रामप्रसाद बिस्मिल

क्रांति के देवता :- पंडित रामप्रसाद बिस्मिल

पंडित रामप्रसाद बिस्मिल, जिन्हें हम क्रांति के देवता के रूप में जानते हैं, भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के वो नायक हैं, जिनकी शहादत और संघर्ष का हर पहलू प्रेरणा से भरा हुआ है। उनका जन्म 12 जून 1897 को उत्तर प्रदेश के शाहजहांपुर में हुआ था, और उनका जीवन एक ऐसी गाथा बन गया, जो देशवासियों को आज भी झकझोर देती है।

एक शरारती बालक से क्रांतिकारी नेता तक

बचपन में बिस्मिल शरारती थे। पढ़ाई से बचने के लिए उनका मन कम ही लगता था, और एक बार तो अपने पिता से “उ” शब्द न लिख पाने पर उन्हें लोहे के गज से पीटा गया था। लेकिन जैसे ही वह आर्यसमाजी विचारधारा से जुड़े और स्वामी दयानंद के ब्रह्मचर्य के सिद्धांतों से प्रेरित हुए, उनका जीवन बदल गया। पिताजी के कट्टर सनातनी विचारों के बावजूद, बिस्मिल ने आर्यसमाज को अपना मार्गदर्शक बनाया और उसी समय से उनके जीवन में क्रांति की लौ जलने लगी।

एक संकल्प से क्रांतिकारी जीवन की शुरुआत

पंडित बिस्मिल का जीवन तब पूरी तरह से मोड़ लेता है, जब वे भाई परमानंद की फांसी के समाचार को सुनते हैं। यह वही पल था जब उन्होंने देश के लिए कुछ करने का संकल्प लिया। उनकी प्रेरणा का स्रोत बनते हैं स्वामी सोमदेव, जिनसे उन्हें क्रांतिकारी विचारधारा मिली। इस समय बिस्मिल का संपर्क उन क्रांतिकारियों से हुआ, जिन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ मोर्चा खोलने का ठान लिया था। यही था वह पल, जब पंडित बिस्मिल ने अपनी पूरी ज़िन्दगी का उद्देश्य स्वतंत्रता संग्राम में समर्पित कर दिया।

तिलक जी का स्वागत और युवा जोश

लखनऊ में 1916 का कांग्रेस अधिवेशन और लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक का स्वागत भी पंडित बिस्मिल के जीवन का अहम मोड़ था। तिलक जी के स्वागत में युवा जोश से भरे बिस्मिल ने मोटरकार के आगे लेट कर तिलक जी का अभिनंदन किया। न केवल उन्होंने तिलक जी का स्वागत किया, बल्कि उन्होंने अपनी क्रांतिकारी सोच से कई अन्य नेताओं को भी प्रभावित किया। इसके बाद बिस्मिल और उनके साथी एक संगठित क्रांतिकारी दल “हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन” का हिस्सा बने, जो आने वाले समय में क्रांतिकारी गतिविधियों का केंद्र बना।

काकोरी एक्शन: इतिहास का अहम मोड़

भारतीय क्रांतिकारियों ने चली आ रही सुषुप्त अवस्था को यकायक 9 अगस्त 1925 को झकझोर के जगा दिया। उस दिन क्रांतिकारियों ने सरकारी खजाने को अपने कब्जे में लिया था। इस घटना को काकोरी कांड के नाम से जाना गया लेकिन हम इसे काकोरी एक्शन के नाम से संबोधित करेंगे। इस एक्शन ने अंग्रेजी हुकूमत को हिला कर रख दिया और बिस्मिल की गूंज दूर-दूर तक सुनाई देने लगी।

व्यक्तिगत संघर्ष और समर्पण

क्रांतिकारी जीवन के साथ-साथ बिस्मिल ने अपने व्यक्तिगत संघर्षों को भी झेला। उनके साथी गंगा सिंह, राजाराम और देवनारायण ने एक बार कोलकाता में वायसराय की हत्या की योजना बनाई, लेकिन बिस्मिल इस विचार से असहमत थे। इस घटना के बाद उन पर जानलेवा हमला भी किया गया, लेकिन उनकी दीवार सी इच्छाशक्ति ने उन्हें और मजबूत किया।

बिस्मिल की बहन शास्त्री देवी का योगदान भी इस संघर्ष में अनमोल था। वह अपने भाई को हथियार छिपाकर घर से बाहर लातीं, ताकि वह स्वतंत्रता संग्राम में अपनी भूमिका निभा सकें। क्या यह कोई सामान्य परिवार था, जो अपने बच्चे को इतना बलिदान देने के लिए प्रेरित करता था? नहीं! यह वह परिवार था, जिसने भारत माता के लिए अपना सब कुछ कुर्बान कर दिया।

फांसी से पहले की अंतिम मुलाकात

19 दिसंबर 1927 को, बिस्मिल को गोरखपुर जेल में फांसी दी गई। उनकी माँ उन्हें मिलने आईं, तो बिस्मिल ने अपनी माँ के पैर छूकर गले लगाया। माँ के बारे में उनका कहना था कि इन आँसुओं का कारण मौत का डर नहीं, बल्कि माँ के प्रति मोह है। यही वह क्षण था, जब एक क्रांतिकारी ने अपनी माँ के सामने अपने अंतिम समय में भी अपना कर्तव्य निभाया।

अंतिम शब्द और शहादत

फांसी के तख्ते तक जाते हुए बिस्मिल ने जो शब्द कहे, वह आज भी हमारे दिलों में गूंजते हैं:
“मालिक तेरी रजा रहे और तू ही तू रहे, बाकी ने मैं रहूं, न मेरी आरजू रहे।”
फांसी के तख्ते पर चढ़कर उन्होंने भारत माता की जय और वंदे मातरम के नारे लगाए। अपनी शहादत से पहले बिस्मिल ने कहा,
“I wish the downfall of the British Empire”
और फिर अपने शहादत को अंजाम दिया।

बिस्मिल के जीवन से हमें यह सिखने को मिलता है कि कभी भी देशप्रेम और कर्तव्य का मार्ग नहीं छोड़ा जा सकता। उनका बलिदान, उनका संघर्ष, उनकी शहादत आज भी हमें प्रेरित करती है। वे केवल एक क्रांतिकारी नहीं थे, बल्कि वे हमारे दिलों में हमेशा जीवित रहने वाली एक शक्ति थे।
शत-शत नमन क्रांतिवीर पंडित रामप्रसाद बिस्मिल को।

चंद्र शेखर आज़ाद

चंद्रशेखर आज़ाद: स्वतंत्रता संग्राम के अजेय योद्धा

चंद्रशेखर आज़ाद का जन्म 23 जुलाई 1906 को मध्य प्रदेश के झाबुआ जिले के भाँवरा गांव में हुआ था, जो उस समय अलीपुर रियासत का हिस्सा था। उनके पिता, पंडित सीताराम तिवारी, आर्थिक रूप से कमजोर थे, और चंद्रशेखर का जन्म एक झोपड़ी में हुआ था। बचपन से ही उनके दिल में स्वतंत्रता संग्राम की एक गहरी ललक थी, जो बाद में उनकी शहादत तक एक प्रेरणा बन गई।

सविनय अवज्ञा आंदोलन और बालक आज़ाद की कड़ी परीक्षा

चंद्रशेखर आज़ाद ने सविनय अवज्ञा आंदोलन के दौरान बालक अवस्था में ही क्रांतिकारी गतिविधियों में भाग लेना शुरू कर दिया था। एक घटना, जो हमेशा उनके साहस का प्रतीक बनी, वह थी जब वे मात्र 12 वर्ष के थे। उस समय वाराणसी में सविनय अवज्ञा आंदोलन के तहत बच्चों का एक जुलूस पुलिस द्वारा तितर-बितर किया गया। इस जुलूस के एक नायक को पकड़कर मजिस्ट्रेट के पास पेश किया गया। जब मजिस्ट्रेट ने बालक से उसका नाम पूछा, तो उसने निडर होकर “आजाद” उत्तर दिया। जब मजिस्ट्रेट ने पिता का नाम पूछा, तो बालक ने जवाब दिया “स्वाधीनता”, और निवास स्थान पूछा तो कहा “जेलखाना”। इस उत्तर से तिलमिलाकर मजिस्ट्रेट ने उसे 15 बेंते लगाने की सजा दी।

