आपका जन्म 15 सितंबर 1891 हो त्रिवेंद्रम त्रावणकोर में हुआ था। (जन्म की तिथि विवाद है)
आप तकनीकी शिक्षा हेतु इटली गए और आप ने 12 भाषाएं सीखी।
सन 1914 में ज्यूरिख में इंटरनेशनल इंडिया कमेटी का गठन हुआ था । उसी समय आपने म्यूनिख में इंडियन इंटरनेशनल कमेटी का गठन किया था।
दोनों संस्थाओं का लक्ष्य देश की आजादी था।
कालांतर में अक्टूबर 1914 बर्लिन सभा मे दोनों संस्थाओं को एकीकरण कर दिया गया।
इस संस्था में राजा महेंद्र प्रताप बरकतउल्ला, बिरेन्द्र चट्टोपाध्याय, तारक नाथ, हेमचंद्र भी थे।
आपके जर्मनी के सम्राट केसर से संपर्क थे।
आपने बम बनाने व बम बरसा करने का प्रशिक्षण लिया । आप जर्मन नौसेना में भी रहे थे
काबूल की राजा महेन्द्र प्रताप द्वारा अस्थाई सरकार में आप पर विदेश विभाग का दायित्व था।
आप 1919 में दक्षिण अफ्रीका में गांधी जी से मिले थे ।
आपने 1924 में एक प्रदर्शनी लगाई थी जिसमें स्वतंत्रता से संबंधित चित्र लगाए ।
आपके नेहरूजी व विट्ठल भाई पटेल से भी संपर्क थे।
कहा जाता है आपने प्रथम विश्व युद्ध के समय बर्मा के रास्ते भारत मे अंग्रेजों पर आक्रमण की योजना बनाई थी।
जिसके आधार पर आप ने बर्लिन में नेताजी सुभाष चंद्र बोस को युद्ध न नीतियों के बारे में बताया था । आपने ही जापान से बर्मा सेना ले जाने की योजना का सुझाव दिया था।
आप इटली गए थे तो पीछे से नाजियों ने बर्लिन में आपकी संपत्ति जप्त कर दी ।
विरोध करने पर आप को दंड दिया गया । आप मूर्छित हो गए परंतु आप का इलाज नहीं करवाने दिया गया। 23 मई 1934 को आप का स्वर्गवास हुआ
यह भी कहा जाता है कि रासबिहारी बोस से विचार-विमर्श कर आप सावरकर व अन्य क्रांतिकारीयों को अंडमान जेल से मुक्त कराने के लिए जापानी पनडुब्बी लेकर गए । आपकी पनडु्बी नष्ट कर दी गई।
आपका नाम अम्बाप्रसाद भटनागर था आप का जन्म 21 जनवरी सन 1858 ईस्वी में मुरादाबाद उत्तर प्रदेश में हुआ। आप के जन्म से ही दायां हाथ नहीं था। आपने एफ. ए. करने के बाद जालंधर से वकालत की पढ़ाई की।
आपने मुरादाबाद में उर्दू साप्ताहिक “जाम्युल इलूम” का संपादन किया।
आप हिंदू मुस्लिम एकता के पक्षधर थे। आप अंग्रेजी कुंठित व्यवस्था के विरुद्ध खुलकर लिखते थे। देशभक्ति पूर्ण लेख प्रकाशित करते थे। इसके कारण राजद्रोह के आरोप में सर्वप्रथम आप को 1897 में डेढ़ वर्ष हेतु जेल भेजा गया ।
आप 1890 में अमृत बाजार पत्रिका के लिए समाचार प्राप्त करने के उदेश्य से केवल खाने के बदले अंग्रेज रेसिडेंट के घर नौकर बन कर रहने लगे । आप रेसिडेंट के काले कारनामों की सूचना समाचार पत्र तक पहुंचाने लगे।
यह भी मजेदार कहानी है। अंग्रेज रेसिडेंट ने समाचार देने वाले गुप्तचर को पकड़वाने वाले को ईनाम देने की घोषणा की। अंततः रेसिडेंट के खिलाफ कार्यवाही हुई। रेजिडेंट को नगर छोड़ना था ।
रेसिडेंट ने अपने सभी नौकरों को बख्शीस देकर छुट्टी दे दी ।
इसमें एक पागल नौकर भी था । जो कुछ समय पूर्व ही
नौकरी पर आया था । पूरी ईमानदारी और लगन के साथ महज दो वक़्त की रोटी पर नौकरी कर रहा था ।
साहब सामान बांधकर स्टेशन पहुंचे, तो देखा कि वही पागल नौकर फैल्ट-कैप,टाई,कोट-पेंट पहने चहलकदमी करते हुए रेजिडेंट के पास आया व अंग्रेजी में बात की। उस पागल नौकर ने कहा कि
‘यदि में आपको उस भेदिये का नाम बता दूं तो क्या ईनाम देंगे ?’
तब रेजिडेंट ने कहा कि ‘
में तुम्हे बख्शीश दूंगा !’
“तो लाइए दीजिये ! मैंने ही वे सब समाचार छपने के लिए भेजे थे समाचार पत्र में !”
अंग्रेज रेजिडेंट कुढ़कर रह गया ! उफनकर बोला –
You go
पहले मालूम होता तो में तुम्हारी बोटियाँ कटवा देता ।
फिर भी ईनाम देने का वचन किया था अतः जेब से सोने के पट्टे वाली घडी निकाली और देते हुए कहा –
“लो यह ईनाम और तुम चाहो तो में तुम्हे सी.आई.डी. में अफसर बनवा सकता हूँ ।
1800 रुपये महीने में मिला करेंगे, बोलो तैयार हो ?
इस पर उन्होंने कहा –
“यदि मुझे वेतन का ही लालच होता तो क्या आपके रसोईघर में झूठे बर्तन धोता ?
रेजिडेंट इस दो-टूक उत्तर पर हतप्रभ रह गया ! यह पागल बना हुआ व्यक्ति कोई और नहीं महान क्रन्तिकारी सूफी अम्बाप्रसाद थे !
