वहाबी आंदोलन: भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का अज्ञात पहलू
भारत के स्वतंत्रता संग्राम की परिभाषा हमेशा से वही रही है, जिसमें भारतीय समाज के हर वर्ग ने अपनी जान की आहुति देकर विदेशी ताकतों को चुनौती दी। हालांकि, इतिहास में कुछ ऐसे क्रांतिकारी आंदोलन भी हुए हैं, जिन्हें अक्सर उतनी चर्चा नहीं मिल पाई, जितनी कि वे हकदार थे। इनमें से एक प्रमुख आंदोलन था वहाबी आंदोलन, जो 1820 से 1870 के बीच भारतीय उपमहाद्वीप में फैला था और जिसका केंद्र पटना था।
वहाबी आंदोलन का जन्म और उद्देश्य
वहाबी आंदोलन की जड़ें इस्लामिक धार्मिक उन्नति और एक विशिष्ट समाजवादी दृष्टिकोण में निहित थीं, लेकिन इस आंदोलन ने ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ भी संघर्ष किया। वहाबी आंदोलन के नेता भारतीय समाज की परिस्थितियों से गहरे प्रभावित थे। उनका उद्देश्य था समाज में सुधार लाना और ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ एक सशस्त्र संघर्ष शुरू करना। इसके लिए उन्होंने धार्मिक उन्मुक्तता के बजाय ब्रिटिश शासन के खिलाफ एक ठोस रणनीति अपनाई, जिससे आंदोलन ने एक राजनीतिक रूप लिया।
वहाबी नेताओं की शहादत और ब्रिटिश क्रूरता
1863 में, सीमा प्रांत के बहावियों के मल्का किले पर ब्रिटिश वायसराय एलगिन ने सैनिकों को भेजकर उस पर कब्जा कर लिया। यह एक महत्त्वपूर्ण क्षण था, क्योंकि यह वहाबी नेताओं के लिए एक स्पष्ट संकेत था कि ब्रिटिश साम्राज्य अपने कड़े शासन को और भी मजबूत करने की योजना बना चुका था। इसके बाद वहाबी नेताओं के साथ ब्रिटिश सरकार ने क्रूरता की सारी हदें पार कर दीं। उन्हें सार्वजनिक रूप से कोड़े मारे गए, अंग-भंग की सजा दी गई, और कई नेताओं को फांसी दी गई। इसके अलावा कई क्रांतिकारी नेताओं को काला पानी की सजा दी गई और अंडमान की कुख्यात जेल में भेजा गया।
इन सब घटनाओं के बावजूद, वहाबी नेता अपनी मुक्ति की लड़ाई से पीछे नहीं हटे। इनमें से एक प्रमुख नेता आमिर खान को भी Regulating Act 1818 के अंतर्गत गिरफ्तार कर लिया गया था, और उनकी सुनवाई कलकत्ता हाई कोर्ट में की गई थी। हालांकि, न्यायालय में उनकी अपील को अस्वीकार कर दिया गया।
अब्दुल्ला का प्रतिशोध और नॉर्मन की हत्या
अब्दुल्ला नामक एक वहाबी नेता ने इन अन्यायपूर्ण कार्यों के खिलाफ आक्रोश व्यक्त किया। 20 सितंबर 1871 को उसने जॉन पैक्सटन नॉर्मन, जो उस समय कलकत्ता हाई कोर्ट के कार्यवाहक मुख्य न्यायाधीश थे, पर छुरे से हमला कर दिया। यह हमला ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ प्रतिशोध की एक मिसाल बन गया। नॉर्मन की मृत्यु 21 सितंबर 1871 को हो गई, और इस कृत्य ने भारतीयों में ब्रिटिश न्यायपालिका के खिलाफ गहरा आक्रोश उत्पन्न किया।
इसके बाद ब्रिटिश सरकार ने अब्दुल्ला को पकड़ा, और उसे फांसी की सजा दी। उसकी पार्थिव शरीर को सड़कों पर घसीटकर जला दिया गया, ताकि यह एक नज़र के लिए एक चेतावनी बने। इस अत्याचार ने केवल वहाबी नेताओं में नहीं, बल्कि पूरे भारतीय समाज में प्रतिरोध की भावना को और भी प्रबल कर दिया।
लॉर्ड मेयो की हत्या: वहाबी नेताओं का प्रतिशोध
ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ प्रतिशोध की एक और बड़ी घटना 8 फरवरी 1872 को हुई, जब वहाबी नेता शेरअली आफरीदी ने लॉर्ड मेयो, जो उस समय ब्रिटिश गवर्नर जनरल थे, को अंडमान जेल में चाकू से हमला कर हत्या कर दी। शेरअली आफरीदी को अपनी उम्रभर की कालापानी सजा के दौरान यह महसूस हुआ था कि उसे झूठे मुकदमे में फंसाया गया है और न्याय नहीं मिला। उसकी यह हत्या ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ एक बड़ा प्रतिशोध था।
वहाबी आंदोलन: एक स्वतंत्रता संग्राम की जड़ें
वहाबी नेताओं के कृत्य सिर्फ इस्लाम या धर्म तक सीमित नहीं थे। उनका मुख्य उद्देश्य ब्रिटिश साम्राज्य को भारतीय धरती से उखाड़ फेंकना था। उन्होंने अपनी जान की परवाह किए बिना यह कार्य किया, और यही कारण था कि उन्हें भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का एक अभिन्न हिस्सा माना जाना चाहिए। इन क्रांतिकारियों के कृत्य इस बात का प्रतीक थे कि भारतीयों ने सिर्फ सामाजिक और धार्मिक उत्थान के लिए नहीं, बल्कि विदेशी शासकों के खिलाफ स्वतंत्रता की लंबी लड़ाई के लिए भी संघर्ष किया।
वहाबी नेता: भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के नायक
यह सच है कि वहाबी नेता धार्मिक रूप से इस्लाम के अनुयायी थे, लेकिन उन्होंने भारत से अंग्रेजों को भगाने का लक्ष्य भी रखा था। यही कारण है कि अब्दुल्ला और शेरअली को भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के सिपाही के रूप में देखना उचित है। उन्होंने अपनी जान की बाजी लगाकर वहाबी आंदोलन को एक नया मोड़ दिया, जो कि भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की नींव रखने में सहायक साबित हुआ।
वहाबी आंदोलन भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का एक महत्वपूर्ण अध्याय है, जिसे शायद उतनी सजीवता से नहीं बताया गया है, जितना कि वह इसके हकदार थे। वहाबी नेताओं ने ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ अपनी जान की बाजी लगाकर एक नई राह दिखाई। उनके संघर्षों ने यह साबित कर दिया कि भारतीयों के स्वतंत्रता संग्राम में सिर्फ एक वर्ग नहीं, बल्कि सभी वर्गों ने अपनी जान की कुर्बानी दी।
शत शत नमन उन महान क्रांतिकारियों को, जिन्होंने हमें यह दिखाया कि किसी भी न्यायपूर्ण संघर्ष में आस्था और दृढ़ संकल्प से भरी हुई भूमिका होती है, चाहे वह किसी भी धर्म, वर्ग या जाति से संबंधित हो।
चिन्ताकरण पिल्ले का जन्म 15 सितंबर 1891 को त्रिवेंद्रम, त्रावणकोर (वर्तमान केरल) में हुआ था। हालांकि उनकी जन्म तिथि पर कुछ विवाद है, लेकिन उनके जीवन की यात्रा और संघर्ष इतना प्रभावशाली है कि वह भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के एक प्रमुख नायक माने जाते हैं। उनकी गाथा सिर्फ एक स्वतंत्रता सेनानी की नहीं है, बल्कि एक वैश्विक क्रांतिकारी की भी है जिसने अपनी कर्मभूमि को सीमाओं से परे देखा। आइए जानते हैं उनके जीवन के कुछ रोचक पहलुओं को, जो शायद आपको पहले कभी न सुने हों।
शिक्षा और भाषा कौशल
चिन्ताकरण पिल्ले का शिक्षा जीवन काफी प्रेरणादायक था। वह इटली गए, जहां उन्होंने तकनीकी शिक्षा प्राप्त की और साथ ही 12 भाषाओं का ज्ञान हासिल किया। इस बहुभाषी कौशल ने उन्हें न केवल भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के प्रति समर्पण में मदद की, बल्कि विभिन्न देशों में अपनी बात पहुंचाने और आंदोलन के लिए जरूरी वैश्विक संपर्क स्थापित करने में भी सहारा दिया।
अंतर्राष्ट्रीय क्रांतिकारी संस्थाएं
1914 में, पिल्ले ने ज्यूरिख में इंटरनेशनल इंडिया कमेटी का गठन किया, और उसी समय म्यूनिख में इंडियन इंटरनेशनल कमेटी की भी स्थापना की। इन दोनों संस्थाओं का उद्देश्य था भारत की स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करना। इन संगठनों में प्रमुख क्रांतिकारी नेता जैसे राजा महेन्द्र प्रताप, बरकतउल्ला, बिरेन्द्र चट्टोपाध्याय, तारक नाथ, और हेमचंद्र भी शामिल थे। अक्टूबर 1914 में बर्लिन में हुई एक महत्वपूर्ण सभा में इन दोनों संस्थाओं का एकीकरण हुआ, और इस एकीकरण ने भारत की स्वतंत्रता संग्राम को एक नए आयाम में ढाला।
जर्मनी और सम्राट के साथ संपर्क
चिन्ताकरण पिल्ले के जर्मनी के सम्राट केसर से भी गहरे संपर्क थे। उन्होंने जर्मन साम्राज्य के साथ सहयोग करते हुए बम बनाने और बम बरसाने का प्रशिक्षण लिया। यह प्रशिक्षण और सैन्य अनुभव उन्हें एक प्रभावशाली क्रांतिकारी बनाता है जो केवल विचारों से नहीं, बल्कि ठोस क्रियाओं से स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय था। पिल्ले ने जर्मन नौसेना में भी कार्य किया, जहां उनकी सैन्य रणनीतियों और युद्धकला में दक्षता ने उन्हें एक महत्वपूर्ण रणनीतिकार के रूप में स्थापित किया।
काबूल और अस्थाई सरकार
राजा महेन्द्र प्रताप द्वारा स्थापित काबूल स्थित अस्थाई सरकार में पिल्ले को विदेश विभाग का दायित्व सौंपा गया। यह सरकार एक प्रतीकात्मक स्वतंत्रता थी, जो भारतीय संघर्ष को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रोत्साहित करने के उद्देश्य से बनाई गई थी। पिल्ले ने इस सरकार को वैश्विक मंच पर फैलाने के लिए अनेक प्रयास किए।
