Author: Shankar Soni
वासुदेव बलवंत फड़के –
-: सिंह क्रांति पुरुष :-
-:- वासुदेव बलवंत फड़के -:-
प्रथम स्वतंत्रता संग्राम 1857 को दबा दिए जाने के बाद ब्रिटिश क्रूर शासन से भारत को स्वतंत्र कराने के लिए सबसे पहले सशस्त्र क्रांति वासुदेव फड़के ने की ।
फड़के का जन्म 4 नवंबर 1844 को गांव शिरढोण जिला कुलाबा महाराष्ट्र में हुआ था ।
फ़ड़के 1860 में पहले सरकारी कर्मचारी लगे थे। पर ब्रिटिश सरकार के निर्दयता पूर्ण कार्यो से दुःखी रहते थे । फड़के की माता जी के देहांत पर उन्हें अवकाश नहीं दिए जाने पर फड़के ने नोकरी छोड़ दी व ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध युद्ध की तैयारियों में लग गए।
फड़के जंगल में व्यायामशाला संचालित करते थे जिसमें अस्त्र-शस्त्र चलाना , घुड़सवारी करना सिखाते थे व गुरिल्ला युद्ध की तैयारी करवाते थे।
फड़के को शिक्षित लोगों का सहयोग नहीं मिला । फड़के ने बहादुर खामोशी जाति के लोगों की एक सेना तैयार और इसे घने जंगल व पहाड़ों से घीरे क्षेत्र में गुरिल्ला युद्ध मे दक्ष किया।
महाराष्ट्र में अकाल के कारण गरीब व आदिवासी जनता भूखे से मरने लगी पर फ़िरंगी सरकार के अधिकारीयों की लूट में कोई कमी नहीं आयी । भुखमरी से परेशान लोगों को फड़के ने भूख की बजाय बहादुरी की मौत मरने का पाठ पढ़ाया ।
फड़के शस्त्र खरीदने , अपनी सेना के खर्चों व गरीब जनता की सहायता हेतु खून चूसने वाले जमीदारों ,सेठों व सरकारी दफ्तरों व खजानॉन को लूटना शुरू किया व गरीबों की सहायता भी की तथ लड़ाई जारी रखी ।
फड़के ने फरवरी 1879 में अंग्रेजों के विरुद्ध युद्ध की घोषणा करते हुए अपने दल का एक घोषणा पत्र तैयार कर लोगों को क्रांतिकारी सरकार बनाने के विचार व दर्शन को समझाया ।
फड़के के नाम से फिरंगी सरकार हिल गई और मुंबई में क्रूर अधिकारियों की नियुक्ति की । मेजर डेनियल ने फड़के को जिंदा या मुर्दा गिरफ्तारी करने वाले को इनाम की घोषणा की फड़के ने इसकी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए मुंबई के गवर्नर रिजल्ट टेंपल, पुणे के मजिस्ट्रेट सेशन जज व अन्य अधिकारियों का सर काट कर लाने वालों को इनाम देने की घोषणा करते हुए शहर में इश्तिहार चिपकवा दिए।
फड़के ने 1874 में घामरी व तोरण की किलो पर कब्जा कर लिया।
अंग्रेजों के खूंखार सेनाअधिकारी मेजर डेनियल को तुलसीघाटी में आमने-सामने की लड़ाई हुई छक्के छुड़ा दिए ।
एक बार तो फड़के ने पुणे की अदालत में ही आग लगा दी थी।
फड़के का गणेश जोशी व महादेव गोविंद रानाडे से संपर्क था ।
फड़के द्वारा संचालित व्यामशाला में बाल गंगाधर तिलक भी जाते। फड़के 20 जुलाई 1879 को देवनागरीमांगी गांव के एक बोध मठ में आराम कर रहे थे सूचना होने पर घेर लिए गए सोते हुए शेर को गिरफ्तार कर लिया गया।
फ़ड़के अपना नाम व वेश बदलकर काशीराम बाबाके छदम नाम से रहते थे। फड़के पर देशद्रोह का मुकदमा चलाया गया और उन्हें आजीवन काले पानी की सजा दी गई । मुकदमा में फ़ड़के की पैरवी श्री महादेव आप्टे ने की । फड़के समझदार व देशभक्त थे ।
फड़के ने भरी अदालत में सिंह गर्जना करते हुए कहा
“” हम भारत माता के पुत्र आज घृणा की वस्तु बन चुके हैं। परतंत्रता की इस लज्जा जनक अवस्था में मृत्यु कहीं हजार गुना अच्छी है। स्वतंत्र भारत का जनतंत्र स्थापित करना मेरे हृदय की आकांक्षा हैं।
मैं स्वीकार करता हूं की मैंने अपने भाषणों में अंग्रेजों की हत्या करने और अंग्रेजी साम्राज्य को नष्ट भ्रष्ट करने का उपदेश दिया “”
फड़के को आजीवन कारावास का दण्ड देकर अंडमान जेल में भेजा जाना था लोगों को इसकी खबर लग गई । जिस रेलगाड़ी से फड़के को ले जाया जा रहा था वो रेलगाड़ी जिस स्टेशन से गुजरती लोग हर स्टेशन पर फ़ड़के का फूलमालाओं व जयकारों से स्वागत करते थे ।
ज़ोरदार बात यह रही कि एक ब्रिटिश महिलाएं श्रीमती हिगस ने फड़के को गुलदस्ता भेंट किया।
फड़के को दिए जा रहे सम्मान से सरकार इस कदर डर गई थी की फड़के को अंडमान जैल में भेजने की बजाय प्रायद्वीप की अदन जेल में भेज दिया ।
जेल में फड़के को अमानवीय यातनाएं दी गई
उल्टा लटकाकर गर्म सलाखों से दागा गया । एक बार फड़के जेल भाग भी गए पर पकड़े गए । जेल खाना भी अच्छा नहीं दिया जाता था । फड़के ने जेल में अनशन भी किया लेकिन इसका दुष्ट सरकार पर कोई असर नहीं हुआ ।
फड़के क्षय रोग से ग्रस्त हो गए व 17 फ़रवरी 1883 को स्वर्ग सिधार गए ।
शत शत नमन शहीदों को ।
क्रांति वीरांगना ननिबाला देवी
उनके पिता का नाम श्री सूर्यकांत बनर्जी और माता का नाम गिरिवाला देवी था।
ननिबाला का विवाह 11 वर्ष की आयु में ही हो गया था । विवाह के 5 वर्ष बाद उनके पति का देहांत हो गया।
क्रांति वीरांगना ननिबाला का जन्म1888 में हावड़ा जिला के गांव बाली में हुआ था।
ननिबाला के भतीजे अमरेंद्रनाथ चट्टोपाध्याय युगांतर क्रांतिकारी दल के सदस्य थे।
उनके कारण ननिबाला भी क्रांतिकारी गतिविधियों में भाग लेने लगी ।
प्रथम महायुद्धके समय बंगाल में जतिन बाघा के नेतृत्व में क्रांतिकारी गतिविधियां चर्म पर थी।
ननिबाला बंगाल के क्रांतिकारियों को अपने घर में आश्रय देती, उनके अस्त्र-शस्त्र छुपा कर रखती थी।
उन दिनों पुलिस ने कलकत्ता के श्रमजीवी समवाय संस्थान से क्रांतिकारी नेता रामचंद्र मजूमदार को गिरफ्तार कर लिया ।
रामचंद्र ने अपने पिस्तौल के कहीं छिपा दिया था जिसका पता लगाना जरूरी था।
क्रांतिकारियों के लिए एक पिस्तौल भी महत्वपूर्ण थी।
ननिबाला रामचंद्र की पत्नी बन कर जेल में गई व रामचंद्र से पिस्तौल व अन्य जानकारियां लेकर आई।
ननिबाला पुलिस की नज़र में आ गई।
बाघा जतिन की शहादत के बाद जादू गोपाल मुखर्जी के नेतृत्व में आंदोलन जारी था।
जतिन बाघा की जर्मनी से हथियार मंगवाने की योजना का अंग्रेजों को पता चल चुका था कर पुलिस क्रांतिकारियों को पकड़ने में पूरा जोर लगा रही थी।
क्रांतिकारी भूमिगत हो गए थे।
