महान क्रांतिवीर यतीन्द्रनाथ मुखर्जी

Bagha Jatin

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के अजेय योद्धाओं में से एक योद्धा यतिन्द्रनाथ उर्फ बाघा जतिन थे जिन्हें बंगाल के “चन्द्रशेखर आजाद“ के नाम से संबोधित किया जाता है।
वीर जतिन का जन्म 7 दिसम्बर 1879 कायाग्राम “जैसोर“ (वर्तमान बंग्लादेश) में एक ब्राहम्ण परिवार में हुआ था। आपके पिताश्री उमेशचन्द्र मुकर्जी थे। पांच वर्ष की अल्पआयु सर पर से पिता का साया उठ गया था। आपकी महान माताश्री ने आपमें देशभक्ति का मंत्र फूंका।
वीर जतिन ने इन्टरेंस पास कर कलकत्ता सचिवालय में स्टेनोग्राफर पद पर कार्य किया। वीर जतिन हृष्ट-पुष्ट और शौर्यवान पुरूष थे। जब उनकी अवस्था 27 वर्ष की थी तो नदिया जिले के एक जंगल में एक चीते से उनका मुकाबला हो गया। उसे आपने हँसिये से मार गिराया, तब से लोग आपको ’बाघा यतीन्द्र’ के नाम से पुकारने लगे थे।
वीर जतिन लाठी, तलवार, घुड़सवारी व कुश्ती के महारथी थे। आप नियमित रूप से गीता पाठ भी करते थे। कलकत्ता के आस-पास आपकी विशेष पहचान थी।
बाघा जतिन ने “पश्चिमी बंगाल अनुशीलन समिति“ की स्थापना की थी जिसे पुलिन बिहारी की अनुशीलन समिति में विलय किया गया था।
क्रांतिवीर ने 1905 में दार्जलिंग मेल में 4 सिपाहियों को पीट दिया था। बंग-भंग के बाद जतिन बाघा ने नौकरी छोड़ दी और क्रांतिकारी संगठन में जुड़ गये। सन् 1910 ई॰ में वे हावड़ा षड्यन्त्र केस में पकड़ लिये गये किन्तु एक वर्ष के कारावास के बाद उन्हें छोड़ दिया गया। पहले आपने अनुशीलन समिति के अन्दर काम किया किन्तु सरकार ने समिति के प्रायः सभी कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार करके उसके काम को ढीला कर दिया तो आपने वारीन्द्र आदि से ’युगान्तर’ का कार्य सम्भाल लिया। आप एक धार्मिक प्रवृति के उदार और दयाशील व्यक्ति थे। इससे आपका साथियों पर अच्छा खासा प्रभाव रहता था। निर्भिकता, निःस्वार्थ सेवा भाव तथा अन्यतम नेतृत्व गुणों के कारण उस समय बंगाली क्रांतिकारियों के वे सहज ही नेता बन गये थे।
पंजाब में द्वितीय स्वतंत्रता संग्राम की तैयारी के समय रास बिहारी बोस ने जतिन बाघा को उत्तर प्रदेश (बनारस) में बुलाया व स्वतंत्रता संग्राम का विशेष दायित्व संभलाया।
क्रांतिकारियों को शस्त्र खरीदने के लिये रुपयों की विशेष आवश्यकता थी जिसकी पूर्ति के लिये जतिन बाघा ने दिनांक 22 फरवरी, 1915 को एक बैंक डकैती कर 22 हजार रुपये प्राप्त किये।
सशस्त्र क्रांति के लिये देश में किसी भी क्रांतिकारी संघ को हथियार खरीदने के लिये रुपयों की आवश्यकता होती थी तो उसे बैंक डकैतियों के माहिर बाघा जतिन अपना पराक्रम दिखाकर पूर्ण करते थे। बलियाघाट व गार्डन रीच की डकैतियां प्रसिद्ध रही हैं।
बाघा ने राडा कम्पनी के 52 मोजर व 50000 कारतूस भी फिरंगियों से सफलतापूर्वक छीने थे।
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के सशस्त्र युद्ध के लिये बाघा ने जर्मनी से हथियार मंगाये थे। 4 सितम्बर, 1915 में बाघा जतिन को उनके पांच साथियों सहित फिरंगी सैना के 50 सिपाहियों ने बालेश्वर के पास घेर लिया। दो दिन तक मुकाबला चला परन्तु छापामार युद्ध में दक्ष बाघा ने फिरंगी फौज को एक कदम भी आगे नहीं बढ़ने दिया। इस मुकाबले में फिरंगी खुफिया प्रधान टैगर्ट ने कमान संभाली हुई थी। यतीन्द्र की पीठ में गोली लगी किन्तु गिरे नहीं यह देख कर उनकी टाँग में गोली मारी गई जो जाँघ को पार कर गई। वह गिर पड़े। उनके एक साथी चितप्रिय राय भी काम आये। मनोरंजन, नरेन्द्र और ज्योतिषी को पकड़ लिया गया। श्री यतीन्द्रनाथ को जंगल से उठा कर बालेश्वर के अस्पताल में पहुँचाया गया वहाँ वे 9/10 सितम्बर सन् 1915 को वीरगति को प्राप्त हुये।
बाघा जतिन के मामले में बेरिस्टर जे. एन. राय ने सी.आई.डी. प्रधान टैगर्ट से पूछा “क्या यतीन्द्र जीवित है ?“ तो टैगर्ट ने उत्तर दिया “दूर्भाग्यवश वह मर गया।“ शहीद बाघा के प्रति सम्मानजनक शब्दों पर आपत्ति किये जाने पर टैगर्ट ने कहा “Though I had to do my duties, I have a great admiration for him. He was the only Bengali who died in an open fight from trench”
यानि ”मुझे अपने कत्र्तव्य का पालन करना था किन्तु मैं यतीन्द्र की वीरता का सम्मान करता हूँ। वे अकेले बंगाली थे जो लड़ते-लड़ते मरे।“
हमारे देश का दूर्भाग्य है कि आजादी के इतिहास में हमारे क्रांतिवीरों को उग्रवादी लिखा जाता है परन्तु फिरंगी अधिकारी भी उनकी वीरता के कायल थे।
जतिन बाघा की क्रांतिकारी संस्था की योजना सन् 1857 की गदर की भँति ही एक और गदर कराने की थी। इसमे राजा महेन्द्र प्रताप और मौलवी बरकतुल्ला जैसे प्रभावशाली आदमी भी शामिल थे।
श्री भोलानाथ चटर्जी और नरेन्द्र भट्टाचार्य को बटेविया भेजा गया ताकि वे जर्मनी से दो हथियार बन्द जहाज बंगाल की खाड़ी में पहुँचा दें। इधर अमेरिकन जैक क्रांतिकारियों ने अंग्रेजों को इसकी सूचना दे दी। जर्मन अधिकारियों को इस भेद के खुल जाने का पता चल गया इससे जहाज न आ सके फिर बालासोर घाट पर हथियार लाने का प्रबन्ध किया गया। किन्तु अंग्रेजों को पहले ही पता चल गया था अतः जो भी थोड़े बहुत आये पकड़ लिये गये और स्थान-स्थान पर तलाशियों की धूम मच गई।
बाघा जतिन के क्रांतिकारी शब्द:
“पूंजीवाद समाप्त कर श्रेणीहीन समाज की स्थापना क्रांतिकारियों का लक्ष्य है। देशी-विदेशी शोषण से मुक्त कराना और आत्मनिर्णय द्वारा जीवन-यापन का अक्सर हमारी मांग है।“

शत् शत् नमन!!

क्रान्तिवीर उल्लासकर दत्त

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“Look, Look! the man is going to be hanged and he laughs,”(देखो! देखो! इस आदमी को फाँसी दी जाने वाली है और वह हँस रहा है) “Yes, I know they all laugh at death,” (हाँ, हाँ, मैं जानता हूँ, मौत उनके लिए दिल्लगी है।)

यह बातचीत उन दो यूरोपियन पहरेदारों के मध्य तब हुई जब फाँसी की सजा सुनकर उल्लासकर दत्त हँसता हुआ अपनी कोठरी को लौट रहा था। उसने जज के मुँह से फाँसी की सजा सुनकर हँसते हुए एक अंगड़ाई लेकर कहा था ”चलो एक बड़े झंझट से छूटकारा मिला।“

उनका नाम उल्लासकर दत्त था और उन्होनें अपने जेल जीवन में अपने नाम को सार्थक ही किया। अलीपुर बम केस में श्री वारीन्द्र घोष, उपेन्द्रनाथ बनर्जी, हेमचन्द्र आदि के साथ आपको भी पकड़ लिया गया। सेशन जज ने तो आपको फाँसी की सजा दी थी किन्तु हाईकोर्ट से काले पानी की रह गई थी। उल्लासकर साहसी नौजवानों में से थे। एक बार उनकी पुलिस वालों के साथ भिड़न्त हो गई। आपने भी उन्हें पीटा और आपकी भी उन्होनें खूब पिटाई कर दी। पुलिस ने आप पर मुकद्दमा भी चलाया किन्तु प्रमाणों के अभाव में आप छूट गये।

