उपेन्द्रनाथ बन्दोपाध्याय: भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के महान क्रांतिकारी
उपेन्द्रनाथ बन्दोपाध्याय का जन्म 6 जून 1879 को चन्द्रनगर में हुआ था। वे एक प्रेरणादायक क्रांतिकारी थे जिन्होंने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया। उनका जीवन संघर्ष, समर्पण और मातृभूमि की आज़ादी के प्रति गहरी निष्ठा से भरा हुआ था।
प्रारंभिक जीवन और शिक्षा
उपेन्द्रनाथ की शिक्षा बहुत ही उज्जवल रही। उन्होंने मैट्रिक की परीक्षा में प्रथम श्रेणी में सफलता प्राप्त की और इसके बाद कलकत्ते के मेडिकल कॉलेज में डॉक्टर बनने के लिए दाखिला लिया। यहीं उनकी मुलाकात कई क्रांतिकारियों से हुई और उनकी सोच में बदलाव आया। उन्हें अंग्रेजी शासन से घृणा थी और उनका मानना था कि केवल शस्त्रों के माध्यम से ही स्वतंत्रता प्राप्त की जा सकती है।
उन्हें स्वामी विवेकानंद से भी प्रेरणा मिली, और उन्होंने स्वामी जी के विचारों को आत्मसात किया। स्वामी विवेकानंद के मायावती आश्रम में कुछ समय बिताने के बाद, वे पंजाब की यात्रा पर निकल पड़े और वहां के समाज और परिस्थितियों को समझा। इसके बाद उन्होंने चन्द्रनगर लौट कर अपने उद्देश्यों को स्पष्ट किया और स्वतंत्रता संग्राम में भाग लिया।
क्रांतिकारी गतिविधियाँ और ‘युगान्तर’ पत्रिका
उपेन्द्रनाथ बन्दोपाध्याय का असली योगदान उनके क्रांतिकारी कार्यों में था। उन्होंने ‘युगान्तर’ पत्रिका के माध्यम से बंगाल और पंजाब में स्वतंत्रता संग्राम की अलख जगाई। उनका उद्देश्य था कि वे भारतीय युवाओं में अंग्रेजी शासन के खिलाफ विद्रोह की भावना भरें। साथ ही, वे शस्त्रों के संग्रह और क्रांतिकारी गतिविधियों में शामिल होने लगे।
1905 में उन्होंने ‘भवानी मन्दिर’ नामक उपन्यास लिखा, जिसमें उन्होंने शक्ति-पूजा और मातृभूमि की पूर्ण स्वतंत्रता का संदेश दिया। इसके बाद उन्होंने कई अन्य पुस्तकों जैसे ‘वर्तमान रणनीति’ और ‘मुक्ति कौन पथे’ भी लिखीं, जिनमें भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की रणनीतियों पर प्रकाश डाला गया।
गिरफ्तारी और काले पानी की सजा
अलीपुर षड्यंत्र के दौरान उवेन्द्रनाथ बन्दोपाध्याय को गिरफ्तार किया गया। उन्हें काले पानी की सजा दी गई, जिसे उन्होंने असहनीय होते हुए भी सहन किया। अण्डमान में उनके कारावास का जीवन अत्यंत कठिन था। वे वहां तेल की घानी चलाते थे और एक दिन की मेहनत के बाद भी केवल 15 सेर तेल निकाल पाए। वे बताते हैं कि किस प्रकार गालियाँ सुनकर भी उन्हें क्रांति का ख्वाब नहीं छोडऩे दिया।
उन्हें काले पानी की सजा के बाद 12 साल तक जेल में रखा गया, लेकिन उनका उत्साह कभी कम नहीं हुआ। जेल में बिताए गए अपने अनुभवों को उन्होंने अपने लेखों में व्यक्त किया, जो आज भी हमारे लिए प्रेरणा का स्रोत हैं।
जीवन के बाद का संघर्ष
काले पानी की सजा पूरी होने के बाद 20 फरवरी 1920 को उन्हें रिहा किया गया। जेल से निकलने के बाद भी उनका संघर्ष थमा नहीं। उन्होंने फिर से क्रांतिकारी पत्रों और साप्ताहिकों के माध्यम से स्वतंत्रता संग्राम को समर्थन दिया। ‘आत्म शक्ति’ नामक पत्र के द्वारा उन्होंने भारतीय युवाओं को और अधिक जागरूक किया।
अंतिम विचार
उपेन्द्रनाथ बन्दोपाध्याय के संघर्ष और त्याग ने हमें यह सिखाया कि यदि लक्ष्य स्पष्ट हो और हौंसला मजबूत हो, तो कोई भी मुश्किल हमसे हमारी मंजिल नहीं छीन सकती। उनका जीवन हमें यह प्रेरणा देता है कि हम अपने देश के लिए अपने कर्तव्यों को निभाने में कभी पीछे नहीं हट सकते।
वहाबी आंदोलन: भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का अज्ञात पहलू
भारत के स्वतंत्रता संग्राम की परिभाषा हमेशा से वही रही है, जिसमें भारतीय समाज के हर वर्ग ने अपनी जान की आहुति देकर विदेशी ताकतों को चुनौती दी। हालांकि, इतिहास में कुछ ऐसे क्रांतिकारी आंदोलन भी हुए हैं, जिन्हें अक्सर उतनी चर्चा नहीं मिल पाई, जितनी कि वे हकदार थे। इनमें से एक प्रमुख आंदोलन था वहाबी आंदोलन, जो 1820 से 1870 के बीच भारतीय उपमहाद्वीप में फैला था और जिसका केंद्र पटना था।
वहाबी आंदोलन का जन्म और उद्देश्य
वहाबी आंदोलन की जड़ें इस्लामिक धार्मिक उन्नति और एक विशिष्ट समाजवादी दृष्टिकोण में निहित थीं, लेकिन इस आंदोलन ने ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ भी संघर्ष किया। वहाबी आंदोलन के नेता भारतीय समाज की परिस्थितियों से गहरे प्रभावित थे। उनका उद्देश्य था समाज में सुधार लाना और ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ एक सशस्त्र संघर्ष शुरू करना। इसके लिए उन्होंने धार्मिक उन्मुक्तता के बजाय ब्रिटिश शासन के खिलाफ एक ठोस रणनीति अपनाई, जिससे आंदोलन ने एक राजनीतिक रूप लिया।
वहाबी नेताओं की शहादत और ब्रिटिश क्रूरता
1863 में, सीमा प्रांत के बहावियों के मल्का किले पर ब्रिटिश वायसराय एलगिन ने सैनिकों को भेजकर उस पर कब्जा कर लिया। यह एक महत्त्वपूर्ण क्षण था, क्योंकि यह वहाबी नेताओं के लिए एक स्पष्ट संकेत था कि ब्रिटिश साम्राज्य अपने कड़े शासन को और भी मजबूत करने की योजना बना चुका था। इसके बाद वहाबी नेताओं के साथ ब्रिटिश सरकार ने क्रूरता की सारी हदें पार कर दीं। उन्हें सार्वजनिक रूप से कोड़े मारे गए, अंग-भंग की सजा दी गई, और कई नेताओं को फांसी दी गई। इसके अलावा कई क्रांतिकारी नेताओं को काला पानी की सजा दी गई और अंडमान की कुख्यात जेल में भेजा गया।
इन सब घटनाओं के बावजूद, वहाबी नेता अपनी मुक्ति की लड़ाई से पीछे नहीं हटे। इनमें से एक प्रमुख नेता आमिर खान को भी Regulating Act 1818 के अंतर्गत गिरफ्तार कर लिया गया था, और उनकी सुनवाई कलकत्ता हाई कोर्ट में की गई थी। हालांकि, न्यायालय में उनकी अपील को अस्वीकार कर दिया गया।
अब्दुल्ला का प्रतिशोध और नॉर्मन की हत्या
अब्दुल्ला नामक एक वहाबी नेता ने इन अन्यायपूर्ण कार्यों के खिलाफ आक्रोश व्यक्त किया। 20 सितंबर 1871 को उसने जॉन पैक्सटन नॉर्मन, जो उस समय कलकत्ता हाई कोर्ट के कार्यवाहक मुख्य न्यायाधीश थे, पर छुरे से हमला कर दिया। यह हमला ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ प्रतिशोध की एक मिसाल बन गया। नॉर्मन की मृत्यु 21 सितंबर 1871 को हो गई, और इस कृत्य ने भारतीयों में ब्रिटिश न्यायपालिका के खिलाफ गहरा आक्रोश उत्पन्न किया।
इसके बाद ब्रिटिश सरकार ने अब्दुल्ला को पकड़ा, और उसे फांसी की सजा दी। उसकी पार्थिव शरीर को सड़कों पर घसीटकर जला दिया गया, ताकि यह एक नज़र के लिए एक चेतावनी बने। इस अत्याचार ने केवल वहाबी नेताओं में नहीं, बल्कि पूरे भारतीय समाज में प्रतिरोध की भावना को और भी प्रबल कर दिया।
लॉर्ड मेयो की हत्या: वहाबी नेताओं का प्रतिशोध
ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ प्रतिशोध की एक और बड़ी घटना 8 फरवरी 1872 को हुई, जब वहाबी नेता शेरअली आफरीदी ने लॉर्ड मेयो, जो उस समय ब्रिटिश गवर्नर जनरल थे, को अंडमान जेल में चाकू से हमला कर हत्या कर दी। शेरअली आफरीदी को अपनी उम्रभर की कालापानी सजा के दौरान यह महसूस हुआ था कि उसे झूठे मुकदमे में फंसाया गया है और न्याय नहीं मिला। उसकी यह हत्या ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ एक बड़ा प्रतिशोध था।
वहाबी आंदोलन: एक स्वतंत्रता संग्राम की जड़ें
वहाबी नेताओं के कृत्य सिर्फ इस्लाम या धर्म तक सीमित नहीं थे। उनका मुख्य उद्देश्य ब्रिटिश साम्राज्य को भारतीय धरती से उखाड़ फेंकना था। उन्होंने अपनी जान की परवाह किए बिना यह कार्य किया, और यही कारण था कि उन्हें भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का एक अभिन्न हिस्सा माना जाना चाहिए। इन क्रांतिकारियों के कृत्य इस बात का प्रतीक थे कि भारतीयों ने सिर्फ सामाजिक और धार्मिक उत्थान के लिए नहीं, बल्कि विदेशी शासकों के खिलाफ स्वतंत्रता की लंबी लड़ाई के लिए भी संघर्ष किया।
वहाबी नेता: भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के नायक
यह सच है कि वहाबी नेता धार्मिक रूप से इस्लाम के अनुयायी थे, लेकिन उन्होंने भारत से अंग्रेजों को भगाने का लक्ष्य भी रखा था। यही कारण है कि अब्दुल्ला और शेरअली को भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के सिपाही के रूप में देखना उचित है। उन्होंने अपनी जान की बाजी लगाकर वहाबी आंदोलन को एक नया मोड़ दिया, जो कि भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की नींव रखने में सहायक साबित हुआ।
वहाबी आंदोलन भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का एक महत्वपूर्ण अध्याय है, जिसे शायद उतनी सजीवता से नहीं बताया गया है, जितना कि वह इसके हकदार थे। वहाबी नेताओं ने ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ अपनी जान की बाजी लगाकर एक नई राह दिखाई। उनके संघर्षों ने यह साबित कर दिया कि भारतीयों के स्वतंत्रता संग्राम में सिर्फ एक वर्ग नहीं, बल्कि सभी वर्गों ने अपनी जान की कुर्बानी दी।
शत शत नमन उन महान क्रांतिकारियों को, जिन्होंने हमें यह दिखाया कि किसी भी न्यायपूर्ण संघर्ष में आस्था और दृढ़ संकल्प से भरी हुई भूमिका होती है, चाहे वह किसी भी धर्म, वर्ग या जाति से संबंधित हो।
पंजाब में अंग्रेजों के खिलाफ सशस्त्र क्रांति का दौर 1920 में शुरू हुआ।
पंजाब में सशस्त्र क्रांति की पृष्ठभूमि गुरु का बाग मोर्चा या आंदोलन के बाद शुरू हुई।
अमृतसर से करीब 20 किलोमीटर दूर गुखेवाली गांव में ऐतिहासिक स्थान गुरु का बाग स्थित है, जहां एक ऐतिहासिक गुरुद्वारा भी है। यहां गुरु घर के पास काफ़ी खाली जगह थी, जिसमें एक जंगल भी था। अमृतसर मुख्य गुरुद्वारा साहब के लंगर के लिए लकड़ियां इसी जंगल से लायी जाती थीं।
गुरु के समय से ही गुरु का बाग गुरुद्वारा साहब का प्रबंधन उदासियों के हाथों में था।
अकालियों ने गुरु का बाग में एक मोर्चा गठन किया, जिसे गुरु का बाग मोर्चा या आंदोलन के नाम से जाना जाता है। यह मोर्चा 17 नवंबर 1922 तक चला था।
अकालियों द्वारा लकड़ियां लेने के लिए प्रतिदिन पांच अकाली सिखों की टीम भेजी जाती थी। महंत सुंदर दास ने पुलिस से मिलकर अपने गुंडों के माध्यम से निहत्थे सिखों को बुरी तरह से पिटवाया। अकाली गुरु साहब को अरदास करते हुए बिना किसी विरोध के मार खाते रहते थे।
गुरु का बाग के संबंध में विवाद उत्पन्न होने पर अकाली शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी के 11 सदस्यीय दल ने 13 जनवरी 1921 को उदासी संत सुंदरदास से एक अनुबंध किया था। महंत सुंदरदास ने अकालियों को गुरु घर के लंगर के लिए लकड़ियां काटकर ले जाने से मना कर दिया, जिसके कारण विवाद पैदा हो गया।
महंत सुंदरदास ने पुलिस से मिलकर 9 अगस्त 1922 को अकालियों को पकड़वाया, जिन्हें छह माह की सजा दी गई।
गुरु का बाग गुरुद्वारा साहब के महंत सुंदरदास के कर्म और आचरण सिख धर्म की गरिमा के अनुकूल नहीं थे, जिससे शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी ने उनका विरोध करना शुरू किया।
यह अहिंसात्मक आंदोलन अब वीर सिखों के लिए कठिन हो गया, क्योंकि सरकार और पुलिस महंत सुंदरदास का समर्थन कर रहे थे। इस अत्याचार के विरोध में किशन सिंह जी बडगज ने शस्त्र उठाए और अपने दल के कर्म सिंह, धन्ना सिंह और उदय सिंह को दोषियों को सजा देने का जिम्मा सौंपा।
पंजाब में सशस्त्र आंदोलन में क्रांतिकारियों द्वारा गद्दारी करने वाले मुखबिरों या झोलीचुक को मारने को “सुधार” कहा जाता था। उपरोक्त तीन वीरों ने सबसे पहले श्याम चौरासी गांव, होशियारपुर रेलवे स्टेशन के पास एक सूबेदार का “सुधार” किया।
यह आंदोलन और सुधार कार्य कई दिनों तक चला। इस आंदोलन में 67 बब्बर अकालियों को गिरफ्तार किया गया, जिनमें से 6 को फांसी की सजा दी गई और 11 वीरों को उम्रकैद की सजा सुनाई गई।
कुछ अकालियों ने सन 1920 में अंग्रेजी अत्याचार के खिलाफ “शहादत” या “शहीदी दल” बनाकर आंदोलन की शुरुआत की। कुछ वीर शहीद हो गए।
अब जानते हैं उन बब्बर अकाली शहीदों के बारे में।
किशन सिंह जी गर्गज्ज
यह व्यक्ति, जो जालंधर जिले के वारिन्ड़ग गांव के निवासी थे, ने अपने जीवन में अंग्रेजों के खिलाफ कई महत्वपूर्ण कार्य किए। वह पहले 35 नंबर सिख रिसाले में हवलदार थे, लेकिन जलियांवाला बाग हत्याकांड, सरदार अजीत सिंह की नजरबंदी, बजबज में निर्दोष यात्रियों पर फायरिंग, और रोलेट एक्ट के खिलाफ घृणा पैदा होने के बाद उन्होंने सेना की नौकरी छोड़ दी और राष्ट्रीय आंदोलन में सक्रिय रूप से भाग लिया।
