भीखाजी कामा

आप भारतीय मूल की पारसी नागरिक थीं ।  आपने विदेशों में  भारत की स्वतंत्रता  गूँज को तीव्र ध्वनि दी।
आपका जन्म 24 सितंबर 1861
बम्बई के एक संपन्न पारसी परिवार में हुआ था।
आपने मुंबई के अलेक्जेंड्रा गर्ल्स स्कूल में शिक्षा प्राप्त की।

आपका विवाह रुस्तम जी कामा  के साथ दिनांक 3 अगस्त 1885  को हुआ था। जो एक वकील थे।


     

मुंबई में दिसंबर 1885 में  कांग्रेस के पहले अधिवेशन में  अपने भाग लिया था।

वर्ष 1896 में बॉम्बे में प्लेग प्रकोप के समय आपने मरीजों की सेवा की थी।
उस समय आप भी प्लेग की चपेट में आ गई ।
डॉक्टर ने आपको उपचार  हेतु यूरोप जाने की सलाह दी गई थी।

आप उपचार हेतु वर्ष 1902 में लंदन गईं ‌।
लंदन में आप दादा भाई नौरोजी के संपर्क में आई और उनके सचिव के रूप में कार्य किया।

उसी समय आपका सम्पर्क क्रांतिकारी श्यामजी कृष्ण वर्मा व वीर सावरकर से हुआ।

वहां भी  आप भारतीय स्वाधीनता संघर्ष के लिए सक्रिय हो गई।। ब्रिटिश सरकार आपको गिरफ्तार करना चाहती थी ।

इसकी आप को भनक मिली और आप चुपचाप लंदन छोड़कर  पेरिस  चली गयी।

वहाँ  आपका संपर्क क्रांतिकारी लाला हरदयाल, मुकुंद सरदेसाई, विरेंद्र चट्टोपाध्याय  से हुआ।

फ्रांस में ही आपके नाम के साथ मदाम ( मैडम ) शब्द जुड़ गया।
आपसे जेनेवा गई वहां वंदे मातरम नमक समाचार पत्र का प्रकाशन आरंभ किया ।
इस पत्र के द्वारा आपने भारत में अंग्रेजों के अत्याचारों से संबंध में समाचार प्रकाशित किए ।
आपने अमेरिका और यूरोप के विभिन्न देशों की यात्रा की।

पेरिस से  वंदे मातरम, तलवार व इंडियन फ्रीडम समाचार के संचालन में आपकी प्रमुख भूमिका थी।

आप 1901  पेरिस विधि वहां आपने आयरलैंड जर्मनी व रुस के क्रांतिकारियों से संपर्क किया

  जर्मनी के  यस्टुटगार्ट नगर में दिनांक 22 अगस्त 1907 को आयोजित सातवें अंतरराष्ट्रीय समाजवादी सम्मेलन 
आपने वीर सावरकर के परामर्श के अनुसार इस सम्मेलन में ब्रिटिश मजदूर दल की आपत्ति के बावजूद सरदार सिंह राणा व विरेंद्र चट्टोपाध्याय के साथ भारत का प्रतिनिधित्व किया था ।

इस सम्मेलन में आपने भारतीय  ध्वज लहराया था।

इस ध्वज में भारतीय राष्ट्रीय एकता के प्रतीक का हरे , पीले व लाल रंग के तिरंगे झंडे, जिसके बीच में देवनागरी लिपि में  वंदे मातरम लिखा था और इस पर 8 कमल के फूल सूर्य व चंद्रमा बने हुए थे ।


  इस सम्मेलन में आपने कहा
‘‘भारत में ब्रिटिश शासन जारी रहना मानवता के नाम पर कलंक है। एक महान देश भारत के हितों को इससे भारी क्षति पहुँच रही है।’’

भारतवासियों का आह्वान करते हुए कहा कि –
‘‘आगे बढ़ो, हम हिन्दुस्तानी हैं और हिन्दुस्तान हिन्दुस्तानियों का है।’’

मदन लाल धींगरा द्वारा  लंदन में कर्जन वायली को गोली मारने के समाचार को प्रकाशित करते हुए लिखा –
“मदनलाल ढींगरा की पिस्तौल की आवाज आयरलैंड की कच्ची झोमपड़ियों में बैठे किसानों ने सुनी,  मिश्र के खेतों में काम कर रहे किसानों ने सुनी तथा अंधेरी खानों में कार्य कर रहे जुलु खदान श्रमिकों ने सुनी ।”

साम्राज्यवाद के विरुद्ध विश्व जनमत जाग्रत करने तथा भारत को अंग्रेजों  से मुक्ति के लिए आपका योगदान कभी भी नहीं भुलाया जाएगा।

राष्ट्रवादी यूरोपीय पत्रकार भी आपका सम्मान करते थे।
 


  फ्रांसीसी अखबारों में उनका चित्र जोन ऑफ आर्क के साथ आया।

वीर सावरकर  को अंग्रेजों की गिरफ्त छुड़ाने की योजना में भी आपने सक्रिय भूमिका अदा की।

फ्रांसीसी सीमा से सावरकर की अवैध  गिरफ्तारी के विरुद्ध आपने मामले को गंभीरता पूर्वक अंतरराष्ट्रीय अदालत हेग में उठाया था।


प्रथम विश्व युद्ध शुरू होने पर फ्रांस की सरकार ने आप को गिरफ्तार करके जेल में बंद कर दिया । युद्ध समाप्ति के बाद  1918 में आप को जेल से रिहा किया गया।

अपने जीवन के 34 वर्षों में साम्राज्य वाद के विरुद्ध एंव भारतीय राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम के संघर्ष  किया ।
आप दिसंबर 1935 में भारत लौटी।

16 अगस्त 1936

आपका स्वर्गवास हुआ

शत शत नमन वीरांगना को

पंजाब में सशस्त्र क्रांति (प्रथम चरण)

पंजाब में अंग्रेजो के खिलाफ सशस्त्र क्रांति का दौर 1920 में शुरू हुआ।

 

पंजाब में सशस्त्र क्रांति की पृष्ठभूमि गुरु का बाग मोर्चा या आंदोलन के पश्चात शुरू हुई।


अमृतसर से करीब 20 किलोमीटर दूर गुखेवाली गांव में  ऐतिहासिक स्थान गुरु का बाग है ।

जिसमें  एक ऐतिहासिक गुरुद्वारा स्थापित है व यहाँ गुरु घर के साथ काफ़ी खाली जगह थी। जिसमें जंगल था ।
अमृतसर मुख्य गुरुद्वारा साहब के लंगर पकाने के लिए इसी बाग के जंगल से लकड़ियां ले जाई जाती थी।

गुरुओं के जमाने से ही गुरु का बाग गुरुद्वारा साहब का प्रबंध उदासियों के हाथों में चला आ रहा था।

अकालियों द्वारा गुरु का बाग में मोर्चा का गठन कर दिया।। जिसे गुरु का बाग मोर्चा या आंदोलन से जाना जाता है।। यह मोर्चा 17 नवंबर 1922 तक चला था।

अकालियों  द्वारा लकड़ियां लेने हेतु रोज 5 अकाली सिखों की टीम भेजी जाती थी।

महंत सुंदर दास ने पुलिस से मिलकर अपने गुंडों से  निहत्थे सिखों को बुरी तरह से पिटवाया जाता था ।

अकाली गुरु गुरु साहब को अरदास करने  की स्थिति में खड़े रहकर बिना किसी विरोध के मार खाते रहते थे।

गुरु का बाग के संबंध में विवाद होने पर अकाली शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी के 11 सदस्यीय टीम ने 13 जनवरी 1921 को उदासी संत सुंदरदास से एक अनुबंध किया था ।
  
महंत सुंदरदास ने अकालीयों  को गुरु घर लंगर पकाने के लिए गुरु का बाग जंगल  से लकड़ियां  काटने काटकर ले जाने से मना कर दिया।

जिसके कारण विवाद हो गया ।

महंत ने सुंदरदास ने पुलिस से मिलकर 9 अगस्त 1922 को अकालीओ  को पकड़वा दिया। जिन्हें  छह माह की सजा दे दी गई।

गुरु का बाग गुरुद्वार साहब के संत महंत सुंदर दास उदासी के कर्म और आचरण सिख धर्म की गरिमा के अनुकूल नहीं था।

जिसके कारण शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक समिति ने महंत सुंदर दास का विरोध करना शुरू कर दिया।

यह अहिंसात्मक आंदोलन वीर सीखों के बस का रोग नहीं रहा।

सरकार व पुलिस महंत सुंदर दास का साथ दे रही थी ।
  इसीलिए इस अत्याचार के विरुद्ध  किशन सिंह जी बडगज ने शस्त्र उठाए ।

वह अपने दल के  कर्म सिंह , धन्ना सिंह  व उदय सिंह को दोषीयो को मारने का दायित्व सोपा गया।

पंजाब में सशस्त्र आंदोलन में क्रांतिकारियों के साथ गद्दारी करने वाले मुखबिर या झोलीचुक को मारने को सुधार करना कहते थे।

उपरोक्त तीनों वीरों ने सबसे पहले गांव श्याम चौरासी होशियारपुर रेलवे स्टेशन के पास एक  सूबेदार का” सुधार” किया गया।

यह आंदोलन व सुधार कार्य कई दिनों तक चला।    इस आंदोलन में 67 बब्बर अकालियों को गिरफ्तार किया गया था।

जिन मेसे 6 को फाँसी की सजा दी गई व 11 वीरों को उम्रकैद की सजा दी गई ।

कुछ अकालियों ने सन 1920 में अंग्रेजी अत्याचार के खिलाफ  “शहादत” या “शहीदी दल ” बनाकर आंदोलन की शुरुआत की

कुछ वीर लड़ते हुए शहीद हुए।
अब जानते हैं उन बब्बर अकाली शहीदों के बारे में ।

:-किशन सिंह जी गर्गज्ज-:

आप जालंधर जिले के  वारिन्ड़ग   गांव के निवासी थे । आप पहले  35 नंबर सिख रिसाले में हवलदार थे।
जलियांवाला बाग हत्याकांड, सरदार अजीत सिंह की नजर बंदी, बजबज में निर्दोष यात्रियों पर फायरिंग  , रोलेट एक्ट आदि को लेकर अंग्रेजों के विरुद्ध हो गए।

अंग्रेजों के प्रति आपके हृदय में घृणा पैदा हो गई और आपने फ़ौज नौकरी छोड़ दी कर राष्ट्रीय आंदोलन में  शामिल हो गए।
  नानकाना साहब घटना  20 फरवरी 1921  के बाद आपने बब्बर अकाली आंदोलन में सक्रिय रूप से काम करने लगे।

आपने भी गुप्त संगठन  तैयार किया। एक बार पुलिस को सूचना हो गई ।
आपके दल के 6 आदमी गिरफ्तार कर लिए गए ।

आप अपने चार साथियों के साथ फरार हो गए।
कुछ दिन आप  जींद राज्य के मस्तुअना नामक स्थान पर रहे फिर 1921 कि सर्दियों में दोआब वापस आ गए।

यहाँ आते ही आपने “चक्रवर्ती दल” का गठन किया जो बाद में ‘बब्बर अकाली दल “ के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
आप ने कपूरथला व जालंधर जिले के गांव गांव जाकर अंग्रेजी व्यवस्था के खिलाफ लगभग 327 बार भाषण दिए।
उसी समय  होशियारपुर जिले में दौलतपुर के कर्म सिंह तथा उदय सिंह  भी अंग्रेजों के विरुद्ध क्रांतिकारी  प्रचार कर रहे थे।

आपके दोनों दल मिल गए  हथियार संग्रह व क्रांतिकारी गतिविधियां का बढ़ने लगी।

आपने भी कई भेदियों “सुधार” किया
आपको गिरफ्तार कर लिया गया ।

27 फरवरी 1926 को केंद्रीय जेल लाहौर में फाँसी दी गई।

         :-  संता सिंह -:

आप लुधियाना जिले के हरयों खुर्द गांव के रहने वाले थे । आपने 54 नम्बर सिख रिसाले में दो वर्ष तक नोकरी की।
आपने 26 जनवरी 1922 को फ़ौज की नौकरी से त्यागपत्र दे दिया और आपने भी अकाली बाबर आंदोलन में शामिल हो गए।

आपने अकेले ही बिशन सिंह जैलदार का  सुधार किया था।


इसके अतिरिक्त आप बूटा सिंह, लाभ सिंह , हजारा सिंह ,राला सिंह, दितू सिंह,  सूबेदार गैंडा सिंह और नोगल शमां के नंबरदार आदि के सुधार में शामिल रहे ।

आपको आपके ही एक रिश्तेदार ने लालच में आकर गिरफ्तार करवा दिया
आपको अदालत से न्याय की आशा नहीं थी।

इसलिए आपने अपने समस्त क्रांतिकारी गतिविधियों  को स्वीकार किया।

अंततः आपको अपने पांच साथियों सहित दिनांक 27 फरवरी 1926 को लाहौर सेंट्रल जेल में फांसी दी गई।

          :- दिलीप सिंह :-

आपकी आयु मात्र 17 वर्ष थी। जब आपने क्रांति पथ पर अपना पैर रखा । आप धामियाँ  कलां जिला होशियारपुर के रहने वाले थे।
ननकाना साहब घटना के पश्चात आपने भी अकाली मत की दीक्षा ग्रहण की।

मार्च 1923 से क्रांतिकारी कार्यों में सक्रिय रूप से शामिल हो गए।
12 अक्टूबर 1923 को आप क्रांतिकारी संता सिंह के साथ कंदी नामक स्थान पर क्रांतिकारी पर्चे बांटने जा रहे थे।
  एकाएक पुलिस ने घेर कर
आको गिरफ्तार कर लिया ।
आप पर मुकदमा चलाया गया ।
जज सेशन जज मिस्टर टैप (Tapp) आपकी कम उम्र देखकर प्रभावित हुआ और वह आपको लाभ देना चाहता था ।
लेकिन आपने अदालत में समस्त घटनाओं को स्वीकार करते हुए कहा कि अभी तक मैंने कोई अपवित्र कार्य नहीं किया है ।
मेरी देह पवित्र है ।

हो सकता है भविष्य में मेरे से कोई गलत काम हो जाए ।। इसलिए मैं इसी रूप में अपने प्राणों की आहुति देना चाहता हूं।
यह सुनकर जज प्रभावित हुआ।

आपकी वीरता के कारनामों को
जज ने अपने फैसले में ऐसे लिखा :-


This accused, young as he is, appears to have established a record for himself second only of that of Santa Singh accused , as to offences in which he has been concerned in connection with this conspiracy.
He is implicated in the murders of Buta lambardar, labh Singh, Mistri Hajara Singh of Bibalpur ,  Ralla and  Ditu of Kaulgarh , Atta Mohammed Patwari , in the second and third attempt on labh Singh of  Chadda Fateh singh , in murderous attack on  Bishan Singh of Sandhara.

