:-  शहीद उद्यम सिंह-:
     -:- क्रांति भीष्म -:-

:-  शहीद उद्यम सिंह-:
     -:- क्रांति भीष्म -:-

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के भीष्म जिहोंने अपनी 18 वर्ष की आयु में 13 अप्रेल1919 को जलियावालां बाग में दो हजार निहत्थे पुरूष, महिलाओं व अबोध बच्चों को दरिंदगी से मौत के घाट उतरते देखा व इस रक्तपात के दोषी अधिकारियों को दण्ड देने की प्रतिज्ञा की ।
उधमसिंह जी ने अपनी सारी जिंदगी अपनी भीष्म प्रतिज्ञा को पूर्ण करने में लगा दी  व 21 वर्ष बाद रक्तपात के  दोषी ओ डायर का लंदन के कैक्सटन  हॉल में दिनाँक13 मार्च 1940 को वध करके अपनी प्रतिज्ञा पूर्ण की।

सरदार उधम सिंह का जन्म 26 दिसम्बर 1899 को  सुनाम  जिला  संगरूर ,पंजाब में हुआ था। आपके पिता सरदार टहल सिंह @ चूहड़ सिंह  उपाली रेलवे में चौकीदार थे। अब की माताजी का 1901 व पिताजी का 1905  को आकस्मिक देहांत हो गया ।  आपके एक भाई मुक्ता सिंह थे जिनका भी 1917 में    देहान्त हो गया। आप का बचपन में नाम शेर सिंह था । आपके मातापिता के देहंतोपरांत आप दोनों भाइयों को भाई किशन सिंह रागी ने दिनाँक 24 अक्टूबर 1907 को पुतलीगढ़ अमृतसर अनाथालय (Central Khalsa Orphanage) में रखवा दिया।
भाई किसन सिंह ने अमृत छका कर  आपका नाम शेर सिंह से उधम सिंह रखा ।
वैशाखी 1919 को आप जलियांवाला बाग में जल सेवा कर रहे थे ।
आपने जलियावाला ख़ूनी काण्ड अपनी आंखों से देखा था जिसका आपके दिल व दिमाग पर गहरा असर पड़ा ।
आपने स्वर्ण मंदिर में  पवित्र सरोवर में स्नान यह प्रतिज्ञा की थी कि जलियावाला हत्या कांड के दोषी से बदला लेंगे।
आप  नैरोबी में अफ्रीका में गदर पार्टी से जुड़े। भारत मे आप भगतसिंह व हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन से जुड़े।
आप जुलाई 1927 में हथियार लेकर  आये। दिनाँक  30 अगस्त 1927 को 25 क्रांतिकारीयों के साथ  गिरफ्तार किया गया। आप चार वर्ष तक जेल में रहे ।


सन 1931 में आपने अमृतसर में साइन बोर्ड पेंटर का काम किया और अपना नाम राम मोहम्मद सिंह आजाद रखा  

आप अपने मिशन को अंजाम देने के लिए शेरसिंह,उद्यानसिंह, उदेयसिंह, उदय सिंह ,आदि छदम नामों से कश्मीर अफ्रीका, नैरोबी, ब्राजील और अमेरिका की यात्रा की ।सन्1934 में उधम सिंह जी लंदनपहुँचे और वहां 9, एल्डर स्ट्रीट कमर्शियल रोड पर रहने लगे।
दिनाँक 13 मार्च 1940 को रायल सेंट्रल एशियन सोसायटी की लंदन के काक्सटन हाल में बैठक थी जहां माइकल ओ डायर भी वक्ताओं में से एक था और उसे सम्मानित किया जाना था।
ओ डायर जलियावाला कांड के समय पंजाब के गवर्नर थे।इसके आदेश पर ही ब्रिगेडियर हैरी डायर ने फायरिंग करवाई थी । हैरी डायर पहले ही मर गया । तो डायर जिंदा था। जो उधम सिंह का टारगेट था।  

उस दिन 13 मार्च 1940 को आपने एक मोटी क़िताब  बीच के कागज  रिवॉल्वर के आकर के काटे व इसमें रिवॉल्वर रख लिया व समय से ही सभा हाल में  पहुँच गए।
जैसे ही ओ डायर बोलने के लिए खड़ा हुआ वीरवर ने माइकल ओ डायर के दो गोलियां  मारी जिनसे दुष्ट डायर वहीं मर गया।
आप भागे नहीं  हॉल में उपस्थित लोगों को सम्बोधित करते हुए कहा

” जलियांवाला बाग का हत्याकांड मैंने अपनी आंखों से देखा था और उसी दिन से अंग्रेजी राज  व यह व्यक्ति मेरी घृणा का पात्र बन गया।   

ओ डायर का क्रूर और नृशंसापूर्ण शासन, हृदय विदारक अत्याचार और भयानक दमन मेरी स्मृति से कभी न निकल सके उसी दिन मेंने  प्रतिज्ञा की थी कि मैं इस खून का बदला लूंगा । मुझे हर्ष है कि मैं अपने प्राणों की बाजी लगाकर 21 वर्ष बाद उस हत्याकांड का बदला ले रहा हूं और इस प्रकार अपनी मातृभूमि के चरणों में अपने प्राणों को यह तुच्छ भेंट प्रस्तुत कर सका हूं।'”

आपने हॉल में ही अपनेआप गिफ्तारी दी । आप कत्ल का  मुकदमा चला व 4 जून 1940 को आपको  को हत्या का दोषी ठहराया गया व फाँसी की सजा दी गयी।  आपको दिनाँक 31 जुलाई 1940 को लंदन की पेंटनविले जेल में फांसी दे दी  गई।

फाँसी से पूर्व अपनी अंतिम इच्छा में कहा  फांसी के समय मेरे हाथ नहीं बांधे जावे व  मेरी अस्थियों को भारत भेज दिया जावें।
आपके द्वारा ओ  डायर का वध करने पर गांधी जी ने अपनी आदत के अनुसार दुःख व्यक्त करते हुए कहा “The Outrage has caused me deep pain.I regard it as an act of insanity.”
अमृतबाजार पत्रिका ने आपकी बहादुरी को खुले दिल से सराहा।
अप्रेल 1940 रामगढ़ कांग्रेस सभा मे लोगों ने ऊधम सिंह जिंदाबाद, इंकलाब जिंदाबाद के नारे लगाए।

देश के आजाद हो जाने के 26 वर्ष बाद तक ऊधम सिंह जी की अस्थियां मातृभूमि के लिए तरस रही थी।
भला हो तत्कालीन पंजाब मुख्यमंत्री ज्ञानी जैल सिंह का जिनके प्रयत्न से 1973 में यह शुभ काम सम्पन्न हुआ। पंजाब विकास कमिश्नर श्री  मनोहर सिंह गिल को इंग्लैंड भेजा  जो उधम सिंह जी  के लिखे पत्र लेकर आये।।
23 जुलाई 1974 को पंजाब मंत्रिमंडल के मंत्री श्री उमराव सिंह व विधायक श्री साधु सिंह इंग्लैंड से अस्थियों के लेकर भारत  पहुंचे। प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी  अपने मंत्रिमंडल के साथ एयरपोर्ट पर  पर पहुंची व उधम सिंह जी की अस्थियों का सम्मान किया।
अस्थियों को कपूरथला में दर्शनार्थ रखा गया व  सम्मानार्थ जुलूस निकाला गया व राजकीय सम्मान के साथ   31 जुलाई 1974 को कीर्तिपुर में जल प्रवाहित किया गया।

शत शत नमन क्रांति के लिए भीष्म प्रतिज्ञा निर्वहन करने वाले महान क्रांतिवीर को ।

-:- प्रीतिलता वादेदार -:- स्वतंत्रता संग्राम वीरांगना –

:- प्रीतिलता वादेदार -:

      जन्म  -:- 5 मई 1911
   चटगांव (वर्तमानबांग्लादेश)
शहादत– 23 सितम्बर 1932

प्रीतिलता वादेदार मेधावी छात्रा थी । इंटरमीडिएट परीक्षा में प्रीतिलता का ढाका बोर्ड में 5 वां स्थान आया था। स्नातक शिक्षा के बाद वह चटगांव में ही एक विद्यालय में प्रधानाध्यापिका बन गयी ।
मास्टर सूर्यसेन से प्रभावित होकर     इंडियन रिपब्लिकन ऑर्मी की सदस्य बन गयी। क्रांतिकारी रामकृष्ण विश्वास कलकत्ता के अलीपुर जेल में थे। उनको फांसी की सज़ा सुनाई गयी थी। जेल में बंद क्रांतिकारीयों पर ख़ुफ़िया विभाग की पैनी नज़र रहती थी । उनसे मिलना आसान नहीं था। लेकिन प्रीतिलता उनसे कारागार में लगभग चालीस बार मिली और किसी अधिकारी को कभी शक नहीं होने दिया।
एक बार दिनाँक 14 सितम्बर 1932 को मास्टर दा व प्रीतिलता व अन्य क्रांतिकारी सावित्री नाम की महिला के घर मे घलघाट में छिपे हुये थे। पुलिस द्वारा घेर लिए गए। इस मुठभेड़ में क्रांतिकारी अपूर्वसेन और निर्मल सेन शहीद हो गये। 

सूर्यसेन मास्टर ‘दा “की गोली से कैप्टन कैमरान मारा गया।
सूर्यसेन और प्रीतिलता पुलिस की गोलियों का सामना करते हुए भागने में सफल हुये।
यूरोपियन क्लब जिस पर लिखा ” Dogs and Indians not allowed  ”  को नेस्तनाबूद  करना चटगांव की इंडियन रिपब्लिकन आर्मी के एजेंडा में था ।
इस एक्शन हेतु पहले शैलेश्वर चक्रवर्ती को प्रभारी बनाया गया तथा कार्यक्रम के अनुसार चक्रवर्ती क्लब के सामने दो बम व रिवॉल्वर  सहित तैयार रहना था तथा बाकी क्रांतिकारियों द्वारा एक बारात के रूप में आकर क्लब के सामने आतिशबाजी करनी थी व ठीक आतिशबाजी के समय क्लब पर बम्ब डाला जाना था। परन्तु शैलेश्वर अपने एक्शन में सफल नहीं हुआ और उसने जहर खाकर आत्मबल दान कर लिया।
    इसके बाद प्रीतिलता ने मास्टर दा से इस एक्शन की अनुमति लेकर
दिनाँक 24 सितम्बर 1935 को  रात को करीब 10:30 बजे क्लब पर आक्रमण का किया गया।

पहले क्लब की खिड़की से बम्ब डाला गया फिर गोलियों की बौछार की गई । जिससे  एक महिला मारी गई,13 फिरंगी अधिकारी घायल हुए व बाकी भाग गए ।
प्रीतिलता ने साथियों को वहां से भेज दिया ख़ुद मोर्चा सम्भाले हुए थी । एक गोली प्रीतिलता के  पैर में लगी जिसके कारण है भागने में सफल नहीं हुई। इसलिए क्रांति कायदे के अनुसार प्रीतिलता ने  पोटेशियम साइनाइड विष  खाकर आत्म बलिदान किया।

प्रीतिलता के आत्म बलिदान के बाद अंग्रेज अधिकारियों को प्रीतिलता की जेब में एक पत्र मिला जिसमें फ़िरंगियों के नाम भारत के स्वतंत्रत नहीं होने तक संघर्ष जारी रहने का संदेश था ।
     प्रीतिलता ने कोलकाता के बेथुन कॉलेज से दर्शनशास्त्र से स्नातक परीक्षा उत्तिर्ण की थी परन्तु क्रांतिकारी गतिविधियों के कारण डिग्री प्रदान नहीं कि गई थी। आजादी के बाद प्रीतिलता की   डिग्री प्रदान की गयी।

स्वतंत्रता संग्राम की वीरांगना प्रीतिलता

शत शत नमन वीरांगना को

:-सुपर एक्शन चटगांव -:


      :-सुपर एक्शन चटगांव -:

भारतीय सशस्त्र क्रांति के इतिहास में 18 अप्रैल 1930  का दिन स्वर्ण अक्षरों में लिखा जाने योग्य है।

इस दिन महान क्रांतिवीर सूर्यसेन “मास्टर दा” के नेतृत्वमें चटगांव के क्रांतिकारी दल “इंडियन नेशनल आर्मी ” ने चटगांव में पुलिस और सहायक बलों के शस्त्रागार के हथियारों को अपने कब्जे में लेकर चटगांव का समस्त संचार तंत्र समाप्त कर अपना प्रशासन स्थापित कर यूनियन जैक को उतार कर भारत का तिरंगा लहरा दिया व फ़िरंगियों को उनकी औकात बतादी। 

चटगांव में एक अध्यापक मास्टर सूर्य सेन “साम्याश्रम ” के नाम से क्रांतिकारी  का संचालन कर रहे थे।असहयोग आंदोलन के समय ये लोग कांग्रेस में शामिल हो गए पर चोराचोरी के बाद आंदोलन वापसी से इनका विश्वास उठ गया।
दिसंबर 1928 में कांग्रेस 40वा  अधिवेशन कलकत्ता में था।

इस अधिवेशन में” साम्याश्रम” के सदस्य भी शामिल हुए।
सुभाष चंद्र बोस के नेतृत्व में 7000 स्वयं सेवको ने सैनिक गणवेश में कांग्रेस अध्यक्ष मोतीलाल नेहरू को गार्ड ऑफ ऑनर प्रदान किया । सैनिक गणवेष व अनुशासन ये लोग इतने  प्रेरित हुए कि चटगांव आकर साम्याश्रम का नाम “इंडियन रिपब्लिकन आर्मी” रख लिया तथा सशस्त्र क्रांति की तैयारी में लग गए।
इंडियन नेशनल आर्मी के अध्यक्ष मास्टर सूर्य सेन थे । आर्मी के आदर्श संगठन, साहस और बलिदान सुनिश्चित किये गए।
इंडियन रिपब्लिकन आर्मी ने अपने लक्ष्य को निर्धारित करते हुए  20 कार्य तय किये ।
जिसके अनुसार क्रांति तिथि 18 अप्रैल 1930 निश्चित की गई । क्रांतिकारियों की अलग अलग टुकड़ियों द्वारा तार व्यवस्था को ठप करना , रेल की पटरीयों को उखाड़ना , वायरलेस व्यवस्था ठप्प करना , गणेश घोष व आनंद सिंह द्वारा पुलिस शस्त्रागार पर कब्जा कर हथियार लेना, लोकनाथ द्वारा फौज केशस्त्रागार पर  कब्जे कर हथियार कब्जे  लेना आदि था।
क्रांतिकारियों ने समस्त कार्य सफलता पूर्वक किये।
इस एक्शन में बच्चों सहित कुल 65 क्रांतिकारीयों ने भाग लिया।
क्रांतिकारी जलालाबाद पहाड़ी पर अपना डेरा लगाए हुए थे।
दिनाँक 22 अप्रैल 1930 की दोपहर को कई हज़ार सैनिकों ने घेर लिया।
गोलीबारी में 80 से ज्यादा सैनिक मारे गए और 12 क्रांतिकारी शहीद होगए। मास्टर दा ने अपने लोगों को छोटे समूहों में बांट कर पड़ोसी गांवों में फैला दिया और उनमें से कुछ बच गए कुछ गिरफ्तार कर लिए गए।
क्रांतिकारियों को पकड़ने के लिये एक तीव्र छापेमारी शुरू हुई।
पूर्व मे गिरफ्तार क्रांतिकारियों का जेल की यातनाओं से मनोबल कम नहीं हो इसलिए मास्टर दा के निर्देशानुसार अनंतसिंह ने चन्दननगर से कलकत्ता आकर आत्मसमर्पण कर दिया।
कुछ माह बाद पुलिस आयुक्त चार्ल्स टेगार्ट ने कुछ क्रांतिकारियो को घेरा मुठभेड़ में जीबन घोषाल शहीद हुए।
प्रीतिलता वादेदार  ने बीस सूत्रीय कार्यक्रम में से यूरोपीयन क्लब जिसके गेट पर लिखा होता था Dogs and Indian not allowed पर सितंबर 1932 को हमला किया पर क्लब में अधिक फ़िरंगियों के होने के कारण अपने साथियों को सुरक्षित भेजा खुद गोली लगने से घायल हो गयी ।