चंदननगर में सितंबर 1915 में ननिबाला ने एक मकान किराये पर लिया जिसमे क्रांतिकारी जादूगोपाल मुखर्जी, अमर चटर्जी, अतुल घोष, भोलानाथ चटर्जी, विजय चक्रवर्ती, विनय भूषण दत्त को आश्रय दिया। इन सभी के क्रांतिकारियों को पकड़ाने वाले को हजार-हजार रुपये के ईनाम घोषित थे।
पुलिस को पता चल गया था कि ननिबाला ही रामचंद्र की पत्नी बन कर जेल में मिलने गई थी ।
ननिबाला के पिता सूर्यकांत को पुलिस रोज पकड़ कर ले जाती और सारा दिन पूछताछ करती थी।
ननिबाला पुलिस से बच कर पेशावर जा रही थीं पर हेजे की शिकार हो गयीं और पुलिस ने ननि बाला को काशी जेल ले डाल दिया।
जेल में ननिबाला पुलिस की अमानवीय व असहनीय यातनाओं की शिकार हुई।
पुलिस ने ननिबाला को निर्वस्त्र कर उनके गुप्तांग में लालमीर्च का पाउडर डाल कर असहनीय दुःख दिया पर ननि बाला ने क्रांतिकारियों के बारे में कोई सूचना नहीं दी।
जेल में ननिबाला ने भूख हड़ताल के समय गुप्तचर विभाग के अधीक्षक गोल्डी को अपनी मांग का पत्र दिया जिसे गोल्डी फाड़ दिया इस पर ननिबाला ने गोल्डी के मुंह पर घुसा मार दिया था ।
आम माफ़ी के समय ननि बाला जेल से रिहा की गई। समाज में ननिबाला को कोई सहारा नहीं मिला।
बीमार होने पर ननि बाला को एक साधु ने सेवा की । तत्पश्चात ननि बाला ने गेरुआ धारण कर लिया।
गुमनामी में ननि बाला देवी का 1967 में देहांत हुआ।
शत शत नमन वीरांगना को।
अंबिका चक्रवर्ती
अंबिका प्रसाद चक्रवर्ती चटगांव सशस्त्र क्रांति के योद्धा थे। मास्टर “दा” भारत के महान क्रान्तिकारी सूर्य सेन के नेतृत्व में 18 अप्रैल 1930 को भारतीय स्वतंत्रता सेनानियों द्वारा चटगांव (अब बांग्लादेश में) में पुलिस और सहायक बलों के शस्त्रागार पर कब्जा किया गया था।
विस्तृत रूप में हमारी वैब पर “सुपर एक्शन चटगांव ” पढ़े।
इस योजना में टेलीफोन और टेलीग्राफ तारों को काटने और ट्रेन की गतिविधियों को बाधित करने वाले दल में अंबिका चक्रवर्ती ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी ।
22 अप्रैल 1930 की दोपहर को चटगांव छावनी के पास जलालाबाद पहाड़ियों में क्रांतिकारियों को कई हज़ार सैनिकों ने घेर लिया।
इस लड़ाई में अंबिका भी घायल हुए थे पर पलायन में सफल हो गए।
इस घटना के प्रतिरोध पर क्रांतिकारियों को पकड़ने के लिये एक तीव्र छापेमारी शुरू हुई।
चट गांव एक्शन में अंबिका को 1930 में फांसी की सजा सुनाई गई पर बाद इसे आजीवन कारावास में बदल कर अंबिका को अंडमान जेल में भेज दिया गया।
जेल में उनका झुकाव साम्यवाद की तरफ हो गया । जेल से रिहा होने के बाद अंबिका कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य बने।
कम्युनिस्ट आंदोलन में अंबिका 1949 से 1951तक जेल में रहे।
1952 में पश्चिमी बंगाल विधानसभा से निर्वाचित हुए।
अंबिका का जन्म जनवरी 1892 में बर्मा में हुआ था।
6 मार्च 1962 को एक सड़क दुर्घटना में अंबिका का देहांत हुआ।
शत शत शत
:-चारु चंद्र बोस-:
आज के दिन चारु चंद्र बॉस को दिनांक 19 मार्च 1999 को केंद्रीय कारागार अलीपुर में फांसी दी गई थी।
चारु चंद्र बोस बंगाल के क्रांतिकारी थे जो शारिरिक रूप से बहुत कमजोर दिखाई देते थे।
उनके दाहिने हाथ कीअंगुलिया नहीं थी।
आपने दाहिने हाथ के पिस्तौल बांधकर बांये की अंगुली से घोड़ा दबाकर पिस्तौल चलाने का अभ्यास किया।
सशस्त्र क्रांति के क्रम में बंगाल अनुशीलन समिति के क्रांतिकारी प्रफुल्ल चाकी व खुदीराम बोस द्वारा मुजफ्फरपुर में कसाई काजी किंग्फोर्ड की गाड़ी पर बम फेंका था।
इसके बाद पुलिस ने छापे मारे और बारीन्द्र दल के 38 क्रांतिकारियों को गिरफ्तार कर उन पर मुकदमा चलाया गया ।
जिसे इतिहास में अलीपुर षड्यंत्र कहा जाता है ।
हम उसे अलीपुर एक्शन कहेंगे।
अलीपुर मामले में की अदालत सुनवाई में सरकार की तरफ से आशुतोष विश्वास पैरवी करते थे।
आशुतोष ने क्रांतिकारियों को सजा दिलाने के उद्देश्य से झूठे गवाह बनाकर पेश किए।
जिसके कारण वह क्रांतिकारियों के टारगेट पर था ।
दिनाँक 10 फरवरी 1909 को आशुतोष विश्वास अलीपुर अदालत से निकलने वाले थे।
क्रांतिवीर चारु चंद्र ने आशुतोष को गोलियों से उड़ा दिया
चारु मौका पर ही गिरफ्तार कर लिए गए थे।
चारुपर मुकदमा चला फाँसी की सजा सुनाई गई
चारु को दिनांक 19 मार्च 1999 को केंद्रीय कारागार अलीपुर में फांसी दे दी गई।
शत शत शत नमन
भारतीय वहाबी आंदोलन के शहीद
भारत मे सन 1820 से 1870 की अवधि में वहाबी आंदोलन का केंद्र पटना था।
सन 1863 में सीमा प्रांत में बहावियोँ के मल्का किले पर वायसराय एलगिन ने सेना भेजकर कब्जा कर लिया था।
वहाबी नेताओं को सार्वजनिक रूप से कोड़े लगाए गए , अंग भंग कर सजा दी गई ,अनेकों को फांसी दी गई व अनेकों को काला पानी भेजा गया ।
बहावी नेता आमिर खान व अन्य को Regulatning Act 1818 के अंतर्गत कैद किया गया था।
जिसकी सुनवाई खुले न्यायालय में किये जाने हेतु कलकत्ता हाई कोर्ट में अपील की गई थी ।
उस समय कलकत्ता हाई कोर्ट के कार्यवाहक मुख्य न्यायाधीश जॉन पैक्सटन नॉरमन ने अपील को अस्वीकार कर दिया।
जिससे से रुष्ट होकर वहाबी नेता अब्दुल्लाह ने दिनांक 20 सितंबर 1971 को नॉर्मन पर छुरे से हमला किया जिससे 21 सितम्बर को नॉर्मन की मृत्यु हो गई।
अब्दुल्ला को इस हत्या के लिये फांसी दी गई व उसके पार्थिव शरीर को सड़कों पर घसीटा गया व आग लगा कर जला दिया गया।
उस समय लार्ड मेयो ने कहा था मैं सब वहाबियों की खत्म कर दूंगा। इन बातों से वहाबी नेता नाराज़ थे व अंग्रेजों से प्रतिशोध लेना चाहते थे।
इसी क्रम में अंडमान जेल के एक कैदी वहाबी नेता शेरअली ने दिनाँक 8 फ़रवरी 1872 को अंडमान जेल में गवर्नर जनरल लार्ड मेयो की चाकू से आक्रमण कर हत्या की।
शेरअली वहाबी नेता थे जिन्हें अपने रिश्तेदार की हत्या के मामले में उम्रकैद कालापानी की सजा हुई थी।
शेरअली का कहना था उसे झूठे मुकदमा में सजा की गई थी।
मुख्यन्यायाधीश नॉर्मन व लार्ड मेयो की हत्या का कारण वहाबी आंदोलन था।
वहाबी बेशक इस्लाम समर्थक थे पर भारत से अंग्रेजों को भगाना उनका भी लक्ष्य था।