सन 1899 में जेल से निकले तो अंग्रेज रेजिड़ेंटो के कारनामों का समाचार पत्रों में प्रकाशन करने कारण फिर छः वर्ष का कारावास हुआ। जेल में अमानवीय यातनाएं दी गई परन्तु आप तनिक भी विचलित नहीं हुए। एक बार अंग्रेज जेलर ने आप को तंज स्वर में कहा – तुम मरे नहीं ?” आपने वीरता से मुस्कराते हुए कहा “जनाब ! तुम्हारे राज का जनाजा उठाये बिना, मैं कैसे मर सकता हूँ ?’ आप 1906 में सजा भुगत कर बाहर आये । 1897 से 1907 के बीच की अवधि में आप 8 वर्ष से अधिक समय तक कारावास में बंद रहे। आपकी सारी सम्पत्ति भी जप्त कर ली गई थी।
आप कारागार से लौटने पर हैदराबाद चले गए। कुछ दिनों बाद लाहौर आ गए।
लाहौर में सरदार अजीत-सिंह जी की संस्था, ‘भारत माता सोसायटी” में काम करने लगे। इन्हीं दिनों आपने एक पुस्तक बागी मसीहा (विद्रोही ईसा ) लिखी यह पुस्तक बड़ी आपत्तिजनक समझी गई। फलस्वरूप अंग्रेज सरकार उन्हें गिरफ्तार करनेका प्रयत्न करने लगी।
आप गिरफ्तारी से बचने के लिए नेपाल चले गए, वहां पकड़े जाने पर आपको भारत लाया गया।
आप पर लाहौर में राजद्रोह का मुकदमा चलाया गया, पर कोई प्रमाण न मिलने के कारण उन्हें छोड़ दिया गया। आप अपने साथी कल्याण चन्द्र दीक्षित एवं अन्य के साथ पहाड़ों पर चले गये। कई वर्षों तक वे इधर-उधर घूमते रहे।
जब धर-पकड़ बन्द हुई, तो फिर आपने 1909 में पंजाब में आकर ‘पेशवा’ अखबार निकाला।
सूफी जी ने जेल से बाहर आकर पंजाब लौटकर पुनः पत्रकारिता प्रारंभ की । आप “हिन्दुस्तान” समाचार पत्र से जुड़े । आपने ‘देश भक्त मंडल‘ का भी गठन किया था।
अजीतसिंह को 1906 में गिरफ्तार कर देश से निकालने की सजा दी गई ।आप उनके साथ ईरान गए।
ईरान के क्रांतिकारियों से संपर्क किया आप फारसी भाषा के अच्छे विद्वान थे आपने ईरान में ईरान के लोगों को अंग्रेजों की शोषण की नीति के विरुद्ध जागृत किया।
आपके विचारों के कारण ईरान के लोग आपको” सूफी’ कहने लग गए और आप सूफी अंबा प्रसाद के नाम से प्रसिद्ध हो गए।
ईरान में आप गदर पार्टी का नेतृत्व भी कर रहे थे । ईरान में आपने “आबे हयात” समाचार पत्र निकाला ।
ईरान में आपने ब्रिटिश-विरोधी सेना संगठित करने में लग गए । इसमें भारतीय क्रांतिकारी शामिल हो गए ।
आपने शीराज ( ईरान ) में ब्रिटिश काउन्सलर के घर धावा बोल दिया गया
सन 1915 में शीराज पर भी अंग्रेजी सेना का नियंत्रण हो गया।
आपने अपनी क्रांतिकारी साथियों की सेना के साथ अंग्रेजी सेना का जमकर मुकाबला किया।
अंततः आपको अंग्रेज सेना ने पकड़ लिया । आपका कोर्ट मार्शल किया गया। कहां जाता है कि आपने 21 फरवरी 1915 को समाधि लेकर अपने प्राणों का त्याग किया था ।
अंग्रेजों ने आपके पार्थिव शरीर को ही रस्सी से बांधकर गोली मारी थी। आप ईरान में आका सूफी के नाम से प्रसिद्ध है। आज भी आपके नाम का शीराज ( ईरान ) में मकबरा है। आपके नाम से उर्स लगता है। जिसमें लोग चादर अर्पित कर मन्नतें मांगते है।
आप भारतीय मूल की पारसी नागरिक थीं । आपने विदेशों में भारत की स्वतंत्रता गूँज को तीव्र ध्वनि दी। आपका जन्म 24 सितंबर 1861 बम्बई के एक संपन्न पारसी परिवार में हुआ था। आपने मुंबई के अलेक्जेंड्रा गर्ल्स स्कूल में शिक्षा प्राप्त की।
आपका विवाह रुस्तम जी कामा के साथ दिनांक 3 अगस्त 1885 को हुआ था। जो एक वकील थे।
मुंबई में दिसंबर 1885 में कांग्रेस के पहले अधिवेशन में अपने भाग लिया था।
वर्ष 1896 में बॉम्बे में प्लेग प्रकोप के समय आपने मरीजों की सेवा की थी। उस समय आप भी प्लेग की चपेट में आ गई । डॉक्टर ने आपको उपचार हेतु यूरोप जाने की सलाह दी गई थी।
आप उपचार हेतु वर्ष 1902 में लंदन गईं । लंदन में आप दादा भाई नौरोजी के संपर्क में आई और उनके सचिव के रूप में कार्य किया।
उसी समय आपका सम्पर्क क्रांतिकारी श्यामजी कृष्ण वर्मा व वीर सावरकर से हुआ।
वहां भी आप भारतीय स्वाधीनता संघर्ष के लिए सक्रिय हो गई।। ब्रिटिश सरकार आपको गिरफ्तार करना चाहती थी ।
इसकी आप को भनक मिली और आप चुपचाप लंदन छोड़कर पेरिस चली गयी।
वहाँ आपका संपर्क क्रांतिकारी लाला हरदयाल, मुकुंद सरदेसाई, विरेंद्र चट्टोपाध्याय से हुआ।
फ्रांस में ही आपके नाम के साथ मदाम ( मैडम ) शब्द जुड़ गया। आपसे जेनेवा गई वहां वंदे मातरम नमक समाचार पत्र का प्रकाशन आरंभ किया । इस पत्र के द्वारा आपने भारत में अंग्रेजों के अत्याचारों से संबंध में समाचार प्रकाशित किए । आपने अमेरिका और यूरोप के विभिन्न देशों की यात्रा की।
पेरिस से वंदे मातरम, तलवार व इंडियन फ्रीडम समाचार के संचालन में आपकी प्रमुख भूमिका थी।
आप 1901 पेरिस विधि वहां आपने आयरलैंड जर्मनी व रुस के क्रांतिकारियों से संपर्क किया
जर्मनी के यस्टुटगार्ट नगर में दिनांक 22 अगस्त 1907 को आयोजित सातवें अंतरराष्ट्रीय समाजवादी सम्मेलन आपने वीर सावरकर के परामर्श के अनुसार इस सम्मेलन में ब्रिटिश मजदूर दल की आपत्ति के बावजूद सरदार सिंह राणा व विरेंद्र चट्टोपाध्याय के साथ भारत का प्रतिनिधित्व किया था ।
इस सम्मेलन में आपने भारतीय ध्वज लहराया था।
इस ध्वज में भारतीय राष्ट्रीय एकता के प्रतीक का हरे , पीले व लाल रंग के तिरंगे झंडे, जिसके बीच में देवनागरी लिपि में वंदे मातरम लिखा था और इस पर 8 कमल के फूल सूर्य व चंद्रमा बने हुए थे ।
इस सम्मेलन में आपने कहा ‘‘भारत में ब्रिटिश शासन जारी रहना मानवता के नाम पर कलंक है। एक महान देश भारत के हितों को इससे भारी क्षति पहुँच रही है।’’