इसलिए जहर खाकर आत्म बलिदान किया।
कलारपोल मे हुई मुठभेड़ में देब गुप्ता, मनोरंजन सेन, रजत सेन और स्वदेशंजन रे की शहीद हुए।
सुबोध और फनी घायल होने के कारण  गिरफ्तार  कर लिए गए थे।
  मुकदमों के बाद 12 क्रांतिकारीयों  को अजीवन कारावास सजा की ,

2 को तीन-तीन वर्ष  की  सजा मिली।   गणेश घोष, लोकेनाथबल, आनन्द गुप्ता और अनन्त सिंह आदि को अंडमान जेल में भेज दिया गया।
नेत्रसेन ने इनाम के लालच में मुखबिरी की जिस पर मास्टर दा को 16 फरवरी 1933 को  गिरफ्तार कर लिया गया । लेकिन  चटगांव क्रांतिकारियों ने बंगाल के क्रांति नियमों के अनुसार नेत्र सेन को ब्रिटिश सरकार से इनाम के 10,000 रुपये प्रप्त करने से पहले कुछ गोलीयां इनाम में दे दी।

जेल में अमानवीय यातनाओं को सहने के बाद 12 जनवरी 1934 मास्टर दा व तारेश्वर दस्तीदार को फांसी दी गयी।

शत शत नमन क्रांतिवीरों को ।

शत शत नमन

:- क्रांतिवीर -: -: :-करतारसिंह सराभा -:

:- क्रांतिवीर करतार सिंह सराबां -:

करतारसिंह का जन्म 24 मई 1896 को गांव सराबा जिला लुधियाना पंजाब में हुआ। आपकी बालावस्था में ही आपके पिता श्री मंगल सिंह का निधन हो गया था।आप अपने पिता की एकमात्र पुरूष संतान थे। प्रारंभिक शिक्षा लुधियाना में व रेवनसा कॉलेज उड़ीसा से विद्यालयी शिक्षा 11वीं पास करने के बाद मात्र 16 वर्ष की आयु में उच्च शिक्षा हेतु  अमेरिका गए।  वहाँ आप सराभा गांव के रुलिया सिंह पास रहे। आप एक बुजुर्ग महिला के घर में किराएदार  थे । अमेरिका के स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर उस महिला ने  घर को फूलों व वीरो के चित्रों से सजाया । जिससे आपके मन मे देशप्रेम व आजादी की भावना की चिंगारी उठी जो कभी शांत नहीं हुई।
अमेरिका व कनाडा में अधिकतर प्रवासी भारतीय काम की तलाश में ग्रुप बना कर रहते थे । कनाडा व अमेरिका में  लोगों के  भारतीय मज़दूर काफी परेशान रहते थे। भारतीयों के साथ इस भेदभावपूर्ण व्यवहार के विरुद्ध कनाडा में संत तेजा सिंह व अमेरिका में ज्वाला सिंह संघर्ष कर थे। ये सभी पंजाबी सिख थे । ये लोग  भारत से आनेवाले  विद्यार्थियों को सहायता करते थे ।
  पोर्टलैंड में 1912 में भारतीय मज़दूरों का एक बड़ा सम्मेलन हुआ, जिसमें बाबा सोहन सिंह भकना, हरनाम सिंह टुंडीलाट, काशीराम आदि ने हिस्सा लिया।
  इस समय आप ज्वाला सिंह ठट्ठीआं के संपर्क में आये व उनकी सहायता से बर्कले विश्वविद्यालय में  रसायन शास्त्र की शिक्षा प्राप्त करने हेतु प्रवेश लिया।
यहाँ आप 1912 में लाला हरदयाल कि भाई परमानंद के संपर्क में आये व फ़िरंगियों के विरुद्ध दिए गए जोशीले भाषणो से प्रभावित हुए।
आप गदर पार्टी सदस्य बने । आप व रघुवीर दयाल ने 1 नवंबर 1913 में “गदर” समाचार पत्र का पहला अंक प्रकाशित किया।
इस अंक में आपने हिदुस्तान में फ़िरंगियों के विरुद्ध  गदर का ऐलान किया । इसका एक लेख इस प्रकार था-
हमारा नाम       :-       ग़दर
हमारा काम      :-       ग़दर
ग़दर कहां होगा :-   हिंदुस्तान में   इस पर आवश्यकता है :-
        उत्साही युवा वीर सैनिकों की उजरत   :-   मौत
इनाम     :-  शहादत
मिशन    :-  आजादी
कार्यक्षेत्र  :- हिंदुस्तान

करतार सिंह जी आजादी की अंतिम लड़ाई की तैयारी के साथ भारत आ गये ।
समस्त भारत के क्रांतिकारियों ने मिलकर एक साथ एक निश्चित तिथि पर अंग्रेजों के विरुद्ध युद्ध करने की योजना बनाई
इस युद्ध की तिथि 21 फरवरी 1915 निश्चित की गई ।
छावनियों में भारतीय सैनिकों से सम्पर्क के क्रम में  फिरोजपुर में  संगठन भार रासबिहारी बोस और करतार सिंह सराभा ने,जबलपुर, अजमेर ,बरेली, बनारस, दानापुर, गुवाहाटी, मेरठ व  रावलपिंडी की सैनिक छावनियों में सम्पर्क का भार  नलिनी मोहन मुखोपाध्याय, प्रताप सिंह बारठ,  दामोदर स्वरूप, शचींद्रसान्याल , नरेंद्र नाथ, विष्णु गणेश पिंगले,  तथा निधान सिंह को सौंपा गया।
हिरदेराम को जालंधर छावनी, प्यारा सिंह को कपूरथला छावनी तथा डॉक्टर मथुरा सिंह को पेशावर की छावनी में भेजा गया।
सभी छावनियों में भारतीय सैनिकों ने अंग्रेजों को मार भगाने हेतु साथ देने का विश्वास दिलाया।
  इस घटना का समाचार देश विदेश में पहुंच गया । विदेशों में ग़दर पार्टी आजादी के लिए सक्रिय थी।
विदेशों में खबर फेल गई कि अंग्रेजों को भारत से भगाने के लिए जंग होनेवाला है ।
इस प्रतिक्रिया में प्रवासी भारतीयों ने भी भारत आकर अंग्रेजों को भारत से मार भगाने की तैयारियों के भारत का रुख किया ।
अलग अलग जहाजों से  प्रवासी भारतीय जिनमे अधिकतम सिख व गदर पार्टी के सदस्य थे, अपने हाथों में  हथियार लिए गदर की गूंज मचाते हुए कोरिया टोषामारू, माशियामारू, कवाचिमारू सलमिस नामक व अन्य जहाजों से भारत पहुंचे। जिनकी कुल संख्या लगभग 8000 थी।
देश के गद्दार हमेशा ही देश का दुर्भाग्य बने है । इस बार भी यही हुआ एक पुलिस अधिकारी ने कृपाल सिंह नामक एक व्यक्ति को क्रांतिकारी दल में शामिल करवा दिया जो सारी खबरें अंग्रेजों को देने लगा।
भारतीय क्रांतिकारियों ने इस महान युद्ध के लिए 21 फरवरी 1915 की तिथि निश्चित करते हुए सब जगह सूचना  दे दी ।

गद्दार कृपाल सिंह ने इस की सूचना अंग्रेजों को दे दी ।
इसपर जंग की तिथी दो दिन पहले यानी 19 फ़रवरी तय की गई ।    करतार सिंह जी को ज्ञान नहीं था कि कृपालसिंह गद्दार है ।उन्होंने परिवर्तित तिथि भी कृपाल सिंह को बता दी ।जो कृपाल सिंह ने पुलिस को बतादी।
करतार सिंह जी सराबा  योजना अनुसार करीब 80 क्रांतिकारियों को लेकर निर्धारित स्थान  मेरठ छावनी में पहुंचे मजबूरन उन्हे भी वापस लौटना पड़ा ।
इस योजना के असफल होने के बाद पुनर्संगठन हेतु बाहरी सहायता प्रप्त करने के लिये करतार सिंह जी को काबुल जाना था।

करतार सिंह जी के साथ जगत सिंह वह हरनाम सिंह कुंडा थे। ब्रिटिश भारत की सीमा पार करने के बाद एक स्थान पर तीनों बैठे थे ।
करतार सिंह जी गाने लगे –
” बनी सिर शेराँ दे,
की जाणा भज्ज के”
इसका अर्थ  है की शेरों के सर पर आन पड़ी है अब भाग करके क्या जाएंगे ?
और अचानक सराभा जी ने कहा यह गीत दूसरों के लिए गाया गया या अपने लिए ?
अपने साथी देश में जेलों में पड़े हैं। हमें उन्हें छोड़कर भाग रहे है ।
और अपना इरादा बदल दिया तथा वापस भारत की ओर लौटने लगे रास्ते में सरगोधा के पास चक नंबर 5 में पुलिस ने पकड़ लिया
  लाहौर एक्शन के इस मामले में करतार सिंह जी को फाँसी सजा हुई ।
26 नवम्बर 1915 को मात्र उन्नीस साल के युवक करतार सिंह ने 6 अन्य साथियों – बख्शीश सिंह,  हरनाम सिंह,  जगत सिंह, सुरैण सिंह व भूर सिंह , सज्जन सिंह ,बख्शीस सिंह , काशीराम व विष्णु गणेश पिंगले,  के साथ लाहौर जेल में फांसी पर चढ़कर हमारी आजादी के लिए शहीद होने वालों वीरों की संख्या में 7 की व्रद्धि की।
करतार सिंह सराभा से भगत सिंह प्रेरित थे । करतार सिंह जी फ़ोटो जेब मे रखते थे ।
करतार सिंह सराभा की यह गज़ल भगत सिंह को बेहद प्रिय थी वे इसे अपने पास हमेशा रखते थे और अकेले में अक्सर गुनगुनाया करते थे –

शहीद करतार सिंह सराभा

“यहीं पाओगे महशर में जबां मेरी बयाँ मेरा,
मैं बन्दा हिन्द वालों का हूँ है हिन्दोस्तां मेरा;
मैं हिन्दी ठेठ हिन्दी जात हिन्दी नाम हिन्दी है,
यही मजहब यही फिरका यही है खानदां मेरा;
मैं इस उजड़े हुए भारत का यक मामूली जर्रा हूँ,
यही बस इक पता मेरा यही नामो-निशाँ मेरा;
मैं उठते-बैठते तेरे कदम लूँ चूम ऐ भारत!
कहाँ किस्मत मेरी ऐसी नसीबा ये कहाँ मेरा;
तेरी खिदमत में ए भारत! ये सर जाये ये जाँ जाये,
तो समझूँगा कि मरना है हयाते-जादवां मेरा.”
शत शत नमन शहीदों को

:- बंगाल के शेर-:
       :- बाघा जतिन -:


     :- बंगाल के शेर-:
       :- बाघा जतिन -:
बाघा जतिन उर्फ यतीन्द्र नाथ मुखर्जी जन्म 7 दिशम्बर 1879 को गांव कायाग्राम,जिला कुड़ीया  बंगाल में हुआ था।जब आपकी आयु मात्र पांच वर्ष थी तो आपके पिता श्री उमेश चन्द्र का देहान्त हो गया था । आपकी माताश्री ने आपमे देशभक्ति का मंत्र फूंका।
इंट्रेंस के बाद आप स्टेनोग्राफर लगे पर कालांतर में नौकरी छोड़कर आजादी की लड़ाई में लग गए । भारतीय क्रांतिकारीयों के इतिहास में जतिन बाघा को दक्षिण  का
“चंद्र शेखर आज़ाद “कहा जाता है। आज़ाद जी की तरह आप में भी सभी युद्ध कौशल थे आप भी आवाज़ पर निशाना साधते थे।
    आपने अकेले ही एक नरभक्षी  बाघ को अपने छुरे से मार कर गांव वालों को आतंक से मुक्ति दिलाई थी । तब से आप “बाघा जतिन “के नाम मशहूर हो गए।
जतिंद्रनाथ आम लोगों के हितेषी पर फ़िरंगियों के लिए ख़ौफ़ थे।
बाघा ने 1905 दार्जलिंग मेल में  चार फ़िरंगियों को अकेले ही पीट दिया ।
प्रिंस ऑफ़ वेल्स  स्वागत जुलूस के समय एक गाड़ी की छत पर बैठे कुछ फ़िरंगियों ने गाड़ी में बैठी महिलाओं के मुंह के आगे  खिड़कियों से अपने पैर  लटका रखे थे । इसे देख जतिन भड़क गए और उन्होंने अंग्रेजों से उतरने को कहा, लेकिन वो नहीं माने तो बाघा जतिन खुद ऊपर चढ़ गये और एक-एक करके सबको पीट दिया।
आज़ादी की जंग के लिए हथियार खरीदने हेतु डाके डालने का रास्ता अपनाया गया। बाघा ने बलिया घाट , गार्डन रीच, ढुलरिया डकैतीया डाली । एक डकैती में तो 22000 रुपये मिले ,राडा कंपनी से लूटे पार्सल में 52 मौजर 50000 कारतूस थे।               बाघा जतिन ने बंगाल, बिहार, उड़ीसा और सयुंक्त प्रान्त (उत्तर प्रदेश) के विभिन्न शहरों में क्रांतिकारियों की विभिन्न शाखाओं के बीच मजबूत संपर्क स्थापित किया। 
साल 1908 में अलीपुर बम प्रकरण में आरोपित होने के बावजूद बाघा निडरतापूर्वक गुप्त रूप से देशभर के क्रांतिकारियों को जोड़ना शुरू किया।
बाघा को 27 जनवरी,1910 को गिरफ्तार किया गया था पर उनके खिलाफ़ कोई ठोस प्रमाण न मिलने के कारण उन्हें कुछ दिनों के बाद छोड़ दिया गया।
बाघा जतिन ने फ़िरंगियों के खिलाफ जंग की शुरुआत करदी थी।
बाघा ने वीरेंद्र नाथ चट्टोपाध्याय @ चट्टो को सैनफ्रांसिस्को भेजा । चट्टोपाध्याय ने ग़दर पार्टी के सदस्यों की भारत को  हथियार भेजने हेतु जर्मन राजदूत थियोडर हेलफरीश से  सौदा किया ।
उनकी सोच अपने समय से बहुत आगे थी। उनके दिमाक में  यह बात स्पष्ट थी कि कहीं अंग्रेजों से पीछा छुड़ाकर  जर्मनी और जापान वालों के अधीन न हो जाए ।  इसलिए जर्मनी से  हथियारों की सहायता हेतु जो करार किया गया उसमें स्पष्ट लिखा गया कि हथियारों की कीमत आजादी के बाद जर्मनी को दी जाएगी ।
आजादी के बाद जर्मनी का भारत पर किसी तरह का कोई दावा नहीं होगा तथा जर्मन फ़ौज भारत मे प्रवेश नहीं करेगी।
जर्मन काउंसलर की मार्फत हत्यारों का जहाज “मेवरिक “की  सूचना किसी ग़द्दार ने अंग्रेजों को दे दी।
संभवतः हथियार एक अन्य जहाज Amber Larsen द्वारा लाये जाने थे व रास्ते में कहीं इस जहाज से हथियार मेवरिक में रखे जाने थे। और मेवरिक को भारत आना था। Amber Larsen जहाज वाशिंगटन में पकड़ लिया गया था।
इसी कारण यह मेवरिक को हथियार नहीं दे सका तभी मेवरिक कि बटेविया (जावा) में तलाशी ली गई तो इसमें हथियार नहीं थे।
हेनरी नामक जहाज भी मनीला में पकड़ लिया गया व हथियार उतरवा लिए गए।
एक ओर जहाज द्वारा श्याम (थाईलैंड)के राजदूत ने 5000 बंदूके व एक लाख रुपये नगद भेजे यह जहाज रायमंगल पहुँचना था ।  इसकी सूचना भी अंग्रेजों को दे दी गयी व  यह जहाज भी पकड़ा गया।
इसी बीच जर्मनी से हथियारों के दो और जहाज भेजे गए परंतु सूचना होने के कारण फिलीपाइन के पास पकड़ लिये गए।
  बाघा जतिन मेवरिक  के आने के इंतजार में दिनाँक 9 सितंबर 1915 को अपने 5 साथियों के साथ बालासोर में  क्षेत्र में एक पहाड़ी पर बारिश से बचने के लिए आश्रय लिए हुए थे।वहाँ पुलिस द्वारा घेर लिये गए।