इसलिए अब्दुल्ला व शेरअली को भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के सिपाही कहने में कोई शंका नहीं होनी चाहिए।
स्वतंत्रता दिवस 2020
मणींन्द्र नाथ बनर्जी
आपका जन्म 13 जनवरी 1909 को गांव पांड्याघाट उत्तर प्रदेश में हुआ था
आप हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन के साथ जुड़े हुए थे।
आप राजेंद्र लाहिड़ी को अपना क्रांतिकारी गुरु मानते थे ।
आपके सात भाई थे सारे ही क्रांतिकारी थे ।
आपके मामा जितेंद्रनाथ बैनर्जी (खुफिया विभाग के उप पुलिस अधीक्षक )काकोरी मामले में गवाह थे
मणीन्द्र काकोरी एक्शन में अपने क्रांतिगुरु राजेन्द्र लाहिड़ी को हुई फांसी की का कारण अपने मामा की गवाही मानते थे।इसलिए बदला लेना चाहते थे।
आपने दिनांक 13 जनवरी 1928 को जितेंद्र नाथ बैनर्जी को गुदौलिया बनारस में अपने पिस्तौल से तीन गोलियां मारकर वध कर दिया ।
एक्शन के बाद आपने अपने आप को पुलिस के सुपुर्द कर दिया।
आपको इस मुकदमा में 10 वर्ष की सजा हुई ।
केंद्रीय कारागार फतेहगढ़ (उत्तर प्रदेश ) में आपने क्रांतिकारी कैदियों से किये जा रहे दुर्व्यवहार के विरुद्ध 14 मई 1934 भूख हड़ताल की शुरू की ।
उस समय क्रांतिकारी मन्मंथनाथ गुप्त व यशपाल भी इसी जेल में थे।।
भूखहड़ताल सेआपकी हालत बिगड़ती गई व दिनाँक 20 जून 1934 को आपने मनमंथनाथ की गोद में अपने प्राणों की आहुति दी।
शत शत नमन
विजय सिंह पथिक
विजय सिंह पथिक
आपका वास्तविक नाम भूप सिंह था। आपका जन्म 27 फरवरी 1882 को बुलन्दशहर जिले के ग्राम गुठावली कलाँ के एक अहीर परिवार में हुआ था।
सन 1907 में इंदौर में युवावस्था में ही आपका सम्पर्क विख्यात क्रांतिकारी शचीन्द्र नाथ सान्याल से हुआ से व फिर राशबिहारी बॉस ढाका अनुशीलन समिति के वरिंदर के युगांतर से दल से अब जुड़ गए क्रान्तिकारियों से हो गया था।
दिनाँक 2 मई 1908 को अलीपुर एक्शन के मामले में मानिकतला बाग में युगान्तर दल की बम्ब बनाने की फैक्टरी में आपको भी गिरफ्तार किया गया था परंतु अब कोई सबूत नहीं होने के कारण आपको छोड़ दिया गया।
दिल्ली में लॉर्ड हार्डिंग पर बम फेंकने के एक्शन में प्रतापसिंह बारहट के साथ आप भी शामिल थे।
रासबिहारी बोस की योजना के अनुसार आपने राजपूताना के राज परिवारों से संपर्क किया और उन्हें आजादी की लड़ाई हेतु तैयार किया।
आपके राजपूताना के क्रांतिकारी अर्जुन लाल सेठी , खरवा के राव गोपाल सिंह, ब्यावर के सेठ दामोदर दास, प्रतापसिंह जी बारहठ आदि से अच्छे संबंध थे।
आप लोगों ने वीर भारत माता का सभा” का गठन किया था।
आपके श्यामजी कृष्ण वर्मा क्रांतिकारी अरविंद घोष से भी अच्छे संबंध थे।
उस दिनों 4 कारतूस एक साथ चलाने वाली बंदूकों के कारतूस नहीं मिलने के कारण आपने ऐसी बंदूकें सस्ते भाव में खरीदी और इनकी गोलियां कारतूस बनाने के प्रशिक्षण हेतु रेलवे में नौकरी भी की।
रासबिहारी बोस के नेतृत्व में समस्त भारत के क्रांतिकारियों व विदेशों से आए गदर पार्टी के सदस्यों ने 21 फरवरी 1915 को समस्त भारत में अंग्रेजों पर एक साथ सशस्त्र हमला करने की योजना बनाई थी।
राजपूताना में इस योजना का दायित्व आप व राव गोपालसिंह जी पर था।
तय योजना के अंतर्गत 19 फरवरी 1915 को अजमेर से अहमदाबाद गाड़ी पर बम फेंका जाना था जो क्रांति का सिग्नल था।
सिग्नल मिलने के पश्चात आपको नसीराबाद में अंग्रेजों पर सशस्त्र आक्रमण करना था ।
राजपूताना में खरवा के जंगलों में आप और आपके हजारों क्रांतिकारी साथी बम्ब व बंदूके धारण किये तैयार थे।
फरवरी 1915 की क्रांति के बारे में एक गद्दार कृपाल सिंह द्वारा पुलिस समस्त सूचना ददी ।
अंग्रेजों ने छावनीयों में भारतीय सैनिकों से हथियार ले लिए गए व बहुत बड़ी संख्या मर गिरफ्तारीयां हो गई जिसके कारण क्रांति सफल नहीं हुई।
क्रांति का सिग्नल नहीं मिलने के कारण आप आपके साथी इधर-उधर छिप गए।
आपके साथ राव गोपाल सिंह, मोर सिंह व सवाई सिंह आदि थे।
आप अपने साथियों के साथ। “शिकारी बुर्जी “ में आश्रय लिए हुए थे।
उसी समय अजमेर कमिश्नर ने पुलिस के साथ आप का घेराव कर लिया ।
आपने बुर्जी के अंदर से मुकाबले हेतु मोर्चे संभाल लिए ।
जिसके कारण कमिश्नर डर गया क्योंकि आपका उस क्षेत्र में अच्छा प्रभाव था और फायरिंग की स्थिति में जन आंदोलन होने की संभावना थी।
अंततः सरकार से हुए समझौता के अनुसार आप लोग डोरगढ़ के किले में नजर बंद किया गया।
इस बीच आपके नाम से फिरोजपुर मामले में आपके गिफ्तारी वारण्ट जारी हो गए थे।
आपने एक डोरगढ़ के किले से साधु का भेष बनाकर फरार हो गए।
उस समय आपने अपना नाम। विजय सिंह पथिक रखा था।
इसके बाद आप यहां से एक दो रियासतों के राजाओं के पास आश्रय हेतु गए परंतु उन्होंने आप को आश्रय देने से मना कर दिया ।
वहाँ से निकलने के लिए उनके वाहन मांगे तो पहचाने जाने के डर से वाहन भी उपलब्ध कराने से मना कर दिया।
आप रात को एक जंगल में सोए हुए थे कि शेर ने अपने मुंह मे आप भी टांग पकड़ कर जंगल की ओर घसीटने लगा
आप की आंख खुली तो आपने बिना घबराहट के अपने पिस्तौल से शेर को गोली मार कर मार दिया।
एक बूढ़ी औरत के यहां आश्रय लिया क्रांतिकारीयों के फ़रार होने के बारे में खबरें फेल चुकी थी ।
उस औरत को एहसास हो गया की हो ना हो आप क्रांतिकारियों में से ही एक है ।
इसलिए उसने अपने बेटे को भेजकर एक घोड़ी की व्यवस्था की और आपको वहां से फरार होने का मौका दिया ।
इसके बाद आप गुरला ठाकुर के पास रुके फिर ईश्वरदान जी चारण (प्रताप सिंह बारहठ के बहनोई) के पास उनके गांव में घ गए उस समय ईश्वरदान जी घर पर नहीं थे।
बिजौलिया से आये एक साधु सीताराम दास आपसे बहुत प्रभावित थे ।
उसने आपको बिजोलिया किसान आन्दोलन का नेतृत्व सम्भालने को आमंत्रित किया।
बिजोलिया में किसानों से 84 मालगुजारी(लागें) वसूली जाती थी । जिनके किसानों की दशा आर्थिक रूप से बहुत खराब हो गई थी ।
आपने 1916 में बिजौलिया जाकर किसान आन्दोलन की कमान अपने हाथों में ली।