जिन दिनों उल्लासकर बम्बई के इंजिनियरिंग क्लास में शिक्षा पा रहे थे उन्हीं दिनों बंगाल में बंग-भंग के सरकारी ऐलान से आन्दोलन उठ खड़ा हुआ। आप वहाँ पर ’युगान्तर’ के गर्म-गर्म लेख पढ़ते थे। उन पर भी असर पड़ा और वे बम्बई से कलकत्ता आ गये। यहाँ स्वदेशी आन्दोलन में भाग लेना आरम्भ कर दिया। स्वदेशी आन्दोलन के कर्णधार थे बंगाल में उन दिनों बाबू विपिनचन्द्र पाल और श्री सुरेन्द्रनाथ बनर्जी। उनके भाषणों और श्री रवीन्द्रनाथ ठाकुर की कविताओं का आप पर बड़ा असर पड़ा। इन भाषणों के सुनने से उनमें देशभक्ति का उत्तरोत्तर प्रवाह बढ़ता ही गया।

स्वदेशी आन्दोलन में काम करते हुए उन्हें ज्ञान हुआ कि बिना डर या भय के अंग्रेज भारत छोड़ने वाले नहीं है। अतः उनकी प्रवृति आंतकवाद की ओर हुई। उन्होनें बम बनाना सीखना आरम्भ कर दिया और उस काम में वे थोड़े ही दिनों में निपुण हो गये।

कलकत्ते में उन दिनों वारीन्द्र घोष की गुप्त समिति की भी चर्चा थी। वे भी उसमें शामिल हो गये और इसमें सन्देह नहीं था कि उनके उस समिति में शामिल होने से कार्य को काफी प्रगति मिली।

वैद्यनाथ धाम में जब वारीन्द्र ने बम फैक्टरी खोली तो उसके संचालक उल्लासकर ही थे। इसके अलावा उल्लासकर ने दो अन्य स्थानों पर भी बम की फैक्ट्रीयां कायम की थी जिनमें से एक उनके घर में तथा दूसरी मुरारीपुरकर रोड़ के पास के एक मकान में थी।

बम बनाने के काम में श्री उल्लासकर ने श्री हेमचन्द्र से आर्थिक सहायता लेकर उसे अच्छा रूप दे दिया था। श्री हेमचन्द्र ने अपनी जायदाद का एक हिस्सा बेच कर उसमें से कुछ रूपया बम के कारखाने में लगाया और कुछ से विदेशों में जा कर वे बम बनाना सीख कर आये।

क्रांतिवीर वारिन्द्र घोष उर्फ वारिन्द्र नाथ

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वारिन्द्र नाथ उर्फ वारिन्द्र घोष “मानिकतला दल“, “गोदघर“ व “देवघर दल“ के अग्रणीय क्रांतिकारियों में से एक थे। श्री वारिन्द्र घोष का जन्म डाॅ. कृष्णधन एवं श्रीमती स्वर्णलता के घर क्रायडन (लंदन के पास) दिनांक 05 जनवरी, 1880 को हुआ था। वारिन्द्र घोष ने इंग्लेण्ड में शिक्षा प्राप्त की। श्री वारिन्द्र घोष सन् 1902 में भारत आ गये उस समय बड़ोदा नरेश के निजी सचिव रहे तथा नेशनल काॅलेज, कलकत्ता के प्राचार्य रहे।

वारिन्द्र अपने आपको राष्ट्रीय आंदोलन से दूर नहीं रख पाये और उन्होनें शसस्त्र क्रांति की नींव रखी। घोष ने श्री जतिन्द्र मुखर्जी के साथ “अनुशीलन समिति“ का गठन किया जिसे मानिकतला व देवघर के नाम से जाना जाता है। इस समिति ने 1906 में मानिकतला के बगीचे में बम्ब बनायें इसलिये इनके क्रांतिकारी कृत्य को मानिकतला के नाम से जाना जाता है। इस समिति के क्रांतिकारियों का केन्द्र “देवघर“ में स्थापित किया गया था इसलिये इस क्रांतिदल को देवघर क्रांति के नाम से भी जाना जाता है।

महान क्रांतिवीर खुदीराम बोस व प्रफुल्ल चाकी इसी क्रांति दल के सदस्य थे। उस समय कसाई काजी के नाम से कुख्यात जज किंग्सफोर्ड का वध करने का बीड़ा प्रफुल्ल चाकी व खुदीराम बोस ने संभाला था।

वारिन्द्र के इस क्रांतिकारी दल के द्वारा 6 दिसम्बर 1907 को बंगाल गर्वनर की हत्या हेतु रेलवे लाईन उड़ाई गई थी परन्तु दुर्भाग्यवश गर्वनर बच गया। 23 दिसम्बर 1907 को ढ़ाका कलेक्टर पर गोली चलाई गई व 30 अप्रेल 1908 को मुज्जफरपुर के सेशन जज किंग्सफोर्ड का वध करने हेतु उसकी गाड़ी पर बम्ब फैंका गया। कलकत्ता में एक पुलिस इन्सपेक्टर को गोली से उड़ा दिया गया।

जेल से छूटने के बाद वारिन्द्र 1920 में वापिस कलकत्ता आये व समाचार पत्र “नारायण“, “बिजली“, “युगान्तरण“, “दैनिक बासुमती“ का सम्पादन किया।

वारिन्द्र दल के क्रांतिकारियों को फिरंगियों ने “अलीपुर षड़यन्त्र“ का नाम दिया व मुकद्दमे बनाये, जिनमे प्रथम बम्ब षड़यन्त्र मामले में वारिन्द्र व उल्लासकर दत्त को प्राण दण्ड की सजा दी गई थी परन्तु हाईकोर्ट द्वारा इसे दिपान्तरवास में बदल दिया था।
सर्व श्री हेमचन्द्र दास, उपेन्द्रनाथ बनर्जी, सलेन्द्रनाथ बोस, भभुति भूषण रास और 6 अन्य व्यक्तियों को कालापानी तथा कई को दस.दस साल की सजा दी गई।

बंगाल में इस केस की बड़ी चहल.पहल रही। सिर्फ इसलिए नहीं कि अब तक तमाम केसों में बड़ा केस था बल्कि इसलिए कि इस केस के मुखबिर नरेन्द्र गोस्वामी को मुकद्दमें की सुनवाई आरम्भ होने से पहले ही जेल में कन्हाई दत्त और यतीन्द्र नाम के नौजवानों ने मौत के घाट उतार दिया था। जिस वकील ने नरेन्द्र गोस्वामी के कत्ल के मुकद्दमें में सरकारी वकील की हैसियत से पैरवी की उसे 10 फरवरी 1909 को कलकत्ते में गोली से उड़ा दिया गया। इसके बाद अपील के दौरान हाइकोर्ट में पैरवी करने वाले पुलिस सुपरिन्टेन्डेट को भी गोली से मार दिया गया।

वारीन्द्र घोष के कार्यों, उनके साथियों तथा उनके जीवन का पता उनके उस बयान से चलता है जो उन्होने अपने गिरफ्तार होने पर 22 मई 1908 को मजिस्ट्रेट के सामने दिया था। उन्होनें कहा था कि वह बड़ौदा में राजनीति और इतिहास का विद्यार्थी था। वहाँ से मैं इस उद्देश्य से बंगाल आया कि अपने प्रान्त के लोगों में आजादी के लिए प्रचार करूँ। मैं प्रत्येक जिले घूमा, अनेक स्थानों पर मैंने व्यायामशालाएं खुलवाई, जहाँ लड़के कसरत करें और राजनीति पर भी बातें करें। दो वर्ष तक लगातार मैंने यही काम किया। थक जाने के कारण मैं बड़ौदा लौट आया। बड़ौदा में एक साल रहने के बाद मैं फिर बंगाल आया। यहाँ उस समय तक स्वदेशी आन्दोलन आरम्भ हो चुका था। मैंने अपने कुछ साथियों के साथ “युगान्तर“ नाम का पत्र चलाया और फिर दूसरे लोगों के सुपुर्द कर दिय। मेरा विश्वास था कि एक समय क्रांति होगी और उसके लिए हमें तैयार रहना चाहिये इसलिए हमने थोड़े-थोड़े करके हथियारों का संग्रह करना आरम्भ कर दिया। मेरे साथियों में श्री उल्लासकर दत्त ने बम बनाना आरम्भ किया। श्री हेमचन्द्र अपनी जायदाद को बेचकर फ्रांस गये और वहाँ से बम बनाना सीख कर मकैनिक उल्लासकर के साथ बम बनाने के काम में जुट गये।

वारीन्द्र कुमार के साथी श्री उपेन्द्रनाथ बनर्जी ने अपने बयान में कहा था वह अपने देश के नौजवानों को अपने देश की गिरी हुई हालत का बताता था और कहता था कि हमारी उन्नति बिना आजाद हुए सम्भव नहीं और बिना लड़ाई के आजादी मिलने वाली नहीं। अतः अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए गुप्त संस्थाएं कायम करना और हथियार संग्रह करना आवश्यक है जिससे कि अवसर मिलते ही विद्रोह खड़ा किया जाये।
वारीन्द्र घोष द्वारा संस्थापित अनुशीलन समितियाँ इन संकट के दिनों में बराबर काम करती रहीं। 1918 तक तो वह काफी मजबूत हो गई थी। इन समितियों में शामिल होने वालों के लिए माँ की मूर्ति के सामने संस्था के प्रति वफादार रहने की शपथ लेनी पड़ती थी।