भारतवासियों का आह्वान करते हुए कहा कि – ‘‘आगे बढ़ो, हम हिन्दुस्तानी हैं और हिन्दुस्तान हिन्दुस्तानियों का है।’’
मदन लाल धींगरा द्वारा लंदन में कर्जन वायली को गोली मारने के समाचार को प्रकाशित करते हुए लिखा – “मदनलाल ढींगरा की पिस्तौल की आवाज आयरलैंड की कच्ची झोमपड़ियों में बैठे किसानों ने सुनी, मिश्र के खेतों में काम कर रहे किसानों ने सुनी तथा अंधेरी खानों में कार्य कर रहे जुलु खदान श्रमिकों ने सुनी ।”
साम्राज्यवाद के विरुद्ध विश्व जनमत जाग्रत करने तथा भारत को अंग्रेजों से मुक्ति के लिए आपका योगदान कभी भी नहीं भुलाया जाएगा।
राष्ट्रवादी यूरोपीय पत्रकार भी आपका सम्मान करते थे।
फ्रांसीसी अखबारों में उनका चित्र जोन ऑफ आर्क के साथ आया।
वीर सावरकर को अंग्रेजों की गिरफ्त छुड़ाने की योजना में भी आपने सक्रिय भूमिका अदा की।
फ्रांसीसी सीमा से सावरकर की अवैध गिरफ्तारी के विरुद्ध आपने मामले को गंभीरता पूर्वक अंतरराष्ट्रीय अदालत हेग में उठाया था।
प्रथम विश्व युद्ध शुरू होने पर फ्रांस की सरकार ने आप को गिरफ्तार करके जेल में बंद कर दिया । युद्ध समाप्ति के बाद 1918 में आप को जेल से रिहा किया गया।
अपने जीवन के 34 वर्षों में साम्राज्य वाद के विरुद्ध एंव भारतीय राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम के संघर्ष किया । आप दिसंबर 1935 में भारत लौटी।
भारतीय स्वतंत्र संग्राम में वीर विनायकराव सावरकर का विशेष योगदान रहा। वीर सावरकर का जन्म 28 मई 1883 को भंगुर नासिक तत्समय बॉम्बे प्रेसीडेंसी में हुआ था। आपने अपनी बाल्यावस्था में ही क्रांतिकारी गतिविधियों में भाग लेना शुरू कर दिया था ।
सन 1899 में आपने नासिक में “देशभक्तों का मेला ” नामक दल का गठन किया।
अध्ययन काल में ही 1900 में नासिक में “मित्र मेला” की भी स्थापना की व मित्र मेलों का आयोजन करते थे।
आपने शिवाजी हाई स्कूल से सन 1901 में उन्होंने मैट्रिक पास करने के बाद फर्गुसन कॉलेज में पूना में प्रवेश लिया था।
आपने “आर्यन वीकली “ पत्रिका का संपादन किया। यह जो हस्तलिखित पत्रिका थी। आपने 22 जनवरी 1901 भारत में ब्रिटेन की महारानी विक्टोरिया का शोक दिवस मनाए जाने का विरोध किया था ।
सन 1904 में आपने “अभिनव भारत सोसायटी “ का गठन किया। इस सोसाइटी की माध्यम से क्रांतिकारी गतिविधियों का संचालन करते रहे।
1 अक्टूबर 1905 को आपने ही भारत में पहली बार विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार की घोषणा की थी। आपने ही 22 अगस्त 1906 को पूना में विदेशी वस्त्रों की होली जलाई थी।
लोकमान्य बालगंगाधर तिलक के मार्गदर्शन तथा अनुमोदन पर आपको विदेश में शिक्षा हेतु श्री श्यामजी वर्मा से छात्रवृत्ति दी गई। आप सुनियोजित योजना से 1906 में लंदन इंग्लैंड पहुंचे व श्यामजी कृष्ण वर्मा के साथ इंडिया हाउस की गतिविधियों में सक्रिय रूप से लग गए।
इंग्लैंड जाने के पूर्व आपने अभिनव भारत का उत्तरदायित्व अपने बड़े भाई श्री गणेश सावरकर को सम्भलाया। इस संगठन के मार्गदर्शक श्री तिलक थे।
लंदन के इंडिया हाउस में रहकर आपने भारतीय छात्रों को राष्ट्रीय स्वाधीनता के लक्ष्य हेतु एकत्र करने तथा उनमें राष्ट्रवाद की अलख प्रज्वलित करने के कार्य में लग गए। इंडिया हाउस भारतीय स्वतंत्र संग्राम के क्रांतिकारियों का अड्डा बन चुका था।
आपने लंदन अध्ययनरत छात्रों से सम्पर्क किया। इसी क्रम में आपकी मुलाकात मदनलाल ढींगरा से हुई जो वहां पढ़ने गए हुए थे।
आपने लंदन में इटली के महान क्रान्तिकारी मैज़ीनी की जीवनी का मराठी में अनुवाद कर इसे भारत भेजा जो भारतीय क्रान्तिकारियों के लिए प्रेरणास्रोत बनी।
लंदन में आपने 10 मई 1907 को भारतीय प्रथम स्वतंत्रता संग्राम (1857) की 50 वीं वर्षगाँठ मनाई। इस कार्यक्रम में क्रांतिकारीयों ने बैज लगाए । आपने ही इस कार्यक्रम में अंग्रेज़ों द्वारा सेना विद्रोह कहे जाने वाले एक्शन को भारतीय स्वतंत्रता संग्राम घोषित किया।
इस पुस्तक के छपने से पूर्व ही अंग्रेजों ने इसे बिना पढ़े ही प्रतिबंधित कर दिया।
अंग्रेजों के लाख प्रयत्नों के बावजूद मैडम भीकाजी कामा ने इस पुस्तक को सफलतापूर्वक जर्मनी, नीदरलैण्ड तथा फ़्रांस से प्रकाशित करा लिया व बड़ी कठिनाइयों से इसकी प्रति भारत पहुंचाया गयी।
शहीदे आजम भगत सिंह ने इस पुस्तक का रूपांतरण किया । भगतसिंह और उनके साथी इस पुस्तक से बहुत प्रेरित रहे।
यह पहली पुस्तक थी जिसे प्रकाशित किये जाने से पूर्व ही बिना पढ़े प्रतिबंधित किया गया।
इंडिया हॉउस की गतिविधियां पर नजर रखने हेतु ब्रिटिश खुफिया विभाग ने अपने जासूस नियुक्त किए ।
वीर सावरकर जासूसों के जासूस थे । उन्होंने एक भरतीय अंग्रेजी को देशभक्ति का पाठ पढ़ा कर उसका ह्रदय परिवर्तन कर दिया अब वह देश हित में सावरकर को अंग्रेजों की सूचना देने लगा।
इस समय सावरकर रूस, टर्की, स्वीडन ,फ्रांस ,आयरलैंड आदि देशों के क्रान्तिकारियों से अपने संबंध-संपर्क स्थापित कर चुके थे ।
उन दिनों स्टुडगार्ड (जर्मनी) में अंतरराष्ट्रीय सोशलिस्ट कांग्रेस का आयोजन हुआ । जिसमें दुनियाँ भर के सोशलिस्टों ने भाग लिया। सावरकर की योजन अनुसार इस कॉन्फ़्रेंस में सरदार सिंह राणा व मैडम कामा ने भाग लिया । मैडम कमा ने इस कॉन्फ्रेंस में सावरकर के कार्यक्रम अनुसार स्वतंत्र भारत का 8 कमल ,सूरज, चाँद व वंदेमातरम वाला ध्वजारोहण किया।
