वासुदेव बलवंत फड़के –

  -: सिंह क्रांति पुरुष :-
      -:- वासुदेव बलवंत फड़के -:-
प्रथम स्वतंत्रता संग्राम 1857 को दबा दिए जाने के बाद  ब्रिटिश क्रूर शासन से भारत को स्वतंत्र कराने के लिए सबसे पहले सशस्त्र क्रांति वासुदेव फड़के ने की ।
फड़के का जन्म 4 नवंबर 1844 को गांव शिरढोण जिला कुलाबा महाराष्ट्र में हुआ था ।
फ़ड़के 1860 में पहले सरकारी कर्मचारी लगे थे। पर ब्रिटिश सरकार  के निर्दयता पूर्ण कार्यो से दुःखी रहते थे । फड़के की माता जी के देहांत पर उन्हें अवकाश नहीं दिए जाने पर फड़के ने नोकरी छोड़ दी व ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध युद्ध की तैयारियों में लग गए।
  फड़के जंगल में व्यायामशाला संचालित करते थे जिसमें अस्त्र-शस्त्र चलाना , घुड़सवारी करना सिखाते थे व गुरिल्ला युद्ध की तैयारी करवाते थे।
  फड़के को शिक्षित लोगों  का सहयोग नहीं मिला । फड़के ने बहादुर  खामोशी जाति के लोगों की एक सेना तैयार और इसे घने जंगल व पहाड़ों से घीरे क्षेत्र में गुरिल्ला युद्ध मे दक्ष किया।
महाराष्ट्र में अकाल के कारण गरीब व आदिवासी जनता भूखे से मरने लगी पर फ़िरंगी सरकार के अधिकारीयों की लूट में कोई कमी नहीं आयी । भुखमरी से परेशान लोगों को   फड़के ने भूख की बजाय बहादुरी की मौत मरने का पाठ पढ़ाया ।
फड़के शस्त्र खरीदने , अपनी सेना के खर्चों व गरीब जनता की सहायता हेतु खून चूसने वाले जमीदारों ,सेठों व  सरकारी दफ्तरों व खजानॉन को लूटना शुरू किया व गरीबों की सहायता  भी की तथ लड़ाई जारी रखी ।
फड़के ने  फरवरी 1879 में अंग्रेजों के विरुद्ध युद्ध की घोषणा करते हुए अपने दल का एक घोषणा पत्र तैयार कर लोगों को क्रांतिकारी सरकार बनाने के विचार व दर्शन को समझाया ।
फड़के के नाम से फिरंगी सरकार हिल गई और मुंबई में क्रूर अधिकारियों की  नियुक्ति की । मेजर डेनियल ने फड़के को जिंदा या मुर्दा गिरफ्तारी करने वाले को इनाम की घोषणा की फड़के ने इसकी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए मुंबई के गवर्नर रिजल्ट टेंपल, पुणे के मजिस्ट्रेट सेशन जज व अन्य अधिकारियों का सर काट कर लाने वालों को इनाम देने की घोषणा करते हुए शहर में इश्तिहार चिपकवा दिए।
फड़के ने 1874 में घामरी व तोरण की किलो पर कब्जा कर लिया।
अंग्रेजों के खूंखार सेनाअधिकारी मेजर डेनियल को तुलसीघाटी में आमने-सामने की लड़ाई हुई छक्के छुड़ा दिए ।
एक बार तो फड़के ने पुणे की अदालत में ही आग लगा दी थी।
फड़के का गणेश जोशी  व महादेव गोविंद रानाडे से संपर्क था ।
फड़के द्वारा संचालित व्यामशाला में बाल गंगाधर तिलक भी जाते। फड़के 20 जुलाई 1879 को  देवनागरीमांगी गांव के एक बोध मठ में आराम कर रहे थे सूचना होने पर घेर लिए गए सोते हुए शेर को गिरफ्तार कर लिया गया।
फ़ड़के अपना नाम व वेश बदलकर काशीराम बाबाके छदम नाम से  रहते थे। फड़के पर देशद्रोह का मुकदमा चलाया गया और उन्हें आजीवन काले पानी की सजा दी गई  । मुकदमा में फ़ड़के की पैरवी श्री महादेव आप्टे ने की । फड़के समझदार व देशभक्त थे ।
फड़के ने भरी अदालत में सिंह गर्जना करते हुए कहा
“” हम भारत माता के पुत्र आज घृणा की वस्तु बन चुके हैं। परतंत्रता की इस लज्जा जनक अवस्था में मृत्यु कहीं हजार गुना अच्छी है। स्वतंत्र भारत का जनतंत्र स्थापित करना मेरे हृदय की आकांक्षा हैं।
मैं स्वीकार करता हूं की मैंने अपने भाषणों में अंग्रेजों की हत्या करने और अंग्रेजी साम्राज्य को नष्ट भ्रष्ट करने का उपदेश दिया “”
फड़के को आजीवन कारावास का दण्ड देकर अंडमान जेल में भेजा जाना था  लोगों को इसकी खबर लग गई । जिस  रेलगाड़ी से फड़के को ले जाया जा  रहा था वो रेलगाड़ी जिस स्टेशन से गुजरती लोग हर स्टेशन पर फ़ड़के का फूलमालाओं व जयकारों से स्वागत करते थे ।
ज़ोरदार बात यह रही कि एक ब्रिटिश महिलाएं  श्रीमती हिगस ने फड़के को गुलदस्ता भेंट किया।
फड़के को दिए जा रहे सम्मान से सरकार इस कदर डर गई थी की फड़के को अंडमान जैल में भेजने की बजाय प्रायद्वीप की अदन जेल में भेज दिया ।
जेल में फड़के को अमानवीय यातनाएं दी गई
उल्टा लटकाकर  गर्म सलाखों से दागा गया । एक बार फड़के जेल भाग भी गए पर पकड़े गए । जेल खाना भी अच्छा नहीं दिया जाता था । फड़के ने जेल में अनशन भी किया लेकिन इसका  दुष्ट सरकार पर कोई असर नहीं हुआ ।
फड़के क्षय रोग से ग्रस्त हो गए व  17 फ़रवरी 1883 को स्वर्ग  सिधार गए ।

शत शत नमन शहीदों को ।

क्रांति वीरांगना ननिबाला देवी

उनके पिता का नाम श्री सूर्यकांत बनर्जी और माता का नाम गिरिवाला देवी था।
ननिबाला  का विवाह 11 वर्ष की आयु में ही  हो गया था । विवाह के 5 वर्ष  बाद उनके पति का देहांत हो गया।

      
क्रांति वीरांगना ननिबाला का जन्म1888 में हावड़ा जिला के गांव बाली में हुआ था।

ननिबाला के भतीजे अमरेंद्रनाथ चट्टोपाध्याय युगांतर क्रांतिकारी दल के सदस्य थे।

उनके कारण ननिबाला भी क्रांतिकारी गतिविधियों में भाग लेने लगी ।
प्रथम महायुद्धके समय बंगाल में जतिन बाघा के नेतृत्व में क्रांतिकारी गतिविधियां चर्म पर थी।
ननिबाला बंगाल के क्रांतिकारियों को अपने घर में आश्रय देती, उनके अस्त्र-शस्त्र  छुपा कर रखती थी।
उन दिनों पुलिस ने कलकत्ता के श्रमजीवी समवाय संस्थान से क्रांतिकारी नेता रामचंद्र मजूमदार  को गिरफ्तार  कर लिया ।
रामचंद्र  ने अपने पिस्तौल के कहीं छिपा दिया था जिसका पता लगाना जरूरी था।
  क्रांतिकारियों के लिए एक पिस्तौल  भी  महत्वपूर्ण थी। 
ननिबाला  रामचंद्र की पत्नी बन कर जेल में गई व रामचंद्र से पिस्तौल व अन्य जानकारियां लेकर आई।
ननिबाला पुलिस की नज़र में आ गई।
बाघा जतिन की शहादत के बाद जादू गोपाल मुखर्जी के नेतृत्व में  आंदोलन जारी था।
जतिन बाघा की जर्मनी से हथियार मंगवाने की योजना का अंग्रेजों को पता चल चुका था कर पुलिस क्रांतिकारियों को पकड़ने में पूरा जोर लगा रही थी।
क्रांतिकारी भूमिगत हो गए थे। 

चंदननगर में  सितंबर 1915 में ननिबाला ने  एक मकान किराये पर लिया जिसमे क्रांतिकारी जादूगोपाल मुखर्जी, अमर चटर्जी, अतुल घोष, भोलानाथ चटर्जी, विजय चक्रवर्ती, विनय भूषण दत्त को आश्रय दिया। इन सभी के क्रांतिकारियों को पकड़ाने वाले को  हजार-हजार रुपये के ईनाम  घोषित थे। 

पुलिस को पता चल गया था कि ननिबाला ही  रामचंद्र की पत्नी बन कर जेल में मिलने गई थी ।
ननिबाला के पिता सूर्यकांत को पुलिस रोज पकड़ कर ले जाती और सारा दिन पूछताछ करती थी।
ननिबाला पुलिस से बच कर पेशावर जा रही थीं पर हेजे की शिकार हो गयीं और पुलिस ने ननि बाला को  काशी जेल ले डाल दिया।

जेल में ननिबाला पुलिस की  अमानवीय व असहनीय यातनाओं की शिकार हुई।
पुलिस ने ननिबाला को निर्वस्त्र कर उनके गुप्तांग में लालमीर्च का पाउडर डाल कर असहनीय दुःख दिया पर ननि बाला ने क्रांतिकारियों के बारे में कोई सूचना नहीं दी।

जेल में  ननिबाला ने भूख हड़ताल के समय गुप्तचर विभाग के अधीक्षक गोल्डी को अपनी मांग का पत्र दिया जिसे गोल्डी फाड़ दिया इस पर ननिबाला ने गोल्डी के मुंह पर घुसा मार दिया था ।

आम माफ़ी के समय ननि बाला जेल से रिहा की गई।  समाज में ननिबाला को कोई सहारा नहीं मिला।
बीमार होने पर ननि बाला को एक साधु ने सेवा की । तत्पश्चात ननि बाला ने गेरुआ धारण कर लिया।
गुमनामी में ननि बाला देवी का 1967 में देहांत हुआ।
शत शत नमन वीरांगना को।