इस षड्यन्त्र केस में 38 अभियुक्त थे जिनमें एक नरेन्द्र गोस्वामी भी था। चीफ जस्टिस के कथनानुसार अभियुक्तों में अधिकांश मनुष्य पक्के धार्मिक विश्वासों की शिक्षा से दीक्षित थे। चीफ जज ने यह भी लिखा थाः. कि इससे पहले इन्होनें कोई कहने योग्य षड्यंत्र नहीं रचा था। यही इनका पहला बड़ा और अन्तिम षड्यंत्र था। इस षड्यंत्र में इन्होने अपनी क्रियाशीलता, सत्साहस और दृढ़ संकल्प.शक्ति का पूर्ण परिचय दिया था।

हाइकोर्ट से वारीन्द्र की सजा आजन्म काला पानी की रह गई थी। वे बारह वर्ष काले पानी में रहे। ये बारह वर्ष उन्हें मृत्यु से भी बूरे पड़े। सन् 1920 में छूटने के बाद उन्होनें श्री सी॰आर॰ दास के सहयोग में काम करना आरम्भ कर दिया। इसके बाद पांडीचेरी अपने भाई के पास चले गये जहाँ से “बिजली“ नामक पत्र निकालकर अपने विचारों का प्रचार करते रहे।

दिनांक 18.04.1959 को क्रांतिवीर देवगति को प्राप्त हुये।

महाराष्ट्र के वीर चापेकर बन्धु

Damodar Chapekar

जब शासकों में अथवा राज-सत्ता में भ्रष्टाचार फैलता है, तब देश के लोगों में स्वार्थपरता की मात्रा इतनी बढ़ जाती है कि वे दूसरों के दुःख की तनिक भी परवाह नहीं करते -शोषण अपनी चरम सीमा पर पहुँच जाता है तब क्राँति का होना अनिवार्य हो जाता है।

सन् 1857 के गदर के बाद कम्पनी के स्थान पर जब ब्रिटिश जाति का भारत पर शासन हो गया और ज्यों-ज्यों समय बीतता गया, ब्रिटिश जाति अपने शासन को मजबूत और भारतीयों के हितों का अपहरण तथा उनके आत्माभिमान का हनन करने लगी।

सन् 1885 ईस्वी में काँग्रेस कायम हो चुकी थी। देश के बड़े कहलाने वाले लोग उसमें शामिल हो रहे थे। वे बड़ी मीठी आवाज में ब्रिटिश सरकार से अपने फौलादी पंजे को शनैः शनैः ढीला करने और हिन्दुस्तानियों को आर्थिक, सामाजिक और राजनैतिक सुविधायें देने की माँग कर रहे थे किन्तु मदोन्मत शासक काँग्रेस के आवेदनों की कोई भी परवाह नहीं कर रहे थे। सरकार के इस प्रकार के रूख और रोज-रोज हिन्दुस्तानियों को दबाने के नये-नये प्रयत्नों से नौजवान भारतीयों के अन्दर तिलमिलाहट पैदा हो रही थी।

देश के हर कोने में किसी न किसी रूप में अंग्रेज शासकों के काले कारनामें का विरोध होने लगा। महाराष्ट्र में श्री बाल गंगाधर तिलक ने कड़कती आवाज में अंग्रेज शासकों की आलोचना आरम्भ कर दी। उन्होनें ’मराठा’ और ’केसरी’ नामक पत्रों का प्रकाशन किया और उनके द्वारा वे भारतीय जनता के पक्ष को सामने रखने और नौकरशाही के रवैये की पौल खोलने का काम करने लगे। इतनी बात पर ही उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और सर विलियम हण्टर, सर रिचर्ड गाथ, प्रो0 मैक्समूलर, मि0 विलियम कैन जैसे उदार यूरोपियनों तथा दादा भाई जैसे भारतीय महानुभावों की प्रार्थना पर उन्हें छोड़ा गया। इसी बीच ताजीराज हिन्द में 124, 153 जैसी धाराएं जोड़ दी गई।

1893 ई0 में बम्बई में हिन्दू मुस्लिम दंगों के बाद महाराष्ट्र में हिन्दु धर्म सरंक्षिणी सभा की स्थापना हुई। गणेश पूजा व शिवाजी उत्सव के आयोजन होने लगे और इन सबका संचालन चित्पावन ब्राहम्ण दामोदर व बालकृष्ण चापेकर ने किया। इन क्रान्तिवीरों ने गणपति पूजा व शिवाजी श्लोक को अपनी तरह से समझाया और लोगों की कायरता को ललकारा।

गणपति पूजा श्लोक “गुलामी से आत्महत्या ठीक है कसाई गौ वध करते हैं इसे दूर करो। मरो तो अंग्रेजो को मार कर मरो। चुप मत बैठो कुछ करो। अंग्रेजी राज वाजिब नहीं है।“

शिवाजी श्लोक “केवल शिवाजी गीत गाने से आजादी नहीं मिल सकती। शिवाजी व बाजीराव की तरह लड़ना होगा।“

सन् 1897 ई0 में पूना में प्लेग का प्रकोप हुआ। महामारी व दरिद्रता से जनता कराह रही थी। दूसरी तरफ 22 जून, 1897 को विक्टोरिया राज्यरोहन की 60वीं वर्षगांठ (हीरक जयंति) बनाई जा रही थी। प्लेग उपचार हेतु गर्वनर मिस्टर रैण्ड नामक अंग्रेज को बस्तियाँ खाली कराने का काम सौंपा गया। रैण्ड ने भारतीय महिलाओं के साथ अभद्र व्यवहार करना शुरू कर दिया। इस पर तिलक जी ने भी अपने तेवर बदले और इशारे को समझकर दामोदर चापेकर व उनके साथी द्रविड ने गर्वनर मिस्टर रैण्ड व लैफटिनेन्ट कर्नल आर्यस्ट का वध कर माँ भारती का सर गर्व से ऊपर उठाया।

द्रविड सरकारी गवाह बना व मुखबरी की जिस पर दामोदर चापेकर गिरफ्तार कर लिये गये। परन्तु क्रान्तिकारियों के कानून में गद्दार की सजा मौत से कम नहीं होती थी। बालकृष्ण चापेकर ने भरी अदालत में गद्दार द्रविड को मौत की सजा दी। वासुदेव, रानाडे व चार अन्य को फाँसी की सजा हुई।

“केसरी“ में दिनांक 15.06.1897 को हमारे मार्ग में बाधा डालने वालों को खत्म कर दिया जायेगा, क्रान्ति व अफजल जैसे लोगों का वध पाप नहीं होता जैसे समाचार प्रकाशित हुये।

अपने मुकद्दमें के दौरान प्रथम दोनों चापेकर बन्धुओं ने यह स्वीकार किया कि दोनों अंग्रेज हमारी ही गोली से मारे गये किन्तु हमारा लक्ष्य केवल गवर्नर मिस्टर रैण्ड था, लेफटिनेन्ट कर्नल आयस्र्ट तो अनायास ही मारे गये इसका हमें खेद भी है।

दामोदर चापेकर को दिनांक 18 अप्रेल 1898, वासुदेव चापेकर को 8 मई, 1899 व बालकृष्ण चापेकर को 12 मई, 1899 को फाँसी दे दी गई। तीनों भाई हँसते-हँसते फाँसी के तख्ते पर चढ़ गये। देशवासियों ने चापेकर बन्धुओं की शहादत पर बहुत गौरव महसूस किया। महाराष्ट्र के लोग उन्हें दत्तात्रेय के समान मानने लगे। भगतसिंह, राजगुरू और सुखदेव को चापेकर बन्धुओं का अवतार माना।

यह कहा जा सकता है कि समस्त भारत में चापेकर बन्धु ही ऐसे प्रथम क्रांतिकारी शहीद थे जिन्होने हिंसा द्वारा अंग्रेजों को सबक देने का मार्ग अपनाया था।

प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम के योद्धा शहीद बाबू कुँवरसिंह

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प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम (1857) के महान योद्धाओं में बिहार के बुढ़े शेर बाबू कुँवर सिंह का शौर्य हमारे लिये प्रेरणादायी है। बिहार केसरी बाबू कुँवर सिंह का जन्म जगदीशपुर, जिला शाहाबाद, बिहार में सन् 1782 में हुआ। बाबू कुँवर सिंह पंवार राजपूत थे। ठाकुर कुँवर सिंह ने संस्कृत, फारसी में शिक्षा पाई थी और युद्ध-विद्या का भी पूरी तौर से अभ्यास किया था।

ठाकुर कुँवर सिंह अपने को महाराज विक्रमादित्य और राजा भोज के वंशज मानते थे। अलाउद्दीन ने जिस समय मालवा पर आक्रमण किया उस समय वहाँ के राजा शांतुन शाह अपने तीन पुत्रों सहित बिहार के भोजपुर में आ गये और इसे अपनी राजधानी बनाकर राज्य करने लगे। ठाकुर कुँवर सिंह के पिता साहबजादा सिंह जगदीशपुर में रहते थे और यहाँ से अपने इलाकों का प्रबन्ध करते थे। अब वे एक बड़े जमींदार थे।

जिस प्रकार गदर में पूर्वी उत्तर प्रदेश में मौलवी अहमदशाह, दक्षिण पश्चिम में महारानी लक्ष्मीबाई, मध्य भारत में तात्यां टोपे और महाराष्ट्र में नाना फड़नवीस ने अंग्रेजों की नाक में दम कर दिया था उसी भाँति बिहार के शाहाबाद जिले में ठाकुर कुँवर सिंह ने फिरंगियों को मात दी।