आपने किसानों के 13 सदस्यों का एक पंच मंडल बनाया। प्रत्येक गाँव में किसान पंचायत की शाखाएँ खोली। क्षेत्र के समस्त किसानों को एकत्रित किया।
आपके आंदोलन में महिलाओं ने भी भाग लिया। सरकारी सेना ने गोलियां चलाई जिसमें सुपाजी व कर्माजी नामक किसान शहीद हुए ।
किसान आंदोलन अलवर
मेवाड़ ,बूंदी ,सिरोही में शुरू होक में
सीकर तारवाटी , उदयपुरवाटी में हरलाल सिंह के नेतृत्व में जमींदारों के खिलाफ किसान आंदोलन शुरू हुआ।
राजस्थान में करीब 2000 किसान शहीद हुए ।
बिजोलिया आंदोलन के समाचार को खूब प्रचारित किया था।
गणेश शंकर विद्यार्थी ने कानपुर से प्रकाशित अपने समाचार पत्र। ” प्रताप” व बाल गंगाधर तिलक ने अपने समाचार पत्र मराठा में आंदोलन का प्रचार किया।
आपके प्रयत्नो से बाल गंगाधर तिलक ने अमृतसर 1919 में कांग्रेस की बैठक में बिजौलिया आंदोलन सम्बन्धी प्रस्ताव रखा गया।
आपने बिजोलिया किसानों के सम्बंध में बम्बई जाकर गांधी जी से भी चर्चा की।
गांधी जी नेविश्वास दिलाया कि मेवाड़ सरकार द्वारा किसानों को राहत नहीं दी जाती है तो गांधी जी स्वयं ने बिजौलिया आकर सत्याग्रह करेगें।
आपके प्रयत्नों से 1920 में अजमेर में राजस्थान सेवा संघ की स्थापना हुई।
इस संस्था की शाखाएँ पूरे प्रदेश में खुल गईं।
इस संस्था ने राजस्थान में कई जन आन्दोलनों का संचालन किया।
सन 1920 में आप अपने साथियों के साथ नागपुर अधिवेशन में शामिल हुए और बिजौलिया के किसानों की दुर्दशा और देशी राजाओं की निरंकुशता को दिखाती हुई एक प्रदर्शनी का आयोजन किया।
गांधी जी ने अहमदाबाद अधिवेशन में बिजौलिया के किसानों को हिजरत करने यानी क्षेत्र छोड़ चले जाने की सलाह दी।
जिस आपने विरोध करते हुए कठोर शब्दों में कहा
यह तो केवल हिजड़ों के लिए ही उचित है , मर्दों के लिए नहीं।
सन् 1921 के आते-आते पथिक जी ने राजस्थान सेवा संघ के माध्यम से बेगू, पारसोली, भिन्डर, बासी और उदयपुर में शक्तिशाली आन्दोलन किए।
बिजौलिया आन्दोलन अन्य क्षेत्र के किसानों के लिए प्रेरणा स्रोत बन गया था।
राजस्थान में किसान आन्दोलन की लहर चल पड़ी है।
इस बीच में बेगू में आन्दोलन तीव्र हो गया।
मेवाड सरकार ने बेगू आंदोलन में आपको 10 सितम्बर 1923 को गिरफ्तार कर लिया और उन्हें पाँच वर्ष की सजा सुना दी गई।
कैद के बाद आप अप्रैल 1927 में रिहा हुए।
अंतत: सरकार ने राजस्थान के ए० जी० जी० हालैण्ड को बिजौलिया किसान पंचायत बोर्ड और राजस्थान सेवा संघ से बातचीत करने के लिए नियुक्त किया।
शीघ्र ही दोनो पक्षों में समझौता हो गया।
किसानों की अनेक माँगें मान ली गईं।
चैरासी में से पैंतीस लागतें माफ कर दी गईँ।
दोषी अधिकारियों के विरुद्ध कार्यवाही की गई ।
आपका 28 मई 1954 को स्वर्गवास हुआ।
आपने प्रारंभिक विद्यालयी शिक्षा ग्रहण की थी । पर अभ्यास से आपने हिंदी, उर्दू, इंग्लिश व मराठी भाषा का ज्ञान प्राप्त किया।
आप क्रांतिकारी होने के साथ साथ कवि, लेखक और पत्रकार भी थे।
आपने अजमेर से ” नवसंदेश “
और “राजस्थान संदेश ‘ के नाम से व वर्धा से। ‘राजस्थान केसरी’ हिन्दी के अखबार भी निकाले।
अजमेर से ही पथिक जी ने नया पत्र नवीन राजस्थान प्रकाशित किया।
आप “तरुण राजस्थान ” नाम के एक हिन्दी साप्ताहिक में
“राष्ट्रीय पथिक” के नाम से अपने विचार भी व्यक्त किया करते थे।
आपने अजय मेरु (उपन्यास)लिखा
उनके काम को देखकर ही उन्हें राजपूताना व मध्य भारत की प्रांतीय कांग्रेस का अध्यक्ष नियुक्त किया गया था।
भारत सरकार ने विजय सिंह पथिक की स्मृति में डाक टिकट भी जारी किया।
आपकी कविता,
“यश वैभव सुख की चाह नहीं, परवाह नहीं जीवन न रहे;
यदि इच्छा है तो यह है-जग में स्वेच्छाचार दमन न रहे।”
, लोकप्रिय हुई।
पूरे राजस्थान में वे राष्ट्रीय पथिक के नाम से अधिक लोकप्रिय हुए।
शत शत नमन
बिरसा मुंडा
बिरसा मुंडा का जन्म 15 नवंबर 1875 को छोटा नागपुर बिहार में चालकाड के निकट एक गांव में हुआ था।
बिरसा बचपन में मिशन स्कूल में पढे थे । इसलिए उसे बिरसा डेविड कहते थे।
उस समय अंग्रेज बड़े जमीदारों की मार्फ़त किसानों से जमीन का लगान वसूल करते थे।
बनवासी लोग अशिक्षित थे। जिसके कारण बनवासी लोगों का सेठ साहूकार व जमीदार शोषण करते थे।
बिहार में 1899 से 1900 तक बिरसा मुंडा के नेतृत्व में मुंडा विद्रोह हुआ।
मुंडा विद्रोह परंपरागत शस्त्र लाठी तलवार , भालों से लड़ा गया था।
इसके मूल में आज़ादी का सपना था । बिरसा ने पुराण ,महाभारत, रामायण व वैदिक गर्न्थो का अध्ययन किया था।
बिरसा स्वराज का पक्षधर था।
इस आंदोलन का नारा था –
“तुन्दु जाना ओरो अबुजा राज एते जाना “
बिरसा ने तत्समय के साहूकारी,जमीदारी जंगल कानूनों के खिलाफ 1 अक्टूबर 1894 को मुंडा लोगों एकत्रित कर लगान माफी के लिये अंग्रेजो कर खिलाफ आंदोलन शुरू किया।
इस आंदोलन ने कालांतर में सशस्त्र क्रांति का रूप ले लिया।
बिरसा को आदिवासी/ बनवासियों लोगो को भड़काने के आरोप में 1895 में गिरफ्तार कर लिया गया तथा उन्हें दो साल की सजा देकर हजारीबाग केन्द्रीय कारागार में डाल दिया गया।
बिरसा ने अकाल के समय मुंडा लोगों की जीजान से सेवा की इसलिए बिरसा को“धरती बाबा” के नाम से पुकारा जाता था।
1897 से 1900 के बीच मुंडाओं और अंग्रेज सिपाहियों के बीच युद्ध होते रहे । मुंडो अंग्रेजों की नाक में दम करे रखा
अगस्त 1897 में बिरसा ने अपने दल सहित तीर कमानों से लैस होकर खूँटी थाने पर धावा बोला।
सन 1898 में तांगा नदी के किनारे मुंडाओं की भिड़ंत अंग्रेज सेनाओं से हुई।
जनवरी 1900 डोमबाड़ी पहाड़ी पर संघर्ष हुआ ।
बिहार, उड़ीसा, झारखंड, छत्तीसगढ और पश्चिम बंगाल के आदिवासी इलाकों में बिरसा मुण्डा को भगवान की तरह पूजा जाता है।
इसे क्रूरता से दबा दिया गया । मुंडा के पुत्र सनौर को फांसी दी गई।
मुंडा के दूसरे पुत्र जोयमासी को आजीवन कारावास दिया गया।
मुंडा की पुत्र वधु माकी को 6 वर्ष का कारावास दिया गया ।
बरस का पूरा परिवार जेल भेज दिया गया।
अन्त में बिरसा को 3 फरवरी 1900 को चक्रधरपुर में गिरफ़्तार कर रांची जेल में डाल दिया गया।