गांधीजी से मुलाकात और प्रदर्शनी
1919 में पिल्ले ने दक्षिण अफ्रीका में महात्मा गांधी से मुलाकात की। गांधीजी से उनकी बातचीत ने उन्हें राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम के लिए एक और प्रेरणा दी। 1924 में, पिल्ले ने एक प्रदर्शनी लगाई जिसमें स्वतंत्रता संग्राम से जुड़े चित्रों की प्रदर्शनी थी। यह प्रदर्शनी भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास को जन-जन तक पहुंचाने का एक शानदार तरीका था।
नेताजी सुभाष चंद्र बोस और युद्ध की योजना
प्रथम विश्व युद्ध के दौरान, पिल्ले ने बर्मा के रास्ते भारत में अंग्रेजों पर आक्रमण करने की योजना बनाई थी। यह योजना एक बड़ा रणनीतिक कदम था, जिसे पिल्ले ने नेताजी सुभाष चंद्र बोस को बर्लिन में बताई। उन्होंने नेताजी को युद्ध नीतियों के बारे में विस्तार से समझाया और जापान से बर्मा तक सेना भेजने का सुझाव भी दिया था। पिल्ले की यह रणनीति भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में एक महत्वपूर्ण मोड़ थी।
नाजियों से संघर्ष और दुखद अंत
जब पिल्ले इटली गए, तो नाजियों ने उनकी संपत्ति जप्त कर ली। इस पर विरोध करने पर पिल्ले को दंड दिया गया, और उन्हें इलाज भी नहीं करने दिया गया। इसके परिणामस्वरूप पिल्ले मूर्छित हो गए, और उनके इलाज की कोई व्यवस्था नहीं की गई। यह दुखद घटना उनके जीवन के अंतिम दिनों की ओर इशारा करती है।
23 मई 1934 को उनका निधन हुआ। लेकिन उनका जीवन और उनके योगदान भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की कहानी में हमेशा याद रखा जाएगा।
रासबिहारी बोस और पनडुब्बी मिशन
कहा जाता है कि रासबिहारी बोस से विचार-विमर्श के बाद पिल्ले ने सावरकर और अन्य क्रांतिकारियों को अंडमान जेल से मुक्त कराने के लिए जापानी पनडुब्बी भेजी थी। हालांकि यह मिशन असफल हो गया और पनडुब्बी को नष्ट कर दिया गया, लेकिन पिल्ले का साहस और समर्पण भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में महत्वपूर्ण था।
निष्कर्ष
चिन्ताकरण पिल्ले का जीवन एक प्रेरणा है। उनका संघर्ष केवल एक सैनिक के रूप में नहीं था, बल्कि वे एक वैश्विक क्रांतिकारी थे जिन्होंने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर फैलाने के लिए हर संभव प्रयास किया। उनकी योजनाएं, उनके कार्य और उनके संघर्ष की गाथा आज भी हमें यह सिखाती है कि स्वतंत्रता केवल एक राष्ट्र की नहीं, बल्कि पूरे मानवता की आवश्यकता है।
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के महान क्रांतिकारियों में से एक नाम भवानी प्रसाद भट्टाचार्य का भी लिया जाता है, जिन्होंने अपनी शहादत से ब्रिटिश साम्राज्य को चुनौती दी और हमें अपनी स्वतंत्रता की राह पर चलने का संकल्प दिया। उनका जीवन और बलिदान हमें यह सिखाता है कि स्वतंत्रता की प्राप्ति के लिए हर संभव प्रयास करना चाहिए, चाहे वह कितनी भी बड़ी कीमत पर हो।
सर जॉन एंडरसन और उसका आतंक
सर जॉन एंडरसन को ब्रिटिश शासन के कुख्यात गवर्नर जनरल के रूप में जाना जाता था। वह क्रांतिकारियों के प्रति अपनी निर्दयता और दमन के लिए कुख्यात था, और अपनी दमनकारी नीतियों के चलते उसने न केवल भारत में, बल्कि आयरलैंड में भी क्रांतिकारियों पर जुल्म किए थे।
एंडरसन के अत्याचारों ने बंगाल में खासा आक्रोश पैदा किया था, और यही कारण था कि उसे विशेष रूप से बंगाल में बुलाया गया था। एंडरसन का बंगाल में आना, क्रांतिकारियों के लिए एक चुनौती बन गया था, और उन्होंने उसे अपना टारगेट बनाने का निर्णय लिया।
एंडरसन की हत्या की योजना
क्रांतिकारियों ने सर जॉन एंडरसन की हत्या के लिए एक सशक्त योजना तैयार की थी। मई 1934 में एंडरसन दार्जिलिंग के लेबंग रेस कोर्स में घुड़दौड़ देखने के लिए पहुंचे थे, और क्रांतिकारी इस मौके का पूरा फायदा उठाने के लिए वहां पहुंच गए।
8 मई 1934 को, भवानी प्रसाद भट्टाचार्य और रवींद्रनाथ नाथ ने एंडरसन को निशाना बनाकर पिस्तौल से गोलियां चलाईं, लेकिन दुर्भाग्यवश एंडरसन बच गया। इस असफल प्रयास के बाद, क्रांतिकारियों के खिलाफ अंग्रेजी शासन ने कठोर कदम उठाए और उन पर मुकदमा चलाया।
मुकदमा और सजा
इस घटना के बाद, भवानी प्रसाद भट्टाचार्य, रवींद्रनाथ नाथ, मनोरंजन बनर्जी, उज्जला, मधुसूदन, सुकुमार, और सुशील कुल सात क्रांतिकारियों पर मुकदमा चलाया गया। विशेष अदालत ने भवानी प्रसाद भट्टाचार्य, रवींद्रनाथ नाथ, और मनोरंजन बनर्जी को फांसी की सजा सुनाई, जबकि अन्य को उम्र भर की सजा दी गई।
कलकत्ता उच्च न्यायालय में अपील की गई, और अदालत ने भवानी प्रसाद भट्टाचार्य और रवींद्रनाथ नाथ की फांसी की सजा को बरकरार रखा, जबकि मनोरंजन बनर्जी की फांसी की सजा को उम्र कैद में बदल दिया। अन्य दोषियों की उम्र कैद की सजा को घटाकर 14 साल के कारावास में बदल दिया गया।
भवानी प्रसाद भट्टाचार्य की शहादत
3 फरवरी 1935 को, भवानी प्रसाद भट्टाचार्य को फांसी दी गई। इस शहादत ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में एक नया मोड़ लिया। उनका बलिदान, उनकी साहसिकता, और उनके कृत्यों ने यह साबित कर दिया कि स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए किसी भी बलिदान से पीछे नहीं हटना चाहिए।
शत शत नमन
भवानी प्रसाद भट्टाचार्य का जीवन और उनकी शहादत हमें यह सिखाती है कि स्वतंत्रता की लड़ाई में जो साहस, समर्पण और बलिदान होता है, वही असली महानता है। उनका नाम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के नायक के रूप में हमेशा याद किया जाएगा।
शत शत नमन उस महान क्रांतिकारी को, जिन्होंने अपनी जान की आहुति देकर हमें हमारी स्वतंत्रता की राह दिखायी। उनका संघर्ष और बलिदान भारतीय इतिहास में अमर रहेगा।
सूफ़ी अंबा प्रसाद: क्रांतिकारी साहस और भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के अदृश्य नायक
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में कई महान क्रांतिकारियों ने अपनी जान की आहुति दी और शौर्य की मिसाल पेश की। उन्हीं अद्वितीय क्रांतिकारियों में से एक थे सूफ़ी अंबा प्रसाद, जिनका जीवन एक साहसिक संघर्ष और देशभक्ति से प्रेरित था। उनके अद्वितीय कार्यों और बलिदानों ने न केवल भारत में बल्कि विदेशों में भी भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की ज्वाला को प्रज्वलित किया। उनका जीवन एक अद्भुत कहानी है, जिसमें संघर्ष, साहस, और देशभक्ति की अपार शक्ति निहित है।
जन्म और प्रारंभिक जीवन
अंबा प्रसाद भटनागर, जिन्हें हम आज सूफ़ी अंबा प्रसाद के नाम से जानते हैं, का जन्म 21 जनवरी 1858 को मुरादाबाद, उत्तर प्रदेश में हुआ था। बचपन से ही उनके दाहिने हाथ का अभाव था, लेकिन इससे उनके जीवन के उत्साह और साहस में कोई कमी नहीं आई। उन्होंने अपनी शिक्षा में खूब मेहनत की और एफ.ए. (Intermediate) करने के बाद जालंधर से वकालत की पढ़ाई की।
पत्रकारिता और सविनय अवज्ञा आंदोलन
अंबा प्रसाद ने अपने जीवन की शुरुआत पत्रकारिता से की, और “जाम्युल इलूम” जैसे उर्दू साप्ताहिक पत्रिका का संपादन किया। उनका लेखन, ब्रिटिश साम्राज्य और भारतीय समाज में व्याप्त कुंठित व्यवस्था के खिलाफ था। वे हिंदू-मुस्लिम एकता के पक्षधर थे और उनके लेख देशभक्ति से ओत-प्रोत थे। उनके ऐसे लेखों के कारण, 1897 में उन्हें राजद्रोह के आरोप में डेढ़ साल की सजा हुई और वे जेल भेजे गए।
गुप्तचरों की दुलत्ती और ब्रिटिश रेजिडेंट के खिलाफ संघर्ष
1890 में अंबा प्रसाद ने एक अत्यधिक साहसिक कदम उठाया। वे अमृत बाजार पत्रिका के लिए समाचार प्राप्त करने के उद्देश्य से अंग्रेज रेजिडेंट के घर नौकर के रूप में काम करने लगे। इसके बाद उन्होंने रेजिडेंट के काले कारनामों की सूचना अमृत बाजार में प्रकाशित कर दी। इस कार्य के कारण रेजिडेंट को नगर छोड़ना पड़ा, लेकिन उनके खिलाफ खबर देने वाले गुप्तचरों को पकड़वाने के लिए रेजिडेंट ने ईनाम की घोषणा की।
इस दौरान, एक मजेदार घटनाक्रम घटित हुआ। रेजिडेंट के घर काम करने वाला एक “पागल” नौकर, जिसने गुप्त समाचार दिए थे, बिना किसी लालच के रेजिडेंट से कहता है: “अगर मैं आपको उस भेदिए का नाम बता दूं तो क्या आप मुझे ईनाम देंगे?” रेजिडेंट ने कहा: “हाँ, मैं तुम्हें ईनाम दूंगा।” नौकर ने कहा: “तो सुनिए, वह मैं ही था!”
