में ही फट गया और आपका शरीर क्षत-विक्षत हो गया । आप आपने अपने प्राणों की आहुति दे दी ।
अंतिम समय भी आपने कहा भगतसिंह व साथियों को छुड़ाने के एक्शन पूर्ण किया जाता है तो ही आत्मा को तभी शांति ।
भगवती चरण वोहरा की धर्मपत्नी जिसे क्रांतिकारी दल में दुर्गा भाभी के नाम से जाना जाता है का योगदान भी स्मृतियोग्य है।
आप दृढ़निश्चयी , बहादुर , बम बनाने में दक्ष ही नहीं क्रांतिकारी दल के में उच्च कोटिके विचारक व प्रचारक थे।
अपने क्रांतिकारी गतिविधियों में कई पर्चे लिखे जो उबलब्ध नहीं है।आपने एक पुस्तक “मैसेज ऑफ इंडिया ” लिखी जो नौजवानों को काफी प्रिय थी।
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के भीष्म जिहोंने अपनी 18 वर्ष की आयु में 13 अप्रेल1919 को जलियावालां बाग में दो हजार निहत्थे पुरूष, महिलाओं व अबोध बच्चों को दरिंदगी से मौत के घाट उतरते देखा व इस रक्तपात के दोषी अधिकारियों को दण्ड देने की प्रतिज्ञा की । उधमसिंह जी ने अपनी सारी जिंदगी अपनी भीष्म प्रतिज्ञा को पूर्ण करने में लगा दी व 21 वर्ष बाद रक्तपात के दोषी ओ डायर का लंदन के कैक्सटन हॉल में दिनाँक13 मार्च 1940 को वध करके अपनी प्रतिज्ञा पूर्ण की।
सरदार उधम सिंह का जन्म 26 दिसम्बर 1899 को सुनाम जिला संगरूर ,पंजाब में हुआ था। आपके पिता सरदार टहल सिंह @ चूहड़ सिंह उपाली रेलवे में चौकीदार थे। अब की माताजी का 1901 व पिताजी का 1905 को आकस्मिक देहांत हो गया । आपके एक भाई मुक्ता सिंह थे जिनका भी 1917 में देहान्त हो गया। आप का बचपन में नाम शेर सिंह था । आपके मातापिता के देहंतोपरांत आप दोनों भाइयों को भाई किशन सिंह रागी ने दिनाँक 24 अक्टूबर 1907 को पुतलीगढ़ अमृतसर अनाथालय (Central Khalsa Orphanage) में रखवा दिया। भाई किसन सिंह ने अमृत छका कर आपका नाम शेर सिंह से उधम सिंह रखा । वैशाखी 1919 को आप जलियांवाला बाग में जल सेवा कर रहे थे । आपने जलियावाला ख़ूनी काण्ड अपनी आंखों से देखा था जिसका आपके दिल व दिमाग पर गहरा असर पड़ा । आपने स्वर्ण मंदिर में पवित्र सरोवर में स्नान यह प्रतिज्ञा की थी कि जलियावाला हत्या कांड के दोषी से बदला लेंगे। आप नैरोबी में अफ्रीका में गदर पार्टी से जुड़े। भारत मे आप भगतसिंह व हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन से जुड़े। आप जुलाई 1927 में हथियार लेकर आये। दिनाँक 30 अगस्त 1927 को 25 क्रांतिकारीयों के साथ गिरफ्तार किया गया। आप चार वर्ष तक जेल में रहे ।
सन 1931 में आपने अमृतसर में साइन बोर्ड पेंटर का काम किया और अपना नाम राम मोहम्मद सिंह आजाद रखा
आप अपने मिशन को अंजाम देने के लिए शेरसिंह,उद्यानसिंह, उदेयसिंह, उदय सिंह ,आदि छदम नामों से कश्मीर अफ्रीका, नैरोबी, ब्राजील और अमेरिका की यात्रा की ।सन्1934 में उधम सिंह जी लंदनपहुँचे और वहां 9, एल्डर स्ट्रीट कमर्शियल रोड पर रहने लगे। दिनाँक 13 मार्च 1940 को रायल सेंट्रल एशियन सोसायटी की लंदन के काक्सटन हाल में बैठक थी जहां माइकल ओ डायर भी वक्ताओं में से एक था और उसे सम्मानित किया जाना था। ओ डायर जलियावाला कांड के समय पंजाब के गवर्नर थे।इसके आदेश पर ही ब्रिगेडियर हैरी डायर ने फायरिंग करवाई थी । हैरी डायर पहले ही मर गया । तो डायर जिंदा था। जो उधम सिंह का टारगेट था।