चित्ताप्रिय और अन्य साथियों ने बाघा जतिन से आग्रह किया कि वे वहां से निकल जाएँ। लेकिन जतिन ने अपने दोस्तों को खतरे में अकेला छोड़कर जाने से इनकार कर दिया।गांववालों ने इन्हें डाकू समझ कर पुलिस की सहायता में लग गए।। 
पुलिस मुठभेड़ में बाघा को गोलीयां  लगी जिसके कारण बाघा 10 सितम्बर 1915 को शहीद हो गए ।
इन पाँच क्रांतिकारियों ने पुलिस का मुकाबला किया जिसकी प्रशंसा ख़ुफ़िया विभाग के खूंखार अधिकारी टेगर्ट ने भी की।
बेरिस्टर जे. एन राय ने खुफिया विभाग के प्रधान टेगर्ट से पूछा क्या यतींद्र जीवित है  तो टेगर्ट  उत्तर दिया दुर्भाग्यवश वह मर गया ।  Though I had to do my duties, I have a great admiration  to him. He was the only Bengali who died in open fight from trench“
बाद में यह भी कहा गया कि
“अगर यह व्यक्ति जिवित होता तो शायद पूरी दुनिया का नेतृत्व करता”।
फिरंगी प्रशासन बाघा व उसके दल से बुरी तरह घबराये रहते थे इसलिए 1912 में  कलकत्ता को छोड़कर दिल्ली को राजधानी बनाया गया।
बाघा की सोच प्रजातांत्रिक थी। उनका कहना था –
पूंजीवाद समाप्त कर श्रेणीहीन समाज की स्थापना क्रांतिकारियों का लक्ष्य है। देसी विदेशी शोषण से मुक्त कराना और आत्म निर्णय द्वारा जीवनयापन का अवसर प्राप्त करना हमारी प्राथमिक मांग है
बाघा जतिन ने
“आमरा मोरबो, जगत जागबे’ का नारा दिया,”
जिसका मतलब था कि ‘जब हम मरेंगे तभी देश जागेगा’!
भारत सरकार ने बाघा जतिन के सम्मान में डाक टिकट भी जारी किया।
,शत शत नमन
महान क्रांतिवीरों को

महान योद्धा एंव क्रांतिवीर बाघा जतिन

:- सिंध बाल क्रांतिवीर -:
         – हेमू कालानी –

   :- सिंध बाल क्रांतिवीर -:
          – हेमू कालानी –

हेमू का जन्म 23 मार्च 1923 को  सख्कर में माता जेठीबाई व पिता श्री पेशूमाल के घर हुआ । हेमू बालापन से ही क्रांतिकारी विचारों के थे।
हेमू विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार व भारत छोड़ो आंदोलन में आगे रहे। हेमू छात्रसंगठन ” स्वराज सेना”  में सक्रिय रूप से देश की आजादी के लिए क्रांतिकारी गतिविधियों में भाग लेते थे।
हेमू को पता चला कि बलूचिस्तान में आंदोलन को दबाने के लिए एक
अंग्रेजी रेलगाड़ी 23 अक्टूबर 1943 को हथियार व सैनिक लेकर रोहिड़ी से सख्खर होते हुए क्वेटा जाएगी ।
क्रांतिकारी हेमू ने अपने बाल मित्रों  नंद व किशन  के साथ ट्रेन को पलटने के लिए रेल लाइन की फ़िशप्लेट उखाड़नी चाही।
जैसे ही काम शुरू किया पुलिस आ गयी हेमू ने अपने दोनों साथियों को भगा दिया  पर खुद गिरफ्तार हो गए ।
पुलिस ने बर्फ़ सील्लियों पर लेटा कर हंटरों से हेमू का शरीर छलनी कर दिया गया पर हेमू ने मुंह नहीं खोला । 
हेमू के साथियों की माताएं जेल में हेमू से मिली।माताओं की हालत देख  हेमू ने निश्चय कर लिया था की साथियों के नाम नहीं बताएंगे । यह बात आम चर्चा की थी कि हेमू के साथ दो बालक और थे ।
जब नाम बताने के लिए मजिस्ट्रेट के पास ले गए तो हेमू ने साथियों के नाम बताए “छन्नी व हथौड़ा”  ।

हेमू ने फांसी की सजा सुनानेवाले जज  कर्नल रिचर्डसन के मुंह पर थूक दिया ।
हेमू की तरफ से वॉयसराय के समक्ष क्षमा याचना पेश होने पर   वायसरॉय ने साथियों के नाम बताने की शर्त रखी पर वीर हेमू ने अपने साथियों के नाम बताने से स्पष्ट इंकार कर दिया ।
हेमू की माँ जेल में मिलने गयी व अपने वीर बेटे को शाबासी दी व अपनी कोख पर गर्व जताया ।

हेमू को दिनाँक 21 जनवरी 1943 को सख्खर केंद्रीय जेल में फाँसी दी गयी ।
इन्कलाब जिंदाबाद व भारतमाता की जय के नारे लगाते हुए हेमू फाँसी पर झूल गए । फाँसी से पूर्व अंतिम इच्छा पूछने पर हेमू ने भारत मे फिर जन्म लेने की इच्छा बताई।
भारत सरकार द्वारा हेमू का 1982 में डाक टिकट जारी किया ।

इन्दिरा गांधी द्वारा हेमू की वीर जननी  जेठीबाई को “सिन्धुमाता”” की पदवी दी ।
शत शत नमन बाल शहीद को

:-गुमनाम शहीद -:
          -महावीर सिंह –

        :-गुमनाम शहीद -:
          -महावीर सिंह –
भारतीय सशस्त्र क्रांति के अनेकगुमनाम योद्धा है। जिनका नाम इतिहास में कहीं नहीं है। उनमें से एक है महान क्रांतिकारी शहीद महावीरसिंह ।
आपका जन्म 16 सितम्बर 1904 को उत्तर प्रदेश के एटा जिले के शाहपुर टहला नामक गाँव में हुआ था।
आपके पिता कुंवर देवीसिंह अच्छे वैद्य थे। आप बाल्यकाल से ही क्रांतिकारी विचारों के थे। जनवरी 1922 में एक दिन कासगंज तहसील के सरकारी अधिकारियों ने अपनी राजभक्ति प्रदर्शित करने के उद्देश्य से अमन सभा का आयोजन किया,जिसमें ज़िलाधीश, पुलिस कप्तान आदि शामिल हुए। छोटे -छोटे बच्चो को भी जबरदस्ती ले जाकर सभा में बिठाया गया। जिनमें से एक महावीर सिंह भी थे। अंग्रेजी हुक़ूमत  के पिठुओं ने गीत गाने शुरू किए  तभी बच्चों के बीच से महावीर सिंह ने जोर से नारा लगाया–
“महात्मा गांधी की जय’
  पूरा वातावरण इस नारे से गूँज उठा। देखते -देखते गांधी विरोधियों की वह सभा गांधी की जय जयकार के नारों से गूँज उठी ।
महावीर सिंह जी ने 1925 में  डी. ए. वी. कालेज कानपुर में प्रवेश लिया। तभी चन्द्रशेखर आज़ाद के संपर्क से हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिक एसोशिएसन के सक्रिय सदस्य बन गए। महावीर सिंह भगतसिंह के प्रिय साथी बन गए। उसी दौरान महावीर सिंह जी के पिता जी ने महावीर सिंह की शादी तय करने के सम्बन्ध में पत्र भेजा जिसे पाकर वो चिंतित हो गए | शिव वर्मा की सलाह से आपने पिताजी को पत्र लिख कर अपने क्रांतिकारी पथ चुनने से अवगत कराया ।
आपके पिताजी ने जो जबाब भेजा शायद ही किसी क्रांतिकारी के पिता ने भेजा होगा ।
   जिसमें लिखा था–
“”मुझे यह जानकर बड़ी ख़ुशी हुई कि तुमने अपना जीवन देश के काम में लगाने का निश्चय किया है। मैं तो समझता था कि हमारे वंश में पूर्वजों का रक्त अब रहा ही नहीं और हमने दिल से परतंत्रता स्वीकार कर ली है, पर आज तुम्हारा पत्र पाकर मैं अपने को बड़ा भाग्यशाली समझ रहा हूँ। शादी की बात जहाँ चल रही है, उन्हें यथायोग्य उत्तर भेज दिया है। तुम पूर्णतः निश्चिन्त रहो, मैं कभी भी ऐसा कोई काम नही करूंगा जो देशसेवा के तुम्हारे मार्ग में बाधक बने। देश की सेवा का जो मार्ग तुमने चुना है वह बड़ी तपस्या का और बड़ा कठिन मार्ग है लेकिन जब तुम उस पर चल ही पड़े हो तो कभी पीछे न मुड़ना, साथियो को धोखा मत देना और अपने इस बूढ़े पिता के नाम का ख्याल रखना। तुम जहाँ भी रहोगे, मेरा आशीर्वाद हमेशा तुम्हारे साथ है।—
-तुम्हारा पिता देवी सिंह

  इसी बीच लाहौर में पंजाब बैंक एक्शन की योजना बनी, लेकिन महावीर सिंह को विश्वसनीय कार नहीं मिलने  के कारण  एक्शन नहीं लिया जा सका।
सन 1929 में  केंद्रीय असेम्बली एक्शन के बाद आप भी पुलिस की गिरफ्त से नहीं बच सके।
   जेल में क्रान्तिकारियों के साथ 13 जुलाई 1929 से आमरण अनशन शुरू किया था। अनसन के 63 दिनों में ऐसा कोई दिन नहीं निकला जिस दिन आपको बिना पिटाई के नली से दूध दिया गया हो आपको काबू करने में आधे घंटे से कम समय लगा हो।

लाहौर षड्यंत्र केस के अभियुक्तों की अदालती सुनवाई के दौरान महावीर सिंह तथा उनके चार अन्य साथियों कुंदन लाल, बटुकेश्वर दत्त, गयाप्रसाद और जितेन्द्रनाथ सान्याल ने एक लिखित बयान देकर अदालत के गठन की वैधता को चुनौती देते हुए न्याय मिलने की उम्मीद से इन्कार किया । यह पत्र अपने आप मे ही क्रांति का स्वरूप प्रकट करता है।
“हमारा यह दृढ विश्वास है कि साम्राज्यवाद लूटने-खसोटने के उद्देश्य से संगठित किए गये एक विस्तृत षड्यंत्र के अलावा और कुछ नही है। —- क हर मनुष्य को अपनी मेहनत का फल पाने का पूरा अधिकार है और हर राष्ट्र अपने साधनों का पूरा मालिक है। यदि कोई सरकार उन्हें उनके इन प्रारम्भिक अधिकारों से वंचित रखती है, तो लोगों का कर्तव्य है कि ऐसी सरकार को मिटा दें।
चूँकि ब्रिटिश सरकार इन सिद्धांतों से जिन के लिए हम खड़े हुए हैं, बिलकुल परे है। इसलिए हमारा दृढ विश्वास है कि क्रान्ति के द्वारा मौजूदा हुकूमत को समाप्त करने के लिए सभी कोशिशें तथा सभी उपाय न्याय संगत हैं।
हम परिवर्तन चाहतेहैं–सामाजिक, राजनैतिक तथा आर्थिक सभी क्षेत्रों में आमूल परिवर्तन।
हम मौजूदा समाज को जड़ से उखाड़ कर उसके स्थान पर एक ऐसे समाज की स्थापना करना चाहते हैं, जिसमें मनुष्य द्वारा मनुष्य का शोषण असम्भव हो जाए और हर व्यक्ति को हर क्षेत्र में पूरी आजादी हासिल हो जाए।
रही बात उपायों की, शांतिमय अथवा दूसरे, तो हम कह देना चाहते हैं कि इसका फैसला बहुत कुछ उन लोगो पर निर्भर करता है जिसके पास ताकत है। क्रांतिकारी तो शान्ति के उपासक हैं, सच्ची और टिकने वाली शान्ति के, जिसका आधार न्याय तथा समानता पर है, न की कायरता पर आधारित तथा संगीनों की नोक पर बचाकर रखी जाने वाली शान्ति के। हम पर ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध युद्ध छेड़ने का अभियोग लगाया गया है पर हम ब्रिटिश सरकार की बनाई हुई किसी भी अदालत से न्याय की आशा नही रखते और इसलिए हम न्याय के नाटक में भाग नही लेंगें।
सांडर्स मामले में  महावीर सिंह को उनके सात अन्य साथियो के साथ आजन्म कारावास का दंड दिया गया।
महावीर सिंह और गयाप्रसाद को बेलोरी (कर्नाटक) सेंट्रल जेल में भेजा गया ।
जनवरी 1933 में उन्हें उनके कुछ साथियो के साथ अण्डमान भेज दिया गया ।