जब बेंतें पड़ रही थीं, तो चंद्रशेखर आज़ाद “महात्मा गांधी की जय” के नारे लगाते हुए बुरी तरह बेहोश हो गए। इस घटना ने उन्हें एक राष्ट्रीय नायक बना दिया। उनके इस साहसिक कदम ने उन्हें ‘आजाद’ नाम से जाना जाने लगा और अंग्रेजों की नज़र में उनका डर पैदा हो गया।

क्रांतिकारी मार्ग और ‘हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन’ का गठन

गांधी जी द्वारा असहयोग आंदोलन वापस लिए जाने के बाद, चंद्रशेखर आज़ाद ने गांधी के मार्ग से हटकर सशस्त्र क्रांति का मार्ग अपनाया। इस समय ‘हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन’ (एचआरए) का गठन हुआ, जिसका उद्देश्य भारत को स्वतंत्रता दिलाने के लिए अंग्रेजों के खिलाफ सशस्त्र संघर्ष करना था। इस संगठन में कई क्रांतिकारी शामिल थे, जैसे कि भगत सिंह, राजगुरु, सुखदेव, अशफाक उल्ला खान और पंडित राम प्रसाद बिस्मिल।

9 अगस्त 1925 को काकोरी कांड के रूप में एचआरए ने ब्रिटिश खजाने को लूटकर इतिहास रच दिया। काकोरी कांड में चंद्रशेखर आज़ाद सबसे कम आयु के क्रांतिकारी थे, जिन्होंने किसी भी कीमत पर गिरफ्तारी से बचने का प्रयास किया और कभी पकड़े नहीं गए।

चंद्रशेखर आज़ाद और भगत सिंह: एकजुट संघर्ष

चंद्रशेखर आज़ाद और भगत सिंह ने मिलकर कई महत्वपूर्ण योजनाओं को अंजाम दिया। 8 सितंबर 1929 को दिल्ली के फिरोज शाह कोटला मैदान में एक गुप्त सभा में भगत सिंह ने ‘सोशलिस्ट’ शब्द को भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के एजेंडे में शामिल किया। इस समय, चंद्रशेखर आज़ाद ने संगठन की सैन्य शाखा का नेतृत्व किया, और भगत सिंह ने प्रचार शाखा का कार्य संभाला।

इसके बाद, 17 दिसंबर 1928 को लाला लाजपतराय की मृत्यु का बदला लेने के लिए, चंद्रशेखर आज़ाद के नेतृत्व में भगत सिंह और राजगुरु ने सांडर्स का वध किया। यह घटना भारतीय क्रांतिकारी संघर्ष के इतिहास में एक महत्वपूर्ण मोड़ साबित हुई।

सिंहासन की ओर बढ़ते कदम और शहादत

1929 में अंग्रेजी शासन के खिलाफ एक और बड़ा कदम उठाते हुए भगत सिंह और उनके साथियों ने दिल्ली असेंबली में बम फेंका। इस बम कांड का उद्देश्य ब्रिटिश शासन को दुनिया के सामने नीचा दिखाना था। इसके बाद, भगत सिंह और उनके साथी गिरफ्तार हुए और उनकी गिरफ्तारी के बाद आज़ाद जी ने गदर पार्टी के क्रांतिकारियों से मदद ली, ताकि भगत सिंह और उनके साथियों को जेल से बाहर निकाला जा सके।

लेकिन समय की गति इतनी तेज थी कि 27 फरवरी 1931 को चंद्रशेखर आज़ाद को पुलिस के साथ एक ऐतिहासिक मुठभेड़ में अपनी शहादत देनी पड़ी। अल्फ्रेड पार्क में एक गुप्त बैठक के दौरान पुलिस ने उन्हें घेर लिया था।

चंद्रशेखर आज़ाद ने आखिरी गोली खुद को मार कर अपने जीवन का समापन किया। उनकी यह शहादत भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के लिए एक प्रेरणा बन गई। उन्होंने कहा था, “दुश्मन की गोलियों का हम सामना करेंगे, आजादी ही रहेगी, आज़ाद ही रहेंगे।”

चंद्रशेखर आज़ाद की प्रेरक जीवन गाथा

चंद्रशेखर आज़ाद का जीवन साहस, बलिदान और देशभक्ति का प्रतीक बन गया। उनके साहसिक कदम, संघर्ष और बलिदान ने भारतीय युवाओं को हमेशा प्रेरित किया। उनके जीवन की कुछ घटनाएँ उनकी महानता को दर्शाती हैं:

  1. एक बार गणेश शंकर विद्यार्थी जी ने चंद्रशेखर आज़ाद को अपनी माता के लिए 200 रुपये दिए थे, लेकिन आज़ाद जी ने वह पैसा दल के लिए खर्च कर दिया। जब पूछा गया कि उन्होंने मां को क्यों नहीं भेजे, तो उनका जवाब था, “मेरी माता को दो गोलीयां ही काफी हैं, लेकिन मेरे साथियों को भूखा नहीं मरने दूंगा।” यह उनके बलिदान और संगठन की महत्ता को दर्शाता है।
  2. एक अन्य घटना में, जब एक महिला ने चंद्रशेखर आज़ाद का हाथ पकड़ लिया, तो उन्होंने उसे अपनी ताकत से छुड़ाने की बजाय सम्मान दिखाया और उसे जाने दिया। यह उनकी महिलाओं के प्रति सम्मान की भावना को प्रदर्शित करता है।

आजाद जी की फोटो, जिसमें वह अपनी मूंछों पर ताव देते हुए नजर आते हैं, वह आज भी भारतीय राष्ट्र की थाती है, जिसे मास्टर रूद्र नारायण सिंह ने खींचा था।

नमन

चंद्रशेखर आज़ाद ने न केवल अपनी जान दी, बल्कि अपने संघर्ष से स्वतंत्रता की महान धारा को बहाया। उनका जीवन और बलिदान हमेशा भारतीयों के लिए प्रेरणा का स्रोत रहेगा।

वासुदेव बलवंत फड़के

प्रथम स्वतंत्रता संग्राम 1857 को ब्रिटिश साम्राज्य ने बुरी तरह दबा दिया था, लेकिन इसके बावजूद भारतीय भूमि में स्वतंत्रता के प्रति अग्नि का जलना बंद नहीं हुआ था। इस संघर्ष को फिर से जीवित करने का कार्य वासुदेव बलवंत फड़के ने किया, जिन्होंने ब्रिटिश क्रूर शासन के खिलाफ सबसे पहले सशस्त्र क्रांति का बिगुल फूंका।

वासुदेव फड़के का जन्म 4 नवंबर 1844 को महाराष्ट्र के कुलाबा जिले के शिरढोण गांव में हुआ। बचपन से ही उनका स्वभाव साहसी था और ब्रिटिश शासन के प्रति विरोध की भावना उनके मन में घर कर चुकी थी। 1860 में वे सरकारी कर्मचारी बने, लेकिन ब्रिटिश सरकार की निर्दयता और अन्याय ने उन्हें बेहद प्रभावित किया। अपनी मां के निधन के बाद जब उन्हें अवकाश नहीं दिया गया, तो फड़के ने सरकारी नौकरी छोड़ दी और स्वतंत्रता संग्राम की ओर कदम बढ़ाए।