अंबिका चक्रवर्ती

अंबिका प्रसाद चक्रवर्ती चटगांव सशस्त्र क्रांति के योद्धा थे। मास्टर “दा” भारत के महान क्रान्तिकारी सूर्य सेन के नेतृत्व में 18 अप्रैल 1930 को भारतीय स्वतंत्रता सेनानियों द्वारा चटगांव (अब बांग्लादेश में) में पुलिस और सहायक बलों के शस्त्रागार पर कब्जा किया गया था।

विस्तृत रूप में हमारी वैब पर “सुपर एक्शन चटगांव ” पढ़े।

इस योजना में टेलीफोन और टेलीग्राफ तारों को काटने और ट्रेन की गतिविधियों को बाधित करने वाले दल में अंबिका चक्रवर्ती ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी ।

22 अप्रैल 1930 की दोपहर को चटगांव छावनी के पास जलालाबाद पहाड़ियों में क्रांतिकारियों को कई हज़ार सैनिकों ने घेर लिया।

इस लड़ाई में अंबिका भी घायल हुए थे पर पलायन में सफल हो गए।

इस घटना के प्रतिरोध पर क्रांतिकारियों को पकड़ने के लिये एक तीव्र छापेमारी शुरू हुई।

चट गांव एक्शन में अंबिका को 1930 में फांसी की सजा सुनाई गई पर बाद इसे आजीवन कारावास में बदल कर अंबिका को अंडमान जेल में भेज दिया गया।

जेल में उनका झुकाव साम्यवाद की तरफ हो गया । जेल से रिहा होने के बाद अंबिका कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य बने।

कम्युनिस्ट आंदोलन में अंबिका 1949 से 1951तक जेल में रहे।

1952 में पश्चिमी बंगाल विधानसभा से निर्वाचित हुए।

अंबिका का जन्म जनवरी 1892 में बर्मा में हुआ था।

6 मार्च 1962 को एक सड़क दुर्घटना में अंबिका का देहांत हुआ।

शत शत शत

    :-चारु चंद्र बोस-:

  

आज के दिन चारु चंद्र बॉस को दिनांक 19 मार्च 1999 को केंद्रीय कारागार अलीपुर में फांसी दी गई थी।



चारु चंद्र बोस बंगाल के क्रांतिकारी थे  जो शारिरिक रूप से बहुत कमजोर  दिखाई देते थे।
उनके दाहिने हाथ कीअंगुलिया नहीं थी।

आपने दाहिने हाथ के पिस्तौल बांधकर बांये की अंगुली से घोड़ा दबाकर पिस्तौल चलाने का अभ्यास किया।

सशस्त्र क्रांति के क्रम में बंगाल अनुशीलन समिति के क्रांतिकारी प्रफुल्ल चाकी व खुदीराम बोस द्वारा मुजफ्फरपुर में कसाई काजी किंग्फोर्ड की गाड़ी पर बम फेंका था।

इसके बाद पुलिस ने छापे मारे और बारीन्द्र दल के  38 क्रांतिकारियों को गिरफ्तार कर उन पर मुकदमा चलाया गया ।

जिसे इतिहास में अलीपुर षड्यंत्र कहा जाता है ।
हम उसे अलीपुर एक्शन कहेंगे।
  
अलीपुर मामले में की अदालत सुनवाई में  सरकार की तरफ से आशुतोष विश्वास पैरवी करते थे।

आशुतोष ने क्रांतिकारियों को सजा दिलाने के उद्देश्य से झूठे गवाह बनाकर पेश किए।

जिसके कारण वह क्रांतिकारियों के टारगेट पर था ।

दिनाँक  10 फरवरी 1909 को  आशुतोष  विश्वास अलीपुर अदालत से निकलने वाले थे।

क्रांतिवीर चारु चंद्र ने आशुतोष को गोलियों से उड़ा दिया
चारु मौका पर ही गिरफ्तार कर लिए गए थे।

चारुपर मुकदमा चला फाँसी की सजा सुनाई गई 
चारु को दिनांक 19 मार्च 1999 को केंद्रीय कारागार अलीपुर में फांसी दे दी गई।

शत शत शत नमन

भारतीय वहाबी आंदोलन के शहीद

     
भारत मे सन 1820 से 1870 की अवधि में  वहाबी आंदोलन का केंद्र पटना था। 
सन 1863 में सीमा प्रांत में बहावियोँ के मल्का  किले पर वायसराय एलगिन ने  सेना भेजकर कब्जा कर लिया था।

वहाबी नेताओं को सार्वजनिक रूप से कोड़े लगाए गए , अंग भंग कर सजा दी गई ,अनेकों को फांसी दी गई व अनेकों को काला पानी भेजा गया ।

बहावी नेता आमिर खान व अन्य को Regulatning Act 1818 के अंतर्गत कैद किया गया था।

जिसकी सुनवाई   खुले न्यायालय में किये जाने हेतु  कलकत्ता हाई कोर्ट में अपील की गई थी ।
उस समय कलकत्ता हाई कोर्ट के कार्यवाहक  मुख्य न्यायाधीश जॉन पैक्सटन  नॉरमन ने अपील को अस्वीकार कर दिया।
जिससे से रुष्ट होकर वहाबी नेता अब्दुल्लाह ने दिनांक 20 सितंबर 1971 को नॉर्मन पर छुरे से हमला किया जिससे 21 सितम्बर को नॉर्मन की मृत्यु हो गई।
अब्दुल्ला को इस हत्या के लिये फांसी दी गई व उसके पार्थिव शरीर को सड़कों पर  घसीटा गया व आग लगा कर जला दिया गया।

उस समय लार्ड मेयो ने कहा था मैं सब वहाबियों की खत्म कर दूंगा। इन बातों से वहाबी नेता नाराज़ थे व अंग्रेजों से प्रतिशोध लेना चाहते थे।

इसी क्रम में अंडमान जेल के एक कैदी वहाबी नेता  शेरअली ने दिनाँक 8 फ़रवरी 1872 को अंडमान जेल में गवर्नर जनरल लार्ड मेयो की चाकू से आक्रमण कर हत्या की।
शेरअली वहाबी नेता थे जिन्हें अपने रिश्तेदार की हत्या के मामले में उम्रकैद कालापानी की सजा हुई थी।
शेरअली का कहना था उसे झूठे मुकदमा में सजा की गई थी।

वहाबी नेता शेरअली आफरीदी

मुख्यन्यायाधीश नॉर्मन व  लार्ड मेयो की हत्या का कारण वहाबी आंदोलन था।
वहाबी बेशक इस्लाम समर्थक थे पर भारत से अंग्रेजों को भगाना उनका भी लक्ष्य था।
इसलिए अब्दुल्ला व शेरअली को भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के सिपाही कहने में कोई शंका नहीं होनी चाहिए।

तांत्या भील उर्फ टण्ड्रा भील

आपका जन्म जिला निमाड़ के पास गांव बिरदा में सन 1842 में हुआ ।

 
उस समय अंग्रेज बड़े जमीदारों की मार्फ़त   किसानों  से जमीन का  लगान वसूल करते थे।

फसलें खराब होने के कारण आपके द्वारा अपनी पोखर की पैतृक जमीन का लगान जमा नहीं करायाया         जा सका

जिसके कारण शिवा पटेल नामक मालगुजार जमींदार ने आपको अपनी  पैतृक जायदाद से बेदखल कर दिया।

टण्ड्रा को  कहीं न्याय नहीं मिला जिसके कारण  टण्ड्रा के मन मे अंग्रेजी शासन व जमीदारों मालगुजारों के प्रति घृणा पैदा हो गई।

गांव पोकर वासियों  ने षड्यंत्र करके  तत्कालीन कानून के अंतर्गत टण्ड्रा को पर बदमाशी करने का  मुकदमा करवा कर  एक साल की सजा करवा दी।

जेल से निकलने के बाद टण्ड्रा  अपने गांव  पोखर  गया पर वहां के लोग  टण्ड्रा के खिलाफ थे।

इसलिए  हीरापुर गांव में बस गया वहाँ  7 वर्ष तक मजदूरी करके अपना जीवन व्यतीत किया ।

लेकिन पोकर गांव वालों ने  टण्ड्रा को चोरी के झूठे मुकदमा में फसा दिया।
चोरी के अपराध का कोई सबूत नहीं मिला इसलिए टण्ड्रा को छोड़ दिया गया।

टण्ड्रा ने गिफ्तारी के समय  पुलिस के साथ  हाथापाई की थी । उसके लिए टण्ड्रा को  तीन माह की सजा दी गई ।

इस सजा के बाद  वापस आकर टण्ड्रा ने इंदौर रियासत में आश्रय लिया ।

पोकर वासियों ने टण्ड्रा को  सुभान नामक भील के घर चोरी के झूठे मुकदमा में  फसा दिया ।
पुलिस गिफ्तारी के डर से टण्ड्रा गांव छोड़कर भाग गया।

टण्ड्रा ने अपनी जाति के कुछ भीलों को लेकर अपना एक दल बनाया ।
टण्ड्रा ने  निमाड़  जिले के खजूरी गांव के बिजनिया नामक एक दिलेर  व शक्तिशाली भील डाकू से मुलाकात कर  उसे भी अपनी टोली में मिला लिया।
टण्ड्रा के दल के लोगों के परिवार पहाड़ी जंगलों में बस गए।

सरदार पटेल नामक व्यक्ति ने टण्ड्रा व  उसके साथी विजेनिया व दोपिया को गिरफ्तार करा कर
चोरी का झूठा मुकदमा  बनवाया व झूठे गवाह पेश कर सजा करवादी।

सजा के दिन टण्ड्रा ने भरी अदालत में हिमन पटेल नामक राजपूत्र को धमकी देते हुए कहा –

पटील दाजी म्हारो  नांव। टण्ड्रा छे  मख  पहीचाणी ल्यों ।  आज तो धोखासी मख फंसाई दीयो पण याद राखजो म्हारो नाम टण्ड्रा छे ।’ 

जेल में अन्य साथियों से मिलकर टुड्रा 15 फुट ऊंची दीवार फांद कर अपने साथियों सहित फरार हो गया।

टण्ड्रा  जेल से फ़रार होने के बाद अपना संगठन तैयार किया ।
अपने दुश्मन मालगुजारों उनके झूठे गवाहों के घर जला दिए।