आपको भी 27  फरवरी 1926  केंद्रीय जेल लाहौर में फाँसी दी गई।


         :-   नंद सिंह -:

आपका जन्म 1895 में जालंधर जिले के घुड़ियाल गांव में हुआ।
आपने भी ननकाना साहब की घटना के बाद वह अकाली आंदोलन में शामिल हो गए।

आपको गुरु के बाग सत्याग्रह में 6 माह के लिए जेल में रखा गया था।

आपने जेल से आते ही किशन सिंह जी के साथ बब्बर अकाली दल शामिल हो गए।
आपने अकेले ही गद्दार सूबेदार गेंदा सिंह उसके गांव में जाकर वध किया था ।

इसके बाद पुलिस गांव वालों को तंग करने लगी तो आपने स्वयं ही अपनी गिरफ्तारी दी और अपने कार्य को स्वीकार किया।

आपको भी 27 फरवरी 1926 को केंद्रीय जेल लाहौर में फांसी दी गई थी

          :- कर्म सिंह  :-

आप श्री भगवानदस सुनार के सुपुत्र थे आपका जालंधर जिले के गांव  मनको के निवासी थे।
आप किशनसिंह के बब्बर अकाली दल के सक्रिय सदस्य थे।
आप  गेंदा सिंह सूबेदार के वध  में  शामिल हुए थे ।

आपने भी गिरफ्तार होने के बाद अदालत को नाटक बताया।
वह कोई सफाई नहीं दी ।
आपको भी अन्य साथियों के साथ 27 फरवरी 1926 को लाहौर केंद्रीय जेल में फांसी दी गई।

        :-  बोमेली युद्ध -;


बब्बर अकाली क्रांतिकारी कर्म सिंह निवासी दौलतपुर , उदय सिंह निवासी रामगढ़ झुगियां , बीशन सिंह निवासी मङ्गन्त और महेंद्र सिंह निवासी पिंडोरी गंगसिंह चारों ही पहले असहयोग आंदोलन में सक्रिय थे।

कालांतर में सशस्त्र आंदोलन में शामिल हुए।
कर्म सिंह जी गांव-गांव घूमकर लोगों को अंग्रेजी अत्याचारों के विरुद्ध क्रांति का संदेश  देते थे ।

कर्मसिंह जी “बब्बरअकाली ” समाचार पत्र का भी संपादन करते थे।

इन्होंने भी अन्य क्रांतिकारी दलों की तरह हथियार प्राप्त करने , दल के विरुद्ध  बने पुलिस मुखवीरों को दण्ड देते थे।

आपने  को पुलिस मुखवीर   जैतपुर के दीवान उदय सिंह का का दिनाँक 14 फरवरी 1923 को व बइलपुर के हजारा सिंह का वध किया ।

एक बार दिनाँक 1 सितम्बर / अप्रेल (माह विवाद है) 1923 को आप चारों ही जालंधर के पास  गांव बोमेली में  ” चौंतासाहब “  गुरुद्वारा में ठहरे हुए थे।

पुलिस को ख़बर लग गई पुलिस अधीक्षक स्मिथ ने फ़ौज के सैनिकों को लेकर पहुंच गए व  पुलिस सबइंस्पेक्टर  फ़तेह खां भी 50 सिपाहियों को लेकर पहुँच गया।

चारों क्रांतिवीरों ने फ़ौज व पुलिस का डटकर मुकाबला किया ।

चारों वीरों ने प्राणों की आहुति दी।

            :-धन्नासिंह -:

आप पंजाब के बइबलपुर के निवासी थे।
पुलिस मुखवीर पटवारी अर्जुन सिंह ,  रानीथाने के जेलदार बिशन सिंह का दिनाँक 20 फरवरी  1923 को , लम्बरदार बूटासिंह ,19 मार्च 1923 को लाभसिंह, 27 मार्च 1923 को हजारा सिंह  का वध करने में आप साथ थे।



ज्वाला सिंह नाम के एक ग़द्दार ने पुलिस से मिलकर आपको रुकवाया व पुलिस को सूचना दे दी  पुलिस अधिकारी हॉरटन ने 40 सिपाहियों के साथ आपको घेर कर गिरफ्तार कर लिया ।

गिरफ्तार किए जाने के बाद आपने अपने कमर के पास छिपाये हुए बम की कोहनी मार कर पिन दबादी बम्ब विस्फोट हुआ।

आपने अपने प्राणों की आहुति दी।
इस विस्फोट से  5 सिपाही  मौके पर ही मारे गए। हारटन एक सिपाही जो घायल हुए थे बाद में मारे गए

     :- बंता सिंह धामियाँ -:

बंता सिंह धामियाँ  सिख पलटन नंबर 55 में थे ।
उन्होंने की नौकरी छोड़दी व डकैत बन गए।

सन 1923 में 2 या 3 मार्च को जमशेर स्टेशन मास्टर के घर डकैती के समय एक साथी ने महिला की तरफ हाथ बढ़ाया कि बंता सिंह जी ने उस पर गँड़ासे से वार कर दिया ।
बंता सिंह जी महिलाओं की सम्मान करते थे।
अकाली बब्बर आंदोलन में बंता सिंह जी ने एक नंबरदार बूटा सिंह का वध किया था।

बंता सिंह बहुत ही दिलेर आदमी थे एक सिपाहीयों से जंगल में सामना हो गया । बंता सिंह जी ने  अकेले ही उन्हें डरा कर भगा दिया।

एक बार बूटा सिंह जी अकेले ही एक छावनी में घुसकर पहरेदार की घोड़ी व राइफल छीन कर ले आये
कालांतर में बन्तासिंह सिंह जी क्रांति पथ पर अग्रसर हुए।

बब्बर अकाली आंदोलन की वीरता का एक उदाहरण  दिनाँक 12 दिशम्बर 1923 का ” मुंडेर युद्ध ”  भी  है ।

इस युद्ध मे तीन बब्बर अकाली क्रांतिवीर वरयाम सिंह जी, बंता सिंह जी धामियाँ व ज्वाला सिंह जी कोटला ने असंख्य सशस्त्र सेना से वीरता पूर्वक लड़ाई लड़ी ।

इस लड़ाई में  बंता सिंह धामियाँ व ज्वाला सिंह कोटला शहीद हुए पर वरयाम  सिंह जी सेना के घेरे से निकलने में सफल रहे।

यह घटना इस प्रकार हुई ।

जगत सिंह नामक एक व्यक्ति ने  वरयाम सिंह जी , बंता सिंह जी ज्वाला सिंह जी को दिनांक। 12 दिसंबर 1923 को जालंधर के पास अपने गांव शाम चौरासी  में बुला कर अपने घर मे रुकवाया व  पुलिस को सूचना दे दी।

थोड़ी देर बाद पुलिस व सेना ने  घर को घेर लिया। काफी देर तक तीनों वीरों ने सेना का मुकाबला किया।
फायरिंग में ज्वाला सिंह जी को गोली लगी थी वह बुरी तरह से घायल होकर गिर गए  ।

उसी समय बंता सिंह जी को भी गोली लगी।
सेना द्वारा घर के आग लगा दी गई। घायल बंता सिंह जी ने वरयाम सिंह जी से आग्रह किया कि वह उठ नहीं सकता।
  पुलिस के हाथों बंदी बनने से अच्छा है मुझे गोली मार दो ।
ऐसी विकट स्थिति में वरयाम सिंह जी  से अपने साथी के  गोली  नहीं मारी गई।
उन्होंने अपने रिवाल्वर में गोलियां डालकर बंता सिंह जी को दे दिया व ख़ुद सेना का मुकाबला करते हुए घेरा तोड़ कर निकल गए।


      :- वरियाम सिंह धुग्गा   -:

वरयाम सिंह जी और होशियारपुर जिले के धुग्गा गांव के निवासी थे।। आप भी पहले फ़ौज में थे ।
बाद में नौकरी छोड़ कर डकैत बन गए आप दुआबा  क्षेत्र के प्रसिद्ध थे।
कालांतर में  आपका भी ह्रदय परिवर्तन हुआ व आप भी बब्बर अकाली आंदोलन में शामिल हो गए।

मुंडेर युद्ध में आप भी साथ थे।
आप सेना का घेरा तोड़कर फायरिंग में से निकलने में सफल रहे थे।

दिनांक 8 जून 1924 को आप अपने रिश्तेदार के पास  में रुके हुए थे ।
उस रिश्तेदार ने आपको हथियार गांव से बाहर रख देने का आग्रह किया ताकि किसी को संदेह नहीं हो।
आपने उस पर विश्वास करके हथियार बाहर  खेत में रख दिये व भोजन करने हेतु गांव में आ गए।

आप खाने के बाद अपने हथियारों को लेने जा रहे थे कि रास्ते में ही पुलिस अधीक्षक  डी गेल  आपको घेर लिया।

आप चारों तरफ से पुलिस द्वारा घेर लिए गए।   डी गेल आपको जिन्दा गिरफ्तार करना चाहता था।
जैसे ही  उसने पकड़ने की कोशिश की आपने अपनी कृपाण से डी गेल व अन्य सिपाहियों को वॉर किये ।
डी जेल  ने पुलिस को गोली चलाने के आदेश दे दिये ।

आपके सीने में चारों तरफ से गोलियां लगी ।

आपने शहादत दे दी।

शत शत नमन शहीदों को

लेख के कुछ तथ्य व चित्र अंग्रेजों के जमाने मे प्रतिबंधित पुस्तक

चाँद फांसी अंक जिसका प्रकाशन 1928 में हुआ था से संकलित

वीर सावरकर


       

भारतीय स्वतंत्र संग्राम में वीर विनायकराव सावरकर का  विशेष योगदान रहा।
वीर सावरकर का जन्म 28 मई 1883 को  भंगुर नासिक तत्समय बॉम्बे प्रेसीडेंसी में हुआ था।
आपने अपनी  बाल्यावस्था में ही  क्रांतिकारी गतिविधियों में भाग लेना शुरू कर दिया था ।

सन 1899 में आपने नासिक में  “देशभक्तों का मेला ” नामक दल का गठन किया।

अध्ययन काल में ही 1900 में नासिक में  “मित्र मेला” की भी स्थापना की व मित्र मेलों का आयोजन करते थे।

आपने शिवाजी हाई स्कूल से सन 1901 में उन्होंने  मैट्रिक पास करने के बाद  फर्गुसन कॉलेज में पूना में प्रवेश लिया था।

आपने “आर्यन वीकली “ पत्रिका का संपादन किया। यह जो हस्तलिखित  पत्रिका थी।
आपने 22 जनवरी 1901 भारत में  ब्रिटेन की महारानी विक्टोरिया का शोक दिवस मनाए जाने का  विरोध किया था ।

सन 1904  में आपने “अभिनव भारत सोसायटी “ का गठन किया।
इस सोसाइटी की माध्यम से क्रांतिकारी गतिविधियों का संचालन करते रहे।

1 अक्टूबर 1905  को आपने ही भारत में पहली बार विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार की घोषणा की थी।
आपने ही 22 अगस्त 1906 को पूना में विदेशी वस्त्रों की होली जलाई थी।

लोकमान्य  बालगंगाधर तिलक के मार्गदर्शन तथा अनुमोदन पर आपको विदेश में शिक्षा हेतु
श्री श्यामजी वर्मा  से  छात्रवृत्ति दी गई।
आप सुनियोजित योजना से 1906 में लंदन इंग्लैंड पहुंचे व श्यामजी कृष्ण वर्मा के साथ इंडिया हाउस की गतिविधियों में सक्रिय रूप से लग गए।

इंग्लैंड जाने के पूर्व आपने अभिनव भारत का उत्तरदायित्व अपने बड़े भाई श्री गणेश सावरकर को सम्भलाया।
इस संगठन के मार्गदर्शक श्री तिलक थे।

लंदन के इंडिया हाउस में रहकर आपने भारतीय छात्रों को राष्ट्रीय स्वाधीनता के लक्ष्य हेतु एकत्र करने तथा उनमें राष्ट्रवाद की अलख प्रज्वलित करने के कार्य में लग गए। इंडिया हाउस भारतीय स्वतंत्र संग्राम के क्रांतिकारियों का अड्डा बन चुका था।

आपने लंदन अध्ययनरत छात्रों से सम्पर्क किया। इसी क्रम में आपकी मुलाकात मदनलाल ढींगरा से हुई जो वहां पढ़ने गए हुए थे।

आपने लंदन में  इटली के महान क्रान्तिकारी मैज़ीनी की जीवनी का मराठी  में अनुवाद कर इसे  भारत भेजा जो भारतीय  क्रान्तिकारियों के लिए प्रेरणास्रोत बनी। 

लंदन में आपने 10 मई 1907 को भारतीय प्रथम स्वतंत्रता संग्राम   (1857) की   50 वीं वर्षगाँठ मनाई।
इस कार्यक्रम में क्रांतिकारीयों ने बैज लगाए ।
आपने ही इस कार्यक्रम में   अंग्रेज़ों द्वारा सेना विद्रोह कहे जाने वाले एक्शन को भारतीय स्वतंत्रता संग्राम घोषित किया। 


इस पुस्तक के छपने से पूर्व ही अंग्रेजों ने इसे बिना पढ़े ही प्रतिबंधित कर दिया।

अंग्रेजों के लाख प्रयत्नों के बावजूद मैडम भीकाजी कामा ने इस पुस्तक को सफलतापूर्वक जर्मनी, नीदरलैण्ड तथा फ़्रांस से प्रकाशित करा लिया व  बड़ी कठिनाइयों से इसकी प्रति भारत पहुंचाया गयी।

शहीदे आजम भगत सिंह ने इस पुस्तक का रूपांतरण किया ।
भगतसिंह और उनके साथी इस पुस्तक से बहुत प्रेरित रहे।

यह पहली पुस्तक थी जिसे प्रकाशित किये जाने से  पूर्व ही बिना पढ़े  प्रतिबंधित  किया गया।


 


इंडिया हॉउस की गतिविधियां पर नजर रखने हेतु ब्रिटिश खुफिया विभाग ने अपने जासूस नियुक्त किए ।

वीर सावरकर जासूसों के जासूस थे ।  उन्होंने एक भरतीय अंग्रेजी को देशभक्ति का पाठ पढ़ा कर उसका ह्रदय परिवर्तन कर दिया अब वह देश हित में सावरकर को अंग्रेजों की सूचना देने लगा।

इस समय  सावरकर  रूस, टर्की, स्वीडन ,फ्रांस ,आयरलैंड आदि  देशों के क्रान्तिकारियों से अपने संबंध-संपर्क स्थापित कर चुके थे ।

उन दिनों स्टुडगार्ड (जर्मनी) में अंतरराष्ट्रीय  सोशलिस्ट कांग्रेस का आयोजन हुआ ।
जिसमें दुनियाँ भर के सोशलिस्टों ने भाग लिया।
सावरकर की योजन अनुसार इस कॉन्फ़्रेंस में सरदार सिंह राणा व मैडम कामा ने भाग लिया ।
मैडम कमा ने इस कॉन्फ्रेंस में सावरकर के कार्यक्रम अनुसार स्वतंत्र भारत का 8 कमल ,सूरज, चाँद व वंदेमातरम वाला ध्वजारोहण किया।

इस कॉन्फ्रेंस के समाचार दुनियां के सभी समाचार पत्रों  प्रकाशन हुआ।

 
सावरकर ने फ्री इंडिया सोसायटी का गठन किया।
जिसमें भाई परमानंद , मदन लाल धींगरा , लाला हरदयाल, सेनापति बापट, बाबा जोशी, महेश चरण सिन्हा कोरगांवकर , हरनाम सिंह आदि प्रमुख थे।
सावरकर ने लंदन में ग्रेज इन्न लॉ कॉलेज से Bar At Law   की डिग्री लेली ।
परंतु उनकी क्रांतिकारी गतिविधियों के कारण सरकार ने डिग्री जप्त कर दी।

लंदन में रहकर अपने क्रांतिकारी कार्यो के कारण सावरकर विश्व विख्यात हो गए।

सावरकर ने एक क्रांतिकारी को रूसी क्रांतिकारियों के पास  बम बनाने की तकनीक सीखने हेतु भेजा तथा । बम्ब बनाने की 45 तकनीकों को रेखचित्र सहित अपने भाई बाबा सावरकर को भेजी।

वास्तव में श्री सावरकर भारत में ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध छापामार युद्ध की योजना पर कार्यरत थे। 

उनकी योजना पूरे भारत में एक ही समय पर, एक साथ कई ब्रिटिश ठिकानों पर बम धमाकों द्वारा ब्रिटिश साम्राज्य को हिलाने की थी।
सावरकर ने इंडिया  हाउस लंदन से कई बार गुप्त पार्सलों  में  भारत हथियार भेजें।

सन 1907 में  लाला लाजपतराय व अजीत सिंह जी को गिरफ्तार किये जाने के विरुद्ध सावरकर ने लंदन में  एक सभा का आयोजन किया गया था।
इस सभा के मुख्य वक्ता   सावरकर ही थे।

इसी समय भारत में अंग्रेज़ों द्वारा खुदीराम बोस, कन्हैई लाल दत्त, सत्येंद्र नाथ वसु तथा कांशीराम को फाँसी दी गई।

इस पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए 20 जून 190 9 को इंडिया हाउस में की गई बैठक में सावरकर ने बदला लेने की  घोषणा कर दी थी।

इसी योजना के अंतर्गत 19 दिसंबर 1909 को अभिनव भारत के अनंत कन्हरे ने नासिक कलेक्टर जैकसन का वध किया था।

जिस रिवाल्वर से अन्नत कन्हरे ने जैक्सन का वध किया गया था। वो सावरकर द्वारा लंदन से ही भेजा गया था।