इस कॉन्फ्रेंस के समाचार दुनियां के सभी समाचार पत्रों प्रकाशन हुआ।
सावरकर ने फ्री इंडिया सोसायटी का गठन किया। जिसमें भाई परमानंद , मदन लाल धींगरा , लाला हरदयाल, सेनापति बापट, बाबा जोशी, महेश चरण सिन्हा कोरगांवकर , हरनाम सिंह आदि प्रमुख थे। सावरकर ने लंदन में ग्रेज इन्न लॉ कॉलेज से Bar At Law की डिग्री लेली । परंतु उनकी क्रांतिकारी गतिविधियों के कारण सरकार ने डिग्री जप्त कर दी।
लंदन में रहकर अपने क्रांतिकारी कार्यो के कारण सावरकर विश्व विख्यात हो गए।
सावरकर ने एक क्रांतिकारी को रूसी क्रांतिकारियों के पास बम बनाने की तकनीक सीखने हेतु भेजा तथा । बम्ब बनाने की 45 तकनीकों को रेखचित्र सहित अपने भाई बाबा सावरकर को भेजी।
वास्तव में श्री सावरकर भारत में ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध छापामार युद्ध की योजना पर कार्यरत थे।
उनकी योजना पूरे भारत में एक ही समय पर, एक साथ कई ब्रिटिश ठिकानों पर बम धमाकों द्वारा ब्रिटिश साम्राज्य को हिलाने की थी। सावरकर ने इंडिया हाउस लंदन से कई बार गुप्त पार्सलों में भारत हथियार भेजें।
सन 1907 में लाला लाजपतराय व अजीत सिंह जी को गिरफ्तार किये जाने के विरुद्ध सावरकर ने लंदन में एक सभा का आयोजन किया गया था। इस सभा के मुख्य वक्ता सावरकर ही थे।
इसी समय भारत में अंग्रेज़ों द्वारा खुदीराम बोस, कन्हैई लाल दत्त, सत्येंद्र नाथ वसु तथा कांशीराम को फाँसी दी गई।
इस पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए 20 जून 190 9 को इंडिया हाउस में की गई बैठक में सावरकर ने बदला लेने की घोषणा कर दी थी।
इसी योजना के अंतर्गत 19 दिसंबर 1909 को अभिनव भारत के अनंत कन्हरे ने नासिक कलेक्टर जैकसन का वध किया था।
जिस रिवाल्वर से अन्नत कन्हरे ने जैक्सन का वध किया गया था। वो सावरकर द्वारा लंदन से ही भेजा गया था।
सावरकर बंगाल विभाजन के लिए भारत सचिव कर्जन वायली को दोषी मानते थे । वायली अपने जासूसों की मार्फ़त इंडिया हॉउस पर निगरानी रख रहा था। इसलिए वायली उनके टारगेट पर आ गया।
सावरकर की योजनानुसार ही क्रांतिवीर मदनलाल ढींगरा ने दिनाँक 1 जुलाई 1909 जहाँगीर हॉल लंदन में कर्ज़न वायली का गोली मारकर वध किया था।
ढींगरा को रिवॉल्वर भी सावरकर ने ही उपलब्ध कराया था
लंदन में वायली के सरेआम वध के बाद लंदन के प्रमुख समाचार पत्रों में “हिंदुस्तानियों ने अंग्रेज़ों के विरुद्ध अंग्रेज़ों की धरती पर ही युद्ध प्रारंभ कर दिया है” , खबर ने ब्रिटिश सरकार को हिलाकर रख दिया।
श्री सावरकर ने ढींगरा को हर संभव क़ानूनी सहायता प्रदान की, पर उन्हें बचा न सके।
वायली वध के बाद अंग्रेजों के भारतीय पिठुओं ने ढींगरा के विरूद्ध सर्वसम्मति से निंदा प्रस्ताव पारित करने के आशय से लंदन में आम सभा बुलाई इस सभा में एक अंग्रेज ने सावरकर के थप्पड़ मारते हुए कहा look! how straight the English first goes
तभी सावरकर के पास खड़े भारतीय क्रांतिकारी M. P. चिरूमलाचार्य ने पामर के मुक्का मारते हुए जबाब दिया look! how straight the Indian club goes
इस सभा मे सावरकर आपत्ति की व सर्वसम्मति से प्रस्ताव को पारित होने से रोकने में सफल रहे।
लंदन में सावरकर को भारत मे अपने इकलौते पुत्र प्रभाकर की मृत्यु का समाचार मिला।
इस दुःख को उन्होंने सहन किया व अपने लक्ष्य ओर चलते ही रहे।
अब सावरकर अंग्रेजों के लिए एक चुनौती बन चुके थे। इसलिए ब्रिटिश सरकार किसी भी तरह से सावरकर को गिरफ्तार कर जेल में डालना चाहती थी।
इस हेतु ब्रिटिश सरकार ने सावरकर पर सम्राट के विरुद्ध युद्ध करने, युवाओं को ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध भड़काने तथा बम बनाने का साहित्य प्रसारित करने के आरोप लगाते हुए उनकी गिरफ़्तारी के लिए भारत तथा इंग्लैंड में एक साथ वारंट निकाला
सावरकर को दिनाँक 13 मार्च 1910 (बुधवार) को विक्टोरिया स्टेशन पर गिरफ्तार शाम को ओल्ड बिली कोर्ट में पेश किया गया। जिसने 12 मई 1910 को सावरकर पर भारत में अभियोग चलाने का आदेश दिया।
सावरकर अपने स्त्रोतों से पता लगा लिया था कि उन्हें दिनाँक 1 जुलाई 1910 को ‘मोरिया’ नामक जहाज़ से भारत ले जाया जायेगा वह फ्रांस के दक्षिणि तट मार्सलीज से गुज़रेगा ।
इसलिए सावरकर ने भिकाजी कामा व श्यामजी वर्मा व साथियों से मिलकर यह योजन बनाई कि सावरकर समुद्र में कूद कर तैरते हुए मार्सलीज पहुंच जाएंगे। वहां ये लोग टेक्सी तैयार रखेंगे जिससे सावरकर निकल लेंगे।
इस योजनानुसार सावरकर ने दिनांक 8 जुलाई 1910 को जहाज के शौचालय की खिड़की तोड़ कर खुले समुद्र में ऐतिहासिक छलांग लगाई व पुलिस फायरिंग से बचते हुए तैरकर मार्सलीज पहुंच गए पर मौका टैक्सी नहीं पहुंची।
सावरकर को अंतर्राष्ट्रीय विधि का ज्ञान था और उन्हें पता था कि फ्रांस में इंग्लैंड की सरकार की पुलिस उन्हें गिरफ्तार नहीं कर सकती ।
इसलिए उन्होंने भागकर अपने आप को फ्रांस के एक पुलिस अधिकारी के समक्ष पेश करते हुए उसे समझाया कि वह उन्हें ब्रिटिश पुलिस की गिरफ्तारी से बचाये। परंतु फ्रांस के उस पुलिस अधिकारी को अंतर्राष्ट्रीय विधि का कुछ भी ज्ञान नहीं था और उसने अंग्रेजी पुलिस अधिकारियों से मिलकर सावरकर को ब्रिटिश पुलिस को सौंप दिया।