रेजिडेंट की स्थिति हास्यास्पद हो गई। जब उसने सूफ़ी अंबा प्रसाद को देखा तो वो चुपचाप मुँह में घड़ी की पट्टी रखकर बोला, “यह लो, यह तुम्हारा ईनाम और मैं तुम्हें CID में अफसर बना सकता हूं, 1800 रुपये महीने!” इस पर सूफ़ी अंबा प्रसाद का जवाब था: “अगर मुझे वेतन का लालच होता तो क्या मैं आपके रसोईघर में झूठे बर्तन धोता?”
कारावास और संघर्ष की लंबी यात्रा
साल 1899 में सूफ़ी अंबा प्रसाद को फिर से जेल भेजा गया, और उन्होंने वहां अमानवीय यातनाएँ सहन कीं। लेकिन उनके आत्मबल में कोई कमी नहीं आई। एक बार अंग्रेज़ जेलर ने कहा, “तुम मरे नहीं?” स्माइली के साथ उन्होंने जवाब दिया, “जनाब, तुम्हारे राज का जनाजा उठाए बिना मैं कैसे मर सकता हूँ?”
विदेश में संघर्ष
1906 में जेल से रिहा होने के बाद सूफ़ी अंबा प्रसाद ने हैदराबाद और लाहौर की यात्रा की, जहाँ उन्होंने भारत माता सोसायटी के साथ काम करना शुरू किया। इस दौरान उन्होंने “बागी मसीहा” (विद्रोही ईसा) नामक पुस्तक लिखी, जिसे ब्रिटिश सरकार ने आपत्तिजनक माना और उन्हें गिरफ्तार करने की योजना बनाई। गिरफ्तारी से बचने के लिए सूफ़ी अंबा प्रसाद नेपाल भाग गए, लेकिन वहाँ भी पकड़कर उन्हें भारत लाया गया।
ईरान में गदर पार्टी और ब्रिटिश विरोध
ईरान में सूफ़ी अंबा प्रसाद ने भारतीय क्रांतिकारियों के साथ मिलकर गदर पार्टी का नेतृत्व किया। उन्होंने वहां के क्रांतिकारियों को भी ब्रिटिश शोषण के खिलाफ जागरूक किया और “आबे हयात” नामक समाचार पत्र निकाला। उनका उद्देश्य था ब्रिटिश साम्राज्य को ईरान में भी चुनौती देना। शीराज में ब्रिटिश काउंसलर के घर धावा बोलते हुए सूफ़ी अंबा प्रसाद ने ब्रिटिश सेना से जमकर मुकाबला किया।
शहादत और विरासत
अंततः 1915 में, सूफ़ी अंबा प्रसाद को पकड़ा गया और उनका कोर्ट मार्शल हुआ। कहा जाता है कि 21 फरवरी 1915 को उन्होंने समाधि लेकर अपने प्राणों का त्याग किया। अंग्रेज़ों ने उनका पार्थिव शरीर रस्सी से बांधकर गोली मारी। ईरान में वे “आका सूफ़ी” के नाम से प्रसिद्ध हो गए, और आज भी उनके मकबरे पर उर्स लगता है, जहाँ लोग चादर अर्पित कर मन्नतें मांगते हैं।
शत शत नमन
सूफ़ी अंबा प्रसाद का जीवन हमें यह सिखाता है कि क्रांतिकारी संघर्ष कभी अकेला नहीं होता। उनका संघर्ष केवल भारत के स्वतंत्रता संग्राम के लिए नहीं, बल्कि पूरी दुनिया में शोषण और अत्याचार के खिलाफ था। उनका जीवन आज भी प्रेरणा का स्रोत है, और उनका नाम भारतीय इतिहास में हमेशा अमर रहेगा।
शत शत नमन उस वीर क्रांतिकारी को, जिन्होंने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में अपना सर्वस्व समर्पित किया और ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ शहादत दी।
भारत की स्वतंत्रता संग्राम की कहानी में कई ऐसे नायक हैं, जिनकी वीरता और साहस ने ब्रिटिश साम्राज्य को हिलाकर रख दिया। उन्हीं महान क्रांतिकारियों में से एक थे सोहनलाल पाठक, जिनका नाम गदर पार्टी के संघर्ष के इतिहास में अमर रहेगा। उनका जीवन भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की प्रेरणादायक और साहसिक गाथा है, जो न केवल विरोधी सत्ता से जूझने की अनकही प्रेरणा देता है, बल्कि उस समय के क्रांतिकारी आंदोलन के संघर्ष की भी मिसाल प्रस्तुत करता है।
गदर पार्टी और क्रांतिकारी संघर्ष
गदर पार्टी का उद्देश्य भारतीय स्वतंत्रता की प्राप्ति के लिए अंग्रेजों के खिलाफ सशस्त्र संघर्ष करना था। 1 अगस्त 1914 को सोहनलाल पाठक इस ऐतिहासिक आंदोलन में सक्रिय रूप से जुड़े थे, और उन्होंने मेमियों तोपखाने के माध्यम से गदर का प्रचार किया। उनके पास तीन पिस्तौल और 270 कारतूस थे, जो इस आंदोलन में उनके साहस और समर्पण को दर्शाते हैं।
यह समय भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में एक निर्णायक मोड़ था, जब गदर पार्टी ने अंग्रेजों के खिलाफ बगावत का बिगुल बजाया था। सोहनलाल पाठक ने इस आंदोलन में अपनी पूरी शक्ति और साहस झोंक दिया था, लेकिन उन्होंने किसी भी प्रकार की हिंसा या विरोध में भाग लेने के बजाय, अपनी गिरफ्तारी को स्वीकार किया।
गिरफ्तारी और अद्वितीय साहस
सोहनलाल पाठक को गिरफ्तार किया गया और उनके खिलाफ मुकदमा चलाया गया। इस मुकदमे में ब्रिटिश सरकार ने उन्हें फांसी की सजा दी। गिरफ्तारी के बाद उन्हें कई बार माफी मांगने का आग्रह किया गया, लेकिन उन्होंने इस आग्रह को नकारते हुए अपनी सजा स्वीकार की। उन्होंने अपनी देशभक्ति और साहस का परिचय देते हुए माफी नहीं मांगी, क्योंकि उनका मानना था कि स्वतंत्रता की प्राप्ति केवल संघर्ष और बलिदान से ही संभव है, न कि अंग्रेजों के सामने समर्पण से।
यह उनके अद्वितीय साहस का प्रतीक था कि वे अपने उच्चतम आदर्शों के लिए अपनी जान देने को तैयार थे, न कि केवल अपने जीवन को बचाने के लिए अंग्रेजों से माफी मांगते। उनका यह समर्पण और संघर्ष हमेशा भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में एक प्रेरणा स्रोत रहेगा।
शहादत
अंततः सोहनलाल पाठक को फांसी की सजा दी गई, और उन्होंने वीरता से अपनी शहादत दी। उनके साहस और त्याग ने न केवल गदर पार्टी के साथियों को बल्कि समूचे देश को यह संदेश दिया कि स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए किसी भी बलिदान से पीछे नहीं हटना चाहिए। उनके संघर्ष ने उस समय के अन्य क्रांतिकारियों के लिए एक नई ऊर्जा और प्रेरणा का काम किया।
शत शत नमन
सोहनलाल पाठक का जीवन हमें यह सिखाता है कि देश की स्वतंत्रता के लिए केवल संघर्ष ही नहीं, बल्कि अपने आदर्शों पर अडिग रहना भी जरूरी है। उन्होंने अपनी जान देकर यह साबित किया कि आज़ादी की कीमत केवल संघर्ष से ही चुकाई जा सकती है, और इसके लिए हमें कभी भी किसी भी बलिदान से पीछे नहीं हटना चाहिए।
शत शत नमन उस महान क्रांतिकारी को, जिन्होंने अपनी प्राणों की आहुति देकर भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को एक नई दिशा दी और हमें यह दिखाया कि देश की सेवा में कभी कोई समझौता नहीं करना चाहिए।
भारत के स्वतंत्रता संग्राम की गाथा में कई ऐसे महान सेनानी और सेनानियाँ हैं, जिनका योगदान आज भी हम श्रद्धा से याद करते हैं। इन्हीं में से एक नाम है भीखाजी कामा का, जिन्होंने अपने जीवन को भारत की स्वतंत्रता के लिए समर्पित कर दिया। भीखाजी कामा का जीवन न केवल संघर्ष का प्रतीक है, बल्कि यह हमें यह सिखाता है कि स्वतंत्रता की प्राप्ति के लिए केवल शारीरिक संघर्ष ही नहीं, बल्कि बुद्धिमत्ता, साहस और दृढ़ता भी आवश्यक है।
जन्म और प्रारंभिक जीवन
भीखाजी कामा का जन्म 24 सितंबर 1861 को बम्बई (अब मुंबई) के एक संपन्न पारसी परिवार में हुआ था। उनका नाम पहले अम्बा प्रसाद भटनागर था, लेकिन स्वतंत्रता संग्राम में उनकी भूमिका को देखते हुए उन्हें हमेशा भीखाजी कामा के नाम से ही जाना गया। उनके परिवार में हमेशा शिक्षा और संस्कृति को महत्व दिया गया, और इस कारण भीखाजी ने अलेक्जेंड्रा गर्ल्स स्कूल से अपनी शिक्षा प्राप्त की।