20 फरवरी 1921 को नानकाना साहब की घटना के बाद, वे बब्बर अकाली आंदोलन में शामिल हो गए। उन्होंने गुप्त संगठन तैयार किया और कई जगहों पर अंग्रेजों के खिलाफ सक्रिय प्रचार किया। एक बार पुलिस को उनके दल के बारे में जानकारी हो गई, जिसके बाद उनके छह साथी गिरफ्तार कर लिए गए। वह चार साथियों के साथ फरार हो गए और कुछ समय के लिए जींद राज्य के मस्तुअना में रहे। बाद में 1921 की सर्दियों में वे दोआब वापस आ गए, जहाँ उन्होंने चक्रवर्ती दल का गठन किया, जिसे बाद में बब्बर अकाली दल के नाम से जाना गया।
उन्होंने कपूरथला और जालंधर जिले के विभिन्न गांवों में लगभग 327 बार भाषण दिए, और होशियारपुर जिले में कर्म सिंह और उदय सिंह जैसे अन्य क्रांतिकारियों के साथ मिलकर अंग्रेजों के खिलाफ प्रचार किया। इसके साथ ही, उन्होंने कई भेदियों को “सुधार” किया।
अंततः उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया, और 27 फरवरी 1926 को लाहौर की केंद्रीय जेल में फांसी दे दी गई। उनका योगदान और शहादत भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के महत्वपूर्ण अध्यायों में शामिल है।
संता सिंह
संता सिंह जी लुधियाना जिले के हरयों खुर्द गांव के रहने वाले थे। उन्होंने 54 नंबर सिख रिसाले में दो साल तक सेवा की। 26 जनवरी 1922 को उन्होंने सेना की नौकरी से त्यागपत्र दे दिया और फिर अकाली बाब्बर आंदोलन में शामिल हो गए।
संता सिंह जी ने बब्बर अकाली आंदोलन में अपनी भागीदारी को महत्वपूर्ण तरीके से निभाया। उन्होंने अकेले ही बिशन सिंह जैलदार का सुधार किया था, जो उनकी वीरता और निडरता का एक उदाहरण था। इसके अलावा, वे बूटा सिंह, लाभ सिंह, हजारा सिंह, राला सिंह, दितू सिंह, सूबेदार गैंडा सिंह, और नोगल शमां जैसे प्रमुख क्रांतिकारियों के “सुधार” में भी शामिल रहे थे।
हालांकि, संता सिंह जी को अपने ही एक रिश्तेदार ने लालच में आकर गिरफ्तार करवा दिया। जब उन्हें अदालत से न्याय की कोई उम्मीद नहीं थी, तो उन्होंने अपने समस्त क्रांतिकारी गतिविधियों को स्वीकार कर लिया।
अंततः, 27 फरवरी 1926 को उन्हें अपने पांच साथियों सहित लाहौर सेंट्रल जेल में फांसी दी गई। उनका बलिदान और साहस भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में अमिट छाप छोड़ गया और वे शहीदों के रूप में हमेशा याद किए जाएंगे।
दिलीप सिंह
दिलीप सिंह जी का जन्म होशियारपुर जिले के धामियाँ कलां गांव में हुआ था, और उनकी आयु मात्र 17 वर्ष थी जब उन्होंने क्रांतिकारी गतिविधियों में भाग लेना शुरू किया। नानकाना साहब की घटना के बाद, उन्होंने अकाली मत की दीक्षा ग्रहण की और 1923 से क्रांतिकारी कार्यों में सक्रिय रूप से हिस्सा लिया।
12 अक्टूबर 1923 को, वह क्रांतिकारी संता सिंह के साथ कंदी नामक स्थान पर क्रांतिकारी पर्चे बांटने जा रहे थे, तभी पुलिस ने उन्हें घेर कर गिरफ्तार कर लिया। उनके खिलाफ मुकदमा चलाया गया।
अदालत में, जब जज सेशन जज मिस्टर टैप (Tapp) ने उनकी कम उम्र देखी, तो वह प्रभावित हुए और उन्होंने दिलीप सिंह जी को राहत देने की कोशिश की। लेकिन दिलीप सिंह जी ने अदालत में समस्त घटनाओं को स्वीकार करते हुए कहा, “अभी तक मैंने कोई अपवित्र कार्य नहीं किया है। मेरी देह पवित्र है। हो सकता है भविष्य में मेरे से कोई गलत काम हो जाए, लेकिन मैं इसी रूप में अपने प्राणों की आहुति देना चाहता हूं।”
यह सुनकर जज भी प्रभावित हुआ।
जज ने अपनी न्यायिक टिप्पणी में दिलीप सिंह जी की वीरता को कुछ इस प्रकार लिखा:
“This accused, young as he is, appears to have established a record for himself second only to that of Santa Singh accused, as to offences in which he has been concerned in connection with this conspiracy. He is implicated in the murders of Buta Lambardar, Labh Singh, Mistri Hajara Singh of Bibalpur, Ralla and Ditu of Kaulgarh, Atta Mohammed Patwari, in the second and third attempts on Labh Singh of Chadda Fateh Singh, in murderous attack on Bishan Singh of Sandhara.”
दिलीप सिंह जी को उनके साहस और समर्पण के कारण बहुत सम्मान मिला। अंततः, उन्हें भी 27 फरवरी 1926 को लाहौर की केंद्रीय जेल में फांसी दी गई। उनका बलिदान भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की कहानी में अमर रहेगा, और उनकी वीरता को हमेशा याद किया जाएगा।
नंद सिंह
नंद सिंह जी का जन्म 1895 में जालंधर जिले के घुड़ियाल गांव में हुआ। नानकाना साहब की घटना के बाद, वे अकाली आंदोलन में शामिल हो गए और गुरु का बाग सत्याग्रह में भाग लिया, जिसके कारण उन्हें छह महीने तक जेल में रहना पड़ा।
जेल से रिहा होने के बाद, नंद सिंह जी ने किशन सिंह जी के साथ बब्बर अकाली दल में शामिल हो गए और उन्होंने अपनी क्रांतिकारी गतिविधियों को और तेज़ किया। उनका सबसे प्रमुख कार्य था गद्दार सूबेदार गेंदा सिंह को उसके गांव में जाकर वध करना।
इस घटना के बाद, पुलिस ने गांव वालों को तंग करना शुरू कर दिया। नंद सिंह जी ने इसका विरोध करते हुए स्वयं ही गिरफ्तारी दी और अपने सभी कार्यों को स्वीकार किया।
उनकी वीरता और बलिदान को देखते हुए, उन्हें 27 फरवरी 1926 को लाहौर की केंद्रीय जेल में फांसी दी गई। उनका नाम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के महान शहीदों में लिया जाता है।
कर्म सिंह
कर्म सिंह जी, श्री भगवानदास सुनार के सुपुत्र थे और जालंधर जिले के मनको गांव के निवासी थे। वे किशन सिंह जी के बब्बर अकाली दल के सक्रिय सदस्य थे और गेंदा सिंह सूबेदार के वध में भी शामिल हुए थे।
गिरफ्तारी के बाद, कर्म सिंह जी ने अदालत में अपनी कोई सफाई नहीं दी और इसे केवल एक “नाटक” करार दिया। वे बिना किसी पछतावे या डर के अपने कार्यों को स्वीकार करते हुए चुप रहे।
उनकी वीरता और बलिदान के कारण, उन्हें 27 फरवरी 1926 को अपने साथियों के साथ लाहौर की केंद्रीय जेल में फांसी दी गई। उनका योगदान और शहादत भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में हमेशा याद किया जाएगा।
बोमेली युद्ध
बब्बर अकाली क्रांतिकारी कर्म सिंह (दौलतपुर), उदय सिंह (रामगढ़ झुगियां), बीशन सिंह (मंगन्त), और महेंद्र सिंह (पिंडोरी गंगसिंह) पहले असहयोग आंदोलन में सक्रिय थे। बाद में, ये सशस्त्र आंदोलन में शामिल हो गए और ब्रिटिश शासन के खिलाफ क्रांति का संदेश फैलाने लगे।
कर्म सिंह जी, जो बब्बर अकाली समाचार पत्र के संपादक भी थे, गांव-गांव जाकर लोगों को अंग्रेजी अत्याचारों के खिलाफ संघर्ष के लिए प्रेरित करते थे।
उनकी क्रांतिकारी गतिविधियों में, उन्होंने पुलिस मुखबीरों को दंडित करने के साथ-साथ हथियार जुटाने के प्रयास किए। 14 फरवरी 1923 को, उन्होंने और उनके साथियों ने जैतपुर के दीवान उदय सिंह और बइलपुर के हजारा सिंह का वध किया।
1 सितंबर (या अप्रैल, महीना विवादित है) 1923 को, ये चारों क्रांतिकारी जालंधर के पास स्थित बोमेली गांव में चौंतासाहब गुरुद्वारे में ठहरे थे, जब पुलिस को खबर मिल गई। पुलिस अधीक्षक स्मिथ और सबइंस्पेक्टर फतेह खान ने 50 सिपाहियों के साथ वहां धावा बोल दिया।
चारों क्रांतिकारियों ने पुलिस और सेना का डटकर मुकाबला किया और वीरता से अपनी जान की आहुति दी। उनका बलिदान भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में अमर रहेगा।
धन्ना सिंह
धन्ना सिंह जी पंजाब के बइबलपुर गांव के निवासी थे। वे बब्बर अकाली दल के सक्रिय सदस्य थे और कई महत्वपूर्ण क्रांतिकारी कार्यों में शामिल रहे। 20 फरवरी 1923 को, उन्होंने पुलिस मुखवीरों पटवारी अर्जुन सिंह और रानीथाने के जेलदार बिशन सिंह का वध किया। इसके बाद, 19 मार्च 1923 को लम्बरदार बूटासिंह, 27 मार्च 1923 को लाभ सिंह, और हजारा सिंह का भी वध किया।
एक समय, ज्वाला सिंह नामक एक गद्दार ने पुलिस से मिलकर उन्हें धोखा दिया और पुलिस को उनकी गतिविधियों के बारे में सूचना दी। पुलिस अधिकारी हॉरटन ने 40 सिपाहियों के साथ उन्हें घेर लिया और गिरफ्तार कर लिया।
गिरफ्तारी के बाद, धन्ना सिंह जी ने अपने कमर में छिपाए गए बम को विस्फोट करने के लिए पिन दबा दिया। इस विस्फोट से पांच सिपाही मौके पर ही मारे गए, और एक सिपाही जो घायल हुआ था, बाद में अपनी चोटों से मर गया।
धन्ना सिंह जी ने अपने प्राणों की आहुति देकर वीरता का परिचय दिया और उनकी शहादत भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में अमर हो गई।
बंता सिंह धामियाँ
बंता सिंह धामियाँ जी पहले सिख पलटन नंबर 55 के सदस्य थे, लेकिन उन्होंने अपनी नौकरी छोड़ दी और डकैत बन गए। 1923 में, 2 या 3 मार्च को जमशेर स्टेशन मास्टर के घर डकैती के दौरान, एक साथी ने महिला की तरफ हाथ बढ़ाया, जिस पर बंता सिंह जी ने उसे गँडासे से वार कर दिया। वे महिलाओं का सम्मान करते थे और इस वजह से उन्होंने उस साथी को सख्त सजा दी।
बब्बर अकाली आंदोलन में, बंता सिंह जी ने एक नंबरदार बूटा सिंह का वध भी किया था। वे अत्यंत साहसी व्यक्ति थे, एक बार उन्हें जंगल में सिपाहियों से सामना हुआ, और उन्होंने अकेले ही उन्हें डरा कर भगा दिया। एक अन्य घटना में, बंता सिंह जी ने अकेले ही एक छावनी में घुसकर पहरेदार की घोड़ी और राइफल छीन ली।
1923 में, 12 दिसंबर को मुंडेर युद्ध हुआ, जिसमें बंता सिंह जी, वरयाम सिंह और ज्वाला सिंह ने असंख्य सशस्त्र सेना से बहादुरी से मुकाबला किया। यह युद्ध जालंधर के पास गांव शाम चौरासी में हुआ था।
जगत सिंह नामक व्यक्ति ने उन्हें धोखा दिया और पुलिस को सूचना दे दी। पुलिस और सेना ने तीनों को घेर लिया। फायरिंग के दौरान ज्वाला सिंह घायल हो गए और बंता सिंह को भी गोली लगी। सेना ने घर को आग लगा दी। घायल बंता सिंह जी ने वरयाम सिंह जी से कहा कि वह उठ नहीं सकते, और बंदी बनने से बेहतर है कि उन्हें गोली मार दी जाए। लेकिन वरयाम सिंह जी ने इसे नकारते हुए बंता सिंह को अपनी रिवाल्वर दी और खुद सेना से मुकाबला करते हुए घेरा तोड़कर निकल गए।
बंता सिंह जी की वीरता और बलिदान भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में अमर हैं।
वरियाम सिंह धुग्गा
वरयाम सिंह जी – वीरता और बलिदान का प्रतीक
वरयाम सिंह जी, होशियारपुर जिले के धुग्गा गांव के निवासी थे। पहले आप भारतीय सेना में भर्ती हुए थे, लेकिन बाद में आपने अपनी नौकरी छोड़ दी और डकैत बनने की राह अपनाई। दुआबा क्षेत्र में आपका नाम प्रसिद्ध था।
कालांतर में, आपका ह्रदय परिवर्तन हुआ और आपने बब्बर अकाली आंदोलन में शामिल होने का निर्णय लिया। आप और आपके साथी क्रांतिकारी पहले असहयोग आंदोलन में सक्रिय थे और बाद में सशस्त्र संघर्ष में भाग लेने लगे थे।
मुंडेर युद्ध में भागीदारी
आप मुंडेर युद्ध (12 दिसंबर 1923) में भी शामिल थे, जिसमें आप और आपके साथी वीरतापूर्वक अंग्रेजी सेना का सामना करने में सफल रहे थे। इस युद्ध में आप सेना के घेरे से बाहर निकलने में सफल रहे, लेकिन आपके साथी बंता सिंह जी और ज्वाला सिंह जी को शहादत प्राप्त हुई।
8 जून 1924 की घटना
दिनांक 8 जून 1924 को आप अपने रिश्तेदार के घर रुके हुए थे। आपके रिश्तेदार ने आपको सलाह दी कि आप अपने हथियार बाहर खेत में रख दें ताकि किसी को संदेह न हो। आपने उस पर विश्वास करके हथियार खेत में रख दिए और भोजन करने के लिए गांव में आ गए।
भोजन समाप्त करने के बाद, आप अपने हथियार लेने के लिए खेत की ओर जा रहे थे, लेकिन रास्ते में ही पुलिस अधीक्षक डी. गेल ने आपको घेर लिया। आपको चारों तरफ से पुलिस ने घेर लिया और डी. गेल आपको जीवित पकड़ने की कोशिश कर रहा था।
जैसे ही डी. गेल ने पकड़ने की कोशिश की, आपने अपनी कृपाण से उसका और अन्य पुलिस अधिकारियों का मुकाबला किया। डी. गेल ने तुरंत पुलिस को गोली चलाने का आदेश दे दिया।
आपके सीने में चारों ओर से गोलियां लगीं और आपने इस संघर्ष में शहादत दी।
शहीद वरयाम सिंह जी की वीरता
वरयाम सिंह जी की वीरता और बलिदान आज भी हमें प्रेरित करती है। उन्होंने अपनी शहादत से यह साबित कर दिया कि स्वतंत्रता के संघर्ष में शहादत सबसे बड़ी क़ीमत है। उनकी कहानी हमें याद दिलाती है कि जब देश की आज़ादी की बात हो, तो व्यक्तित्व और व्यक्तिगत सुरक्षा से बढ़कर कुछ नहीं होता।
शत शत नमन शहीदों को!