सावरकर बंगाल विभाजन के लिए भारत सचिव  कर्जन वायली को दोषी मानते थे ।
वायली अपने जासूसों की मार्फ़त इंडिया हॉउस पर निगरानी रख रहा था।
इसलिए वायली उनके टारगेट पर आ गया।

सावरकर की योजनानुसार ही क्रांतिवीर मदनलाल ढींगरा ने दिनाँक 1 जुलाई 1909  जहाँगीर हॉल लंदन में  कर्ज़न वायली का गोली मारकर  वध किया था।

ढींगरा को रिवॉल्वर भी  सावरकर ने ही उपलब्ध कराया था

लंदन में वायली के सरेआम वध के बाद लंदन के प्रमुख समाचार पत्रों में
हिंदुस्तानियों ने अंग्रेज़ों के विरुद्ध अंग्रेज़ों की धरती पर ही युद्ध प्रारंभ कर दिया है” ,
खबर ने  ब्रिटिश सरकार को हिलाकर रख दिया।
 
श्री सावरकर ने ढींगरा को हर संभव क़ानूनी सहायता प्रदान की, पर उन्हें बचा न सके।

वायली वध के बाद अंग्रेजों के   भारतीय पिठुओं  ने ढींगरा  के विरूद्ध   सर्वसम्मति से निंदा प्रस्ताव पारित करने के आशय से लंदन में आम सभा बुलाई
इस सभा में एक अंग्रेज ने सावरकर के थप्पड़ मारते हुए कहा look! how straight   the English first goes

तभी सावरकर के पास खड़े भारतीय क्रांतिकारी  M. P. चिरूमलाचार्य ने पामर के मुक्का मारते हुए जबाब दिया
look! how straight the Indian club goes

इस सभा मे   सावरकर  आपत्ति की व सर्वसम्मति से प्रस्ताव को पारित होने से रोकने में सफल रहे।

लंदन में सावरकर को भारत मे अपने  इकलौते पुत्र प्रभाकर की मृत्यु का समाचार मिला।

इस दुःख को उन्होंने सहन किया व अपने लक्ष्य ओर चलते ही रहे।


अब सावरकर अंग्रेजों के लिए एक चुनौती बन चुके थे। इसलिए ब्रिटिश सरकार  किसी भी तरह से सावरकर को गिरफ्तार कर जेल में डालना चाहती थी।

इस हेतु ब्रिटिश सरकार ने सावरकर पर  सम्राट के विरुद्ध युद्ध करने, युवाओं को ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध भड़काने तथा बम बनाने का साहित्य प्रसारित करने के आरोप लगाते हुए उनकी गिरफ़्तारी के लिए भारत तथा इंग्लैंड में एक साथ वारंट निकाला

सावरकर को दिनाँक 13 मार्च 1910 (बुधवार) को विक्टोरिया स्टेशन पर  गिरफ्तार  शाम को   ओल्ड बिली कोर्ट में पेश किया गया। जिसने 12 मई 1910 को सावरकर पर भारत में अभियोग चलाने का आदेश दिया।

सावरकर अपने स्त्रोतों से पता लगा लिया था कि  उन्हें दिनाँक 1 जुलाई 1910 को ‘मोरिया’ नामक जहाज़ से  भारत ले जाया जायेगा वह फ्रांस के दक्षिणि तट  मार्सलीज से गुज़रेगा ।

इसलिए सावरकर ने भिकाजी कामा व श्यामजी वर्मा व साथियों से मिलकर यह योजन बनाई कि सावरकर समुद्र में कूद कर तैरते हुए मार्सलीज पहुंच जाएंगे।
वहां ये लोग टेक्सी तैयार रखेंगे जिससे सावरकर निकल लेंगे।

इस योजनानुसार सावरकर ने  दिनांक 8 जुलाई 1910 को जहाज के शौचालय की खिड़की तोड़ कर खुले समुद्र में ऐतिहासिक छलांग लगाई व पुलिस फायरिंग से बचते हुए तैरकर मार्सलीज पहुंच गए पर मौका टैक्सी नहीं पहुंची।

सावरकर को अंतर्राष्ट्रीय विधि का ज्ञान था और उन्हें पता था कि फ्रांस में इंग्लैंड की सरकार की पुलिस उन्हें गिरफ्तार नहीं कर सकती ।

इसलिए उन्होंने भागकर अपने आप को फ्रांस के एक पुलिस अधिकारी  के समक्ष पेश करते हुए उसे समझाया कि वह उन्हें ब्रिटिश पुलिस की गिरफ्तारी से बचाये।
परंतु फ्रांस के उस पुलिस  अधिकारी को अंतर्राष्ट्रीय विधि का कुछ भी ज्ञान नहीं था और उसने अंग्रेजी पुलिस अधिकारियों से मिलकर सावरकर को ब्रिटिश पुलिस को सौंप दिया।

सावरकर की फ्रांस  से गिरफ्तारी का मामला अंतरराष्ट्रीय न्यायालय हेग में ले जाया गया और फ्रांस सरकार ने ब्रिटेन के विरुद्ध आक्षेप लगाया कि अंग्रेजी सरकार द्वारा फ्रांस की सीमा से राजनीतिक बंदी की गिरफ्तारी गलत  की गई है ।
दोनों देशों में  सावरकर की गिरफ्तारी के कारण  तनाव आ गया परंतु कुछ मध्यस्थों ने बीच-बचाव करके फ्रांस को मना लिया और फ्रांस ने अपनी बात को छोड़ दिया।

बम्बई में सावरकर के सम्राट के विरुद्ध युद्ध करने व जैक्सन की हत्या में हाथ होने के विरुद्ध विशेष न्यायालय में मुकदमा चलाये गए।

पहले सम्राट के विरुद्ध युद्ध के मामले  में सावरकर को दिनाँक 24 दिसंबर 1910 को  आजीवन कारावास की कालापानी की सज़ा सुनाई।
फिर नाशिक कलेक्टर जैकसन की हत्या के मामले में भी दिनाँक 11 अप्रैल 1911को काला पानी की सजा दे दी गई।
इस प्रकार सावरकर को दोआजीवन कारावास के दंड से दंडित किया गया।
सावरकर को दो आजीवन कारावास भुगतान हेतु अप्रैल 1911 में  अंडमान सेल्यूलर जेल में भेज दिया गया।

वीर सावरकर नें लंदन में रहकर अंग्रेजों के जासूसों की आंखों में धूल झोंक कर स्वतंत्रता संग्राम को निरन्तर गति प्रदान की।

इसलिए अंग्रेजी सरकार सावरकर को अपना सबसे बड़ा खतरनाक दुश्मन मानती थी ।
अंडमान जेल में सावरकर  एकमात्र कैदी  थे  जिन्हें खतरनाक कैदी का दर्जा दिया गया ।
जिनके गले में ” D ” यानी  Dangerous   बैज लगा था ।

सावरकर को अंडमान जेल पहले  6 माह तक एक कालकोठरी में एकांतवास में रखा गया।

हथकड़ी व बेड़ियों में रखा जाता था।   नारियल  को हाथों से तोड़ कर रस्सी बनवाई जाती थी जिससे हाथ लहूलुहान रहते थे।

कोलू में जोतकर नारियल का तेल निकालने का काम करवाया जाता था । थककर थोड़ा सुस्त होते ही बेंत से पिटाई की जाती थी।

जेल की मानवीय यात्राओं से परेशान होकर एक बार तो सावरकर ने भी आत्महत्या करने की सोच ली थी ।

अंडमान जेल का जेलर मिस्टर डेविड बैरी बहुत निर्दयी व्यक्ति था । 
कैदियों को जेल में बिल्कुल बेकार खाना दिया जाता था  ।
नहाने के लिए मात्र 4 मग पानी दिया जाता था ।
कैदी को निर्धारित मात्रा में कोलू से तेल निकालना पड़ता था।
 
अच्छा खाना नहीं होने के कारण लगभग सभी कैदियों की हालत बहुत बुरी थी ।

वीर सावरकर ने जेल में ही अपनी आवाज को बुलंद कर जेल में बंद भारतीय क्रांतिकारियों को उर्जा प्रदान की ।

सावरकर के कहने से कैदियों ने जेल सुविधाओं के लिए  भूख की हड़ताल करवाई।

उन्होंने गुप्त रूप से जेलर के खिलाफ एक शिकायत भिजवा दी जो लंदन के अखबारों में छपी जिसके कारण अंग्रेजी सरकार ने जेलर का स्थानांतरण किया ।   

अंडमान जेल में  दबाब डाल कर हिदू कैदियों का धर्म परिवर्तन करवाया जाता था।

   सावरकर ने जेल में ही कैदियों को पढ़ाना व शुद्धिकरण करना शरू किया।

  

सन 1921 में सावरकर को अंडमान जेल से  रतनागिरी जेल में लाया गया ।
1923 में रतनागिरी से महाराष्ट्र के यरवदा( पूना) जेल में लाया गया।

यरवदा जेल से दिनाँक 6 जनवरी 1924 को  इस शर्त पर रिहा किया कि आप रतनागिरी जिले से बाहर नहीं जाएंगे व  किसी भी राजनीतिक गतिविधि में शामिल नहीं रहेंगे।।

सावरकर हिंदू धर्म में व्याप्त कुरूतियों व  छुआछूत के बहुत खिलाफ थे ।
उन्होंने फरवरी 1931 में अस्पृश्यता उन्मूलन सम्मेलन की  अध्यक्षता की थी।
सावरकर ने बम्बई में  “पतित पावन” मंदिर बनवाया जिसमें जाति से निम्न समझे जानेवाले व लोगों को भी प्रवेश करवाया।

आपने हिंदू समाज की 7 बेड़ियां  स्पर्श बंदी  , रोटी बंदी, बेटी बंदी, व्यवसाय बंदी , सिंधु बंदी , वेदोक्त बंदी व शुद्धि बंदी को बताया।
आप राष्ट्रभाषा हिंदी व राष्ट्र लिपि देवनागरी बनाए जाने के पक्षधर थे

सन 1937 में कर्णावती, अहमदाबाद में हुए सम्मेलन में आपको अखिल भारतीय हिंदू महासभा का अध्यक्ष बनाया गया।
ततपश्चात आप ही इसके बाद 6 बार अध्यक्ष  रहे

आपने 15 अप्रैल 1938 को मराठी साहित्य सम्मेलन की अध्यक्षता की ।

आपने 13 दिसंबर 1937 को नागपुर में आयोजित आम सभा को संबोधित करते हुए देश के बंटवारे के प्रस्ताव का विरोध किया।

नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने 22 जून 1941 को आपसे मुलाकात की और आपने उन्हें रासबिहारी बोस के पास जापान जाने हेतु प्रेरित किया था।

आपने अक्टूबर 1942 में चर्चिल को भी तार भेजा था ।

आपको 5 अक्टूबर 1948 को महात्मा गांधी की हत्या के आरोप में गिरफ्तार किया गया था परंतु कालांतर में आरोप मुक्त  कर दिया गया था ।

आपने 10 नवंबर 1957 को स्वतंत्रता संग्राम की शताब्दी पर मुख्य वक्ता के रूप में अपना भाषण दिया ।

आपको पुणे विश्वविद्यालय से 8 अक्टूबर 1959 को डॉक्टरेट की डिग्री मिली। आप लिखकर चिंतक भी थे। आपने लगभग 10000 पृष्ठ मराठी भाषा के 1500 पृष्ठ अंग्रेजी भाषा में लिखे। आपने 40 पुस्तकें लिखी थी।। मराठी भाषा में आप की कविताएं अति लोकप्रिय है

आपने  1 फरवरी 1966 को जीवन पर्यंत व्रत शुरू किया

   26 फरवरी 1996 को प्रातः 10:00 आप ने संसार से अंतिम विदाई ली।


पोर्ट ब्लेयर के अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डा को आपके नाम से बनाया गया ।

    भारत सरकार द्वारा आपके सम्मान में   डाक टिकट भी जारी किया गया। 

वीर सावरकर पर कॉन्ग्रेस या अन्य लोगों द्वारा एक आक्षेप यह लगाया जा रहा है की उन्होंने अंग्रेजों से माफी मांगी थी।

यह आक्षेप बिल्कुल गलत है। इस पर कोई धारणा बनाने से पूर्व हमें उस समय की परिस्थितियों को समझना होगा।

जेल की कालकोठरियों में अमानवीय यातनाएं झेलने से तो देश आज़ाद हो नहीं सकता था।

सावरकर ही नहीं भारतीय  सभी  क्रांतिकारीयों की सोच यही थी कि जेल में सड़कर मरने से अच्छा है।। किसी भी तरह से जेल से बाहर निकले और क्रांतिकारी गतिविधियों को आगे बढ़ाएं।
और क्रांतिकारी अनेक बार जेल से भागने में सफल भी रहे।

इस मामले में एकमात्र शहीदेआजम भगतसिंह की सोच अलग रही।उनके कारण उन्होंने ख़ुद बताए थे।

सावरकर द्वारा  जेल से प्रेषित की गई पेटीशन को माफीनामा नहीं कहा जा सकता।

सावरकर  बैरिस्टर थे और  कानूनी प्रावधानों से अच्छी तरह परिचित थे ।
उन्होंने अपने कानूनी अधिकारों को प्राप्त करने हेतु उपरोक्त सभी पेटीशन प्रेषित की थी।
जिन्हें आप स्वयं पढ़ सकते हैं :-

इन पेटीशन को समझने के लिए यह समझना आवश्यक है
  सावरकर को भारतीय दंड संहिता के अंतर्गत दो उम्रकैद की सजा दी गई थी

भारतीय दंड संहिता की धारा 55 में उम्र कैद की अवधि की गणना करने का सूत्र दिया हुआ।
इस धारा के अनुसार उम्र कैद की अवधि अधिकतम 14 वर्ष हो सकती थी ।

उस समय  Government Resolution number 5308 (judicial department) Dated 12 October 1905 के अनुसार कैदी को हर एक वर्ष की सजा पर दो कारावास की अवधि में दो माह की छूट मिलती थी ।
जिसे र Remission Earned by convict   कहा जाता था।

सावरकर द्वारा प्रस्तुत पेटीशन में इस छूट लाभ मांगा गया है।

यही नहीं अंडमान जेल नियमों के अनुसार कैदी को कैद के 5 वर्ष पूर्ण करने के बाद उसके घरवालों से मिलने व 10 वर्ष बाद कैदी अपने घर वालों के साथ रहने के आदि आदि  छूट दी जाती थी।
जो सावरकर को नहीं दी गई थी।  अपनी पेटीशन में सावरकर ने इनका भी उल्लेख किया है।

जहाँ तक शाही घोषणा के अंतर्गत कैदियों की आम रिहाई का प्रश्न है इसे भी देखिए।

प्रथम महायुद्ध में महात्मा गांधी जी द्वारा भारतीयो को  ब्रिटिश फौज में भर्ती करवाया था ।

इसके कारण गांधीजी के आग्रह पर अंग्रेजों ने शाही घोषणा(Royal Proclamation_-Royal Amnesty to the Political Prisoners  )  जारी कर के राजनीतिक कैदियों को जेल से रिहा किया गया था।

उक्त शाही घोषणा का लाभ  सावरकर बंधुओं को नहीं दिया गया था।
सावरकर ने अपनी एक पिटिशन में  सावन में यह मुद्दा उठाया है।

सावरकर की महानता देखिए उन्होंने अपनी अंतिम दोनों पिटिशन में स्पष्ट लिखा है कि यदि उसे  रिहाई नहीं दी जाती है तो न दें कम से कम अन्य कैदियों को तो रिहा करें ।

महात्मा गांधी, सरदार पटेल  के आग्रह पर सावरकर ने अंतिम पेटीशन भेजी थी।

यह विचारणीय है कि सावरकर को उनके द्वारा प्रेषित पेटीशन के आधार पर जेल से रिहा नहीं किया गया था।


सावरकर की पेटीशन दिनाँक 12 जुलाई 1920 को अस्वीकार कर दी गई थी।

वस्तुतः श्री मोहम्मद फैयाज खान लेजिस्लेटर ने दिनांक 15 फरवरी 1921 को मुंबई लेजिसलेटिव असेंबली में सावरकर  को जेल में दी जाने वाली यातनाओं के संबंध में प्रश्न उठाया।