1885 में, उनका विवाह रुस्तम जी कामा के साथ हुआ, जो एक वकील थे। यह विवाह एक सशक्त और समर्पित जोड़ी बनकर उभरा, जो देश की सेवा में पूरी तरह से समर्पित था।
स्वतंत्रता संग्राम में योगदान
भीखाजी कामा का स्वतंत्रता संग्राम में योगदान शुरुआत से ही उल्लेखनीय रहा। दिसंबर 1885 में, कांग्रेस के पहले अधिवेशन में भाग लेकर आपने भारतीय राजनीति में कदम रखा। इसके बाद 1896 में बम्बई में प्लेग के प्रकोप के समय आपने मरीजों की सेवा की थी, हालांकि इस समय आप भी प्लेग की चपेट में आ गई थीं। उपचार हेतु डॉक्टरों ने आपको यूरोप जाने की सलाह दी, और 1902 में आपने यूरोप की यात्रा की।
क्रांतिकारी कार्य
लंदन में रहते हुए, भीखाजी कामा ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में अपनी सक्रिय भूमिका शुरू की। यहाँ उनका संपर्क दादाभाई नौरोजी और क्रांतिकारियों जैसे श्यामजी कृष्ण वर्मा और वीर सावरकर से हुआ। इस समय ब्रिटिश सरकार ने उन्हें गिरफ्तार करने की योजना बनाई, लेकिन उन्होंने चुपचाप लंदन छोड़कर पेरिस का रुख किया।
पेरिस में भी आपने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को नई दिशा दी। यहाँ, वंदे मातरम नामक समाचार पत्र का प्रकाशन शुरू किया, जिसके माध्यम से आपने भारतीयों पर हो रहे अंग्रेजों के अत्याचारों की सूचना दी। इसके अलावा, आपने तलवार और इंडियन फ्रीडम समाचार पत्रों का संचालन भी किया, जो ब्रिटिश शासन के खिलाफ जागरूकता फैलाने का एक बड़ा माध्यम बने।
भारतीय ध्वज का उद्घाटन
भीखाजी कामा की पहचान का एक और महत्वपूर्ण अध्याय उस समय से जुड़ा है जब 22 अगस्त 1907 को जर्मनी के यस्टुटगार्ट नगर में आयोजित सातवें अंतरराष्ट्रीय समाजवादी सम्मेलन में आपने भारतीय ध्वज लहराया था। यह ध्वज तीन रंगों—हरे, पीले और लाल—में था, और इसमें वंदे मातरम लिखा हुआ था। इस ध्वज में 8 कमल के फूल, सूर्य और चंद्रमा थे, जो भारतीय राष्ट्रीय एकता के प्रतीक थे।
इस सम्मेलन में उन्होंने कहा, “भारत में ब्रिटिश शासन जारी रहना मानवता के नाम पर कलंक है। एक महान देश भारत के हितों को इससे भारी क्षति पहुँच रही है।” उनका यह बयान भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की दिशा को और मजबूती देने वाला था।
अंतरराष्ट्रीय समर्थन और वीरता
भीखाजी कामा ने अपने जीवन में न केवल भारत, बल्कि पूरे विश्व में साम्राज्यवाद के खिलाफ एक मजबूत आवाज उठाई। उन्होंने मदनलाल धींगरा द्वारा कर्जन वायली की हत्या की खबर को प्रमुखता से प्रकाशित किया और इसे ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ आवाज के रूप में प्रस्तुत किया।
उनकी न केवल भारतीय स्वतंत्रता संग्राम, बल्कि अन्य देशों में भी संघर्षरत लोगों के लिए मदद की एक मजबूत धारा बन गई। आपने फ्रांस, जर्मनी, आयरलैंड, और रूस के क्रांतिकारियों से संपर्क स्थापित किया, और उन सभी देशों में ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ संघर्ष को बढ़ावा दिया।
गिरफ्तारियां और संघर्ष
प्रथम विश्व युद्ध के दौरान, जब फ्रांस ने भीखाजी कामा को गिरफ्तार किया, तो उनकी सक्रियता थोड़ी देर के लिए कम हुई। युद्ध समाप्त होने पर, 1918 में उन्हें रिहा किया गया, लेकिन उनका संघर्ष लगातार जारी रहा।
भारत लौटना और निधन
दिसंबर 1935 में, भीखाजी कामा भारत लौटीं, लेकिन उनका स्वास्थ्य लगातार गिरता गया। 16 अगस्त 1936 को उनका निधन हुआ, लेकिन उनके योगदान को भारत कभी नहीं भुला पाएगा। उनकी ज़िंदगी ने यह सिद्ध कर दिया कि स्वतंत्रता की प्राप्ति के लिए केवल शरीर का नहीं, बल्कि मानसिक और नैतिक बल का भी होना आवश्यक है।
शत शत नमन
भीखाजी कामा ने न केवल भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में अपनी अद्वितीय भूमिका निभाई, बल्कि पूरे विश्व में भारतीयों के शोषण और संघर्ष की आवाज़ उठाई। उनका जीवन हमें यह सिखाता है कि संघर्ष केवल देश की सीमाओं में नहीं, बल्कि वैश्विक स्तर पर भी महत्वपूर्ण होता है।
शत शत नमन उस वीरांगना को, जिन्होंने भारत के स्वतंत्रता संग्राम को न केवल विचारों से, बल्कि अपने कार्यों से भी जीवित रखा और हमेशा हमारे दिलों में जीवित रहेंगी।
भारतीय स्वतंत्र संग्राम में वीर विनायकराव सावरकर का विशेष योगदान रहा। वीर सावरकर का जन्म 28 मई 1883 को भंगुर नासिक तत्समय बॉम्बे प्रेसीडेंसी में हुआ था। आपने अपनी बाल्यावस्था में ही क्रांतिकारी गतिविधियों में भाग लेना शुरू कर दिया था ।
सन 1899 में आपने नासिक में “देशभक्तों का मेला ” नामक दल का गठन किया।
अध्ययन काल में ही 1900 में नासिक में “मित्र मेला” की भी स्थापना की व मित्र मेलों का आयोजन करते थे।
आपने शिवाजी हाई स्कूल से सन 1901 में उन्होंने मैट्रिक पास करने के बाद फर्गुसन कॉलेज में पूना में प्रवेश लिया था।
आपने “आर्यन वीकली “ पत्रिका का संपादन किया। यह जो हस्तलिखित पत्रिका थी। आपने 22 जनवरी 1901 भारत में ब्रिटेन की महारानी विक्टोरिया का शोक दिवस मनाए जाने का विरोध किया था ।
सन 1904 में आपने “अभिनव भारत सोसायटी “ का गठन किया। इस सोसाइटी की माध्यम से क्रांतिकारी गतिविधियों का संचालन करते रहे।
1 अक्टूबर 1905 को आपने ही भारत में पहली बार विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार की घोषणा की थी। आपने ही 22 अगस्त 1906 को पूना में विदेशी वस्त्रों की होली जलाई थी।
लोकमान्य बालगंगाधर तिलक के मार्गदर्शन तथा अनुमोदन पर आपको विदेश में शिक्षा हेतु श्री श्यामजी वर्मा से छात्रवृत्ति दी गई। आप सुनियोजित योजना से 1906 में लंदन इंग्लैंड पहुंचे व श्यामजी कृष्ण वर्मा के साथ इंडिया हाउस की गतिविधियों में सक्रिय रूप से लग गए।
इंग्लैंड जाने के पूर्व आपने अभिनव भारत का उत्तरदायित्व अपने बड़े भाई श्री गणेश सावरकर को सम्भलाया। इस संगठन के मार्गदर्शक श्री तिलक थे।
लंदन के इंडिया हाउस में रहकर आपने भारतीय छात्रों को राष्ट्रीय स्वाधीनता के लक्ष्य हेतु एकत्र करने तथा उनमें राष्ट्रवाद की अलख प्रज्वलित करने के कार्य में लग गए। इंडिया हाउस भारतीय स्वतंत्र संग्राम के क्रांतिकारियों का अड्डा बन चुका था।
आपने लंदन अध्ययनरत छात्रों से सम्पर्क किया। इसी क्रम में आपकी मुलाकात मदनलाल ढींगरा से हुई जो वहां पढ़ने गए हुए थे।
आपने लंदन में इटली के महान क्रान्तिकारी मैज़ीनी की जीवनी का मराठी में अनुवाद कर इसे भारत भेजा जो भारतीय क्रान्तिकारियों के लिए प्रेरणास्रोत बनी।
लंदन में आपने 10 मई 1907 को भारतीय प्रथम स्वतंत्रता संग्राम (1857) की 50 वीं वर्षगाँठ मनाई। इस कार्यक्रम में क्रांतिकारीयों ने बैज लगाए । आपने ही इस कार्यक्रम में अंग्रेज़ों द्वारा सेना विद्रोह कहे जाने वाले एक्शन को भारतीय स्वतंत्रता संग्राम घोषित किया।
इस पुस्तक के छपने से पूर्व ही अंग्रेजों ने इसे बिना पढ़े ही प्रतिबंधित कर दिया।
अंग्रेजों के लाख प्रयत्नों के बावजूद मैडम भीकाजी कामा ने इस पुस्तक को सफलतापूर्वक जर्मनी, नीदरलैण्ड तथा फ़्रांस से प्रकाशित करा लिया व बड़ी कठिनाइयों से इसकी प्रति भारत पहुंचाया गयी।