लेख का स्रोत: यह लेख “चाँद फांसी अंक” (1928) से संकलित है, जो उस समय की एक प्रतिबंधित पुस्तक है, जिसमें बब्बर अकाली आंदोलन के वीर क्रांतिकारियों की कहानियां और उनके बलिदान दर्ज हैं।
हरि किशन सरहदी: क्रांतिकारी साहस और बलिदान की मिसाल
पंजाब विश्वविद्यालय का दीक्षांत समारोह – 23 दिसंबर 1930
23 दिसंबर 1930, एक ऐतिहासिक दिन था जब पंजाब विश्वविद्यालय के दीक्षांत समारोह के बाद, एक वीर युवा क्रांतिकारी ने अपनी साहसिक कार्यवाही से सभी को चौंका दिया। कार्यक्रम के बाद, जैसे ही पंजाब गवर्नर, ज्योफ्रे डी मोरमोरेंसी, विश्वविद्यालय हॉल से बाहर जाने लगे, एक युवा युवक ने पिस्तौल से गवर्नर पर दो गोलियां दाग दी। एक गोली गवर्नर के कंधे पर और दूसरी उनके पीठ पर लगी। इस हमले में कई लोग घायल हुए, जिनमें से एक पुलिसकर्मी बाद में अपनी चोटों से मर गया।
युवक को मौके पर गिरफ्तार कर लिया गया और उसकी पहचान हुई – क्रांतिकारी हरि किशन सरहदी।
हरि किशन सरहदी का जीवन और संघर्ष
हरि किशन सरहदी का जन्म 1909 में उत्तर-पश्चिमी सीमांत प्रांत के मर्दन शहर के पास गल्ला ढेर गांव में हुआ था। उनके पिता श्री गुरुदास मल बड़े जमींदार थे। उनके परिवार में क्रांतिकारी सोच और देशभक्ति का माहौल था, और उनके भाई भगतराम भी पेशावर जेल में थे।
हरि किशन ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में योगदान देने का संकल्प लिया। उनका आदर्श रामप्रसाद बिस्मिल और अशफ़ाक़ उल्ला ख़ाँ जैसे महान क्रांतिकारी थे, जो ब्रिटिश शासन के खिलाफ सशस्त्र संघर्ष कर रहे थे। खास तौर पर केंद्रीय असेम्बली प्रकरण में भगत सिंह द्वारा अदालत में दिए गए बयानों ने उन्हें गहरे प्रभावित किया।
गवर्नर पर हमला
23 दिसंबर 1930 को पंजाब विश्वविद्यालय के दीक्षांत समारोह में हरि किशन ने अपनी क्रांतिकारी योजना को अंजाम दिया। उन्होंने गवर्नर मोरमोरेंसी पर पिस्तौल से छह गोलियां चलाईं। इनमें से दो गोलियां गवर्नर को लगीं, जबकि बाकी गोलियां उन्होंने अपनी रक्षा के लिए चलाईं। इस हमले का उद्देश्य केवल गवर्नर को मारना था, और यह बिना किसी अनहोनी के पूरा किया गया।
अदालत में, हरि किशन सरहदी ने अपनी सफाई में कहा, “मैं यहां गवर्नर को मारने के लिए आया था, और मैंने जो किया वह मेरी इच्छा से किया है।” उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि उन्होंने केवल अपनी रक्षा के लिए गोलियां चलाईं, और उन्हें यह बताने की जरूरत नहीं कि उन्होंने यह कार्य क्यों किया।
मुकदमा और फांसी की सजा
हरि किशन पर मुकदमे की सुनवाई लाहौर की बोस्टन जेल में 3 जनवरी 1936 को शुरू हुई। उन्होंने किसी भी तरह की सफाई देने से इंकार कर दिया और वकील भी नियुक्त नहीं किया। उन्होंने सीधे अदालत में यह स्वीकार किया कि उनका उद्देश्य गवर्नर को मारना था, और उनके द्वारा पेश की गई गोलियां और पिस्तौल उनकी थीं।
इस मामले में उन्हें फांसी की सजा सुनाई गई, जो बाद में अपील करने के बावजूद यथावत रही। 9 जून 1931 को मियांवाली जेल में उन्हें फांसी दे दी गई।
अंतिम इच्छाएं और सरकार का रवैया
हरि किशन सरहदी ने अपनी अंतिम इच्छा जाहिर की थी कि उनके पार्थिव शरीर को उनके रिश्तेदारों को सौंप दिया जाए और उनका अंतिम संस्कार उसी स्थान पर किया जाए जहां सरदार भगत सिंह का हुआ था। लेकिन सरकार ने उनकी अंतिम इच्छा को अस्वीकार कर दिया, और उनका शरीर बिना किसी धार्मिक रीति-रिवाज के, पास के मुस्लिम कब्रिस्तान में जलाया गया।
शहादत की याद
हरि किशन सरहदी का बलिदान भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में एक महत्वपूर्ण अध्याय बन गया। उनका साहस और उनकी शहादत आज भी हमें यह सिखाती है कि स्वतंत्रता की प्राप्ति के लिए हमें अपने जीवन की आहुति देने से भी पीछे नहीं हटना चाहिए।
शत शत नमन शहीदों को!
यह लेख एक प्रेरणा है, एक साहसी और निडर क्रांतिकारी की कहानी, जिसने अपनी जीवन की सबसे बड़ी कुर्बानी दी, ताकि हम स्वतंत्रता के साथ जी सकें। उनकी शहादत और बलिदान हमेशा हमारे दिलों में जीवित रहेंगे।
वे हमेशा हमारे दिलों में एक महान नायक के रूप में याद किए जाएंगे।
रासबिहारी बोस: एक अद्वितीय क्रांतिकारी का साहसिक सफर
रासबिहारी बोस का जन्म और शिक्षा रासबिहारी बोस का जन्म 25 मई 1886 को पश्चिम बंगाल के बर्धमान जिले के सुबालदह गाँव में हुआ था। उनकी प्रारंभिक शिक्षा चंदननगर में हुई और बाद में उन्होंने फोर्ट विलियम कॉलेज में अध्ययन किया। इसके बाद उन्होंने देहरादून में जंगल विभाग में नौकरी की। लेकिन उनका मन तो हमेशा से देश की आज़ादी के लिए संघर्ष करने में रमा हुआ था।
क्रांतिकारी संगठन और युगांतर दल से जुड़ाव रासबिहारी बोस की क्रांतिकारी यात्रा की शुरुआत “चंदननगर अनुशीलन समिति” से हुई थी। बाद में उनका संपर्क युगांतर दल के क्रांतिकारी अमरेन्द्र चटर्जी से हुआ और वह जतिन बाघा के साथ जुड़ गए। इस बीच उनका रिश्ता संयुक्त प्रान्त (अब उत्तर प्रदेश) और पंजाब के प्रमुख क्रांतिकारियों से भी जुड़ा।
महत्वपूर्ण योजनाएं और संघर्ष रासबिहारी बोस ने कई महत्वपूर्ण योजनाओं को अंजाम दिया। इनमें से एक योजना के तहत उन्होंने “लिबर्टी” नामक एक क्रांतिकारी पर्चा लाहौर से लेकर कोलकाता तक फैलाया, जो सैनिकों और आम जनता में स्वतंत्रता संग्राम के लिए जोश भरने का काम करता था। इसी योजना के तहत, 13 दिसंबर 1912 को दिल्ली के चांदनी चौक में वायसराय लॉर्ड हार्डिंग की सवारी पर बम फेंका गया, जिससे ब्रिटिश सरकार हिल उठी।
साथ ही, रासबिहारी बोस ने पंजाब में सिविल सर्वेंट्स को निशाना बनाने के लिए लॉरेंस गार्डन में बम विस्फोट भी करवाया। उनका एक और महत्वाकांक्षी लक्ष्य प्रथम विश्व युद्ध के दौरान भारतीय फौजियों से संपर्क करके समूचे देश में एक साथ क्रांति का बिगुल बजाना था। इसके लिए उन्होंने जर्मनी से तीन जहाजों में हथियार मंगवाए थे और 21 फरवरी 1915 को क्रांति करने की योजना बनाई थी।
लेकिन एक गद्दार, कृपाल सिंह के कारण उनकी योजना को विफलता का सामना करना पड़ा। कृपाल सिंह ने सारी जानकारी पुलिस को दे दी, जिससे पुलिस और फौज चौकस हो गए और गिरफ्तारियां होने लगीं। बर्लिन से आने वाले हथियारों के बारे में भी अंग्रेजों को जानकारी मिल गई और सारे जहाज रास्ते में ही पकड़े गए। इसी दौरान जतिन बाघा भी शहीद हो गए।
जापान में शरण और नई शुरुआत रासबिहारी बोस के खिलाफ जासूसों ने पीछा किया, लेकिन उन्होंने अपनी सूझबूझ से जुलाई 1915 में राजा पी एन टैगोर के नाम से जासूसों को धोखा दिया और जापान पहुंच गए। वहां, उन्होंने जर्मनी के लोगों से संपर्क किया और फिर शंघाई के जरिए अपने मिशन को आगे बढ़ाया।
जापान में रासबिहारी बोस की मुलाकात लाला लाजपत राय से हुई। 15 नवंबर 1915 को टोक्यो में एक विशाल सभा आयोजित कर उन्होंने भारत की स्वतंत्रता के लिए भाषण दिया, जिससे अंग्रेजों को यह समझ में आ गया कि पी एन टैगोर दरअसल रासबिहारी बोस ही हैं।
जापान सरकार ने ब्रिटिश दबाव के कारण रासबिहारी बोस के खिलाफ आदेश जारी किए कि उन्हें 2 दिसंबर 1915 तक जापान छोड़ना होगा। लेकिन जापान के राष्ट्रवादी नेता मित्सुरी तोयाम के सहयोग से उन्होंने जापान में शरण ली। 1916 में जापान सरकार ने अपना आदेश वापस लिया।
जापान में नई पहचान और योगदान रासबिहारी बोस ने जापान में भारतीयों को संगठित किया और 1923 में “न्यू एशिया” नामक पत्रिका का प्रकाशन शुरू किया। इसके अलावा, उन्होंने भारतीय क्रांतिकारियों के लिए अपने होटल में व्यवस्था की और हर साल जलियांवाला बाग हत्याकांड की बरसी पर कार्यक्रम आयोजित किया। 1926 में उन्होंने “पॉन एशियन लीग” की स्थापना की, जो भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को तेज करने का एक बड़ा मंच बना।
इंडियन इंडिपेंडेंस लीग की स्थापना और आज़ाद हिंद सरकार रासबिहारी बोस ने 1937 में ‘इंडियन इंडिपेंडेंस लीग’ की स्थापना की और 1942 में द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान, जापान द्वारा भारत को स्वतंत्र करने के एक अवसर का लाभ उठाया। उन्होंने टोक्यो में भारतीयों का एक सम्मेलन बुलाया और उन्हें आज़ादी की राह पर चलने के लिए प्रेरित किया। 28 मार्च 1942 को ‘इंडियन इंडिपेंडेंस लीग’ ने भारत को एक स्वतंत्र राष्ट्र घोषित किया।
जापान सरकार ने लीग की वैधता को स्वीकार किया और भारत को एक स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में मान्यता दी। रासबिहारी बोस ने सुभाष चंद्र बोस को लीग का अध्यक्ष बनाने का प्रस्ताव रखा, और सुभाष चंद्र बोस ने आज़ाद हिंद सेना की कमान संभाली।
स्वर्गवास और श्रद्धांजलि रासबिहारी बोस का निधन 22 जनवरी 1945 को जापान में हुआ। जापान सरकार ने उनके अंतिम संस्कार के लिए शाही सवारी का प्रबंध किया और उन्हें जापान के सर्वोच्च सम्मान ‘सेकंड क्रोस ऑर्डर’ से सम्मानित किया।
रासबिहारी बोस का जीवन एक महान साहस और बलिदान की कहानी है। उनका योगदान भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में अनमोल था और उनके कार्यों ने हमें स्वतंत्रता की ओर अग्रसर किया। उनकी स्मृति हमेशा हमारे दिलों में जीवित रहेगी।
रोशन लाल मेहरा: एक साहसी क्रांतिकारी की वीरता की कहानी
प्रारंभिक जीवन और क्रांतिकारी सफर रोशन लाल मेहरा का जन्म 1913 में अमृतसर, पंजाब में हुआ। उनके पिता, श्री धनीराम मेहरा, कपड़े के व्यापारी थे और उनका घर अमृतसर के गली नैनसुख में स्थित था। एक समृद्ध परिवार में जन्मे रोशन लाल का दिल शुरू से ही भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के प्रति समर्पित था।
सन 1930 में, जब उनकी आयु केवल 17 वर्ष थी, उन्होंने उत्तर प्रदेश के प्रसिद्ध क्रांतिकारी शंभूनाथ आजाद से संपर्क किया और उनके साथ क्रांतिकारी गतिविधियों में भाग लिया। इस समय अमृतसर में क्रांतिकारी दल सक्रिय था, जिसमें शंभूनाथ आजाद और अन्य युवा क्रांतिकारी शामिल थे।
क्रांतिकारी प्रशिक्षण और पहले विस्फोट रोशन लाल ने क्रांतिकारी गतिविधियों में भाग लेने के साथ-साथ बम बनाना भी सीख लिया था। असहयोग आंदोलन के दौरान उन्होंने अपने एक साथी के साथ मिलकर पुलिस थाने पर बम फेंका। इस विस्फोट से थाने का भवन बुरी तरह से क्षतिग्रस्त हो गया था, लेकिन रोशन लाल और उनका साथी वहां से भाग निकलने में सफल रहे।
मद्रास में क्रांतिकारी कार्यक्रम और धन की आवश्यकता क्रांतिकारी दल की एक बैठक में रोशन लाल ने प्रस्ताव रखा कि मद्रास (अब चेन्नई) को क्रांतिकारी गतिविधियों का केंद्र बनाया जाए और वहां के गवर्नर का वध किया जाए। सभी साथी इस प्रस्ताव से सहमत हो गए और मद्रास में क्रांति करने की योजना बनाई। लेकिन इस योजना के लिए धन की आवश्यकता थी।
कुछ साथी डकैती डालने की योजना बनाने लगे, लेकिन रोशन लाल को यह विचार सही नहीं लगा। उनका मानना था कि उनके पिता के पास पर्याप्त धन है, इसलिए वह घर पर ही चोरी करने का विचार करते हैं। पहली बार कोशिश असफल रही, लेकिन दूसरी बार जब उनके घरवाले बाहर गए हुए थे, तो उन्होंने 5800 रुपये चुराए और अपने साथियों के साथ मद्रास के लिए रुख किया।
रामपुरम में ठहराव और बैंक लूटने का असफल प्रयास मद्रास पहुंचने के बाद, उन्होंने रामपुरम में एक किराए का मकान लिया। क्रांतिकारी साथियों ने बैंक लूटने की योजना बनाई, लेकिन रोशन लाल इससे सहमत नहीं थे और इसलिए उन्होंने साथ नहीं दिया। हालांकि, बैंक लूटने का प्रयास सफल रहा, लेकिन इसके बाद शंभूनाथ आजाद के अलावा बाकी सभी साथी गिरफ्तार कर लिए गए।
शहादत: बम विस्फोट में वीरता का पराक्रम 1 मई 1933 को, मद्रास में बम बनाने के बाद, रोशन लाल और उनके साथी समुद्र किनारे बम का परीक्षण करने गए थे। दुर्भाग्यवश, इस परीक्षण के दौरान रोशन लाल फिसलकर गिर गए और उनके हाथ में रखा बम विस्फोट हो गया। यह शक्तिशाली बम था, जिससे रोशन लाल की शहादत हो गई। उनका बलिदान भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की कड़ी में एक अमिट उदाहरण बन गया।
रोशन लाल मेहरा: शहादत और सम्मान रोशन लाल मेहरा की वीरता और बलिदान ने उन्हें एक अमर क्रांतिकारी बना दिया। उन्होंने अपनी जीवन की सबसे बड़ी परीक्षा दी, भारतीय स्वतंत्रता के लिए अपनी जान की कुर्बानी दी। उनकी शहादत आज भी हमें यह सिखाती है कि देश की आज़ादी के लिए कितनी बड़ी कीमत चुकानी पड़ती है।
उनकी कहानी एक प्रेरणा है, जो हमें अपने कर्तव्यों और देश के प्रति अपनी जिम्मेदारी को समझने की प्रेरणा देती है। उनके जीवन और संघर्ष को हमेशा याद किया जाएगा।
प्रारंभिक जीवन और क्रांतिकारी संघर्ष बैकुठ शुक्ला का जन्म 1907 में बिहार के मुजफ्फरपुर जिले के जलालपुर गांव में हुआ था। उनका जीवन न केवल भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का हिस्सा था, बल्कि उनकी बहादुरी और बलिदान ने उन्हें अमर कर दिया। वे एक ऐसे क्रांतिकारी थे जिन्होंने अपने जीवन को देश की आज़ादी के लिए समर्पित कर दिया।
फणीन्द्रनाथ घोष की गद्दारी का बदला बैकुठ शुक्ला का नाम इतिहास में हमेशा के लिए दर्ज हो गया, जब उन्होंने फणीन्द्रनाथ घोष की गद्दारी का बदला लिया। फणीन्द्रनाथ घोष, जो हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन के वरिष्ठ सदस्य थे, ने भगतसिंह, राजगुरु और सुखदेव को फांसी दिलवाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। उन्होंने सांडर्स वध के मामले में सरकारी गवाह बनकर क्रांतिकारियों के खिलाफ गवाही दी थी, जिससे कई निर्दोष क्रांतिकारियों को फांसी की सजा मिली।