सिपाही विद्रोह के लिए 31 मई निश्चित थी किन्तु मेरठ में 10 मई को ही सूत्रपात हो गया। आगरा में जो अंग्रेजों की सैनिक छावनी थी उसमें भी विद्रोह हो गया। ऐसे समय ठाकुर कुँवर सिंह जैसे देशभक्त का चुप रहना कैसे सम्भव था। वह विद्रोह में शामिल हो गये। 27 मई 1857 को ‘आरा’ पर कब्जा कर लिया। 29 मई को कप्तान डनवर ने एक बड़ी सेना लाकर आरा को अंग्रेजी अधिकार में करना चाहा किन्तु वीर कुँवरसिंह ने कप्तान डनवर का वध कर दिया। तुरन्त दूसरा अंग्रेज अफसर एक बड़े तोपखाने के साथ आरा पर चढ़ आया। मेजर इर्रे के पाँव भी उखड़ने वाले ही थे कि एक और अंग्रेजों की फौज आ गई। अपने को फँसा हुआ देखकर ठाकुर कुँवरसिंह जगदीशपुर की ओर लौट आये।

मेजर इर्रे और दूसरे अंग्रेजों की विशाल सेनाओं ने जगदीशपुर की ओर कूच किया। बीबी गंज और दुलउर में ऐसी दो भीषण लड़ाईयाँ शुरू हुई कि अंग्रेज घबरा उठे। उनके हजारों आदमी जिनमें सैंकड़ों अंग्रेज भी थे देखते रहे।

अब ठाकुर कुँवर सिंह के पास इतने सैनिक नहीे रह गये कि वे सीधा मुकाबला कर सकें। अतः उन्होनें छापामार युद्ध की नीति अपनाई।

एक समय जबकि अंग्रेजों की बहुत सी सेनाएं लखनऊ की ओर मौलवी अहमदशाह को दबाने के लिए जा रही थी आपने आजमगढ़ पर कब्जा कर लिया और सरकारी खजाने के रूपये से हजारों आदमियों को अपनी सेना में भर्ती कर लिया। मिलमैन को जब यह समाचार मिला तो वह एक तोपखाना लेकर आजमगढ़ की ओर बढ़े किन्तु ठाकुर कुँवर सिंह ने आजमगढ़ से 25 मील दूर अतरौलिया में उनके तोपखाने पर हमला कर दिया और मिलमैन को पीछे हटना पड़ा।

मिलमैन की हार का समाचार पाकर कर्नल हाॅम्स अपना रिसाला लकर आजमगढ़ पहुँच गये। किन्तु उन्हें भी हार खानी पड़ी। इन विजयों से उत्साहित होकर ठाकुर कुँवर सिंह ने बनारस की ओर कूच किया। इस समाचार को सुन कर लार्ड कैनिंग ने जो उन दिनों इलाहाबाद आये हुए थे। लार्ड मार्कर को बड़ी सेना देकर मुकाबले के लिए भेजा। कुँवर सिंह जब एक नौका में बैठ कर गंगा को पार कर रहे थे एक अंग्रेज की गोली उनकी बाँह में लगी। आपने तलवार से बाँह काट कर गंगा में यह कहते हुए डाल दिया तू शत्रु की गोली खा चुकी है और एक हाथ से युद्ध करना शुरू किया।

अस्सी वर्ष के इस क्षत्रिय वीर ने मरते दम तक अंगेजों का सामना किया। यद्यपि अंग्रेज सभी जगह विद्रोह को दबा चुके थे तो भी 23 अप्रैल सन् 1858 को आपने शाहाबाद पर कब्जा कर लिया। वहाँ अंग्रेज लोगों ने आपका अपूर्व स्वागत किया। उनका पूरा राज्य अब स्वतन्त्र था। किन्तु वृद्धावस्था और शरीर के जख्मों की पीड़ा ने 23 अप्रैल 1858 को उन्हें इस संसार से उठा लिया।

बाबू कुँवरसिंह की भाँति ही उनके छोटे भाई अमरसिंह भी बड़े बहादुर थे। कुँवरसिंह की घायलावस्था में अमरसिंह ने सेना का नेतृत्व किया था।

प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के योद्धा शहीद जियालाल

लखनऊ के नवाब वाजिदअली ने भी जियालाल जी को नसरत जंग का खिताब उनकी बहादुरियों पर खुश होकर दिया था। यह वीर कमाण्डर के ओहदे पर अवध की सेना में काम करता था। इन्हें गंगाघाट पर कानपुर की ओर से लखनऊ पर धावा न हो, इसके लिए नवाब वाजिदअली ने सीमा-रक्षक नियुक्त किया था। इंग्लैण्ड जाते हुए नवाब वाजिद अली ने अपने एक पुत्र बरजिल्स को गद्दी देकर अपनी तीसरी बेगम को उनका संरक्षक नियुक्त किया था। वाजिदअली कलकते में बीमार हो गये और इधर गदर आरम्भ हो गया। कानपुर की ओर से लखनऊ पर हमला करने वाली फौजों को रोकने के लिए नसरत जंग जियालाल ने इंच-इंच भूमि पर अंग्रेजी सेनाओं का मुकाबला किया। जब उसके पास बहुत थोड़े आदमी रह गये तो इसकी सूचना देने के लिए बेगम साहिबा के पास लखनऊ आया। लखनऊ वह थोड़े से आदमियों के साथ अंग्रेजीं सेना के द्वारा घेर लिया गया। जहाँ लखनऊ के टावर पावर के पास अंग्रेजों की शहीदी के स्मारक बने हुए हैं वहीं वीर जियालाल भी शहीद हुआ।

जियालाल नवाब वाजिदअली की सेनाओं के कमाण्डर श्री दर्शनसिंह के पुत्र थे और डाली बाग में रहते थे। यह डाली बाग दर्शनसिंह ने ही बनवाया था।

स्वतन्त्रता भिलाषिणी, अद् भुत शौर्यशालिनी, वीरांगना झाँसी रानी लक्ष्मीबाई

झाँसी की रानी

झाँसी की पुण्य.कीर्ति महारानी लक्ष्मीबाई का जन्म भागीरथी बाई की कोख से पुण्य नगरी काशीपुरी में अस्सी घाट पर कार्तिक बदी 14 संवत् 1891 (15 नवम्बर 1835) को हुआ था। पेशवा बाजीराव के भाई चिमाजी अप्पा के नियोजन में “मोरोपन्त तावे“ नामक एक महाराष्ट्रीय सज्जन थे अप्पा उस समय सरकार से कुछ पेन्शन लेकर काशी में रहते थे।

चतुर्दशी की पुण्य तिथि को मोरोपंत को एक कन्या की प्राप्ति हुई। इस रत्न का नाम मनूबाई रखा गया। यह रत्न मोरोपन्त के घर का ही रत्न न था, वह भारत माता का एक दैदीप्यमान रत्न हुआ। संसार के अमर इतिहास में सबसे ऊपर जड़ा जाने वाला यह रत्न निकला। तीन-चार साल के अन्दर ही चिमोजी अप्पा और मनूबाई की माता का देहान्त हो जाने से मोरापन्त इस रत्न को लेकर ब्रह्मवर्त हो गये।

कानपुर के समीप गंगा के किनारे बिठूर का ब्रह्मवर्त नामक एक गाँव हैं। सम्राज्य बना कर हिन्दुस्तान पर एक समय राज्य करने वाले पेशवाओं के आखिरी पेशवा बाजीराव प्रतिवर्ष 8 लाख की पेन्शन लेकर अंग्रेजों का दिया हुआ अन्न खाते हुए इसी बिठूर गाँव के एक राजमहल में अपने आखिरी दिन काट रहे थे। पर बिठूर में गंगा किनारे बालू पर उस समय एक अभूतपूर्व उत्साह फैला था। 1857 के क्रांन्ति युद्ध में जो अमर हो गये हैं उनमें से बहुत से उस समय बिठूर की बालू पर किले बना रहे थे, घोड़ों पर चढ़ रहे थे, तलवार, बरछी, भाला, पठा इत्यादि युद्ध विद्याओं की शिक्षा प्राप्त कर रहे थे।

पेशवा बाजीराव के दो पुत्र नाना साहब और बाला साहब, पौत्र राव साहब तथा क्रांन्ति युद्ध के वीरवर सेनापति धैर्य मूर्ति तात्यां टोपे अपने गुरू द्वारा उस बालू पर वीर रस से भरी हुई रामायण, महाभारत की कथाऐं सुन रहे थे उनमें एक महिला भी थी। मनुबाई की शिक्षा, घुड़सवारी, युद्ध विद्या बाजीराव के दत्तक पुत्र नाना धुन्धूपन्त एवं राव साहिब के साथ हुई। मोरोपन्त ताँबे की मनूबाई ने अपने अद्वितीय रूप, गुण, चातुर्य से बिठूर के लोगों को मोहित कर लिया था। वह बालिका पेशवा के राजमहल में छबीली हो गई थी। छबीली नाम उनको बाजीराव ने दिया था। यह छबीली आगे जाकर झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई हुई और उसके बाद ग्वालियर में यह वीर भारत की स्वतन्त्रता के लिए लड़ते-लड़ते झाँसी की बिजली कहला कर अन्त्रध्यान हो गई थी।
झांसी महाराज पेशवा गंगाधर राव की पहली स्त्री का देहान्त हो गया। उनके कोई पुत्र न था इसलिए उनकी दूसरी शादी बिठूर के राजमहल में पलने वाली इस बालिका से हो गई। झाँसी में आने के बाद उनका नाम लक्ष्मीबाई रखा गया। सन् 1851 में रानी के एक लड़का हुआ पर तीन ही महीने के अन्दर वह काल का ग्रास हो गया। इस धक्के से 21 नवम्बर 1853 को गंगाधर राव नामक अपने ही खानदान के एक लड़के को गोद ले लिया था जिसका नाम दामोदर राव था।