शहीदे आजम भगत सिंह ने इस पुस्तक का रूपांतरण किया । भगतसिंह और उनके साथी इस पुस्तक से बहुत प्रेरित रहे।
यह पहली पुस्तक थी जिसे प्रकाशित किये जाने से पूर्व ही बिना पढ़े प्रतिबंधित किया गया।
इंडिया हॉउस की गतिविधियां पर नजर रखने हेतु ब्रिटिश खुफिया विभाग ने अपने जासूस नियुक्त किए ।
वीर सावरकर जासूसों के जासूस थे । उन्होंने एक भरतीय अंग्रेजी को देशभक्ति का पाठ पढ़ा कर उसका ह्रदय परिवर्तन कर दिया अब वह देश हित में सावरकर को अंग्रेजों की सूचना देने लगा।
इस समय सावरकर रूस, टर्की, स्वीडन ,फ्रांस ,आयरलैंड आदि देशों के क्रान्तिकारियों से अपने संबंध-संपर्क स्थापित कर चुके थे ।
उन दिनों स्टुडगार्ड (जर्मनी) में अंतरराष्ट्रीय सोशलिस्ट कांग्रेस का आयोजन हुआ । जिसमें दुनियाँ भर के सोशलिस्टों ने भाग लिया। सावरकर की योजन अनुसार इस कॉन्फ़्रेंस में सरदार सिंह राणा व मैडम कामा ने भाग लिया । मैडम कमा ने इस कॉन्फ्रेंस में सावरकर के कार्यक्रम अनुसार स्वतंत्र भारत का 8 कमल ,सूरज, चाँद व वंदेमातरम वाला ध्वजारोहण किया।
इस कॉन्फ्रेंस के समाचार दुनियां के सभी समाचार पत्रों प्रकाशन हुआ।
सावरकर ने फ्री इंडिया सोसायटी का गठन किया। जिसमें भाई परमानंद , मदन लाल धींगरा , लाला हरदयाल, सेनापति बापट, बाबा जोशी, महेश चरण सिन्हा कोरगांवकर , हरनाम सिंह आदि प्रमुख थे। सावरकर ने लंदन में ग्रेज इन्न लॉ कॉलेज से Bar At Law की डिग्री लेली । परंतु उनकी क्रांतिकारी गतिविधियों के कारण सरकार ने डिग्री जप्त कर दी।
लंदन में रहकर अपने क्रांतिकारी कार्यो के कारण सावरकर विश्व विख्यात हो गए।
सावरकर ने एक क्रांतिकारी को रूसी क्रांतिकारियों के पास बम बनाने की तकनीक सीखने हेतु भेजा तथा । बम्ब बनाने की 45 तकनीकों को रेखचित्र सहित अपने भाई बाबा सावरकर को भेजी।
वास्तव में श्री सावरकर भारत में ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध छापामार युद्ध की योजना पर कार्यरत थे।
उनकी योजना पूरे भारत में एक ही समय पर, एक साथ कई ब्रिटिश ठिकानों पर बम धमाकों द्वारा ब्रिटिश साम्राज्य को हिलाने की थी। सावरकर ने इंडिया हाउस लंदन से कई बार गुप्त पार्सलों में भारत हथियार भेजें।
सन 1907 में लाला लाजपतराय व अजीत सिंह जी को गिरफ्तार किये जाने के विरुद्ध सावरकर ने लंदन में एक सभा का आयोजन किया गया था। इस सभा के मुख्य वक्ता सावरकर ही थे।
इसी समय भारत में अंग्रेज़ों द्वारा खुदीराम बोस, कन्हैई लाल दत्त, सत्येंद्र नाथ वसु तथा कांशीराम को फाँसी दी गई।
इस पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए 20 जून 190 9 को इंडिया हाउस में की गई बैठक में सावरकर ने बदला लेने की घोषणा कर दी थी।
इसी योजना के अंतर्गत 19 दिसंबर 1909 को अभिनव भारत के अनंत कन्हरे ने नासिक कलेक्टर जैकसन का वध किया था।
जिस रिवाल्वर से अन्नत कन्हरे ने जैक्सन का वध किया गया था। वो सावरकर द्वारा लंदन से ही भेजा गया था।
सावरकर बंगाल विभाजन के लिए भारत सचिव कर्जन वायली को दोषी मानते थे । वायली अपने जासूसों की मार्फ़त इंडिया हॉउस पर निगरानी रख रहा था। इसलिए वायली उनके टारगेट पर आ गया।
सावरकर की योजनानुसार ही क्रांतिवीर मदनलाल ढींगरा ने दिनाँक 1 जुलाई 1909 जहाँगीर हॉल लंदन में कर्ज़न वायली का गोली मारकर वध किया था।
ढींगरा को रिवॉल्वर भी सावरकर ने ही उपलब्ध कराया था
लंदन में वायली के सरेआम वध के बाद लंदन के प्रमुख समाचार पत्रों में “हिंदुस्तानियों ने अंग्रेज़ों के विरुद्ध अंग्रेज़ों की धरती पर ही युद्ध प्रारंभ कर दिया है” , खबर ने ब्रिटिश सरकार को हिलाकर रख दिया।
श्री सावरकर ने ढींगरा को हर संभव क़ानूनी सहायता प्रदान की, पर उन्हें बचा न सके।
वायली वध के बाद अंग्रेजों के भारतीय पिठुओं ने ढींगरा के विरूद्ध सर्वसम्मति से निंदा प्रस्ताव पारित करने के आशय से लंदन में आम सभा बुलाई इस सभा में एक अंग्रेज ने सावरकर के थप्पड़ मारते हुए कहा look! how straight the English first goes
तभी सावरकर के पास खड़े भारतीय क्रांतिकारी M. P. चिरूमलाचार्य ने पामर के मुक्का मारते हुए जबाब दिया look! how straight the Indian club goes
इस सभा मे सावरकर आपत्ति की व सर्वसम्मति से प्रस्ताव को पारित होने से रोकने में सफल रहे।
लंदन में सावरकर को भारत मे अपने इकलौते पुत्र प्रभाकर की मृत्यु का समाचार मिला।
इस दुःख को उन्होंने सहन किया व अपने लक्ष्य ओर चलते ही रहे।
अब सावरकर अंग्रेजों के लिए एक चुनौती बन चुके थे। इसलिए ब्रिटिश सरकार किसी भी तरह से सावरकर को गिरफ्तार कर जेल में डालना चाहती थी।
इस हेतु ब्रिटिश सरकार ने सावरकर पर सम्राट के विरुद्ध युद्ध करने, युवाओं को ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध भड़काने तथा बम बनाने का साहित्य प्रसारित करने के आरोप लगाते हुए उनकी गिरफ़्तारी के लिए भारत तथा इंग्लैंड में एक साथ वारंट निकाला
सावरकर को दिनाँक 13 मार्च 1910 (बुधवार) को विक्टोरिया स्टेशन पर गिरफ्तार शाम को ओल्ड बिली कोर्ट में पेश किया गया। जिसने 12 मई 1910 को सावरकर पर भारत में अभियोग चलाने का आदेश दिया।
सावरकर अपने स्त्रोतों से पता लगा लिया था कि उन्हें दिनाँक 1 जुलाई 1910 को ‘मोरिया’ नामक जहाज़ से भारत ले जाया जायेगा वह फ्रांस के दक्षिणि तट मार्सलीज से गुज़रेगा ।
इसलिए सावरकर ने भिकाजी कामा व श्यामजी वर्मा व साथियों से मिलकर यह योजन बनाई कि सावरकर समुद्र में कूद कर तैरते हुए मार्सलीज पहुंच जाएंगे। वहां ये लोग टेक्सी तैयार रखेंगे जिससे सावरकर निकल लेंगे।
इस योजनानुसार सावरकर ने दिनांक 8 जुलाई 1910 को जहाज के शौचालय की खिड़की तोड़ कर खुले समुद्र में ऐतिहासिक छलांग लगाई व पुलिस फायरिंग से बचते हुए तैरकर मार्सलीज पहुंच गए पर मौका टैक्सी नहीं पहुंची।
सावरकर को अंतर्राष्ट्रीय विधि का ज्ञान था और उन्हें पता था कि फ्रांस में इंग्लैंड की सरकार की पुलिस उन्हें गिरफ्तार नहीं कर सकती ।
इसलिए उन्होंने भागकर अपने आप को फ्रांस के एक पुलिस अधिकारी के समक्ष पेश करते हुए उसे समझाया कि वह उन्हें ब्रिटिश पुलिस की गिरफ्तारी से बचाये। परंतु फ्रांस के उस पुलिस अधिकारी को अंतर्राष्ट्रीय विधि का कुछ भी ज्ञान नहीं था और उसने अंग्रेजी पुलिस अधिकारियों से मिलकर सावरकर को ब्रिटिश पुलिस को सौंप दिया।
सावरकर की फ्रांस से गिरफ्तारी का मामला अंतरराष्ट्रीय न्यायालय हेग में ले जाया गया और फ्रांस सरकार ने ब्रिटेन के विरुद्ध आक्षेप लगाया कि अंग्रेजी सरकार द्वारा फ्रांस की सीमा से राजनीतिक बंदी की गिरफ्तारी गलत की गई है । दोनों देशों में सावरकर की गिरफ्तारी के कारण तनाव आ गया परंतु कुछ मध्यस्थों ने बीच-बचाव करके फ्रांस को मना लिया और फ्रांस ने अपनी बात को छोड़ दिया।
बम्बई में सावरकर के सम्राट के विरुद्ध युद्ध करने व जैक्सन की हत्या में हाथ होने के विरुद्ध विशेष न्यायालय में मुकदमा चलाये गए।