गद्दारी की सजा: एक ऐतिहासिक पल फणीन्द्रनाथ घोष ने अपनी गवाही से न केवल भगतसिंह, राजगुरु और सुखदेव की मृत्यु का कारण बने, बल्कि योगेंद्र शुक्ल जैसे क्रांतिकारियों को भी जेल भेजा। जब यह जानकारी चंद्रशेखर आजाद को मिली, तो उन्होंने फणीन्द्रनाथ और जयगोपाल को मारने का आदेश दिया था। हालांकि, उस समय फणीन्द्रनाथ बच गए थे।
इसके बाद, बैकुठ शुक्ला को इस गद्दारी का बदला लेने की जिम्मेदारी सौंपी गई। 9 नवंबर 1932 को, जब फणीन्द्रनाथ घोष अपने साथी गणेश प्रसाद गुप्त के साथ मीना बाजार, बेतिया में अपनी दुकान पर बैठा था, बैकुठ शुक्ला ने उस पर खुफ़री से हमला किया। इस हमले में फणीन्द्रनाथ गंभीर रूप से घायल हो गया, जबकि गणेश प्रसाद गुप्त को भी चोटें आईं।
बैकुठ शुक्ला की शहादत फणीन्द्रनाथ घोष और गणेश प्रसाद गुप्त को अस्पताल ले जाया गया, लेकिन फणीन्द्रनाथ 17 नवंबर 1932 को और गणेश प्रसाद गुप्त 20 नवंबर 1932 को दम तोड़ गए। बैकुठ शुक्ला का यह हमला गद्दारी के खिलाफ एक ऐतिहासिक प्रतिशोध था।
इस घटना के बाद बैकुठ शुक्ला को फांसी की सजा सुनाई गई। 14 मई 1934 को, उन्हें गया सेंट्रल जेल में फांसी दी गई। उस समय कई अन्य क्रांतिकारी भी वहां मौजूद थे, जिनमें विभूति भूषण दास गुप्त और अन्य लोग शामिल थे।
फांसी से पहले की आखिरी घड़ी गया केंद्रीय जेल में जब बैकुठ शुक्ला को फांसी के लिए ले जाया गया, तो वह वार्ड नंबर 15 में थे, जहां सभी क्रांतिकारी साथी अपने अंतिम समय में रहते थे। जब फांसी से पहले की रात को उन्होंने यह सुना कि उन्हें फांसी दी जाने वाली है, तो उन्होंने अपने साथी गुप्त जी से कहा, “अब समय कम रह गया है, वंदे मातरम सुनादो।” उस रात पूरे जेल में वंदे मातरम की गूंज सुनाई दी, और यह पल जेल में मौजूद सभी क्रांतिकारियों के लिए प्रेरणा का स्रोत बन गया।
फांसी से पहले, बैकुठ शुक्ला ने गुप्त जी से कहा, “अब तो चलना है, मैं एक बात कहना चाहता हूं। आप जेल से बाहर जाने के बाद बिहार में बाल विवाह की जो प्रथा आज भी प्रचलित है, उसे बंद करने का प्रयास अवश्य कीजिएगा।”
फांसी पर चढ़ने से पहले, बैकुठ शुक्ला ने एक और बात कही, “अब चलता हूं, मैं फिर आऊंगा। देश तो आज़ाद नहीं हुआ, वंदे मातरम…” यह उनके साहस और देशप्रेम की अंतिम घोषणा थी।
समर्पण और वीरता की मिसाल बैकुठ शुक्ला का जीवन एक प्रेरणा है। उनकी शहादत ने साबित कर दिया कि क्रांतिकारी कभी भी अपने उद्देश्य से नहीं भटकते, और वे अंतिम सांस तक अपने देश के लिए समर्पित रहते हैं। उनकी वीरता और बलिदान ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को एक नई दिशा दी और हमें यह सिखाया कि किसी भी कीमत पर गद्दारी को सहन नहीं किया जा सकता।
6 फरवरी 1932 को कलकत्ता विश्वविद्यालय के कन्वोकेशन हॉल में एक ऐतिहासिक घटना घटी। उस दिन बंगाल के गवर्नर स्टैनली जैक्शन स्नातकों को डिग्रियाँ दे रहे थे, और यह अवसर बीना दास के लिए एक और कड़ी चुनौती का था।
बीना दास, जो अपनी बी.ए. ऑनर्स की डिग्री लेने आई थीं, ने एक साहसी कदम उठाया। जैसे ही वह स्टैनली जैक्शन के पास पहुँचीं, बीना ने अपनी पिस्तौल से गवर्नर पर गोली दागी। हालांकि निशाना चूक गया, और गोली कलकत्ता विश्वविद्यालय के एक अधिकारी दिनेश चंद्रसेन को लग गई, जिससे वह घायल हो गए।
इस घटना से हड़कंप मच गया, और कर्नल सुहराबर्दी ने तुरंत बीना को पकड़ लिया। उसे बंद कमरे में मुकदमे की सुनवाई के लिए ले जाया गया, जहाँ बीना ने अदालत में अपना बयान लिखित रूप में दिया।
हालाँकि, बीना का बयान उस समय के लिए इतना प्रभावशाली था कि उसका प्रकाशन प्रतिबंधित कर दिया गया। यह डर था कि उसके बयान को पढ़ने से लोगों में बगावत की लहर दौड़ सकती थी।
बीना दास के बयान का अंश श्रीकृष्ण सरल की पुस्तक ‘क्रांतिकारी कोष’ से लिया गया है, जिसमें उन्होंने अपनी आत्मा की गहराई से क्रांतिकारी संघर्ष की बात की थी।
सजा और जेल
इस क्रांतिकारी कृत्य के लिए बीना दास को उम्र कैद की सजा दी गई। वह 10 साल तक जेल में रहीं। लेकिन उनका हौसला कभी कम नहीं हुआ। 1939 में उन्हें सरकार द्वारा आम रिहाई दे दी गई, और वह जेल से बाहर आईं।
रिहाई के बाद, बीना ने भारत छोड़ो आंदोलन में भी भाग लिया, जिसके लिए उन्हें तीन साल की सजा हुई। जेल से रिहा होने के बाद उनका जीवन सार्वजनिक सेवा में समर्पित रहा।
क्रांतिकारी दल “युगांतर” और ऑपरेशन फ़्रीडम
बीना दास की क्रांतिकारी यात्रा युगांतर दल के साथ जुड़ी हुई थी। यह क्रांतिकारी संगठन भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के महत्वपूर्ण अंगों में से एक था। युगांतर दल का एक महत्वपूर्ण मिशन था – “ऑपरेशन फ़्रीडम”, जिसके तहत फर्जी और क्रूर ब्रिटिश अधिकारियों का वध करना था, ताकि ब्रिटिश शासन में खौफ पैदा हो सके। बीना ने इस मिशन में भाग लिया और कई शौर्यपूर्ण कार्यों में अपनी भागीदारी दिखाई।
राजनीति में प्रवेश और निजी जीवन
जेल से रिहा होने के बाद, बीना दास ने राजनीति में प्रवेश किया और 1946-47 में बंगाल प्रांत विधानसभा की सदस्य बनीं। 1947 से 1951 तक वह पश्चिम बंगाल प्रांत विधानसभा की सदस्य के रूप में कार्यरत रहीं।
इसके बाद, उन्होंने जतीश भौमिक, जो कि युगांतर दल के सदस्य थे, से शादी की। दोनों ने ऋषिकेश में एकांतवास का जीवन बिताया, जहाँ उन्होंने शांति और ध्यान में समय बिताया।
शत-शत नमन
बीना दास की वीरता, साहस और निष्ठा भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के पथ पर हमेशा याद रखी जाएगी। वह न केवल एक क्रांतिकारी थीं, बल्कि एक प्रेरणा भी थीं। उनके संघर्ष और बलिदान को हम हमेशा याद करेंगे।
शांति घोष और सुनीति चौधरी – युवा क्रांतिकारी वीरांगनाएँ
दिनांक 14 दिसंबर 1931 का दिन इतिहास में एक साहसिक और चौंकाने वाली घटना के रूप में दर्ज है। यह दिन था, जब कॉम्मिला (त्रिपुरा) के डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेटचार्ल्स जेफरी बकलैंड स्टीवन ने अपनी जान गंवाई, और इस घटना में दो 14-15 वर्षीय बालिकाओं का हाथ था।
घटना का विवरण
वह दिन एक सामान्य सा दिन था, जब डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट को क्रिसमस के उपहार के रूप में कुछ कैंडी और चॉकलेट देने के लिए दो बच्चियाँ उनके बंगले पर पहुंचीं। मिस्ट्रेस स्टीवेंस चॉकलेट खाते हुए बोलीं, “These are delicious,” लेकिन अगले ही पल, उन बच्चियों ने अपने पिस्तौल से गोलियाँ चलानी शुरू कर दीं और कहा, “Well how about this one mister magistrate!”
इन गोलियों का निशाना चार्ल्स जेफरी बकलैंड स्टीवन थे, जो तुरंत मृत हो गए। यह क्रांतिकारी कार्रवाईयुगांतर दल द्वारा किए गए “ऑपरेशन फ्रीडम” का हिस्सा थी, जिसमें अत्याचारी ब्रिटिश अधिकारियों का वध करना था।
ये बालिकाएँ कौन थीं?
यह साहसी कार्य करने वाली बालिकाएँ थीं शांति घोष और सुनीति चौधरी, जो फैजुनिशां बालिका विद्यालय, कॉम्मिला की आठवीं कक्षा की छात्राएँ थीं। इन दोनों को विशेष रूप से हथियार चलाने का प्रशिक्षण दिया गया था और इन्हें युगांतर दल की क्रांतिकारी गतिविधियों में भाग लेने के लिए तैयार किया गया था।
सिर्फ 14-15 वर्ष की उम्र में इन बालिकाओं ने एक ऐसा कदम उठाया, जिसे भारत के स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में हमेशा याद रखा जाएगा। ऑपरेशन फ्रीडम का उद्देश्य ब्रिटिश अधिकारियों को खौफ में डालना और भारतीय क्रांतिकारियों के प्रति उनके अत्याचारपूर्ण व्यवहार का प्रतिकार करना था।
शांति घोष और सुनीति चौधरी की कहानी
सुनीति चौधरी का जन्म 22 मई 1917 को गांव टीमपेरा, कोमिला (त्रिपुरा) में हुआ था। वह आठवीं कक्षा की छात्रा थीं और केवल 14 वर्ष की आयु में उन्होंने यह साहसिक कदम उठाया।
शांति घोष का जन्म 22 नवंबर 1916 को कलकत्ता में हुआ था। वह छात्री संघ की संस्थापक सदस्य थीं और बाद में युगांतर दल से जुड़ीं।
दोनों बालिकाएँ, जिला मजिस्ट्रेट को गोलियाँ चलाने के बाद गिरफ़्तार कर ली गईं। उन्हें हत्या का आरोप लगाया गया और 27 फरवरी 1932 को उनका मुक़दमा चला। चूंकि दोनों की उम्र 14 वर्ष से कम थी, उन्हें फांसी की बजाय उम्र कैद की सजा दी गई।
जेल और रिहाई
वह दोनों बालिकाएँ 10 साल तक जेल में रही, और फिर 1939 में जब सरकार ने सामूहिक माफी दी, तो उन्हें रिहा कर दिया गया। रिहाई के बाद, उनका जीवन बहुत बदल चुका था, और वे अपनी अपनी दिशा में सक्रिय हो गईं।
शांति घोष का राजनीति में प्रवेश
शांति घोष ने जेल से रिहा होने के बाद पहले कम्युनिस्ट पार्टी में सक्रिय रूप से भाग लिया और फिर कांग्रेस पार्टी की सदस्य बनीं। 1942 में, उनका विवाह प्रोफेसर चितरंजन दास से हुआ।
शांति घोष 1952 से 1962 तक बंगाल विधान परिषद की सदस्य रहीं और 1967 में पश्चिम बंगाल विधानसभा की भी सदस्य बनीं।
शांति घोष ने अपनी आत्मकथा “अरुण वाहिनी (अरुण बहनी)” लिखी, जो उनके संघर्ष और क्रांतिकारी जीवन का एक अहम दस्तावेज़ है। उनका 28 मार्च 1989 को निधन हुआ।
सुनीति चौधरी का जीवन
सुनीति चौधरी पहले दीपाली संघ की सदस्य थीं, फिर युगांतर के इब्राहिमपुर शाखा की सदस्य बनीं। जेल से रिहा होने के बाद उन्होंने मेडिकल शिक्षा ली और 1947 में MBBS की डिग्री प्राप्त की।
उनकी शादी मजदूर नेता प्रद्योत कुमार से हुई। सुनीति का 12 जनवरी 1986 को निधन हुआ।
शत-शत नमन
आज हम इन वीरांगनाओं के बलिदान और संघर्ष को याद करते हैं। शांति घोष और सुनीति चौधरी न केवल अपनी क्रांतिकारी कार्रवाइयों के लिए, बल्कि अपने दृढ़ संकल्प और साहस के लिए भी हमेशा इतिहास में जीवित रहेंगी।
वीरेंद्रनाथ चट्टोपाध्याय: भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के अप्रतिम नायक
वीरेंद्रनाथ चट्टोपाध्याय, जिनकी पहचान चट्टो के नाम से भी होती है, भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के उन वीर क्रांतिकारियों में से एक थे, जिन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष के रास्ते में अपना जीवन समर्पित कर दिया। उनका जन्म 1880 में ढाका के एक संपन्न परिवार में हुआ था।
प्रारंभिक जीवन और शिक्षा
वीरेंद्रनाथ के पिता श्री अधोरनाथ एक प्रमुख शख्सियत थे, जो उस्मानिया कॉलेज, हैदराबाद में प्राध्यापक के रूप में कार्यरत थे। अपने पिता के प्रेरणा से वीरेंद्रनाथ को उच्च शिक्षा के लिए लंदन भेजा गया। वहां, उन्होंने आईसीएस परीक्षा में बैठने का प्रयास किया, लेकिन सफलता नहीं मिली। इसके बाद, उन्होंने ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में कानून की पढ़ाई शुरू की।
क्रांतिकारी रास्ते की ओर
लंदन में ही वीरेंद्रनाथ का संपर्क भारतीय क्रांतिकारियों वीर सावरकर और श्यामजी कृष्ण वर्मा से हुआ, जिन्होंने उस समय इंडिया हाउस को संचालित किया था। यह स्थान भारतीय क्रांतिकारियों के लिए एक गुप्त ठिकाना था। क्रांतिकारी गतिविधियों में शामिल होने के कारण वीरेंद्रनाथ को विश्वविद्यालय से बाहर कर दिया गया, और वह पूरी तरह से भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में उतर गए।
विदेशों में क्रांतिकारी गतिविधियाँ
1906 में, जब कमाल पाशा लंदन आए, तो वीरेंद्रनाथ ने उनसे भी संपर्क किया। 1907 में जर्मनी में आयोजित समाजवादी सम्मेलन में उन्होंने भीकाजी कामा और पोलैंड के क्रांतिकारियों से मुलाकात की। वहां से, वह पोलैंड, वारसा, और आयरलैंड भी गए, जहां उनका संपर्क अन्य क्रांतिकारियों से हुआ।
उन्होंने पेरिस से निकलने वाले समाचार पत्र “वंदे मातरम” और बर्लिन से निकलने वाले “तलवार” में कई लेख लिखे, जो भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के पक्ष में थे। प्रथम विश्वयुद्ध के समय, वीरेंद्रनाथ बर्लिन गए, जहां लाला हरदयाल और पिल्ले पहले से ही सक्रिय थे।
भारतीय स्वतंत्रता समिति का गठन
1914 में, वीरेंद्रनाथ और अन्य क्रांतिकारियों ने “भारतीय स्वतंत्रता समिति” का गठन किया, जिसमें भूपेंद्रनाथ दत्त भी शामिल थे। इस समिति ने जर्मन फ्रेंड्स ऑफ इंडिया के सम्मेलन में भी भाग लिया, और इसके द्वारा भारतीय क्रांतिकारियों के संपर्क में सहायता के लिए उन्हें भारत भेजा गया।
लेनिन से मुलाकात और मतभेद
कहा जाता है कि वीरेंद्रनाथ ने लेनिन से भी मुलाकात की, लेकिन उनके विचारों में काफी अंतर था। वीरेंद्रनाथ का मानना था कि भारतीय परिस्थितियाँ उस समय सर्वहारा क्रांति के लिए अनुकूल नहीं थीं, और वह राष्ट्रीय आंदोलन के पक्षधर थे। इसके विपरीत, लेनिन का झुकाव वैश्विक कम्युनिज़्म की ओर था, जो वीरेंद्रनाथ के विचारों से मेल नहीं खाता था।
जर्मनी में भारतीय क्रांतिकारियों से संबंध
वीरेंद्रनाथ का जर्मनी में भारतीय क्रांतिकारियों से गहरा संबंध था। उन्होंने राजा महेंद्र प्रताप की जर्मन केसर से मुलाकात करवाई, और युगांतर दल के जतिंद्रनाथ मुखर्जी (जतिन बाघा) से भी उनके सीधे संपर्क थे। इसके साथ ही, उन्होंने जर्मनी से भारत को हथियारों की आपूर्ति करने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
गद्दारी का रहस्य
एक महत्वपूर्ण और रहस्यमय घटना यह भी थी कि जर्मनी से भेजे गए हथियारों का एक जहाज रास्ते में पकड़ा गया। यह जानकारी किसी गद्दार ने अंग्रेजों तक पहुंचाई थी, और यह अब भी एक गहरे रहस्य के रूप में बना हुआ है कि वह गद्दार कौन था?