कहा जाता है कि बिरसा को जेल में धीमा जहर दिया गया जिसके कारण बिरसा 9 जून 1900 में शहीद हो गए।
बिरसा मुंडा के आंदोलन का अंग्रेजों पर प्रभाव पड़ा ।
अंग्रेजों ने छोटा नागपुर काश्तकारी अधिनियम 1908 में लागू कर मुंडा आंदोलन की कुछ मूलभूत मांगों का निराकरण किया गया।
अंग्रेजों ने कानून बनाकर प्रावधान बनाया कि बनवासी की भूमि को अन्य कोई नहीं खरीद सकेगा ।
आज आजादी के 70 वर्ष बाद आज भी बनवासी लोगों को अपने मूलाधिकार प्राप्त नहीं है।
बनवासियों की भूमि बलपूर्वक छीनली गई है।
बनवासियों के भरणपोषण का कोई साधन नहीं है।
सरकारें की मदद से बड़े पूंजीपतियों को बनवासियों को उनकी भूमि से बेदखल किया जा रहा है।
अब तो बनवासियों के क्षेत्र में भी राजनीति होने लगी है।
बनवासियों का आंदोलन राजनीतिक शिकार हो गया है।इसे उग्रवादियों का आवरण पहना दिया गया है।
मध्य प्रदेश ,गुजरात ,तेलंगाना, महाराष्ट्र, हिमाचल , ओडिशा, राजस्थान ,आंध्र प्रदेश, झारखंड छत्तीसगढ़ के अलावा भी अन्य राज्यों में वनवासी लोग रह रहे हैं।
सन 2011 के आंकड़ों के अनुसार भारत में 10 करोड़ 42 लाख 81हजार 34 बनवासी है।
हमारे संविधान के अनुसार भी अनुसूचित जाति जनजाति आयोग बनाने के प्रावधान है।
परंतु आज तक देश में दो बार आयोगों का गठन हुआ।
बनवासियों के लिए कोई नीति नहीं बनी है
बनवासी मुख्यमंत्री भी रहे परंतु आम बनवासी की हालत आज भी चिंताजनक है।
आज बनवासियों को अपना आबा चाहिए
तांत्या भील उर्फ टण्ड्रा भील
आपका जन्म जिला निमाड़ के पास गांव बिरदा में सन 1842 में हुआ ।
उस समय अंग्रेज बड़े जमीदारों की मार्फ़त किसानों से जमीन का लगान वसूल करते थे।
फसलें खराब होने के कारण आपके द्वारा अपनी पोखर की पैतृक जमीन का लगान जमा नहीं करायाया जा सका
जिसके कारण शिवा पटेल नामक मालगुजार जमींदार ने आपको अपनी पैतृक जायदाद से बेदखल कर दिया।
टण्ड्रा को कहीं न्याय नहीं मिला जिसके कारण टण्ड्रा के मन मे अंग्रेजी शासन व जमीदारों मालगुजारों के प्रति घृणा पैदा हो गई।
गांव पोकर वासियों ने षड्यंत्र करके तत्कालीन कानून के अंतर्गत टण्ड्रा को पर बदमाशी करने का मुकदमा करवा कर एक साल की सजा करवा दी।
जेल से निकलने के बाद टण्ड्रा अपने गांव पोखर गया पर वहां के लोग टण्ड्रा के खिलाफ थे।
इसलिए हीरापुर गांव में बस गया वहाँ 7 वर्ष तक मजदूरी करके अपना जीवन व्यतीत किया ।
लेकिन पोकर गांव वालों ने टण्ड्रा को चोरी के झूठे मुकदमा में फसा दिया।
चोरी के अपराध का कोई सबूत नहीं मिला इसलिए टण्ड्रा को छोड़ दिया गया।
टण्ड्रा ने गिफ्तारी के समय पुलिस के साथ हाथापाई की थी । उसके लिए टण्ड्रा को तीन माह की सजा दी गई ।
इस सजा के बाद वापस आकर टण्ड्रा ने इंदौर रियासत में आश्रय लिया ।
पोकर वासियों ने टण्ड्रा को सुभान नामक भील के घर चोरी के झूठे मुकदमा में फसा दिया ।
पुलिस गिफ्तारी के डर से टण्ड्रा गांव छोड़कर भाग गया।
टण्ड्रा ने अपनी जाति के कुछ भीलों को लेकर अपना एक दल बनाया ।
टण्ड्रा ने निमाड़ जिले के खजूरी गांव के बिजनिया नामक एक दिलेर व शक्तिशाली भील डाकू से मुलाकात कर उसे भी अपनी टोली में मिला लिया।
टण्ड्रा के दल के लोगों के परिवार पहाड़ी जंगलों में बस गए।
सरदार पटेल नामक व्यक्ति ने टण्ड्रा व उसके साथी विजेनिया व दोपिया को गिरफ्तार करा कर
चोरी का झूठा मुकदमा बनवाया व झूठे गवाह पेश कर सजा करवादी।
सजा के दिन टण्ड्रा ने भरी अदालत में हिमन पटेल नामक राजपूत्र को धमकी देते हुए कहा –
“पटील दाजी म्हारो नांव। टण्ड्रा छे मख पहीचाणी ल्यों । आज तो धोखासी मख फंसाई दीयो पण याद राखजो म्हारो नाम टण्ड्रा छे ।’
जेल में अन्य साथियों से मिलकर टुड्रा 15 फुट ऊंची दीवार फांद कर अपने साथियों सहित फरार हो गया।
टण्ड्रा जेल से फ़रार होने के बाद अपना संगठन तैयार किया ।
अपने दुश्मन मालगुजारों उनके झूठे गवाहों के घर जला दिए।
टण्ड्रा ने दुश्मनों की महिलाओं की तरफ आंख उठा कर भी नहीं देखा ।
टण्ड्रा ने 1878 से 1886 तक लगभग 400 डाके डाले।
टण्ड्रा बड़े जमींदारों व जनता का खून चूसने वालों के यहां डाके डालता था ।
टण्ड्रा डाको से प्राप्त धन को गांव के गरीब लोगों में बांट देता था। गांव के लोग टण्ड्रा को मामा कहते थे।
गणपत नामक एक व्यक्ति ने टण्ड्रा को माफी दिलाने का विश्वास दिला कर मेजर ईश्वरी प्रसाद के हाथों धोखे से गिरफ्तार करवा दिया।
टण्ड्रा पर हत्या व डकैती के मुकदमे चले।
टण्ड्रा को जबलपुर डिप्टी कमिश्नर अदालत से 26 सितंबर 1889 / 19 अक्टूबर 1889 को फांसी की सजा सुनाई गई ।
अक्टूबर-नवंबर 1888 में या 4 दिशम्बर 1889 टण्ड्रा को फांसी दे दी गई।
तिथियों पर विवाद है
टण्ड्रा को भील लोग देवता मानते थे उनका विश्वास था टुण्ड्रा को त ईश्वरीय शक्ति प्राप्त है।
टण्ड्रा को फांसी की सजा सुनाए जाने के बाद द न्यूयॉर्क टाइम्स अंतरराष्ट्रीय अंग्रेजी समाचार पत्र ने दिनांक 10 नवंबर 1889 को टण्ड्रा के सम्बंधित समाचार में टण्ड्रा को इंडियन रोबिन हुड बताया ।
इतिहास में टण्ड्रा को
इंडियन रोबिन हुड
कहा जाता है।
टण्ड्रा के नामसे पुलिस भयभीत रहती थी।
टुड्रा को पता चला कि उसे गिरफ्तार करने हेतु एक विशेष पुलिस अधिकारी आ रहा है।
टण्ड्रा स्टेशन पर कुली बन कर चला गया और उसने पुलिस अधिकारी का सामान लेकर उसके साथ थाने चला गया।
पुलिस अधिकारी से बातचीत में कुली से टण्ड्रा के बारे बातचीत की तो कुली ने टण्ड्रा के छिपने की जगह का ज्ञान होना बताया व पुलिस अधिकारी को जंगल मे ले गया ।
पुलिस अधिकारी गुप्त रूप से टण्ड्रा को गिरफ्तार करने के इरादे से कुली के साथ चला गया।
गहरे जंगल मे ले जाकर कुली ने कहा कहा मैं टण्ड्रा हूँ पकड़ो
पुलिस अधिकारी घबरा गया । टण्ड्रा जंगल में लापता हो गया।
एक बार टण्ड्रा हजाम बनकर पुलिस अधिकारी के घर हज़ामत करने चला गया।
टण्ड्रा के बारे में बातचीत होने लगी तो हजाम ने बातों में पूछा महाराज आप में इतनी हिम्मत है कि टुण्ड्रा को पकड़ लेंगे ?