पहले सम्राट के विरुद्ध युद्ध के मामले में सावरकर को दिनाँक 24 दिसंबर 1910 को आजीवन कारावास की कालापानी की सज़ा सुनाई। फिर नाशिक कलेक्टर जैकसन की हत्या के मामले में भी दिनाँक 11 अप्रैल 1911को काला पानी की सजा दे दी गई। इस प्रकार सावरकर को दोआजीवन कारावास के दंड से दंडित किया गया। सावरकर को दो आजीवन कारावास भुगतान हेतु अप्रैल 1911 में अंडमान सेल्यूलर जेल में भेज दिया गया।
वीर सावरकर नें लंदन में रहकर अंग्रेजों के जासूसों की आंखों में धूल झोंक कर स्वतंत्रता संग्राम को निरन्तर गति प्रदान की।
इसलिए अंग्रेजी सरकार सावरकर को अपना सबसे बड़ा खतरनाक दुश्मन मानती थी । अंडमान जेल में सावरकर एकमात्र कैदी थे जिन्हें खतरनाक कैदी का दर्जा दिया गया । जिनके गले में ” D ” यानी Dangerous बैज लगा था ।
सावरकर को अंडमान जेल पहले 6 माह तक एक कालकोठरी में एकांतवास में रखा गया।
हथकड़ी व बेड़ियों में रखा जाता था। नारियल को हाथों से तोड़ कर रस्सी बनवाई जाती थी जिससे हाथ लहूलुहान रहते थे।
कोलू में जोतकर नारियल का तेल निकालने का काम करवाया जाता था । थककर थोड़ा सुस्त होते ही बेंत से पिटाई की जाती थी।
जेल की मानवीय यात्राओं से परेशान होकर एक बार तो सावरकर ने भी आत्महत्या करने की सोच ली थी ।
अंडमान जेल का जेलर मिस्टर डेविड बैरी बहुत निर्दयी व्यक्ति था । कैदियों को जेल में बिल्कुल बेकार खाना दिया जाता था । नहाने के लिए मात्र 4 मग पानी दिया जाता था । कैदी को निर्धारित मात्रा में कोलू से तेल निकालना पड़ता था।
अच्छा खाना नहीं होने के कारण लगभग सभी कैदियों की हालत बहुत बुरी थी ।
वीर सावरकर ने जेल में ही अपनी आवाज को बुलंद कर जेल में बंद भारतीय क्रांतिकारियों को उर्जा प्रदान की ।
सावरकर के कहने से कैदियों ने जेल सुविधाओं के लिए भूख की हड़ताल करवाई।
उन्होंने गुप्त रूप से जेलर के खिलाफ एक शिकायत भिजवा दी जो लंदन के अखबारों में छपी जिसके कारण अंग्रेजी सरकार ने जेलर का स्थानांतरण किया ।
अंडमान जेल में दबाब डाल कर हिदू कैदियों का धर्म परिवर्तन करवाया जाता था।
सावरकर ने जेल में ही कैदियों को पढ़ाना व शुद्धिकरण करना शरू किया।
सन 1921 में सावरकर को अंडमान जेल से रतनागिरी जेल में लाया गया । 1923 में रतनागिरी से महाराष्ट्र के यरवदा( पूना) जेल में लाया गया।
यरवदा जेल से दिनाँक 6 जनवरी 1924 को इस शर्त पर रिहा किया कि आप रतनागिरी जिले से बाहर नहीं जाएंगे व किसी भी राजनीतिक गतिविधि में शामिल नहीं रहेंगे।।
सावरकर हिंदू धर्म में व्याप्त कुरूतियों व छुआछूत के बहुत खिलाफ थे । उन्होंने फरवरी 1931 में अस्पृश्यता उन्मूलन सम्मेलन की अध्यक्षता की थी। सावरकर ने बम्बई में “पतित पावन” मंदिर बनवाया जिसमें जाति से निम्न समझे जानेवाले व लोगों को भी प्रवेश करवाया।
आपने हिंदू समाज की 7 बेड़ियां स्पर्श बंदी , रोटी बंदी, बेटी बंदी, व्यवसाय बंदी , सिंधु बंदी , वेदोक्त बंदी व शुद्धि बंदी को बताया। आप राष्ट्रभाषा हिंदी व राष्ट्र लिपि देवनागरी बनाए जाने के पक्षधर थे
सन 1937 में कर्णावती, अहमदाबाद में हुए सम्मेलन में आपको अखिल भारतीय हिंदू महासभा का अध्यक्ष बनाया गया। ततपश्चात आप ही इसके बाद 6 बार अध्यक्ष रहे।
आपने 15 अप्रैल 1938 को मराठी साहित्य सम्मेलन की अध्यक्षता की ।
आपने 13 दिसंबर 1937 को नागपुर में आयोजित आम सभा को संबोधित करते हुए देश के बंटवारे के प्रस्ताव का विरोध किया।
नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने 22 जून 1941 को आपसे मुलाकात की और आपने उन्हें रासबिहारी बोस के पास जापान जाने हेतु प्रेरित किया था।
आपने अक्टूबर 1942 में चर्चिल को भी तार भेजा था ।
आपको 5 अक्टूबर 1948 को महात्मा गांधी की हत्या के आरोप में गिरफ्तार किया गया था परंतु कालांतर में आरोप मुक्त कर दिया गया था ।
आपने 10 नवंबर 1957 को स्वतंत्रता संग्राम की शताब्दी पर मुख्य वक्ता के रूप में अपना भाषण दिया ।
आपको पुणे विश्वविद्यालय से 8 अक्टूबर 1959 को डॉक्टरेट की डिग्री मिली। आप लिखकर चिंतक भी थे। आपने लगभग 10000 पृष्ठ मराठी भाषा के 1500 पृष्ठ अंग्रेजी भाषा में लिखे। आपने 40 पुस्तकें लिखी थी।। मराठी भाषा में आप की कविताएं अति लोकप्रिय है
आपने 1 फरवरी 1966 को जीवन पर्यंत व्रत शुरू किया
26 फरवरी 1996 को प्रातः 10:00 आप ने संसार से अंतिम विदाई ली।
पोर्ट ब्लेयर के अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डा को आपके नाम से बनाया गया ।
भारत सरकार द्वारा आपके सम्मान में डाक टिकट भी जारी किया गया।
वीर सावरकर पर कॉन्ग्रेस या अन्य लोगों द्वारा एक आक्षेप यह लगाया जा रहा है की उन्होंने अंग्रेजों से माफी मांगी थी।
यह आक्षेप बिल्कुल गलत है। इस पर कोई धारणा बनाने से पूर्व हमें उस समय की परिस्थितियों को समझना होगा।
जेल की कालकोठरियों में अमानवीय यातनाएं झेलने से तो देश आज़ाद हो नहीं सकता था।
सावरकर ही नहीं भारतीय सभी क्रांतिकारीयों की सोच यही थी कि जेल में सड़कर मरने से अच्छा है।। किसी भी तरह से जेल से बाहर निकले और क्रांतिकारी गतिविधियों को आगे बढ़ाएं। और क्रांतिकारी अनेक बार जेल से भागने में सफल भी रहे।
इस मामले में एकमात्र शहीदेआजम भगतसिंह की सोच अलग रही।उनके कारण उन्होंने ख़ुद बताए थे।
सावरकर द्वारा जेल से प्रेषित की गई पेटीशन को माफीनामा नहीं कहा जा सकता।
सावरकर बैरिस्टर थे और कानूनी प्रावधानों से अच्छी तरह परिचित थे । उन्होंने अपने कानूनी अधिकारों को प्राप्त करने हेतु उपरोक्त सभी पेटीशन प्रेषित की थी। जिन्हें आप स्वयं पढ़ सकते हैं :-
इन पेटीशन को समझने के लिए यह समझना आवश्यक है सावरकर को भारतीय दंड संहिता के अंतर्गत दो उम्रकैद की सजा दी गई थी
भारतीय दंड संहिता की धारा 55 में उम्र कैद की अवधि की गणना करने का सूत्र दिया हुआ। इस धारा के अनुसार उम्र कैद की अवधि अधिकतम 14 वर्ष हो सकती थी ।
उस समय Government Resolution number 5308 (judicial department) Dated 12 October 1905 के अनुसार कैदी को हर एक वर्ष की सजा पर दो कारावास की अवधि में दो माह की छूट मिलती थी । जिसे र Remission Earned by convict कहा जाता था।
सावरकर द्वारा प्रस्तुत पेटीशन में इस छूट लाभ मांगा गया है।
यही नहीं अंडमान जेल नियमों के अनुसार कैदी को कैद के 5 वर्ष पूर्ण करने के बाद उसके घरवालों से मिलने व 10 वर्ष बाद कैदी अपने घर वालों के साथ रहने के आदि आदि छूट दी जाती थी। जो सावरकर को नहीं दी गई थी। अपनी पेटीशन में सावरकर ने इनका भी उल्लेख किया है।
जहाँ तक शाही घोषणा के अंतर्गत कैदियों की आम रिहाई का प्रश्न है इसे भी देखिए।
प्रथम महायुद्ध में महात्मा गांधी जी द्वारा भारतीयो को ब्रिटिश फौज में भर्ती करवाया था ।
इसके कारण गांधीजी के आग्रह पर अंग्रेजों ने शाही घोषणा(Royal Proclamation_-Royal Amnesty to the Political Prisoners ) जारी कर के राजनीतिक कैदियों को जेल से रिहा किया गया था।