टण्ड्रा ने दुश्मनों की महिलाओं की तरफ आंख उठा कर भी नहीं देखा ।

टण्ड्रा ने 1878 से 1886  तक लगभग 400 डाके  डाले।

टण्ड्रा बड़े जमींदारों व जनता का खून चूसने वालों के यहां डाके डालता था ।

टण्ड्रा डाको  से प्राप्त धन को गांव के गरीब लोगों में बांट देता था। गांव के लोग टण्ड्रा को  मामा कहते थे।

गणपत नामक एक व्यक्ति ने टण्ड्रा को माफी दिलाने का विश्वास दिला कर मेजर ईश्वरी प्रसाद  के हाथों धोखे से गिरफ्तार करवा दिया।

टण्ड्रा पर हत्या व डकैती के मुकदमे चले।

  टण्ड्रा को जबलपुर डिप्टी कमिश्नर अदालत से 26 सितंबर 1889 /       19 अक्टूबर 1889 को फांसी की सजा सुनाई गई ।
अक्टूबर-नवंबर 1888 में    या                4 दिशम्बर 1889 टण्ड्रा को फांसी दे दी गई।

तिथियों पर विवाद है

टण्ड्रा को भील लोग देवता मानते थे  उनका विश्वास था टुण्ड्रा को त ईश्वरीय शक्ति प्राप्त है।

टण्ड्रा को फांसी की सजा सुनाए जाने के बाद द न्यूयॉर्क टाइम्स अंतरराष्ट्रीय अंग्रेजी समाचार पत्र ने दिनांक 10 नवंबर 1889  को टण्ड्रा के सम्बंधित समाचार में  टण्ड्रा को             इंडियन रोबिन हुड बताया ।
इतिहास में टण्ड्रा को
इंडियन रोबिन हुड
कहा जाता है।

टण्ड्रा  के नामसे पुलिस भयभीत रहती थी।
टुड्रा को पता चला कि उसे  गिरफ्तार करने हेतु एक विशेष पुलिस अधिकारी  आ रहा है।
टण्ड्रा स्टेशन पर कुली बन कर चला गया और उसने पुलिस अधिकारी का सामान लेकर उसके साथ थाने चला गया।
  पुलिस अधिकारी से बातचीत में कुली से टण्ड्रा के बारे बातचीत की तो कुली ने टण्ड्रा के छिपने की जगह का ज्ञान होना बताया व पुलिस अधिकारी को जंगल मे ले गया ।

पुलिस अधिकारी गुप्त रूप से टण्ड्रा को गिरफ्तार करने  के इरादे से कुली के साथ चला गया।

गहरे जंगल मे ले जाकर कुली ने कहा    कहा मैं टण्ड्रा हूँ  पकड़ो

पुलिस अधिकारी घबरा गया ।  टण्ड्रा जंगल में लापता हो गया।

एक बार टण्ड्रा  हजाम बनकर  पुलिस अधिकारी के घर हज़ामत करने चला गया।

टण्ड्रा के बारे में बातचीत होने लगी तो हजाम ने   बातों में पूछा           महाराज आप  में इतनी हिम्मत है कि टुण्ड्रा को पकड़ लेंगे ?
अगर है तो पकड़ो ,
मैं ही टण्ड्रा हूँ ।

और फुर्ती से पुलिस अधिकारी का नाक काट कर भाग गए।

पंजाब में सशस्त्र क्रांति (प्रथम चरण)

पंजाब में अंग्रेजो के खिलाफ सशस्त्र क्रांति का दौर 1920 में शुरू हुआ।

 

पंजाब में सशस्त्र क्रांति की पृष्ठभूमि गुरु का बाग मोर्चा या आंदोलन के पश्चात शुरू हुई।


अमृतसर से करीब 20 किलोमीटर दूर गुखेवाली गांव में  ऐतिहासिक स्थान गुरु का बाग है ।

जिसमें  एक ऐतिहासिक गुरुद्वारा स्थापित है व यहाँ गुरु घर के साथ काफ़ी खाली जगह थी। जिसमें जंगल था ।
अमृतसर मुख्य गुरुद्वारा साहब के लंगर पकाने के लिए इसी बाग के जंगल से लकड़ियां ले जाई जाती थी।

गुरुओं के जमाने से ही गुरु का बाग गुरुद्वारा साहब का प्रबंध उदासियों के हाथों में चला आ रहा था।

अकालियों द्वारा गुरु का बाग में मोर्चा का गठन कर दिया।। जिसे गुरु का बाग मोर्चा या आंदोलन से जाना जाता है।। यह मोर्चा 17 नवंबर 1922 तक चला था।

अकालियों  द्वारा लकड़ियां लेने हेतु रोज 5 अकाली सिखों की टीम भेजी जाती थी।

महंत सुंदर दास ने पुलिस से मिलकर अपने गुंडों से  निहत्थे सिखों को बुरी तरह से पिटवाया जाता था ।

अकाली गुरु गुरु साहब को अरदास करने  की स्थिति में खड़े रहकर बिना किसी विरोध के मार खाते रहते थे।

गुरु का बाग के संबंध में विवाद होने पर अकाली शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी के 11 सदस्यीय टीम ने 13 जनवरी 1921 को उदासी संत सुंदरदास से एक अनुबंध किया था ।
  
महंत सुंदरदास ने अकालीयों  को गुरु घर लंगर पकाने के लिए गुरु का बाग जंगल  से लकड़ियां  काटने काटकर ले जाने से मना कर दिया।

जिसके कारण विवाद हो गया ।

महंत ने सुंदरदास ने पुलिस से मिलकर 9 अगस्त 1922 को अकालीओ  को पकड़वा दिया। जिन्हें  छह माह की सजा दे दी गई।

गुरु का बाग गुरुद्वार साहब के संत महंत सुंदर दास उदासी के कर्म और आचरण सिख धर्म की गरिमा के अनुकूल नहीं था।

जिसके कारण शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक समिति ने महंत सुंदर दास का विरोध करना शुरू कर दिया।

यह अहिंसात्मक आंदोलन वीर सीखों के बस का रोग नहीं रहा।

सरकार व पुलिस महंत सुंदर दास का साथ दे रही थी ।
  इसीलिए इस अत्याचार के विरुद्ध  किशन सिंह जी बडगज ने शस्त्र उठाए ।

वह अपने दल के  कर्म सिंह , धन्ना सिंह  व उदय सिंह को दोषीयो को मारने का दायित्व सोपा गया।

पंजाब में सशस्त्र आंदोलन में क्रांतिकारियों के साथ गद्दारी करने वाले मुखबिर या झोलीचुक को मारने को सुधार करना कहते थे।

उपरोक्त तीनों वीरों ने सबसे पहले गांव श्याम चौरासी होशियारपुर रेलवे स्टेशन के पास एक  सूबेदार का” सुधार” किया गया।

यह आंदोलन व सुधार कार्य कई दिनों तक चला।    इस आंदोलन में 67 बब्बर अकालियों को गिरफ्तार किया गया था।

जिन मेसे 6 को फाँसी की सजा दी गई व 11 वीरों को उम्रकैद की सजा दी गई ।

कुछ अकालियों ने सन 1920 में अंग्रेजी अत्याचार के खिलाफ  “शहादत” या “शहीदी दल ” बनाकर आंदोलन की शुरुआत की

कुछ वीर लड़ते हुए शहीद हुए।
अब जानते हैं उन बब्बर अकाली शहीदों के बारे में ।

:-किशन सिंह जी गर्गज्ज-:

आप जालंधर जिले के  वारिन्ड़ग   गांव के निवासी थे । आप पहले  35 नंबर सिख रिसाले में हवलदार थे।
जलियांवाला बाग हत्याकांड, सरदार अजीत सिंह की नजर बंदी, बजबज में निर्दोष यात्रियों पर फायरिंग  , रोलेट एक्ट आदि को लेकर अंग्रेजों के विरुद्ध हो गए।

अंग्रेजों के प्रति आपके हृदय में घृणा पैदा हो गई और आपने फ़ौज नौकरी छोड़ दी कर राष्ट्रीय आंदोलन में  शामिल हो गए।
  नानकाना साहब घटना  20 फरवरी 1921  के बाद आपने बब्बर अकाली आंदोलन में सक्रिय रूप से काम करने लगे।

आपने भी गुप्त संगठन  तैयार किया। एक बार पुलिस को सूचना हो गई ।
आपके दल के 6 आदमी गिरफ्तार कर लिए गए ।

आप अपने चार साथियों के साथ फरार हो गए।
कुछ दिन आप  जींद राज्य के मस्तुअना नामक स्थान पर रहे फिर 1921 कि सर्दियों में दोआब वापस आ गए।

यहाँ आते ही आपने “चक्रवर्ती दल” का गठन किया जो बाद में ‘बब्बर अकाली दल “ के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
आप ने कपूरथला व जालंधर जिले के गांव गांव जाकर अंग्रेजी व्यवस्था के खिलाफ लगभग 327 बार भाषण दिए।
उसी समय  होशियारपुर जिले में दौलतपुर के कर्म सिंह तथा उदय सिंह  भी अंग्रेजों के विरुद्ध क्रांतिकारी  प्रचार कर रहे थे।

आपके दोनों दल मिल गए  हथियार संग्रह व क्रांतिकारी गतिविधियां का बढ़ने लगी।

आपने भी कई भेदियों “सुधार” किया
आपको गिरफ्तार कर लिया गया ।

27 फरवरी 1926 को केंद्रीय जेल लाहौर में फाँसी दी गई।

         :-  संता सिंह -:

आप लुधियाना जिले के हरयों खुर्द गांव के रहने वाले थे । आपने 54 नम्बर सिख रिसाले में दो वर्ष तक नोकरी की।
आपने 26 जनवरी 1922 को फ़ौज की नौकरी से त्यागपत्र दे दिया और आपने भी अकाली बाबर आंदोलन में शामिल हो गए।

आपने अकेले ही बिशन सिंह जैलदार का  सुधार किया था।


इसके अतिरिक्त आप बूटा सिंह, लाभ सिंह , हजारा सिंह ,राला सिंह, दितू सिंह,  सूबेदार गैंडा सिंह और नोगल शमां के नंबरदार आदि के सुधार में शामिल रहे ।

आपको आपके ही एक रिश्तेदार ने लालच में आकर गिरफ्तार करवा दिया
आपको अदालत से न्याय की आशा नहीं थी।

इसलिए आपने अपने समस्त क्रांतिकारी गतिविधियों  को स्वीकार किया।

अंततः आपको अपने पांच साथियों सहित दिनांक 27 फरवरी 1926 को लाहौर सेंट्रल जेल में फांसी दी गई।