1920 में भारतीय नेताओं से संपर्क
1920 में, वीरेंद्रनाथ का रूसी नेताओं के साथ भी संपर्क था। उस समय, एमएन राय (नरेन्द्र भट्टाचार्य) ताशकंद में थे और वह काबुल जाना चाहते थे। वीरेंद्रनाथ ने उन्हें सूचित किया कि काबुल में उनकी हत्या की योजना बनाई जा रही है।
इस समय इंडो-जर्मन प्लॉट की जानकारी अंग्रेजों तक पहुंचने से, स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में एक महत्वपूर्ण मोड़ आया।
अंतिम समय
2 सितंबर 1937 को, वीरेंद्रनाथ चट्टोपाध्याय का स्वर्गवास हुआ, और उन्होंने अपनी सारी ज़िन्दगी भारत की स्वतंत्रता के लिए समर्पित कर दी।
शत-शत नमन
वीरेंद्रनाथ चट्टोपाध्याय का जीवन एक प्रेरणा है, जिन्होंने अपनी शिक्षा, ज्ञान और क्रांतिकारी गतिविधियों से भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को नया दिशा दी। उनका योगदान भारतीय इतिहास में हमेशा याद रखा जाएगा।
पांडुरंग सदाशिव खानखोज: एक महान क्रांतिकारी और विश्वयुद्ध के नायक
पांडुरंग सदाशिव खानखोज, भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के उन वीर क्रांतिकारियों में से एक थे जिन्होंने अपनी जिंदगी को स्वतंत्रता के लिए समर्पित कर दिया। उनका जन्म 17 नवंबर 1883 को वर्धा, नागपुर, महाराष्ट्र में हुआ था। एक सशक्त और क्रांतिकारी व्यक्तित्व के मालिक, पांडुरंग ने न केवल भारत में बल्कि दुनियाभर में अपने संघर्ष को फैलाया और आजादी की राह में कई देशों में योगदान दिया।
प्रारंभिक जीवन और शिक्षा
पांडुरंग ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा नागपुर के नील सिटी हाई स्कूल से प्राप्त की। इस दौरान उनका संपर्क सखाराम देउस्कर और ब्रह्मबांधव बंदोपाध्याय जैसे बंगाली क्रांतिकारियों से हुआ, जो उनकी विचारधारा को और मजबूती प्रदान करने में सहायक बने।
अमेरिका में क्रांतिकारी गतिविधियाँ
1906 में, पांडुरंग को लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के कहने पर संयुक्त राज्य अमेरिका जाना पड़ा। वहां, केलिफोर्निया और पोर्टलैंड में कृषि की पढ़ाई करते हुए उन्होंने क्रांतिकारी गतिविधियों में हिस्सा लिया।
अमेरिका में रहते हुए, पांडुरंग ने हिंदुस्तान एसोसिएशन का गठन किया, जिसमें लाला हरदयाल, पंडित काशीराम, विष्णु गणेश पिंगले, वीरेंद्रनाथ चट्टोपाध्याय, और भूपेंद्रनाथ दत्त जैसे प्रसिद्ध क्रांतिकारी शामिल थे। इस संगठन ने बाद में गदर पार्टी का रूप लिया। पांडुरंग खानखोज गदर पार्टी के “प्रहार” विभाग के प्रमुख थे, जिसका कार्य हथियार और बम जुटाना था।
युद्ध और संघर्ष का नया मोड़
प्रथम विश्व युद्ध के समय, गदर पार्टी ने पांडुरंग को भारत भेजने का निर्णय लिया। रास्ते में, पांडुरंग ने कुस्तुन्तुनिया (अब इस्तांबुल) में तुर्की के शाह अनवर पाशा से मुलाकात की और उनके सहयोग से अंग्रेजों को भारत से खदेड़ने के लिए युद्ध की योजना बनाई। इसके बाद, वह बलूचिस्तान गए, जहां उन्होंने जर्मन अधिकारी विल्हेल्म वासमस से मुलाकात की और बलूचियों का संगठन तैयार किया।
उन्होंने एक अस्थायी सरकार का भी गठन किया और एक सेना बनाई, लेकिन दुर्भाग्यवश अंग्रेजों ने अमीर को अपने साथ मिला लिया, जिससे उनका आंदोलन असफल हो गया। पांडुरंग को वहां से भागना पड़ा, और वे नेपरिन (अब पाकिस्तान) गए, जहां उन्होंने फिर से अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष किया। हालांकि, वहां भी उनका संघर्ष नकारात्मक परिणामों के साथ समाप्त हुआ।
संघर्ष जारी रखने की अदम्य इच्छाशक्ति
इसके बाद, पांडुरंग ने ईरान का रुख किया, जहां उन्होंने वहां की फौज में भर्ती हो गए। लेकिन ईरान ने जल्द ही आत्मसमर्पण कर दिया, और पांडुरंग का संघर्ष एक बार फिर असफल हो गया।
10 जून 1919 को पांडुरंग ने भारत लौटने का निर्णय लिया, लेकिन भारत में भी स्वतंत्रता संग्राम का माहौल ठीक नहीं था। इसके बाद, वे बर्लिन गए और भूपेंद्रनाथ दत्त और वीरेंद्रनाथ चट्टोपाध्याय के साथ रूस गए। वे 1924 तक रूस में रहे, जहां उन्होंने भारतीय क्रांतिकारियों के साथ मिलकर कई योजनाओं पर काम किया।
भारत में वापसी और कृषि सलाहकार के रूप में कार्य
पांडुरंग ने 1949 में भारत लौटने का निर्णय लिया और एक कृषि सलाहकार के रूप में भारत सरकार से जुड़ने का प्रयास किया। हालांकि, वे केवल पांच महीने ही भारत में रहे। फिर, 1950 में, वे भारत वापस लौटे और लगभग डेढ़ साल तक यहाँ निवास किया। इसके बाद, वे फिर से विदेश चले गए, लेकिन अंततः 1955 में उन्होंने नागपुर में स्थायी रूप से निवास करने का निर्णय लिया।
भारतीय नागरिकता और अंतिम समय
18 जनवरी 1967 को उन्हें भारत की नागरिकता प्रदान की गई। पांडुरंग सदाशिव खानखोज का 22 जनवरी 1967 को स्वर्गवास हो गया। उनके योगदान को कभी भुलाया नहीं जा सकता, और उनकी बहादुरी और संघर्ष को हर भारतीय नमन करता है।
शत-शत नमन
पांडुरंग सदाशिव खानखोज ने चीन, जापान, अमेरिका, कनाडा, ग्रीस, तुर्की, ईरान, बलूचिस्तान सीमा, फ्रांस, जर्मनी, रूस और मैक्सिको में अपनी क्रांतिकारी गतिविधियाँ जारी रखीं, और भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के लिए अपना हर पल समर्पित कर दिया। उनकी वीरता और संघर्ष की गाथा आज भी हमें प्रेरित करती है।
चारु चंद्र बोस: एक साहसी क्रांतिकारी और अद्वितीय वीरता के प्रतीक
चारु चंद्र बोस, बंगाल के महान क्रांतिकारी, जिन्होंने शारीरिक रूप से कमजोर होते हुए भी अपनी बहादुरी से भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में महत्वपूर्ण योगदान दिया। उनके दाहिने हाथ की उंगलियाँ नहीं थीं, लेकिन उन्होंने इस कमजोरी को अपने साहस और दृढ़ संकल्प से मात दी। पिस्तौल चलाने का अभ्यास करते हुए, उन्होंने दाहिने हाथ में पिस्तौल बांधकर और बाएं हाथ से उसे चलाकर असाधारण क्रांतिकारी कार्यों को अंजाम दिया।
शारीरिक कमजोरी के बावजूद अद्वितीय साहस
चारु चंद्र बोस का शारीरिक गठन कमजोर था, लेकिन उनका मानसिक बल और क्रांतिकारी भावना अविस्मरणीय थी। वे ना केवल खुद के लिए, बल्कि देश की आज़ादी के लिए अपने संघर्ष में पूरी ताकत से जुटे रहे। बंगाल की अनुशीलन समिति के सदस्य के रूप में उन्होंने न केवल राजनीतिक विचारधारा को फैलाया, बल्कि सशस्त्र क्रांति की दिशा में भी सक्रिय रूप से भाग लिया।
मुजफ्फरपुर और अलीपुर षड्यंत्र
चारु चंद्र बोस का नाम उस समय इतिहास में गूंजने लगा, जब पप्रफुल्ल चाकी और खुदीराम बोस ने मुजफ्फरपुर में अंग्रेजी अधिकारी काजी किंग्फोर्ड की गाड़ी पर बम फेंका था। इसके बाद, पुलिस ने बारी- बारी से क्रांतिकारियों को गिरफ्तार करना शुरू कर दिया, और इस घटना को अलीपुर षड्यंत्र के नाम से जाना गया।
अलीपुर एक्शन, जैसा कि हम इसे अब कहते हैं, में सरकार की ओर से आशुतोष विश्वास ने क्रांतिकारियों के खिलाफ झूठे गवाह पेश किए, ताकि उन्हें सजा दिलाई जा सके। आशुतोष विश्वास की ये कृत्य उस समय के क्रांतिकारियों के लिए अपमानजनक थे और उन्होंने इसे बर्दाश्त नहीं किया।
साहसी कदम और आशुतोष विश्वास की हत्या
10 फरवरी 1909 को, आशुतोष विश्वास अलीपुर अदालत से बाहर निकल रहे थे, और यह अवसर चारु चंद्र बोस ने अपने साहसिक कदम को उठाने के लिए चुना। चारु चंद्र बोस ने आशुतोष विश्वास को गोली से उड़ा दिया। यह कार्रवाई क्रांतिकारियों द्वारा किए गए न्याय के प्रतीक के रूप में उभरी। चारु चंद्र को मौके पर ही गिरफ्तार कर लिया गया।
फांसी की सजा और शहादत
चारु चंद्र बोस पर मुकदमा चला और उन्हें फांसी की सजा सुनाई गई। उनके साहसिक कार्य और स्वतंत्रता संग्राम के प्रति उनका समर्पण काबिले तारीफ था। 19 मार्च 1909 को, केंद्रीय कारागार अलीपुर में उन्हें फांसी दे दी गई।
शत-शत नमन
चारु चंद्र बोस की शहादत ने यह साबित कर दिया कि शारीरिक कमजोरी कभी भी मानसिक शक्ति और दृढ़ता को मात नहीं दे सकती। उन्होंने अपने प्राणों की आहुति देकर भारत की स्वतंत्रता संग्राम में अपना अमूल्य योगदान दिया। उनके साहस, समर्पण और बलिदान को आज भी हर भारतीय याद करता है।
रेसकोर्स एक्शन: भारतीय क्रांतिकारियों का साहसी कदम
ऑपरेशन फ्रीडम – भारतीय क्रांतिकारियों के लिए यह केवल एक मिशन नहीं था, बल्कि यह उनके दिलों में देश के प्रति गहरी नफरत और अत्याचारों के खिलाफ एक मजबूत प्रतिकार की भावना का प्रतीक था। जब ब्रिटिश शासन के दमनकारी पुलिस और सिविल अधिकारियों के हाथों भारतीयों पर अत्याचार बढ़ गए, तो क्रांतिकारियों ने इन अधिकारियों से बदला लेने के लिए एक साहसिक योजना बनाई।
सर जॉन एंडरसन: दमन का प्रतीक
सर जॉन एंडरसन, बंगाल के गवर्नर, अपने अत्याचारी और निर्दयी तरीकों के लिए कुख्यात थे। बंगाल ऑर्डिनेंस के बाद, उन्होंने क्रांतिकारियों और आम जनता पर अत्याचार बढ़ा दिए थे। यह उनके दमनकारी कार्यों के कारण था कि वे क्रांतिकारियों के टारगेट पर आ गए थे।
रेसकोर्स एक्शन का प्रारंभ
8 मई 1934 को, सर जॉन एंडरसन दार्जलिंग के लेवांग रेसकोर्स में घुड़दौड़ में भाग लेने गए। यह वह अवसर था, जिस पर क्रांतिकारियों ने अपनी योजना को लागू करने का तय किया। भवानी भट्टाचार्य और रविंद्रनाथ बनर्जी ने पूरी तरह से योजनाबद्ध तरीके से एंडरसन को गोली मारने का प्रयास किया।
असफल प्रयास और गिरफ्तारी
हालांकि, यह गोली मूक नहीं हुई और एंडरसन का निशाना चूक गया। गोली उनकी अंगरक्षक को लग गई, लेकिन इस प्रयास में भवानी भट्टाचार्य और रविंद्रनाथ बनर्जी दोनों को तुरंत गिरफ्तार कर लिया गया। यह घटना एक महत्वपूर्ण मोड़ थी, जिसमें क्रांतिकारियों ने अपनी साहसिकता से ब्रिटिश अधिकारियों को चुनौती दी।
सजा और शहादत
भवानी भट्टाचार्य और रविंद्रनाथ बनर्जी को गिरफ्तार कर लिया गया और उन पर मुकदमा चला। भवानी भट्टाचार्य को 3 फरवरी 1935 को राजशाही जेल में फांसी की सजा दी गई। उनके साथियों को भी कड़ी सजा मिली, जिसमें एक क्रांतिकारी को 14 साल का कारावास हुआ।
शत-शत नमन
रेसकोर्स एक्शन की यह साहसिक घटना हमें यह सिखाती है कि भारत के क्रांतिकारी अपने देश की स्वतंत्रता के लिए किसी भी सीमा तक जा सकते थे। भवानी भट्टाचार्य और रविंद्रनाथ बनर्जी जैसे महान नायकों ने अपने प्राणों की आहुति देकर देश की आज़ादी के लिए एक मजबूत संदेश दिया।
शत-शत नमन इन महान शहीदों को, जिनकी शहादत से भारत के स्वतंत्रता संग्राम को एक नई दिशा मिली।
वंचिनाथन या वांची अय्यर, तिरुनेलवेली जिले, तमिलनाडु के निवासी थे। उनका जन्म 1880 में हुआ था, और वे एक ऐसे क्रांतिकारी थे जिनका समर्पण और साहस भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के महान आदर्शों का प्रतीक बन गया।
शिक्षा और संघर्ष की शुरुआत