उक्त शाही घोषणा का लाभ सावरकर बंधुओं को नहीं दिया गया था। सावरकर ने अपनी एक पिटिशन में सावन में यह मुद्दा उठाया है।
सावरकर की महानता देखिए उन्होंने अपनी अंतिम दोनों पिटिशन में स्पष्ट लिखा है कि यदि उसे रिहाई नहीं दी जाती है तो न दें कम से कम अन्य कैदियों को तो रिहा करें ।
महात्मा गांधी, सरदार पटेल के आग्रह पर सावरकर ने अंतिम पेटीशन भेजी थी।
यह विचारणीय है कि सावरकर को उनके द्वारा प्रेषित पेटीशन के आधार पर जेल से रिहा नहीं किया गया था।
सावरकर की पेटीशन दिनाँक 12 जुलाई 1920 को अस्वीकार कर दी गई थी।
वस्तुतः श्री मोहम्मद फैयाज खान लेजिस्लेटर ने दिनांक 15 फरवरी 1921 को मुंबई लेजिसलेटिव असेंबली में सावरकर को जेल में दी जाने वाली यातनाओं के संबंध में प्रश्न उठाया।
विट्ठल भाई पटेल ने बम्बई लेजिस्लेटिव असेम्बली में दिनांक 24 फरवरी 1920 को सावरकर बंधुओं व अन्य राजनीतिक कैदियों की रिहाई का मामला उठाया।
इसके बाद रंगास्वामी एंकर ने दिनांक 26 मार्च 19 को बम्बई असेम्बली में सावरकर की रिहाई हेतु 50000 (पच्चास हजार)व्यक्तियों द्वारा हस्ताक्षरित ज्ञापन रखा।
गांधीजी ने दिनाँक 25 जनवरी1920 को सावरकर के भाई नारायणराव सावरकर को पत्र लिखकर सावरकर की रिहाई हेतु प्रयत्न करने का आश्वस्त किया व 26 मई 1920 में गाँधी जी यंग इंडिया में लेख भी छपवाना –
अंततः से जन प्रभाव के दबाव से Alexander Montgomery, Secretary Home Department भारतीय दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 401 के अंतर्गत रतनागिरी जिला से बाहर नहीं जाने व राजनीतिक गतिविधियों में भाग नहीं लेने की शर्तों के साथ सावरकर को रिहा करने के आदेश पारित किये।
सावरकर 13 वर्ष 9 माह 13 दिन जेल में कठोर यातनाओं को झेलने के बाद रिहा हुए।
इस पुस्तक को अवश्य पढ़ें। कुछ तथ्य व चित्र इसी पुस्तक से संकलित है।
शहीद-ए-आजम भगत सिंह केवल क्रांतिकारी नहीं, अपितु बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे । भगतसिंह जी महामृत्युंजयी, कालपुरुष , युगदृष्टा, दार्शनिक , विचारक , पत्रकार एंव क्रांतिवीर थे।
शहीदे आजम भगत सिंह का जन्म 28 सितंबर 1907 को प्रातः 9:00 का गांव बंगा जिला लॉयलपुर (वर्तमान पाकिस्तान ) में हुआ था।
आपको इंकलाब का नारा विरासत में प्राप्त हुआ था। आपके दादा सरदार अर्जुनसिंह व चाचा सरदार अजीत सिंह जी क्रांतिकारी थे ।
बाल्यकाल में भगत सिंह द्वारा अंग्रेजों को मारने के लिए अपनी पिस्तौल (खिलौने) को खेत में बो दिया और पूछने पर कहा की बहुत सारे पिस्तौल पैदा होंगे , जिससे अंग्रेजों को मारेंगे ।
जलियांवाला हत्याकांड के समय भगत सिंह की आयु मात्र 12 वर्ष थी। तभी उन्होंने जलियांवाला बाग की रक्तरंजित मिट्टी को घर लाकर श्रद्धांजलि दी ।
ये घटनाएं उनके उनके जन्मजात क्रांतिकारी होने का सबूत है।
एफ. ए. पास करने के बाद भगत सिंह क्रांति पथ पर अग्रसर हो गए उन्होंने भगवतीचरण , यशपाल अशोक देव आदि के साथ पंजाब में “नौजवान भारत सभा “का गठन किया।
नौजवान भारत सभा के द्वारा लोगों में आम सभाओं का आयोजन किया जाता जिसमें ,भाषण व पर्चों के माध्यम से क्रांतिकारियों के उद्देश्य और उनके विचारों के बारे में लोगों को बताते थे तथा शोषण , गरीबी, असमानताओं जैसे विषयों पर लोगों को समझाते थे ।
इमेजिन लालटेन द्वारा क्रांतिकारीयों व शहीदों के चित्रों का प्रदर्शन कर लोगों को उनकी जीवन गाथा के बारे में प्रचार करते थे।
सन 1928 में भगत सिंह ने भगवती चरण वोहरा के साथ मिल कर नौजवान भारत सभा के घोषणापत्र का अंग्रेजी में रूपांतरण किया ।
भगतसिंह 1928 में चंद्रशेखर आजाद के साथ ‘ हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन” में शामिल हुए । भगत सिंह समाजवादी विचारधारा से प्रभावित थे । इसलिए उन्होंने संगठन में सोशलिस्ट जोड़ा व दल का नया नाम संशोधित कर ‘हिंदुस्तान रिपब्लिक सोशलिस्ट एसोसिएशन ” रखा गया।
इस क्रांतिकारी दल द्वारा लिए गए मुख्य दो एक्शन में भगत सिंह जी ने अपनी भूमिका अदा की थी।
साइमन कमीशन के विरोध में लाहौर में हुए विरोध आंदोलन में पुलिस अधीक्षक स्कोर्ट के आदेश पर लाठीचार्ज किया गया।
जिसमें उप पुलिस अधीक्षक सांडर्स द्वारा लाला लाजपत राय पर लाठियों से वार किए गए जिनसे कारित चोटों से लालाजी का दिनाँक 1 नवंबर 1928 को देहांत हो गया ।
देश के क्रांतिकारियों ने लालाजी की मौत को राष्ट्रीय अपमान समझा व इसका बदला लाठीचार्ज करने वाले अधिकारी का वध करके लिया जाना तय किया गया।
HRSA की योजनानुसार पुलिस अधीक्षक स्कॉट का दिनाँक 17 दिशम्बर 1927 को वध किया जाना था।
जयगोपाल द्वारा गलत पहचान किये जाने के कारण राजगुरु व भगत सिंह द्वारा सांडर्स का वध कर दिया गया।
इस एक्शन में चंद्रशेखर आजाद भी साथ थे । जिन्होंने भगतसिंह का पीछा कर रहे सिपाही चंदनसिंह को गोली मारी थी।
सांडर्स वध के बाद भगत सिंह ने अपने लंबे केश कटवा कर पश्चिमी ड्रेस पहनकर सर पर हेट लगाकर दुर्गा भाभी की गोद में उनके पुत्र शनी व नोकर बने राजगुरु के साथ लाहौर से फरार होकर कलकत्ता चले गए व असेम्बली एक्शन तक भूमिगत रहे।
भगत सिंह जी द्वारा दूसरा एक्शन 8 अप्रेल 1929 केंद्रीय असेंबली में बटुकेश्वर दत्त के साथ बम से धमाका करके ट्रेड डिस्प्यूट व पब्लिक सेफ्टी बिल का विरोध किया गया था
असेम्बली एक्शन के लिए भगत सिंह को आजीवन कारावास से दंडित किया गया था
केंद्रीय असेंबली में बम धमाके के पश्चात क्रांतिकारियों की योजना के अनुसार भगत सिंह व बटुकेश्वर दत्त को मौका पर ही अपने आप को गिरफ्तार कराया जाना था । उन्होंने ऐसा ही किया इसके पश्चात भगत सिंह की जेल यात्रा शुरू हुई
भगत सिंह जी ने अपने कारावास काल में गंभीर अध्ययन व लेखन किया । जो भारत के ही नहीं विश्व के क्रांतिकारियों के लिए एक आदर्श है।
शहीदे आजम भगत सिंह के विचार अपने आप में संपूर्ण क्रांति की रूपरेखा है।
भगत सिंह एक चिंतक दार्शनिक थे उन्होंने रूस ,फ्रांस व इटली की क्रांति के इतिहास का गंभीर मनन किया । उन्होंने सुकरात ,प्लेटो, अरस्तु एपिक्योरस , मैक्यावली,कार्ल मार्क्स, लेनिन, बुकानन बोन्दे , मिल्टन ,लॉक, फ्रेडरिक एंगेल्स, लुइस एच मॉर्गन , मोंटेग्यू चेम्सफोर्ड ,बट्रेंड रसैल, डॉ रदफोर्ड, थॉमस पेन, पैट्रिक हेनरी, रोबोर्ट जी इंगरसौल ,मार्क टवेन,अप्टन सिंक्लेयर, रिचर्ड् जेफरीन, पैट्रिक मैकगिल, होरेस ग्रीले ,कोंको होशी, जे एस मिल,मैक्सिम गोरगी,वाल्ट हिटमैन, विन्डेल फिलिप, हेर्नरिक इब्सन, यूजीन बी डेब्स, फ्रांसिस्को फेरर , लार्ड टेनिसन , विलियम वर्ड्सवर्थ, जोसेफ केम्पबेल, आर्थर हज क्लोग, फ़िगनेर ,एन ए
मरोजोव आदि प्रसिद्ध चिंतको व दार्शनिकों को पढ़ा व इन पर गंभीर चिंतन किया।
शहीदे आजम भगत सिंह कलम के धनी थे उन्होंने अमृतसर से गुरुमुखी व उर्दू में प्रकाशित मासिक पत्रिका “कीर्ति” , कानपुर से हिंदी में प्रकाशित समाचार पत्र ” प्रताप’ व “प्रभा” , दिल्ली से प्रकाशित समाचार पत्र “महारथी'” और इलाहाबाद से प्रकाशित ‘” चांद'” में अपने लेख विभिन्न छदम नामों से प्रकाशित करवाये।