          :- दिलीप सिंह :-

आपकी आयु मात्र 17 वर्ष थी। जब आपने क्रांति पथ पर अपना पैर रखा । आप धामियाँ  कलां जिला होशियारपुर के रहने वाले थे।
ननकाना साहब घटना के पश्चात आपने भी अकाली मत की दीक्षा ग्रहण की।

मार्च 1923 से क्रांतिकारी कार्यों में सक्रिय रूप से शामिल हो गए।
12 अक्टूबर 1923 को आप क्रांतिकारी संता सिंह के साथ कंदी नामक स्थान पर क्रांतिकारी पर्चे बांटने जा रहे थे।
  एकाएक पुलिस ने घेर कर
आको गिरफ्तार कर लिया ।
आप पर मुकदमा चलाया गया ।
जज सेशन जज मिस्टर टैप (Tapp) आपकी कम उम्र देखकर प्रभावित हुआ और वह आपको लाभ देना चाहता था ।
लेकिन आपने अदालत में समस्त घटनाओं को स्वीकार करते हुए कहा कि अभी तक मैंने कोई अपवित्र कार्य नहीं किया है ।
मेरी देह पवित्र है ।

हो सकता है भविष्य में मेरे से कोई गलत काम हो जाए ।। इसलिए मैं इसी रूप में अपने प्राणों की आहुति देना चाहता हूं।
यह सुनकर जज प्रभावित हुआ।

आपकी वीरता के कारनामों को
जज ने अपने फैसले में ऐसे लिखा :-


This accused, young as he is, appears to have established a record for himself second only of that of Santa Singh accused , as to offences in which he has been concerned in connection with this conspiracy.
He is implicated in the murders of Buta lambardar, labh Singh, Mistri Hajara Singh of Bibalpur ,  Ralla and  Ditu of Kaulgarh , Atta Mohammed Patwari , in the second and third attempt on labh Singh of  Chadda Fateh singh , in murderous attack on  Bishan Singh of Sandhara.

आपको भी 27  फरवरी 1926  केंद्रीय जेल लाहौर में फाँसी दी गई।


         :-   नंद सिंह -:

आपका जन्म 1895 में जालंधर जिले के घुड़ियाल गांव में हुआ।
आपने भी ननकाना साहब की घटना के बाद वह अकाली आंदोलन में शामिल हो गए।

आपको गुरु के बाग सत्याग्रह में 6 माह के लिए जेल में रखा गया था।

आपने जेल से आते ही किशन सिंह जी के साथ बब्बर अकाली दल शामिल हो गए।
आपने अकेले ही गद्दार सूबेदार गेंदा सिंह उसके गांव में जाकर वध किया था ।

इसके बाद पुलिस गांव वालों को तंग करने लगी तो आपने स्वयं ही अपनी गिरफ्तारी दी और अपने कार्य को स्वीकार किया।

आपको भी 27 फरवरी 1926 को केंद्रीय जेल लाहौर में फांसी दी गई थी

          :- कर्म सिंह  :-

आप श्री भगवानदस सुनार के सुपुत्र थे आपका जालंधर जिले के गांव  मनको के निवासी थे।
आप किशनसिंह के बब्बर अकाली दल के सक्रिय सदस्य थे।
आप  गेंदा सिंह सूबेदार के वध  में  शामिल हुए थे ।

आपने भी गिरफ्तार होने के बाद अदालत को नाटक बताया।
वह कोई सफाई नहीं दी ।
आपको भी अन्य साथियों के साथ 27 फरवरी 1926 को लाहौर केंद्रीय जेल में फांसी दी गई।

        :-  बोमेली युद्ध -;


बब्बर अकाली क्रांतिकारी कर्म सिंह निवासी दौलतपुर , उदय सिंह निवासी रामगढ़ झुगियां , बीशन सिंह निवासी मङ्गन्त और महेंद्र सिंह निवासी पिंडोरी गंगसिंह चारों ही पहले असहयोग आंदोलन में सक्रिय थे।

कालांतर में सशस्त्र आंदोलन में शामिल हुए।
कर्म सिंह जी गांव-गांव घूमकर लोगों को अंग्रेजी अत्याचारों के विरुद्ध क्रांति का संदेश  देते थे ।

कर्मसिंह जी “बब्बरअकाली ” समाचार पत्र का भी संपादन करते थे।

इन्होंने भी अन्य क्रांतिकारी दलों की तरह हथियार प्राप्त करने , दल के विरुद्ध  बने पुलिस मुखवीरों को दण्ड देते थे।

आपने  को पुलिस मुखवीर   जैतपुर के दीवान उदय सिंह का का दिनाँक 14 फरवरी 1923 को व बइलपुर के हजारा सिंह का वध किया ।

एक बार दिनाँक 1 सितम्बर / अप्रेल (माह विवाद है) 1923 को आप चारों ही जालंधर के पास  गांव बोमेली में  ” चौंतासाहब “  गुरुद्वारा में ठहरे हुए थे।

पुलिस को ख़बर लग गई पुलिस अधीक्षक स्मिथ ने फ़ौज के सैनिकों को लेकर पहुंच गए व  पुलिस सबइंस्पेक्टर  फ़तेह खां भी 50 सिपाहियों को लेकर पहुँच गया।

चारों क्रांतिवीरों ने फ़ौज व पुलिस का डटकर मुकाबला किया ।

चारों वीरों ने प्राणों की आहुति दी।

            :-धन्नासिंह -:

आप पंजाब के बइबलपुर के निवासी थे।
पुलिस मुखवीर पटवारी अर्जुन सिंह ,  रानीथाने के जेलदार बिशन सिंह का दिनाँक 20 फरवरी  1923 को , लम्बरदार बूटासिंह ,19 मार्च 1923 को लाभसिंह, 27 मार्च 1923 को हजारा सिंह  का वध करने में आप साथ थे।



ज्वाला सिंह नाम के एक ग़द्दार ने पुलिस से मिलकर आपको रुकवाया व पुलिस को सूचना दे दी  पुलिस अधिकारी हॉरटन ने 40 सिपाहियों के साथ आपको घेर कर गिरफ्तार कर लिया ।

गिरफ्तार किए जाने के बाद आपने अपने कमर के पास छिपाये हुए बम की कोहनी मार कर पिन दबादी बम्ब विस्फोट हुआ।

आपने अपने प्राणों की आहुति दी।
इस विस्फोट से  5 सिपाही  मौके पर ही मारे गए। हारटन एक सिपाही जो घायल हुए थे बाद में मारे गए

     :- बंता सिंह धामियाँ -:

बंता सिंह धामियाँ  सिख पलटन नंबर 55 में थे ।
उन्होंने की नौकरी छोड़दी व डकैत बन गए।

सन 1923 में 2 या 3 मार्च को जमशेर स्टेशन मास्टर के घर डकैती के समय एक साथी ने महिला की तरफ हाथ बढ़ाया कि बंता सिंह जी ने उस पर गँड़ासे से वार कर दिया ।
बंता सिंह जी महिलाओं की सम्मान करते थे।
अकाली बब्बर आंदोलन में बंता सिंह जी ने एक नंबरदार बूटा सिंह का वध किया था।

बंता सिंह बहुत ही दिलेर आदमी थे एक सिपाहीयों से जंगल में सामना हो गया । बंता सिंह जी ने  अकेले ही उन्हें डरा कर भगा दिया।

एक बार बूटा सिंह जी अकेले ही एक छावनी में घुसकर पहरेदार की घोड़ी व राइफल छीन कर ले आये
कालांतर में बन्तासिंह सिंह जी क्रांति पथ पर अग्रसर हुए।

बब्बर अकाली आंदोलन की वीरता का एक उदाहरण  दिनाँक 12 दिशम्बर 1923 का ” मुंडेर युद्ध ”  भी  है ।

इस युद्ध मे तीन बब्बर अकाली क्रांतिवीर वरयाम सिंह जी, बंता सिंह जी धामियाँ व ज्वाला सिंह जी कोटला ने असंख्य सशस्त्र सेना से वीरता पूर्वक लड़ाई लड़ी ।

इस लड़ाई में  बंता सिंह धामियाँ व ज्वाला सिंह कोटला शहीद हुए पर वरयाम  सिंह जी सेना के घेरे से निकलने में सफल रहे।

यह घटना इस प्रकार हुई ।

जगत सिंह नामक एक व्यक्ति ने  वरयाम सिंह जी , बंता सिंह जी ज्वाला सिंह जी को दिनांक। 12 दिसंबर 1923 को जालंधर के पास अपने गांव शाम चौरासी  में बुला कर अपने घर मे रुकवाया व  पुलिस को सूचना दे दी।

थोड़ी देर बाद पुलिस व सेना ने  घर को घेर लिया। काफी देर तक तीनों वीरों ने सेना का मुकाबला किया।
फायरिंग में ज्वाला सिंह जी को गोली लगी थी वह बुरी तरह से घायल होकर गिर गए  ।

उसी समय बंता सिंह जी को भी गोली लगी।
सेना द्वारा घर के आग लगा दी गई। घायल बंता सिंह जी ने वरयाम सिंह जी से आग्रह किया कि वह उठ नहीं सकता।
  पुलिस के हाथों बंदी बनने से अच्छा है मुझे गोली मार दो ।
ऐसी विकट स्थिति में वरयाम सिंह जी  से अपने साथी के  गोली  नहीं मारी गई।
उन्होंने अपने रिवाल्वर में गोलियां डालकर बंता सिंह जी को दे दिया व ख़ुद सेना का मुकाबला करते हुए घेरा तोड़ कर निकल गए।


      :- वरियाम सिंह धुग्गा   -:

वरयाम सिंह जी और होशियारपुर जिले के धुग्गा गांव के निवासी थे।। आप भी पहले फ़ौज में थे ।
बाद में नौकरी छोड़ कर डकैत बन गए आप दुआबा  क्षेत्र के प्रसिद्ध थे।
कालांतर में  आपका भी ह्रदय परिवर्तन हुआ व आप भी बब्बर अकाली आंदोलन में शामिल हो गए।

मुंडेर युद्ध में आप भी साथ थे।
आप सेना का घेरा तोड़कर फायरिंग में से निकलने में सफल रहे थे।