उस समय भारत पर फिरंगियों के प्रतिनिधि लार्ड डलहौजी का शासन था। अंग्रेजों की सम्राज्य-तृष्णा उस समय इतनी बढ़ गई थी कि लार्ड डलहौजी सतारा, तंजौर, नागपुर और पंजाब के राज्य अंग्रेजी अमलदारी में मिला चुके थे। लार्ड डलहौजी ने इस स्त्री की भी अवहेलना की। झाँसी पर रानी का उत्कृष्ठ प्रेम था। जब रानी ने लार्ड डलहौजी की आज्ञा सूनी तो उनकी आँखों में अश्रुधारा बहने लगी, उनका गला भर आया और अभिमान से भरे हुए करूणा शब्दों में उन्होने कहा कि “मैं अपनी झाँसी नहीं दूँगी।“ रानी के इन शब्दों से ही यह अच्छी तरह मालूम हो जाता है कि झाँसी पर उनका कितना प्रेम था। 7 मार्च, 1853 को डलहौजी ने झाँसी ब्रिटिश राज्य में मिला लिया।

क्रांन्ति युद्ध की पहली चिन्गारी 29 मार्च 1857 को भड़क उठी जब बैरिकपुर की पलटन के सिपाही मंगल पाण्डेय ने बिगुल बजाकर जंग-ए-आजादी का एलान कर दिया था। 6 अप्रैल को मंगल पाण्डेय को फाॅंसी पर चढ़ा दिया गया। पर सैंकड़ों मंगल पाण्डेय 10 मई को मेरठ में तैयार हो गये और विद्रोह का झण्डा खड़ा कर दिया। 4 जून को कानपुर में नाना साहब के अधीन युद्ध की घोषणा होते ही 7 जून को झाँसी में स्वराज्य के नारे लगने लगे।

इस विद्रोह में रानी लक्ष्मीबाई का कुछ भी हाथ न था। उल्टे जितना हो सका उतनी सहायता अंग्रेजों की ही की। उन्हें गेहूँ की रोटियाँ भेजी, उन्हें दतिया में भाग जाने की सलाह दी तथा 100 सिपाही और दिन की रसद भी भेजी। अंग्रेज इतिहास लेखक और झाँसी के कत्ल से बचे हुए मार्टिन दोनों ने इस बात को स्वीकार किया है। पहले दिन के कत्ल में 75 अंग्रेज पुरूष, 19 स्त्रियाँ तथा 23 बच्चे मारे गये। कत्ल के बाद खजाना लूट कर अंग्रेजों के बंगले जला कर तथा रानी से तीन लाख रूपये जबरदस्ती लेकर सिपाही दिल्ली की तरफ चले गये। झाॅंसी बिना छत्र के हो गई पर 9 जून को राज्य व्यवस्था का काम रानी ने फिर अपने हाथ में लिया। अंग्रेजों की जो लाशें रास्ते में पड़ी थी उनको इकट्ठा कर रानी ने उनका योग्य अंतिम संस्कार किया। जबलपुर तथा आगरे के कमिश्नरों को रानी ने चिट्ठी लिख कर बता दिया कि प्रजा पर अत्याचार न हो इसलिए मैं अंग्रजों की तरफ से झाँसी पर राज कर रही हूॅं। पर ये सब चिट्ठियां किसी ने बीच में ही षड्यन्त्र कर गायब कर दी।

रानी ने राज्य की व्यवस्था बहुत अच्छी तरह से की। चोर और डाकुओं का दमन किया। पर एक अबला के हाथ यह राज्य देखकर रानी के पिता का एक दूर का भाई अपने को झाँसी का महाराजा कह कर झाँसी पर आक्रमण करने आया और उसने झाँसी से 30 मील दूर करेरा नाम के किले पर अपना आधिपत्य जमाया। रानी ने भी अपनी तरफ से खूब तैयारी करके उस नये झाँसी के महाराज को ग्वालियर भगा दिया। इसके बाद रानी पर फिर संकट आया। झाँसी से डेढ़ दो मील पड़ने वाले ओरछा गाँव के दीवान नत्थे खाँ ने दतिया की फौज की सहायता से झाँसी शहर को घेर लिया। रानी अपने किले पर अंग्रेजों का यूनियन झण्डा और पेशवाओं का भगवा (गेरूआं) झण्डा दोनों फहराये और मर्दाना वेष में खुद हाथ में तलवार लेकर नत्थे खाँ का सामना किया। नत्थे खाँ भाग गया। चिढ़ कर उसने अंग्रेजों को लिख दिया कि रानी विद्रोहियों में शामिल हो गई हैै।

19 मार्च 1858 तक झाँसी पर रानी लक्ष्मीबाई का शासन रहा। रानी रोज सवेरे अखाड़े में जाकर दण्ड-बैठक, मलखम्ब, जंबिया चलाना इत्यादि व्यायाम और कसरत करती थी। किसी दिन पुरूष के वेष में किसी दिन स्त्री के वेष में वह खुद दरबार में आकर हुक्म लिखती थी। तलवार के साथ कलम का भी काम रानी अच्छी तरह से जानती थी। रियासत के बड़वासागर नामक गाँव में डाकुओं ने बड़ा उपद्रव मचा रखा था। रानी खुद 15 दिन वहाँ रही और उन्होनें उन डाकुओं का दमन किया। घायल सिपाहियों की देखभाल खुद रानी किया करती थी। झाँसी की सब प्रजा रानी को माता से भी अधिक प्यार करती थी। अंग्रेज यही समझते थे कि रानी विद्रोहियों में शामिल हो गई है। रानी के राजभक्त रहते हुए भी जब अंग्रेजों ने अपने सेनापति सर ह्युरोज को 60 हजार सेना के साथ झाँसी पर भेजा तो उनका अभिमान जागृत हो गया। रानी को अंग्रेजों की कुटिल नीति से घृणा हो गई और उन्होनें उस समय मरते दम तक अंग्रेजों से लड़ते़ रहने का निश्चय किया। जोर-शोर से झाँसी के कारखानों में खुद रानी की देख भाल में बारूद बनने लगे।

20 मार्च 1858 को सर ह्युरोज ने झाँसी को घेर लिया। 22 वर्ष की इस युवती ने खुद हाथ में तलवार लेकर युद्ध विद्या में बाल सफेद करने वाले सर ह्युरोज का आह्नान स्वीकार किया। उस समय मालूम पड़ता था कि प्रत्यक्ष भगवती दुर्गा ने अवतार धारण किया है। अंग्रेजों की तोपें गर्जने लगी। रात के समय तोप के लाल-लाल गोले आकाश में घूमते तथा फूटते देख कर लोगों के हृदय थर्रा उठते थे। झाँसी की स्त्रियाँ भी इस युद्ध में अपनी शक्ति भर काम करने लगी। रानी ने गाँव में अन्न बाँटना शुरू किया।

एक दिन अंग्रेजों का एक गोला झाँसी के बारूदखाने पर गिरा और सारे की सारे बारूद का इतने जोर से विस्फोट हुआ कि झाँसी शहर हिल उठा और 30 पुरूष तथा स्त्रियाँ वहीं ढेर हो गये। इस समय पेशवा के सेनापति तात्यां टोपे कालपी में थे। रानी ने उनके पास मदद के लिए सन्देश भेजा। तुरन्त तात्यां टोपे 22 हजार सेना लेकर आये और अंग्रेजों पर पीछे से हमला कर दिया। इसी समय अगर झाँसी वालों ने भी आगे से आक्रमण किया होता तो अंग्रेजों की हार निश्चित थी पर हमारा भारत वर्ष फूट के विष से आज तक नष्ट हो रहा है। ऐसे कठिन वक्त किले का एक हवलदार अंग्रेजों से मिल गया और उसने किले पर से एक भी गोला अंग्रेजों पर न छोड़ने दिया। अन्त में तात्यां टोपे को कालपी लौट जाना पड़ा। तात्यां टोपेे की हार सुन कर रानी ने धीरज न खोया। 4 अप्रैल को अंग्रेज शहर की दीवार पर सीढि़याँ लगाकर अन्दर आने लगे। रानी ने घनघौर संग्राम शुरू किया। रास्ते-रास्ते में घर-घर के पास अंग्रेजों का और झाँसी की सेना का युद्ध होने लगा। खुद रानी हाथ में तलवार लेकर दिन भर अंग्रेजों से लड़ती रही। अंग्रेज तलवार की लड़ाई में न टिक सके पर दीवारों की आड़ में छिप-छिप कर उन्होनें गोली चलाना शुरू कर दिया। निरूपाय होकर रानी को किले में लौटना पड़ा। फिर क्या था कत्ले.आम और आग लगाया जाना शुरू हुआ। रानी से यह न देखा गया और उन्होने “जौहर“ करने की ठानी पर कुछ विचार करने के बाद उन्होनें कालपी में रावसाहब पेशवा और तात्यां टोपे के पास जाने का निश्चय किया। अन्धकार होते ही 300 आदमियों के साथ रानी खुद ह्युरोज की छावनी में से सेना काटती हुई कालपी की तरफ चली। रानी ने पीठ पर 12 साल के लड़के दामोदरराव को बाँध लिया था। अंग्रेजों ने अपनी तोपों के साथ रानी का पीछा किया पर रानी का घोड़ा तीर के वेग से जा रहा था। उनके साथ सिर्फ एक नौकर और एक दासी बच गई थी। 21 मील तक लेफ्टनेन्ट वोकर ने उसका पीछा किया, पर भांडेर नामक गाँव के पास रानी ने वोकर साहब पर इस प्रकार तलवार चलाई कि वह उछल कर घोड़े के नीचे जा गिरा। बिना अन्न पानी के लगातार 24 घंटे में रानी 102 मील जमीन चल कर कालपी पहुंची। रानी की इस वीरता का वर्णन अंग्रेजों ने भी बड़े आदर के साथ किया है।

