तांत्या भील उर्फ टण्ड्रा भील

आपका जन्म जिला निमाड़ के पास गांव बिरदा में सन 1842 में हुआ ।

 
उस समय अंग्रेज बड़े जमीदारों की मार्फ़त   किसानों  से जमीन का  लगान वसूल करते थे।

फसलें खराब होने के कारण आपके द्वारा अपनी पोखर की पैतृक जमीन का लगान जमा नहीं करायाया         जा सका

जिसके कारण शिवा पटेल नामक मालगुजार जमींदार ने आपको अपनी  पैतृक जायदाद से बेदखल कर दिया।

टण्ड्रा को  कहीं न्याय नहीं मिला जिसके कारण  टण्ड्रा के मन मे अंग्रेजी शासन व जमीदारों मालगुजारों के प्रति घृणा पैदा हो गई।

गांव पोकर वासियों  ने षड्यंत्र करके  तत्कालीन कानून के अंतर्गत टण्ड्रा को पर बदमाशी करने का  मुकदमा करवा कर  एक साल की सजा करवा दी।

जेल से निकलने के बाद टण्ड्रा  अपने गांव  पोखर  गया पर वहां के लोग  टण्ड्रा के खिलाफ थे।

इसलिए  हीरापुर गांव में बस गया वहाँ  7 वर्ष तक मजदूरी करके अपना जीवन व्यतीत किया ।

लेकिन पोकर गांव वालों ने  टण्ड्रा को चोरी के झूठे मुकदमा में फसा दिया।
चोरी के अपराध का कोई सबूत नहीं मिला इसलिए टण्ड्रा को छोड़ दिया गया।

टण्ड्रा ने गिफ्तारी के समय  पुलिस के साथ  हाथापाई की थी । उसके लिए टण्ड्रा को  तीन माह की सजा दी गई ।

इस सजा के बाद  वापस आकर टण्ड्रा ने इंदौर रियासत में आश्रय लिया ।

पोकर वासियों ने टण्ड्रा को  सुभान नामक भील के घर चोरी के झूठे मुकदमा में  फसा दिया ।
पुलिस गिफ्तारी के डर से टण्ड्रा गांव छोड़कर भाग गया।

टण्ड्रा ने अपनी जाति के कुछ भीलों को लेकर अपना एक दल बनाया ।
टण्ड्रा ने  निमाड़  जिले के खजूरी गांव के बिजनिया नामक एक दिलेर  व शक्तिशाली भील डाकू से मुलाकात कर  उसे भी अपनी टोली में मिला लिया।
टण्ड्रा के दल के लोगों के परिवार पहाड़ी जंगलों में बस गए।

सरदार पटेल नामक व्यक्ति ने टण्ड्रा व  उसके साथी विजेनिया व दोपिया को गिरफ्तार करा कर
चोरी का झूठा मुकदमा  बनवाया व झूठे गवाह पेश कर सजा करवादी।

सजा के दिन टण्ड्रा ने भरी अदालत में हिमन पटेल नामक राजपूत्र को धमकी देते हुए कहा –

पटील दाजी म्हारो  नांव। टण्ड्रा छे  मख  पहीचाणी ल्यों ।  आज तो धोखासी मख फंसाई दीयो पण याद राखजो म्हारो नाम टण्ड्रा छे ।’ 

जेल में अन्य साथियों से मिलकर टुड्रा 15 फुट ऊंची दीवार फांद कर अपने साथियों सहित फरार हो गया।

टण्ड्रा  जेल से फ़रार होने के बाद अपना संगठन तैयार किया ।
अपने दुश्मन मालगुजारों उनके झूठे गवाहों के घर जला दिए।

टण्ड्रा ने दुश्मनों की महिलाओं की तरफ आंख उठा कर भी नहीं देखा ।

टण्ड्रा ने 1878 से 1886  तक लगभग 400 डाके  डाले।

टण्ड्रा बड़े जमींदारों व जनता का खून चूसने वालों के यहां डाके डालता था ।

टण्ड्रा डाको  से प्राप्त धन को गांव के गरीब लोगों में बांट देता था। गांव के लोग टण्ड्रा को  मामा कहते थे।

गणपत नामक एक व्यक्ति ने टण्ड्रा को माफी दिलाने का विश्वास दिला कर मेजर ईश्वरी प्रसाद  के हाथों धोखे से गिरफ्तार करवा दिया।

टण्ड्रा पर हत्या व डकैती के मुकदमे चले।

  टण्ड्रा को जबलपुर डिप्टी कमिश्नर अदालत से 26 सितंबर 1889 /       19 अक्टूबर 1889 को फांसी की सजा सुनाई गई ।
अक्टूबर-नवंबर 1888 में    या                4 दिशम्बर 1889 टण्ड्रा को फांसी दे दी गई।

तिथियों पर विवाद है

टण्ड्रा को भील लोग देवता मानते थे  उनका विश्वास था टुण्ड्रा को त ईश्वरीय शक्ति प्राप्त है।

टण्ड्रा को फांसी की सजा सुनाए जाने के बाद द न्यूयॉर्क टाइम्स अंतरराष्ट्रीय अंग्रेजी समाचार पत्र ने दिनांक 10 नवंबर 1889  को टण्ड्रा के सम्बंधित समाचार में  टण्ड्रा को             इंडियन रोबिन हुड बताया ।
इतिहास में टण्ड्रा को
इंडियन रोबिन हुड
कहा जाता है।

टण्ड्रा  के नामसे पुलिस भयभीत रहती थी।
टुड्रा को पता चला कि उसे  गिरफ्तार करने हेतु एक विशेष पुलिस अधिकारी  आ रहा है।
टण्ड्रा स्टेशन पर कुली बन कर चला गया और उसने पुलिस अधिकारी का सामान लेकर उसके साथ थाने चला गया।
  पुलिस अधिकारी से बातचीत में कुली से टण्ड्रा के बारे बातचीत की तो कुली ने टण्ड्रा के छिपने की जगह का ज्ञान होना बताया व पुलिस अधिकारी को जंगल मे ले गया ।

पुलिस अधिकारी गुप्त रूप से टण्ड्रा को गिरफ्तार करने  के इरादे से कुली के साथ चला गया।

गहरे जंगल मे ले जाकर कुली ने कहा    कहा मैं टण्ड्रा हूँ  पकड़ो

पुलिस अधिकारी घबरा गया ।  टण्ड्रा जंगल में लापता हो गया।

एक बार टण्ड्रा  हजाम बनकर  पुलिस अधिकारी के घर हज़ामत करने चला गया।

टण्ड्रा के बारे में बातचीत होने लगी तो हजाम ने   बातों में पूछा           महाराज आप  में इतनी हिम्मत है कि टुण्ड्रा को पकड़ लेंगे ?
अगर है तो पकड़ो ,
मैं ही टण्ड्रा हूँ ।

और फुर्ती से पुलिस अधिकारी का नाक काट कर भाग गए।