गुरिल्ला युद्ध की तैयारी और क्रांतिकारी सेना का गठन

फड़के ने जंगलों में एक व्यायामशाला स्थापित की, जहाँ शस्त्र चलाने, घुड़सवारी और गुरिल्ला युद्ध की कला सिखाई जाती थी। उन्होंने आदिवासी और बहादुर खामोशी जाति के लोगों को अपनी सेना में भर्ती किया और उन्हें ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ युद्ध की तैयारियाँ करवाईं। उनका उद्देश्य स्पष्ट था—गरीबों और आदिवासियों के बीच व्याप्त भुखमरी और अन्याय के खिलाफ सशस्त्र संघर्ष करना।

महाराष्ट्र में अकाल के कारण लोग भूख से मर रहे थे, जबकि ब्रिटिश अधिकारी अपनी लूट-खसोट में मस्त थे। फड़के ने गरीब जनता को यह सिखाया कि “भुखमरी से बेहतर है बहादुरी से मौत मरना।” शस्त्र खरीदने के लिए उन्होंने जमीदारों, सेठों और सरकारी दफ्तरों से धन लूटना शुरू किया, जिससे उनकी सेना को समर्थन मिला और गरीबों की मदद भी हो सकी।

फड़के की क्रांतिकारी घोषणाएँ

फड़के ने 1879 में अंग्रेजों के खिलाफ खुला युद्ध घोषित किया और अपने दल का एक घोषणापत्र तैयार किया। उन्होंने भारतीय जनता से आह्वान किया कि वे एक स्वतंत्र क्रांतिकारी सरकार का गठन करें। उनकी क्रांति ने ब्रिटिश अधिकारियों को डर में डाल दिया, और मुंबई में उनकी गिरफ्तारी के लिए विशेष अभियान चलाया गया। मेजर डेनियल ने फड़के की जीवित या मृत गिरफ्तारी पर इनाम घोषित किया, लेकिन फड़के ने इसका जवाब कुछ इस तरह दिया—उन्होंने मुंबई के गवर्नर और पुणे के मजिस्ट्रेट के सर काटने वालों को इनाम देने की घोषणा की और पूरे शहर में यह इश्तिहार चिपकवा दिए।

सिंह की तरह लड़ा और आखिरी समय तक न डिगा

फड़के ने 1874 में घामरी और तोरण की किलों पर कब्जा किया, और अंग्रेजों के खूंखार सैन्य अधिकारी मेजर डेनियल को तुलसीघाटी में युद्ध में धूल चटा दी। वे एक बार पुणे की अदालत में भी आग लगा चुके थे, जो उनके क्रांतिकारी साहस और निडरता का प्रतीक था।

फड़के का बाल गंगाधर तिलक और महादेव गोविंद रानाडे जैसे महान नेताओं से भी संपर्क था। तिलक और अन्य क्रांतिकारियों ने फड़के की सेना और उनके विचारों को समर्थन दिया।

गिरफ्तारी और यातनाएँ

20 जुलाई 1879 को फड़के को देवनागरीमांगी गांव के एक बोध मठ में सोते हुए गिरफ्तार कर लिया गया। उन्होंने अपना नाम और वेश बदलकर काशीराम बाबा रख लिया था, ताकि ब्रिटिश अधिकारियों से बच सके। लेकिन अंततः उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और देशद्रोह के आरोप में मुकदमा चलाया गया। अदालत में अपनी बात रखते हुए फड़के ने सिंह गर्जना करते हुए कहा—

“हम भारत माता के पुत्र आज घृणा की वस्तु बन चुके हैं, परतंत्रता की इस लज्जाजनक अवस्था में मृत्यु कहीं हजार गुना बेहतर है। स्वतंत्र भारत का जनतंत्र स्थापित करना मेरे हृदय की आकांक्षा है।”

ब्रिटिश सरकार का डर और फड़के की यात्रा

फड़के को आजीवन काले पानी की सजा सुनाई गई और अंडमान जेल भेजने की तैयारी की गई। इस खबर के बाद, जैसे ही फड़के को रेलगाड़ी में बैठाकर अंडमान भेजा जा रहा था, रास्ते में हर स्टेशन पर लोगों ने उनका फूलों से स्वागत किया और जयकारे लगाए। यह देख ब्रिटिश सरकार बुरी तरह डर गई और फड़के को अंडमान की बजाय अदन (प्रायद्वीप) की जेल में भेज दिया।

अमानवीय यातनाएँ और फड़के की शहादत

अदन जेल में फड़के को अमानवीय यातनाएँ दी गईं। उन्हें उल्टा लटकाकर गर्म सलाखों से दागा गया। एक बार वे जेल से भागने में सफल भी हुए, लेकिन फिर पकड़े गए। जेल में उनके साथ बुरा व्यवहार किया गया, उन्हें अच्छा खाना नहीं दिया गया और यहां तक कि उन्होंने जेल में अनशन भी किया। लेकिन क्रूर ब्रिटिश सरकार पर इसका कोई असर नहीं हुआ। फड़के अंततः क्षय रोग से ग्रस्त हो गए और 17 फरवरी 1883 को इस दुनिया को अलविदा कह गए।

नमन

वासुदेव फड़के का जीवन संघर्ष, बलिदान और देशभक्ति का प्रेरणास्त्रोत बन गया। उनका नाम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में हमेशा स्वर्णाक्षरों में लिखा जाएगा। शत-शत नमन उन शहीदों को जिन्होंने हमारे देश की स्वतंत्रता के लिए अपना जीवन अर्पित किया।

क्रांति वीरांगना ननिबाला देवी

क्रांति वीरांगना ननिबाला देवी: एक अमर संघर्ष की गाथा

भारत के स्वतंत्रता संग्राम में क्रांतिकारियों की वीरता और बलिदान की अनगिनत कहानियाँ हैं, लेकिन कुछ गाथाएँ ऐसी हैं जिनमें सिर्फ साहस ही नहीं, अपितु त्याग, समर्पण और अपार साहस की मिसाल भी मिलती है। ननिबाला देवी की कहानी एक ऐसी ही वीरता और शौर्य की कहानी है।

जन्म और प्रारंभिक जीवन

ननिबाला देवी का जन्म 1888 में हावड़ा जिले के बाली गांव में हुआ था। उनके पिता का नाम श्री सूर्यकांत बनर्जी और माता का नाम गिरिवाला देवी था। ननिबाला का जीवन सामान्य रूप से शुरू हुआ था, लेकिन बहुत कम उम्र में ही उनका जीवन एक नई दिशा में मोड़ लेने वाला था। जब वे केवल 11 वर्ष की थीं, उनका विवाह हुआ, लेकिन विवाह के पांच साल बाद ही उनके पति का निधन हो गया। इस घटना ने ननिबाला के जीवन को दुखों से भरा, लेकिन इसके बावजूद उन्होंने संघर्ष और समर्पण की राह पर चलने का निर्णय लिया।

क्रांतिकारी संघर्ष की ओर कदम

ननिबाला के भतीजे अमरेंद्रनाथ चट्टोपाध्याय युगांतर क्रांतिकारी दल के सदस्य थे, और उनके कारण ननिबाला भी क्रांतिकारी गतिविधियों में शामिल होने लगीं। जब प्रथम विश्व युद्ध के दौरान बंगाल में क्रांतिकारी गतिविधियाँ तेज हो गईं, तब ननिबाला ने भी अपनी भूमिका निभानी शुरू की।

उस समय बंगाल में जतिन बाघा के नेतृत्व में क्रांतिकारी गतिविधियाँ चरम पर थीं। ननिबाला ने कई बार क्रांतिकारियों को अपने घर में आश्रय दिया और उनके शस्त्रों को छिपाकर रखा। यह एक अत्यधिक जोखिम भरी स्थिति थी, लेकिन ननिबाला ने न केवल उन्हें आश्रय दिया, बल्कि उनके अस्त्र-शस्त्र भी बचाए रखे।