5 अप्रैल को झाँसी में कत्ल.आम शुरू हुआ। 5 साल से लेकर 80 साल तक जो भी पुरूष मिले सब गोली के शिकार बनाये गये। पुरूषों को बचाने के लिए स्त्रियाँ आगे आती थी। घर की दीवार तोड़-फोड़ कर देखा जाता था कि कहीं सोना तो नहीं छिपा रखा है। कितने लोग कुओं में कूदे पर वहाँ भी वे बच नहीं पाये। एक जगह अग्नि हौत्र के कुण्ड पर दौरी ढ़क दी गई गोरों ने सोचा कि उसमें सोना छिपा कर रखा है इसलिए उन्होनें उसमें हाथ डाले तो वे जल गये। तीसरे दिन भी यही हाल था। इन तीन दिनों में शहर में जो कुछ मूल्यवान था सब लूट लिया गया। करोड़ों रूपयों का माल मिला। झाँसी का प्रसिद्ध वाचनालय तथा पुस्तकालय भी नष्ट कर दिया गया। इस पुस्तकालय के लिए काशी के पंडित झाँसी जाते थे। सात दिन की इस लूट के बाद “खल्क खुदा का, मुल्क बादशाह का, अमल अंग्रेज सरकार का“ इस प्रकार की डुग्गी पीटी गई। इस काण्ड में करीब 20 हजार लोग मारे गये। बहुतों को फाॅंसी दी गई। रानी के पिता मोरोपन्त को दतिया के राजा ने विश्वासघात से अंग्रेजों को सुपुर्द कर दिया। उनको भी फाँसी दी गई।
झाँसी लेने के बाद सर हयूरोज ने कालपी लेने की बात सोची। इधर तात्यां टोपेे और रानी ने मिल कर झाँसी की तरफ सेना चलाई। दोनों सेनाओं का मुकाबला 6 मई को कुंचगांव में हुआ जिसमें रानी की हार हो गई और उनको कालपी लौट जाना पड़ा। इसके बाद 16 मई को रोज अंग्रेजी सेना के साथ कालपी पहुंचा और लड़ाई शुरू कर दी। इस लड़ाई में रानी ने अपना अद्भुत पराक्रम दिखाया। अपने 200 सवारों के साथ रानी ने अंग्रेजों का तोपखाना बन्द कर दिया। स्टुअर्ट नामक अंग्रेज अधिकारी अपनी सेना के साथ रानी की ओर चढ़ आया पर जल्दी ही उसके भी पैर उखड़ गये। रानी अब लड़ाई जितने ही वाली थी कि अंग्रेजों की एक ऊँटों की पलटन पहुंच गई और लड़ाई का रंग बदल गया। तात्यां टोपे के सिपाही भाँग पीकर लड़ रहे थे। अन्त में 24 मई को रोज का कालपी पर अधिकार हो गया।

कालपी की हार के बाद विद्रोहियों की एक सभा गोपालपुर में हुई और रानी की सलाह से तय हुआ कि अब ग्वालियर का किला अपने हाथ में कर लेना चाहिये। रानी की इस सलाह की मैलेसन नामक इतिहास लेखक ने बड़ी तरीफ की है। ग्वालियर में 23 वर्ष के जयाजीराव सिधिंया राज करते थे। राज्य का सारा प्रबन्ध उनके मन्त्री सर दिनकर राव राजबाड़े करते थे। इन दोनों ने विद्रोहियों से मिलना अस्वीकार कर दिया और अपनी सेना लेकर रानी से युद्ध करने के लिए आये। रानी ने बड़ी ही वीरता से उनको हरा दिया और 31 मई को ग्वालियर शहर और मुरार के किले पर पेशवा का कब्जा हो गया। 3 जून को फूलबाग में नाना साहब केे प्रतिनिधि की हैसियत से राव साहब का अभिषेक किया गया। दरबार हुआ और सब का योग्य सम्मान किया गया। इसके बाद पेशवा चुप्पी साध कर बैठ गये। रानी ने उनको कितना कहा कि आगरा वगैरह फिर लेना चाहिये पर उन्होने न सुना और फिर ब्राह्मण भोजन और ऐश आराम होने लगा।
कालपी लेने के बाद सर हयूरोज पेन्शन लेकर विलायत जाने की तैयारी कर ही रहे थे कि उन्होने रानी के ग्वालियर पर अधिकार जमा लेने की बात सुनी। उनकी छुट्टी नामंजूर कर दी गई। उन्होनें फिर एक चाल चली, आगरे से उन्होनें जयाजीराव सिंधिया की सेना को आगे-आगे चलाया और ग्वालियर पर आक्रमण कर दिया। कोटा की सराय की तरफ से स्मिथ ने आक्रमण किया पर 14 और 17 तारीख को दोनों दिन रानी के सामने उसकी एक न चली। 18 जून को एक तरफ से स्मिथ ने और दूसरी तरफ से सर हयूरोज ने रानी पर आक्रमण किया। रानी मर्दाना वेष में घोड़े पर सवार थी। युद्ध के बाद रानी के पास सिर्फ 10-20 सवार बचे। अंग्रेजों ने चारों तरफ से उनको घेर लिया। रानी झाँसी की सहेली महिला फौज की सैनिक झलकारी बाई ने संकट की स्थिति को भांपकर रानी झाँसी की पोशाक पहनकर लड़ते-लड़ते शहीद हुई व रानी को वहाँ से निकलने का मौका दिया। मौका पाते ही रानी ने अंग्रेजों का घेरा तोड़ कर पेशवा से मिलने हेतु निकली। रानी ने तीव्र गति से तलवार घुमाते हुए अंग्रेजों का घेरा तोड़ डाला और तीर की तरह जो सिपाही मिले उसे काटती हुई चली। स्मिथ के घुड़सवारों ने उनका पीछा किया। रानी का घोड़ा उस दिन नया ही था वह एक जगह पानी देखकर बिगड़ गया, स्मिथ के सिपाहियों ने चारों तरफ से उन पर हमला कर दिया। रानी के चेहरे पर तलवार लगने से उनकी एक आँख निकल आई, और रानी की छाती में किर्च भोंप दी जिससे पेट में संगीन से 2 बड़े घाव लगे, ऐसी दशा में भी रानी ने कितने गोरों को तलवार के घाट उतार दिया। अन्तिम समय निकट देखकर उनके विश्वासपात्र अनुचर सरदार रामचन्द्रराव उन्हे पास ही में बाबा गंगादास की कुटिया में ले गये और उनके मुँह में गंगाजल छोड़ा। उनके शरीर का उसी समय घास की चिता बना कर अग्नि-संस्कार किया गया, इस प्रकार वह वीरांगना, आधुनिक काल की देवी दुर्गा, झाँसी की बिजली ज्येष्ठ सुदी 6 तारीख 18 जून 1859 को भूमि को धन्य करती हुई परलोक को पधारी।

रानी के शौर्य की तारीफ उनके शत्रुओं ने भी की है। सर हयूरोज, लो, मार्टिन, अर्नोल्ड, टाॅरेन्स, म्याकर्थी इत्यादि अनेक लेखकों ने रानी की बड़ी प्रशंसा की है। 17 दिन दिन तक रानी झाँसी के किले को बचाया। अंग्रेजों के झाँसी लेने पर उनकी आँखों के सामने वह जादू की तरह कालपी की ओर दौड़ गई। ग्वालियर लेने की बात उनकी राजनीतिक निपुणता प्रकट करती है। के.आर.मैलसैन नाम के दो इतिहासकारों ने यहाँ तक कहा है कि हिन्दुओं की दृष्टि से रानी अपने धर्म और स्वराज्य के लिए लड़ी। उनके राज्य ले लेने में अन्याय किया गया। उनके साथ बर्बरतापुर्ण कार्य किया गया। जहाँ लार्ड कर्जन जैसे आदमियों ने रानी की तारीफ की है तब औरों की क्या बात। झाँसी के विद्रोह में उनका हाथ न था। दस महीने का उनका राज्य रामराज्य कहलाता था। गोद लिये पुत्र को हमेशा युद्ध में भी पीठ पर बाँधकर सँभालते देखकर उनके पुत्र-प्रेम की जितनी प्रशंसा की जाये थोड़ी है। रानी लक्ष्मीबाई भारत के इतिहास में बिजली की तरह चमकती रहेगी। एक हरे बदन की, गोरी, सुन्दर युवती ने घंटों, दिनों, घोड़े पर बैठ कर युद्ध किया। वे भारत की स्वातन्त्रतय लक्ष्मी थी। क्रांति-युद्ध को लोग भूल जावेगें पर महारानी लक्ष्मीबाई का नाम नहीं भूल सकेंगे। भारत के इतिहास में रानी का नाम अमर रहेगा। संसार के रमणी-रत्नों में रानी का नम्बर पहला होगा।

वीरवर मंगल पॉंड़े ! [शहादत दिवस 8 अप्रेल 1857]

Mangal Panday

रचयिता— श्रीयुत छबीलदास ‘मधुर’

सिपाही—विद्रोह का आद्य बलिदान !