विट्ठल भाई पटेल ने बम्बई लेजिस्लेटिव असेम्बली में दिनांक 24 फरवरी 1920 को सावरकर बंधुओं व अन्य राजनीतिक कैदियों की रिहाई का मामला उठाया।

इसके बाद   रंगास्वामी एंकर ने दिनांक 26 मार्च 19 को बम्बई असेम्बली में  सावरकर की रिहाई हेतु 50000  (पच्चास हजार)व्यक्तियों द्वारा हस्ताक्षरित ज्ञापन रखा।

गांधीजी ने दिनाँक 25 जनवरी1920 को सावरकर के भाई नारायणराव सावरकर को पत्र लिखकर सावरकर की रिहाई हेतु प्रयत्न करने का  आश्वस्त किया व 26 मई 1920 में गाँधी जी यंग इंडिया में लेख भी छपवाना –


अंततः से जन प्रभाव के दबाव से Alexander Montgomery, Secretary Home Department  भारतीय दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 401 के अंतर्गत रतनागिरी जिला से बाहर नहीं जाने व राजनीतिक गतिविधियों में भाग नहीं लेने की शर्तों के साथ सावरकर को रिहा करने के आदेश पारित  किये।

सावरकर 13 वर्ष 9 माह 13 दिन जेल में कठोर यातनाओं को झेलने के बाद रिहा हुए।

इस पुस्तक को अवश्य पढ़ें। कुछ तथ्य व चित्र इसी पुस्तक से संकलित है।

भगत सिंह

         

शहीद-ए-आजम भगत सिंह केवल क्रांतिकारी नहीं, अपितु बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे ।
भगतसिंह जी  महामृत्युंजयी, कालपुरुष , युगदृष्टा, दार्शनिक , विचारक , पत्रकार  एंव क्रांतिवीर थे।

शहीदे आजम भगत सिंह का जन्म 28 सितंबर 1907 को प्रातः 9:00 का गांव बंगा जिला लॉयलपुर  (वर्तमान पाकिस्तान ) में हुआ था।

आपको इंकलाब का नारा विरासत में प्राप्त हुआ था। आपके दादा सरदार अर्जुनसिंह व चाचा सरदार अजीत सिंह जी क्रांतिकारी थे ।

बाल्यकाल में भगत सिंह द्वारा अंग्रेजों को मारने के लिए अपनी पिस्तौल (खिलौने) को  खेत में बो दिया और पूछने पर कहा की बहुत सारे पिस्तौल पैदा होंगे , जिससे अंग्रेजों को मारेंगे ।

जलियांवाला हत्याकांड के समय  भगत सिंह की आयु मात्र 12 वर्ष थी। तभी उन्होंने जलियांवाला बाग की रक्तरंजित मिट्टी को घर लाकर श्रद्धांजलि दी ।

ये घटनाएं उनके उनके जन्मजात क्रांतिकारी होने का सबूत है।

एफ. ए. पास करने के बाद भगत सिंह क्रांति पथ पर अग्रसर हो गए उन्होंने भगवतीचरण , यशपाल अशोक देव आदि के साथ पंजाब में “नौजवान भारत सभा “का गठन किया।


नौजवान भारत सभा के द्वारा लोगों में आम सभाओं का आयोजन किया जाता जिसमें ,भाषण व पर्चों के माध्यम से क्रांतिकारियों के उद्देश्य और उनके विचारों के बारे में लोगों को बताते थे तथा शोषण , गरीबी,  असमानताओं जैसे विषयों पर लोगों को समझाते थे ।

इमेजिन लालटेन  द्वारा क्रांतिकारीयों व  शहीदों के चित्रों का प्रदर्शन कर लोगों को उनकी जीवन गाथा के बारे में प्रचार करते थे।

सन 1928 में भगत सिंह ने भगवती चरण वोहरा के साथ मिल कर नौजवान भारत सभा के घोषणापत्र का अंग्रेजी में रूपांतरण किया ।

भगतसिंह 1928 में चंद्रशेखर आजाद के साथ ‘ हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन” में शामिल हुए ।
भगत सिंह समाजवादी विचारधारा से प्रभावित थे ।
इसलिए उन्होंने संगठन में सोशलिस्ट जोड़ा व दल का नया नाम संशोधित कर ‘हिंदुस्तान रिपब्लिक सोशलिस्ट एसोसिएशन ” रखा गया।

इस क्रांतिकारी दल द्वारा लिए गए मुख्य दो एक्शन में भगत सिंह जी ने अपनी भूमिका अदा की थी।

साइमन कमीशन के विरोध में लाहौर में हुए विरोध आंदोलन में पुलिस अधीक्षक स्कोर्ट के आदेश पर  लाठीचार्ज किया गया।

जिसमें उप पुलिस अधीक्षक सांडर्स द्वारा लाला लाजपत राय पर लाठियों से वार किए गए जिनसे कारित चोटों से लालाजी का दिनाँक 1 नवंबर 1928 को  देहांत हो गया ।

    देश के क्रांतिकारियों ने लालाजी की मौत को राष्ट्रीय अपमान समझा व इसका बदला लाठीचार्ज करने वाले अधिकारी का वध करके  लिया जाना तय किया गया।

HRSA की योजनानुसार पुलिस अधीक्षक स्कॉट का  दिनाँक 17 दिशम्बर 1927 को वध किया जाना था।

जयगोपाल द्वारा  गलत पहचान किये जाने के कारण राजगुरु व भगत सिंह द्वारा सांडर्स का वध कर दिया गया।

इस एक्शन में  चंद्रशेखर आजाद भी साथ थे । जिन्होंने भगतसिंह का पीछा कर रहे सिपाही चंदनसिंह को गोली मारी थी।

सांडर्स वध के बाद भगत सिंह ने अपने लंबे केश कटवा कर पश्चिमी ड्रेस पहनकर सर पर हेट लगाकर दुर्गा भाभी की गोद में उनके पुत्र शनी व नोकर बने राजगुरु के साथ लाहौर से फरार होकर कलकत्ता चले गए व असेम्बली एक्शन तक भूमिगत रहे।

भगत सिंह जी द्वारा दूसरा एक्शन 8 अप्रेल 1929 केंद्रीय असेंबली में बटुकेश्वर दत्त के साथ बम से धमाका करके  ट्रेड डिस्प्यूट व पब्लिक सेफ्टी बिल का विरोध किया गया था

असेम्बली एक्शन के लिए भगत सिंह को आजीवन कारावास से दंडित किया गया था

केंद्रीय असेंबली में बम धमाके के पश्चात क्रांतिकारियों की योजना के अनुसार भगत सिंह व बटुकेश्वर दत्त को मौका पर ही अपने आप को गिरफ्तार कराया जाना था ।
उन्होंने ऐसा ही किया इसके पश्चात भगत सिंह की जेल यात्रा शुरू हुई

भगत सिंह जी ने अपने कारावास काल में गंभीर अध्ययन व लेखन किया ।
जो भारत के ही नहीं विश्व के क्रांतिकारियों के लिए एक आदर्श है।

शहीदे आजम भगत सिंह के विचार अपने आप में संपूर्ण क्रांति की रूपरेखा  है।
 


भगत सिंह  एक चिंतक दार्शनिक थे उन्होंने रूस ,फ्रांस व इटली की क्रांति के इतिहास का गंभीर मनन किया ।
उन्होंने सुकरात ,प्लेटो, अरस्तु एपिक्योरस , मैक्यावली,कार्ल मार्क्स, लेनिन, बुकानन बोन्दे , मिल्टन ,लॉक, फ्रेडरिक एंगेल्स, लुइस एच मॉर्गन ,   मोंटेग्यू चेम्सफोर्ड ,बट्रेंड रसैल, डॉ रदफोर्ड, थॉमस पेन, पैट्रिक हेनरी, रोबोर्ट जी इंगरसौल ,मार्क टवेन,अप्टन सिंक्लेयर, रिचर्ड् जेफरीन,
पैट्रिक मैकगिल, होरेस ग्रीले ,कोंको होशी, जे एस मिल,मैक्सिम गोरगी,वाल्ट हिटमैन, विन्डेल फिलिप, हेर्नरिक इब्सन, यूजीन बी डेब्स, फ्रांसिस्को फेरर , लार्ड टेनिसन , विलियम वर्ड्सवर्थ, जोसेफ केम्पबेल, आर्थर हज  क्लोग, फ़िगनेर ,एन ए

मरोजोव आदि  प्रसिद्ध चिंतको व दार्शनिकों को पढ़ा व इन पर गंभीर चिंतन किया।
  

शहीदे आजम भगत सिंह कलम के धनी थे उन्होंने अमृतसर से  गुरुमुखी व उर्दू  में प्रकाशित मासिक पत्रिका “कीर्ति” ,
कानपुर से हिंदी में प्रकाशित समाचार पत्र ” प्रताप’  व “प्रभा” , दिल्ली से प्रकाशित समाचार पत्र “महारथी'” और इलाहाबाद से प्रकाशित ‘” चांद'” में अपने लेख विभिन्न छदम नामों से प्रकाशित करवाये।

चाँद में उन्होंने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के शहीदों के संबंध में काफी लेख प्रकाशित करवाये।

भगत सिंह जी देश की आजादी से भी आगे सोचते थे। उनका मानना था जब तक आम मजदूर व किसान का शोषण बंद नहीं होगा, तब तक कांति संपूर्ण नहीं हो सकेगी।
भगतसिंह सत्ता ही नहीं अपितु व्यवस्था  परिवर्तन के पक्षधर थे। उन पर साम्यवादी विचारधारा का काफी प्रभाव था। पूंजीवाद साम्राज्यवाद के विरुद्ध थे।

  भगत सिंह  जी को अच्छी तरह से ज्ञान था कि उन्हें फांसी की सजा होनी है।
पर इस कारण से वे कभी भी विचलित नहीं हुए। उन्होंने मृत्यु पर अपनी विजय हासिल की


उन्होंने असेंबली में धमाका करते समय फ्रांस के क्रांतिकारी वैलेंट के द्वारा किए गए एक्शन को अपनाया ।

इसके पीछे उनकी गंभीर सोच थी कि धमाके के बाद व  अदालती कार्रवाई में अंग्रेजों की कुंठित व्यवस्था को प्रेस के माध्यम से  उजागर किया जाए ताकि विश्व भर में लोग अंग्रेजों द्वारा भारत में किये जा रहे अमानवीय कृत्यों से परिचित हों।

उन्होंने उन्होंने फांसी की सजा के विरुद्ध अपील करना उचित नहीं समझा
वे  महामृत्युंजय भी थे। उन्होंने मृत्यु के रहस्य को भी एक काल पुरुष के रूप में समझ लिया था ।
उन्होंने अपने जीवन मूल्य  का सर्वाधिक उपयोग  फांसी पर चढ़ना माना।
उनका विश्वास था कि जीवित भगत सिंह की अपेक्षा फाँसी से मारा गया  भगत सिंह देश में क्रांति सैलाब पैदा करेगा और अंग्रेजों को झक मार कर भारत छोड़ना पड़ेगा

शहीदे आजम भगत सिंह ने न्यायोचित उद्देश्यों के लिए बल प्रयोग को उचित माना था।
वे हिंसा के पक्षधर नहीं थे परंतु दुष्ट अधिकारियों को दंड दिए जाने से आम जनता में जागृति होने की आशा करते थे।


शहीदे आजम भगत सिंह की नजरों में आजादी के बाद के भारत की तस्वीर भी स्पष्ट थी ।
उन्होंने उस समय ही लिख दिया था कि मात्र सता परिवर्तन से आम जनता , मजदूरों व किसानों का भला नहीं होने वाला।

आजादी के बाद भी कभी वर्षों तक शहीद- ए -आजम भगत सिंह के द्वारा लिखित जेल डायरी व अन्य अभिलेख उपलब्ध नहीं हो सके और उनका आम जनता के लिए प्रकाशन भी नहीं हुआ ।

यह कहा जाता है कि शहीद – ए – आजम भगत सिंह ने 4 पुस्तकें “आत्मकथा”, “समाजवाद का आदर्श” , “भारत में क्रांतिकारी आंदोलन”  तथा  “मृत्यु के द्वार पर” लिखी थी।
देश का दुर्भाग्य है कि इनकी पांडुलिपि आज तक भी उपलब्ध नहीं हो सकी है।

रूस के एक विद्वान एल.वी. मित्रोखन ने सन 1981 में
शहीदे आजम भगत सिंह की  जेल डायरी में उनके हाथ से  बनाए गए नोट्स के आधार पर एक अध्याय तैयार कर अपनी पुस्तक     ‘ लेनिन  एंड  इंडिया “ में प्रकाशित किया।

शहीदे आजम भगत सिंह 1928 के बाद  नास्तिक विचारों के हो गए थे ।
उन्होंने लेनिन की भाषा में ही धर्म को अफीम बताया था।


शिव वर्मा, मन्मथ नाथ गुप्त , एस.एन .मजमूदार , शचिंद्र नाथ सान्याल , बुद्धदेव भट्टाचार्य आदि द्वारा लिखित  आत्मकथा / पुस्तकों के आधार पर शहीदे आजम भगत सिंह की विचारधारा में लोगों में कहीं-कहीं विरोधाभास नजर आता है।

पाठकों को चाहिए शहीदे आजम भगत सिंह की विचारधारा को समझने के लिए उनके मूल दस्तावेज का अध्ययन  करें।

शहीदे आजम भगत सिंह ने जेल में क्रांतिकारी कैदियों की स्तिथि सुधारने हेतु व उन्हें अच्छा
  खाना दिए जाने की मांग को लेकर जेल प्रशासन के खिलाफ 163 दिन भूख हड़ताल की  थी।


जो अपने आप में एक उदाहरण है भगत सिंह नजम भी लिखते थे और गाते भी बहुत अच्छा थे

शहीदे आजम भगत सिंह को राजगुरु व सुखदेव के साथ 23 मार्च 1931स्वीकृति शायं  7:33 बजे लाहौर केंद्रीय जेल में फांसी दी गई थी
हालांकि फाँसी हेतु तिथि 24 मार्च निश्चित की गई थी

पर उन्हें एक दिन पहले ही जेल नियमों के खिलाफ 23 मार्च को शाम को फांसी दे दी


शहीदे आजम भगत सिंह की जेल डायरी के पृष्ट संख्या 104 से 110 पर किए गए उल्लेख से  उनके कानूनी ज्ञान का भी आंकलन किया सकता है।

शहीदे आजम भगत सिंह की  जेल डायरी में कार्यपालिका व व्यवस्थापिका के पृथकीकरण व कार्यपालिका को विधायिका के अधीन रखने के विचार लिखे हैं ।

शहजादे भगत सिंह ने अपने जेल डायरी में क्रांति के अधिकार (RIGHT TO REVOLUTION ) का भी उल्लेख किया है।

एक पुस्तक के अनुसार फाँसी के बाद भगत सिंह ,राजगुरु व सुखदेव के पार्थिव शरीर के टुकड़े कर दिए गए थे और उन्हें सतलुज के किनारे तेल डालकर जलाया गया।

शहीद-ए-आजम भगत सिंह के संबंध में उपलब्ध समस्त मूल अभिलेखों का संपूर्ण अध्ययन करने के पश्चात इस लेख को पूरा करने की इच्छा है।

आप सभी पाठकों से भी निवेदन है की सजा आजम भगत सिंह के संबंध में इस लेख को वास्तविक तथ्यों के साथ और आगे बढ़ाएं ।

शत शत नमन शहीदेआजम को

हरि किशन सरहदी


  

पंजाब विश्वविद्यालय का दीक्षांत समारोह
दिनाँक  23 दिशम्बर 1930

पंजाब गवर्नर ज्योफ्रे डी मोरमोरेंसी कार्यक्रम सम्मापन के बाद जैसे ही चले
कड़ी पुलिस व्यवस्था के बावजूद एक युवा प्रकट हुआ व

अपने पिस्तौल से गवर्नर महोदय  के दो गोली मारी ।

एक कंधे पर व एक पीठ पर।
कई घायल हुए जिनमे से  एक  पुलिसकर्मी  शाम को मर गया।

युवक को मौके पर गिरफ्तार कर लिया गया।

आप थे

क्रांतिवीर हरि किशन सरहदी।


आपका जन्म 1909 में उत्तर-पश्चिम के सीमांत प्रान्त के  मर्दन शहर के पास गल्ला ढेर नामक गांव में हुआ।
आपके पिता श्री गुरुदास मल बड़े जमीदार थे ।
देशभगत भगतराम जो पेशावर जेल में थे आपके भाई थे। 