दिनांक 8 जून 1924 को आप अपने रिश्तेदार के पास  में रुके हुए थे ।
उस रिश्तेदार ने आपको हथियार गांव से बाहर रख देने का आग्रह किया ताकि किसी को संदेह नहीं हो।
आपने उस पर विश्वास करके हथियार बाहर  खेत में रख दिये व भोजन करने हेतु गांव में आ गए।

आप खाने के बाद अपने हथियारों को लेने जा रहे थे कि रास्ते में ही पुलिस अधीक्षक  डी गेल  आपको घेर लिया।

आप चारों तरफ से पुलिस द्वारा घेर लिए गए।   डी गेल आपको जिन्दा गिरफ्तार करना चाहता था।
जैसे ही  उसने पकड़ने की कोशिश की आपने अपनी कृपाण से डी गेल व अन्य सिपाहियों को वॉर किये ।
डी जेल  ने पुलिस को गोली चलाने के आदेश दे दिये ।

आपके सीने में चारों तरफ से गोलियां लगी ।

आपने शहादत दे दी।

शत शत नमन शहीदों को

लेख के कुछ तथ्य व चित्र अंग्रेजों के जमाने मे प्रतिबंधित पुस्तक

चाँद फांसी अंक जिसका प्रकाशन 1928 में हुआ था से संकलित

हरि किशन सरहदी


  

पंजाब विश्वविद्यालय का दीक्षांत समारोह
दिनाँक  23 दिशम्बर 1930

पंजाब गवर्नर ज्योफ्रे डी मोरमोरेंसी कार्यक्रम सम्मापन के बाद जैसे ही चले
कड़ी पुलिस व्यवस्था के बावजूद एक युवा प्रकट हुआ व

अपने पिस्तौल से गवर्नर महोदय  के दो गोली मारी ।

एक कंधे पर व एक पीठ पर।
कई घायल हुए जिनमे से  एक  पुलिसकर्मी  शाम को मर गया।

युवक को मौके पर गिरफ्तार कर लिया गया।

आप थे

क्रांतिवीर हरि किशन सरहदी।


आपका जन्म 1909 में उत्तर-पश्चिम के सीमांत प्रान्त के  मर्दन शहर के पास गल्ला ढेर नामक गांव में हुआ।
आपके पिता श्री गुरुदास मल बड़े जमीदार थे ।
देशभगत भगतराम जो पेशावर जेल में थे आपके भाई थे। 

रामप्रसाद बिस्मिल व अशफ़ाक़ उल्ला ख़ाँ   आपके  आदर्श थे।

केंद्रीय  असेम्बली प्रकरण में भगत सिंह द्वारा अदालत में दिए गए  बयानों से आप अतिप्रभवित थे।

आप पर मुकदमे की सुनवाई बोस्टन जेल लाहौर में
3 जनवरी 1936 को शुरू हुई थी।

आपने सफाई देने से इंकार कर दिया और वकील भी नहीं किया बल्कि अदालत कहा –


मैं यदि बता सकता, कि मैं लाहौर में कब आया ।

परन्तु मैं यहां गवर्नर को मारने के लिए आया था।
यह भी नहीं बताना चाहता,कि मैं लाहौर में कहाँ ठहरा था।
मैं 23 दिसंबर को टिकट के साथ यूनिवर्सिटी हॉल में गया था।
मैंने कुल 6 फायर किये।

दो गवर्नर पर किये बाकी  अपने को बचाने के लिए, न कि इस ख्याल, से कि इससे कोई मारा जाए ।
अदालत में जो भी चीजें- पिस्तौल और गोलियां  आदि- पेश की गई है,वो मेरी है।

मैं और कुछ कहना नहीं चाहता  और न यह बताना चाहता हूं कि मैंने यह कार्य क्यों किया ।

मैंने जो कुछ किया है इच्छा से किया है, अपनी इच्छा से किया है।

इस मामले में आपको फांसी की सजा हुई जो अपील आदि के बाद फांसी की सजा  यथावत रही।

आपको 9 जून 1931 को मियांवाली जेल में फांसी दी गई थी।

आपने अपनी अंतिम इच्छा जाहिर की-
“फाँसी के बाद अपना पार्थिव शरीर अपने रिश्तेदारों को देने व
अंतिम संस्कार वहीं हो सरदार भगत सिंह का हुआ।”

परंतु सरकार ने आपकी अंतिम इच्छा पूरी नहीं की आपके पार्थिव शरीर को जेल के नजदीक  ही मुसलमानों के कब्रिस्तान में जला दियाI 

शत शत नमन शहिदों को

:-रासबिहारी बॉस -:

    

आपका जन्म 25 मई 1886 को गांव सुबालदह , बर्धमान , पश्चिम बंगाल में हुआ।
 
आपकी  शिक्षा चन्दननगर में हुई। आपने पहले फोर्ट विलियम कॉलेज में  फिर  देहरादून जंगल विभाग में नोकरी की।

प्रारंभ में आप “चंदननगर अनुशीलन समिति” के सदस्य थे। कालांतर में आपका संपर्क  युगांतर दल के क्रांतिकारी अमरेन्द्र चटर्जी से हुआ और आप युगांतर दल व जतिन बाघा के साथ जुड़ गए।
  
अब आपका संबंध संयुक्त प्रान्त, वर्तमान उत्तर प्रदेश और पंजाब के प्रमुख क्रांतिकारीयों से हो गया।

शचींद्र सान्याल 1912 में काशी में  क्रांतिकारी गतिविधियों में सक्रिय रूप से काम कर रहे थे।
  आपने  सान्याल को  संगठन मजबूती हेतु पंजाब भेजा।

आपकी ही योजना के अनुसार “लिबर्टी ‘ नाम से एक  क्रांतिकारी पर्चा लाहौर से कोलकाता तक फौजी छावनियों व आम जनता में बंटवाया।

आपकी ही योजना के अनुसार दिल्ली चांदनी चौक में वायसराय लॉर्ड हार्डिंग का वध करने हेतु उसकी सवारी पर दिनांक 13 दिसंबर 1912 को बम डाला गया।
व पंजाब में सिविल सर्वेंट्स को मारने हेतु लॉरेंस गार्डन में बम्ब विस्फोट किया गया।

आपने प्रथम विश्व युद्ध के समय भारतीय फौजियों से सम्पर्क कर समस्त देश मे एक साथ विप्लव कर अंग्रेजों को मार भागने की योजना बनाई।

उस समय भारत में अंग्रेजों के पास मात्र  15000 सैनिक थे । समस्त सैनिकों को विदेशों में अलग-अलग मोर्चों पर लड़ने हेतु भेज दिया गया था।

आपकी योजना के अनुसार  21 फरवरी 1915 को विप्लव करना था।
सारी तैयारियां बहुत अच्छी तरह हुई । जर्मनी से तीन जहाजों में हथियार मंगवाए गए।

करतारसिंह सराबा व गदर पार्टी के लगभग 8000 क्रांतिकारी हथियारों सहित इस विप्लव में शामिल विदेशों से भारत आए।

दुर्भाग्य से पुलिस ने  कृपाल सिंह नामक एक गद्दार को क्रांतिकारी के दल में शामिल करा दिया।इस गदार ने सारी खबरें पुलिस को दे दी।
आपने तिथि दो दिन पहले की जिसका जिक्र भी सराबा जी कृपाल से कर दिया क्योंकि सराबा को इस गदार का ज्ञान नहीं था।

देश मे पुलिस व फ़ौज चौकन्ने हो गए गिरफ्तारियां हो गई।
उधर बर्लिन में भी किसी गदार ने बर्लिन से आने वाले हथियारों के बारे में अंग्रेजों को बता दिया।

सारे जहाज रास्ते में ही पकड़ लिए गए।
जतिन बाघा भी मुठभेड़ में शहीद हो गए।

रासबिहारी की पीछे जासूस लग गए ।आप छिपते हुए  जून 1915 में  राजा पी एन टैगोर के नाम से  जासूसों को धोखा देकर जापान पहुंचे ।

जापान से संघाई गए और चीन के एजेंटों के माध्यम से जर्मनी के लोगों से सम्पर्क किया।

अब आप टोक्यो पहुंचे वहाँ आपकी मुलाकात लाला लाजपत राय से हुई ।
आपने 15 नवंबर 1915 को टोक्यो में एक विशाल सभा का आयोजन कर भारत की आजादी पर भाषण दिया तब अंग्रेजों को पता चल गया कि

पी एन टैगोर आप ही है

आप जापान में अकेले ही रह गए थे । जापान सरकार ने ब्रिटेन के दबाव के कारण सफलता आदेश जारी कर दिए थे कि 2 दिसंबर 1915 तक यदि आप जापान  नहीं छोड़ते हैं, तो आपको ब्रिटिश सरकार को सौंप दिया जाएगा।

आपने जापान के राष्ट्रवादी  नेता मित्सुरी तोयाम से सम्पर्क किया।

ऐसे समय में आप को एक बड़े होटल के स्वामी एजो सौमा ने अपने होटल में छिपा दिया।

मित्सुरी तोयाम के प्रयत्नों पर  1916 में  जापान सरकार ने अपना आदेश वापस लिया गया।

मित्सुरी तोयाम के सुझाव पर होटल मालिक एजो सौमा ने अपनी पुत्री तोशिको का विवाह रासबिहारी बोस से किया ।

आपने जापान में 1923 में “न्यू एशिया” नामक पत्र प्रारंभ किया।

आपने जापानी भाषा में 14 पुस्तकें भी लिखी।
भारतीयों को संगठित किया तथा ‘रामायण’ का जापानी भाषा में अनुवाद किया।

आपने भारतीय क्रांतिकारियों के रहने की व्यवस्था अपने  होटल में की।

वहां आपने हर वर्ष जलियांवाला बाग दिवस मनाना शुरू किया।
आपने 1926 में पॉन एशियन लीग की स्थापना की।
जिसके अध्यक्ष  आप बने ।
इस संस्था का उद्देश्य भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को तेज करना था।

आपने दो बार कोरिया की यात्रा की ।
ब्रिटिश सरकार अब भी उनके पीछे लगी हुई थी

और वह जापान सरकार से उनके प्रत्यर्पण की माँग कर रही थी,

इसलिए वह लगभग एक साल तक अपनी पहचान और आवास बदलते रहे।
  आपको 1923 में  आपको जापान की नागरिकता मिली।    