सावरकर की फ्रांस से गिरफ्तारी का मामला अंतरराष्ट्रीय न्यायालय हेग में ले जाया गया और फ्रांस सरकार ने ब्रिटेन के विरुद्ध आक्षेप लगाया कि अंग्रेजी सरकार द्वारा फ्रांस की सीमा से राजनीतिक बंदी की गिरफ्तारी गलत की गई है । दोनों देशों में सावरकर की गिरफ्तारी के कारण तनाव आ गया परंतु कुछ मध्यस्थों ने बीच-बचाव करके फ्रांस को मना लिया और फ्रांस ने अपनी बात को छोड़ दिया।
बम्बई में सावरकर के सम्राट के विरुद्ध युद्ध करने व जैक्सन की हत्या में हाथ होने के विरुद्ध विशेष न्यायालय में मुकदमा चलाये गए।
पहले सम्राट के विरुद्ध युद्ध के मामले में सावरकर को दिनाँक 24 दिसंबर 1910 को आजीवन कारावास की कालापानी की सज़ा सुनाई। फिर नाशिक कलेक्टर जैकसन की हत्या के मामले में भी दिनाँक 11 अप्रैल 1911को काला पानी की सजा दे दी गई। इस प्रकार सावरकर को दोआजीवन कारावास के दंड से दंडित किया गया। सावरकर को दो आजीवन कारावास भुगतान हेतु अप्रैल 1911 में अंडमान सेल्यूलर जेल में भेज दिया गया।
वीर सावरकर नें लंदन में रहकर अंग्रेजों के जासूसों की आंखों में धूल झोंक कर स्वतंत्रता संग्राम को निरन्तर गति प्रदान की।
इसलिए अंग्रेजी सरकार सावरकर को अपना सबसे बड़ा खतरनाक दुश्मन मानती थी । अंडमान जेल में सावरकर एकमात्र कैदी थे जिन्हें खतरनाक कैदी का दर्जा दिया गया । जिनके गले में ” D ” यानी Dangerous बैज लगा था ।
सावरकर को अंडमान जेल पहले 6 माह तक एक कालकोठरी में एकांतवास में रखा गया।
हथकड़ी व बेड़ियों में रखा जाता था। नारियल को हाथों से तोड़ कर रस्सी बनवाई जाती थी जिससे हाथ लहूलुहान रहते थे।
कोलू में जोतकर नारियल का तेल निकालने का काम करवाया जाता था । थककर थोड़ा सुस्त होते ही बेंत से पिटाई की जाती थी।
जेल की मानवीय यात्राओं से परेशान होकर एक बार तो सावरकर ने भी आत्महत्या करने की सोच ली थी ।
अंडमान जेल का जेलर मिस्टर डेविड बैरी बहुत निर्दयी व्यक्ति था । कैदियों को जेल में बिल्कुल बेकार खाना दिया जाता था । नहाने के लिए मात्र 4 मग पानी दिया जाता था । कैदी को निर्धारित मात्रा में कोलू से तेल निकालना पड़ता था।
अच्छा खाना नहीं होने के कारण लगभग सभी कैदियों की हालत बहुत बुरी थी ।
वीर सावरकर ने जेल में ही अपनी आवाज को बुलंद कर जेल में बंद भारतीय क्रांतिकारियों को उर्जा प्रदान की ।
सावरकर के कहने से कैदियों ने जेल सुविधाओं के लिए भूख की हड़ताल करवाई।
उन्होंने गुप्त रूप से जेलर के खिलाफ एक शिकायत भिजवा दी जो लंदन के अखबारों में छपी जिसके कारण अंग्रेजी सरकार ने जेलर का स्थानांतरण किया ।
अंडमान जेल में दबाब डाल कर हिदू कैदियों का धर्म परिवर्तन करवाया जाता था।
सावरकर ने जेल में ही कैदियों को पढ़ाना व शुद्धिकरण करना शरू किया।
सन 1921 में सावरकर को अंडमान जेल से रतनागिरी जेल में लाया गया । 1923 में रतनागिरी से महाराष्ट्र के यरवदा( पूना) जेल में लाया गया।
यरवदा जेल से दिनाँक 6 जनवरी 1924 को इस शर्त पर रिहा किया कि आप रतनागिरी जिले से बाहर नहीं जाएंगे व किसी भी राजनीतिक गतिविधि में शामिल नहीं रहेंगे।।
सावरकर हिंदू धर्म में व्याप्त कुरूतियों व छुआछूत के बहुत खिलाफ थे । उन्होंने फरवरी 1931 में अस्पृश्यता उन्मूलन सम्मेलन की अध्यक्षता की थी। सावरकर ने बम्बई में “पतित पावन” मंदिर बनवाया जिसमें जाति से निम्न समझे जानेवाले व लोगों को भी प्रवेश करवाया।
आपने हिंदू समाज की 7 बेड़ियां स्पर्श बंदी , रोटी बंदी, बेटी बंदी, व्यवसाय बंदी , सिंधु बंदी , वेदोक्त बंदी व शुद्धि बंदी को बताया। आप राष्ट्रभाषा हिंदी व राष्ट्र लिपि देवनागरी बनाए जाने के पक्षधर थे
सन 1937 में कर्णावती, अहमदाबाद में हुए सम्मेलन में आपको अखिल भारतीय हिंदू महासभा का अध्यक्ष बनाया गया। ततपश्चात आप ही इसके बाद 6 बार अध्यक्ष रहे।
आपने 15 अप्रैल 1938 को मराठी साहित्य सम्मेलन की अध्यक्षता की ।
आपने 13 दिसंबर 1937 को नागपुर में आयोजित आम सभा को संबोधित करते हुए देश के बंटवारे के प्रस्ताव का विरोध किया।
नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने 22 जून 1941 को आपसे मुलाकात की और आपने उन्हें रासबिहारी बोस के पास जापान जाने हेतु प्रेरित किया था।
आपने अक्टूबर 1942 में चर्चिल को भी तार भेजा था ।
आपको 5 अक्टूबर 1948 को महात्मा गांधी की हत्या के आरोप में गिरफ्तार किया गया था परंतु कालांतर में आरोप मुक्त कर दिया गया था ।
आपने 10 नवंबर 1957 को स्वतंत्रता संग्राम की शताब्दी पर मुख्य वक्ता के रूप में अपना भाषण दिया ।
आपको पुणे विश्वविद्यालय से 8 अक्टूबर 1959 को डॉक्टरेट की डिग्री मिली। आप लिखकर चिंतक भी थे। आपने लगभग 10000 पृष्ठ मराठी भाषा के 1500 पृष्ठ अंग्रेजी भाषा में लिखे। आपने 40 पुस्तकें लिखी थी।। मराठी भाषा में आप की कविताएं अति लोकप्रिय है
आपने 1 फरवरी 1966 को जीवन पर्यंत व्रत शुरू किया
26 फरवरी 1996 को प्रातः 10:00 आप ने संसार से अंतिम विदाई ली।
पोर्ट ब्लेयर के अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डा को आपके नाम से बनाया गया ।
भारत सरकार द्वारा आपके सम्मान में डाक टिकट भी जारी किया गया।
वीर सावरकर पर कॉन्ग्रेस या अन्य लोगों द्वारा एक आक्षेप यह लगाया जा रहा है की उन्होंने अंग्रेजों से माफी मांगी थी।
यह आक्षेप बिल्कुल गलत है। इस पर कोई धारणा बनाने से पूर्व हमें उस समय की परिस्थितियों को समझना होगा।