रामप्रसाद बिस्मिल व अशफ़ाक़ उल्ला ख़ाँ   आपके  आदर्श थे।

केंद्रीय  असेम्बली प्रकरण में भगत सिंह द्वारा अदालत में दिए गए  बयानों से आप अतिप्रभवित थे।

आप पर मुकदमे की सुनवाई बोस्टन जेल लाहौर में
3 जनवरी 1936 को शुरू हुई थी।

आपने सफाई देने से इंकार कर दिया और वकील भी नहीं किया बल्कि अदालत कहा –


मैं यदि बता सकता, कि मैं लाहौर में कब आया ।

परन्तु मैं यहां गवर्नर को मारने के लिए आया था।
यह भी नहीं बताना चाहता,कि मैं लाहौर में कहाँ ठहरा था।
मैं 23 दिसंबर को टिकट के साथ यूनिवर्सिटी हॉल में गया था।
मैंने कुल 6 फायर किये।

दो गवर्नर पर किये बाकी  अपने को बचाने के लिए, न कि इस ख्याल, से कि इससे कोई मारा जाए ।
अदालत में जो भी चीजें- पिस्तौल और गोलियां  आदि- पेश की गई है,वो मेरी है।

मैं और कुछ कहना नहीं चाहता  और न यह बताना चाहता हूं कि मैंने यह कार्य क्यों किया ।

मैंने जो कुछ किया है इच्छा से किया है, अपनी इच्छा से किया है।

इस मामले में आपको फांसी की सजा हुई जो अपील आदि के बाद फांसी की सजा  यथावत रही।

आपको 9 जून 1931 को मियांवाली जेल में फांसी दी गई थी।

आपने अपनी अंतिम इच्छा जाहिर की-
“फाँसी के बाद अपना पार्थिव शरीर अपने रिश्तेदारों को देने व
अंतिम संस्कार वहीं हो सरदार भगत सिंह का हुआ।”

परंतु सरकार ने आपकी अंतिम इच्छा पूरी नहीं की आपके पार्थिव शरीर को जेल के नजदीक  ही मुसलमानों के कब्रिस्तान में जला दियाI 

शत शत नमन शहिदों को

:-रासबिहारी बॉस -:

    

आपका जन्म 25 मई 1886 को गांव सुबालदह , बर्धमान , पश्चिम बंगाल में हुआ।
 
आपकी  शिक्षा चन्दननगर में हुई। आपने पहले फोर्ट विलियम कॉलेज में  फिर  देहरादून जंगल विभाग में नोकरी की।

प्रारंभ में आप “चंदननगर अनुशीलन समिति” के सदस्य थे। कालांतर में आपका संपर्क  युगांतर दल के क्रांतिकारी अमरेन्द्र चटर्जी से हुआ और आप युगांतर दल व जतिन बाघा के साथ जुड़ गए।
  
अब आपका संबंध संयुक्त प्रान्त, वर्तमान उत्तर प्रदेश और पंजाब के प्रमुख क्रांतिकारीयों से हो गया।

शचींद्र सान्याल 1912 में काशी में  क्रांतिकारी गतिविधियों में सक्रिय रूप से काम कर रहे थे।
  आपने  सान्याल को  संगठन मजबूती हेतु पंजाब भेजा।

आपकी ही योजना के अनुसार “लिबर्टी ‘ नाम से एक  क्रांतिकारी पर्चा लाहौर से कोलकाता तक फौजी छावनियों व आम जनता में बंटवाया।

आपकी ही योजना के अनुसार दिल्ली चांदनी चौक में वायसराय लॉर्ड हार्डिंग का वध करने हेतु उसकी सवारी पर दिनांक 13 दिसंबर 1912 को बम डाला गया।
व पंजाब में सिविल सर्वेंट्स को मारने हेतु लॉरेंस गार्डन में बम्ब विस्फोट किया गया।

आपने प्रथम विश्व युद्ध के समय भारतीय फौजियों से सम्पर्क कर समस्त देश मे एक साथ विप्लव कर अंग्रेजों को मार भागने की योजना बनाई।

उस समय भारत में अंग्रेजों के पास मात्र  15000 सैनिक थे । समस्त सैनिकों को विदेशों में अलग-अलग मोर्चों पर लड़ने हेतु भेज दिया गया था।

आपकी योजना के अनुसार  21 फरवरी 1915 को विप्लव करना था।
सारी तैयारियां बहुत अच्छी तरह हुई । जर्मनी से तीन जहाजों में हथियार मंगवाए गए।

करतारसिंह सराबा व गदर पार्टी के लगभग 8000 क्रांतिकारी हथियारों सहित इस विप्लव में शामिल विदेशों से भारत आए।

दुर्भाग्य से पुलिस ने  कृपाल सिंह नामक एक गद्दार को क्रांतिकारी के दल में शामिल करा दिया।इस गदार ने सारी खबरें पुलिस को दे दी।
आपने तिथि दो दिन पहले की जिसका जिक्र भी सराबा जी कृपाल से कर दिया क्योंकि सराबा को इस गदार का ज्ञान नहीं था।

देश मे पुलिस व फ़ौज चौकन्ने हो गए गिरफ्तारियां हो गई।
उधर बर्लिन में भी किसी गदार ने बर्लिन से आने वाले हथियारों के बारे में अंग्रेजों को बता दिया।

सारे जहाज रास्ते में ही पकड़ लिए गए।
जतिन बाघा भी मुठभेड़ में शहीद हो गए।

रासबिहारी की पीछे जासूस लग गए ।आप छिपते हुए  जून 1915 में  राजा पी एन टैगोर के नाम से  जासूसों को धोखा देकर जापान पहुंचे ।

जापान से संघाई गए और चीन के एजेंटों के माध्यम से जर्मनी के लोगों से सम्पर्क किया।

अब आप टोक्यो पहुंचे वहाँ आपकी मुलाकात लाला लाजपत राय से हुई ।
आपने 15 नवंबर 1915 को टोक्यो में एक विशाल सभा का आयोजन कर भारत की आजादी पर भाषण दिया तब अंग्रेजों को पता चल गया कि

पी एन टैगोर आप ही है

आप जापान में अकेले ही रह गए थे । जापान सरकार ने ब्रिटेन के दबाव के कारण सफलता आदेश जारी कर दिए थे कि 2 दिसंबर 1915 तक यदि आप जापान  नहीं छोड़ते हैं, तो आपको ब्रिटिश सरकार को सौंप दिया जाएगा।

आपने जापान के राष्ट्रवादी  नेता मित्सुरी तोयाम से सम्पर्क किया।

ऐसे समय में आप को एक बड़े होटल के स्वामी एजो सौमा ने अपने होटल में छिपा दिया।

मित्सुरी तोयाम के प्रयत्नों पर  1916 में  जापान सरकार ने अपना आदेश वापस लिया गया।

मित्सुरी तोयाम के सुझाव पर होटल मालिक एजो सौमा ने अपनी पुत्री तोशिको का विवाह रासबिहारी बोस से किया ।

आपने जापान में 1923 में “न्यू एशिया” नामक पत्र प्रारंभ किया।

आपने जापानी भाषा में 14 पुस्तकें भी लिखी।
भारतीयों को संगठित किया तथा ‘रामायण’ का जापानी भाषा में अनुवाद किया।

आपने भारतीय क्रांतिकारियों के रहने की व्यवस्था अपने  होटल में की।

वहां आपने हर वर्ष जलियांवाला बाग दिवस मनाना शुरू किया।
आपने 1926 में पॉन एशियन लीग की स्थापना की।
जिसके अध्यक्ष  आप बने ।
इस संस्था का उद्देश्य भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को तेज करना था।

आपने दो बार कोरिया की यात्रा की ।
ब्रिटिश सरकार अब भी उनके पीछे लगी हुई थी

और वह जापान सरकार से उनके प्रत्यर्पण की माँग कर रही थी,

इसलिए वह लगभग एक साल तक अपनी पहचान और आवास बदलते रहे।
  आपको 1923 में  आपको जापान की नागरिकता मिली।    

 
सन1937 में आपने ‘इंडियन इंडिपेंडेंस लीग” की स्थापना की।

सन 1939 में जब दूसरा विश्व युद्ध शुरू हो गया व 8 दिसंबर 1941 को जब जापान ने पर्ल हार्वर पर आक्रमण करके मित्र राष्ट्रों के खिलाफ़ युद्ध की घोषणा की।

इस मौके का फायदा उठाने हेतु
आपने टोक्यो में भारतीयों का एक सम्मेलन बुलाया और उन्हें समझाया कि अब देश को आजाद कराने का अच्छा मौका है ।
इस घोषणा के  28 मार्च 1942  को “इंडियन इंडिपेंडेंस लीग ” की स्थापना की जिसने  भारत को एक स्वतंत्रत राष्ट्र घोषित कर दिया।

जापान के मंत्रिमंडल ने लीग की वैधता को स्वीकार करते हुए सरकार को मान्यता प्रदान कर दी।
आपको उत्तराधिकारी की आवश्यकता थी ।

आपने वीर सावरकर के द्वारा सुभाष चंद्र बोस को अपना संदेश भेजा।

22 जून 1942 को  बैंकाक में लीग का दूसरा सम्मेलन बुलाया, जिसमें सुभाष चंद्र बोस को लीग में शामिल होने और उसका अध्यक्ष बनने के लिए आमन्त्रित करने का प्रस्ताव पारित किया गया।

आपने जापान द्वारा दक्षिणी पूर्वी एशिया मलय व बर्मा में बंदी बनाए गए भारतीय सैनिकों को मुक्त करवा करआजाद हिंद सेना का गठन किया।

आपने 4 जुलाई 1946 को आजाद हिंद सेना  की कमान व सुभाष चंद्र बोस को सम्भला दी।

दिनाँक  21 अक्टूबर 1946 को आजाद हिंद सरकार की विधिवत स्थापना हुई  जिसे 9 देशों ने मान्यता दी।

आप इस सरकार के सर्वोच्च सलाहकार थे ।
जापान ने आपके प्रयत्नों से ही अंडमान व निकोबार द्वीप आज़ाद हिंद सरकार को सौंपे थे।

जापान में आपका स्वर्गवास दिनाँक 22 जनवरी 1945 को हुआ।

जापान सरकार ने आपके अंतिम संस्कार हेतु शाही सवारी का प्रबंध किया ।
आपको जापान के सर्वोच्च सम्मान सेकंड क्रोस ऑर्डर  _ राइजिंग सन के ख़िताब से सुशोभित किया गय

:-रोशन लाल मेहरा-:

आपका जन्म सन 1913 में अमृतसर ,पंजाब में हुआ था। आपके पिता श्री धनीराम मेहरा कपड़े के व्यापारी थे ।आपका मकान गली नैनसुख में था।
आप 1930 में ही उत्तर प्रदेश के प्रसिद्ध क्रांतिकारी शंभूनाथ आजाद के संपर्क में आए ।
उस समयआपकी आयु मात्र 17 वर्ष थी
अमृतसर में क्रांतिकारी दल बना हुआ था ।

जिसमें शंभूनाथ आजाद के अलावा अन्य सदस्य भी थे ।आपने उसी समय बम्ब बनाना सीख लिया था ।
असहयोग आंदोलन के समय आपने अपने एक साथी के साथ पुलिस थाने पर बम्ब डाला था।

विस्फोट  से  थाने का भवन काफी क्षतिग्रस्त हुआ । आप वहां से निकल लिए।

आपने अमृतसर के क्रांतिकारी दल के समक्ष यह प्रस्ताव रखा कि मद्रास को कार्यक्षेत्र बनाया जाए।

मद्रास के गवर्नर  का वध किया जावे।
आपकी बात से सभी सहमत हो गए और मद्रास में क्रांति  करने का कार्यक्रम बना।
धन की आवश्यकता थी।
साथियों ने डकैती डालने का प्रस्ताव रखा पर आप सहमत नहीं हुई।
आप का सोचना था पिताजी के पास काफी धन है इसलिए घर पर ही  हाथ साफ़ किया जावे।

एक बार असफल कोशिश के बाद दूसरी बार घरवाले बाहर गए हुए थे 
आपने घर से 5800 रुपए चुराए व साथियों सहित मद्रास का रुख किया।
रामपुरम में एक किराए का मकान लिया गया ।
क्रांतिकारी साथियों ने बैंक लूटने का कार्यक्रम बनाया पर आप  सहमत नहीं थे । इसलिए साथ नहीं गए।
डाला सफलता पूवर्क डाला गया।
कुछ समय बाद शम्भूनाथ के अलावा सभी गिरफ्तार कर लिए गए।
1मई 1933 को मद्रास में बम्ब बनाने के बाद समुद्र किनारे बम्ब परिक्षण करने  गए।
  आप  फिसलकर गिर गए और हाथ मे बम विस्फोट हो गया।

शक्तिशाली बम था ।
जो आपकी शहादत का कारण बना

शत शत नमन

:- बैकुठ शुक्ला -:


बैंकुठ शुक्ला आपका जन्म 1907 को गांव जलालपुर जिला मुजफ्फरपुर वर्तमान वैशाली, बिहार में हुआ था।


आपने सांडर्स वध के मामले बने   सरकारी गवाह फणीन्द्र नाथ घोष गद्दारी की सजा दी थी।

  फणीन्द्र नाथ घोष हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन का वरिष्ठ सदस्य था।

उसे दल के बारे में सारी जानकारी थी।
सांडर्स वध  एक्शन में फणीन्द्र नाथ घोष की गवाही भगतसिंह, राजगुरू व सुखदेव को फांसी का मुख्य कारण थी।
फणीन्द्र की गवाही से क्रांतिकारी योगेंद्र शुक्ल को भी जेल में जाना पड़ा था।

जलगांव मामले में भगवानदास मोहर व सदाशिव मलकापुर जेल में थे ।
चंद्रशेखर आजाद उन्हें निर्देश दिए थे कि जेल या अदालत में मौका मिलते ही फणीन्द्र व जयगोपाल को मार दिया जाय और यह भी कहा  कि दोनों  किसी एक को मारना पड़े तो फनींद्र को मार दो।


परन्तु उस समय फणीन्द्र बच गया।  
फणींद्र को बिहार पर कलंक मन जाने लगा था ।

अब इस एक्शन का दायित्व

  बैकुठ शुक्ला  सौंपा गया।
दिनांक 9 नवंबर 1932 फणीन्द्रनाथ घोष  अपने साथी गणेश प्रसाद गुप्त के साथ मीना बाजार  बेतिया में अपनी दुकान पर  बैठा था ।

बैकुठ शुक्ला ने खुफ़री से फणीन्द्र के सिर व शरीर पर वार किये। 

गणेश प्रसाद गुप्त ने  छुड़ाने की कोशिश की तो उस पर भी वार किया।
  एक दुकानदार के भी लगी।


इस आक्रमण में घायल  फणीन्द्र व गणेश गुप्त को हॉस्पिटल ले जाया गया
बैकुठ ने जोरदार वार किए थे जो गदारों के लिए मौत ही थे ।


फणीन्द्र दिनांक 17 नवंबर 1932 को व गणेश प्रसाद गुप्त 20 नवंबर 1932 को मर गए।

इस मामले में बैकुंठ शुक्ल को फांसी की सजा हुई और दिनांक 14 मई 1934 को गया सेंट्रल जेल  फांसी दी गई।

उस समय क्रांतिकारी विभूति भूषण दास गुप्त व अन्य क्रांतिकारी भी गया केंद्रीय जेल में ही थे थे ।
उन्होंने अपनी बांग्ला पुस्तक “सेइ महावर्षार  गंगाजल हिंदी अनुवाद सरफरोशी की तमन्ना में लिखा है –
 

वो अपने साथियों के साथ गया केंद्रीय जेल के वार्ड नंबर 15 में थे।  जब किसी क्रांतिकारी को फांसी दी जानी होती थी तो उसे पहले दिन वार्ड नंबर 15 में रखा जाता था ।
और उस दिन वार्ड नंबर 15 के अ कैदियों को अन्य वार्डों में भेज दिया जाता था।