राजनैतिक कैदियों के साथ सम्मानजनक व्यवहार, अच्छा खाना, पढने -लिखने की सुविधायें, रात में रौशनी आदि मांगो को लेकर सभी राजनैतिक बंदियों ने 12 मई 1933 से जेल प्रशासन के विरुद्ध अनशन आरम्भ कर दिया। महावीर सिंह जी के अनशन के छठे दिन से ही अधिकारियों ने अनसन ख़त्म करने के लिए बलपूर्वक दूध पिलाने का कार्यक्रम आरम्भ कर दिया।
दिनाँक  17 मई 1933 को  दस -बारह व्यक्तियों ने मिलकर महावीर सिंह को जमीन पर पटक दिया और डाक्टर ने एक घुटना उनके सीने पर रखकर नली नाक के अन्दर डाली जो पेट में न जाकर महावीर सिंह के फेफड़ो में चली गयी है। जिसके कारण महावीर सिंह जी वीरगति को प्राप्त हुए। कमीनो ने क्रांतिवीर के शव को समुद्र के हवाले कर दिया।
महावीर सिंह के कपड़ों में उनके पिता का एक पत्र भी मिला था, जो उन्होंने महावीर सिंह के अण्डमान से लिखे एक पत्र के उत्तर में लिखा था। इसमें लिखा था कि
–”उस टापू पर सरकार ने देशभर के जगमगाते हीरे चुन -चुनकर जमा किए हैं। मुझे ख़ुशी है कि तुम्हें उन हीरों के बीच रहने का मौक़ा मिल रहा है। उनके बीच रहकर तुम और चमको, मेरा तथा देश का नाम अधिक रौशन करो, यही मेरा आशीर्वाद है।”
शत शत नमन क्रांतिवीर
व उनके महान पिताश्री को।

शहीद महावीर सिंह

:- क्रांति के सूत्रधार -:
– क्रांतिवीर सुखदेव –

क्रांति के सूत्रधार
क्रांतिवीर सुखदेव
सुखदेव का जन्म 15 मई 1907 को गांव नौधरा जिला लुधियाना पंजाब में हुआ था। सुखदेव की आयु तीन वर्ष की थी जब उनके पिता लाला रामलाल का देहांत हुआ। सुखदेव का पालन पोषण उनके ताया श्री अचिन्तराम ने किया था। अचिंत राम जी 1920 में लायलपुर  कांग्रेस के अध्यक्ष थे ।
ताया जी ने बचपन में सुखदेव को वीर पुरुषों के किस्से सुनाकर  क्रांति के बीज बो दिए गए ।
इसका उदाहरण मिला जब दीवाली पूजा हेतु माँ ने सुखदेव को लक्ष्मी जी की तस्वीर लेने हेतु भेजा पर सुखदेव रानी झांसी की तस्वीर  ले आए और  पूछने पर मां को  रानी झांसी की बहादुरी  के किस्से सुनाए।
जलियांवाला कांड के समय सुखदेव की आयु 12 वर्ष की थी । ऊधम सिंह जी व भगतसिंह जी की तरह जलियावाला कांड ने सुखदेव के दिल और दिमाक में भी अंग्रेजों के प्रति घृणा व बदले की भावना भरदी।
और जब 1920 में सुखदेव के पितातुल्य ताया जी को असहयोग आंदोलन के समय गिरफ्तार किया गया तो यह भावना और उग्र हुई।
सनातन धर्म स्कूल लायलपुर में  सुखदेव  ने परेड में एक अंग्रेज अफसर को सलामी देने से इनकार कर दिया ।
लंदन के इंडिया हाउस की तरह लाला लाजपत राय द्वारा स्थापित नेशनल कॉलेज लाहौर व इसका ‘ द्वारका प्रसाद पुस्तकालय’ , पुस्तकालय के अध्यक्ष राजाराम शास्त्री  व  प्रोफेसर जय चंद्र क्रांतिकारी पैदा कर रहे थे। जयचंद्र हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन के सदस्य थे। भगत सिंह, सुखदेव व भगवती चरण वर्मा, जयदेव ,जसवंत सिंह अन्य कई साथी इसी कॉलेज में साथ पढ़ते थे ।

जब साइमन कमीशन लाहौर आया था सुखदेव ,भगत सिंह और साथी लाला लाजपत राय के साथ साइमन कमीशन का विरोध किया था।

सुखदेव भगत सिंह पुराने साथियों ने 1925 में नौजवान भारत सभा का गठन किया। सुखदेव इस सभा के अध्यक्ष थे ,भगत सिंह महासचिव और भगवती चरण वर्मा प्रचार मंत्री थे । 1926 में इसे गुप्त क्रांतिकारी दल में परिवर्तित कर लिया गया ।
तत्पश्चात 8/ 9 सितंबर 1928 को दिल्ली के फिरोज शाह कोटला किले के खंडहर में “हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन” व हिंदुस्तान रिपब्लिकन आर्मी का गठन हुआ चंद्रशेखर आजाद इसके commander-in-chief थे ।
दल में सुखदेव को छद्दम नाम “विलेजर “से था ।
साइमन कमीशन 20 अक्टूबर 1928 में लाहौर पहुंचा। जिसके विरोध में नौजवान भारत सभा ने एक विराट जुलूस निकाला । जिसमें भगत सिंह आदि नेशनल कॉलेज के छात्र शामिल हुए। जुलूस पर पुलिस सुपरिंटेंडेंट स्कॉट ने लाठीचार्ज आदेश दिया और उप पुलिस अधीक्षक सांडर्स ने एक लाठी से लाला लाजपत राय के सिर पर प्रहार किया।
उस समय सुखदेव और भगत सिंह सांडर्स की तरफ लपके परन्तु लालाजी  समझ गए कि नौजवान पुलिस पर हाथ उठा बैठेंगे और जलियांवाला बाग की तरह एक और कहर ढ़ह जाएगा इसलिए दे लाला जी ने तुरंत जुलूस को समाप्त करने की घोषणा करदी। लालाजी का 17 नवंबर 1928 देहांत हो गया।
सुखदेव और भगत सिंह ने लाला जी के दाह संस्कार के समय ही इसका बदला लेने का निर्णय ले लिया था । और दल द्वारा योजनाबद्ध तरीके से दिलाना 17 दिसंबर को सांडर्स वध कर दिया गया ।
सांडर्स वध के बाद क्रांतिकारी फरार हो गए थे । इसके बाद केंद्रीय असेंबली में काले कानूनों का विरोध करने हेतु भगत सिंह को भेजे जाने का निर्णय भी सुखदेव का ही था।
  लाहौर में कश्मीरी बिल्डिंग का का एक भाग भगवती चरण वर्मा के नाम से किराए पर लिया गया था । जिसमें गुप्त रूप से बम  बनाने की फैक्ट्री स्थापित की गई थी । मुखविर सूचना पर पुलिस ने दिनांक 16 मार्च 19 को सुखदेव को इस फैक्ट्री से गिरफ्तार किया गया था।
जेल में अन्य क्रांतिकारीयों की तरह भूखहड़ताल के समय सुखदेव भी जुल्मों का शिकार हुआ।
अदालत ने अपने समक्ष पेश समस्त सबूतों के आधार पर सांडर्स वध व दल का सूत्रधार सुखदेव को माना और भगतसिंह को उसका दाहिना हाथ।
कुछ लोगों द्वारा सुखदेव के पुलिस को दिए गए बयानों को सही ढंग से नहीं देखा जा रहा ।
सुखदेव शुद्ध क्रांतिकारी थे।उनकी यह धारणा थी कि अदालत एक ढकोसला है फाँसी  तो होनी है फिर हमने आजादी के लिए जो क्रांतिकारी एक्शन लिए हैं, स्वीकार किया जाना चाहिए ताकि  आम जनता में देशभक्ति की भावना का प्रचार हो।
सुखदेव ने  उन्हीं ठिकानों का पता दिया था जो खाली कर दिए गए थे। सुखदेव की सूचना से न तो किसी की गिरफ्तारी हुई और न ही कोई बरामदगी ।
सुखदेव के  व्यक्तित्व को जानने के लिए उनके द्वारा गांधी को लिखे इस पत्र को पढ़िए।
“””””परम कृपालु महात्मा जी,
           हमारे क्रांतिकारी संगठन हिंदुस्तानी सोशलिस्ट रिपब्लिकन पार्टी नाम से ही साफ पता चलता है कि हमारा आदर्श समाजवादी प्रजातंत्र की स्थापना करना है। यह प्रजातंत्र मध्य का विश्राम नहीं है। जब तक उनका भी ध्येय प्राप्त न हो जाए और आदर्श सिद्ध न हो जाए ,तब तक लड़ाई जारी रहेगी, परंतु बदली हुई परिस्थितियों और वातावरण के अनुसार वे अपनी युद्ध -नीति बदलने को तैयार अवश्य होंगे। क्रांतिकारी युद्ध जुदा-जुदा मौकों पर जुदा-जुदा रूप धारण करता है ,कभी वह प्रकट होता है ,कभी गुप्त। कभी केवल  आंदोलन रूप है, कभी जीवन मरण का भयानक संग्राम बन जाता है। ऐसे में आपका क्रांतिकारियों से यह कहना कि वे अपना आंदोलन बंद कर दे, मेरी समझ में नहीं आता । क्रांतिकारियों के सामने अपना आंदोलन बंद करने के लिए ठोस कारण तो होने चाहिए । किसी भावपूर्ण अपीलों का क्रांतिकारी युद्ध में कोई महत्व नहीं हैं।
आपने ब्रिटिश सरकार से एक समझौता किया है और अपना आंदोलन बंद कर दिया है,
फल स्वरुप आपके कैदी रिहा हो गए हैं ,परंतु क्रांतिकारी कैदियों के लिए आपने क्या किया है? गदर पक्ष के बीसियों कैदी सजा की मियाद पूरी होने पर भी अब तक जेलों में सड़ रहे हैं । मार्शल ला के बीसियों कैदी सजा की मियाद पूरी हो जाने पर भी अब तक जेलों में बंद है , बीसियों जिंदा क़ब्रों  में दफनाए पड़े हैं। यही हाल बब्बर अकाली कैदियों का है । देवगढ़ , काकोरी, मछुआबाजार और लाहौर षड्यंत्र के कैदी अब तक जेल की चारदीवारी के पीछे पड़े हैं अपने दिल गिन रहे हैं । लाहौर, दिल्ली ,चटगांव ,मुंबई ,कोलकाता तथा अन्य कई जगहों पर आधे दर्जन से ज्यादा षड्यंत्र के मामले चल रहे हैं । बहुत बड़ी संख्या ऐसे क्रांतिकारियों की है। जो अपनी जान बचाने के लिए भागते फिर रहे हैं ,इनमें से अनेक स्त्रियां भी है। वे सब फांसी पर लटकाए जाने का इंतजार कर रहे हैं ,आपको इससे क्या ? ..यह सब होते हुए भी आप उन्हें अपना आंदोलन बंद करने की सलाह देते हैं ,वे ऐसा क्यों करें ..क्या आप ऐसी आर्चनाएं और अपीलें करके क्रांतिकारी आंदोलन को कुचलने में नौकरशाही की मदद नहीं कर रहे। क्या आप ऐसा करके क्रांतिकारियों को अपने से दल से द्रोह करने , पलायन करने और विश्वासघात करने का उपदेश नहीं दे रहे हैं?
इससे तो बेहतर था कि आप पहले उनसे बातचीत करते , उनके नजरिए को समझने का प्रयास करते , उसके बाद यदि आप आंदोलन बंद करने की बात कहते तो उसका औचित्य था। मैं नहीं मानता कि आप प्रचलित पुरानी कल्पना में विश्वास रखते हैं । क्रांतिकारी बुद्धिहीन है ,विनाश और सँहार कर आनंद मनाने में विश्वास रखते हैं। मैं आपके सामने यह साफ कह देना चाहता हूं कि स्थिति ठीक इसके उलट है ।
क्रांतिकारी जिम्मेदार व्यक्ति है । किसी भी काम को करने से पहले उस पर बारीकी से विचार करते हैं, तब कदम उठाते हैं । रही बात हिंसा की वारदातें करने की ,मौजूदा हालात में मुझे नहीं लगता कि इसके अलावा उनके सामने कोई और चारा है ।
सरकार ने क्रांतिकारियों के प्रति यह नीति बना रखी है कि उनके आंदोलन को जनता से जो सहानुभूति और सहायता मिल रही है , किसी तरह उसे बंद किया जाए और उन्हें जनता और राजनेताओं से अलग करके कुछ ना जाए कुचल दिया जाए। ऐसी दशा में मैं आपकी अपील क्रांतिकारियों को कुचलने  में सरकार की मदद ही करेगी ।
इसलिए हम आपसे प्रार्थना करते हैं कि या तो आप क्रांतिकारियों से बात कीजिए ,उनसे सुलह कीजिए या फिर अपनी ये प्रार्थनाएं बंद कर दीजिए ।””””
यह पत्र नवजीवन के 30 अप्रैल 1931 के अंक में प्रकाशित हुआ था ।
अपील आदि सब हो जाने के बाद फ़िरंगियों ने निश्चित तिथि से एक दिन पहले ही सब नियमों को तोड़ कर 23 मार्च 1931 को  रात्रि में 7 .33 बजे लाहौर जेल में सुखदेव, भगतसिंह व राजगुरु को फांसी दी गयी व  क्रांतिवीरों के शवों का अपमान कर सतलुज के किनारे जला दिया ।
शत शत नमन
महान क्रांतिवीरों को।
 

:-अमर शहीद राजगुरु-:

     :- क्रांतिवीर राजगुरु -:
राजगुरु का पूरा नाम शिवराम हरि राजगुरू था। आपका जन्म 24 अगस्त 1908 को पुणे जिला के खेड़ा गांव में हुआ था।
जब राजगुरु की आयु 6 वर्ष की थी तब आपके पिताजी का निधन हो गया था। एक बार सन 1924 में आप बड़े भाई से नाराज होकर बिना बतलाए घर से निकल पड़े व  घूमते फिरते झांसी पहुंचे वहां भी मन नहीं लगा तो काशी पहुंचे । काशी में एक संस्कृत विद्यालय में पढ़ना शुरु कर दिया व भाई को सूचना दे दी भाई ने पांच रुपये मासिक भेजने शुरू किए।
इस 5 रुपये से काम नहीं चलता था । आप गुरु जी  के घर पर खाना बनाना, बर्तन साफ करना, कपड़े धोना, झाड़ू लगाना और गुरु जी के पैर दबाने का काम करते और इसके बदले में गुरुजी आपको खाना और बिना फीस के शिक्षा देते।
यह सब रास नहीं आया तो पढ़ाई छोड़ दी और अंततः एक प्राइमरी स्कूल में  ड्रिल मास्टर बन गए ।
उस समय आपका संपर्क गोरखपुर स्वदेश सप्ताह के सह संपादक श्री मुनीश्व अवस्थी से हुआ ।
अवस्थी जी क्रांतिकारी दल के सदस्य थे। इस प्रकार राजगुरु हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन के सदस्य बने । राजगरु की प्रबल ईच्छा रहती की हर जोखिम वाले क्रांतिकारी एक्शन में वह सबसे आगे रहे।
राजगुरु की शिक्षा कम होने के कारण कई एक्शन में उन्हें शामिल नहीं किया जाता तो वे इससे ख़फ़ा रहते।
एक बार राजगुरु व शिव वर्मा को  किसी गद्दार का वध करने हेतु दिल्ली भेजा गया था । दोनों ने टारगेट को समझ लिया । दोनों के  पास एक ही रिवाल्वर था। एक और रिवॉल्वर की व्यवस्था हेतु शिव वर्मा लाहौर आये।  लाहौर से जब दूसरे दिन दिल्ली पहुंचे तो देखा की टारगेट स्थान पर किसी व्यक्ति को गोली मारकर हत्या कर दी गई व मारनेवाला फ़रार है।
बाद में पता चला भाई राजगुरु ने   अकेले ही एक्शन ले लिया व बड़ी बहादुरी से पुलिस फायरिंग के नीचे से फरार हो गए। पर मारा गया व्यक्ति टारगेट नहीं था।
असेंबली में बम एक्शन के समय भी राजगुरु ने इसमें शामिल होने की जिद की थी। आजाद जी ने समझाया कि नकली बम फेंकने के बाद अदालत में बैठे लोंगो व पत्रकारों कोअंग्रेजी में भारतीय क्रांतिकारीयों का उद्देश्य  समझाना है और यह सब तुम नहीं कर सकते ।

राजगुरु ने फिर ज़िद की मुझे इंग्लिश में लिख कर दे दो मैं रट लूंगा ।
इसी प्रकार लाला लाजपत राय की मौत का बदला लेने के एक्शन में पुलिस अधिकारी पर गोली भगत सिंह द्वारा चलाई जानी थी । क्योंकि भगत सिंह जी का रिवाल्वर भी बढ़िया किस्म का था। वह भगत सिंह का निशाना भी अच्छा था । लेकिन इस एक्शन में भी राजगुरु ने तुरंत अपनी पिस्तौल से सांडर्स के गोली मार दी ।
सांडर्स वध के बाद राजगुरु फरार हो गए और पूना चले गए पुणे में एक दो बार साथियों को अपना नाम व सांडर्स वध  के बारे में बता भी दिया। खबरें ख़ुफ़िया विभाग तक पहुँच चुकी थी ।
तब ही दिनांक 27 सितंबर 1929 को “काल “के प्रकाशक व संपादक श्री शिवराम पंथ परांजपे का देहांत हो गया था और उनकी शव यात्रा के जुलूस में राजगुरु ने भावुक होकर

”लोंग लीव रिवॉल्यूशन ”,
“डाउन विद इंपीरियल”

के नारे लगा दिए और यह नारे लाहौर एक्शन के समय से प्रसिद्ध थे। खुफिया विभाग के लोग शवयात्रा में साथ चल रहे थे और उन्होंने मौका मिलते ही राजगुरु को गिरफ्तार कर लिया ।
गिरफ्तारी के बाद जेल में राजगरु की भूख हड़ताल तुड़वाते समय भगत सिंह ने राजगुरु को छेड़ा

”आगे भागना चाहते हो बच्चू ”

और दूध का गिलास राजगुरु के मुंह के लगाकर कहा

“वादा करता हूं अब तुमसे सूटकेस नहीं उठाऊंगा ‘। ओर दोनों हँसने लगे ।

ज्ञात है सांडर्स वध के बाद जब भगतसिंह बाल छोटे कर हैट लगाकर दुर्गा भाभी के साथ फरार हुए तब राजगुरु कुली बन कर सूटकेस उठाये हुए चले थे।
आखिर 23 मार्च 1931 को लाहौर जेल में  शहादत का दिन आया व सुखदेव, भगतसिंह व राजगुरु ने इंकलाब जिंदाबाद के नारे लगाते हुए अपने प्राणों की आहुति दी।
शत शत नमन शहीदों को।

– क्रांतिकारी – –श्यामजीकृष्णवर्मा-

:-क्रांतिवीर श्यामजी कृष्ण वर्मा-:

  श्यामजी कच्छ के मांडवी कस्बे के गांव बलायल के निवासी थे।आपका जन्म अपने ननिहाल में 4 अक्टूबर 1857 में हुआ था। आपने 1870 में मिडिल परीक्षा में सर्वोत्तम अंक प्राप्त किए थे ।आप आर्य समाजी थे और महर्षि दयानंद सरस्वती का अनुसरण करते थे ।
सन 1875 में ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के संस्कृत के अध्यापक  मोनियर विलियम्स भारत आये हुए थे श्याम जी द्वारा संस्कृत में दिये गए भाषण से प्रभावित हो मोनियर ने उन्हें   ऑक्सफोर्ड  विश्वविद्यालय में आने का निमंत्रण दिया । जब श्यामजी लंदन गए तो मोनियर ने श्यामजी को ऑक्सफोर्ड में संस्कृत का सहायक प्रोफेसर नियुक्त करवा दिया ।
वे ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में संस्कृत, गुजराती व मराठी भाषा  पढ़ाने लगे ।अध्यापन के साथ साथ  श्यामजी ने अध्ययन कर बैलियज से M.A.पास की तथा सन 1884 मे बैरिस्टर बन कर भारत लौटे।
आप ने अजमेर मे वकालत के साथ स्वराज के लिए भी प्रयत्न किए। आप सन 1884 मे नगरपालिका अजमेर के अध्यक्ष बने ।
आप मध्यप्रदेश के रतलाम ,राजस्थान के उदयपुर व गुजरात के जूनागढ़, के दीवान भी रहे।  आपने बम्बई हाई कोर्ट में वकालत भी की ।
आपके तिलक जी अच्छे संबंध थे। ।चापेकर बधुओं के एक्शन के बाद तिलक जी की गिरफ्तारी हुई ।
तत्समय की भारतीय परिस्थितियों में आपने महसूस किया कि भारतीय राजे -महाराजे ,अंग्रेजों के पिठु है । इसलिए आजादी के लिये भारत से बाहर रहकर कार्य करने का निर्णय लिया।
आप इंग्लैंड आ गए । यहाँ आपने आयरलैंड के देशभक्तों व इंग्लैंड के रेडिकल नेताओं से संपर्क किया।
श्यामजी ने भारतीय छात्रों को अध्ययन हेतु ₹6000 की दो, छात्रवृत्ति एक स्वामी दयानंद के व दूसरी हरबर्ट स्पेन्सर के नाम, देनी शुरू की।

श्री एस आर राणा ने भी महाराणा प्रताप , शिवाजी के नाम से  छात्रवृत्तियां देनी शुरू की।
श्यामजी की छात्रवृत्ति की एक शर्त होती थी  कि छात्रवृत्ति लेनेवाले छात्र अध्ययन के पश्चात अंग्रेजों की नौकरी नहीं करेंगा।
  आपने  एस आर राणा व मैडम भीकाजी कामा के सहयोग से ” इंडियन सोशियोलॉजिस्ट “ मासिक पत्रिका अंग्रेजी भाषा में  शुरू की ।
इसमें भारतीय स्वतंत्रता के पक्ष में ज़ोरदार प्रकाशन किया जाता था।

उसी समय आपने होम रुल सोसायटी की स्थापना की।जिसका लक्ष्य भारत मे भारतीयों का शासन स्थापित करना था।
आपने लंदन में अंग्रेजों के नाक के नीचे हाईगेट में एक तीन मंजिला पुराना मकान खरीद कर इसमें अपने खर्चे से छात्रावास  संचालित करना शुरू किया। और इसका नाम रखा “” इंडिया हाउस “”।

कालांतर में यही इंडिया हाउस भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की लड़ाई का केन्द्र बना । इसी ने वीरसावरकर ,मदनलाल ढिगड़ा जैसे महान क्रांतिकारियों को जन्म दिया।
इंडिया हाउस से क्रांतिकारी लेखन होता था। भारतीय क्रांतिकारीयों को हथियार व बम्ब बनाने की कला भेजी जाती थी।

यह इंडिया हाउस ही था जिसमें अंग्रेजों की छाती पर वीर सावरकर के नेतृत्व में 10 मई 1857 की लड़ाई को प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम घोषित करते हुए इसकी वर्षगांठ मनाई गई ।
अन्ततः अंग्रेजों ने इंडिया हाउस बंद करवा दिया।
श्यामजी पेरिस गए वहाँ  मैडमभीकाजी पहले से ही “बंदेमातरम “ व “तलवार” का प्रकाशन कर रही थी।

श्याम जी ने उनके साथ वहाँ भी “इंडियन सोसियोलॉजिस्ट”,का भी प्रकाशन शुरू किया।
  श्याम जी  को 1908 में पेरिस से जिनेवा जाना पड़ा।
सन 1918 में बर्लिन व इंग्लैंड में आयोजित विद्या सम्मेलनों में भारत का प्रतिनिधित्व श्यामजी ने किया था।
जब वीर सावरकर को लंदन से गिरफ्तार करके समुद्री मार्ग से भारत लाया जा रहा था।  तो सावरकर को कैद से मुक्त कराने के लिए श्याम जी वर्मा ,मैडम भीकाजी कामा व एस आर राणा ने एक योजना तैयार की थी कि फ्रांस के बंदरगाह के पास वीर सावरकर समुद्र से छलांग लगाकर तैरते हुए फ्रांस के मार्सलीज के बंदरगाह पर पहुंचेंगे और वहां से एक टैक्सी से उन्हें सुरक्षित ले जाया जाएगा। था । 

सावरकर तो योजना अनुसार गिरफ्तारी से निकलकर समुद्र में कूद कर मार्सलीज बंदरगाह पहुंचे पर  टैक्सी पहुंचने में विलंब हो गया।
प्रथम महायुद्ध  के समय श्याम जी पर  कड़ी नज़र रखी जाने लगी।वहां  सुरक्षित नहीं थे।

इसलिए श्यामजी जिनेवा चले आए। और

जिनेवा में महानक्रांतिकारी स्वतंत्रता का सपना दिल मे संजोए दिनाँक 30 /31 मार्च 1930 स्वर्ग सिधार गए ।

श्याम जी की पत्नि का भी देहान्त जिनेवा में हुआ था। दाहसंस्कार के बाद उनकीअस्थियां  जिनेवा की सेंट जॉर्ज सिमेंट्री में रखी गयी थी ।                    जो स्वतंत्रत मातृभूमि के स्पर्श की प्रतीक्षा कर रही थी । यह प्रतीक्षा 2003 में पूर्ण हुई जब गुजरात के मुख्यमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने  स्विट्जरलैंड की सरकार से अनुरोध करके उनकी अस्थियों को भारत मंगवाया।
श्याम जी वर्मा के जन्म स्थल मांडवी में  “इंडिया हाउस ” की समान आकृति का भवन बनाकर इसका नामकरण ‘क्रांति-तीर्थ “किया गया व इसमें एक पुस्तकालय स्थापित किया गया है।

शत शत नमन

शत शत नमन
महान क्रांतिवीर को।

स्वतंत्रता संग्राम के अजेय योद्धा
   :- चंद्र शेखर ‘आज़ाद’ -:

      :- स्वतंत्रता संग्राम
                के
          अजेय योद्धा
   :- चंद्र शेखर ‘आज़ाद’  -:

जन्म –   23 जुलाई 1906
शहादत- 27 फरवरी 1931

चन्द्रशेखर का जन्म गांव भाँवरा तहसील झाबुआ तत्कालीन अलीपुर रियासत  में हुआ था।
चंद्र शेखर के पिता पंडित श्री सीताराम तिवारी आर्थिक रूप से कमजोर थे।
  सविनय अवज्ञा आंदोलन के समय बाराणसी में 13 से 15 वर्ष की आयु के बच्चों के एक जुलूस को पुलिस ने तितर -बितर कर उनके नेता को पकड़ कर मजिस्ट्रेट के पास पेश किया । बाल नेता की आयु लगभग 12 वर्ष थी।
मजिस्ट्रेट ने बालक से उसका नाम पूछा तो बताया “आजाद”।
दूसरे प्रश्न में पिता का पूछा नाम तो बालक ने बताया “स्वाधीनता’
मजिस्ट्रेट ने तीसरे प्रश्न में निवास स्थान पूछा तो बालक ने कहा “जेलखाना “।
नाराज होकर मजिस्ट्रेट ने बालक को 15  बेंते लगाने की सजा दी।
बालक को बांधकर बेंते लगाई गई। बेंत पड़ने के साथ ही बच्चे ने निडर होकर  नारे लगाए  , “महात्मा गांधी जी की जय”। बालक बेहोश हो गया।
बालक का शहर में अभिनंदन हुआ । कद छोटा था इसलिए भीड़ को दिखाने के लिए मेज पर खड़ा किया गया ।
इस घटना से बच्चे ने अपनी पहचान खुद बनाई थी जिसे हम  “आज़ाद ” से जानते है। आज़ाद  नाम सुनते ही फ़िरंगियों व पुलिस की घिग्घी बंध जाती थी।
गांधीजी द्वरा असहयोग आंदोलन वापस लिए जाने के बाद वही वीर बालक जो बेंते खाते समय महात्मा गांधी की जय बोल रहा था । गांधी आंदोलन से हटकर क्रांतिपथ की ओर चला।
उन दिनों सुरेश भट्टाचार्य बनारस में “कल्याण आश्रम ‘ के नाम से एक क्रांतिकारी संस्था चला रहे थे। शचींद्र सान्याल उतरी भारत आये हुए थे । इस समिति का विलय कर” हिंदुस्तान रिपब्लिक एसोसिएशन” क्रांतिकारी दल का गठन हुआ।  इसका बनारस में नेतृत्व शचिंद्र नाथ बक्शी तथा राजेंद्र लाहिड़ी ने किया ।
उत्तर प्रदेश के शाहजहांपुर में दल का नेतृत्व पंडित राम प्रसाद बिस्मिल कर रहे थे ।
दल में  अशफाक उल्ला खान , मन्मथ नाथ गुप्त, ठाकुर रोशन सिंह, रामकृष्ण खत्री, दामोदर सेठ ,भूपेंद्र सान्याल आदि लोग भी शामिल थे।  दल का उद्देश्य सशस्त्र क्रान्ति से अंग्रेजों को भारत से निकालना था।
इसी दल द्वारा 9 अगस्त 1925 को सफलता पूर्वक फ़िरंगियों का खजाना लूटा गया। इस घटना को काकोरी एक्शन के नाम से जानिए।काकोरी एक्शन में सबसे कम आयु के क्रांतिकारी आज़ाद जी थे। 8जो कभी गिरफ्तार नहीं हुए।
इसी दल द्वारा 31 दिसंबर 1926 को वायसराय इरविन की गाड़ी को बम्ब से उड़ाया था।