वांची ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा तिरुनल महाराजा कॉलेज से प्राप्त की, जहां से उन्होंने MA की डिग्री हासिल की। उनकी शिक्षा के दौरान ही वे बंगाल के क्रांतिकारी गुप्त संगठनों अनुशीलन समिति और जुगांतर से प्रभावित हुए। उनका विश्वास था कि यूरोपीय लोग सनातन धर्म पर आक्रमण कर रहे हैं, और इसे बचाने के लिए भारत को स्वतंत्र होना चाहिए।
वांची अय्यर सनातन धर्म के अनुयायी थे, और उन्होंने भारत माता एसोसिएशन से जुड़कर नीलकंठ ब्रह्मचारी के नेतृत्व में भारत में विदेशी शासन के खिलाफ संघर्ष करने का संकल्प लिया था। इस संगठन का उद्देश्य भारत में यूरोपीय लोगों द्वारा सनातन धर्म पर किए जा रहे हमलों का विरोध करना था।
कलेक्टर ऐश की हत्या की योजना
वांची अय्यर ने त्रावणकोर फॉरेस्ट विभाग में नौकरी की थी, लेकिन उनका दिल और मन देश की स्वतंत्रता के लिए कार्य कर रहा था। तिरुनवेली के कलेक्टर रॉबर्ट विलियम एस्कॉर्ट ऐश ने वीर सावरकर को आजीवन कारावास की सजा दी थी, जिसके कारण वीर सावरकर ने ब्रिटिश अधिकारियों के खिलाफ योजना बनाई थी।
सावरकर के सहयोगी VVS अय्यर ने वांची अय्यर से मिलकर इस हत्या की योजना तैयार की। वांची ने इस मिशन को अंजाम देने के लिए तीन महीने का अवकाश लिया और पॉन्डिचेरी में रिवॉल्वर चलाने का प्रशिक्षण लिया।
ऐश की हत्या और आत्मबलिदान
17 जून 1911 को वांची अय्यर ने अपने मिशन को अंजाम देते हुए रॉबर्ट विलियम ऐश को मनियांची रेलवे स्टेशन पर पास से गोली मारकर हत्या कर दी। वांची ने यह कदम अकेले उठाया, और अपने देश की स्वतंत्रता के लिए अपूर्व साहस का परिचय दिया।
लेकिन वांची अय्यर की वीरता यहीं खत्म नहीं होती। वह नहीं चाहते थे कि अगर उन्हें गिरफ्तार किया गया, तो उन्हें शारीरिक यातनाएँ दी जाएं और क्रांतिकारी दल के बारे में पूछताछ की जाए। इसलिए, वांची ने अपनी वीरता के साथ अपना मिशन पूरा किया और मौके पर ही आत्महत्या कर अपनी शहादत दी।
शंकरन से वांची तक
वांची का वास्तविक नाम शंकरन था, लेकिन उनका क्रांतिकारी नाम वांची अय्यर था। उन्होंने अपना जीवन अपनी मातृभूमि की स्वतंत्रता के लिए समर्पित किया, और उनकी शहादत आज भी हमें प्रेरित करती है।
शत-शत नमन इस महान क्रांतिकारी को, जिनकी शहादत ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को एक नई दिशा दी और हमें यह सिखाया कि जब देश की स्वतंत्रता की बात हो, तो अपनी जान की परवाह नहीं करनी चाहिए।
भारत माता के उस सपूत को शत-शत नमन, जिसने सिंह की तरह संघर्ष किया और बलिदान दे दिया।
राजस्थान की वीर भूमि पर जन्मे प्रताप सिंह बारहठ भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के उस तेजस्वी अध्याय का नाम हैं, जिसने हथियारबंद क्रांति की धधकती मशाल को उत्तर भारत तक पहुंचाया।
क्रांति का पारिवारिक संस्कार
प्रताप सिंह जी का जन्म एक क्रांतिकारी परिवार में हुआ था। उनके पिता केसरी सिंह बारहठ न केवल एक विद्वान और राष्ट्रभक्त थे, बल्कि उन्होंने राव गोपाल सिंह (खरवा), अर्जुनलाल सेठी (जयपुर) और सेठ दामोदरदास राठी (ब्यावर) के साथ मिलकर “अभिनव भारत समिति” की स्थापना की थी।
यह समिति भारत में ब्रिटिश शासन के विरुद्ध गुप्त रूप से सशस्त्र संघर्ष की योजना बना रही थी और रासबिहारी बोस से उनका गहरा संपर्क था।
रासबिहारी बोस का ‘सिंह’
केसरी सिंह जी ने अपने पुत्र प्रताप सिंह को देश की सेवा हेतु रासबिहारी बोस को समर्पित कर दिया। जल्दी ही प्रताप सिंह बोस के विश्वासपात्र बन गए। रासबिहारी बोस ने एक बार लिखा था – “इसकी आंखों में आग है, यह सिंह है।”
दिल्ली बम कांड का नायक
23 दिसंबर 1912 — यह दिन इतिहास के पन्नों में दर्ज है, जब ब्रिटिश वायसराय लॉर्ड हार्डिंग दिल्ली में नए राजधानी उद्घाटन समारोह में शामिल होकर हाथी पर सवार होकर चांदनी चौक से गुजर रहे थे।
उसी समय एक बम उनकी सवारी पर फेंका गया। योजना के पीछे थे रासबिहारी बोस, और जिम्मेदारी सौंपी गई थी प्रताप सिंह बारहठ और जोरावर सिंह को।
बम फेंकने की योजना प्रताप सिंह ने ही बनाई थी — उन्होंने पंजाब नेशनल बैंक की छत को चुना, बुर्का पहनकर बम फेंका, और योजना के अनुसार बखूबी कार्य को अंजाम दिया।
हालांकि हार्डिंग बच गया, लेकिन उसका अंगरक्षक मारा गया। इसके बाद प्रताप सिंह जी और उनके बहनोई ईश्वर सिंह आशिया यमुना नदी तैरकर भागे और पीछा कर रही पुलिस पर गोली भी चलाई।
गिरफ्तारी और यातनाएं
दिल्ली केस में प्रताप सिंह जी पर कोई साक्ष्य नहीं था, इसलिए उन्हें रिहा कर दिया गया। लेकिन आशानाडा के एक रेलवे स्टेशन मास्टर ने गद्दारी की और उन्हें गिरफ्तार करवा दिया।
इसके बाद बनारस षड्यंत्र केस में उन्हें 5 वर्ष की सजा हुई और बरेली सेंट्रल जेल में रखा गया, जहां उन्हें अमानवीय यातनाएं दी गईं।
वायसराय का सचिव क्लीवलैंड खुद जेल में आकर उन्हें अपने परिवार की दुहाई देकर क्रांतिकारी गतिविधियों की जानकारी देने को कहता है, परंतु सिंह की भांति उत्तर मिलता है – “मैं अपनी मां को चुप करवाने के लिए हजारों माओं को नहीं रुला सकता।”
उनके पिता केसरी सिंह जी भी जेल में मिलने आए और चेतावनी दी कि “अगर देशद्रोही सोच रखी तो मेरी गोली से नहीं बच पाओगे।” प्रताप सिंह जी ने उत्तर दिया – “दाता, मैं आपका पुत्र हूं। स्वप्न में भी देशद्रोही विचार नहीं लाऊंगा।”
शचींद्र सान्याल की गवाही
महान क्रांतिकारी शचींद्रनाथ सान्याल ने अपनी आत्मकथा “बंदी जीवन” में प्रताप सिंह जी की बहादुरी और निडरता की खुलकर प्रशंसा की है।
अंतिम बलिदान
वर्षों की यातनाओं के बाद, 24 मई 1918 को (कुछ ग्रंथों में 27 मई) जेल में ही प्रताप सिंह बारहठ ने अपने प्राणों की आहुति दी।
वीर बारहठ परिवार को श्रद्धांजलि
यह परिवार स्वतंत्रता संग्राम का गर्व है — जिनके दो भाई, एक पुत्र और दामाद ने स्वतंत्रता की लड़ाई में अपने प्राण न्यौछावर किए।
सिंह की गर्जना अब भी गूंजती है इतिहास के आकाश में। शत शत नमन है उस सिंह पुरुष प्रताप सिंह बारहठ को, जिनकी आंखों में आग थी और सीने में जलती हुई देशभक्ति।
शचींद्रनाथ सान्याल: वो क्रांतिकारी जिसने ताज नहीं, तोपों से आज़ादी का सपना देखा
जब देश गुलामी की जंजीरों में जकड़ा था, तब कुछ लोग थे जो खामोशी से जल रहे थे — शब्दों से नहीं, शस्त्रों से जवाब देने को तैयार। उन्हीं में से एक थे — शचींद्रनाथ सान्याल, भारतीय सशस्त्र क्रांति के अघोषित सेनापति।
काशी की गलियों से उठी क्रांति की आवाज़
साल था 1893। बनारस की पवित्र धरती पर जन्मा एक बालक, जिसे न किताबों में रुचि थी और न आराम में, बल्कि उसकी रुचि थी — बदलाव में। नाम था शचींद्रनाथ सान्याल। महज़ 15 साल की उम्र में इन्होंने काशी में क्रांतिकारियों का पहला संगठन बना डाला। सोचिए, जब लोग स्कूल के होमवर्क से परेशान होते हैं, तब सान्याल क्रांति की नींव रख रहे थे!
जब दो क्रांतिकारी रास्ते मिले…
1909 में क्रांतिकारी रमेशाचार्य के प्रयास से सान्याल का संगठन योगेश चटर्जी के कलकत्ता दल से जुड़ा। यहीं से जन्म हुआ उस संगठन का, जिसने बाद में अंग्रेजी हुकूमत की नींदें उड़ा दीं — हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन (HRA)।
इलाहाबाद, कानपुर, मेरठ, शाहजहांपुर — पूरा उत्तर भारत इस संगठन की क्रांति की आँच में तप रहा था। राम प्रसाद बिस्मिल जैसे धधकते नाम इसी दल से जुड़े।
‘हम लूटेंगे… लेकिन सिर्फ़ शोषकों को!’
दल को क्रांति के लिए हथियार चाहिए थे, और हथियारों के लिए धन। पर यह पैसा आए कहाँ से? तब सान्याल और उनके साथियों ने रास्ता चुना — साहूकारों और जमींदारों को लूटने का, जो गरीबों का खून चूसते थे। बसमेंली, द्वारकापुरी जैसे गांव गवाह बने इन डाकों के।
और फिर हुआ वो धमाका जिसने अंग्रेजी हुकूमत को झकझोर कर रख दिया — काकोरी एक्शन (1925)। इस कार्रवाई के पीछे वही संगठन था, जिसकी सोच का नक्शा सान्याल ने तैयार किया था।
एक क्रांति जो समय से पहले पकड़ी गई
1915 में रासबिहारी बोस के नेतृत्व में देशभर में फौजियों को संगठित कर एक साथ विद्रोह की योजना बनी। सान्याल इस योजना की रीढ़ थे। लेकिन एक मुखबिर की खबर से सबकुछ ध्वस्त हो गया। सान्याल गिरफ्तार हुए, और 1916 में उन्हें काला पानी की सजा दे दी गई।
‘बंदी जीवन’ में लिखा दर्द
1920 में रिहा होकर बाहर आए, तो कांग्रेस से मिले, लेकिन वहां क्रांतिकारी को वही पुराना अपमान मिला। उन्होंने अपनी आत्मकथा ‘बंदी जीवन’ में यह सब दर्ज किया — वह दर्द, वह अकेलापन, वह अनदेखा बलिदान।
क्रांति को संविधान मिला
1924 में संगठन का पुनर्गठन हुआ। अब साथ में थे — भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु। सान्याल ने संगठन का संविधान लिखा, जिसमें क्रांति का सपना सिर्फ सत्ता बदलने का नहीं था, बल्कि शोषण रहित समाज गढ़ने का था।
‘The Revolutionary’ और अंतिम लड़ाई
1925 में उन्होंने The Revolutionary नामक घोषणापत्र तैयार कर देशभर में बाँटा। बाँकुड़ा में उन पर मुकदमा चला और दो साल की सजा हुई। फिर उन्हें काकोरी केस में आजीवन कारावास की सजा दी गई।
1937 में कांग्रेस सरकार के आने पर रिहा हुए, लेकिन राजनीति से मोहभंग हो गया। वे फारवर्ड ब्लॉक से जुड़े और काशी से ‘अग्रगामी’ नामक पत्र निकालने लगे।
और फिर… वो हमेशा के लिए मौन हो गए
1941 में उन पर जापान से संबंध रखने का आरोप लगा और उन्हें देवली शिविर भेजा गया। वहां वे तपेदिक का शिकार हुए। 7 फरवरी 1942 को गोरखपुर जेल में उनका निधन हुआ — चुपचाप, लेकिन इतिहास में गूंजती आवाज़ के साथ।
अंतिम प्रणाम
शचींद्रनाथ सान्याल का जीवन एक मिशाल है उन क्रांतिकारियों की, जिन्होंने सिर्फ आज़ादी का सपना नहीं देखा, बल्कि उसके लिए अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया। वे कोई नेता नहीं थे, पर वे वो मशाल थे, जिसने भगत सिंह जैसे नायकों को रोशनी दी।
उनके लिए कोई बड़ी मूर्ति नहीं बनी, न कोई राजकीय सम्मान मिला… लेकिन इतिहास की धड़कन में वे आज भी जिंदा हैं।
शत-शत नमन उस योद्धा को, जिसकी लेखनी, जिसकी बंदूक और जिसकी आत्मा — सब आज़ादी को समर्पित थे।
लाला हरदयाल: जिसने विदेशों में जलाया आज़ादी का दीप
जब देश की ज़मीन अंग्रेजों के बूटों से रौंदी जा रही थी, तब कुछ ऐसे भी क्रांतिकारी थे जिन्होंने हथियारों से नहीं, विचारों से युद्ध छेड़ा। वे बंदूक नहीं उठाते थे, पर उनके शब्दों से साम्राज्य हिलते थे। ऐसे ही एक विलक्षण व्यक्तित्व का नाम था — लाला हरदयाल।
जन्म और प्रारंभिक शिक्षा
14 अक्टूबर 1884, दिल्ली की पवित्र ज़मीन पर जन्मे लाला हरदयाल बचपन से ही असाधारण थे। शिक्षा की ऊँचाइयों को उन्होंने ऐसे छुआ कि M.A. में अव्वल आने पर पंजाब सरकार ने उन्हें छात्रवृत्ति दी। लेकिन जिस दिल में आज़ादी की आग धधक रही हो, वो भला अंग्रेजों की भीख कैसे स्वीकार करता?