फांसी से पहले दिन बैकुठ को शुक्ला को वार्ड नंबर 15 में लाया गया और उन लोगों को वार्ड नंबर 15 से अन्य वार्ड में भेजा दिया गया।
इस बात का पता उन्हें पता चल चुका था कि बैकुठ शुक्ला को वार्ड नम्बर 15 में लाया गया है और उन्हें कल फांसी दी जानी है।

रात को सभी वार्डो में क्रांतिकारी देशभक्ति गीत गा रहे थे।

बैकुंठ शुक्ल ने वार्ड नम्बर 15 से पुकार कर कहा-
दा अब समय कम रह गया है,
वंदे मातरम सुनादो
वंदेमातरम गाया गया


फांसी के लिए जाने से पुर्व बैंकुठ ने गुप्त जी कहा
‘दादा, अब तो चलना है।
मैं एक बात कहना चाहता हूं। आप जेल से बाहर जाने के बाद बिहार में बाल विवाह की जो प्रथा आज भी प्रचलित है, उसे बंद करने का प्रयत्न अवश्य कीजिएगा।

पंद्रह नंबर से बाहर निकलने के पहले बैकुंठ शुक्ल क्षण भर के लिए रुके और दासगुप्त की सेल की ओर देखकर बोले-‘अब चलता हूं ।
मैं फिर आऊंगा।
देश तो आजाद नहीं हुआ। वंदेमातरम्…।

शत शत नमन

:-  बीना दास -:

     

  6th  Feb.1932
Convocation  Hall
Calcutta University 

Bengal Governor
Stanley Jackson

स्नातकों को उपाधियां दे रहे है-

बीना दास  अपनी बी .ए. ऑनर्स की डिग्री लेने  बंगाल गवर्नर स्टैनली जैक्शन के सामने पहुंची।
डिग्री लेने से पहले जैक्शन पर अपने पिस्तौल से गोली मारी निशाना चूक गया ।
गोली विश्वविद्यालय के एक अधिकारी  दिनेश चंद्रसेन  को घायल कर गई।
समारोह में उपस्थित कर्नल
सुहराबर्दी ने बीनादास को दबोच लिया।
बंद कमरे में मुकदमे की सुनवाई हुई। बीनादास अदालत को अपना बयान लिखित में दिया।


बयान का प्रकाशन प्रतिबंधित कर दिया गया । डर था बयान पढ़ कर विप्लव होने का।

बीनादास के बयान का अंश । श्रीकृष्ण सरल की पुस्तक ‘क्रांतिकारी कोष‘ से —

उम्र कैद की सजा हुई ।

10 वर्ष जेल में रही । सरकार द्वारा 1939 में आम रिहाई की गई तो जेल से रिहा हुई।
 
  भारत छोड़ो आंदोलन में भाग लेने के कारण तीन वर्ष की सजा हुई।
   प्रारंभिक दिनों में कलकत्ता के  क्रांतिकारी संगठन के सहायक संगठन “छात्री संघ ‘ से जुड़ी हुई थी।

यह एक्शन भी क्रांतिकारी दल युगांतर के Operation Freedom के क्रम में था।

इस ऑपरेशन में क्रांतिकारीयों द्वारा निर्मम व बड़े फिरंगी अधिकारियों का वध किया जाता था ताकि फ़िरंगियों में खौफ उत्पन्न हो

जेल से रिहा होने के बाद 1946-47  में  बंगाल प्रांत विधानसभा की सदस्य बनी।
1947 -51 में पश्चिम बंगाल प्रांत विधानसभा की सदस्य बनी, ।

जतीश भौमिक , जो युगांतर दल के सदस्य थे ,से शादी कर ली । दोनों ऋषिकेश में एकांतवास को गए।

शत शत नमन वीरांगना को

बाल क्रांतिकारी शान्तिघोष व सुनीति चौधरी

 

दिनाँक 14 दिसंबर 1931
डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट कॉम्मिला (त्रिपुरा),
चार्ल्स जेफरी बकलैंड स्टीवन,
के बंगले पर दो 14 -15 वर्षीय  बच्चियों ने जिला मजिस्ट्रेट  को क्रिसमस पूर्व उपहार कैंडी व चॉकलेट दिया।

मिस्ट्रेस स्टीवेंस चॉकलेट खाते हुए कहा –
These are delicious
बच्चीयों ने अपने पिस्तौल से  गोलियों चलाते हुए कहा-
‘Well how about this one mister magistrate’
—-
मिस्टर ,स्टीवेंस हमेशा के लिए दुनिया छोड़कर चले गए।

ये थी फैजुनिशां बालिका विद्यालय , कॉम्मिला की 8वीं कक्षा छात्राएं 

  शांति घोष  व सुनीति चौधरी
दोनों ने जिला मजिस्ट्रेट को मिलने हेतु  भेजी  चिट पर  अपने नाम लिखे थे  इलासेन व  मीरा देवी ।

एक पुस्तकों में यह भी लिखा गया है कि दोनों बच्चियों ने तैराकी  क्लब बनाने की अनुमति हेतु आवेदन किया ।
एक पुस्तक में लिखा है  बच्चियों ने तैराकी की प्रतियोगिता में DM को बुलाने हेतु निमंत्रण दिया ।

जो भी हो दोनों बच्चियों ने डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट पर पिस्तौल से गोलियां चलाई व डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट मर गया।

इस एक्शन की के पीछे थी क्रांति –
ये बालिकायें बंगाल के  क्रांतिकारी दल युगान्तर की सदस्य थी ।
जिन्हें हथियार चलाने का प्रशिक्षण भी दिया गया था। एक्शन के लिए विशेष रूप से तैयार किया गया था।
भारतीय क्रांतिकारियों के प्रति अत्याचारपूर्ण व्यवहार  रखने वाले पुलिस व सिविल अधिकारियों का वध करना युगान्तर के एजेंडे में था।
इस एक्शन को “ऑपरेशन फ्रीडम” का नाम दिया गया था।
इसका उद्देश्य अत्याचारी अधिकारियों को दण्ड देना व फ़िरंगियों के मन मे खौफ पैदा करना था।

इसी ऑपरेशन फ्रीडम में
डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट कॉम्मिला ,चार्ल्सजेफरी बकलैंड स्टीवन,टारगेट पर थे।

इस ऑपरेशन को बालिका क्रांतिकारियों ने अंजाम दिया

सुनीता चौधरी का जन्म 22 मई 1917 को गांव की टीमपेरा उपखंड कोमिला ,त्रिपुरा में हुआ था ।
वह आठवीं कक्षा की छात्रा थी और इसकी आयु 14 वर्ष थी

शांति घोष का  जन्म 22 नवंबर 1916 को कलकत्ता में हुआ था। वह छतरी संघ की संस्थापक सदस्य थी।
वह कालांतर में युगांतर से जुड़ गई।

दोनों बालिकाओं को जिला मजिस्ट्रेट का  वध करते ही  मौका  गिरफ्तार कर लिया गया था।
दोनों पर हत्या आदि के लिए मुकदमा  चलाया गया।जिसका निर्णय

27 फ़रवरी 1932 को हुआ।
दोनों की आयु 14 वर्ष से कम थी। इसलिए फाँसी की बजाय उम्र कैद की सजा दी गई।
विश्व युद्ध के बाद  सरकार की गई सामूहिक माफी का  लाभ दोनों बालिकाओं को भी मिला और 1939 में दोनों जेल से रिहा  हुई।

शांति घोष ने जेल से निकलने के बाद पहले कम्युनिस्ट पार्टी के क्रियाकलापों में भाग लिया।
सन 1942 में शांति ने कांग्रेस की सदस्यता ली।
1942 में ही शांति घोष का प्रोफेसर चितरंजन दास  विवाह हुआ ।
शान्ति 1952 से 1962 तक बंगाल विधान परिषद की सदस्य तथा 1967 में भी पश्चिम बंगाल में की विधायक रही है।

शांति ने अपनी आत्मकथा अरुण वाहिनी (अरुण बहनी )लिखी।
शांति घोष का देहांत 28 मार्च 1989 को हुआ।

सुनीति चौधरी पहले दीपाली संघ की सदस्य थी । फिर  युगान्तर की  इब्राहिमपुर शाखा  सदस्य बन गई।

सन 1939 में जेल से रिहा होने के बाद समिति ने मेडिकल शिक्षा ली व सन 1947 में डॉक्टर MBBS बनी ।
मजदूर नेता प्रद्योत कुमार से विवाह किया।
सुनीति का दिनाँक 12 जनवरी 1986 को स्वर्गवास हुआ

शत शत नमन

-वीरेंद्रनाथ चट्टोपाध्याय-

     

आपको वीरेंद्र नाथ चटर्जी व ‘चट्टो’ के नाम से भी जाना जाता है।
आपका जन्म सन 1880 में ढाका के एक संपन्न परिवार में हुआ

आपके पिता श्री अधोरनाथ उस्मानिया कॉलेज हैदराबाद में प्राध्यापक थे ।
आपके पिता जी ने आपको आई सी एस परीक्षा उतीर्ण करने हेतु लंदन भेजा था ।
परंतु आप आईसीएस परीक्षा में सफल नहीं हुए ।
इसलिए आपने कानून की पढ़ाई हेतु ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में प्रवेश ले लिया ।
  उन दिनों आपका संपर्क क्रांतिकारी वीर सावरकर व श्यामजी कृष्ण वर्मा से हो गया।

ये लोग इंडिया हाउस उसका संचालन करते थे जो भारतीय क्रांतिकारियों का ठिकाना था।
क्रांतिकारी गतिविधियों में शामिल होने के कारण आपको कॉलेज से निकाल दिया गया ।
अब आप पूर्णरुप से खुलकर भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में उतर गए।
आप आप कई भाषाएं कई जानते थे । वह हथियार चलाना अभी अच्छे से जानते थे ।

सन 1906  कमाल पाशा लंदन आए तो आपने उनसे भी संपर्क किया ।

सन 1907 में आप जर्मनी में समाजवादी सम्मेलन में शामिल हुए।
वहाँ आपकी मुलाकात मैडम भीकाजी कामा और पोलैंड के क्रांतिकारियों से हुआ।
आप पोलैंड के गए वहाँ से वारसा गए व आयरलैंड गए।

भीकाजी कामा के पेरिस से निकलने वाले समाचार पत्र ‘वंदे मातरम ” व बर्लिन से निकलने वाले पत्र “तलवार” ब में कई लेख लिखे ।
प्रथम विश्वयुद्ध के समय बर्लिन गए।  वहां पर लाला हरदयाल व पिल्ले पहले से ही ।

आपने बर्लिन में 1914 में श्री चंद्र सेन , सतीश चंद्र ,डॉ अविनाश भट्टाचार्य, धीरेंद्र नाथ, दादा साला जी के साथ मिलकर ” भारतीय स्वतंत्रता समिति ” गठित की ।

जिसमें  भूपेंद्रनाथ दत्त  भी  शामिल हुए थे ।

आप कॉन्फ्रेंस ऑफ जर्मन फ्रेंड्स ऑफ इंडिया में शामिल हुए।इस दल के द्वारा आको केदारनाथ गुहा के साथ भारतीय क्रांतिकारियों से संपर्क करें हेतु भारत भेजा गया।

कहा जाता है कि आपने लेनिन से भेंट की । परन्तु आपकी लेनिन से सहमति नहीं हुई ।
आपका विचार था कि भारतीय परिस्थितिया अभी सर्वहारा क्रांति के अनुकूल नहीं है ।
आप भारत की आजादी के लिए राष्ट्रीय आंदोलन के समर्थन में थे।

यह भी कहा जाता है कि ट्राटस्की से घनिष्ठता के कारण लेनिन आपके  कहा जाता है कि लेनिन ने  बंद कर दिया था।

बर्लिन में राजा महेंद्र प्रताप की मुलाकात जर्मन केसर से आपने ही करवाई थी ।
आपके भारतीय क्रांतिकारियों से संबंध थे। युगांतर दल के मुखिया जतिन्द्र नाथ मुखर्जी @ जतिन बाघा  से आपके सीधे संबंध थे।

आपने  बर्लिन में भारतीय क्रांतिकारियों की बर्लिन राजदूत से   करवाई और आपने जर्मनी से भारत को  जहाजों से हथियार भी भिजवाने में सहायता की।

परंतु सारी सूचनाएं किसी ने अंग्रेजों तक पहुंचा दी जिसके कारण  जहाज रास्ते में पकड़े गए।

एक महत्वपूर्ण तथ्य यह भी पढ़ने को मिला की 1920 में आपके रूसी नेताओं से  भी संपर्क थे।
उस समय एमएन राय @ नरेंद्र भट्टाचार्य ताशकंद में थे और वह ताशकंद से काबुल जाना चाहते थे।
आपने एमएन को यह सूचना दी कि काबुल में एमएन की हत्या की योजना है।
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में इंडो- जर्मन -प्लॉट की खबर अंग्रेजो तक पहुंचने का विषय गंभीर है ।

यह रहस्य की गुच्छी बना हुआ है, कि आखिर कर यह गद्दारी किसने की !?

2 सितंबर 1937 को मास्को में ही आप का स्वर्गवास हुआ है

शत शत नमन

– पांडुरंग सदाशिव खानखोज –

डॉ पांडुरंग सदाशिव खानखोज काजन्म दिनाँक 17 नवंबर 1883 में वर्धा नागपुर महाराष्ट्र में हुआ।

खानखोज माध्यमिक शिक्षा के नागपुर के नील सिटी हाई स्कूल में हुई।
उन दिनों खोजे बंगाली क्रांतिकारियों सखाराम देउस्कर, ब्रह्मबांधव बंदोपाध्याय के संपर्क में आये।

आप 1906 में लोकमान्य तिलक के कहने पर भारत छोड़ कर संयुक्त राज्य अमेरिका में चले गए।

आप केलिफोर्निया व पोर्टलैंड में कृषि का अध्ययन करते हुए, क्रांतिकारियों गतिविधियों में शामिल रहे।

आप हिंदुस्तान एसोसिएशन का गठन में लाला हरदयाल, पंडित काशीराम, विष्णु गणेश पिंगले, वीरेंद्रनाथ चट्टोपाध्याय, भूपेंद्रनाथ दत्त के साथ थे।

इस दल ही गदरपार्टी का रूप दिया गया । काशीराम इसमें संगठन अध्यक्ष थे ।
आप गदर पार्टी का “प्रहार ” विभाग संभालते थे। जिसके जिम्मे हथियार व बम्ब आदि उपलब्ध करवाना था।

गदरपार्टी की तरफ से आपको प्रथम विश्व युद्ध के समय भारत भेजा।

आप आते समय कुस्तुन्तुनिया में तुर्की के शाह अनवर पाशा से मिले व उनके सहयोग से अंग्रेजों को भारत से खदेड़ने के लिए युद्ध की योजना बनाई।

आप बलूचिस्तान गए वहाँ आपने जर्मन फौज के अधिकारी विल्हेल्म वासमस से मिलकर वाम में बलूचियों का संगठन तैयार कर

अस्थायी सरकार की घोषणा करदी
व सेना भी बनाली।
पर अंग्रेजों ने अमीर को अपने साथ मिला लिया।

आपको वहां से भागना पड़ा। आप बस्त गए वहाँ पकड़ लिये गए।

वहाँ से छूटकर नेपरिन गए। वहां अंग्रेजों ने अधिकार जमा लिया।

अब आपने नेपरिन से शिरॉन गए वहां गए तो पता चला सूफी अम्बाप्रसाद की हत्या कर दी गई।

हिम्मत हारना आपके शब्दकोश में था ही नहीं।
अब आये ईरान व वहाँ की फौज में भर्ती हो गए।
दुर्भाग्य रहा ईरान ने आत्म समर्पण
कर दिया।

आप 10 जून 1919 में भारत आये पर यहाँ भी आजादी के लिए माहौल ठीक नहीं पाया।

आप बर्लिन गए वहां भूपेन्द्र नाथ दत्त व बीरेंद्र चट्टोपाध्याय के साथ रूस गए।
आप 1924 तक रूस में रहे।

आप 1949 में कृषि सलाहकार के रूप में भारत आये। लेकिन पांच महीने बाद लौट गए।
फिर फरवरी 1950 से अगस्त 1951 तक डेढ़ साल के लिए भारत में निवास किया।

फिर विदेश गए।
अन्ततः आप 1955 में स्थायी निवास के लिए नागपुर आए।

18 जनवरी, 1967 में, उन्हें भारतीय नागरिकता प्रदान की गई।
आपका दिनाँक 22 जनवरी 1967 को स्वर्गवास हुआ।