रामचंद्र मजूमदार की मदद

एक घटना ने ननिबाला के साहस और संघर्ष की मिसाल पेश की। पुलिस ने कलकत्ता के श्रमजीवी समवाय संस्थान से क्रांतिकारी नेता रामचंद्र मजूमदार को गिरफ्तार कर लिया था। रामचंद्र के पास एक पिस्तौल थी, जो पुलिस के लिए बेहद महत्वपूर्ण थी। यह पिस्तौल उसके लिए एक अहम हथियार थी। ननिबाला ने रामचंद्र की पत्नी बनकर जेल में उनसे मुलाकात की और पिस्तौल व अन्य महत्वपूर्ण जानकारी हासिल की। इस साहसिक कार्य के कारण ननिबाला पुलिस के रडार पर आ गईं, लेकिन उन्होंने कभी भी क्रांतिकारियों के बारे में कोई जानकारी नहीं दी।

चंदननगर और छिपे हुए क्रांतिकारी

जब बाघा जतिन की शहादत हो गई, तो आंदोलन की कमान जादू गोपाल मुखर्जी के हाथों में आ गई। वे जर्मनी से हथियार मंगवाने की योजना बना रहे थे, जिसका पता अंग्रेजों को चल चुका था। पुलिस ने सभी क्रांतिकारियों को पकड़ने की योजना बनाई और उनकी गिरफ्तारी के लिए हर संभव प्रयास किया।

सितंबर 1915 में, ननिबाला ने चंदननगर में एक मकान किराए पर लिया, जहाँ क्रांतिकारी नेता जादू गोपाल मुखर्जी, अमर चटर्जी, अतुल घोष, भोलानाथ चटर्जी, विजय चक्रवर्ती और विनय भूषण दत्त को शरण दी। उन दिनों इन सभी क्रांतिकारियों को पकड़वाने पर पुलिस ने हजार रुपये के ईनाम की घोषणा की थी। इसके बावजूद, ननिबाला ने उन्हें अपने घर में शरण दी।

पुलिस की गिरफ्तारी और यातनाएँ

लेकिन यह स्थिति लंबे समय तक नहीं रही। पुलिस को ननिबाला के बारे में जानकारी मिल गई और उन्होंने यह पता लगा लिया कि वह रामचंद्र की पत्नी बनकर जेल में मिलने गई थीं। ननिबाला की गिरफ्तारी सुनिश्चित करने के लिए, पुलिस ने उनके पिता सूर्यकांत बनर्जी को बार-बार पकड़कर पूछताछ की। यह अत्यधिक मानसिक और शारीरिक पीड़ा का दौर था।

ननिबाला ने पुलिस से बचने की कोशिश की और पेशावर जाने का निश्चय किया, लेकिन दुर्भाग्यवश वह हेपेटाइटिस (हेजे) की शिकार हो गईं और पुलिस ने उन्हें पकड़ लिया। इसके बाद उन्हें काशी जेल भेज दिया गया।

अमानवीय यातनाएँ और साहस का अपूर्व उदाहरण

जेल में ननिबाला को वह यातनाएँ दी गईं, जिनकी कल्पना भी हम नहीं कर सकते। उन्हें निर्वस्त्र कर उनके गुप्तांगों में लाल मिर्च पाउडर डाला गया, जिससे वह असहनीय दर्द से गुजर रही थीं। लेकिन फिर भी ननिबाला ने पुलिस के सामने क्रांतिकारियों के बारे में कोई जानकारी नहीं दी।

एक बार, जब ननिबाला ने जेल में भूख हड़ताल की, तो गुप्तचर विभाग के अधीक्षक गोल्डी से उन्होंने अपनी मांग का पत्र दिया। गोल्डी ने उस पत्र को फाड़ दिया, इस पर ननिबाला ने उसे थप्पड़ मार दिया। यह उनकी साहसिकता का प्रतीक था, और इस घटना ने उन्हें एक वीरांगना के रूप में स्थापित किया।

रिहाई, गुमनामी और अंतिम समय

कुछ समय बाद, जब सामान्य माफी का दौर आया, तो ननिबाला को जेल से रिहा कर दिया गया। लेकिन जब वह समाज में वापस लौटीं, तो उसे कोई सहारा नहीं मिला। बीमार होने पर एक साधु ने उनकी सेवा की और ननिबाला ने गेरुआ वस्त्र धारण कर लिया।

ननिबाला देवी ने गुमनामी में अपना शेष जीवन बिताया और 1967 में उनका देहांत हो गया। उनके जीवन की गाथा आज भी हमारे दिलों में जीवित है, और उनकी वीरता और संघर्ष का उदाहरण हम सभी के लिए प्रेरणा का स्रोत है।

शत-शत नमन वीरांगना ननिबाला देवी को

ननिबाला देवी का जीवन न केवल साहस और बलिदान की प्रतीक है, बल्कि यह हमें यह भी सिखाता है कि भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में महिलाओं का योगदान कितना महत्वपूर्ण और प्रेरणादायक था। शत-शत नमन इस महान वीरांगना को, जिनकी त्याग और समर्पण की कहानी हमेशा हमारे दिलों में रहेगी।

अंबिका चक्रवर्ती

अंबिका प्रसाद चक्रवर्ती: चटगांव सशस्त्र क्रांति के वीर योद्धा

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में कुछ घटनाएँ ऐसी रही हैं, जिनमें वीरता, साहस और क्रांति का अद्वितीय संगम देखने को मिला। चटगांव सशस्त्र क्रांति (1930) ऐसी ही एक ऐतिहासिक घटना थी, जिसमें अंबिका प्रसाद चक्रवर्ती जैसे क्रांतिकारियों ने अपने जीवन का सर्वोत्तम बलिदान दिया। ये वही वीर थे जिन्होंने अपने साहसिक कार्यों से न केवल अंग्रेजी साम्राज्य को हिला दिया, बल्कि भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को नई दिशा भी दी।

चटगांव सशस्त्र क्रांति और अंबिका का योगदान

18 अप्रैल 1930 को भारतीय स्वतंत्रता सेनानियों ने चटगांव (जो आज बांग्लादेश में स्थित है) के पुलिस और सहायक बलों के शस्त्रागार पर आक्रमण किया। इस क्रांतिकारी योजना का नेतृत्व महान क्रांतिकारी सूर्य सेन, जिनके नाम के आगे “मास्टर दा” उपनाम था, ने किया था। इस योजना में टेलीफोन और टेलीग्राफ तारों को काटने और ट्रेन की गतिविधियों को बाधित करने की कार्यवाही को अंजाम देने वाली टोली में अंबिका प्रसाद चक्रवर्ती का महत्वपूर्ण योगदान था। उनकी रणनीति और साहस ने इस सशस्त्र क्रांति को एक महत्वपूर्ण मोड़ दिया।

यह एक न केवल शस्त्रागार पर आक्रमण था, बल्कि यह एक सामरिक युद्ध था, जिसमें क्रांतिकारी अपने शत्रु से मुकाबला करने के लिए अद्भुत चतुराई और बहादुरी का परिचय दे रहे थे। अंबिका ने जिस प्रकार इस योजना में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, वह उनके संघर्ष और बलिदान की जीवंत मिसाल है।

चटगांव छावनी की भीषण लड़ाई

22 अप्रैल 1930 को चटगांव छावनी के पास जलालाबाद पहाड़ियों में एक भयावह संघर्ष हुआ, जिसमें हजारों अंग्रेजी सैनिकों ने क्रांतिकारियों को घेर लिया था। यह दिन क्रांतिकारियों के लिए कठिन, लेकिन गौरवपूर्ण था। इस लड़ाई में अंबिका प्रसाद चक्रवर्ती भी घायल हुए थे, लेकिन उनकी अदम्य साहसिकता और संघर्ष की भावना ने उन्हें पलायन करने में मदद दी।

इस संघर्ष के बाद, अंग्रेजी पुलिस और सैनिकों ने क्रांतिकारियों की गिरफ्तारी के लिए एक तीव्र छापेमारी शुरू की। अंबिका और उनके साथी इस कड़ी छापेमारी के बावजूद चुपके से छिपने और बचने में सफल रहे। लेकिन इसके बावजूद, यह घटना चटगांव के स्वतंत्रता संग्राम को एक ऐतिहासिक मोड़ पर ले आई थी, जिसे बाद में स्वतंत्रता संग्राम के महत्वपूर्ण अध्यायों में शुमार किया गया।