अगर है तो पकड़ो ,
मैं ही टण्ड्रा हूँ ।
और फुर्ती से पुलिस अधिकारी का नाक काट कर भाग गए।
अजीत सिंह
आपका जन्म 23 फरवरी 1881 में लॉयलपुर पंजाब में हुआ था।। आप पंजाब के किसान आंदोलन के अग्रणीय नेता व क्रांतिकारी थे।
शहीद भगतसिंह आपके भतीजे थे।
इस कॉलोनी में काश्तकारों को कृषि भूमि आवंटित की गई।
अंग्रेजों ने कॉलोनाइजेशन व दो आब बारी के नामसे कानून बना कर नहर बनाने के नाम पर किसानों से उनकी जमीन ले ली गई थी ।
भूमि पर बहुत ज्यादा कर लगा दिए गए। जिसके कारण किसानों आर्थिक संकट से जूझना पड़ रहा था।
आपने अंग्रेजी शासन को चुनौती देते हुए औपनिवेशिक व्यवस्था के विरुद्ध आंदोलन शुरू किया।
आपने भारत माता सभा का गठन किया ।
आपने दिनाँक 3 मार्च 1907 को लॉयलपुर पंजाब में किसानों की बहुत बड़ी सभा का आयोजन किया।
उस सभा में समाचार पत्र ” झांग स्याल” के एडिटर बांके दयाल नें “पगड़ी संभाल जट्टा, पगड़ी संभाल ओए “
गीत सुनाया।
यह गीत पंजाब के किसानों में इतना विख्यात हुआ की किसान आंदोलन का नाम ही
” पगड़ी संभाल जट्टा आंदोलन” पड़ गया ।
आपके इस आंदोलन में लाला लाजपत राय, सूफ़ीअम्बाप्रसाद भी साथ थे।
आपको ‘देशविद्रोही’ घोषित कर दिया गया था।
आपको 20 मई 1907 को बंदी बनाकर मांडले जेल में भेज दिया गया। आपका अधिकांश जीवन जेल में बीता।
सन 1908 में रिहाई के बाद आप सूफ़ीअम्बाप्रसाद के साथ ईरान चले गए।
प्रथम विश्व युद्ध के समय आप तुर्किस्तान व जर्मनी में रहे।
बर्लिन में आपने लाला हरदयाल के साथ स्वतंत्रता संग्राम के लिए प्रयासरत रहे।
आपको 1906 में लाला लाजपत राय जी के साथ देश निकाले का दण्ड दिया गया था।
आपके आंदोलन से प्रभावित होकर लोकमान्य तिलक ने भी आपकी प्रशंसा की थी।
आप सन 1909 में भारत छोड़ अपना विदेश में चले गए थे।
आपने इरान , तुर्की, जर्मनी, ब्राजील, स्विट्जरलैंड, इटली, जापान आदि देशों में रहकर भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय रहे।
द्वितीय विश्वयुद्ध के समय आप इटली आगये ।
इटली रेडियो से आपने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के आह्वान किया।
इटली की हर के बाद आपको बंदी बना लिया गया।
आप भारत के विभाजन से अति व्यथित हुए।
कहा जाता है कि आपने नेताजी सुभाष चंद्र बोस को हिटलर और मुसोलिनी से मिलाया।
आपने 40 भाषाओं को सीख लिया था
आपका दिनाँक 15 अगस्त 1947 को आज़ादी के दिन ही डलहौजी में स्वर्गवास हुआ था।
शत शत नमन
चिन्ताकरण पिल्ले
आपका जन्म 15 सितंबर 1891 हो त्रिवेंद्रम त्रावणकोर में हुआ था। (जन्म की तिथि विवाद है)
आप तकनीकी शिक्षा हेतु
इटली गए और आप ने 12 भाषाएं सीखी।
सन 1914 में ज्यूरिख में इंटरनेशनल इंडिया कमेटी का गठन हुआ था ।
उसी समय आपने म्यूनिख में इंडियन इंटरनेशनल कमेटी का गठन किया था।
दोनों संस्थाओं का लक्ष्य देश की आजादी था।
कालांतर में अक्टूबर 1914 बर्लिन सभा मे दोनों संस्थाओं को एकीकरण कर दिया गया।
इस संस्था में राजा महेंद्र प्रताप बरकतउल्ला, बिरेन्द्र चट्टोपाध्याय, तारक नाथ, हेमचंद्र भी थे।
आपके जर्मनी के सम्राट केसर से संपर्क थे।
आपने बम बनाने व बम बरसा करने का प्रशिक्षण लिया ।
आप जर्मन नौसेना में भी रहे थे
काबूल की राजा महेन्द्र प्रताप द्वारा अस्थाई सरकार में आप पर विदेश विभाग का दायित्व था।
आप 1919 में दक्षिण अफ्रीका में गांधी जी से मिले थे ।
आपने 1924 में एक प्रदर्शनी लगाई थी जिसमें स्वतंत्रता से संबंधित चित्र लगाए ।
आपके नेहरूजी व विट्ठल भाई पटेल से भी संपर्क थे।
कहा जाता है आपने प्रथम विश्व युद्ध के समय बर्मा के रास्ते भारत मे अंग्रेजों पर आक्रमण की योजना बनाई थी।
जिसके आधार पर आप ने बर्लिन में नेताजी सुभाष चंद्र बोस को युद्ध न नीतियों के बारे में बताया था ।
आपने ही जापान से बर्मा सेना ले जाने की योजना का सुझाव दिया था।
आप इटली गए थे तो पीछे से
नाजियों ने बर्लिन में आपकी संपत्ति जप्त कर दी ।
विरोध करने पर आप को दंड दिया गया । आप मूर्छित हो गए परंतु आप का इलाज नहीं करवाने दिया गया।
23 मई 1934 को आप का स्वर्गवास हुआ
यह भी कहा जाता है कि रासबिहारी बोस से विचार-विमर्श कर आप सावरकर व अन्य क्रांतिकारीयों को अंडमान जेल से मुक्त कराने के लिए जापानी पनडुब्बी लेकर गए ।
आपकी पनडु्बी नष्ट कर दी गई।
शत शत नमन
पाण्डुरंग सदाशिव खानखोज
आप का जन्म दिनाँक 17 नवंबर 1883 में वर्धा, नागपुर, महाराष्ट्र में हुआ।
आपकी माध्यमिक शिक्षा नागपुर के नील सिटी हाई स्कूल में हुई।
आप बंगाली क्रांतिकारी सखाराम देउस्कर, ब्रह्मबांधव बंदोपाध्याय के संपर्क में आये।
आप 1906 में लोकमान्य तिलक के कहने पर भारत छोड़ कर संयुक्त राज्य अमेरिका में चले गए।
आप केलिफोर्निया व पोर्टलैंड में कृषि का अध्ययन करते हुए, क्रांतिकारियों गतिविधियों में भी शामिल रहे।
आप “हिंदुस्तान एसोसिएशन ” के गठन में लाला हरदयाल, पंडित काशीराम, विष्णु गणेश पिंगले, वीरेंद्रनाथ चट्टोपाध्याय, भूपेंद्रनाथ दत्त के साथ थे।
काशीराम इसमें संगठन अध्यक्ष थे
यही दल को कालांतर में गदरपार्टी का रूप दिया गया ।
आप गदर पार्टी का “प्रहार ” विभाग संभालते थे।
जिसके जिम्मे हथियार व बम्ब आदि उपलब्ध करवाना था।
गदरपार्टी की तरफ से आपको प्रथम विश्व युद्ध के समय भारत भेजा।
आप आते समय कुस्तुन्तुनिया में तुर्की के शाह अनवर पाशा से मिले व उनके सहयोग से अंग्रेजों को भारत से खदेड़ने के लिए युद्ध की योजना बनाई।
आप बलूचिस्तान गए वहाँ आपने जर्मन फौज के अधिकारी विल्हेल्म वासमस से मिलकर वाम में बलूचियों का संगठन तैयार कर
अस्थायी सरकार की घोषणा करदी
व सेना भी बनाली।
अंग्रेजों ने अमीर को अपने साथ मिला लिया।
आपको वहां से भागना पड़ा। आप बस्त गए वहाँ पकड़ लिये गए।
वहाँ से छूटकर नेपरिन गए। वहां अंग्रेजों ने अधिकार जमा कर लिया था।
अब आपने नेपरिन से शिरॉज (ईरान) गए। वहां जाने पर आपको सूफी अम्बाप्रसाद के कोर्टमार्शल कर हत्या कर दिए जाने का समाचार मिला।
हिम्मत हारना आपके शब्दकोश में था ही नहीं।
अब आप ईरान की फौज में भर्ती हो गए।
ईरान ने आत्म समर्पण
कर दिया।
आप 10 जून 1919 में भारत आये । यहाँ भी आजादी के लिए उपयुक्त परिस्थितियां नहीं थी।
आप बर्लिन गए वहां भूपेन्द्र नाथ दत्त व बीरेंद्र चट्टोपाध्याय के साथ रूस गए।
आप 1924 तक रूस में रहे।। आपका लेनिन से संपर्क था।
आप 1949 में कृषि सलाहकार के रूप में भारत आये।
लेकिन पांच महीने बाद लौट गए।