देश की आजादी के लिए आप अपनी उम्रभर चीन, जापान, अमेरिका, कनाडा, ग्रीस, तुर्की, ईरान, बलूचिस्तान सीमा, फ्रांस, जर्मनी, रूस, मैक्सिको में अपनी गतिविधियों को जारी रखा।
शत शत नमन

:-चारु चंद्र बोस-:

     
चारु चंद्र बोस बंगाल के क्रांतिकारी थे  जो शारिरिक रूप से बहुत कमजोर  दिखाई देते थे।
उनके दाहिने हाथ कीअंगुलिया नहीं थी।

आपने दाहिने हाथ के पिस्तौल बांधकर बांये की अंगुली से घोड़ा दबाकर पिस्तौल चलाने का अभ्यास किया।

सशस्त्र क्रांति के क्रम में बंगाल अनुशीलन समिति के क्रांतिकारी पप्रफुल्ल चाकी व खुदीराम बोस द्वारा मुजफ्फरपुर में कसाई काजी किंग्फोर्ड की गाड़ी पर बम फेंका था।

इसके बाद पुलिस ने छापे मारे और बारीन्द्र दल के  38 क्रांतिकारियों को गिरफ्तार कर उन पर मुकदमा चलाया गया ।

जिसे इतिहास में अलीपुर षड्यंत्र कहा जाता है ।
हम उसे अलीपुर एक्शन कहेंगे।
  
अलीपुर मामले में की अदालत सुनवाई में  सरकार की तरफ से आशुतोष विश्वास पैरवी करते थे।

आशुतोष ने क्रांतिकारियों को सजा दिलाने के उद्देश्य से झूठे गवाह बनाकर पेश किए।

जिसके कारण वह क्रांतिकारियों के टारगेट पर था

दिनाँक  10 फरवरी 1909 को  आशुतोष  विश्वास अलीपुर अदालत से निकलने वाले थे।

क्रांतिवीर चारु चंद्र ने आशुतोष को गोली से गोलियों से उड़ा दिया ।
चारु मौका पर ही गिरफ्तार कर लिए गए थे।

चारुपर मुकदमा चला फाँसी की सजा सुनाई गई 
चारु को दिनांक 19 मार्च 1999 को केंद्रीय कारागार अलीपुर में फांसी दे दी गई।

शत शत नमन

:- रेसकोर्स एक्शन -:

      

भारतीय क्रांतिकारियों के प्रति अत्याचारपूर्ण व्यवहार  रखने वाले पुलिस व सिविल अधिकारियों का वध करना भारतीय क्रांतिकारियों के एजेंडे में था।
इस एक्शन को “ऑपरेशन फ्रीडम” का नाम दिया गया ।
सर जॉन एंडरसन गवर्नर बंगाल अपने  निर्ममतापूर्वक दमन कार्यों के लिए तो कुख्यात थे।
बगाल ऑर्डिनेंस के बाद एंडरसन ने क्रांतिकारियों  पर अत्याचार किए। इसलिए क्रांतिकारियों के टारगेट पर थे।
लेवांग रेसकोर्स दार्जलिंग में दिनांक 8 मई 1934 को एंडरसन लेवल  घुड़दौड़ में भाग लेने गए हुए थे।

  घुड़दौड़ खत्म  होते ही भवानी भट्टाचार्य व रविंद्र नाथ बनर्जी ने  योजनाबद्ध तरीके से एंडरसन के गोली मारी निशाना चूक गया।
गोली अंगरक्षक के लगी ।
मौके पर भवानी व  रविंद्र दोनों को ही पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया।
   भवानी भट्टाचार्य व रविंद्र नाथ बनर्जी को फांसी की  हुई अन्य सहयोगी क्रांतिकारी को 14 वर्ष कारावास से दंडित किया ।
भवानी भट्टाचार्य को  3 फरवरी 1935 को राजशाही जेल में फांसी दे दी ।

शत शत नमन शहीदों को

वांची अय्यर

वंचिनाथन @ वांची अय्यर शेंनकोट्टी जिला तिरुनेलवेली, तमिलनाडु के निवासी थे । 

वांची का जन्म सन 1880 में हुआ था। वांची ने तिरुनल महाराजा कॉलेज से MAपास की ।

वांची बंगाल के क्रांतिकारी गुप्त संगठन अनुशीलन समिति व जुगान्तर से प्रभावित थे। वांची सनातन धर्म के अनुयायी थे । वांची का यह मानना था यूरोपियन लोग सनातन धर्म पर आक्रमणकारी है ।

वांची भारत माता एसोसिएशन के सदस्य थे। इस संगठन का गठन नीलकंठ ब्रह्मचारी द्वारा किया गया था। जिनका उद्देश्य यूरोपियन लोगों के द्वारा सनातन धर्म के विरुद्ध किए जा रहे आक्रमण का विरोध करना था।

इनके दल के सदस्य काली के समक्ष शपथ फिरंगी शासन को समाप्त करने व सनातन धर्म की रक्षा की लिए शपथ लेते थे।

वांची त्रावणकोर फॉरेस्ट विभाग में नोकरी करते थे ।

तिरुनवेली के कलेक्टर कलेक्टर रॉबर्ट विलियम एस्कॉर्ट ऐश ने बाबा सावरकर को आजीवन कारावास की सजा दी थी। जिसके कारण वीर सावरकर ने लंदन में रहते हुए फिरंगी अधिकारियों के वध करने की योजना बनाई थी ।

संभवतः सावरकर के नजदीकी मित्र व सहयोगी VVS एयर ने वांची व शंकरकृष्ण अय्यर से मिलकर ऐश की हत्या की योजना तैयार कर

वांची ने तीन माह का अवकाश लेकर पॉन्डिचेरी में VVS से रिवाल्वर चलाने का प्रशिक्षण लिया।

वांची ने अकेले ही 17 जून 1911 को तिरुनेलवेली के कलेक्टर रॉबर्ट विलियम एस्कॉर्ट ऐश का मनियांची रेलवे स्टेशन पर उसके बिल्कुल पास जाकर गोली मार कर वध कर दिया ।

वांची नहीं चाहते थे कि उनकी गिरफ्तारी के बाद उन्हें शारीरिक प्रताड़ना दी जावे और क्रांतिकारी दल के बारे में पूछताछ की जाए ।

इसलिए वांची ने अपना मिशन खत्म करने के बाद मौका पर ही अपने आप को गोली मारकर आत्मा बलिदान किया।

वांची का वास्तविक नाम शंकरन था।

शत शत नमन शहीदों को

सिंह पुरूष, क्रांतिवीर प्रतापसिंह बारहठ

    

भारतीय सशस्त्र क्रांति की ज्योति राजस्थान में भी प्रचलित हुई थी।

प्रताप सिंह जी के पिता श्री केसरी सिंह जी बारहठ  , खरवा के राव गोपाल सिंह ,जयपुर के अर्जुन लाल सेठी, ब्यावर के सेठ दामोदर दास राठी  ने एक क्रांतिकारी दल “अभिनव भारत समिति”  का गठन किया था ।

इन लोगों ने रासबिहारी बोस से संपर्क किया।

केसरी सिंह जी ने अपने पुत्र प्रताप सिंह को देश की आज़ादी की लड़ाई हेतु रासबिहारी बॉस को समर्पित कर दिया।

प्रताप सिंह जी रासबिहारी बोस के सानिध्य में  रहे उनके विश्वसनीय बन गए ।
रासबिहारी बॉस प्रताप सिंह जी पर गर्व महसूस करते थे।

उन्होंने एक पत्र में प्रताप सिंह जी के बारे में लिखा कि इसकी आंखों में आग निकलती है, यह सिंह है।

रासबिहारी बोस ने प्रताप सिंह जी को हैदराबाद , पंजाब ,दिल्ली में जहां कहीं भी क्रांतिकारी एक्शन में आवश्यकता हुई, इन्हें वहां भेजा।

दिल्ली में लार्ड हार्डिंग का वध करने हेतु समस्त एक्शन का दायित्व रासबिहारी बोस ने जोरावर सिंह जी व  प्रताप सिंह जी को सौंपा था।

इस योजना को अंजाम दिया गया व दिनांक 23 दिसंबर 1912 को जब लॉर्ड हार्डिंग हाथी पर सवार होकर अपने  जुलूस  के चांदनी चौक दिल्ली से गुजर रहा था ।

उसी समय हॉर्डिंग की सवारी पर बम फेंका गया। विस्फोट भी हुआ पर  दुर्भाग्य से हॉर्डिंग बच गया परंतु उसका अंगरक्षक मारा गया

प्रताप सिंह जी ने ही हॉर्डिंग के जुलूस के रूट का पता कर चांदनी चौक के पास स्तिथ पंजाब नेशनल बैंक की छत पर से बम्ब फेंकने का कार्यक्रम बनाया था।

प्रताप सिंह जी ने बैंक भवन की छत की मंडेर की ऊंचाई के हिसाब से बम्ब फेकने का अभ्यास किया ताकि बम्ब फेंकते समय दीवार से ऊपर हाथ न उठे।

कार्यक्रम के अनुसार प्रताप सिंह जी ने बुर्का पहन कर हॉर्डिंग पर बम्ब फेंका ।

एक्शन के बाद प्रताप सिंह जी  उनके बहनोई ईश्वरसिंह जी आशिया ने रात्रि में जमुना तैरकर पार की थी।
उस समय पीछा कर रहे पुलिस वालों पर गोली भी चलानी पड़ी।

दिल्ली एक्शन में बसंत कुमार विश्वास को फांसी की सजा हुई थी।

भारतीय सशस्त्र स्वतंत्रता संग्राम की गतिविधियां गुप्त रूप से हुई।

हमे अभी इसका पूर्ण ज्ञान नहीं है।
यह भी सम्भव है कि इस एक्शन में प्रतापसिंह जी के साथ बसंत भी रहे हो।

  प्रताप सिंह जी के विरुद्ध कोई सबूत नहीं मिला था।इसलिए उन्हें दिल्ली केस से छोड़ दिया गया था।

प्रताप सिंह जी अपने एक परिचित, आशानाडा के  रेलवे स्टेशन मास्टर के पास रुके हुए थे। उसने गद्दारी की व ईनाम के लालच में प्रताप सिंह जी को गिरफ्तार करवा दिया।

इसके बाद प्रताप सिंह जी  पर बनारस मामले का मुकदमा चलाया जाकर उन्हें 5 वर्ष कारावास की सजा दी गई ।

उन्हें केंद्रीय कारागार बरेली में रखा गया था । प्रताप सिंह जी को जेल में घोर यातनाएं दी गयी पर  उन्होंने मुंह नहीं खोला ।

जेल में वायसराय के सचिव चार्ल्स क्लीवलैंड ने प्रताप सिंह जी को उनके परिवार के सभी सदस्यों के वारंट निकले जाने और उनकी माता के दुखी होकर रोने की दुहाई देकर दिल्ली केस के बारे में समझ तथ्य बताने हेतु कहा गया।
परंतु प्रताप सिंह जी  वीरता का परिचय दिया कहा कि-
” मैं अपनी मां को चुप करवाने के लिए हजारों माओं को नहीं रुला सकता”
यही नहीं जेल से प्रताप सिंह जी को उनके पिताजी से मिलाया गया।
वीरवर पिताजी ने प्रताप सिंह जी को चेतावनी देते हुए कहा कि अगर देशद्रोही की सोची तो मेरी गोली से नहीं बच पाएगा।
प्रताप सिंह जी ने अपने पिताश्री को इस मुलाकात में कहा दाता मैं आपका पुत्र हूं ।  स्वप्न में भी देशद्रोही  की नहीं सोच सकता।
प्रताप सिंह जी महान क्रांतिकारी शचींद्र सान्याल के साथ रहे थे।

शचीन्द्र दा ने अपनी आत्मकथा “बंदी जीवन ” में प्रताप सिंह जी बहादुरी की प्रशंसा की है।

जेल में ही प्रतापसिंह जी ने दिनाँक 24 मई 1918 को अपने प्राणों की आहूति दी।
कुछ पुस्तकों में तिथि 27 मई 1918 भी बताई गई है।

शत शत नमन वीर बारहट परिवार को जिनके दो भाई ,एक पुत्र व दामाद ने आज़ादी की लड़ाई में सदैव स्मरणीय योगदान किया।

:- शचींद्रनाथ सान्याल -:


भारतीय सशस्त्र स्वतंत्रता संग्राम में शचींद्र नाथ सान्याल की विशेष भूमिका रही है ।
सान्याल ने देशभर के क्रांतिकारियों को संगठित किया।

सान्याल को रासबिहारी बोस का लेफ्टिनेंट माना जाता था।
आपका जन्म 1893 में वाराणसी में  हुआ। आपने बनारस में अपने अध्ययनकाल में  ही  काशी में प्रथम क्रांतिकारी दल का गठन 1908 में किया।

क्रांतिकारी रमेशआचार्य के प्रयत्नों से सन 1909 में कलकत्ता दल के योगेश चटर्जी व सान्याल के दल का एकीकरण कर
हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन “की स्थापना की ।

इस दल का इलाहाबाद ,बनारस, कानपुर ,फतेहगढ़ ,आगरा, मैनपुरी, एटा ,इटावा , शाहजहांपुर व मेरठ जिलों में प्रभाव था।

पंडित राम प्रसाद बिस्मिल भी इसी दल के सदस्य थे ।

दल को शस्त्रों की आवश्यकता होती थी और शस्त्रों के लिए धन की परन्तु क्रांतिकारीयों के धन अर्जित करने  का कोई साधन नहीं होता था।

इसलिए भारतीय क्रांतिकारियों ने आयरलैंड के क्रांतिकारियों की तरह आम गरीब जनता का खून चूसने वाले साहूकारों, बड़े जमीदारों को लूट कर क्रांति के लिए हथियार खरीदने हेतु धन अर्जित करना शुरू कर दिया।

इसी क्रम में इस दल ने युक्त प्रांत के बिचपुरी ,बसमेंली, द्वारकापुरी आदि में डाके डाले थे।

विख्यात काकोरी एक्शन भी इसी दल द्वारा लिया गया था।

प्रथम महायुद्ध के समय रासबिहारी बॉस के नेतृत्व में 21 फ़रवरी 1915 को समस्त देश की छावनीयों में भारतीय फौजियों के साथ मिलकर क्रांति करने का आह्वान किया गया था।

जो मुखबिर द्वारा पुलिस को सूचना दे देने के कारण सफल नहीं हो सका।
इसमें शचिंद्र सान्याल ने अहम भूमिका निभाई थी।

लाहौर एक्शन के पूरक मुकदमा के रूप में शचींद्र पर बनारस एक्शन के लिए मुकदमा बना जिसमें  दिनाँक 6 जून 1915 को गिरफ्तार किया गया।

इस मुकदमा में 14 फ़रवरी 1916 को उम्रकैद कालापानी की सजा दी गई व उनकी समस्त सम्पति जब्त करली गई।

सरकार द्वारा की गई आम माफ़ी से शचींद्र 1920 में रिहा हुए।

जेल से रिहा होने के बाद शचींद्र गांधीजी वह अन्य कांग्रेसी नेताओं से मुलाकात की परंतु कांग्रेसियों ने शचिंद्र को क्रांतिकारी के रूप में ज्यादा महत्व नहीं दिया ।

शचिंद्र ने कांग्रेसी नेताओं को एक ज्ञापन तैयार करके दिया था।
जिस पर कांग्रेस महासमिति के अनेक सदस्यों ने हस्ताक्षर किए।
इसमें कांग्रेस का ध्येय पूर्ण स्वतंत्रता लिए जाने  व
एशियाई राष्ट्रों के संघ के निर्माण के संबंध में सुझाव थे।

कालांतर में हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन का पुनर्गठन हुआ। जिसमें भगत सिंह और उनके साथी भी शामिल हुए ।

सान्याल के नेतृत्व में  दल का  संविधान तैयार किया, जिसमे दल का लक्ष्य  सुसंगठित और सशस्त्र क्रांति द्वारा भारतीय लोकतंत्र संघ की स्थापना करना बताया।
 
संविधान में स्पष्ट किया गया कि उन कुंठित  व्यवस्थाओं का अंत कर दिया जाएगा ,
जिनसे किसी एक मनुष्य द्वारा दूसरे का शोषण हो सकने का अवसर मिल सकता है।