 
सन1937 में आपने ‘इंडियन इंडिपेंडेंस लीग” की स्थापना की।

सन 1939 में जब दूसरा विश्व युद्ध शुरू हो गया व 8 दिसंबर 1941 को जब जापान ने पर्ल हार्वर पर आक्रमण करके मित्र राष्ट्रों के खिलाफ़ युद्ध की घोषणा की।

इस मौके का फायदा उठाने हेतु
आपने टोक्यो में भारतीयों का एक सम्मेलन बुलाया और उन्हें समझाया कि अब देश को आजाद कराने का अच्छा मौका है ।
इस घोषणा के  28 मार्च 1942  को “इंडियन इंडिपेंडेंस लीग ” की स्थापना की जिसने  भारत को एक स्वतंत्रत राष्ट्र घोषित कर दिया।

जापान के मंत्रिमंडल ने लीग की वैधता को स्वीकार करते हुए सरकार को मान्यता प्रदान कर दी।
आपको उत्तराधिकारी की आवश्यकता थी ।

आपने वीर सावरकर के द्वारा सुभाष चंद्र बोस को अपना संदेश भेजा।

22 जून 1942 को  बैंकाक में लीग का दूसरा सम्मेलन बुलाया, जिसमें सुभाष चंद्र बोस को लीग में शामिल होने और उसका अध्यक्ष बनने के लिए आमन्त्रित करने का प्रस्ताव पारित किया गया।

आपने जापान द्वारा दक्षिणी पूर्वी एशिया मलय व बर्मा में बंदी बनाए गए भारतीय सैनिकों को मुक्त करवा करआजाद हिंद सेना का गठन किया।

आपने 4 जुलाई 1946 को आजाद हिंद सेना  की कमान व सुभाष चंद्र बोस को सम्भला दी।

दिनाँक  21 अक्टूबर 1946 को आजाद हिंद सरकार की विधिवत स्थापना हुई  जिसे 9 देशों ने मान्यता दी।

आप इस सरकार के सर्वोच्च सलाहकार थे ।
जापान ने आपके प्रयत्नों से ही अंडमान व निकोबार द्वीप आज़ाद हिंद सरकार को सौंपे थे।

जापान में आपका स्वर्गवास दिनाँक 22 जनवरी 1945 को हुआ।

जापान सरकार ने आपके अंतिम संस्कार हेतु शाही सवारी का प्रबंध किया ।
आपको जापान के सर्वोच्च सम्मान सेकंड क्रोस ऑर्डर  _ राइजिंग सन के ख़िताब से सुशोभित किया गय

:-रोशन लाल मेहरा-:

आपका जन्म सन 1913 में अमृतसर ,पंजाब में हुआ था। आपके पिता श्री धनीराम मेहरा कपड़े के व्यापारी थे ।आपका मकान गली नैनसुख में था।
आप 1930 में ही उत्तर प्रदेश के प्रसिद्ध क्रांतिकारी शंभूनाथ आजाद के संपर्क में आए ।
उस समयआपकी आयु मात्र 17 वर्ष थी
अमृतसर में क्रांतिकारी दल बना हुआ था ।

जिसमें शंभूनाथ आजाद के अलावा अन्य सदस्य भी थे ।आपने उसी समय बम्ब बनाना सीख लिया था ।
असहयोग आंदोलन के समय आपने अपने एक साथी के साथ पुलिस थाने पर बम्ब डाला था।

विस्फोट  से  थाने का भवन काफी क्षतिग्रस्त हुआ । आप वहां से निकल लिए।

आपने अमृतसर के क्रांतिकारी दल के समक्ष यह प्रस्ताव रखा कि मद्रास को कार्यक्षेत्र बनाया जाए।

मद्रास के गवर्नर  का वध किया जावे।
आपकी बात से सभी सहमत हो गए और मद्रास में क्रांति  करने का कार्यक्रम बना।
धन की आवश्यकता थी।
साथियों ने डकैती डालने का प्रस्ताव रखा पर आप सहमत नहीं हुई।
आप का सोचना था पिताजी के पास काफी धन है इसलिए घर पर ही  हाथ साफ़ किया जावे।

एक बार असफल कोशिश के बाद दूसरी बार घरवाले बाहर गए हुए थे 
आपने घर से 5800 रुपए चुराए व साथियों सहित मद्रास का रुख किया।
रामपुरम में एक किराए का मकान लिया गया ।
क्रांतिकारी साथियों ने बैंक लूटने का कार्यक्रम बनाया पर आप  सहमत नहीं थे । इसलिए साथ नहीं गए।
डाला सफलता पूवर्क डाला गया।
कुछ समय बाद शम्भूनाथ के अलावा सभी गिरफ्तार कर लिए गए।
1मई 1933 को मद्रास में बम्ब बनाने के बाद समुद्र किनारे बम्ब परिक्षण करने  गए।
  आप  फिसलकर गिर गए और हाथ मे बम विस्फोट हो गया।

शक्तिशाली बम था ।
जो आपकी शहादत का कारण बना

शत शत नमन

:- बैकुठ शुक्ला -:


बैंकुठ शुक्ला आपका जन्म 1907 को गांव जलालपुर जिला मुजफ्फरपुर वर्तमान वैशाली, बिहार में हुआ था।


आपने सांडर्स वध के मामले बने   सरकारी गवाह फणीन्द्र नाथ घोष गद्दारी की सजा दी थी।

  फणीन्द्र नाथ घोष हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन का वरिष्ठ सदस्य था।

उसे दल के बारे में सारी जानकारी थी।
सांडर्स वध  एक्शन में फणीन्द्र नाथ घोष की गवाही भगतसिंह, राजगुरू व सुखदेव को फांसी का मुख्य कारण थी।
फणीन्द्र की गवाही से क्रांतिकारी योगेंद्र शुक्ल को भी जेल में जाना पड़ा था।

जलगांव मामले में भगवानदास मोहर व सदाशिव मलकापुर जेल में थे ।
चंद्रशेखर आजाद उन्हें निर्देश दिए थे कि जेल या अदालत में मौका मिलते ही फणीन्द्र व जयगोपाल को मार दिया जाय और यह भी कहा  कि दोनों  किसी एक को मारना पड़े तो फनींद्र को मार दो।


परन्तु उस समय फणीन्द्र बच गया।  
फणींद्र को बिहार पर कलंक मन जाने लगा था ।

अब इस एक्शन का दायित्व

  बैकुठ शुक्ला  सौंपा गया।
दिनांक 9 नवंबर 1932 फणीन्द्रनाथ घोष  अपने साथी गणेश प्रसाद गुप्त के साथ मीना बाजार  बेतिया में अपनी दुकान पर  बैठा था ।

बैकुठ शुक्ला ने खुफ़री से फणीन्द्र के सिर व शरीर पर वार किये। 

गणेश प्रसाद गुप्त ने  छुड़ाने की कोशिश की तो उस पर भी वार किया।
  एक दुकानदार के भी लगी।


इस आक्रमण में घायल  फणीन्द्र व गणेश गुप्त को हॉस्पिटल ले जाया गया
बैकुठ ने जोरदार वार किए थे जो गदारों के लिए मौत ही थे ।


फणीन्द्र दिनांक 17 नवंबर 1932 को व गणेश प्रसाद गुप्त 20 नवंबर 1932 को मर गए।

इस मामले में बैकुंठ शुक्ल को फांसी की सजा हुई और दिनांक 14 मई 1934 को गया सेंट्रल जेल  फांसी दी गई।

उस समय क्रांतिकारी विभूति भूषण दास गुप्त व अन्य क्रांतिकारी भी गया केंद्रीय जेल में ही थे थे ।
उन्होंने अपनी बांग्ला पुस्तक “सेइ महावर्षार  गंगाजल हिंदी अनुवाद सरफरोशी की तमन्ना में लिखा है –
 

वो अपने साथियों के साथ गया केंद्रीय जेल के वार्ड नंबर 15 में थे।  जब किसी क्रांतिकारी को फांसी दी जानी होती थी तो उसे पहले दिन वार्ड नंबर 15 में रखा जाता था ।
और उस दिन वार्ड नंबर 15 के अ कैदियों को अन्य वार्डों में भेज दिया जाता था।

फांसी से पहले दिन बैकुठ को शुक्ला को वार्ड नंबर 15 में लाया गया और उन लोगों को वार्ड नंबर 15 से अन्य वार्ड में भेजा दिया गया।
इस बात का पता उन्हें पता चल चुका था कि बैकुठ शुक्ला को वार्ड नम्बर 15 में लाया गया है और उन्हें कल फांसी दी जानी है।

रात को सभी वार्डो में क्रांतिकारी देशभक्ति गीत गा रहे थे।

बैकुंठ शुक्ल ने वार्ड नम्बर 15 से पुकार कर कहा-
दा अब समय कम रह गया है,
वंदे मातरम सुनादो
वंदेमातरम गाया गया


फांसी के लिए जाने से पुर्व बैंकुठ ने गुप्त जी कहा
‘दादा, अब तो चलना है।
मैं एक बात कहना चाहता हूं। आप जेल से बाहर जाने के बाद बिहार में बाल विवाह की जो प्रथा आज भी प्रचलित है, उसे बंद करने का प्रयत्न अवश्य कीजिएगा।

पंद्रह नंबर से बाहर निकलने के पहले बैकुंठ शुक्ल क्षण भर के लिए रुके और दासगुप्त की सेल की ओर देखकर बोले-‘अब चलता हूं ।
मैं फिर आऊंगा।
देश तो आजाद नहीं हुआ। वंदेमातरम्…।

शत शत नमन

:-  बीना दास -:

     

  6th  Feb.1932
Convocation  Hall
Calcutta University 

Bengal Governor
Stanley Jackson

स्नातकों को उपाधियां दे रहे है-

बीना दास  अपनी बी .ए. ऑनर्स की डिग्री लेने  बंगाल गवर्नर स्टैनली जैक्शन के सामने पहुंची।
डिग्री लेने से पहले जैक्शन पर अपने पिस्तौल से गोली मारी निशाना चूक गया ।
गोली विश्वविद्यालय के एक अधिकारी  दिनेश चंद्रसेन  को घायल कर गई।
समारोह में उपस्थित कर्नल
सुहराबर्दी ने बीनादास को दबोच लिया।
बंद कमरे में मुकदमे की सुनवाई हुई। बीनादास अदालत को अपना बयान लिखित में दिया।