फांसी की सजा से जीवनभर की सजा तक का संघर्ष

चटगांव सशस्त्र क्रांति में अंबिका प्रसाद चक्रवर्ती की भागीदारी के कारण उन्हें 1930 में फांसी की सजा सुनाई गई थी। हालांकि, बाद में यह सजा बदलकर उन्हें आजीवन कारावास में तब्दील कर दी गई। इस निर्णय के बाद अंबिका को अंडमान के काले पानी की जेल में भेज दिया गया।

यह वह दौर था जब अंग्रेजों के द्वारा दिए गए यातनाओं का सामना करना, अपने देश के लिए लड़ना और एक नई आशा के साथ भविष्य की ओर देखना, यह सब एक क्रांतिकारी के जीवन का हिस्सा बन गया था। अंबिका को जेल में रहते हुए कई मानसिक और शारीरिक यातनाएँ दी गईं, लेकिन उन्होंने कभी भी अपने संघर्ष और स्वतंत्रता संग्राम की राह को छोड़ने का विचार नहीं किया।

जेल में साम्यवाद की ओर झुकाव

अंडमान की जेल में रहते हुए अंबिका का झुकाव साम्यवाद की ओर हुआ। जेल के सख्त माहौल और वहां के क्रांतिकारी विचारों ने उन्हें यह समझने में मदद की कि भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के साथ-साथ देश की सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था में भी बदलाव लाना जरूरी है। इसके बाद, अंबिका ने अपने विचारों को और मजबूत किया और जब उन्हें जेल से रिहा किया गया, तो वे कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य बने।

कम्युनिस्ट आंदोलन और विधानसभा चुनाव

अंबिका प्रसाद चक्रवर्ती ने जेल से रिहा होने के बाद साम्यवादी आंदोलन में भाग लिया और 1949 से 1951 तक पुनः जेल में रहे। उन्होंने अपनी विचारधारा को और अधिक मजबूत किया और भारत के राजनीतिक परिदृश्य में एक महत्वपूर्ण स्थान बनाने का प्रयास किया। 1952 में, उन्होंने पश्चिम बंगाल विधानसभा से निर्वाचित होकर राजनीति में कदम रखा और कम्युनिस्ट पार्टी की ओर से जनहित में काम करने की दिशा में कई महत्वपूर्ण कदम उठाए।

अंबिका का जीवन और उनके योगदान का समापन

अंबिका प्रसाद चक्रवर्ती का जन्म जनवरी 1892 में बर्मा में हुआ था, और उनके जीवन का एक उद्देश्य था—देश की स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करना। उनका जीवन न केवल एक क्रांतिकारी के रूप में महत्वपूर्ण था, बल्कि वे समाजवादी दृष्टिकोण के लिए भी प्रेरणा का स्रोत बने।

लेकिन, 6 मार्च 1962 को एक सड़क दुर्घटना में उनका निधन हुआ, और इस प्रकार एक महान क्रांतिकारी योद्धा की जीवित गाथा समाप्त हो गई। हालांकि उनका शारीरिक रूप से हमारे बीच नहीं होना बहुत दुखद था, लेकिन उनका योगदान भारतीय स्वतंत्रता संग्राम और साम्यवादी आंदोलन में सदैव जीवित रहेगा।

शत शत नमन अंबिका प्रसाद चक्रवर्ती को

उनके जीवन की कहानी न केवल हमें साहस और बलिदान की प्रेरणा देती है, बल्कि यह हमें यह भी सिखाती है कि स्वतंत्रता संग्राम में किसी भी व्यक्ति का योगदान कितना महत्वपूर्ण हो सकता है। अंबिका प्रसाद चक्रवर्ती का नाम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में हमेशा अमर रहेगा।

शत शत नमन इस महान योद्धा को, जिनकी कड़ी मेहनत और संघर्ष की वजह से भारतीय राजनीति और स्वतंत्रता संग्राम को एक नया आयाम मिला।

चारु चंद्र बोस

चारु चंद्र बोस: क्रांतिकारी साहस और शहादत की मिसाल

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में हर एक क्रांतिकारी का योगदान महत्वपूर्ण था, लेकिन कुछ क्रांतिकारी ऐसे होते हैं, जिनकी साहसिकता और बलिदान ने न केवल अपने समय के लोगों को प्रेरित किया, बल्कि आने वाली पीढ़ियों के लिए भी एक अमिट छाप छोड़ी। बंगाल के क्रांतिकारी चारु चंद्र बोस भी ऐसे ही महान सपूत थे, जिन्होंने अपने साहस और वीरता से भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को एक नई दिशा दी।

चारु चंद्र बोस का प्रारंभिक जीवन और शारीरिक कठिनाइयाँ

चारु चंद्र बोस का जन्म एक सामान्य परिवार में हुआ था, लेकिन उनके जीवन में एक असाधारण लक्षण था—उनका शारीरिक रूप। उनकी दाहिनी हाथ की अंगुलियाँ नहीं थीं, जिससे शारीरिक रूप से वह अन्य लोगों की तुलना में कमजोर दिखाई देते थे। लेकिन इस शारीरिक कमजोरी के बावजूद चारु चंद्र बोस का मनोबल बहुत मजबूत था। उन्होंने इस विकलांगता को कभी अपनी कमजोरी नहीं बनने दिया।

चारु चंद्र बोस ने अपने जीवन के सबसे कठिन समय में अपने आत्मविश्वास और मेहनत से ऐसा कमाल किया कि उन्होंने दाहिने हाथ में पिस्तौल बांधकर अपनी बाएं हाथ की अंगुली से उसे चलाने का अभ्यास किया। यह दिखाता है कि उनके भीतर एक अद्वितीय साहस था, और कोई भी शारीरिक कमी उनकी प्रेरणा का स्रोत नहीं बन सकी।

सशस्त्र क्रांति और अलीपुर षड्यंत्र

भारत में ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ स्वतंत्रता संग्राम की जो लहर चली, उसमें बंगाल के क्रांतिकारी दल का एक महत्वपूर्ण योगदान था। बंगाल अनुशीलन समिति के सदस्य रहे चारु चंद्र बोस ने सशस्त्र क्रांति के लिए कई महत्वपूर्ण कार्यों में भाग लिया।

वर्ष 1908 में जब क्रांतिकारियों ने मुजफ्फरपुर में काजी किंग्फोर्ड की गाड़ी पर बम फेंका था, तब यह घटना भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का एक महत्वपूर्ण मोड़ बनी। इसके बाद अंग्रेजी पुलिस ने क्रांतिकारियों के खिलाफ छापेमारी शुरू की और बारीन्द्र दल के 38 क्रांतिकारियों को गिरफ्तार कर लिया। इन क्रांतिकारियों पर मुकदमा चलाया गया, जिसे अलीपुर षड्यंत्र के नाम से जाना जाता है। हालांकि, यह सिर्फ षड्यंत्र नहीं था, बल्कि यह भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का एक बड़ा और साहसिक कदम था, जो पूरी दुनिया में ब्रिटिश साम्राज्य की नींव हिलाने में मददगार साबित हुआ।

आशुतोष विश्वास और चारु चंद्र बोस का प्रतिरोध

अलीपुर षड्यंत्र के मुकदमे के दौरान सरकारी पक्ष की ओर से आशुतोष विश्वास पैरवी कर रहे थे। आशुतोष विश्वास का काम था क्रांतिकारियों को सजा दिलवाना, और इसके लिए उन्होंने झूठे गवाहों का सहारा लिया। यह सरकारी पक्ष की गंदी राजनीति थी, जिससे देशभक्तों को झूठे आरोपों में फंसाया जा रहा था।

क्रांतिकारी समाज में आशुतोष विश्वास के प्रति नफरत और गुस्सा बढ़ने लगा, क्योंकि उनकी मदद से कई निर्दोष क्रांतिकारियों को फांसी की सजा हो चुकी थी। यही कारण था कि चारु चंद्र बोस ने उन्हें अपनी गोलियों का निशाना बना लिया।