शचींद्र बंगाल आर्डिनेंस के अधीन गिरफ्तार कर लिए गए।
शचींद्र ने 1925  “The Revolutionary” सम्पूर्ण देश मे एक साथ बंटवाया था ।

इस पर्चे के लेखक और प्रकाशक के रूप में बाँकुड़ा में शचींद्र पर मुकदमा चला और राजद्रोह के अपराध में उन्हें दो वर्ष के कारावास का दंड मिला।

कैद की हालत में ही वे काकोरी षडयत्रं केस में शामिल किए गए और संगठन के प्रमुख नेता के रूप में उन्हें पुन: अप्रैल, 1927 में आजन्म कारावास की सजा दी गई।

1937 में संयुक्त प्रदेश में कांग्रेस मंत्रिमंडल की स्थापना के बाद अन्य क्रांतिकारियों के साथ वे रिहा किए गए।

रिहा होने पर कुछ दिनों वे कांग्रेस के प्रतिनिधि थे, परंतु बाद में वे फारवर्ड ब्लाक में शामिल हुए।

इसी समय काशी में उन्होंने ‘अग्रगामी’ नाम से एक दैनिक पत्र निकाला। स्वयं इस पत्र के संपादक थे।
द्वितीय महायुद्ध शुरू होने के समय 1941 मे शचींद्र को जापान से संबंध रखने के आरोप में  पुन: नजरबंद कर राजस्थान के देवली शिविर में भेज दिया गया।

वहाँ तपेदिक रोग से ग्रस्त होने पर गोरखपुर जेल में भेजा गया ।
गोरखपुर जेल में ही शचींद्र दा का 7 फ़रवरी 1942 को देहांत हो गया
शचींद्र दा ने अपनी आत्मकथा “बंदी जीवन” में अपने क्रांतिकारी जीवन के संघर्ष व क्रांतिकारियों द्वारा अपने घर परिवार को छोड़ जो कष्ट झेले उनका अच्छे से उल्लेख किया है ।

बंदी जीवन  पढ़कर ऐसा महसूस होता है कि जो क्रांतिकारी देश की आजादी के लिए अपने प्राणों  को दांव पर लगाए हुए थे, को  उस समय भी राजनेताओं द्वारा सम्मान नहीं दिया गया।

नमन क्रांतिवीरों को

:- लाला हरदयाल -:


     


भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की अलख विदेशों में प्रज्वलित करने वालों में एक लाला हरदयाल भी थे।
आपका जन्म 14 अक्टूबर 1884 को दिल्ली में हुआ। आपने लाहौर में उच्च शिक्षा प्राप्त की।
M.A . में अच्छा स्थान प्राप्त करने के कारण पंजाब सरकार द्वारा आप को छात्रवृत्ति दी गई ।
आप अध्ययन हेतु लंदन गए वहां भाई परमानंद श्याम जी वर्मा से आपका संपर्क हुआ
आपने अंग्रेजी सरकार की छात्रवृत्ति से शिक्षा प्राप्त करना आस्वीकार कर दिया।
लंदन में श्यामजी कृष्ण वर्मा से मिलकर आपने ‘ पॉलिटिकल मिशनरी ‘ नाम की संस्था बनाई। जिसके माध्यम से भारतीय विद्यार्थियों को राष्ट्रवादी विचारधारा में लाने के प्रयास किये।
आप  2 वर्ष तक  लंदन में सेंट जॉन्स कॉलेज में  रहे ।
फिर वापस भारत आ गए
भारत में लाहौर में आपने  “पंजाब’ अंग्रेजी पत्रिका ,का संपादन किया।

जिसका प्रभाव पढ़ने लगा और आपके गिरफ्तार होने की आशंका हुई ,तो लाला लाजपत राय के आग्रह पर आप  पेरिस आ गए।

पेरिस में श्यामजी कृष्ण वर्मा व भीकाजी कामा से पहले से ही भारत की आजादी हेतु प्रयासरत थे व “वंदे मातरम “और ‘तलवार” नामक समाचार पत्र निकाल रहे थे । इनका भी संपादन आपने शुरू कर दिया ।
इसके बाद 1910 में आप
सानफ्रांसिस्को (अमेरिका )में गए वहां पर आपने “गद्दर “नामक अखबार निकाला ।
गदर जो देश विदेश में प्रचलित हुआ ।  इसके नाम पर ही “गदर- पार्टी ‘ का गठन हुआ ,।
गदर पार्टी का शाखाएं कनाडा, चीन ,जापान में खोली गई ।
आप गदर पार्टी के सचिव थे ।

प्रथम विश्व युद्ध के समय भारत में क्रांतिकारियों द्वारा सशस्त्र क्रांति का आह्वान किया गया।
आप  ने जर्मनी से दो जहाजों में हथियार  भेजे ।
मुखबरी होने के कारण  दोनों जहाज रास्ते में ही ज़ब्त कर लिए गए।
इसके बाद आप स्विट्जरलैंड, तुर्की आदि देशों में घूमे।
आपको जर्मनी में नजरबंद कर लिया गया था। इसलिए आप स्वीडन चले गए। वहां 15 वर्ष तक रहे।
1939 में आप भारत आने में इच्छुक थे । परंतु 4 मार्च 1939 को आप का स्वर्गवास हो गया। आपकी पुत्री का जन्म आपके भारत छोड़ने के बाद हुआ था।

आपने जीवन भर अपनी पुत्री का  मुंह नहीं देख सके।
आप आदर्शवादी एंव भारतीय स्वतन्त्रता के समर्थक थे।
आपने,थॉट्स ऑन एड्युकेशन,
युगान्तर सरकुलर, गदर, ऐलाने-जंग, जंग-दा-हांका,सोशल कॉन्क्वेस्ट ओन हिन्दू रेस,आदि पुस्तकें लिखी।

शत शत नमन

ऑपरेशन राइटर्स बिल्डिंग

भारतीय सशस्त्र क्रांति में बंगाल के क्रांतिवीर बिनॉय@,विनय बॉस , बादल @सुधीर , दिनेश गुप्त व कन्हाई भट्टाचार्य@ बिमल गुप्त का बलिदान सदैव स्मरणीय है।

बिनॉय@बिनय कृष्ण बसु का जन्म 11 सितंबर 1908 को रोहिताभ जिला मुंशीगंज  ( वर्तमान बांग्लादेश )में  हुआ था।

क्रांतिवीर दिनेश गुप्त का जन्म 6 सितम्बर, 1911 को पूर्वी सिमलिया (वर्तमान बांग्लादेश )में हुआ था।

आप सुभाष चंद्र बोस द्वारा गठित क्रांतिकारी संगठन ” बंगाल वॉलयंटीयर्स “, के सदस्य थे।

भारतीय क्रांतिकारियों के प्रति अत्याचारपूर्ण व्यवहार  रखने वाले पुलिस व सिविल अधिकारियों का वध करना भारतीय क्रांतिकारियों के एजेंडे में था।
इस एक्शन को “ऑपरेशन फ्रीडम” का नाम दिया गया ।

 

बंगाल पुलिस महानिदेशक ( जेल) कर्नल एन एस सिम्पसन ऑपरेशन फ्रीडम का  टारगेट था।

कलकत्ता में डलहौजी स्क्वायर पर राइटर्स बिल्डिंग एक सचिवालय था।
इसमें कई विभागों के अधिकारियों के कार्यालय थे।

क्रांतिवीरों  ने राइटर्स बिल्डिंग में घुसकर हमला करके सिम्पसन व अन्य बड़े अधिकारियों का वध करने का कार्यक्रम तय किया ।

योजनांतर्गत तीनो वीर 8 दिसम्बर 1930   को बिल्डिंग में घुसे व पहले सिम्पसन को उसके कार्यालय गोलियां मारी व अंधाधुंध फायरिंग की।

सामने से पुलिस ने भी फायरिंग शुरू कर दी ।  जब पुलिस घेरा बढ़ता दिखा तो  बादल गुप्ता ने ज़हर खाकर व  बिनॉय बसु और दिनेश गुप्ता ने स्वयं को गोली मारकर आत्मबलिदान किया

बादल  मौके पर ही शहीद हो गए।  बिनॉय बसु और दिनेश गुप्ता को हॉस्पिटल ले जाया गया।
 
बिनॉय बसु ने दिनाँक 13 दिसंबर 1930 को शहादत दी।

बिनॉय मजिस्ट्रेट के समक्ष बयान में बताया कि बंगाल के पुलिस महानिदेशक जे एफ लोमैन को  भी बिनॉय ने ही ठिकाने लगाया था।
 
दिनाँक 29 अगस्त 1930 को लोमैन को तीन गोली व इसके साथ  पुलिस अधीक्षक हॉडसन को दो गोली मार कर बिनॉय फरार हो गए थे।
मुकदमा चलाया जा कर फांसी की सजा दी हुई अलीपुर जेल में दिनांक 7 जुलाई 1931 को फांसी दी गई।

राइटर्स बिल्डिंग सिम्पसन ऑपरेशन में ग्रेशम, नेल्सन, मैकग्रेगर, ट्वेन्टीम, तवयनम, और  प्रेन्टिस नामक वरिष्ठ अंग्रेज़ अधिकारीयों को गंभीर रूप से घायल हुए थे।


दिनेश को  ट्रिब्यूनल अध्यक्ष न्यायाधीश आर .आर .गार्लिक ने फांसी की सजा सुनाई थी।

दिनेश को फांसी दिए जाने के मात्र 20 दिन बाद दिनाँक 27 जुलाई 1931 को कन्हई लाल दत्त @बिमल गुप्त ने  गार्लिक को भरी अदालत में गोली मार दी।

उपस्थित पुलिसकर्मियों ने फायरिंग की जिससे कन्हई मौका पर ही शहीद हो गए।
उनकी जेब से एक पर्ची मिली इस पर लिखा था।
दिनेश गुप्त को अन्याय पूर्ण फाँसी का दंड देने का पुरस्कार मृत्यु से प्राप्त कीजिए।
(विमल गुप्त)”

थे।


 


शत शत नमन शहीदों को

:-  लोकमान्य तिलक -:


 

प्रथम स्वतंत्रता संग्राम 1857 के पश्चात भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में शिथिलता आ गई थी।
आजादी का संघर्ष कांग्रेसजन के हाथो में था, जो नरमी का रुख अपनाए हुए थे।
बाल गंगाधर तिलक  इस याचक नीति के पक्ष में नहीं थे ।
तिलकजी के विचारों का भारतीय युवाओं पर गहरा असर पड़ा और युवा सर पर क़फ़न बांधे आजादी की लड़ाई में उतरे । 
तिलक जी को आधुनिक भारत के स्वतंत्रता संग्राम का जनक व “भारतीय अशान्ति के पिता” कहा माना जाता है।
  तिलक जी का जन्म 23 जुलाई 1856 को कांकण, जिला रत्नागिरी , महाराष्ट्र में हुआ था।
तिलक जी की शिक्षा डेक्कन कॉलेज पुणे से हुई।
सन 1876 में तिलकजी ने कानून की परीक्षा पास की।
तिलक जी को गणित ,संस्कृत, इतिहास ,ज्योतिष व शरीर रचना शास्त्र का अच्छा ज्ञान था।
तिलक जी का मानना था-

स्वाधीनता किसी राष्ट्र पर ऊपर से नहीं उतरती बल्कि अनिच्छुक हाथों से छिनने के लिए राष्ट्र को ऊपर उठना होता है।
तिलक जी ने जन भीरुता को ललकारा। संस्कृति में हुए प्रदूषण के विरुद्ध आह्वान किया व लाठी क्लब संचालित किये ।

आपने शिक्षा के महत्व को समझा व समझाया ।

आपने अंग्रेजों की शिक्षा प्रणाली को नौकरशाही तैयार करने की कार्यशाला बताया।

तिलक जी ने 1886 में न्यू इंग्लिश स्कूल की स्थापना की
डेक्कन एजुकेशन सोसाइटी व फर्गुसन कॉलेज की स्थापना की।
तिलक जी की प्रेस का नाम आर्यभूषण था।
आपने  दिनांक 2 जनवरी 1881 से  समाचार पत्र “मराठा “अंग्रेजी में व दिनाँक 1 जनवरी 1982 से “केसरी “ समाचार पत्र मराठी में शुरू किया।

इन समाचार पत्रों में के माध्यम से तिलक जी ने भारतीय राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम उर्जा दी।
केसरी में “देश का दुर्भाग्य” नामक शीर्षक से लेख लिखा जिसमें ब्रिटिश सरकार की नीतियों का विरोध किया।  इस उन्हें राजद्रोह के अभियोग में 27 जुलाई 1897 को गिरफ्तार कर लिया गया।
उन्हें 6 वर्ष के कठोर कारावास के अंतर्गत माण्डले (बर्मा) जेल में बन्द कर दिया गया।
दामोदर चापेकर ने ” शिवाजी की पुकार “ शीर्षक से एक कविता छपवाई  जिसका अर्थ था
” शिवाजी कहते हैं कि मैंने दुष्टों का संहार कर भूमिका भार हल्का किया देश उद्वार कर स्वराज्य स्थापना तथा धर्म रक्षण किया ।”
चापेकर ने ललकारते हुए लिखा अब अवसर देख म्लेच्छ रेलगाड़ियों से स्त्रियों को घसीट कर बेइज्जत करते हैं।
हे कायरों तुम लोग कैसे सहन करते हो ? इसके विरूद्ध आवाज उठाओ ।   
       इस कविता के प्रकाशन पर बाल गंगाधर तिलक पर मुकदमा चलाया गया 14 सितम्बर1897 को तिलक जी को  डेढ़ वर्ष की सजा दी गई

लोकमान्य तिलक ने 1908 में क्रान्तिकारी प्रफुल्ल चाकी और क्रान्तिकारी खुदीराम बोस के बम हमले का समर्थन किया।
जिसके लिये तिलक जी पर राजद्रोह का मुकदमा चलाया व  उन्हें बर्मा  मांडले  जेल में भेज दिया गया।

Jजाए ।”


शिवाजी की जयंती पर 12 जून को विठ्ठल मंदिर पर आयोजित एक सभा में बाल गंगाधर तिलक ने रैण्ड की भर्त्सना करते हए पुणे  के युवाओं को ललकारते हुए कहा
‘ “”पुणे के लोगों में पुरुषत्व है ही नहीं, अन्यथा क्या मजाल हमारे घरों में घुस जाएं

यह बात चापेकर बंधुओं के शरीर में  तीर की तरह लगी और उनकी आत्माओं को झीझोड़कर रख दिया । जिन्होंने हीरक जयंती 22 जून 1897 को    रैण्ड का वध कर दिया।

तिलक जी ने महाराष्ट्र में गणेश उत्सव तथा शिवाजी उत्सव   मनाना प्रारंभ किया।
इन त्योहारों के माध्यम से जनता में देशप्रेम और अंग्रेजों के अन्यायों के विरुद्ध संघर्ष का साहस भरा गया।

आपका मराठी भाषा में दिया गया नारा “स्वराज्य हा माझा जन्मसिद्ध हक्क आहे आणि तो मी मिळवणारच”
(स्वराज यह मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और मैं इसे लेकर ही रहूँगा) बहुत प्रसिद्ध हुआ।

1907 में कांग्रेस गरम दल और नरम दल में विभाजित हो गयी।

गरम दल में लोकमान्य तिलक के साथ लाला लाजपत राय और श्री बिपिन चन्द्र पाल शामिल थे।

इन तीनों को लाल-बाल-पाल के नाम से जाना जाने लगा।

तिलकजी ने 1916 में एनी बेसेंट और मुहम्मद अली जिन्ना के साथ अखिल भारतीय होम रूल लीग की स्थापना की।

बाल गंगाधर तिलक की पत्नी के स्वर्गवास के समय जेल में होने के कारण अपनी  पत्नी के अंतिम दर्शन भी नहीं कर सके।

तिलक जी द्वारा  मांडले जेल में लिखी गयी टीका “गीता-रहस्य” महत्वपूर्ण है इसका कई भाषाओं में अनुवाद हुआ है।
इसके अलावा तिलक जी ने

The Orion
The Arctic Home in the Vedas भी लिखी।

तिलकजी का 2 अगस्त 1920 को बम्बई में स्वर्गवास हुआ।

शत शत नमन