बयान का प्रकाशन प्रतिबंधित कर दिया गया । डर था बयान पढ़ कर विप्लव होने का।

बीनादास के बयान का अंश । श्रीकृष्ण सरल की पुस्तक ‘क्रांतिकारी कोष‘ से —

उम्र कैद की सजा हुई ।

10 वर्ष जेल में रही । सरकार द्वारा 1939 में आम रिहाई की गई तो जेल से रिहा हुई।
 
  भारत छोड़ो आंदोलन में भाग लेने के कारण तीन वर्ष की सजा हुई।
   प्रारंभिक दिनों में कलकत्ता के  क्रांतिकारी संगठन के सहायक संगठन “छात्री संघ ‘ से जुड़ी हुई थी।

यह एक्शन भी क्रांतिकारी दल युगांतर के Operation Freedom के क्रम में था।

इस ऑपरेशन में क्रांतिकारीयों द्वारा निर्मम व बड़े फिरंगी अधिकारियों का वध किया जाता था ताकि फ़िरंगियों में खौफ उत्पन्न हो

जेल से रिहा होने के बाद 1946-47  में  बंगाल प्रांत विधानसभा की सदस्य बनी।
1947 -51 में पश्चिम बंगाल प्रांत विधानसभा की सदस्य बनी, ।

जतीश भौमिक , जो युगांतर दल के सदस्य थे ,से शादी कर ली । दोनों ऋषिकेश में एकांतवास को गए।

शत शत नमन वीरांगना को

बाल क्रांतिकारी शान्तिघोष व सुनीति चौधरी

 

दिनाँक 14 दिसंबर 1931
डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट कॉम्मिला (त्रिपुरा),
चार्ल्स जेफरी बकलैंड स्टीवन,
के बंगले पर दो 14 -15 वर्षीय  बच्चियों ने जिला मजिस्ट्रेट  को क्रिसमस पूर्व उपहार कैंडी व चॉकलेट दिया।

मिस्ट्रेस स्टीवेंस चॉकलेट खाते हुए कहा –
These are delicious
बच्चीयों ने अपने पिस्तौल से  गोलियों चलाते हुए कहा-
‘Well how about this one mister magistrate’
—-
मिस्टर ,स्टीवेंस हमेशा के लिए दुनिया छोड़कर चले गए।

ये थी फैजुनिशां बालिका विद्यालय , कॉम्मिला की 8वीं कक्षा छात्राएं 

  शांति घोष  व सुनीति चौधरी
दोनों ने जिला मजिस्ट्रेट को मिलने हेतु  भेजी  चिट पर  अपने नाम लिखे थे  इलासेन व  मीरा देवी ।

एक पुस्तकों में यह भी लिखा गया है कि दोनों बच्चियों ने तैराकी  क्लब बनाने की अनुमति हेतु आवेदन किया ।
एक पुस्तक में लिखा है  बच्चियों ने तैराकी की प्रतियोगिता में DM को बुलाने हेतु निमंत्रण दिया ।

जो भी हो दोनों बच्चियों ने डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट पर पिस्तौल से गोलियां चलाई व डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट मर गया।

इस एक्शन की के पीछे थी क्रांति –
ये बालिकायें बंगाल के  क्रांतिकारी दल युगान्तर की सदस्य थी ।
जिन्हें हथियार चलाने का प्रशिक्षण भी दिया गया था। एक्शन के लिए विशेष रूप से तैयार किया गया था।
भारतीय क्रांतिकारियों के प्रति अत्याचारपूर्ण व्यवहार  रखने वाले पुलिस व सिविल अधिकारियों का वध करना युगान्तर के एजेंडे में था।
इस एक्शन को “ऑपरेशन फ्रीडम” का नाम दिया गया था।
इसका उद्देश्य अत्याचारी अधिकारियों को दण्ड देना व फ़िरंगियों के मन मे खौफ पैदा करना था।

इसी ऑपरेशन फ्रीडम में
डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट कॉम्मिला ,चार्ल्सजेफरी बकलैंड स्टीवन,टारगेट पर थे।

इस ऑपरेशन को बालिका क्रांतिकारियों ने अंजाम दिया

सुनीता चौधरी का जन्म 22 मई 1917 को गांव की टीमपेरा उपखंड कोमिला ,त्रिपुरा में हुआ था ।
वह आठवीं कक्षा की छात्रा थी और इसकी आयु 14 वर्ष थी

शांति घोष का  जन्म 22 नवंबर 1916 को कलकत्ता में हुआ था। वह छतरी संघ की संस्थापक सदस्य थी।
वह कालांतर में युगांतर से जुड़ गई।

दोनों बालिकाओं को जिला मजिस्ट्रेट का  वध करते ही  मौका  गिरफ्तार कर लिया गया था।
दोनों पर हत्या आदि के लिए मुकदमा  चलाया गया।जिसका निर्णय

27 फ़रवरी 1932 को हुआ।
दोनों की आयु 14 वर्ष से कम थी। इसलिए फाँसी की बजाय उम्र कैद की सजा दी गई।
विश्व युद्ध के बाद  सरकार की गई सामूहिक माफी का  लाभ दोनों बालिकाओं को भी मिला और 1939 में दोनों जेल से रिहा  हुई।

शांति घोष ने जेल से निकलने के बाद पहले कम्युनिस्ट पार्टी के क्रियाकलापों में भाग लिया।
सन 1942 में शांति ने कांग्रेस की सदस्यता ली।
1942 में ही शांति घोष का प्रोफेसर चितरंजन दास  विवाह हुआ ।
शान्ति 1952 से 1962 तक बंगाल विधान परिषद की सदस्य तथा 1967 में भी पश्चिम बंगाल में की विधायक रही है।

शांति ने अपनी आत्मकथा अरुण वाहिनी (अरुण बहनी )लिखी।
शांति घोष का देहांत 28 मार्च 1989 को हुआ।

सुनीति चौधरी पहले दीपाली संघ की सदस्य थी । फिर  युगान्तर की  इब्राहिमपुर शाखा  सदस्य बन गई।

सन 1939 में जेल से रिहा होने के बाद समिति ने मेडिकल शिक्षा ली व सन 1947 में डॉक्टर MBBS बनी ।
मजदूर नेता प्रद्योत कुमार से विवाह किया।
सुनीति का दिनाँक 12 जनवरी 1986 को स्वर्गवास हुआ

शत शत नमन

-वीरेंद्रनाथ चट्टोपाध्याय-

     

आपको वीरेंद्र नाथ चटर्जी व ‘चट्टो’ के नाम से भी जाना जाता है।
आपका जन्म सन 1880 में ढाका के एक संपन्न परिवार में हुआ

आपके पिता श्री अधोरनाथ उस्मानिया कॉलेज हैदराबाद में प्राध्यापक थे ।
आपके पिता जी ने आपको आई सी एस परीक्षा उतीर्ण करने हेतु लंदन भेजा था ।
परंतु आप आईसीएस परीक्षा में सफल नहीं हुए ।
इसलिए आपने कानून की पढ़ाई हेतु ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में प्रवेश ले लिया ।
  उन दिनों आपका संपर्क क्रांतिकारी वीर सावरकर व श्यामजी कृष्ण वर्मा से हो गया।

ये लोग इंडिया हाउस उसका संचालन करते थे जो भारतीय क्रांतिकारियों का ठिकाना था।
क्रांतिकारी गतिविधियों में शामिल होने के कारण आपको कॉलेज से निकाल दिया गया ।
अब आप पूर्णरुप से खुलकर भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में उतर गए।
आप आप कई भाषाएं कई जानते थे । वह हथियार चलाना अभी अच्छे से जानते थे ।

सन 1906  कमाल पाशा लंदन आए तो आपने उनसे भी संपर्क किया ।

सन 1907 में आप जर्मनी में समाजवादी सम्मेलन में शामिल हुए।
वहाँ आपकी मुलाकात मैडम भीकाजी कामा और पोलैंड के क्रांतिकारियों से हुआ।
आप पोलैंड के गए वहाँ से वारसा गए व आयरलैंड गए।

भीकाजी कामा के पेरिस से निकलने वाले समाचार पत्र ‘वंदे मातरम ” व बर्लिन से निकलने वाले पत्र “तलवार” ब में कई लेख लिखे ।
प्रथम विश्वयुद्ध के समय बर्लिन गए।  वहां पर लाला हरदयाल व पिल्ले पहले से ही ।

आपने बर्लिन में 1914 में श्री चंद्र सेन , सतीश चंद्र ,डॉ अविनाश भट्टाचार्य, धीरेंद्र नाथ, दादा साला जी के साथ मिलकर ” भारतीय स्वतंत्रता समिति ” गठित की ।

जिसमें  भूपेंद्रनाथ दत्त  भी  शामिल हुए थे ।

आप कॉन्फ्रेंस ऑफ जर्मन फ्रेंड्स ऑफ इंडिया में शामिल हुए।इस दल के द्वारा आको केदारनाथ गुहा के साथ भारतीय क्रांतिकारियों से संपर्क करें हेतु भारत भेजा गया।

कहा जाता है कि आपने लेनिन से भेंट की । परन्तु आपकी लेनिन से सहमति नहीं हुई ।
आपका विचार था कि भारतीय परिस्थितिया अभी सर्वहारा क्रांति के अनुकूल नहीं है ।
आप भारत की आजादी के लिए राष्ट्रीय आंदोलन के समर्थन में थे।

यह भी कहा जाता है कि ट्राटस्की से घनिष्ठता के कारण लेनिन आपके  कहा जाता है कि लेनिन ने  बंद कर दिया था।

बर्लिन में राजा महेंद्र प्रताप की मुलाकात जर्मन केसर से आपने ही करवाई थी ।
आपके भारतीय क्रांतिकारियों से संबंध थे। युगांतर दल के मुखिया जतिन्द्र नाथ मुखर्जी @ जतिन बाघा  से आपके सीधे संबंध थे।

आपने  बर्लिन में भारतीय क्रांतिकारियों की बर्लिन राजदूत से   करवाई और आपने जर्मनी से भारत को  जहाजों से हथियार भी भिजवाने में सहायता की।

परंतु सारी सूचनाएं किसी ने अंग्रेजों तक पहुंचा दी जिसके कारण  जहाज रास्ते में पकड़े गए।

एक महत्वपूर्ण तथ्य यह भी पढ़ने को मिला की 1920 में आपके रूसी नेताओं से  भी संपर्क थे।
उस समय एमएन राय @ नरेंद्र भट्टाचार्य ताशकंद में थे और वह ताशकंद से काबुल जाना चाहते थे।
आपने एमएन को यह सूचना दी कि काबुल में एमएन की हत्या की योजना है।
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में इंडो- जर्मन -प्लॉट की खबर अंग्रेजो तक पहुंचने का विषय गंभीर है ।

यह रहस्य की गुच्छी बना हुआ है, कि आखिर कर यह गद्दारी किसने की !?