पर दुर्भाग्य से इरविन बच गया ।
फ़रारी के समय आज़ाद जी झांसी के ओरछा के जंगलो में हरिशंकर ब्रह्मचारी के नाम से गुप्त रूप से संगठन को तैयार करते रहे।
और 8 सितंबर 1929 को  दिल्ली के फिरोज शाह कोटला मैदान में क्रांतिकारियों की एक गुप्त सभा हुई व हिदुस्तान रिपब्लिक एसोसिएशन में   भगत सिंह  ने ‘सोशलिस्ट ‘ शब्द और जोड़ा गया । इसकी  प्रचार शाखा मुखिया भगतसिंह व आर्मी शाखा का कमांडर- इन- चीफ़ आज़ाद जी थे।
साइमन कमीशन 20 अक्टूबर 1928 को लाहौर आया जिसका काले झंडे दिखाकर विरोध किया गया। इस प्रदर्शन में इस दल के लोग साथ थे। पुलिस ने लाठीचार्ज किया  लाला लाजपतराय  को गंभीर चोटे आई जिससे लाला जी का दिनाँक 17 नवम्बर 1928 को देहान्त हो गया। 
पंजाब के ही नहीं पूरे देश के क्रांतिकारियों ने लाला जी की मृत्यु को राष्ट्रीय अपमान माना और इस अपमान का  बदला  आज़ाद जी के नेतृत्व में भगतसिंह, राजगुरु ने  दिनांक 17 दिसंबर 1928 को सांडर्स का वध करके लिया था।
इसी दल की तरफ से शहीदेआजम भगतसिंह की योजना के अनुसार  8 अप्रैल 1929 को असेंबली में नकली बम डालकर अंग्रेजी कुशासन की बात अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहुंचाई  गई थी।

इसके बाद भगत सिंह राजगुरु, सुखदेव की गिरफ्तारी हो गयी कुछ लोग सरकारी गवाह बन गए।

संगठन बिखर गया । गांधीजी व कांग्रेस ने आज़ाद जी की कोई सहायता नहीं की। 
आज़ाद जी ने गदरपार्टी के पुराने क्रांतिकारी पृथ्वी सिंह जी से सम्पर्क किया जिहोंने  भगतसिंह व साथियों को जेल से बाहर निकालने की जुम्मेवारी ली।
इसी योजना के संबंध में दिनाँक 27 फरवरी 1931 को आज़ाद जी अल्फ्रेड पार्क में थे ।
किसी देशद्रोही ने पुलिस को ख़बर कर दी  ऐतिहासिक मुठभेड़ हुई और आज़ाद जी ने अपने ही माउजर की आखिरी गोली से आत्म बलिदान किया।
आजाद जी हमेशा कहते थे
” दुश्मन की गोलियों का हम सामना करेंगे,
आजादी ही रहे हैं  आज़ाद ही रहेंगे ।”
और अपने माउजर पर हाथ रखकर  कहते थे
“जब तक  यह बम- तूरू- बुखारा मेरे पास है, तब तक कोई माई का लाल मुझे पकड़ नहीं सकता। मैं आजाद हूं। आजाद ही रहूंगा । आज़ाद जी सर्वश्रेष्ठ संगठन कर्ता थे । बिग -एक्शन (डाका या वध )में साथियों की छाया बन कर वेश बदले साथ रहते थे ।

आज़ाद जी आवाज पर निशाना लगा देते थे।

सांडर्स वध के बाद घटना स्थल से भगत सिंह दौड़े भगत सिंह को पकड़ने के लिए उनके उसके पीछे चंदन सिंह था। उसके पीछे राजगरु जो भगतसिंह को बचाने के लिए भाग रहा था ।

चननसिंह शरीर में बहुत तगड़ा था और यह तय था कि वह दोनों में से किसी एक को पकड़ ही लेगा ।

आज़ादजी डी ए वी होस्टल के बरामदे से नज़र रखे हुए थे क्योंकि एक्शन के बाद यहीं आना था।

तीनो आगे पीछे दौड़ रहे थे । विकट स्थिति थी । आज़ाद जी की पहली गोली चननसिंह सिंह के कान के पास से गुजरी दूसरी पेट मे ओर चननसिंह ढेर।
आज़ाद जी महिलाओं का बहुत सम्मान करते ।

एक बार  डाका एक्शन में एक  तकड़ी महिला ने चंद्रशेखर आजाद का हाथ पकड़ लिया भैयाजी ने हाथ छुड़ाने के लिए महिला पर जोर नहीं आजमा रहे थे  इतने में बिस्मिल आये व छुड़ा कर ले गए।

  एक बार रामकृष्ण खत्री ने धन प्राप्त की  योजना बनाकर आज़ाद जी को गाजीपुर में एक उदासियां महंत का शिष्य बना दिया। योजना थी कि महंत वृद्ध है मरते ही डेरा अपना। आजाद जी ने  कुछ दिन बाद वहाँ रहने से मना कर दिया। मन्मथ नाथ गुप्त व खत्री जी मिलने गए तो आज़ाद जी व्यथा सुनाते हुए कहा ।  यह साला महंत अभी मरने वाला नहीं है ,खूब दूध पीता है । यह दोनों शीघ्र बुलाने का आश्वासन देकर आ गए एक-दो दिन तो आज़ाद जी इंतजार किया फिर मौका देख कर बिना सूचना के ही मठ छोड़ कर निकल आए ।
एक असहयोग आंदोलन के समय लड़कियों ने चूड़ी आंदोलन शुरू कर रखा था । लड़कियां चूड़ियां लेकर सड़कों पर घूमती थी और जो भी युवापुरूष दिखाई देता उसे  चूड़ियां पहना कर कहती है आजादी की लड़ाई लड़ नहीं सकते तो चूड़िया पहन कर बैठ जाओ।
बहनों का एक दिन आजाद जी से  सामना हो गया उन्होंने पकड़ा हाथ और चूड़ियां डालने लगी कई ।वो आज़ाद का हाथ था चूड़ियां छोटी थी ।  आज़ाद जी कहा बहन ऐसी चूड़ी नही बनी जी मेरे हाथ में पहनाई जा सके।
आजाद जी का  मूंछो पर ताव लगाते हुए जो फ़ोटो हम देखते है ।यह फ़ोटो मास्टर रूद्र नारायण सिंह जो चित्रकार व फोटोग्राफर  भी थे ने लिया था। मास्टर जी ने आज़ाद जी कहा मुझे तुम्हारा फ़ोटो खिंचने दो । आज़ाद जी ने कहा मूंछो पर ताव लगाने दो ।इधर से आजाद जी ने मूंछो पर ताव लगाने हेतु हाथ लगाया कि मास्टर जी ने कैमरा क्लिक कर दिया । आज यह फ़ोटो   राष्ट्र की थाती है।

एक घटना जिसे सुनकर आंखे भर आती है यह जानकर आज़ाद जी क्या थे !   
हुआ यह कि एकबार गणेश शंकर विद्यार्थी जी ने आज़ाद जी को 200 रुपये माता जी को घर भेजने हेतु दिये । दल में खाने के लिये रुपये नहीं थे इसलिये आजाद जी ने वो राशि दल के लिए खर्च करदी ।
जब पूछा गया कि माँ को रुपये क्यों नहीं भेजे तो आज़ाद जी उतर सुनकर आप सोच सकेंगें की ऐसा महान क्रांतिकारी शायद ही कोई दूसरा हुआ हो ।
आज़ाद जी ने कहा  उस बूढ़ी के लिए पिस्तौल की दो  गोलीयां काफी है। विद्यार्थी जी , इस गुलाम देश में लाखों परिवार ऐसे है जिन्हें एक समय भी रोटी नसीब नहीं होती । मेरी माता दो दिन से एक बार तो भोजन पा ही जाती है, वे भूखी रह सकती है,पर पैसे के लिए पार्टी के सदस्यों को भूख नहीं मरने दूंगा।उनकी आवश्यकताओं को पूरा करना सर्वप्रथम कर्तव्य है। मेरे माता पिता भूखे मर भी गए तक उससे देश को कोई नुकसान  नहीं होगा,एसे कितने ही इसमें मरते जीते हैं।””
शत शत नमन।

:- काकोरी वीर -:
        :- राजेंद्र लाहिड़ी -:

        :- काकोरी वीर -:
        :- राजेंद्र लाहिड़ी -:

राजेन्द्र लाहिड़ी गांव मोहनपुर जिला पबना ,बंगाल के निवासी थे। आपका जन्म 29 जून1901 को हुआ  था।
आपके जन्म के समय आपके क्रांतिकारी पिता श्री क्षितिमोहन मोहन व बड़े भाई  बंगाल की गुप्त क्रांतिकारी संस्था अनुशीलन दल की  गतिविधियों में योगदान देने के आरोप में कारावास में थे ।
आप 9 वर्ष की आयु में अपने मामा के घर वाराणसी आ गए थे ।आपकी शिक्षा वाराणसी से ही संपन्न हुई थी।
राजेंद्र लाहिड़ी ने F.A. व B.A. इतिहास व अर्थशास्त्र में की आपका दोनों ही विषयों का गहराई से ज्ञान था । उन दिनों में आप इतिहास विषय मे

M A. कर रहे थे।
आपकी पठन-पाठन  व बांग्ला साहित्य में रूचि होने के कारण आपने  भाइयों के साथ मिलकर अपनी माताजी की यादगार में बसंत कुमारी नामक एक पुस्तकालय विस्थापित किया।
काकोरी एक्शन के समय आप हिंदू विश्वविद्यालय की बांग्ला साहित्य परिषद के मंत्री भी थे। आपके लेख’ बंगवाणी’ व ” शंख ”  आदि बांग्ला पत्रों में छपते थे। बनारस के क्रांतिकारियों के हस्तलिखित पत्र ‘”अग्रदूत “के प्रवर्तक  भी आप ही थे।
आप  हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन के सदस्य थे ।
काकोरी एक्शन के बाद आपको दल ने बम बनाने की विद्या सीखने के लिए बंगाल भेजा था । वहां पर दक्षिणेश्वर में आप पुलिस द्वारा पकड़े गए और अन्य साथियों के साथ आपको भी  10 वर्ष की सजा हुई थी ।

काकोरी एक्शन में बनारसी दास ने आपको  संगठनकर्ता  बताया जिसके आधार पर आपको बंगाल से लखनऊ लाया गया और काकोरी केस में शामिल किया गया । काकोरी एक्शन में आपको भी फाँसी की सजा हुई थी। फैसले सुनने के बाद जिंदादिली को नमूना आपने फांसी की सजा के बाद जज की तरफ आंख मार कर दिया। फैसले के बाद अदालत के बाहर खड़े जनसमुदाय को सम्बोधित कर आपने साथियों सहित गया –


“” दरो -दीवार पे हसरत से नजर करते हैं।
खुश रहो अहले- वतन हम तो सफर करते हैं “।
काकोरी में आपको 17 दिसंबर 1927 को  गोंडा जेल में फाँसी दी गयी ।
क्रांतिकारियों की प्रथा निभाते हुए आपने भी फांसी वाले दिन सुबह उठकर अपनी दैनिक दिनचर्या पूरी की गीता का पाठ किया और प्रसन्नता पूर्वक खुद ही फांसी घर की ओर गए रस्सी को चूम कर अपने हाथ से ही उसे गले में पहन लिया और वंदेमातरम के साथ ही माँ भारती के चरणों मे एक और आहुति दी।

आपने घोषणा की थी कि मैं मरने नहीं जा रहा अपितु आजादी की लड़ाई को निरन्तर रखने के लिये पुनर्जन्म लेने जा रहा हूँ।
शत शत नमन।

आज़ादी दो क़दम दूर थी

भारतीय क्रांतिवीरों द्वारा समस्त भारत मे एक ही दिन आज़ादी की लड़ाई लड़ना तय कर योजना बनाई पर हमारे ही ग़द्दारों के द्वारा इसकी सूचना अंग्रेजों को देदी जिसके कारण क्रांतिकारी यह लड़ाई बिना लड़े ही हार गए।
       भारतीय क्रांतिकारी गंभीर अध्ययन के बाद इस निष्कर्ष पर पहुंचे की देश को अंग्रेजों से आजाद कराने के लिए उनके पास आदमियों व हथियारों  की कमी है तथा हथियार खरीदने के लिए धन भी नहीं है।
क्रांतिकारीयों ने इन कमियों को दूर करने के लिए यह योजना बनाई कि ब्रिटेन के दुश्मन देशों से सहयोग लिया जावे , अंग्रेजी सेना में जो भारतीय सैनिक है उन्हें भी आज़ादी के लिए अंग्रेजों के विरुद्ध  युद्ध के लिए तैयार किया जावे व धन उपार्जन हेतु अमीर लोगों व सरकारी खजानों को लूटा जाय।
समस्त तैयारी के बाद देश के समस्त  क्रांतिकारियों को एक निश्चित तिथि व समय पर अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ाई का आह्वान किया जावे।
युद्ध की तैयारी के क्रम में देश मे बम्ब बनाने का कारखाना लगाने के उद्देश्य से हेमचंद्र कानूनगो व  पांडुरंग एम बापथ को बम्ब बनाने की प्रक्रिया सीखने हेतु विदेश भेजा गया उन्होंने रूसी क्रांतिकारी निकोलस सर फ्रांसकी से बम बनाना सिख कर आये व भारत मे बम्ब बनाने का कारखाना लगाया। पिंगले 10 ऐसे शक्तिशाली बम्ब लेकर मेरठ  छावनी पहुंच गए थे। जिनके पकड़े जाने के बाद अंग्रेजी सरकार की रिपोर्ट थी कि इन मेसे एक बम्ब से सारी छावनी को तबाह किया जा सकता था ।
बाघा जतिन ने वीरेंद्र नाथ चट्टोपाध्याय @ चट्टो को सैनफ्रांसिस्को भेजा । चट्टोपाध्याय ने ग़दर पार्टी के सदस्यों की भारत को  हथियार भेजने हेतु जर्मन राजदूत थियोडर हेलफरीश से  सौदा किया ।
भारतीय क्रांतिकारियों के दिमाक में  यह बात स्पष्ट थी कि कहीं अंग्रेजों से पीछा छुड़ाकर  जर्मनी और जापान वालों के अधीन न हो जाए । इसलिए जर्मनी से  हथियारों की सहायता हेतु जो करार किया गया उसमें स्पष्ट लिखा गया कि हथियारों की कीमत आजादी के बाद जर्मनी को दी जाएगी ।आजादी के बाद जर्मनी का भारत पर किसी तरह का कोई दावा नहीं होगा ।जर्मन फ़ौज भारत मे प्रवेश नहीं करेगी।
संगठन व छावनियों में भारतीय सैनिकों से  सम्पर्क के क्रम में  फिरोजपुर में  संगठन भार रासबिहारी बोस और करतार सिंह सराभा को सौंपा गया ।
जबलपुर, अजमेर ,बरेली, बनारस, दानापुर, गुवाहाटी, मेरठ व  रावलपिंडी की सैनिक छावनियों में सम्पर्क का भार  नलिनी मोहन मुखोपाध्याय, प्रताप सिंह बारठ,  दामोदर स्वरूप, शचींद्रसान्याल , नरेंद्र नाथ, विष्णु गणेश पिंगले,  तथा निधान सिंह को सौंपा गया।
हिरदेराम को जालंधर छावनी, प्यारा सिंह को कपूरथला छावनी तथा डॉक्टर मथुरा सिंह को पेशावर की छावनी में भेजा गया।
सभी छावनियों में भारतीय सैनिकों ने अंग्रेजों को मार भगाने हेतु साथ देने का विश्वास दिलाया।