जेल की कालकोठरियों में अमानवीय यातनाएं झेलने से तो देश आज़ाद हो नहीं सकता था।
सावरकर ही नहीं भारतीय सभी क्रांतिकारीयों की सोच यही थी कि जेल में सड़कर मरने से अच्छा है।। किसी भी तरह से जेल से बाहर निकले और क्रांतिकारी गतिविधियों को आगे बढ़ाएं। और क्रांतिकारी अनेक बार जेल से भागने में सफल भी रहे।
इस मामले में एकमात्र शहीदेआजम भगतसिंह की सोच अलग रही।उनके कारण उन्होंने ख़ुद बताए थे।
सावरकर द्वारा जेल से प्रेषित की गई पेटीशन को माफीनामा नहीं कहा जा सकता।
सावरकर बैरिस्टर थे और कानूनी प्रावधानों से अच्छी तरह परिचित थे । उन्होंने अपने कानूनी अधिकारों को प्राप्त करने हेतु उपरोक्त सभी पेटीशन प्रेषित की थी। जिन्हें आप स्वयं पढ़ सकते हैं :-
इन पेटीशन को समझने के लिए यह समझना आवश्यक है सावरकर को भारतीय दंड संहिता के अंतर्गत दो उम्रकैद की सजा दी गई थी
भारतीय दंड संहिता की धारा 55 में उम्र कैद की अवधि की गणना करने का सूत्र दिया हुआ। इस धारा के अनुसार उम्र कैद की अवधि अधिकतम 14 वर्ष हो सकती थी ।
उस समय Government Resolution number 5308 (judicial department) Dated 12 October 1905 के अनुसार कैदी को हर एक वर्ष की सजा पर दो कारावास की अवधि में दो माह की छूट मिलती थी । जिसे र Remission Earned by convict कहा जाता था।
सावरकर द्वारा प्रस्तुत पेटीशन में इस छूट लाभ मांगा गया है।
यही नहीं अंडमान जेल नियमों के अनुसार कैदी को कैद के 5 वर्ष पूर्ण करने के बाद उसके घरवालों से मिलने व 10 वर्ष बाद कैदी अपने घर वालों के साथ रहने के आदि आदि छूट दी जाती थी। जो सावरकर को नहीं दी गई थी। अपनी पेटीशन में सावरकर ने इनका भी उल्लेख किया है।
जहाँ तक शाही घोषणा के अंतर्गत कैदियों की आम रिहाई का प्रश्न है इसे भी देखिए।
प्रथम महायुद्ध में महात्मा गांधी जी द्वारा भारतीयो को ब्रिटिश फौज में भर्ती करवाया था ।
इसके कारण गांधीजी के आग्रह पर अंग्रेजों ने शाही घोषणा(Royal Proclamation_-Royal Amnesty to the Political Prisoners ) जारी कर के राजनीतिक कैदियों को जेल से रिहा किया गया था।
उक्त शाही घोषणा का लाभ सावरकर बंधुओं को नहीं दिया गया था। सावरकर ने अपनी एक पिटिशन में सावन में यह मुद्दा उठाया है।
सावरकर की महानता देखिए उन्होंने अपनी अंतिम दोनों पिटिशन में स्पष्ट लिखा है कि यदि उसे रिहाई नहीं दी जाती है तो न दें कम से कम अन्य कैदियों को तो रिहा करें ।
महात्मा गांधी, सरदार पटेल के आग्रह पर सावरकर ने अंतिम पेटीशन भेजी थी।
यह विचारणीय है कि सावरकर को उनके द्वारा प्रेषित पेटीशन के आधार पर जेल से रिहा नहीं किया गया था।
सावरकर की पेटीशन दिनाँक 12 जुलाई 1920 को अस्वीकार कर दी गई थी।
वस्तुतः श्री मोहम्मद फैयाज खान लेजिस्लेटर ने दिनांक 15 फरवरी 1921 को मुंबई लेजिसलेटिव असेंबली में सावरकर को जेल में दी जाने वाली यातनाओं के संबंध में प्रश्न उठाया।
विट्ठल भाई पटेल ने बम्बई लेजिस्लेटिव असेम्बली में दिनांक 24 फरवरी 1920 को सावरकर बंधुओं व अन्य राजनीतिक कैदियों की रिहाई का मामला उठाया।
इसके बाद रंगास्वामी एंकर ने दिनांक 26 मार्च 19 को बम्बई असेम्बली में सावरकर की रिहाई हेतु 50000 (पच्चास हजार)व्यक्तियों द्वारा हस्ताक्षरित ज्ञापन रखा।
गांधीजी ने दिनाँक 25 जनवरी1920 को सावरकर के भाई नारायणराव सावरकर को पत्र लिखकर सावरकर की रिहाई हेतु प्रयत्न करने का आश्वस्त किया व 26 मई 1920 में गाँधी जी यंग इंडिया में लेख भी छपवाना –
अंततः से जन प्रभाव के दबाव से Alexander Montgomery, Secretary Home Department भारतीय दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 401 के अंतर्गत रतनागिरी जिला से बाहर नहीं जाने व राजनीतिक गतिविधियों में भाग नहीं लेने की शर्तों के साथ सावरकर को रिहा करने के आदेश पारित किये।
सावरकर 13 वर्ष 9 माह 13 दिन जेल में कठोर यातनाओं को झेलने के बाद रिहा हुए।
इस पुस्तक को अवश्य पढ़ें। कुछ तथ्य व चित्र इसी पुस्तक से संकलित है।
शहीद-ए-आजम भगत सिंह केवल क्रांतिकारी नहीं, अपितु बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे । भगतसिंह जी महामृत्युंजयी, कालपुरुष , युगदृष्टा, दार्शनिक , विचारक , पत्रकार एंव क्रांतिवीर थे।
शहीदे आजम भगत सिंह का जन्म 28 सितंबर 1907 को प्रातः 9:00 का गांव बंगा जिला लॉयलपुर (वर्तमान पाकिस्तान ) में हुआ था।
आपको इंकलाब का नारा विरासत में प्राप्त हुआ था। आपके दादा सरदार अर्जुनसिंह व चाचा सरदार अजीत सिंह जी क्रांतिकारी थे ।
बाल्यकाल में भगत सिंह द्वारा अंग्रेजों को मारने के लिए अपनी पिस्तौल (खिलौने) को खेत में बो दिया और पूछने पर कहा की बहुत सारे पिस्तौल पैदा होंगे , जिससे अंग्रेजों को मारेंगे ।
जलियांवाला हत्याकांड के समय भगत सिंह की आयु मात्र 12 वर्ष थी। तभी उन्होंने जलियांवाला बाग की रक्तरंजित मिट्टी को घर लाकर श्रद्धांजलि दी ।
ये घटनाएं उनके उनके जन्मजात क्रांतिकारी होने का सबूत है।
एफ. ए. पास करने के बाद भगत सिंह क्रांति पथ पर अग्रसर हो गए उन्होंने भगवतीचरण , यशपाल अशोक देव आदि के साथ पंजाब में “नौजवान भारत सभा “का गठन किया।
नौजवान भारत सभा के द्वारा लोगों में आम सभाओं का आयोजन किया जाता जिसमें ,भाषण व पर्चों के माध्यम से क्रांतिकारियों के उद्देश्य और उनके विचारों के बारे में लोगों को बताते थे तथा शोषण , गरीबी, असमानताओं जैसे विषयों पर लोगों को समझाते थे ।