2 सितंबर 1937 को मास्को में ही आप का स्वर्गवास हुआ है

शत शत नमन

– पांडुरंग सदाशिव खानखोज –

डॉ पांडुरंग सदाशिव खानखोज काजन्म दिनाँक 17 नवंबर 1883 में वर्धा नागपुर महाराष्ट्र में हुआ।

खानखोज माध्यमिक शिक्षा के नागपुर के नील सिटी हाई स्कूल में हुई।
उन दिनों खोजे बंगाली क्रांतिकारियों सखाराम देउस्कर, ब्रह्मबांधव बंदोपाध्याय के संपर्क में आये।

आप 1906 में लोकमान्य तिलक के कहने पर भारत छोड़ कर संयुक्त राज्य अमेरिका में चले गए।

आप केलिफोर्निया व पोर्टलैंड में कृषि का अध्ययन करते हुए, क्रांतिकारियों गतिविधियों में शामिल रहे।

आप हिंदुस्तान एसोसिएशन का गठन में लाला हरदयाल, पंडित काशीराम, विष्णु गणेश पिंगले, वीरेंद्रनाथ चट्टोपाध्याय, भूपेंद्रनाथ दत्त के साथ थे।

इस दल ही गदरपार्टी का रूप दिया गया । काशीराम इसमें संगठन अध्यक्ष थे ।
आप गदर पार्टी का “प्रहार ” विभाग संभालते थे। जिसके जिम्मे हथियार व बम्ब आदि उपलब्ध करवाना था।

गदरपार्टी की तरफ से आपको प्रथम विश्व युद्ध के समय भारत भेजा।

आप आते समय कुस्तुन्तुनिया में तुर्की के शाह अनवर पाशा से मिले व उनके सहयोग से अंग्रेजों को भारत से खदेड़ने के लिए युद्ध की योजना बनाई।

आप बलूचिस्तान गए वहाँ आपने जर्मन फौज के अधिकारी विल्हेल्म वासमस से मिलकर वाम में बलूचियों का संगठन तैयार कर

अस्थायी सरकार की घोषणा करदी
व सेना भी बनाली।
पर अंग्रेजों ने अमीर को अपने साथ मिला लिया।

आपको वहां से भागना पड़ा। आप बस्त गए वहाँ पकड़ लिये गए।

वहाँ से छूटकर नेपरिन गए। वहां अंग्रेजों ने अधिकार जमा लिया।

अब आपने नेपरिन से शिरॉन गए वहां गए तो पता चला सूफी अम्बाप्रसाद की हत्या कर दी गई।

हिम्मत हारना आपके शब्दकोश में था ही नहीं।
अब आये ईरान व वहाँ की फौज में भर्ती हो गए।
दुर्भाग्य रहा ईरान ने आत्म समर्पण
कर दिया।

आप 10 जून 1919 में भारत आये पर यहाँ भी आजादी के लिए माहौल ठीक नहीं पाया।

आप बर्लिन गए वहां भूपेन्द्र नाथ दत्त व बीरेंद्र चट्टोपाध्याय के साथ रूस गए।
आप 1924 तक रूस में रहे।

आप 1949 में कृषि सलाहकार के रूप में भारत आये। लेकिन पांच महीने बाद लौट गए।
फिर फरवरी 1950 से अगस्त 1951 तक डेढ़ साल के लिए भारत में निवास किया।

फिर विदेश गए।
अन्ततः आप 1955 में स्थायी निवास के लिए नागपुर आए।

18 जनवरी, 1967 में, उन्हें भारतीय नागरिकता प्रदान की गई।
आपका दिनाँक 22 जनवरी 1967 को स्वर्गवास हुआ।

देश की आजादी के लिए आप अपनी उम्रभर चीन, जापान, अमेरिका, कनाडा, ग्रीस, तुर्की, ईरान, बलूचिस्तान सीमा, फ्रांस, जर्मनी, रूस, मैक्सिको में अपनी गतिविधियों को जारी रखा।
शत शत नमन

:-चारु चंद्र बोस-:

     
चारु चंद्र बोस बंगाल के क्रांतिकारी थे  जो शारिरिक रूप से बहुत कमजोर  दिखाई देते थे।
उनके दाहिने हाथ कीअंगुलिया नहीं थी।

आपने दाहिने हाथ के पिस्तौल बांधकर बांये की अंगुली से घोड़ा दबाकर पिस्तौल चलाने का अभ्यास किया।

सशस्त्र क्रांति के क्रम में बंगाल अनुशीलन समिति के क्रांतिकारी पप्रफुल्ल चाकी व खुदीराम बोस द्वारा मुजफ्फरपुर में कसाई काजी किंग्फोर्ड की गाड़ी पर बम फेंका था।

इसके बाद पुलिस ने छापे मारे और बारीन्द्र दल के  38 क्रांतिकारियों को गिरफ्तार कर उन पर मुकदमा चलाया गया ।

जिसे इतिहास में अलीपुर षड्यंत्र कहा जाता है ।
हम उसे अलीपुर एक्शन कहेंगे।
  
अलीपुर मामले में की अदालत सुनवाई में  सरकार की तरफ से आशुतोष विश्वास पैरवी करते थे।

आशुतोष ने क्रांतिकारियों को सजा दिलाने के उद्देश्य से झूठे गवाह बनाकर पेश किए।

जिसके कारण वह क्रांतिकारियों के टारगेट पर था

दिनाँक  10 फरवरी 1909 को  आशुतोष  विश्वास अलीपुर अदालत से निकलने वाले थे।

क्रांतिवीर चारु चंद्र ने आशुतोष को गोली से गोलियों से उड़ा दिया ।
चारु मौका पर ही गिरफ्तार कर लिए गए थे।

चारुपर मुकदमा चला फाँसी की सजा सुनाई गई 
चारु को दिनांक 19 मार्च 1999 को केंद्रीय कारागार अलीपुर में फांसी दे दी गई।

शत शत नमन

:- रेसकोर्स एक्शन -:

      

भारतीय क्रांतिकारियों के प्रति अत्याचारपूर्ण व्यवहार  रखने वाले पुलिस व सिविल अधिकारियों का वध करना भारतीय क्रांतिकारियों के एजेंडे में था।
इस एक्शन को “ऑपरेशन फ्रीडम” का नाम दिया गया ।
सर जॉन एंडरसन गवर्नर बंगाल अपने  निर्ममतापूर्वक दमन कार्यों के लिए तो कुख्यात थे।
बगाल ऑर्डिनेंस के बाद एंडरसन ने क्रांतिकारियों  पर अत्याचार किए। इसलिए क्रांतिकारियों के टारगेट पर थे।
लेवांग रेसकोर्स दार्जलिंग में दिनांक 8 मई 1934 को एंडरसन लेवल  घुड़दौड़ में भाग लेने गए हुए थे।

  घुड़दौड़ खत्म  होते ही भवानी भट्टाचार्य व रविंद्र नाथ बनर्जी ने  योजनाबद्ध तरीके से एंडरसन के गोली मारी निशाना चूक गया।
गोली अंगरक्षक के लगी ।
मौके पर भवानी व  रविंद्र दोनों को ही पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया।
   भवानी भट्टाचार्य व रविंद्र नाथ बनर्जी को फांसी की  हुई अन्य सहयोगी क्रांतिकारी को 14 वर्ष कारावास से दंडित किया ।
भवानी भट्टाचार्य को  3 फरवरी 1935 को राजशाही जेल में फांसी दे दी ।

शत शत नमन शहीदों को

वांची अय्यर

वंचिनाथन @ वांची अय्यर शेंनकोट्टी जिला तिरुनेलवेली, तमिलनाडु के निवासी थे । 

वांची का जन्म सन 1880 में हुआ था। वांची ने तिरुनल महाराजा कॉलेज से MAपास की ।

वांची बंगाल के क्रांतिकारी गुप्त संगठन अनुशीलन समिति व जुगान्तर से प्रभावित थे। वांची सनातन धर्म के अनुयायी थे । वांची का यह मानना था यूरोपियन लोग सनातन धर्म पर आक्रमणकारी है ।

वांची भारत माता एसोसिएशन के सदस्य थे। इस संगठन का गठन नीलकंठ ब्रह्मचारी द्वारा किया गया था। जिनका उद्देश्य यूरोपियन लोगों के द्वारा सनातन धर्म के विरुद्ध किए जा रहे आक्रमण का विरोध करना था।

इनके दल के सदस्य काली के समक्ष शपथ फिरंगी शासन को समाप्त करने व सनातन धर्म की रक्षा की लिए शपथ लेते थे।

वांची त्रावणकोर फॉरेस्ट विभाग में नोकरी करते थे ।

तिरुनवेली के कलेक्टर कलेक्टर रॉबर्ट विलियम एस्कॉर्ट ऐश ने बाबा सावरकर को आजीवन कारावास की सजा दी थी। जिसके कारण वीर सावरकर ने लंदन में रहते हुए फिरंगी अधिकारियों के वध करने की योजना बनाई थी ।

संभवतः सावरकर के नजदीकी मित्र व सहयोगी VVS एयर ने वांची व शंकरकृष्ण अय्यर से मिलकर ऐश की हत्या की योजना तैयार कर

वांची ने तीन माह का अवकाश लेकर पॉन्डिचेरी में VVS से रिवाल्वर चलाने का प्रशिक्षण लिया।

वांची ने अकेले ही 17 जून 1911 को तिरुनेलवेली के कलेक्टर रॉबर्ट विलियम एस्कॉर्ट ऐश का मनियांची रेलवे स्टेशन पर उसके बिल्कुल पास जाकर गोली मार कर वध कर दिया ।

वांची नहीं चाहते थे कि उनकी गिरफ्तारी के बाद उन्हें शारीरिक प्रताड़ना दी जावे और क्रांतिकारी दल के बारे में पूछताछ की जाए ।

इसलिए वांची ने अपना मिशन खत्म करने के बाद मौका पर ही अपने आप को गोली मारकर आत्मा बलिदान किया।

वांची का वास्तविक नाम शंकरन था।

शत शत नमन शहीदों को