लंदन: जहाँ क्रांति ने रूप लिया
लाला हरदयाल लंदन पहुंचे, पर वहाँ उनकी मुलाकात श्यामजी कृष्ण वर्मा और भाई परमानंद जैसे राष्ट्रभक्तों से हुई। बस फिर क्या था — उन्होंने अंग्रेजी छात्रवृत्ति ठुकरा दी और ‘Political Missionary’ नामक संस्था बना डाली, जो भारतीय छात्रों में क्रांति की चेतना भरने का काम करने लगी।
पत्रकारिता से क्रांति तक
कुछ समय बाद भारत लौटे और लाहौर में ‘पंजाब’ अंग्रेजी पत्रिका का संपादन शुरू किया। लेकिन लेखों की धार इतनी तेज़ थी कि सरकार चौंक गई। गिरफ़्तारी का खतरा मंडराने लगा। ऐसे में लाला लाजपत राय के कहने पर वे पेरिस चले गए।
वहाँ उन्होंने भीकाजी कामा और श्यामजी कृष्ण वर्मा के साथ मिलकर ‘वंदे मातरम्’ और ‘तलवार’ जैसे पत्रों का संपादन किया — जिनके शब्द बारूद से भी तेज़ आग लगाते थे।
अमेरिका और ‘गदर’ की गूंज
सन् 1910 में लाला हरदयाल पहुँचे सैन फ्रांसिस्को (अमेरिका)। वहाँ उन्होंने निकाला एक ऐसा अख़बार, जिसने प्रवासी भारतीयों में क्रांति की लहर ला दी — नाम था “गदर”।
गदर अख़बार से निकली चिंगारी ने पूरे विश्व में क्रांतिकारी फैलाव पैदा किया और उसी के नाम पर बना —
“गदर पार्टी”, जिसकी शाखाएं कनाडा, जापान, चीन तक फैलीं। लाला हरदयाल इस पार्टी के सचिव नियुक्त हुए।
क्रांति के लिए हथियार, समुद्र के रास्ते
प्रथम विश्व युद्ध के दौरान लाला हरदयाल ने जर्मनी से दो जहाजों में हथियार भारत भेजने की योजना बनाई, जिससे क्रांतिकारी संगठनों को ताकत मिल सके। लेकिन अंग्रेजी जासूसी ने सब बर्बाद कर दिया — दोनों जहाज़ ज़ब्त कर लिए गए।
एक निर्वासित जीवन
इसके बाद लाला हरदयाल स्विट्ज़रलैंड, तुर्की और फिर स्वीडन में रहे। जर्मनी में नजरबंदी से बचने के लिए उन्होंने स्वीडन में शरण ली, जहाँ वे 15 वर्षों तक रहे — पर भारत लौटने की चाह कभी नहीं बुझी।
अंतिम पीड़ा और विदाई
1939 में भारत लौटने की इच्छा ज़ाहिर की, लेकिन नियति को कुछ और मंज़ूर था। 4 मार्च 1939, स्वीडन में ही उनका स्वर्गवास हो गया।
सबसे करुण बात ये रही — उनकी एक पुत्री का जन्म भारत में उनके प्रवास के दौरान हुआ, लेकिन वे अपने जीवनकाल में कभी उसका चेहरा नहीं देख पाए।
साहित्यिक योगदान: जहाँ विचार ही हथियार थे
लाला हरदयाल सिर्फ़ क्रांतिकारी नहीं, बल्कि एक महान विचारक और लेखक भी थे। उनकी कृतियों ने भारत ही नहीं, विदेशों में भी युवाओं को झकझोर दिया। प्रमुख रचनाएँ थीं:
Thoughts on Education
Yugantar Circular
Gadar
Elan-e-Jung
Jang da Hanka
Social Conquest of Hindu Race
एक आदर्शवादी संत-क्रांतिकारी
लाला हरदयाल एक ऐसे ‘विद्वान योद्धा’ थे, जो विदेश में बैठकर भी भारत की धड़कनों को सुन सकते थे। वे न सत्ता चाहते थे, न प्रसिद्धि। उनका सपना था —
“एक शिक्षित, आत्मनिर्भर और स्वतंत्र भारत”।
उनकी विचारशीलता, त्याग और बलिदान आज भी हर उस युवा को प्रेरणा देते हैं, जो आज़ादी को केवल एक इतिहास नहीं, बल्कि एक ज़िम्मेदारी मानते हैं।
🌺 शत-शत नमन उस महामानव को
जिन्होंने कलम को तलवार बना दिया, और विचारों को रणभूमि।
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की अलख विदेशों में प्रज्वलित करने वालों में एक लाला हरदयाल भी थे। आपका जन्म 14 अक्टूबर 1884 को दिल्ली में हुआ। आपने लाहौर में उच्च शिक्षा प्राप्त की। M.A . में अच्छा स्थान प्राप्त करने के कारण पंजाब सरकार द्वारा आप को छात्रवृत्ति दी गई । आप अध्ययन हेतु लंदन गए वहां भाई परमानंद श्याम जी वर्मा से आपका संपर्क हुआ आपने अंग्रेजी सरकार की छात्रवृत्ति से शिक्षा प्राप्त करना आस्वीकार कर दिया। लंदन में श्यामजी कृष्ण वर्मा से मिलकर आपने ‘ पॉलिटिकल मिशनरी ‘ नाम की संस्था बनाई। जिसके माध्यम से भारतीय विद्यार्थियों को राष्ट्रवादी विचारधारा में लाने के प्रयास किये। आप 2 वर्ष तक लंदन में सेंट जॉन्स कॉलेज में रहे । फिर वापस भारत आ गए भारत में लाहौर में आपने “पंजाब’ अंग्रेजी पत्रिका ,का संपादन किया।
जिसका प्रभाव पढ़ने लगा और आपके गिरफ्तार होने की आशंका हुई ,तो लाला लाजपत राय के आग्रह पर आप पेरिस आ गए।
पेरिस में श्यामजी कृष्ण वर्मा व भीकाजी कामा से पहले से ही भारत की आजादी हेतु प्रयासरत थे व “वंदे मातरम “और ‘तलवार” नामक समाचार पत्र निकाल रहे थे । इनका भी संपादन आपने शुरू कर दिया । इसके बाद 1910 में आप सानफ्रांसिस्को (अमेरिका )में गए वहां पर आपने “गद्दर “नामक अखबार निकाला । गदर जो देश विदेश में प्रचलित हुआ । इसके नाम पर ही “गदर- पार्टी ‘ का गठन हुआ ,। गदर पार्टी का शाखाएं कनाडा, चीन ,जापान में खोली गई । आप गदर पार्टी के सचिव थे ।
प्रथम विश्व युद्ध के समय भारत में क्रांतिकारियों द्वारा सशस्त्र क्रांति का आह्वान किया गया। आप ने जर्मनी से दो जहाजों में हथियार भेजे । मुखबरी होने के कारण दोनों जहाज रास्ते में ही ज़ब्त कर लिए गए। इसके बाद आप स्विट्जरलैंड, तुर्की आदि देशों में घूमे। आपको जर्मनी में नजरबंद कर लिया गया था। इसलिए आप स्वीडन चले गए। वहां 15 वर्ष तक रहे। 1939 में आप भारत आने में इच्छुक थे । परंतु 4 मार्च 1939 को आप का स्वर्गवास हो गया। आपकी पुत्री का जन्म आपके भारत छोड़ने के बाद हुआ था।
आपने जीवन भर अपनी पुत्री का मुंह नहीं देख सके। आप आदर्शवादी एंव भारतीय स्वतन्त्रता के समर्थक थे। आपने,थॉट्स ऑन एड्युकेशन, युगान्तर सरकुलर, गदर, ऐलाने-जंग, जंग-दा-हांका,सोशल कॉन्क्वेस्ट ओन हिन्दू रेस,आदि पुस्तकें लिखी।
ऑपरेशन राइटर्स बिल्डिंग: भारतीय क्रांति की अमर गाथ
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में अनेक वीरों ने अपने प्राणों की आहुति दी। इन्हीं में से एक थे बिनॉय बसु, बादल गुप्ता, दिनेश गुप्त, सुधीर चंद्र घोष, कन्हाई लाल भट्टाचार्य और बिमल प्रसाद गुप्ता—ये वे क्रांतिकारी थे जिन्होंने अंग्रेजी हुकूमत के दमन के खिलाफ सशस्त्र संघर्ष का बिगुल बजाया। इनका बलिदान भारतीय इतिहास में सदैव अमर रहेगा।
क्रांतिवीरों का परिचय
बिनॉय बसु: अंग्रेजों के खौफ का नाम
जन्म: 11 सितंबर 1908, मुंशीगंज (अब बांग्लादेश)
संगठन: बंगाल वॉलेंटियर्स (सुभाष चंद्र बोस द्वारा गठित)
कार्यशैली: साहसिक हमलों में माहिर
दिनेश गुप्त: फाँसी को हँसते-हँसते गले लगाने वाला
जन्म: 6 सितंबर 1911, पूर्वी सिमलिया (अब बांग्लादेश)
संगठन: बंगाल वॉलेंटियर्स
विशेषता: निडर और दृढ़ संकल्पी
ऑपरेशन फ्रीडम: अंग्रेज अधिकारियों के खिलाफ जंग
भारतीय क्रांतिकारियों ने अंग्रेजी शासन के अत्याचारी अधिकारियों को निशाना बनाने के लिए “ऑपरेशन फ्रीडम” शुरू किया। इसका मुख्य लक्ष्य था—कर्नल एन.एस. सिम्पसन, बंगाल पुलिस के क्रूर महानिदेशक (जेल), जो कैदियों पर अमानवीय अत्याचार करने के लिए कुख्यात थे।
राइटर्स बिल्डिंग हमला: जिसने अंग्रेजी हुकूमत को हिला दिया
8 दिसंबर 1930 का दिन था। कलकत्ता के डलहौजी स्क्वायर पर स्थित राइटर्स बिल्डिंग (सचिवालय) में कई ब्रिटिश अधिकारियों के कार्यालय थे। बिनॉय बसु, बादल गुप्ता और दिनेश गुप्ता ने साहसिक योजना बनाई:
बिल्डिंग में घुसकर सीधा हमला
सिम्पसन को उसके कार्यालय में गोली मारना
अन्य अंग्रेज अधिकारियों को चुनौती देना
वह ऐतिहासिक घटनाक्रम:
तीनों वीर बिल्डिंग में घुसे और सिम्पसन के कार्यालय पर धावा बोल दिया।
बिनॉय ने सीधे सिम्पसन को गोली मारी, जिससे वह घायल हो गया।
अंधाधुंध फायरिंग शुरू हो गई।
पुलिस ने घेराव किया तो बादल गुप्ता ने पोटैशियम साइनाइड खाकर आत्मबलिदान दे दिया।
बिनॉय और दिनेश ने खुद को गोली मार ली, लेकिन वे बच गए।
शहादत और बदला:
बादल मौके पर ही शहीद हो गए।
बिनॉय बसु 13 दिसंबर 1930 को अस्पताल में शहीद हुए।
दिनेश गुप्ता को फाँसी की सजा सुनाई गई और 7 जुलाई 1931 को उन्हें फाँसी दे दी गई।
क्रांतिकारियों का प्रतिशोध: गार्लिक का अंत
दिनेश गुप्ता को फाँसी देने वाले न्यायाधीश आर.आर. गार्लिक को कन्हाई लाल भट्टाचार्य और बिमल प्रसाद गुप्ता ने 27 जुलाई 1931 को गोली मारकर उसका अंत कर दिया।
कन्हाई की जेब से एक पर्ची मिली, जिस पर लिखा था:
“दिनेश गुप्त को अन्यायपूर्ण फाँसी देने का पुरस्कार—मृत्यु!” —बिमल गुप्त
निष्कर्ष: वीरों की अमर गाथा
इन क्रांतिवीरों ने अपने प्राणों की बाजी लगाकर अंग्रेजी साम्राज्य के दमनचक्र को चुनौती दी। उनका बलिदान केवल एक घटना नहीं, बल्कि भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का एक सुनहरा अध्याय है।
लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक – स्वराज्य का जन्मसिद्ध अधिकार
1857 की क्रांति के बाद स्वतंत्रता संग्राम की लौ बुझ-सी गई थी। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की कमान नरमपंथियों के हाथों में थी, जो अंग्रेजों से याचना की नीति पर विश्वास करते थे। परंतु इसी कालखंड में एक ऐसा सिंहस्वर उभरा, जिसने गुलामी की बेड़ियों को तोड़ने की चेतना जनमानस में फूंकी। यह स्वर था – लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक का।
तिलकजी ने कभी भी याचना को आज़ादी का मार्ग नहीं माना। वे दृढ़ता से कहते थे –
“स्वाधीनता किसी राष्ट्र पर ऊपर से नहीं उतरती, बल्कि उसे अनिच्छुक हाथों से छीनने के लिए राष्ट्र को स्वयं ऊपर उठना पड़ता है।”
जन्म और शिक्षा
बाल गंगाधर तिलक का जन्म 23 जुलाई 1856 को महाराष्ट्र के रत्नागिरी जिले के कंकण गांव में हुआ। उनकी शिक्षा पुणे के डेक्कन कॉलेज में हुई, जहाँ से उन्होंने कानून की डिग्री प्राप्त की। गणित, संस्कृत, ज्योतिष, शरीर रचना और इतिहास जैसे विषयों पर उनका अद्वितीय अधिकार था।
शिक्षा के क्षेत्र में योगदान
अंग्रेजों की शिक्षा प्रणाली को तिलकजी ने “नौकरशाही तैयार करने की कार्यशाला” कहा। वे भारतीय शिक्षा के स्वाभिमान और आत्मनिर्भरता के पक्षधर थे। इसी उद्देश्य से उन्होंने 1886 में न्यू इंग्लिश स्कूल, फिर डेक्कन एजुकेशन सोसाइटी और फर्ग्यूसन कॉलेज की स्थापना की।
पत्रकारिता के माध्यम से क्रांति
तिलकजी ने पत्रकारिता को जनजागरण का माध्यम बनाया। उन्होंने 2 जनवरी 1881 से अंग्रेज़ी में ‘मराठा’ और 1 जनवरी 1882 से मराठी में ‘केसरी’ समाचार पत्र शुरू किया। ये अखबार ब्रिटिश शासन के विरुद्ध क्रांतिकारी विचारों के मंच बन गए।
‘केसरी’ में प्रकाशित उनका लेख “देश का दुर्भाग्य” ब्रिटिश सरकार को इतना चुभा कि 27 जुलाई 1897 को उन्हें राजद्रोह के आरोप में गिरफ्तार कर मांडले (बर्मा) की जेल में 6 वर्षों की कठोर सजा दी गई।
चापेकर बंधु और तिलक की ललकार
1897 में पुणे में प्लेग फैला। अंग्रेज अफसर रैण्ड और उसके साथी एयरिस्ट ने “जांच” के नाम पर महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार किया, घरों में घुसकर तलाशी के बहाने मर्यादाएं तोड़ीं। इस अमानवीय कृत्य पर तिलकजी ने शिवाजी जयंती (12 जून) को आयोजित सभा में आग उगलते हुए कहा:
“पुणे के लोगों में पुरुषत्व है ही नहीं, अन्यथा क्या मजाल कि हमारे घरों में घुसकर हमारी स्त्रियों का अपमान किया जाए!”
यह बात चापेकर बंधुओं के हृदय में तीर की तरह लगी। उन्होंने 22 जून 1897 को रैण्ड का वध कर दिया। इस घटना ने यह साबित कर दिया कि तिलकजी की वाणी में केवल शब्द नहीं, क्रांति की चिंगारी थी।
दोबारा राजद्रोह और मांडले की जेल
तिलक जी ने प्रफुल्ल चाकी और खुदीराम बोस द्वारा किए गए बम विस्फोट का समर्थन किया, जिसके लिए उन्हें फिर से राजद्रोह का दोषी ठहराया गया और एक बार फिर बर्मा की मांडले जेल भेज दिया गया।
गीता-रहस्य और अन्य रचनाएँ
जेल में रहते हुए तिलकजी ने “गीता-रहस्य” नामक अद्भुत ग्रंथ की रचना की, जिसमें उन्होंने गीता को कर्मयोग का ग्रंथ बताया। इस कृति का कई भाषाओं में अनुवाद हुआ। इसके अतिरिक्त उन्होंने “The Orion” और “The Arctic Home in the Vedas” जैसे विद्वत्तापूर्ण ग्रंथ भी लिखे।
सांस्कृतिक नवजागरण
तिलक जी ने राष्ट्रीय चेतना को सांस्कृतिक उत्सवों से जोड़ा। उन्होंने गणेश उत्सव और शिवाजी उत्सव को सार्वजनिक मंचों पर लाकर देशभक्ति की भावना को जन-जन में रोपा। उनके ये प्रयास अंग्रेजों के विरुद्ध संघर्ष का आधार बन गए।
स्वराज्य का उद्घोष
उनका प्रसिद्ध नारा:
“स्वराज्य हा माझा जन्मसिद्ध हक्क आहे आणि तो मी मिळवणारच!” (स्वराज मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और मैं उसे लेकर रहूँगा)
यह केवल शब्द नहीं, बल्कि करोड़ों भारतीयों की प्रेरणा बन गया।
लाल-बाल-पाल और होम रूल लीग
1907 में कांग्रेस दो भागों में बंटी – गरम दल और नरम दल। लोकमान्य तिलक, लाला लाजपत राय और बिपिन चंद्र पाल गरम दल में शामिल थे, जिन्हें “लाल-बाल-पाल” के नाम से जाना गया। 1916 में तिलकजी ने एनी बेसेंट और मुहम्मद अली जिन्ना के साथ मिलकर होम रूल लीग की स्थापना की।
अंतिम समय
जब उनकी पत्नी का निधन हुआ, तब तिलक जी जेल में थे। वे अंतिम दर्शन तक नहीं कर सके। यह उनके त्याग और तपस्या का प्रमाण है। 2 अगस्त 1920 को बॉम्बे (मुंबई) में उनका स्वर्गवास हुआ। लेकिन उनका जीवन आज भी भारत के स्वाभिमान और स्वतंत्रता की अमर गाथा है।
शत शत नमन!