प्रति हिंसाके पथकी तूही हुआ प्रथम चट्टान ।
स्वतन्त्रता—वेदी पर तेरा स्वीकृत था बलिदान ।।
धर्म—दीपपर पतित हुआ, तू बनकर क्षुद्र पतंग ।
चढ़ा मातृ—मूर्ति पर मानो अग्रिम पुष्प समान ।। 1 ।।
वीरवर मंगल पॉंडे !
तू था वह चिनगारी जिससे भड़क उठी थी आग ।
तू था वह वैराग्य मिटा जिससे सारा अनुराग ।।
पारावर ज्वार जब आया तू था प्रथम तरंग ।
लूकी लपट बना तू पहले फिर झुलसा था बाग ।। 2 ।।
वीरवर मंगल पॉंड़े !
तड़ित—पतित पश्चात हुई, तू आदिम उल्कापात ।
बड़ा झकोरा होकर तू पीछे था झंझावात ।।
मूसलाधार झड़ीकी होकर बरसा पहली बूॅंद ।
चण्ड सूर्य था पीछे आगे तू था अरूण उदात्त ।। 3 ।।
वीरवर मंगल पॉंड़े !
समयातीत कार्य था यद्यपि पर तेरा वह त्याग ।
कौन कहेगा किसी स्वार्थवश था तब आत्मविराम ?
स्वधर्म—हित उन्मत्त हुआ तू होगा यह आक्षेप ।
यह दुषण है नहीं, किन्तु है भूषणाही षड़भाग !! 4 !!
वीरवर मंगल पॉंड़े !
रहे स्मृति या होवे विस्मृति सैनिकगणकी आज ।
पर तेरा स्मरणीय रहेगा नाम सदा द्विजराज ।।
और बना यदि नहीं रहेगा यह चिर ‘स्मृति—स्तम्भ’।
पद्य—पुन्ज यह पाठ करेगा जब तक सभ्य—समाज ।। 5 ।।

बैरिकपुर छावनी [बंगाल] सिपाही नं. 1446 पल्टन नं0 34 का यह बागी सिपाही कन्नोजिया ब्राहम्ण कब जाकर बंगाल स्थित बैरिकपुर छावनी की सेना में भर्ती हो गया था। किन्तु जिस दिन वह विद्रोही हुआ, उस दिन सेना में काम करते हुये उसे सात वर्ष हो चुके थे। मंझला कद और कसा हुआ बदन उसके एक अच्छे सिपाही होने की निशानी थे। वह धर्म—प्राण ब्राहम्ण सिपाही हेाते हुए भी अपनी सेना में आदर का पात्र था।
एक दिन वह शहर गया वहां उसे टोंटी से पानी पिलाया गया। उसके पूछने पर पानी पिलाने वाली औरत ने कहा, महाराज काहे के ब्राहम्ण हो, गो मांस से बनाये कारतूसों के फन्दे को तो दॉंतो से खोलते हो। मंगल पॉंड़े को यह बात चाट गई। इसकी चर्चा पहले भी हो रही थी किन्तु अंग्रेज अफसरों ने समझाना बुझाना आरम्भ कर दिया था।
इस दिन से मंगल पॉंड़े बहुत ही दु:खी रहने लगा। उसे धर्म—नाश की आंशका बराबर सताने लगी। वह बहुतेरा अपने मन को समझाता था और अंग्रेज अफसरों की बात पर यकीन करना चाहता था किन्तु उसे शान्ति नहीं मिल रही थी।
26 मार्च सन् 1857 को बैरिकपुर की छावनी में इस समाचार से और भी खलबली मच गई कि विलायत से गोरों की फौज आ रही है। मंगल पॉंड़े ने जब कि वे भॉंग के नशे में धत्त थे हथियार निकाल लिये और बाहर आकर कहने लगा कि इन क्रिस्टानों से धर्म और जाति को बचाना ही पड़ेगा। आओ बन्धुओं हमारी पल्टन में जो अंग्रेज है उन्हें कैद कर लें। बिगुलर से कहा कि बिगुल बजाओ जिससे सब लोग इकट्ठे हो जायें। मंगल पॉंड़े के हो—हल्ले को सुनकर एक अंग्रेज अपनी बैरिक के सामने खड़ा होकर सुनने लगा। मंगल पॉंड़े की ज्यों ही उस पर निगाह पड़ी गोली छोड़ दी परन्तु वह बच गया। इतने में सेना एडज्यूटेंट बक नाम का अंग्रेज घोड़ा दौड़ाता हुआ आ गया। मंगल पॉंड़े ने उस पर भी गोली छोड़ी वह घायल हो गया किन्तु उसका घोड़ा मर गया। बक ने भी मंगल पर वार किया किन्तु गोली चूक गई। बक ने तलवार संभाली और मंगल पर टूट पड़ा। एक दूसरा गोरा अफसर भी तलवार लेकर मंगल पर टूटा किन्तु मंगल ने अपने को बचाते हुये उनमें से एक अंग्रेज को घायल करके गिर गया। दूसरे अंग्रेज को बचाने के लिए शेख पल्टू नाम का मुसलमान सिपाही आगे बढ़ा और उसने मंगल पॉंड़े को पिछे से पकड़ लिया। दोनों अंग्रेज लहू—लूहान हो गये और प्राण बचाने के लिये भाग गये। फौज का जनरल हैयर्स था उसे जब यह खबर लगी तो वह अपने दोनों जवान लड़कों को लेकर मंगल को पकड़ने के लिये आया।
मंगल ने देखा कि सारे सिपाही तमाशा देख रहे हैं तो उसने भी बजाय अंग्रेजों के हाथ आने से मरने के खुद ही गोली मार ली। उसे घायल अवस्था में अस्पताल ले जाया गया। वह जितने दिन भी अस्पताल में रहे अपने को बेचैन नहींं होने दिया न अपने किये पर अफसोस ही जाहिर किया और जिन दिन फॉंसी का हुक्म हुआ बड़ी शान्ति से ही फॉंसी पर लटक गये। यह दिन सन् 1857 की 8 वीं अप्रैल का था।
मंगल पॉंड़े के सिवा अंग्रेज सेनापतियों ने एक जमादार को भी फॉंसी दे दी। अपराध उसका यह बताया कि उसने मंगल पॉंड़े की बगावत का प्रतिरोध नहीं किया। जमादार को फॉंसी का हुक्म 10 अप्रैल 1857 को हुआ और 21 अप्रैल को उसे फॉंसी पर लटका दिया गया।
यह ठीक है कि उस दिन बैरिकपुर छावनी की उस 34 नम्बर की पलटन ने कोई बगावत नहीं की किन्तु मंगल पॉंड़े की फॉंसी सब के चुभ गई और वह विद्रोह के लिए वीर सिपाहियों के लिए आह्वान करके रही।

शत् शत् नमन् !!