गोलियों से प्रहार और गिरफ्तारी

10 फरवरी 1909 को, आशुतोष विश्वास अलीपुर अदालत से बाहर आ रहे थे, और ठीक उसी वक्त चारु चंद्र बोस ने उन्हें गोलियों से उड़ा दिया। यह कार्रवाई उस वक्त के भारतीय क्रांतिकारियों के प्रतिरोध का प्रतीक बन गई, जिन्होंने खुद को बेइंसाफ़ी और अन्याय के खिलाफ खड़ा किया था।

चारु चंद्र बोस को तुरंत गिरफ्तार कर लिया गया और उनके खिलाफ मुकदमा चलाया गया। उनके इस साहसिक कदम ने ब्रिटिश शासन को हिला कर रख दिया, क्योंकि अब उन्हें समझ में आ गया था कि क्रांतिकारी किसी भी कीमत पर झुकने वाले नहीं हैं।

फांसी की सजा और शहादत

चारु चंद्र बोस को अदालत ने मौत की सजा सुनाई। आखिरकार, 19 मार्च 1999 को, उन्हें केंद्रीय कारागार अलीपुर में फांसी दे दी गई। यह दिन भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में हमेशा याद किया जाएगा। चारु चंद्र बोस की शहादत ने यह साबित कर दिया कि कुछ भी बड़ा नहीं है, केवल देश की स्वतंत्रता ही सर्वोपरि है।

चारु चंद्र बोस का जीवन एक प्रेरणा है, जिसने यह दिखाया कि शरीर की कमजोरी के बावजूद, मन और आत्मा की ताकत के साथ कोई भी मुसीबत पार की जा सकती है। उनका समर्पण, साहस और बलिदान हमेशा भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में याद किया जाएगा। उनके संघर्ष ने यह सिद्ध किया कि एक सच्चे क्रांतिकारी की शक्ति न केवल उसकी शारीरिक शक्ति में, बल्कि उसकी मानसिक और आत्मिक शक्ति में होती है।

शत शत नमन चारु चंद्र बोस को

चारु चंद्र बोस का बलिदान सिर्फ एक व्यक्ति का नहीं, बल्कि पूरे भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का हिस्सा था। उनका साहस और समर्पण हर भारतीय के दिल में हमेशा जीवित रहेगा। उनके जीवन और संघर्ष से हमें यह सिखने को मिलता है कि किसी भी महान उद्देश्य के लिए बलिदान देना ही सबसे बड़ी सेवा होती है।

शत शत नमन इस वीर योद्धा को, जिन्होंने अपने प्राणों की आहुति देकर भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को नई दिशा दी।

 

उपेन्द्रनाथ बन्दोपाध्याय

उपेन्द्रनाथ बन्दोपाध्याय: भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के महान क्रांतिकारी

उपेन्द्रनाथ बन्दोपाध्याय का जन्म 6 जून 1879 को चन्द्रनगर में हुआ था। वे एक प्रेरणादायक क्रांतिकारी थे जिन्होंने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया। उनका जीवन संघर्ष, समर्पण और मातृभूमि की आज़ादी के प्रति गहरी निष्ठा से भरा हुआ था।

प्रारंभिक जीवन और शिक्षा

उपेन्द्रनाथ की शिक्षा बहुत ही उज्जवल रही। उन्होंने मैट्रिक की परीक्षा में प्रथम श्रेणी में सफलता प्राप्त की और इसके बाद कलकत्ते के मेडिकल कॉलेज में डॉक्टर बनने के लिए दाखिला लिया। यहीं उनकी मुलाकात कई क्रांतिकारियों से हुई और उनकी सोच में बदलाव आया। उन्हें अंग्रेजी शासन से घृणा थी और उनका मानना था कि केवल शस्त्रों के माध्यम से ही स्वतंत्रता प्राप्त की जा सकती है।

उन्हें स्वामी विवेकानंद से भी प्रेरणा मिली, और उन्होंने स्वामी जी के विचारों को आत्मसात किया। स्वामी विवेकानंद के मायावती आश्रम में कुछ समय बिताने के बाद, वे पंजाब की यात्रा पर निकल पड़े और वहां के समाज और परिस्थितियों को समझा। इसके बाद उन्होंने चन्द्रनगर लौट कर अपने उद्देश्यों को स्पष्ट किया और स्वतंत्रता संग्राम में भाग लिया।

क्रांतिकारी गतिविधियाँ और ‘युगान्तर’ पत्रिका

उपेन्द्रनाथ बन्दोपाध्याय का असली योगदान उनके क्रांतिकारी कार्यों में था। उन्होंने ‘युगान्तर’ पत्रिका के माध्यम से बंगाल और पंजाब में स्वतंत्रता संग्राम की अलख जगाई। उनका उद्देश्य था कि वे भारतीय युवाओं में अंग्रेजी शासन के खिलाफ विद्रोह की भावना भरें। साथ ही, वे शस्त्रों के संग्रह और क्रांतिकारी गतिविधियों में शामिल होने लगे।

1905 में उन्होंने ‘भवानी मन्दिर’ नामक उपन्यास लिखा, जिसमें उन्होंने शक्ति-पूजा और मातृभूमि की पूर्ण स्वतंत्रता का संदेश दिया। इसके बाद उन्होंने कई अन्य पुस्तकों जैसे ‘वर्तमान रणनीति’ और ‘मुक्ति कौन पथे’ भी लिखीं, जिनमें भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की रणनीतियों पर प्रकाश डाला गया।

गिरफ्तारी और काले पानी की सजा

अलीपुर षड्यंत्र के दौरान उवेन्द्रनाथ बन्दोपाध्याय को गिरफ्तार किया गया। उन्हें काले पानी की सजा दी गई, जिसे उन्होंने असहनीय होते हुए भी सहन किया। अण्डमान में उनके कारावास का जीवन अत्यंत कठिन था। वे वहां तेल की घानी चलाते थे और एक दिन की मेहनत के बाद भी केवल 15 सेर तेल निकाल पाए। वे बताते हैं कि किस प्रकार गालियाँ सुनकर भी उन्हें क्रांति का ख्वाब नहीं छोडऩे दिया।

उन्हें काले पानी की सजा के बाद 12 साल तक जेल में रखा गया, लेकिन उनका उत्साह कभी कम नहीं हुआ। जेल में बिताए गए अपने अनुभवों को उन्होंने अपने लेखों में व्यक्त किया, जो आज भी हमारे लिए प्रेरणा का स्रोत हैं।

जीवन के बाद का संघर्ष

काले पानी की सजा पूरी होने के बाद 20 फरवरी 1920 को उन्हें रिहा किया गया। जेल से निकलने के बाद भी उनका संघर्ष थमा नहीं। उन्होंने फिर से क्रांतिकारी पत्रों और साप्ताहिकों के माध्यम से स्वतंत्रता संग्राम को समर्थन दिया। ‘आत्म शक्ति’ नामक पत्र के द्वारा उन्होंने भारतीय युवाओं को और अधिक जागरूक किया।

अंतिम विचार

उपेन्द्रनाथ बन्दोपाध्याय के संघर्ष और त्याग ने हमें यह सिखाया कि यदि लक्ष्य स्पष्ट हो और हौंसला मजबूत हो, तो कोई भी मुश्किल हमसे हमारी मंजिल नहीं छीन सकती। उनका जीवन हमें यह प्रेरणा देता है कि हम अपने देश के लिए अपने कर्तव्यों को निभाने में कभी पीछे नहीं हट सकते।

विजय सिंह पथिक

विजय सिंह पथिक: राजस्थान के क्रांतिकारी नायक

विजय सिंह पथिक का नाम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के उन महान योद्धाओं में लिया जाता है जिन्होंने क्रांति के रास्ते को अपना जीवन बना लिया था। उनका वास्तविक नाम भूप सिंह था और उनका जन्म 27 फरवरी 1882 को उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर जिले के गुठावली कलाँ गांव में हुआ था। वे एक अहीर परिवार से थे, जो समाज के उस वर्ग से था जिसे अक्सर उपेक्षित किया जाता था। लेकिन विजय सिंह पथिक ने इस सामाजिक स्थिति से ऊपर उठकर अपना नाम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में अमर कर दिया।