आज़ादी दो कदम दूर थी
        21फरवरी 1915

इस क्रांति को और बल मिला जब  कनाडा सरकार ने भारतीय लोगों को कनाडा से बाहर निकालने के लिए मजबूर कर रही थी और कामागाटामारू जहाज के कलकत्ता पहुंचने पर जहाज में सवार प्रवासी भारतीयों को बजबज में रेलगाड़ी द्वरा बलपूर्वक पंजाब लाये जाने की कोशिश की गई जिसमें  कुछ सिखों को मार दिया व कुछ को गिरफ्तार किया गया।
इस घटना का समाचार देश विदेश में पहुंच गया । विदेशों में ग़दर पार्टी आजादी के लिए सक्रिय थी।
विदेशों में खबर फेल गई कि अंग्रेजों को भारत से भगाने के लिए जंग होनेवाला है ।
इस प्रतिक्रिया में प्रवासी भारतीयों ने भी भारत आकर अंग्रेजों को भारत से मार भगाने की तैयारियों के भारत का रुख किया ।
अलग अलग जहाजों से  प्रवासी भारतीय जिनमे अधिकतम सिख व गदर पार्टी के सदस्य थे, अपने हाथों में  हथियार लिए गदर की गूंज मचाते हुए कोरिया टोषामारू, माशियामारू, कवाचिमारू सलमिस नामक व अन्य जहाजों से भारत पहुंचे। जिनकी कुल संख्या लगभग 8000 थी।
रासबिहारी बोस ने क्रांतिकारी चिंताकरण पिल्ले को एक जापानी पनडुब्बी से अंडमान भेजा ताकि वह वीर सावरकर अन्य क्रांतिकारियों को जेल से मुक्त कराकर भारत ले आये ।  पिल्ले बंगाल की खाड़ी जाने में सफल नहीं हो सके और उनकी पनडु्बी नष्ट कर दी गई । क्योंकि इसकी सूचना अंग्रेजों को पहले से हो चुकी थी ।

अमरीका से तोशामारू जहाज से सोहन सिंह जी , निधान सिंह जी, अरुण सिंह जी, केसर सिंह जी पंडित जगत राम हरियाणवी आदि भारत आए 29 अक्टूबर को यह जहाज कोलकाता पहुंचा परंतु पुलिस को पूर्व में खबर हो चुकी थी।जहाज भारत पहुंचते ही 173 सिखों को गिरफ्तार कर लिया गया । जिनमें से 73  तो जेल से भाग निकले ।
देश के गद्दार हमेशा ही देश का दुर्भाग्य बने है । इस बार भी यही हुआ एक पुलिस अधिकारी ने कृपाल सिंह नामक एक व्यक्ति को क्रांतिकारी दल में शामिल करवा दिया जो सारी खबरें अंग्रेजों को देने लगा।
भारतीय क्रांतिकारियों ने इस महान युद्ध के लिए 21 फरवरी 1915 की तिथि निश्चित करते हुए सब जगह सूचना  दे दी । गद्दार कृपाल सिंह ने इस कि सूचना अंग्रेजों को दे दी ।
इसपर जंग की तिथी दो दिन पहले यानी 19 फ़रवरी तय की गई । करतार सिंह जी को ज्ञान नहीं था कि कृपालसिंह गद्दार है उन्होंने परिवर्तित तिथि भी कृपाल सिंह को बता दी ।
यह खबर भी अंग्रेजों तक पहुंच गई फिर क्या होना था ?
अंग्रेजों ने छावनियों में भारतीय सैनिकों से हथियार ले लिए व क्रान्तिकारीयों की धर पकड़ शुरू हो गई ।
  क्रांतिकारियों ने  बंगाल व महाराष्ट्र के क्रांतिकारी प्रथा के अनुसार कृपालसिंह गोली मार देते तो ठीक रहता  ।
हालांकि बाद में 1931 में गदरी बाबा हरनाम सिंह ने रामशरण दास व अमर सिंह के साथ कृपाल सिंह का वध करना चाहा परंतु वह बच गया । अंततोगत्वा ग़द्दार को सजा तो मिलनी ही थी ।कुछ दिनों बाद इस गद्दार को जांबाजों ने उसके घर पर ही मार दिया । मरनेवालों का पता ही नहीं चला
उधर जर्मन काउंसलर की मार्फत हत्यारों का जहाज “मेवरिक “की भी सूचना किसी ग़द्दार ने अंग्रेजों को दे दी।
संभवतः हथियार एक अन्य जहाज Amber Larsen द्वारा लाये जाने थे व रास्ते में कहीं इस जहाज से हथियार मेवरिक में रखे जाने थे। और मेवरिक को भारत आना था।Amber Larsen जहाज वाशिंगटन में पकड़ लिया गया था।
इसी कारण यह मेवरिक को हथियार नहीं दे सका तभी मेवरिक कि बटेविया (जावा) में तलाशी ली गई तो इसमें हथियार नहीं थे।
हेनरी नामक जहाज भी मनीला में पकड़ लिया गया व हथियार उतरवा लिए गए।
एक पुस्तक में लिखेनुसार गदर पार्टी के रामचंद्र व जर्मन राजदूत ने केलिफोर्निया के सेनपेड्रो बंदरगाह से मेवरिक में हथियार भेजे थे जिसमें  25  लोग ईरानी वेशभूषा में थे ।
एक किताब में यह भी लिखा है कि रामचंद्र को  गदरी बाबा ने पार्टी हितों के खिलाफ काम करने के कारण अदालत में ही मार दिया था
    मेवरिक में हथियार M N रॉय @ नरेंद्र नाथ  भट्टाचार्य छदम नाम C Martin द्वारा लाये जाने थे जो जर्मन सहायत के पक्ष में नहीं था । फिर जब  मेवरिक की तलाशी  हुई तो उसमें हथियार नहीं थे । नरेन्द्र भी नहीं था। । यह भी कहा जाता है वो रूस भाग गए ।
कुछ भी हो भी शोध का विषय है कि मेवरिक की खबर अंग्रेजों तक कैसे पहुंची व हथियार मेवरिक में रखे गए या नहीं ????
एक ओर जहाज द्वारा श्याम (थाईलैंड)के राजदूत ने 5000 बंदूके व एक लाख रुपये नगद भेजे यह जहाज रायमंगल पहुँचना था ।  इसकी सूचना भी अंग्रेजों को दे दी गयी व  यह जहाज भी पकड़ा गया।
इसी बीच जर्मनी से हथियारों के दो और जहाज भेजे गए परंतु सूचना होने के कारण फिलीपाइन के पास पकड़ लिये गए।
बाघा जतिन हथियारों के इंतजार में थे जिसकी मुखवीरों ने सूचना दे दी । मुठभेड़ में बाघा शहीद हो गए व युगान्तर के सभी गुप्त ठिकानों पर छापे मारे गए ।
योजन के अनुसार विष्णु पिंगले 10 शक्तिशाली बम लेकर मेरठ छावनी पहुंच गए परंतु वहां भी नादिर खान नामक सहयोगी ने 23 मार्च 1915 को पिंगले को पकड़ा दिया।
करतार सिंह जी सराबा  योजना अनुसार करीब 80 क्रांतिकारियों को लेकर निर्धारित स्थान  मेरठ छावनी में पहुंच मजबूरन उन्हे भी वापस लौटना पड़ा ।
इस बीच शचींद्र बक्शी स्वंम मछुआरे के भेष में छोटी जहाज से 3 किलोमीटर समुन्द्र में गए व एक छोटे पार्सल लाने में सफ़ल रहे । इसमें इ 50 जर्मन माउजर थे।  अल्फ्रेड पार्क में मुठभेड़ के समय चंद्रशेखर आजाद के पास इन मे से ही प्राप्त एक था ।
यह सुनहरा मौका था देश को आज़ाद करवाने का जो ग़द्दारों के कारण चूक गए।
परिस्थितियों को समझिए ब्रिटेन प्रथम महायुद्ध में उलझा था। भारत से करीब 150000 सैनिक देश से बाहर लड़ने भेजे गए थे ।
भारत मे उस समय मात्र 15000 सैनिक थे और भारतीय छावनियों में सैनिकों ने क्रांति में साथ देने का विश्वास भी दिलाया हुआ था।
  ब्रिटिश सेना में पंजाब के गवर्नर ओ डायर ने स्वयं लिखा है””

प्रथम महायुद्ध के दौरान ब्रिटिश सरकार बहुत कमजोर हो चुकी थी हिंदुस्तान में केवल 13000 गोरी पोस्ट थी जिसकी नुमाइश बारी बारी से सारे हिंदुस्तान में करके ब्रिटिश शान को कायम रख़ने की चेष्टा की जा रही थी । ये गोरे भी बूढ़े थे। नौजवानों  तो यूरोप के क्षेत्रों में लड़ रहे थे। ऐसी स्थिति में गदर पार्टी की आवाज मुल्क तक पहुंच जाती तो निश्चय है कि हिंदुस्तान अंग्रेजों के हाथ से निकल जाता ।”””

रोना आता है हमारे राजनेताओं पर ठीक उस समय जब एक तरफ क्रांतिकारीयों ने युद्ध इस स्तर पर आज़ादी के लिए जंग की तैयारी कर रही थी ।
उस समय कांग्रेस व मुस्लिम लीग  क्या कर रही थी ।,
इसका भी उल्लेख करना है महात्मा जी बिना न्यौते के ब्रिटिश सरकार की प्रथम महायुद्ध में सहायता करने पहुंचे व सहायता की जिसके लिए 1915 में हार्डिंग ने गाँधीजी को हिन्द -ए -केसरी का खिताब दिया।यह वही हार्डिंग जो चांदनी चौक में क्रांतिकारीयों द्वारा फेंके गए बम्ब से बच गया था।प्रथम महायुद्ध में 74187 भारतीय सैनिक मारे गए थे तथा 67000 भारतीय सैनिक घायल हुए थे ।
यह कैसी अहिंसा थी?
ब्रिटिश साम्राज्यवाद को बचाने के लिए 74187 भरतीयों के प्राण लिए जा सकते है पर देश की आजदी के लिए नहीं ।
अगर बापू उस समय भारतीय सैनिकों को अंग्रेजों को देश से भगाने का आह्वान कर देते तो आजादी दूर नहीं थी ।
   कांग्रेस के 1914 में मद्रास में हुए अधिवेशन में गवर्नर ने भाग लिया। इस अधिवेशन में कांग्रेस में ब्रिटिश शासन के प्रति अटूट विश्वास होने का प्रस्ताव पारित हुआ।

मुस्लिम लीग की स्तिथि स्पष्ट हो गई जब  1913 में लखनऊ अधिवेशन में लीग अध्यक्ष मोहम्मद शफी ने अपने भाषण से मुस्लिम लीग का उद्देश्य राज भक्ति तथा मुस्लिम हित रक्षा के साथ उपयुक्त स्वायत शासन हासिल करना बताया
इससे पता चलता है मुठ्ठीभर फ़िरंगियों ने 175 वर्ष 40 करोड़ भारतीयों पर कैसे राज कर गए ।
धिक्कार धिक्कार

-:- काकोरी वीर – :-
:- ठाकुर रोशन सिंह -:

       -:- काकोरी वीर – :-
      :- ठाकुर रोशन सिंह -:

जन्म – :- 22 जनवरी 1892

शहादत- 19 दिसम्बर 1927
       रोशन सिंह जी का जन्म एक संम्पन क्षत्रिय परिवार में फतेहगंज से 10 किलोमीटर दूर गांव नबादा तत्कालीन जनपद शाहजहांपुर  उत्तरप्रदेश में हुआ।
आप में निशानेबाजी घुड़सवारी , कुश्ती आदि के सभी गुण थे ।
आपने उत्तर प्रदेश में असहयोग आंदोलन के दौरान ग्रामीण क्षेत्र में किसानों के हक में योगदान किया था । बरेली में आंदोलन के समय  पुलिसवालों की सशस्त्र टुकड़ी ने निहत्थी जनता की तरफ बंदूकों का रुख किया ।
भला क्षत्रिय ख़ून यह कब बर्दाश्त करता आपने एक सिपाही की ही राइफल छीन कर पुलिस की तरफ अंधाधुंध फायरिंग की । हमलावर पुलिस  मैदान छोड़कर भाग गई ।इस बहादुरी के ईनाम स्वरूप आपको दो वर्ष कठोर कारावास मिला।
सजा काटने हेतु आपको बरेली सेंट्रल जेल में 2 वर्ष के लिए रखा गया था । उसी समय आपका कानपुर निवासी क्रांतिकारी पंडित राम दुलारे द्विवेदी से परिचय हुआ । जो आपको पंडित रामप्रसाद बिस्मिल के क्रांतिकारी दल हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन तक ले गया।

क्रांतिकारियों की योजना के अनुसार  25 दिसंबर 1924 को बमरोली एक्शन किया गया था जिसमें जनता का खून चूसने वाले एक सूदखोर बलदेव प्रसाद के यहां डाका डाला गया था ।
सेठ जी के पहलवान मोहन लाल ने ललकाला तो  ठाकुर रोशन सिंह की राइफल से निकली एक ही गोली ने ही मोहनलाल का काम तमाम कर दिया।
इसी एक्शन के लिए  भी ठाकुर साहब को फांसी की सजा हुई थी।
      इसके बाद काकोरी एक्शन में ठाकुर साहब शामिल  नहीं थे फिर भी केशव चक्रवर्ती की जगह रोशनसिंह जी को बताते हुए अभियोग प्रस्तुत हुआ और ठाकुर साहब को मृत्यु दण्ड सहित कारवास की सजाए हुई।
हर क्रांतिकारी एक्शन की तरह अपील व माफीनामों का ड्रामा हुआ ।
अन्ततः आपने भी क्रांतिकारी इतिहास को गति प्रदान करते हुए दिनाँक 19 दिशम्बर 1927  प्रातः उठ स्नान ध्यान पूजापाठ कर स्वयँ ही पहरेदार से कहा चलो।

फाँसी के फंदे को चूमने के बाद तीन बार इंकलाब जिंदाबाद के नारे लगाए संस्कृत में श्लोक पढ़ कर माँ भारती के चरणों मे प्राणों की आहुति दी।
फांसी से कुछ पहले ठाकुर साहब ने 13 दिसंबर 1927 को मलाका जेल की कालकोठरी से अपने मित्र को लिखें एक पत्र में लिखा