लोकमान्य तिलक ने जो अलख जगाई, उसने पूरे देश को स्वतंत्रता की ओर प्रेरित किया। वे केवल स्वतंत्रता सेनानी नहीं, बल्कि आधुनिक भारत के निर्माता, क्रांति के प्रेरणास्रोत, और “भारतीय अशांति के पिता” कहे जाते हैं। उनके विचार, लेखनी, भाषण और कर्म आज भी हर भारतवासी के लिए पथप्रदर्शक हैं।
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में नेताजी सुभाष चंद्र बोस की अहम भूमिका रही है । नेताजी सुभाष चंद्र बोस अपने आप में एक संपूर्ण क्रांति थे। आप का जन्म 23 जनवरी 1897 को कटक , उड़ीसा में हुआ। आपने प्राथमिक शिक्षा पी .ई .मिशनरी स्कूल से, इंटरमीडिएट रेवेनशा कॉलेजियट स्कूल से करने के बाद प्रेसीडेंसी कॉलेज प्रवेश लिया । अंग्रेजी शिक्षक ओटन द्वारा भारतीयता के संबंध में विवाद होने पर आप ने उसके थप्पड़ मार दिया जिसके कारण विवाद बढ़ गया। आप ने माफ़ी मांगने से इंकार कर दिया । प्रतिक्रिया स्वरुप आप को कॉलेज से निकाल दिया गया। आप कुछ दिन आध्यात्मिक गुरु की खोज में उत्तरी भारत का भ्रमण करते रहे। बॉस ने स्कोटिश चर्च कॉलेज में प्रवेश लिया व 1919 में प्रथम श्रेणी से बी.ए .ऑनर्स पास की।
बॉस 15 सितम्बर 1919 को इंग्लैंड गए वहां किट्स विलियम हाल में मानसिक एंव नैतिक विज्ञान की परीक्षा हेतु प्रवेश लिया।
इंग्लैंड जाने के पीछे आपका उद्देश्य ICS बनना था। आपका दिनांक 22 सितंबर 1920 को ICS में चयन हो गया। इस कठिन परीक्षा में आपीने चतुर्थ स्थान प्राप्त किया।
आप लक्ष्य देश की आजादी था इसलिए आपने 22 अप्रैल 1921 को अपनी ICS सेवाओं से त्यागपत्र दे दिया।
प्रिंस ऑफ वेल्स के भारत आगमन पर आपने विरोध किया । सविनय अवज्ञा आंदोलन में भी भाग लिया । बॉस को दिनांक 10 दिसंबर 1921 को 6 माह का कारावास दिया गया। बॉस को 25 अक्टूबर 1924 को गिरफ्तार कर अलीपुर बहरामपुर जेल में भेज दिया गया। इंग्लैंड से आकर आपने गांधी जी से मुलाकात की और कलकत्ता आकर देशबंधु चितरंजन दास बाबू के साथ असहयोग आंदोलनआप में शामिल हो गए। दाश ने उस समय स्वराज पार्टी भी बनाली थी व अपनी पार्टी से चुनाव लड़ते हुए कलकत्ता के महापौर बने । दास जी ने सुभाष बॉस को1924 में कार्यकारी अधिकारी बनाया।
मांडले जेल में रहते हुए बॉस ने विधान परिषद का चुनाव लड़ा और 10 दिसंबर 1926 को निर्वाचित हुए। कठोर यातनाएं झेलने के बाद बोस दिनांक 16 मई 1927 को जेल से रिहा हुए। कलकत्ता में साइमन कमीशन का विरोध सुभाष चंद्र बोस के नेतृत्व में किया गया।
सन 1928 में कांग्रेस के 43वें अधिवेशन में सुभाष बोस ने 7000 खाकी वर्दी वाले सैन्य दल का नेतृत्व करते हए कांग्रेस अध्यक्ष पंडित मोतीलाल नेहरू को गार्ड ऑफ ऑनर प्रदान किया ।
जिसका अनुशासन देखते ही बनता था। साइमन कमीशन को जबाब हेतु भारत के भावी संविधान के संबंध रिपोर्ट तैयार करने हेतु पंडित मोतीलाल नेहरू की अध्यक्ष में 8 सदस्यी कमेटी बनाई गई थी। जिसमें सुभाष बोस भी सदस्य थे। कांग्रेस के इस कलकत्ता अधिवेशन में पंडित मोती लाल नेहरू ने डोमिनियन स्टेटस पर सहमति की रिपोर्ट दी।
सुभाष चंद्र बोस और पंडित जवाहरलाल नेहरू ने डोमिनियन स्टेटस की रिपोर्ट का विरोध करते हुए पूर्ण स्वराज की मांग की।
अंततः यह तय रहा कि यदि 1 वर्ष की अवधि में अंग्रेज भारत को इस डोमिनियन स्टेटस नहीं देते है तो कॉन्ग्रेस पूर्ण स्वराज के लिए आंदोलित होगी । डोमिनियन स्टेटस नहीं मिला । कांग्रेस का अगला अधिवेशन 1930 में लाहौर में पंडित जवाहर लाल नेहरू की अध्यक्षता में हुआ । इसमें कांग्रेस ने 26 जनवरी को स्वतंत्रता दिवस के रूप में के रूप में मनाने की घोषणा करदी।
अगले वर्ष नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने कलकत्ता में 26 जनवरी 1931 को एक विशाल मोर्चे का नेतृत्व करते हए राष्ट्रध्वज फहराया। पुलिस ने लाठीचार्ज किया व बॉस को जेल में भेज दिया गया। गांधी इरविन समझौता के समय सुभाष चंद्र बोस जेल में थे । उन्होंने गांधी इरविन समझौते का विरोध करते हुए कहा था कि “ऐसा समझौता किस काम का जो ,भगतसिंह जैसे देशभक्तों की जान नहीं बचा सके ‘।
बॉस द्वारा गठित बंगाल वालंटियर्स के एक क्रांतिकारी गोपीनाथ साहा ने 1925 में क्रूर पुलिस अधिकारी चार्ल्स टेगर्ट के भरोसे अर्नेस्ट डे नामक व्यक्ति को मार दिया। जिस पर गोपी नाथ साह को फांसी दी गई थी। जेल से गोपी मोहन का शव सुभाष चंद्र बोस ने लिया व उनका संस्कार करवाया। इस बात से अंग्रेज सरकार खफा हुई और बॉस को बिना मुकदमा चलाये अनिश्चित काल के लिए बर्मा (म्यांमार) की मांडले जेल में भेज दिया गया । मांडले में बॉस को तपेदिक बीमारी हो गई। स्वास्थ्य अधिक खराब होने पर इलाज हेतु डलहौजी जाने की अनुमति मिली।
कारावास से ही बॉस ने 1930 में कलकत्ता महापौर का चुनाव लड़ा और जीतकर महापौर बन गए। इसके चलते अंग्रेजों को रिहा करना पड़ा । 1931 में बॉस ने नौजवान सभा का सभापतित्व करते हुए भाषण दिया।
सन 1932 में बॉस को फिर कारावास से दंडित किया गया और अल्मोड़ा जेल में भेज दिया गया। वहां पर भी बॉस का स्वास्थ्य खराब हो गया तो उन्हें यूरोप में इलाज करवाने हेतु छूट दी गई। मांडले जेल से बॉस 13 फरवरी 1933 को इलाज हेतु वियना गए।
सन 1933 से 1936 तक बॉस यूरोप में रहे व इटली के मुसोलिनी, आयरलैंड के डी वलेरा आदि से संपर्क किया।
यूरोप वास के समय 1934 में ऑस्ट्रेलिया में एक पुस्तक लिखते समय रखी अपनी टाइपिस्ट एमिली शेंकल को अपना जीवन साथी बनाया।
जनवरी 1938 में हरिपुरा कांग्रेस के 51 वें अधिवेशन में गांधी जी ने सुभाष चंद्र बोस को कांग्रेस अध्यक्ष बनाया। बॉस का भारी स्वागत हुआ। बॉस ने अधिवेशन में अपना अध्यक्षीय भाषण प्रभावशाली रूप से दिया।
सन 1938 में द्वितीय महायुद्ध के बादल छा रहे थे । बॉस इस मौके का फायदा उठाकर ब्रिटेन के विरुद्ध विदेशी सहायता से अंग्रेजों को भारत से भागना चाहते थे। गांधी जी व अन्य अनुयाई बॉस की इस नीति से सहमत नहीं थे।
सन1939 कांग्रेस के अध्यक्ष पद के निर्वाचन हेतु गाँधी जी ने पट्टाभि सितारे भैया को प्रत्याशी घोषित किया। सुभाष चंद्र बोस ने पट्टाभि सितारमैय्या के सामने चुनाव लड़ा व सितरैमय्या को 203 मतों से पराजित किया। गांधी जी ने इसे अपनी प्रतिष्ठा का विषय बनाते हुए कहा सीताराम भैया की हार मेरी हार है ।
इस निर्वाचन के बाद कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन था । उस समय बॉस को 102 से डिग्री बुखार था। बॉस ने गांधी जी से अध्यक्षता हेतु निवेदन किया परंतु गांधी जी ने इंकार करते हुए कहा आप अध्यक्ष हैं तो आप ही अध्यक्षता करेंगे। इस प्रकार गांधीजी के विरोध के चलते बॉस अपने तरीके से काम नहीं कर पाए और अंततः मजबूर होकर बॉस को 29 अप्रैल 1939 को कांग्रेस के अध्यक्ष पद से इस्तीफा देना पड़ा ।
नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने 3 मई 1940 को फॉरवर्ड ब्लॉक का गठन कर देशव्यापी आंदोलन किया ।
फॉरवर्ड ब्लॉक के उत्साही देश भगत कार्यकर्ताओं ने कलकत्ता के हालवेटस्तंभ को भारत की गुलामी का प्रतीक मानते हुए रातों-रात इसे ध्वस्त कर इसकी नींव की ईंटे तक उखाड़ कर ले गए । इससे क्षुब्ध होकर सरकार ने फॉरवर्ड ब्लॉक के सभी सदस्यों सहित बॉस को नजरबंद कर दिया।
विश्वयुद्ध की परिस्थितियों में बोस को जेल में रखने से आंदोलन की संभावना को देखते हुए बॉस को उनके घर पर ही नजरबंदी में रखा गया। घर के बाहर खुफिया पुलिस का निरंतर पहरा रहता था शेर वो भी बंगाल का ऐसे समय कैसे नजरबंदी में रह सकता था । बॉस दिनांक 16 जनवरी 1941 को मौलवी जियाउद्दीन बन कर अंग्रेजी खुफिया विभाग की आंखों में धूल झोंक कर पलायन कर गए।
बॉस गोमोह से रेल से पेशावर पहुंचे। पेशावर में बॉस भगतराम तलवार से मिले व उनके साथ गूंगा बन पैदल ही काबुल की ओर चले। रास्ते मे पूछताछ के समय पकड़े जाने के डर से बोस को अपने पिताजी से मिली सोने की चैन वाली घड़ी भी एक पुलिसवाले को देनी पड़ी।
काबुल में उत्तम चंद जी मल्होत्रा के साथ रहे। जिन्होंने आपकी काफी सहायता की । बॉस 18 मार्च 1941 को सीनोऑरलैंडो मेजोट्रा बनकर मास्को से बर्लिन गए ।
वहां मुक्ति सेना का गठन किया। बर्लिन में आजाद हिंद रेडियो की स्थापना की व दिनांक 19 फरवरी 1942 को अपने भाषण में देशवासियों को संबोधित कर कहा हम बाहर से आक्रमण करेंगे आप देश के अंदर लड़ाई लड़े।
हिटलर से हुई मुलाकात के बाद बॉस को लगा हिटलर को भारत की आजादी में कोई दिलचस्पी नहीं है। इसलिए बॉस 8 मार्च 1943 को जर्मनी के कील बंदरगाह से मातसुदा बने हुए अपने साथी आबिद हसन सफ़रानी के जर्मन पनडु्बी में बैठकर साथ 83 दिनों तक सफर कर के हिंद महासागर में मेडागास्कर के किनारे तक गए।
वहां से समुद्र में तैर कर जापानी पनडु्बी तक पहुंचे और इंडोनेशिया के बंदरगाह पहुंचे।
तोजो के आमंत्रण पर आपने 16 जून 1946 को जापानी संसद में भाषण किया। रासबिहारी बोस आपके इंतजार में थे। सिंगापुर एडवर्ड पार्क में रासबिहारी बोस ने इंडिपेंडेंस लीग का नेतृत्व सुभाष चंद्र बोस को सौंपा । सिंगापुर में नेताजी सुभाष चंद्र ने 21 अक्टूबर 1940 को आजाद भारत की अंतरिम सरकार स्थापित की जिसे जर्मनी, जापान, फिलीपाइन, कोरिया ,चीन , इटली आदि 9 देशों ने मान्यता दी। जापान में नजरबंद भारतीय सैनिकों को आजाद हिंद फौज में मिलाया गया। पूर्वी एशिया में बॉस ने प्रवासी भारतीयों को देश की आजादी की लड़ाई का आव्हान करते हुए ‘तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आजादी दूंगा “ नारा बुलंद किया द्वितीय महायुद्ध के दौरान अंग्रेजों को भारत से खदेड़ने के लिए आजाद हिंद फौज ने जापानी फोर्स के साथ मिलकर ब्रिटिश भारत पर आक्रमण किया । बॉस ने ” दिल्ली चलो का नारा” बुलंद किया । आजाद हिंद फौज इंफाल और कोहिमा तक पहुंच गई । तोजो ने 1 नवंबर 1943 अंडमान और निकोबार द्वीप बॉस को सम्भलाए। जिनका दौरा करने के बाद बॉस ने इन द्वीपों के नाम बदलकर “शहीद” व “स्वराज” रखा। बॉस ने इस दौरान 6 जुलाई 1944 कोरंगून रेडियो से महात्मा गांधी को” राष्ट्रपिता” से संबोधित करते हुए आशीर्वाद चाहा। गांधी जी ने भी बॉस को भारत का राजकुमार बताया।
बॉस ने बंगलोर कथा व फारवर्ड दैनिक पत्रों का संपादन भी किया। बॉस ने द इंडियन स्ट्रगल व इंडियन पिलग्रिम पुस्तक भी लिखी। बॉस ने बंगाल की विभिन्न क्रांतिकारी अनुशीलन समिति का युगांतर में समन्वय हेतु भी प्रयत्न किया। बंगाल वॉलिंटियर्स का गठन भी बॉस ने किया था । बॉस का कहना था “मैं या तो पूर्ण आंतकवादी हूं या फिर कुछ नहीं।” ” अपना स्वाभिमान और सम्मान खोने की अपेक्षा, मैं मर जाना पसंद करूंगा। भिक्षावृत्ति की अपेक्षा में प्राणोत्सर्ग मुझे प्रिय है।” “,दासत्व मनुष्य का सबसे बड़ा अभिशाप है । अन्याय और बुराई से समझौता करना सबसे बड़ा अपराध है। कहां जाता है कहा जाता है कि 18 अगस्त 1945 को एक विमान दुर्घटना में बोस का ध्यान तो गया परंतु इस तथ्य की पुष्टि नहीं हुई इस पर भारत सरकार द्वारा तीन बार आयोग गठित किए गए परंतु अभी तक यह तथ्य किसी भी रूप में सुनिश्चित नहीं हुआ है
हम भारतवासी भारत सरकार से यह अपेक्षा करते हैं की कम से कम यह तो सुनिश्चित कर दिया जावे की द्वितीय विश्व युद्ध के बाद युद्ध अपराधियों की सूची में नेताजी सुभाष चंद्र बोस का नाम नहीं है। अगर नेताजी सुभाष चंद्र बोस को छोड़कर बाहर नहीं जाना पड़ता और भारतीय राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम की लड़ाई नेताजी सुभाष चंद्र बोस के नेतृत्व में की जाती तो हम अंग्रेजों से लड़कर आजादी भी लेते और देश का विभाजन भी नहीं होता। जयहिन्द ।