उनकी क्रांतिकारी यात्रा की शुरुआत 1907 में हुई जब उनका संपर्क भारत के एक प्रमुख क्रांतिकारी शचीन्द्रनाथ सान्याल से हुआ। इसके बाद उनका जुड़ाव रासबिहारी बोस और युगांतर दल जैसे संगठन से हुआ, जो भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के प्रमुख क्रांतिकारी दलों में थे।

क्रांतिकारी संघर्ष की शुरुआत

विजय सिंह पथिक का पहला बड़ा संघर्ष 1908 में हुआ, जब उन्हें अलीपुर एक्शन के मामले में मानिकतला बाग में युगांतर दल द्वारा बम बनाने की फैक्ट्री से गिरफ्तार किया गया था। हालांकि किसी सबूत के अभाव में उन्हें जल्द ही रिहा कर दिया गया। लेकिन उनका कड़ा संकल्प पहले ही दिन से स्पष्ट था कि वे किसी भी हालत में ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ अपनी जंग जारी रखेंगे।

दिल्ली में लॉर्ड हार्डिंग पर हमला

विजय सिंह पथिक ने दिल्ली में लॉर्ड हार्डिंग पर बम फेंकने के एक्शन में भी भाग लिया था। यह घटना ब्रिटिश शासन के खिलाफ क्रांतिकारियों की बढ़ती असहमति और विरोध का प्रतीक बनी। पथिक ने रासबिहारी बोस के नेतृत्व में समस्त भारत के क्रांतिकारियों और गदर पार्टी के सदस्यों के साथ मिलकर एक योजना बनाई, जिसमें 21 फरवरी 1915 को समस्त भारत में ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ सशस्त्र हमलों की रूपरेखा तैयार की गई थी।

राजपूताना में क्रांतिकारी गतिविधियाँ

राजपूताना में विजय सिंह पथिक और उनके साथी राव गोपाल सिंह, अर्जुन लाल सेठी, और अन्य कई क्रांतिकारियों ने आजादी की लड़ाई के लिए राज परिवारों को तैयार किया। पथिक ने राजपूताना के क्रांतिकारी नेताओं से मिलकर यह सुनिश्चित किया कि अगर एक साथ पूरे देश में एक सशस्त्र संघर्ष हो, तो राजपूताना इस आंदोलन का मुख्य केंद्र बनेगा।

फरवरी 1915 में अजमेर से अहमदाबाद जाने वाली ट्रेन पर बम फेंकने का संकेत देने के बाद, विजय सिंह पथिक और उनके साथी नसीराबाद में अंग्रेजों पर हमला करने के लिए तैयार थे। हालांकि, योजना में एक गद्दार कृपाल सिंह ने पुलिस को सब कुछ सूचित कर दिया, जिसके कारण बड़ी संख्या में गिरफ्तारियां हुईं और क्रांति सफल नहीं हो पाई। इसके बाद पथिक अपने साथियों के साथ शिकारी बुर्जी में शरण लिए थे, लेकिन पुलिस ने उनका घेराव कर लिया।

साधु का भेष और विजय सिंह पथिक का जन्म

अंग्रेजों के बढ़ते दबाव और गिरफ्तारी के डर से, पथिक ने साधु का भेष बनाकर डोरगढ़ किले से भागने की योजना बनाई। उन्होंने अपना नाम बदलकर विजय सिंह पथिक रखा और इस नाम से पूरे भारत में अपनी पहचान बनाई।

शेर से मुकाबला और जंगल में संघर्ष

एक दिन जब विजय सिंह पथिक और उनके साथी एक जंगल में रात बिताने के लिए रुके, तो एक शेर ने उन्हें हमला कर दिया। लेकिन पथिक ने बिना घबराए अपने पिस्तौल से शेर को मार डाला। यह घटना उनकी साहसिकता और संघर्ष की प्रतीक बन गई।

बिजौलिया आंदोलन और किसानों का संघर्ष

विजय सिंह पथिक का नाम विशेष रूप से बिजौलिया किसान आंदोलन के लिए जाना जाता है। उन्होंने 1916 में बिजौलिया में किसानों के अधिकारों के लिए संघर्ष शुरू किया। राजस्थान के कई इलाके में किसानों से अत्यधिक मालगुजारी वसूली जा रही थी, जिससे उनकी आर्थिक स्थिति दयनीय हो गई थी। पथिक ने इस आंदोलन को अपनी अगुवाई में एक शक्तिशाली रूप दिया।

उन्होंने किसानों को संगठित किया और 13 सदस्यीय पंच मंडल बनाया। यह आंदोलन राजस्थान के अन्य हिस्सों में भी फैल गया। इसके परिणामस्वरूप मेवाड़, अलवर, बूंदी, सिरोही, सीकर और तारवाटी जैसे क्षेत्रों में किसान आंदोलनों की लहर दौड़ पड़ी। इस संघर्ष में पथिक और उनके साथियों ने बहुत संघर्ष किया, जिसमें कई किसान शहीद हुए।

बिजौलिया आंदोलन का प्रचार

बाल गंगाधर तिलक और गणेश शंकर विद्यार्थी जैसे प्रमुख नेताओं ने इस आंदोलन को अपने समाचार पत्रों में प्रकाशित किया। इस आंदोलन को इतना बड़ा समर्थन मिला कि अमृतसर कांग्रेस अधिवेशन में बिजौलिया आंदोलन पर चर्चा की गई।

गांधी जी से मुलाकात और राजस्थान सेवा संघ का गठन

बिजौलिया आंदोलन के समय पथिक ने महात्मा गांधी से भी मुलाकात की। गांधी जी ने पथिक से कहा कि अगर मेवाड़ सरकार ने किसानों को राहत नहीं दी, तो वह खुद बिजौलिया में सत्याग्रह करेंगे।

1920 में राजस्थान सेवा संघ की स्थापना की गई, और पथिक ने इसके माध्यम से पूरे राजस्थान में कई जन आंदोलनों की शुरुआत की। उनका यह आंदोलन न केवल राजस्थान, बल्कि पूरे भारत के किसानों के लिए प्रेरणा का स्रोत बना।

कारावास और रिहाई

पथिक को 1923 में बेगू आंदोलन में भाग लेने के कारण गिरफ्तार कर लिया गया और उन्हें पांच साल की सजा दी गई। लेकिन पथिक ने संघर्ष नहीं छोड़ा। उन्होंने 1927 में रिहा होने के बाद राजस्थान के कई हिस्सों में आंदोलन जारी रखा।

अंतिम समय और उत्तराधिकारी

विजय सिंह पथिक का निधन 28 मई 1954 को हुआ। उनके योगदान को हमेशा याद रखा जाएगा। भारत सरकार ने उनकी स्मृति में डाक टिकट जारी किया और उन्हें राजस्थान के राष्ट्रीय नायक के रूप में सम्मानित किया।

उनकी कविता “यश वैभव सुख की चाह नहीं, परवाह नहीं जीवन न रहे; यदि इच्छा है तो यह है-जग में स्वेच्छाचार दमन न रहे।” आज भी लोगों के दिलों में गूंजती है।

शत शत नमन विजय सिंह पथिक को, जिनकी वीरता, संघर्ष और समर्पण ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को नया आयाम दिया।

तांत्या भील उर्फ टण्ड्रा भील

तांत्या भील उर्फ टण्ड्रा भील: भारतीय लोक नायक और ‘इंडियन रॉबिनहुड’