आप अप्रैल 1949 में मध्य प्रदेश सरकार के अतिथि के रूप में आए। एयरपोर्ट पर 12 घंटे इंतजार करना पड़ा। क्योंकि आपका नाम काली सूची में था।
फिर फरवरी 1950 से अगस्त 1951 तक डेढ़ साल के लिए भारत में निवास किया।
फिर विदेश गए।
1961 में, उन्हें भारतीय नागरिकता प्रदान की गई।
अन्ततः आप 1955 में स्थायी निवास के लिए नागपुर आए।
आपका दिनाँक 22 जनवरी 1967 को स्वर्गवास हुआ।
देश की आजादी के लिए आप अपनी उम्रभर चीन, जापान, अमेरिका, कनाडा, ग्रीस, तुर्की, ईरान, बलूचिस्तान सीमा, फ्रांस, जर्मनी, रूस, मैक्सिको में अपनी गतिविधियों को जारी रखा।
शत शत नमन
मन्शा सिंह
प्रथम विश्वयुद्ध के समय आप जर्मनी के मोर्चे पर थे ।
अंग्रेजों ने प्रथम विश्व युद्ध के समय यह वायदा किया था कि युद्ध के पश्चात भारत को आजाद कर दिया जाएगा।
अंग्रेजों की वायदाखिलाफी से रुष्ट होकर आपने फ़ौज की नोकरी छोड़ दी।
उस समय दयानंद उर्फ दयाराम क्रांतिकारी दल गठन हेतु बंगाल से आए हुए थे ।
आप अमृतसर नोजवान सभा के सदस्य बन गए ।
क्रांतिकारी दलों द्वारा हथियार खरीदने हेतु धन के प्राप्ति के लिए बड़े जमीदारों के घर डाके डाले जाते थे ।
इसी क्रम में आपने मनौली गांव के जमीदार पूर्ण सिंह के घर पर दल के शस्त्र हेतु डाका डाला था ।
दिल्ली में शंभू नाथ आजाद के निर्देशानुसार आप हथियार लेने राजस्थान आए भी थे।
मनाली डकैती का एक सदस्य चंदन सिंह पकड़ा गया।
वह सरकारी गवाह बन गया। उसकी सूचना पर आप को गिरफ्तार किया गया ।
मुकदमा के बाद आपको फाँसी की सजा सुनाई गई ।
आपके साथी नरेंद्र नाथ पाठक व रामचंद्र भट्ट का दस दस वर्ष के कारावास की सजा हुई।
आपको दिनाँक 6 अप्रैल 1932 को दिल्ली केंद्रीय जेल में फाँसी दी गई।
शत शत नमन
हरिपद भट्टाचार्य
मास्टर सूर्य सेन ” दा ” ने चटगांव में इंडियन रिपब्लिकन आर्मी के नाम से क्रांतिकारी दल का गठन किया था ।
इस दल ने दिनाँक 18 अप्रेल 1930 चटगांव के पुलिस एंव फौज के शस्त्रागार को लूट कर यूनीयन जैक को उतारकर भारतीय ध्वज लहरा दिया व चटगाँव में चार दिन तक क्रांतिकारी दल का प्रशासन स्थापित कर दिया था।
इसके पश्चात फ़ौज को बुलाया गया । क्रांतिकारीयों व फ़ौज में दिनाँक 23 अप्रेल 1930 को जलालाबाद पहाड़ी पर जंग हुआ।
इस जंग में काफी क्रांतिकारी शहीद हुए शेष इधर उधर गांवों में छिपे गए थे।
उनमें से एक था बाल क्रांतिकारी हरिपद भट्टाचार्य आयु मात्र 15 वर्ष।
चटगांव ऑपरेशन के बाद पुलिस इंस्पेक्टर खान बहादुर अशमुल्ला ने चटगांव के क्रांतिकारियों के परिवारों पर अमानवीय अत्याचार कर रहा था।
हरिपद भट्टाचार्य यह सब सहन नहीं कर पा रहा था।
उसने मास्टर ‘दा’ से इंस्पेक्टर खान का वध करने की इजाजत मांगी।
मास्टर दा ने हरिपद को रिवॉल्वर चलाने का प्रशिक्षण दिया तथा एक अच्छा रिवॉल्वर देकर आशीर्वाद दिया।
बालक को पता चला कि खान बहादुर अशमुल्ला फुटबाल का शौकीन है ।
उसकी टीम का दिनांक 30 अगस्त 1931 को रेलवे कप के लिए कोहिनूर टीम के साथ मुकाबला होना है ।
बालक ने इसे ही अच्छा मौका समझा और दिनांक 30अगस्त1931 को फुटबॉल मैदान में खान बहादुर की टीम ने कोहिनूर टीम को पराजित किया।
खान बहादुर खुश था ।
खेल मैदान में ही लोग बधाइयां दे रहे थे
बाल क्रांतिकारी भी फुटबॉल मैदान में खान बहादुर के पास गया व अपने रिवाल्वर से खान बहादुर अशमुल्ला के चार गोलियां मारी।
खान मारा गया ।
बालक खान बहादुर की मौत को सुनिश्चित करने के लिए खड़ा रहा।
इतने में ही पुलिस ने पकड़ लिया बाल क्रांतिकारी को लातों से बुरी तरह मारा गया ।
उसके बाद उसे चटगांव थाना में बंद रखा गया।
पुलिस वालों ने हरिपद के वृद्ध पिता व घर वालों को भी अमानवीय यातनाएं दी।
पुलिस ने बदमाशों के साथ मिलकर 3 दिन तक चटगांव गांव को लूटा।
अंततः 16 सितंबर 1931 को बाल क्रांतिकारी पर मुकदमा चलाया गया।
मुकदमा का निर्णय दिनाँक 22 दिशम्बर 1932 को हुआ।
बालक की आयु कम होने के कारण उसे मृत्युदंड नहीं दिया गया।
आजीवन कारावास कालापानी की सजा दी गई
शत शत नमन
भवानीभट्टाचार्य
सर जॉन एंडरसन क्रांतिकारियों के प्रति निर्दयता पूर्ण दमन के लिए कुख्यात था ।
एंडरसन ने आयरलैंड में वहां के क्रांतिकारियों पर बहुत अत्याचार किए थे।
इसलिए इसलिए उसे बंगाल में इसे विशेष रुप से बुलाया गया था।
क्रांतिकारियों ने भी सर जॉन एंडरसन को अपने टारगेट पर ले लिया।
सर जॉन एंडरसन के वध हेतु तैयारियां की जा रही थी।
सर जॉन एंडरसन मई 1934 में लेबंग रेस कोर्स, दार्जिलिंग में घुड़दौड़ देखने हेतु गए हुए थे।
क्रांतिकारी भी अपने टारगेट के पीछे योजना बनाकर दार्जिलिंग पहुंच गए ।
दिनाँक 8 मई 1934 को रेसकोर्स मैदान में भवानी भट्टाचार्य व रबिन्द्रनाथ नाथ ने एंडरसन पर पिस्तौल से गोलियां चलाई दुर्भाग्य एंडरसन बच गया।
भवानी ,रबिन्द्र,मनोरंजन, उज्जला, मधुसूदन ,सुकुमार व सुशील कुल सात क्रांतिकारियों पर मुकदमा चलाया गया।
विशेष अदालत ने भवानी प्रसाद भट्टाचार्य रविंद्र ,नाथ बनर्जी वह मनोरंजन बनर्जी को फांसी की सजा सुनाई । अन्य को उम्र कैद की सजा सुनाई ।
कलकत्ता उच्च न्यायालय द्वारा अपील में भवानी प्रसाद भट्टाचार्य व रविंद्र नाथ बनर्जी को दी गई मृत्युदंड की सजा को बहाल रखा ।
मनोरंजन को गई मृत्युदंड की सजा को उम्र कैद में बदल दिया। अन्य की उम्र कैद की सजा को 14 वर्ष के कारावास मे बदल दिया गया।
भवानी प्रसाद भट्टाचार्य को 3 फरवरी 1935 को फांसी दे दी थी।
शत शत नमन
कालीपद मुखर्जी
आप इच्छपुरा के क्रांतिकारी दल में सदस्य थे। सविनय अवज्ञा आंदोलन के समय कामाख्या प्रसाद सेन स्पेशल मजिस्ट्रेट थे।
जिसने सविनय अवज्ञा आंदोलन की महिला क्रांतिकारियों के साथ अपमानजनक व्यवहार किया था। महिलाओं को भी गालीयां दी व बेंतो से पिटवाया था ।
इसके कारण कामाख्या प्रसाद इच्छपुरा के क्रांतिकारियों के टारगेट पर था।
कामाख्या प्रसाद था। छुट्टी लेकर ढाका आया हुआ था । ढाका में डिविज़नल अधिकारी के घर रुके हुये थे।
कालीपद मुखर्जी कामाख्या प्रसाद सेन का पीछा करते हुए ढाका गए और ढाका में पटवाटोली के एक दर्जी के पास रुक गए।
उन्होंने टारगेट की सही स्तिथि को समझ लिया व 27 जून को 1932 को कामाख्या प्रसाद मच्छरदानी लगा कर सोए हुए थे।
कालीपद कमरे में घुसे व मच्छरदानी में हाथ डालकर पिस्तौल से तीन गोली मार कर कामाख्या का वध किया।
अपना काम करने के बाद कालीपद ने दर्जी की मार्फत एक तार भेजा जिसमें लिखा था – “कामाख्या का ऑपरेशन सफल रहा है – प्रेषक सुरेंद्र मोहन चक्रवर्ती”