उस दिन 13 मार्च 1940 को आपने एक मोटी क़िताब बीच के कागज रिवॉल्वर के आकर के काटे व इसमें रिवॉल्वर रख लिया व समय से ही सभा हाल में पहुँच गए। जैसे ही ओ डायर बोलने के लिए खड़ा हुआ वीरवर ने माइकल ओ डायर के दो गोलियां मारी जिनसे दुष्ट डायर वहीं मर गया। आप भागे नहीं हॉल में उपस्थित लोगों को सम्बोधित करते हुए कहा
” जलियांवाला बाग का हत्याकांड मैंने अपनी आंखों से देखा था और उसी दिन से अंग्रेजी राज व यह व्यक्ति मेरी घृणा का पात्र बन गया।
ओ डायर का क्रूर और नृशंसापूर्ण शासन, हृदय विदारक अत्याचार और भयानक दमन मेरी स्मृति से कभी न निकल सके उसी दिन मेंने प्रतिज्ञा की थी कि मैं इस खून का बदला लूंगा । मुझे हर्ष है कि मैं अपने प्राणों की बाजी लगाकर 21 वर्ष बाद उस हत्याकांड का बदला ले रहा हूं और इस प्रकार अपनी मातृभूमि के चरणों में अपने प्राणों को यह तुच्छ भेंट प्रस्तुत कर सका हूं।'”
आपने हॉल में ही अपनेआप गिफ्तारी दी । आप कत्ल का मुकदमा चला व 4 जून 1940 को आपको को हत्या का दोषी ठहराया गया व फाँसी की सजा दी गयी। आपको दिनाँक 31 जुलाई 1940 को लंदन की पेंटनविले जेल में फांसी दे दी गई।
फाँसी से पूर्व अपनी अंतिम इच्छा में कहा फांसी के समय मेरे हाथ नहीं बांधे जावे व मेरी अस्थियों को भारत भेज दिया जावें। आपके द्वारा ओ डायर का वध करने पर गांधी जी ने अपनी आदत के अनुसार दुःख व्यक्त करते हुए कहा “The Outrage has caused me deep pain.I regard it as an act of insanity.” अमृतबाजार पत्रिका ने आपकी बहादुरी को खुले दिल से सराहा। अप्रेल 1940 रामगढ़ कांग्रेस सभा मे लोगों ने ऊधम सिंह जिंदाबाद, इंकलाब जिंदाबाद के नारे लगाए।
देश के आजाद हो जाने के 26 वर्ष बाद तक ऊधम सिंह जी की अस्थियां मातृभूमि के लिए तरस रही थी। भला हो तत्कालीन पंजाब मुख्यमंत्री ज्ञानी जैल सिंह का जिनके प्रयत्न से 1973 में यह शुभ काम सम्पन्न हुआ। पंजाब विकास कमिश्नर श्री मनोहर सिंह गिल को इंग्लैंड भेजा जो उधम सिंह जी के लिखे पत्र लेकर आये।। 23 जुलाई 1974 को पंजाब मंत्रिमंडल के मंत्री श्री उमराव सिंह व विधायक श्री साधु सिंह इंग्लैंड से अस्थियों के लेकर भारत पहुंचे। प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी अपने मंत्रिमंडल के साथ एयरपोर्ट पर पर पहुंची व उधम सिंह जी की अस्थियों का सम्मान किया। अस्थियों को कपूरथला में दर्शनार्थ रखा गया व सम्मानार्थ जुलूस निकाला गया व राजकीय सम्मान के साथ 31 जुलाई 1974 को कीर्तिपुर में जल प्रवाहित किया गया।
शत शत नमन क्रांति के लिए भीष्म प्रतिज्ञा निर्वहन करने वाले महान क्रांतिवीर को ।