शहीदेभ्य नमः एक आह्वान शहीदों के नाम

भ्रष्‍टाचार, नैतिक अनाचारों से कंलकित शासन व्‍यवस्‍था के दुर्ग जो शान्ति और श्रंखला की नींव पर खडे् होते है, को कमायमान कर जड् से उखाड्ने के लिए परिवर्तन या इंकलाब का आना एतिहासिक घटना होती है।
फ्रांस की क्रान्ति ने वहां के विलासी शासकों की सत्‍ता का अन्‍त किया। जब इटली में शासकों की स्‍वेच्‍छाचारिता परकाष्‍ठा को पहुंच गई तो मेजिनी, गेरीबॉल्‍डी ने देश का उद्धार किया। जब रूस के नृशंस शासक ने अपनी सैनिक शक्ति से उन्‍मत होकर नि.सहाय प्रजा के रक्‍त से होली खेलनी शुरू की तो लेनिन और ट्रोजकी के वीर बोल्‍शेविको के बलिदान ने सम्राट को मुकुट सहित धूल में मिला दिया।
जब तुर्की का स्‍वेच्‍छाचारी सुल्‍तान सैंकडों वेश्‍याओं के साथ विहार करने लगा तो मुस्‍तफा कमाल के देशभक्‍त सहयोगियों ने उसका नाश किया। चीन के मंचू शासक के हाथों चीन की तबाही को डॉ. सन-याट-सेन के बलिदानी वीरों ने रोका।
आक्रमणकारियों ने हमारे देश का वैभव लूटा, ऐश्‍वर्य लूटा। सन् 1757 तक सम्‍पूर्ण भारत वर्ष पर फिरंगीयों का राज था और ब्रिटिश सम्राज्‍यवाद के संबंध में यह कहा जाता था कि ब्रिटिश सम्राज्‍यवाद में कभी सूर्यास्‍त नहीं होता। सन् 1857 तक यह सोचा भी नहीं जा सकता था कि हम फिरंगीयों की गुलामी से आजाद हो पायेंगे।
सन् 1857 में हमारे राष्‍ट्र ने सैंकडों वर्षो बाद नींद से जाग कर अंगडाई ली और उठ कर खड़़ा हो गया। हमारा प्रथम स्‍वतन्‍त्रता संग्राम कई कारणों से सफल तो नहीं हो सकता परन्‍तु सन् 1857 से सन् 1947 तक बलिदानों का एक सिलसिला चला। अनगिनत ज्ञात व अज्ञात क्रान्तिवीरों ने भारत के अपमान का बदला लिया। वॉयसराय लॉर्ड हॉर्डिंग्‍स की बग्‍घी पर चान्‍दनी चौक में रास बिहारी बॉस व उनके साथियों ने बम फैंका, भारतीय नारियों की चोली उतरवाकर जांच कर माताओं और बहनों का अपमान करने वाले दुष्‍ट रैण्‍ड एवं कोचवान ऐयर्स्‍ट को चापेकर बन्‍धुओं और रानाडे ने विक्‍टोरिया की हीरक जयन्‍ती की पार्टी के अवसर पर गोली से उड़ाया, मैक मेन्‍सन का सिर काटकर किले के द्वार पर लटका दिया गया, लाला लाजपत राय के बलिदान का बदला भगत सिंह व उनके साथियों ने साण्‍डर्स का वध करके लिया, कसाई काजी किंग्‍सफोर्ड को दण्‍ड देने हेतु उसकी गाड़ी पर बम फैंका, जलियांवाला बाग काण्‍ड के हत्‍यारे ऑ डायर को इंग्‍लैण्‍ड के कैक्‍शन हॉल में जाकर शहीद-ए-आजम उधम सिंह ने सरेआम मारा, इंग्‍लैण्‍ड के ही जहांगीर हॉल में मदनलाल धींगड़ा ने कर्नल वॉयली का गोली मारकर वध किया, काेमा-गाता-मारू जहाज में कनाडा से गदर पार्टी के सैनानी करतार सिंह सराभा व उनके साथी सशस्‍त्र क्रान्ति करने भारत आये, नेताजी सुभाष चन्‍द्र बोस के नेतृत्‍व में आजाद हिन्‍द फौज देश को आजाद करवाने सिंगापुर तक पहुंच गई। इन सब वीरतापूर्ण घटनाओं ने फिरंगीयों के हौसलें पस्‍त कर दिये और फिरंगीयों के समझ में आने लग गया कि भारतीय क्रान्तिकारी खून अब ठण्‍डा नहीं होगा। तब जाकर हमें आजादी मिली। हम भूल गये कि हमें आजादी भीख में नहीं शहीदों के खून से मिली। आजादी के बाद हमने हमारे शहीदों और क्रान्तिवीरों को भूला दिया तथा स्‍वतन्‍त्र भारत के इतिहास को तोड़-मरोड़ कर लिखा गया। इतिहास के पन्‍नों में भारतीय क्रान्तिवीरों को सही स्‍थान नहीं दिया गया। हमारे ही शहीदों को आज भी इतिहास की पुस्‍तकों में उग्रवादी बताकर वीरों की शहादत का अपमान किया जा रहा है। भगत सिंह व उनके साथियों के विरूद्ध गवाही देने वाले गद्दार के नाम से मार्ग व चौक बनाये जा रहे हैं। आज भी सरकार यह सुनिश्चित नहीं कर रही है कि द्वितीय विश्‍व युद्ध के अपराधिेंयों की सूची में आजाद हिन्‍द फौज के सर्वोच्च सेनापति नेताजी का नाम नहीं है। शर्मिन्‍दा है हम, कि हमने शहादत का सम्‍मान नहीं किया शहीदों के खून से मिली आजादी को गुण्‍डों, तस्‍करों और भू-माफियाओं के हाथों सौंप दिया। आजाद हिन्‍द फौज के खिलाफ लडने वाले आजादी के विरोधियों को आज भी स्‍वतन्‍त्रता दिवस पर हमारे राष्‍ट्रपति सलाम करने जाते है।
हमारे ज्ञात व अज्ञात क्रान्तिवीरों को श्रद्धांजली हेतु इस वेबसाईट को बनाया जा रहा है। इस साईट पर आजादी से पूर्व की पुस्‍तकों ‘हिन्‍दु पंच के बलिदान अंक’, ‘चॉंद फॉंसी अंक’ इत्‍यादि पुस्‍तकों और नेट पर अन्‍यत्र उपल्‍ब्‍ध सामग्री से संकलन किया है। आप सब से आग्रह है कि भारतीय क्रान्तिवीरों के संबंध में उपलब्‍ध सामग्री को इस वेबसाईट पर जरूर पोस्‍ट करें। इस साईट का उद्देश्य भारतीय क्रान्तिवीरों की स्‍मृति के रूप में भावी पीढि़यों के लिए अक्षुण्ण रखना है।

जय हिन्‍द। वन्‍दे मातरम। इंकलाब जिन्‍दाबाद।

(भारतीय स्वतंत्रता—संग्राम के ज्ञात—अज्ञात क्रांतिवीरों की पुण्य स्मृतियों को अक्षुण्ण बनाये रखने हेतु)

वंदे मातरम् ! इन्कलाब जिन्दाबाद !! जय हिन्द !!!

मारे गए है सर्वश्रेष्ठ वीर !!
दफना दिये गये है वे चुपचाप, एक निर्जन भूमि में,
कोई आँसू नहीं बहे उन पर, अजनबी हाथों ने,
उन्हें पहुंचा दिया कब्र में,
कोई सलीब नहीं, कोई घेरा नहीं,
कोई समाधि-लेख नहीं जो बता सके उनके गौरवशाली नाम
घास उग रही है उन पर, एक दुर्बल पत्ती ढुकी हुई,
जानती है इस रहस्य को, बस एकमात्र साक्षी थी उफनती लहरे,
जो प्रचंड आघात करती है तट पर,
लेकिन वे प्रचंड लहरे भी नहीं ले जा सकती
अलविदा के सन्देश उनके सूदूर घर तक !!

फांसीर मंचे गेये, गेलो जारा, जी बने जयगान;
असि अलदो दाण्डायेछे तारा।
दिबे कौन प्रतिदान?

-(काजी नज़रुल इस्लाम)

प्रतिदान !?

कोई प्र​तिदान संभव है क्या इस नि:स्वार्थ सर्वस्व त्याग का ?
बेड़ीबद्ध मॉं भारती की मुक्ति हेतु जिन्होंने अपनी अस्थि—मज्जा गला—जलाकर स्वातंन्त्रय—यज्ञ में होम कर दी ताकि चिरकाल से सुलगती चिन्गारी धधकता ज्वालपुञ्ज बनकर भारतमाता की बेड़ियों को गला डालें।
जिस स्वप्निल स्वर्णिम प्रत्युष की चिराशा में जिन्होनें अहर्निश कठोर कारावास के दारुण दु:ख सहे और हा हंत! उसके उदयाचल आगमन से पूर्व ही फॉंसी के फंदों से झूल गये उन्हें हम क्या प्रतिदान दे सकते हैं ?
अस्तु उनकी पुनीत और प्रेरक पुण्य स्मृतियों को संजोयें रखने हेतु हम उन्हें चंद शब्द, चंद पंक्तियॉं श्रद्धावनत समर्पित कर रहे हैं, यथा :

कलम! आज उनकी जय बोल!

जला अस्थियॉं अपनी सारी,
छिटकाई जिनने चिन्गारी;
चढ़ गये जो पुण्यवेदी पर,
लिये बिना गर्दन का मोल;
कलम! आज उनकी जय बोल!
जो अगणित लघु दीप हमारे,
तूफानों में एक किनारे;
जल—जल कर बुझ गये ​एक दिन,
मांगा नहीं स्नेह मुह खोल;
कलम! आज उनकी जय बोल!
अंधा चकाचौध का मारा,
क्या जाने इतिहास बैचारा;
साखी हैं उनकी महिमा के,
सूर्य—चन्द्र, भूगोल; खगोल;
कलम! आज उनकी जय बोल!

इस वेबसाइट का सृजन इसी लक्ष्य की पूर्ति हेतु एक छोटा—सा प्रयास है। पर, अपने सीमित ज्ञान और सामर्थ्य से हम इस महोद्देश्य को प्राप्त नहीं कर सकते। अत: आप सबसे साग्रह अनुरोध है कि इससे संबंधित उपलब्ध सामग्री को इस वेबसाइट पर अवश्य पोस्ट करें ताकि यह संकलन क्रांतिकाल की अखण्ड और अप्रतिम आस्था अप्रतिहत और लौमहर्षक संघर्ष, दुर्दुम्य और दुर्धर्ष शोर्य और सर्वस्वत्याग की गौरवगाथा के रूप में हमारी भावी पीढ़ियों के लिए अक्षुण्ण रहे।

— डॉ. औमप्रकाश सुथार