इमेजिन लालटेन द्वारा क्रांतिकारीयों व शहीदों के चित्रों का प्रदर्शन कर लोगों को उनकी जीवन गाथा के बारे में प्रचार करते थे।
सन 1928 में भगत सिंह ने भगवती चरण वोहरा के साथ मिल कर नौजवान भारत सभा के घोषणापत्र का अंग्रेजी में रूपांतरण किया ।
भगतसिंह 1928 में चंद्रशेखर आजाद के साथ ‘ हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन” में शामिल हुए । भगत सिंह समाजवादी विचारधारा से प्रभावित थे । इसलिए उन्होंने संगठन में सोशलिस्ट जोड़ा व दल का नया नाम संशोधित कर ‘हिंदुस्तान रिपब्लिक सोशलिस्ट एसोसिएशन ” रखा गया।
इस क्रांतिकारी दल द्वारा लिए गए मुख्य दो एक्शन में भगत सिंह जी ने अपनी भूमिका अदा की थी।
साइमन कमीशन के विरोध में लाहौर में हुए विरोध आंदोलन में पुलिस अधीक्षक स्कोर्ट के आदेश पर लाठीचार्ज किया गया।
जिसमें उप पुलिस अधीक्षक सांडर्स द्वारा लाला लाजपत राय पर लाठियों से वार किए गए जिनसे कारित चोटों से लालाजी का दिनाँक 1 नवंबर 1928 को देहांत हो गया ।
देश के क्रांतिकारियों ने लालाजी की मौत को राष्ट्रीय अपमान समझा व इसका बदला लाठीचार्ज करने वाले अधिकारी का वध करके लिया जाना तय किया गया।
HRSA की योजनानुसार पुलिस अधीक्षक स्कॉट का दिनाँक 17 दिशम्बर 1927 को वध किया जाना था।
जयगोपाल द्वारा गलत पहचान किये जाने के कारण राजगुरु व भगत सिंह द्वारा सांडर्स का वध कर दिया गया।
इस एक्शन में चंद्रशेखर आजाद भी साथ थे । जिन्होंने भगतसिंह का पीछा कर रहे सिपाही चंदनसिंह को गोली मारी थी।
सांडर्स वध के बाद भगत सिंह ने अपने लंबे केश कटवा कर पश्चिमी ड्रेस पहनकर सर पर हेट लगाकर दुर्गा भाभी की गोद में उनके पुत्र शनी व नोकर बने राजगुरु के साथ लाहौर से फरार होकर कलकत्ता चले गए व असेम्बली एक्शन तक भूमिगत रहे।
भगत सिंह जी द्वारा दूसरा एक्शन 8 अप्रेल 1929 केंद्रीय असेंबली में बटुकेश्वर दत्त के साथ बम से धमाका करके ट्रेड डिस्प्यूट व पब्लिक सेफ्टी बिल का विरोध किया गया था
असेम्बली एक्शन के लिए भगत सिंह को आजीवन कारावास से दंडित किया गया था
केंद्रीय असेंबली में बम धमाके के पश्चात क्रांतिकारियों की योजना के अनुसार भगत सिंह व बटुकेश्वर दत्त को मौका पर ही अपने आप को गिरफ्तार कराया जाना था । उन्होंने ऐसा ही किया इसके पश्चात भगत सिंह की जेल यात्रा शुरू हुई
भगत सिंह जी ने अपने कारावास काल में गंभीर अध्ययन व लेखन किया । जो भारत के ही नहीं विश्व के क्रांतिकारियों के लिए एक आदर्श है।
शहीदे आजम भगत सिंह के विचार अपने आप में संपूर्ण क्रांति की रूपरेखा है।
भगत सिंह एक चिंतक दार्शनिक थे उन्होंने रूस ,फ्रांस व इटली की क्रांति के इतिहास का गंभीर मनन किया । उन्होंने सुकरात ,प्लेटो, अरस्तु एपिक्योरस , मैक्यावली,कार्ल मार्क्स, लेनिन, बुकानन बोन्दे , मिल्टन ,लॉक, फ्रेडरिक एंगेल्स, लुइस एच मॉर्गन , मोंटेग्यू चेम्सफोर्ड ,बट्रेंड रसैल, डॉ रदफोर्ड, थॉमस पेन, पैट्रिक हेनरी, रोबोर्ट जी इंगरसौल ,मार्क टवेन,अप्टन सिंक्लेयर, रिचर्ड् जेफरीन, पैट्रिक मैकगिल, होरेस ग्रीले ,कोंको होशी, जे एस मिल,मैक्सिम गोरगी,वाल्ट हिटमैन, विन्डेल फिलिप, हेर्नरिक इब्सन, यूजीन बी डेब्स, फ्रांसिस्को फेरर , लार्ड टेनिसन , विलियम वर्ड्सवर्थ, जोसेफ केम्पबेल, आर्थर हज क्लोग, फ़िगनेर ,एन ए
मरोजोव आदि प्रसिद्ध चिंतको व दार्शनिकों को पढ़ा व इन पर गंभीर चिंतन किया।
शहीदे आजम भगत सिंह कलम के धनी थे उन्होंने अमृतसर से गुरुमुखी व उर्दू में प्रकाशित मासिक पत्रिका “कीर्ति” , कानपुर से हिंदी में प्रकाशित समाचार पत्र ” प्रताप’ व “प्रभा” , दिल्ली से प्रकाशित समाचार पत्र “महारथी'” और इलाहाबाद से प्रकाशित ‘” चांद'” में अपने लेख विभिन्न छदम नामों से प्रकाशित करवाये।
चाँद में उन्होंने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के शहीदों के संबंध में काफी लेख प्रकाशित करवाये।
भगत सिंह जी देश की आजादी से भी आगे सोचते थे। उनका मानना था जब तक आम मजदूर व किसान का शोषण बंद नहीं होगा, तब तक कांति संपूर्ण नहीं हो सकेगी। भगतसिंह सत्ता ही नहीं अपितु व्यवस्था परिवर्तन के पक्षधर थे। उन पर साम्यवादी विचारधारा का काफी प्रभाव था। पूंजीवाद साम्राज्यवाद के विरुद्ध थे।
भगत सिंह जी को अच्छी तरह से ज्ञान था कि उन्हें फांसी की सजा होनी है। पर इस कारण से वे कभी भी विचलित नहीं हुए। उन्होंने मृत्यु पर अपनी विजय हासिल की
उन्होंने असेंबली में धमाका करते समय फ्रांस के क्रांतिकारी वैलेंट के द्वारा किए गए एक्शन को अपनाया ।
इसके पीछे उनकी गंभीर सोच थी कि धमाके के बाद व अदालती कार्रवाई में अंग्रेजों की कुंठित व्यवस्था को प्रेस के माध्यम से उजागर किया जाए ताकि विश्व भर में लोग अंग्रेजों द्वारा भारत में किये जा रहे अमानवीय कृत्यों से परिचित हों।
उन्होंने उन्होंने फांसी की सजा के विरुद्ध अपील करना उचित नहीं समझा वे महामृत्युंजय भी थे। उन्होंने मृत्यु के रहस्य को भी एक काल पुरुष के रूप में समझ लिया था । उन्होंने अपने जीवन मूल्य का सर्वाधिक उपयोग फांसी पर चढ़ना माना। उनका विश्वास था कि जीवित भगत सिंह की अपेक्षा फाँसी से मारा गया भगत सिंह देश में क्रांति सैलाब पैदा करेगा और अंग्रेजों को झक मार कर भारत छोड़ना पड़ेगा