चाँद में उन्होंने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के शहीदों के संबंध में काफी लेख प्रकाशित करवाये।
भगत सिंह जी देश की आजादी से भी आगे सोचते थे। उनका मानना था जब तक आम मजदूर व किसान का शोषण बंद नहीं होगा, तब तक कांति संपूर्ण नहीं हो सकेगी। भगतसिंह सत्ता ही नहीं अपितु व्यवस्था परिवर्तन के पक्षधर थे। उन पर साम्यवादी विचारधारा का काफी प्रभाव था। पूंजीवाद साम्राज्यवाद के विरुद्ध थे।
भगत सिंह जी को अच्छी तरह से ज्ञान था कि उन्हें फांसी की सजा होनी है। पर इस कारण से वे कभी भी विचलित नहीं हुए। उन्होंने मृत्यु पर अपनी विजय हासिल की
उन्होंने असेंबली में धमाका करते समय फ्रांस के क्रांतिकारी वैलेंट के द्वारा किए गए एक्शन को अपनाया ।
इसके पीछे उनकी गंभीर सोच थी कि धमाके के बाद व अदालती कार्रवाई में अंग्रेजों की कुंठित व्यवस्था को प्रेस के माध्यम से उजागर किया जाए ताकि विश्व भर में लोग अंग्रेजों द्वारा भारत में किये जा रहे अमानवीय कृत्यों से परिचित हों।
उन्होंने उन्होंने फांसी की सजा के विरुद्ध अपील करना उचित नहीं समझा वे महामृत्युंजय भी थे। उन्होंने मृत्यु के रहस्य को भी एक काल पुरुष के रूप में समझ लिया था । उन्होंने अपने जीवन मूल्य का सर्वाधिक उपयोग फांसी पर चढ़ना माना। उनका विश्वास था कि जीवित भगत सिंह की अपेक्षा फाँसी से मारा गया भगत सिंह देश में क्रांति सैलाब पैदा करेगा और अंग्रेजों को झक मार कर भारत छोड़ना पड़ेगा
शहीदे आजम भगत सिंह ने न्यायोचित उद्देश्यों के लिए बल प्रयोग को उचित माना था। वे हिंसा के पक्षधर नहीं थे परंतु दुष्ट अधिकारियों को दंड दिए जाने से आम जनता में जागृति होने की आशा करते थे।
शहीदे आजम भगत सिंह की नजरों में आजादी के बाद के भारत की तस्वीर भी स्पष्ट थी । उन्होंने उस समय ही लिख दिया था कि मात्र सता परिवर्तन से आम जनता , मजदूरों व किसानों का भला नहीं होने वाला।
आजादी के बाद भी कभी वर्षों तक शहीद- ए -आजम भगत सिंह के द्वारा लिखित जेल डायरी व अन्य अभिलेख उपलब्ध नहीं हो सके और उनका आम जनता के लिए प्रकाशन भी नहीं हुआ ।
यह कहा जाता है कि शहीद – ए – आजम भगत सिंह ने 4 पुस्तकें “आत्मकथा”, “समाजवाद का आदर्श” , “भारत में क्रांतिकारी आंदोलन” तथा “मृत्यु के द्वार पर” लिखी थी। देश का दुर्भाग्य है कि इनकी पांडुलिपि आज तक भी उपलब्ध नहीं हो सकी है।
रूस के एक विद्वान एल.वी. मित्रोखन ने सन 1981 में शहीदे आजम भगत सिंह की जेल डायरी में उनके हाथ से बनाए गए नोट्स के आधार पर एक अध्याय तैयार कर अपनी पुस्तक ‘ लेनिन एंड इंडिया “ में प्रकाशित किया।
शहीदे आजम भगत सिंह 1928 के बाद नास्तिक विचारों के हो गए थे । उन्होंने लेनिन की भाषा में ही धर्म को अफीम बताया था।
शिव वर्मा, मन्मथ नाथ गुप्त , एस.एन .मजमूदार , शचिंद्र नाथ सान्याल , बुद्धदेव भट्टाचार्य आदि द्वारा लिखित आत्मकथा / पुस्तकों के आधार पर शहीदे आजम भगत सिंह की विचारधारा में लोगों में कहीं-कहीं विरोधाभास नजर आता है।
पाठकों को चाहिए शहीदे आजम भगत सिंह की विचारधारा को समझने के लिए उनके मूल दस्तावेज का अध्ययन करें।
शहीदे आजम भगत सिंह ने जेल में क्रांतिकारी कैदियों की स्तिथि सुधारने हेतु व उन्हें अच्छा खाना दिए जाने की मांग को लेकर जेल प्रशासन के खिलाफ 163 दिन भूख हड़ताल की थी।
जो अपने आप में एक उदाहरण है भगत सिंह नजम भी लिखते थे और गाते भी बहुत अच्छा थे
शहीदे आजम भगत सिंह को राजगुरु व सुखदेव के साथ 23 मार्च 1931स्वीकृति शायं 7:33 बजे लाहौर केंद्रीय जेल में फांसी दी गई थी हालांकि फाँसी हेतु तिथि 24 मार्च निश्चित की गई थी
पर उन्हें एक दिन पहले ही जेल नियमों के खिलाफ 23 मार्च को शाम को फांसी दे दी
शहीदे आजम भगत सिंह की जेल डायरी के पृष्ट संख्या 104 से 110 पर किए गए उल्लेख से उनके कानूनी ज्ञान का भी आंकलन किया सकता है।
शहीदे आजम भगत सिंह की जेल डायरी में कार्यपालिका व व्यवस्थापिका के पृथकीकरण व कार्यपालिका को विधायिका के अधीन रखने के विचार लिखे हैं ।
शहजादे भगत सिंह ने अपने जेल डायरी में क्रांति के अधिकार (RIGHT TO REVOLUTION ) का भी उल्लेख किया है।
एक पुस्तक के अनुसार फाँसी के बाद भगत सिंह ,राजगुरु व सुखदेव के पार्थिव शरीर के टुकड़े कर दिए गए थे और उन्हें सतलुज के किनारे तेल डालकर जलाया गया।
शहीद-ए-आजम भगत सिंह के संबंध में उपलब्ध समस्त मूल अभिलेखों का संपूर्ण अध्ययन करने के पश्चात इस लेख को पूरा करने की इच्छा है।
आप सभी पाठकों से भी निवेदन है की सजा आजम भगत सिंह के संबंध में इस लेख को वास्तविक तथ्यों के साथ और आगे बढ़ाएं ।
आपका जन्म 15 सितम्बर 1892 में गांव लबरु रायपुररानी, पटियाला, पंजाब में हुआ था।
आप गदर पार्टी के संस्थापक सदस्य थे। लाहौर षड्यंत्र(प्रथम) के नाम से चलाये गए मुकदमा में आपको फांसी की सजा दी गई थी लेकिन अपील में इसे उम्र कैद काला पानी की सजा में बदल कर आपको अंडमान सेल्युलर जेल में भेज दिया गया।
अंडमान जेल से आपको नागपुर केंद्रीय जेल में भेजा जा रहा था।इस यात्रा में आप दिनाँक 29 नवंबर 1922 को चलती ट्रेन से फरार हो गए व 16 वर्ष तक फरार रहे। आप का संपर्क चंद्र शेखर आज़ाद व हिदुस्तान रिपब्लिकन सोसलिस्ट एसोसिएशन था।
सुखदेव ,भगत सिंह ,राजगुरु को फांसी दिए जाने के पश्चात आप दुर्गा भाभी व सुखदेव राज के साथ बंगाल के गवर्नर मैल्काल्म हैली का वध करने की योजना बना कर कलकत्ता गए ।
दिनांक 8 अक्टूबर 1930 को आप ,दुर्गाभाभी व सुखदेवराज एक कार में लेमिंगटन रोडकलकत्ता में बंगाल गवर्नर के घर तक पहुंच गए पर वहां पर भीड़ ज्यादा होने के कारण एक्शन नहीं लिया जा सका।
इसलिए आप लोगों ने पुलिस थाना पर आक्रमण करने की योजना बनाई।
थाने के आगे यूरोपीयन जोड़ा खड़ा था जो दुर्गा भाभी व आपके द्वारा की गई फायरिंग से मारा गया और एक अधिकारी का सार्जेंट टेलर घायल हुआ।
आप सब इस एक्शन के बाद फरार हो गए। एक्शन के समय आपकी कार के चालक रहे , बापट ने अपने बयानों यह इस घटना के बारे में बताया। पर इसे न्यायालय द्वारा स्वीकार नहीं किया गया ।
सन 1938 में आपने महात्मा गांधी के समक्ष आत्मसमर्पण किया तो आपको गिरफ्तार कर जेल में भेज दिया गया।
द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद 1939 में सरकार द्वारा राजनीतिक कैदियों सार्वजनिक माफी देकर छोड़ा गया तब आपको भी रिहाई मिली।
आपको ‘जिन्दा शहीद’ के नाम से भी जाना जाता है।
आपके द्वारा लिखित पुस्तक ‘लेनिन के देश में’ बहु चर्चित रही। स्वतंत्रता के पश्चात वे पंजाब के भीम सेन सचर सरकार में मन्त्री रहे। भारत की पहली संविधान सभा के भी सदस्य रहे। सन 1977 में भारत सरकार ने आपको पद्मभूषण से अलंकृत किया।
दिनाँक 5 मार्च 1989 को 96 वर्ष की आयु में आपका स्वर्गवास हुआ।आजादी के बाद भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के मुख्यालय अजय भवन में जीवन पर्यन्त रहे।