तांत्या भील, जिनका असली नाम टण्ड्रा भील था, भारतीय इतिहास के उन महान नायकों में गिने जाते हैं जिनका जीवन स्वतंत्रता संग्राम और सामाजिक न्याय के लिए संघर्ष की मिसाल बन गया। उनका जन्म 1842 में जिला निमाड़ के पास स्थित गांव बिरदा में हुआ था। तांत्या का जीवन कठिनाइयों और संघर्षों से भरा हुआ था, लेकिन उनके संघर्ष ने उन्हें केवल एक साधारण व्यक्ति से लोक नायक बना दिया। उनके जीवन की कहानी न केवल एक व्यक्तिगत संघर्ष की कहानी है, बल्कि यह आदिवासी समाज के शोषण और उनके अधिकारों की लड़ाई की भी दास्तान है।

प्रारंभिक जीवन और संघर्ष

टण्ड्रा का जीवन उस समय की ब्रिटिश साम्राज्य और जमींदारों की कठोर नीतियों से प्रभावित था। किसान उनकी उपज से लगान वसूल करने के लिए मजबूर थे, और यदि फसलें खराब होतीं, तो वे इस अत्याचार का शिकार हो जाते थे। तांत्या भील का परिवार भी इसी समस्या से जूझ रहा था। एक बार, जब उनकी पैतृक पोखर की ज़मीन से लगान जमा नहीं कर पाया, तो शिवा पटेल नामक जमींदार ने उन्हें उनकी ज़मीन से बेदखल कर दिया। इस अन्याय ने तांत्या के दिल में ब्रिटिश शासन और जमींदारों के खिलाफ घृणा को जन्म दिया।

किसी तरह, गांव पोकर वासियों ने उनके खिलाफ एक षड्यंत्र रचा और उन्हें बदमाशी के आरोप में एक साल की सजा दिलवा दी। जेल से निकलने के बाद, तांत्या अपने घर पोखर वापस गया, लेकिन वहां के लोग उससे नाराज थे। इस पर, तांत्या ने हीरापुर गांव में जाकर मजदूरी करना शुरू किया, जहां वह अगले सात साल तक अपना जीवन यापन करता रहा।

लेकिन गांव वालों ने उसे वहां भी चैन से नहीं रहने दिया। उन्होंने तांत्या को चोरी के आरोप में फंसा दिया। हालांकि, चोरी का कोई सबूत नहीं मिलने पर उसे छोड़ दिया गया, लेकिन इससे तांत्या का गुस्सा और बढ़ गया।

तांत्या भील का विद्रोह

टांत्या ने इस अन्याय का जवाब हथियार उठाकर देना शुरू किया। उन्होंने अपनी जाति के कुछ भील लोगों को एकजुट किया और एक गैरकानूनी दल बनाया। इस दल में शामिल होने वाले लोग जंगलों में रहने लगे, ताकि उनका पीछा किया जा सके। एक दिन, निमाड़ जिले के खजूरी गांव में तांत्या ने बिजनिया नामक एक शक्तिशाली भील डाकू से मुलाकात की और उसे अपनी टोली में शामिल किया।

जल्द ही, तांत्या ने उन मालगुजारों और जमींदारों को निशाना बनाना शुरू किया, जिन्होंने उसे और उसके समुदाय को शोषित किया था। तांत्या का उद्देश्य था—धन लूटना नहीं, बल्कि अपने शोषक वर्ग को शिक्षित करना और सज़ा देना। वह यह सुनिश्चित करता था कि डाकों से प्राप्त धन गांव के गरीबों में बांटा जाए। गाँववाले उसे मामा कहकर बुलाने लगे, और उसकी निडरता, साहस और ईमानदारी ने उसे एक लोक नायक बना दिया।

तांत्या का जेल से फरार होना और संघर्ष

1878 से 1886 तक, तांत्या ने लगभग 400 डाके डाले। वह मुख्य रूप से जमींदारों और सत्ता के शक्तिशाली लोगों को लूटता था। उसकी योजना थी कि वह उन लोगों को सजा दे, जो गरीबों और किसानों का खून चूस रहे थे। लेकिन, जैसे ही तांत्या का नाम फैलने लगा, वह पुलिस के निशाने पर आ गया।

सरदार पटेल नामक एक व्यक्ति ने तांत्या को पकड़वाने के लिए उसे झूठे आरोपों में फंसा दिया। एक अदालत में, जब तांत्या को सजा सुनाई जा रही थी, तो उसने हिमन पटेल नामक राजपूत को धमकी देते हुए कहा था:

“पटील दाजी म्हारो नांव। टण्ड्रा छे मख पहीचाणी ल्यों। आज तो धोखासी मख फंसाई दीयो पण याद राखजो म्हारो नाम टण्ड्रा छे।”
(पटेल साहब, मेरा नाम टण्ड्रा है, आज तो आपने मुझे धोखे से फंसाया है, लेकिन याद रखिए, मेरा नाम टण्ड्रा है।)

इस धमकी के बाद, तांत्या ने जेल की 15 फुट ऊंची दीवार को फांदकर अपनी जेल तोड़ी और अपने साथियों के साथ फरार हो गया। जेल से फरार होने के बाद, तांत्या ने झूठे गवाहों और दुश्मनों के घरों को जला दिया, ताकि वह यह बता सके कि वह किसी के साथ समझौता नहीं करेगा। वह अपनी जान की परवाह किए बिना अपनी लड़ाई जारी रखे हुए था।

तांत्या का जीवन और मृत्यु

टांत्या की दास्तान में एक और रोचक किस्सा है, जिसमें उसे पुलिस ने गिरफ्तार करने के लिए हर संभव प्रयास किया। एक बार, पुलिस को खबर मिली कि तांत्या जंगल में छिपा हुआ है। तांत्या ने स्टेशन पर कुली बनकर एक पुलिस अधिकारी का सामान ले लिया और उसे जंगल में लेकर चला गया। जब पुलिस अधिकारी ने उससे पूछा कि तांत्या कहां है, तो कुली ने कहा, “मैं ही टण्ड्रा हूँ!”

इस प्रकार की चतुराई से तांत्या ने पुलिस अधिकारियों को हमेशा चकमा दिया। एक और घटना में, जब तांत्या एक हजाम के रूप में पुलिस अधिकारी के घर गया, तो उसने उससे मजाक करते हुए कहा, “आपमें हिम्मत है कि टण्ड्रा को पकड़ लेंगे?” और फिर वह हजामत करने के बाद, पुलिस अधिकारी का नाक काटकर भाग गया। यह घटना तांत्या की अद्वितीय वीरता और चालाकी का उदाहरण है।

फांसी और लोक श्रद्धा

तांत्या भील के जीवन का अंत 26 सितंबर 1889 को हुआ, जब उसे जबलपुर डिप्टी कमिश्नर अदालत से फांसी की सजा सुनाई गई। उसकी फांसी की तिथि पर कुछ विवाद है, लेकिन कहा जाता है कि उसे 4 दिसम्बर 1889 को फांसी दी गई थी।

उसकी फांसी के बाद, वह भील समाज में एक देवता की तरह पूजे जाने लगे। उनका मानना था कि तांत्या में ईश्वरीय शक्ति थी। आज भी उन्हें इंडियन रॉबिन हुड के रूप में याद किया जाता है। अंतरराष्ट्रीय समाचार पत्र द न्यूयॉर्क टाइम्स ने भी 10 नवंबर 1889 को तांत्या भील को इंडियन रॉबिन हुड के रूप में चित्रित किया।

तांत्या भील का जीवन साहस, संघर्ष और निडरता की कहानी है। उन्होंने आदिवासी समुदाय के अधिकारों के लिए जो संघर्ष किया, वह आज भी प्रेरणा का स्रोत है। वह न केवल एक वीर क्रांतिकारी थे, बल्कि एक लोक नायक भी थे जिन्होंने अत्याचारियों के खिलाफ सशस्त्र संघर्ष किया। उनके संघर्ष और बलिदान ने उन्हें इतिहास में अमर बना दिया। उनके योगदान को कभी भुलाया नहीं जा सकता, और वे हमेशा हमारे दिलों में “मामा” के रूप में जीवित रहेंगे।

शत शत नमन तांत्या भील को!