शहीदे आजम भगत सिंह ने न्यायोचित उद्देश्यों के लिए बल प्रयोग को उचित माना था। वे हिंसा के पक्षधर नहीं थे परंतु दुष्ट अधिकारियों को दंड दिए जाने से आम जनता में जागृति होने की आशा करते थे।
शहीदे आजम भगत सिंह की नजरों में आजादी के बाद के भारत की तस्वीर भी स्पष्ट थी । उन्होंने उस समय ही लिख दिया था कि मात्र सता परिवर्तन से आम जनता , मजदूरों व किसानों का भला नहीं होने वाला।
आजादी के बाद भी कभी वर्षों तक शहीद- ए -आजम भगत सिंह के द्वारा लिखित जेल डायरी व अन्य अभिलेख उपलब्ध नहीं हो सके और उनका आम जनता के लिए प्रकाशन भी नहीं हुआ ।
यह कहा जाता है कि शहीद – ए – आजम भगत सिंह ने 4 पुस्तकें “आत्मकथा”, “समाजवाद का आदर्श” , “भारत में क्रांतिकारी आंदोलन” तथा “मृत्यु के द्वार पर” लिखी थी। देश का दुर्भाग्य है कि इनकी पांडुलिपि आज तक भी उपलब्ध नहीं हो सकी है।
रूस के एक विद्वान एल.वी. मित्रोखन ने सन 1981 में शहीदे आजम भगत सिंह की जेल डायरी में उनके हाथ से बनाए गए नोट्स के आधार पर एक अध्याय तैयार कर अपनी पुस्तक ‘ लेनिन एंड इंडिया “ में प्रकाशित किया।
शहीदे आजम भगत सिंह 1928 के बाद नास्तिक विचारों के हो गए थे । उन्होंने लेनिन की भाषा में ही धर्म को अफीम बताया था।
शिव वर्मा, मन्मथ नाथ गुप्त , एस.एन .मजमूदार , शचिंद्र नाथ सान्याल , बुद्धदेव भट्टाचार्य आदि द्वारा लिखित आत्मकथा / पुस्तकों के आधार पर शहीदे आजम भगत सिंह की विचारधारा में लोगों में कहीं-कहीं विरोधाभास नजर आता है।
पाठकों को चाहिए शहीदे आजम भगत सिंह की विचारधारा को समझने के लिए उनके मूल दस्तावेज का अध्ययन करें।
शहीदे आजम भगत सिंह ने जेल में क्रांतिकारी कैदियों की स्तिथि सुधारने हेतु व उन्हें अच्छा खाना दिए जाने की मांग को लेकर जेल प्रशासन के खिलाफ 163 दिन भूख हड़ताल की थी।
जो अपने आप में एक उदाहरण है भगत सिंह नजम भी लिखते थे और गाते भी बहुत अच्छा थे
शहीदे आजम भगत सिंह को राजगुरु व सुखदेव के साथ 23 मार्च 1931स्वीकृति शायं 7:33 बजे लाहौर केंद्रीय जेल में फांसी दी गई थी हालांकि फाँसी हेतु तिथि 24 मार्च निश्चित की गई थी
पर उन्हें एक दिन पहले ही जेल नियमों के खिलाफ 23 मार्च को शाम को फांसी दे दी
शहीदे आजम भगत सिंह की जेल डायरी के पृष्ट संख्या 104 से 110 पर किए गए उल्लेख से उनके कानूनी ज्ञान का भी आंकलन किया सकता है।
शहीदे आजम भगत सिंह की जेल डायरी में कार्यपालिका व व्यवस्थापिका के पृथकीकरण व कार्यपालिका को विधायिका के अधीन रखने के विचार लिखे हैं ।
शहजादे भगत सिंह ने अपने जेल डायरी में क्रांति के अधिकार (RIGHT TO REVOLUTION ) का भी उल्लेख किया है।
एक पुस्तक के अनुसार फाँसी के बाद भगत सिंह ,राजगुरु व सुखदेव के पार्थिव शरीर के टुकड़े कर दिए गए थे और उन्हें सतलुज के किनारे तेल डालकर जलाया गया।
शहीद-ए-आजम भगत सिंह के संबंध में उपलब्ध समस्त मूल अभिलेखों का संपूर्ण अध्ययन करने के पश्चात इस लेख को पूरा करने की इच्छा है।
आप सभी पाठकों से भी निवेदन है की सजा आजम भगत सिंह के संबंध में इस लेख को वास्तविक तथ्यों के साथ और आगे बढ़ाएं ।
आपका जन्म 15 सितम्बर 1892 में गांव लबरु रायपुररानी, पटियाला, पंजाब में हुआ था।
आप गदर पार्टी के संस्थापक सदस्य थे। लाहौर षड्यंत्र(प्रथम) के नाम से चलाये गए मुकदमा में आपको फांसी की सजा दी गई थी लेकिन अपील में इसे उम्र कैद काला पानी की सजा में बदल कर आपको अंडमान सेल्युलर जेल में भेज दिया गया।
अंडमान जेल से आपको नागपुर केंद्रीय जेल में भेजा जा रहा था।इस यात्रा में आप दिनाँक 29 नवंबर 1922 को चलती ट्रेन से फरार हो गए व 16 वर्ष तक फरार रहे। आप का संपर्क चंद्र शेखर आज़ाद व हिदुस्तान रिपब्लिकन सोसलिस्ट एसोसिएशन था।
सुखदेव ,भगत सिंह ,राजगुरु को फांसी दिए जाने के पश्चात आप दुर्गा भाभी व सुखदेव राज के साथ बंगाल के गवर्नर मैल्काल्म हैली का वध करने की योजना बना कर कलकत्ता गए ।
दिनांक 8 अक्टूबर 1930 को आप ,दुर्गाभाभी व सुखदेवराज एक कार में लेमिंगटन रोडकलकत्ता में बंगाल गवर्नर के घर तक पहुंच गए पर वहां पर भीड़ ज्यादा होने के कारण एक्शन नहीं लिया जा सका।
इसलिए आप लोगों ने पुलिस थाना पर आक्रमण करने की योजना बनाई।
थाने के आगे यूरोपीयन जोड़ा खड़ा था जो दुर्गा भाभी व आपके द्वारा की गई फायरिंग से मारा गया और एक अधिकारी का सार्जेंट टेलर घायल हुआ।
आप सब इस एक्शन के बाद फरार हो गए। एक्शन के समय आपकी कार के चालक रहे , बापट ने अपने बयानों यह इस घटना के बारे में बताया। पर इसे न्यायालय द्वारा स्वीकार नहीं किया गया ।
सन 1938 में आपने महात्मा गांधी के समक्ष आत्मसमर्पण किया तो आपको गिरफ्तार कर जेल में भेज दिया गया।
द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद 1939 में सरकार द्वारा राजनीतिक कैदियों सार्वजनिक माफी देकर छोड़ा गया तब आपको भी रिहाई मिली।
आपको ‘जिन्दा शहीद’ के नाम से भी जाना जाता है।
आपके द्वारा लिखित पुस्तक ‘लेनिन के देश में’ बहु चर्चित रही। स्वतंत्रता के पश्चात वे पंजाब के भीम सेन सचर सरकार में मन्त्री रहे। भारत की पहली संविधान सभा के भी सदस्य रहे। सन 1977 में भारत सरकार ने आपको पद्मभूषण से अलंकृत किया।
दिनाँक 5 मार्च 1989 को 96 वर्ष की आयु में आपका स्वर्गवास हुआ।आजादी के बाद भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के मुख्यालय अजय भवन में जीवन पर्यन्त रहे।