तारघर वालों को शक हो गया उन्होंने उस दर्जी को बिठाए रखा और पुलिस को बुला लिया।
जिससे सारा भेद खुल गया ।। पुलिस ने दर्जी की दुकान से कालीपद मुखर्जी को गिरफ्तार कर लिया गया ।
कालीपद ने विशेष न्यायालय में कामाख्या प्रसाद को मारने का अपराध स्वीकार करते हुए कहा-
इसने महिलाओं के साथ अपमानजनक ,अभद्र व्यवहार किया था । इसलिए मैंने उसे मार डाला है ।
कालीपद मुखर्जी को अदालत ने 8 नवंबर 1932 को फांसी की सजा सुनाई।
आपको दिनाँक16 फरवरी 1933 को कालीपद को ढाका केंद्रीय जेल में फांसी दे दी गई।
शत शत नमन
सूफ़ी अंबा प्रसाद
आपका नाम अम्बाप्रसाद भटनागर था आप का जन्म 21 जनवरी सन 1858 ईस्वी में मुरादाबाद उत्तर प्रदेश में हुआ।
आप के जन्म से ही दायां हाथ नहीं था।
आपने एफ. ए. करने के बाद जालंधर से वकालत की पढ़ाई की।
आपने मुरादाबाद में उर्दू साप्ताहिक “जाम्युल इलूम” का संपादन किया।
आप हिंदू मुस्लिम एकता के पक्षधर थे। आप अंग्रेजी कुंठित व्यवस्था के विरुद्ध खुलकर लिखते थे।
देशभक्ति पूर्ण लेख प्रकाशित करते थे।
इसके कारण राजद्रोह के आरोप में सर्वप्रथम आप को 1897 में डेढ़ वर्ष हेतु जेल भेजा गया ।
आप 1890 में अमृत बाजार पत्रिका के लिए समाचार प्राप्त करने के उदेश्य से केवल खाने के बदले अंग्रेज रेसिडेंट के घर नौकर बन कर रहने लगे ।
आप रेसिडेंट के काले कारनामों की सूचना समाचार पत्र तक पहुंचाने लगे।
यह भी मजेदार कहानी है।
अंग्रेज रेसिडेंट ने समाचार देने वाले गुप्तचर को पकड़वाने वाले को ईनाम देने की घोषणा की।
अंततः रेसिडेंट के खिलाफ कार्यवाही हुई।
रेजिडेंट को नगर छोड़ना था ।
रेसिडेंट ने अपने सभी नौकरों को बख्शीस देकर छुट्टी दे दी ।
इसमें एक पागल नौकर भी था । जो कुछ समय पूर्व ही
नौकरी पर आया था । पूरी ईमानदारी और लगन के साथ महज दो वक़्त की रोटी पर नौकरी कर रहा था ।
साहब सामान बांधकर स्टेशन पहुंचे, तो देखा कि वही पागल नौकर फैल्ट-कैप,टाई,कोट-पेंट पहने चहलकदमी करते हुए रेजिडेंट के पास आया व अंग्रेजी में बात की।
उस पागल नौकर ने कहा कि
‘यदि में आपको उस भेदिये का नाम बता दूं तो क्या ईनाम देंगे ?’
तब रेजिडेंट ने कहा कि ‘
में तुम्हे बख्शीश दूंगा !’
“तो लाइए दीजिये ! मैंने ही वे सब समाचार छपने के लिए भेजे थे समाचार पत्र में !”
अंग्रेज रेजिडेंट कुढ़कर रह गया ! उफनकर बोला –
You go
पहले मालूम होता तो में तुम्हारी बोटियाँ कटवा देता ।
फिर भी ईनाम देने का वचन किया था अतः जेब से सोने के पट्टे वाली घडी निकाली और देते हुए कहा –
“लो यह ईनाम और तुम चाहो तो में तुम्हे सी.आई.डी. में अफसर बनवा सकता हूँ ।
1800 रुपये महीने में मिला करेंगे, बोलो तैयार हो ?
इस पर उन्होंने कहा –
“यदि मुझे वेतन का ही लालच होता तो क्या आपके रसोईघर में झूठे बर्तन धोता ?
रेजिडेंट इस दो-टूक उत्तर पर हतप्रभ रह गया ! यह पागल बना हुआ व्यक्ति कोई और नहीं महान क्रन्तिकारी सूफी अम्बाप्रसाद थे !
सन 1899 में जेल से निकले तो अंग्रेज रेजिड़ेंटो के कारनामों का समाचार पत्रों में प्रकाशन करने कारण फिर छः वर्ष का कारावास हुआ।
जेल में अमानवीय यातनाएं दी गई परन्तु आप तनिक भी विचलित नहीं हुए।
एक बार अंग्रेज जेलर ने आप को तंज स्वर में कहा –
तुम मरे नहीं ?”
आपने वीरता से मुस्कराते हुए कहा “जनाब ! तुम्हारे राज का जनाजा उठाये बिना, मैं कैसे मर सकता हूँ ?’
आप 1906 में सजा भुगत कर बाहर आये ।
1897 से 1907 के बीच की अवधि में आप 8 वर्ष से अधिक समय तक कारावास में बंद रहे।
आपकी सारी सम्पत्ति भी जप्त कर ली गई थी।
आप कारागार से लौटने पर हैदराबाद चले गए। कुछ दिनों बाद लाहौर आ गए।
लाहौर में सरदार अजीत-सिंह जी की संस्था, ‘भारत माता सोसायटी” में काम करने लगे।
इन्हीं दिनों आपने एक पुस्तक बागी मसीहा (विद्रोही ईसा ) लिखी
यह पुस्तक बड़ी आपत्तिजनक समझी गई। फलस्वरूप अंग्रेज सरकार उन्हें गिरफ्तार करनेका प्रयत्न करने लगी।
आप गिरफ्तारी से बचने के लिए नेपाल चले गए, वहां पकड़े जाने पर आपको भारत लाया गया।
आप पर लाहौर में राजद्रोह का मुकदमा चलाया गया, पर कोई प्रमाण न मिलने के कारण उन्हें छोड़ दिया गया।
आप अपने साथी कल्याण चन्द्र दीक्षित एवं अन्य के साथ पहाड़ों पर चले गये। कई वर्षों तक वे इधर-उधर घूमते रहे।
जब धर-पकड़ बन्द हुई, तो फिर आपने 1909 में पंजाब में आकर ‘पेशवा’ अखबार निकाला।
सूफी जी ने जेल से बाहर आकर पंजाब लौटकर पुनः पत्रकारिता प्रारंभ की ।
आप “हिन्दुस्तान” समाचार पत्र से जुड़े ।
आपने ‘देश भक्त मंडल‘ का भी गठन किया था।
अजीतसिंह को 1906 में गिरफ्तार कर देश से निकालने की सजा दी गई ।आप उनके साथ ईरान गए।
ईरान के क्रांतिकारियों से संपर्क किया आप फारसी भाषा के अच्छे विद्वान थे
आपने ईरान में ईरान के लोगों को अंग्रेजों की शोषण की नीति के विरुद्ध जागृत किया।
आपके विचारों के कारण ईरान के लोग आपको” सूफी’ कहने लग गए और आप सूफी अंबा प्रसाद के नाम से प्रसिद्ध हो गए।
ईरान में आप गदर पार्टी का नेतृत्व भी कर रहे थे ।
ईरान में आपने “आबे हयात” समाचार पत्र निकाला ।
ईरान में आपने ब्रिटिश-विरोधी सेना संगठित करने में लग गए । इसमें भारतीय क्रांतिकारी शामिल हो गए ।
आपने शीराज ( ईरान ) में ब्रिटिश काउन्सलर के घर धावा बोल दिया गया
सन 1915 में शीराज पर भी अंग्रेजी सेना का नियंत्रण हो गया।
आपने अपनी क्रांतिकारी साथियों की सेना के साथ अंग्रेजी सेना का जमकर मुकाबला किया।
अंततः आपको अंग्रेज सेना ने पकड़ लिया ।
आपका कोर्ट मार्शल किया गया। कहां जाता है कि आपने 21 फरवरी 1915 को समाधि लेकर अपने प्राणों का त्याग किया था ।
अंग्रेजों ने आपके पार्थिव शरीर को ही रस्सी से बांधकर गोली मारी थी।
आप ईरान में आका सूफी के नाम से प्रसिद्ध है।
आज भी आपके नाम का शीराज ( ईरान ) में मकबरा है।
आपके नाम से उर्स लगता है। जिसमें लोग चादर अर्पित कर मन्नतें मांगते है।
शत शत नमन
सोहनलाल पाठक
गदर पार्टी द्वारा अंग्रेजों के विरुद्ध घोषित विप्लव में आप 1 अगस्त 1914 को मेमियों तोपखाने गदर का प्रचार कर रहे थे।
आपके पास तीन पिस्तौल व 270 कारतूस भी थे परंतु आपने गिरफ्तारी पर विरोध नहीं किया ।
आपको गिरफ्तार कर मुकदमा चलाया गया व फांसी की सजा दी गई।
आप को माफी मांगने पर छोड़ने हेतु कई बार आग्रह किये गए लेकिन आपने माफी नहीं मांगी तो आप को फांसी की सजा हुई।