“इस सप्ताह के भीतर ही फांसी होगी। ईश्वर से प्रार्थना है कि वह आपको मोहब्बत का बदला दे । आप मेरे लिए रंज हरगिज़ न करें । मेरी मौत खुशी का बाइश होगी। दुनिया में पैदा होकर मरना जरूर है। दुनिया में बदहाली करके अपने को बदनाम न करें और मरते वक्त ईश्वर की याद रहे; यही दो बातें होनी चाहिए और ईश्वर की कृपा से मेरे साथ यह दोनों ही बातें हैं। इसलिए मेरी मौत किसी प्रकार अफसोस के लायक नहीं है दो साल से बाल- बच्चों से अलग रहा हूं । इस बीच ईश्वर भजन का खूब मौका मिला। इससे मेरा मोह छूट गया है और कोई वासना बाकी न रही । मेरा पूरा विश्वास है कि दुनिया की कष्टभरी यात्रा समाप्त करके मैं अब आराम की जिंदगी जीने के लिए जा रहा हूं। हमारे शास्त्रों में लिखा है कि जो आदमी धर्मयुद्ध में प्राण देता है उसकी वही गति होती है जो जंगल में रहकर तपस्या करने वाले ऋषि मुनियों “”।की इस पत्र के पश्चात लिखा :-


“‘ ज़िन्दगी  ज़िन्दा-दिली को तू    जान ऐ रौशन,
यों तो कितने ही हुए और फ़ना होते हैं।
शत शत नमन।

:-मैनपुरी एक्शन हीरो-: पंडित गेंदालाल दीक्षित

    :- पंडित गेंदालाल दीक्षित -:
मैनपुरी एक्शन के हीरो पंडित गेंदालाल दीक्षित का जन्म 30 नवंबर 1888 को गांव मई तहसील बाह जिला आगरा में हुआ था । जब पंडित जी की आयु 3 वर्ष की थी तो उनके माता-पिता दोनों ही स्वर्ग सिधार गए ।
पंडित जी ने  मैट्रिक के बाद डीएवी स्कूल औरैया में अध्यापन का कार्य शुरू किया । 
पंडित जी लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक से प्रभावित थे । पंडित जी ने शुरु में “शिवाजी समिति ” बनाई  थी
कालांतर में    मुकुंदी लाल , दम्मी लाल , करोड़ी लाल गुप्ता, सिद्ध चतुर्वेदी, गोपीनाथ प्रभाकर, चंद्रधर जोहटी, शिवकिशन व अन्य
क्रांतिकारी  शामिल हुए तो शिवाजी समिति  ‘ मातृदेवी “बन गयी ।
मातृदेवी में लगभग 5000 सदस्य थे । इनके पास 500 घुड़सवार व  200 पैदल सैनिक व 8 लाख रुपये कोष में थे।
क्रांतिकारी गतिविधियों में  शिक्षित लोगों का सहयोग नहीं मिला तो पंडित जी ने एक नया तजुर्बा किया  व डाकुओं  के साथ हाथ मिलाया पंडित जी का उद्देश्य  था कि डाकुओं के साथ मिलकर डाके डाले जाए और धन एकत्रित कर हथियार खरीदे जावे संगठन को मजबूत किया जाए और डाकुओं को भी अंग्रेजों के विरुद्ध प्रेरित किया जावे।
इसी क्रम में ग्वालियर के  डकैत  ब्रह्मचारी जी व पंचम सिंह मातृदेवी के साथ काम करने लगे ।
एक बार गेंदालाल जी ब्रह्मचारी जी के साथ सिरसागंज के सेठ ज्ञानचंद के घर डाका डालने जा रहे थे।
दलपतसिंह नामक गदार ने  ब्रह्मचारी जी को पकड़वाने का षड्यंत्र कर पुलिस को सूचना देदी।
लंबा रास्ता था इसलिए रास्ते मे खाने का प्रोग्राम बना।
  किसी गदार ने खाने जहर मिला दिया। ब्रह्मचारी जी ने गदार को मारने हेतु गोली चलाई पर निशाना चूक

गया ।
  पुलिस  मौका पर तैयार थी । पुलिस ने चारों तरफ से घेर लिया मुठभेड़ में 35 क्रांतिकारी साथी शहीद हो गए पंडित जी की बाई आंख में छर्रा लगा जिसके कारण आंख गयी ।

इस मुठभेड़ में 50 पुलिस वाले भी मारे गए ।
पुलिस मुखविर सूचना पर छपटी में छापेमारी कर हथियार ज़ब्त किये दल के सदस्यों को गिरफ्तार किया।
इसे ही सरकारी रिकॉर्ड में मैनपुरी षड्यंत्र कहा गया वस्तुतः आजादी की लड़ाई में लिया गया  एक्शन था।
  मुठभेड़ में गिरफ्तारी के बाद पंडित जी को आगरा किले में जेल में रखा गया। 
वहां बिस्मिल गेंदालाल जी से मिले व गुप्त योजना तैयार की जिसके अनुसार गेंदालाल जी ने सरकारी गवाह बनने की इच्छा जाहिर की।जिस पर पंडित जी को मैनपुरी लाया गया जहाँ मातृदेवी के कुछ सदस्य पहले से ही जेल में थे ।
पंडित ने पुलिस वालों को बताया कि रामनारायण से वे परिचित है व रामनारायण से मिलकर क्रांतिकारी यों के बारे में और सूचनाएं देंगे ।

चाल कामयाब हुई व  पंडित जी को  सरकारी गवाह रामनारायण के साथ एक ही हथकड़ी में जकड़ा गया ।
रात्री में पण्डित जी ने पुलिस को चकमा देकर  सरकारी गवाह रामनारायण सहित फरार हो गए।

फ़रारी के बाद  पंडित जी कोटा जाकर एक रिश्तेदार के पास रुके थे।
उस रिश्तेदार ने  पंडित जी के भाई ने जो कुछ सामान और पैसे भेजे थे, उसे लेकर चपत हो गया और पंडित जी को  एक कोठरी में बंद कर गया। बड़ी मुश्किल से 3 दिन बाद कोठरी को खुलवाया।
पंडित जी की हालत दयनीय थी। चार कदम भी नहीं चल सकते थे फिर भी जैसे तैसे आगरा पहुंचे किसी परिचित पास रुके उसने भी जबाब दे दिया तो पंडित जी दिल्ली पहुंचकर एक प्याउ पर  नौकरी करने लगे ।
बीमारी से परेशान होकर एक साथी को सूचना दी जो पंडित जी और उनकी पत्नी को लेकर गया।

आखिरी समय में पंडित जी की हालत बहुत बुरी हो गई थी।  पत्नी रोने लगी और कहने लगी मेरा इस दुनिया में कौन है।
पंडित जी ने ठंडी सांस ली और मुस्कुरा कर कहा –
आज लाखों विधवाओं का कौन है?
लाखों अनाथ हूं का कौन है ?
22 करोड़ भूखे किसानों का कौन है?
दासता की वीडियो में जकड़ी हुई भारत माता का कौन है,?
जो इन सब का मालिक है,वही तुम्हारा भी ।
तुम अपने आप को परम सौभाग्यवती समझना ,यदि मेरे प्राण इसी प्रकार देश प्रेम की लगन में निकल जावे और मैं शत्रुओं के हाथ न आऊँ।  मुझे दुख है तो केवल इतना ही कि मैं अत्याचारों को अत्याचार का बदला न दे सका ,मन ही मन में रह गई। मेरा यह शरीर नष्ट हो जाएगा ,किंतु मेरी आत्मा इन्हीं भावों को लेकर फिर दूसरा शरीर धारण करेगी ।अब की बार नवीन शक्तियों के साथ जन्म ले ,शत्रुओं का नाश करूंगा ।”

पंडित जी की पत्नी के पास इतना सामान भी नहीं था कि पंडित जी के स्वर्ग सिधारने पर  उनका दाह संस्कार कर सके ।
इसलिए पंडित जी को सरकारी अस्पताल में भर्ती करवा दिया। अस्पताल में दिनांक 21दिशम्बर 1920 व पंडित जी हमेशा के लिए अपना शरीर छोड़कर, आजादी की अधूरी लड़ाई को पुनर्जन्म में पूर्ण करने के प्रण सहित चले गए।
शत शत नमन उन हुतात्माओं को जो इस क़दर आत्मसमर्पित थे माँ भारती को।


  :- रामप्रसाद बिस्मिल -:

      :- क्रांति के देवता -:
  :-पंडित रामप्रसाद बिस्मिल -:

पंडित रामप्रसाद बिस्मिल का जन्म ज्येष्ठ शुक्ल 11 स. 1954 ( 12 जून 1897)
शाहजहांपुर ,उत्तर प्रदेश में हुआ।

बिस्मिल उनका कवि नाम था। वो भारतीय सशस्त्र क्रांतिं के देवता थे।
आजादी की लड़ाई में बिस्मिल व अश्फाक की जोड़ी प्रेरणा रही है।
 

बिस्मिल बचपन मे शरारती प्रवर्ति के बालक थे और पढ़ाई से कतराते थे।

एक बार आपके द्वारा “उ” शब्द नहीं लिखा जा सका तो पिताश्री ने आपको थप्पड़- घूंसे ही नहीं लोहे के गज के पीटा।

भला हो उन पुजारी जी का जिनके सानिध्य से सुधरकर बिस्मिल सात्विक बन गए।
आप स्वामी दयानंद जी के ब्रह्मचर्य पालन से अत्यधिक प्रभावित हुए और तख्त या जमीन पर सोना तथा रात्रिभोज नहीं करना शुरू कर दिया ।

बिस्मिल के पिताजी कट्टर सनातनी थे और बिस्मिल बन गए आर्यसमाजी । धर्म के नाम पर एक दिन तो पिताजी ने बिस्मिल को रात को ही घर से बाहर कर दिया।

देवयोग से आपको स्वामी सोमदेव जी जैसे गुरु मिले जिनकी लाला हरदयाल जैसे क्रांतिकारी पुरूष से भी  निकटता थी ।
सन 1916 में प्रथम लाहौर एक्शन के समय क्रांतिकारी भाईपरमानन्द जी की पुस्तक तवारीख़-ए -हिन्द से प्रभावित हुए।

लाहौर प्रथम एक्शन में भाई परमानंद को फांसी की सजा का समाचार पढ़कर आपने  इस फांसी का बदला लेने की प्रतिज्ञा की और यहीं से आपके क्रांतिकारी जीवन का सूत्रपात हुआ।
इसी वर्ष लखनऊ में अखिल भारतीय कांग्रेसका अधिवेशन था।

अधिवेशन में आधुनिक स्वतंत्रता संग्राम के जनक लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के पधारने का कार्यक्रम भी था।
नरम दल के लोग तिलक जी के स्वागत में कम ध्यान दे रहे थे । 
कांग्रेस की स्वागतकारिणी समिति का प्रोग्राम था कि ट्रेन से तिलक जी को मोटरकार के द्वारा बिना जुलूस के ले जाया जावे।
बिस्मिल व अन्य युवा भी तिलक जी को सुनने को आतुर थे और उनके स्वागत हेतु स्टेशन पर आए हुए थे ।

जैसे ही गाड़ी आई स्वागत कारिणी समिति ने आगे होकर तिलक जी को घेरकर मोटरगाड़ी में बिठा लिया ।

बिस्मिल भावुक होकर मोटर कार के आगे लेट गए और कहे जा रहे थे

मोटर मेरे ऊपर से निकाल ले जाओ,
मोटर मेरे ऊपर से निकाल ले जाओ

एक अन्य युवक ने जोश में आकर मोटर कार का डायर काट दिया। लोकमान्य जी समझा रहे थे, लेकिन युवा जोश के आगे कोई असर नहीं दिया।
युवाओं ने एक किराए की घोड़ागाड़ी  ली व तिलक जी को बच्चे की तरह सिर से कंधों पर बैठा कर  गाड़ी में  बैठा दिया
और घोड़ागाड़ी से  घोड़े को खोलकर बिस्मिल  खुद ही गाड़ी को खींचने में लग गए ।
युवाओं ने अपने कंधों से घोड़ागाड़ी खींचते हुए तिलक जी को एक जुलूस के रूप में धूमधाम से लेकर गए ।

तिलक जी के स्वागत में युवाओं द्वार आयोजित इस को जुलूस देखने योग्य जन समुदाय जुड़ा ।
इस कार्यक्रम का एक लाभ यह हुआ कि बिस्मिल का जोश देख कर कुछ क्रांतिकारीयों व गरम दल के नेताओं से बिस्मिल का संपर्क हुआ ।

बिस्मिल और उनके क्रांतिकारी दल का नाम हिदुस्तान, रिपब्लिकन एसोसिएशन था । जिसके नाम में कालांतर में भगतसिंह ने “सोशलिस्ट” शब्द और जोड़ा था।
            

बिस्मिल ने दल के लिए हथियार खरीदने हेतु  अपनी माताजी से ₹200 लेकर एक पुस्तक ” अमेरिका को स्वाधीनता कैसे मिली’ लिखकर छपवाई पर  इसमें मात्र ₹200 की बचत हुई ।
        उसी समय संयुक्त प्रांत के सुप्रसिद्ध क्रांतिकारी गेंदालाल जी दीक्षित को ग्वालियर में गिरफ्तार कर लिया ।
बिस्मिल ने “देशवासियों के नाम संदेश” शीर्षक से कई जिलों में पर्चे लगाए व वितरित किये।

क्रांतिकारियों के पास हथियारों की खरीद हेतु रुपयों की हमेशा ही कमी रही और देश में जहां कहीं भी क्रांतिकारी आंदोलन चल रहे थे सभी ने हथियारों के लिए जनता को लूटनेवाले जमींदारों,सेठ साहूकारों के यहां डाके डाल कर रुपयों का इंतजाम किया।

इन डकेतियों से जन भावना क्रांतिकारियों के खिलाफ होती थी तथा धन भी कम मिलता था ।

इसलिए दल ने रेलवे का सरकारी खजाना लूटने का कार्यक्रम बनाकर ।
9 अगस्त 1925 को काकोरी एक्शन लिया व काकोरी के पास ट्रेन से सरकारी खजाना लूटा।
इस घटना से फ़िरंगियों की सरकार हिल गयी ।
काकोरी एक्शन के बारे में विस्तार से  अलग लेख लिखा गया है। जिस आप पढ़ सकते हैं।

एक बार बिस्मिल के अन्य साथी गंगा सिंह , राजाराम व देवनारायण ने कोलकाता में वायसराय की हत्या करने का कार्यक्रम बनाया ।

बिस्मिल इस कार्यक्रम से सहमत नहीं थे ।
इन तीनों ने तो  बिस्मिल को ही ठिकाने लगाने का आयोजन कर दिया व इलाहाबाद के त्रिवेणी तट पर संध्या कर रहे बिस्मिल पर तीन गोलियां चलाई दो गोली निशाने पर नहीं लगी तीसरा कारतूस चला ही नहीं।
आजादी के खतरनाक मिशन में अपनी बहन को साथ लेना बलिदान की पराकाष्ठा है।
बिस्मिल अपनी बहन शास्त्री देवी की जांघो पर बंदूके बांधकर हथियार छिपाकर लाते थे ।
शास्त्री देवी ने कई बार इस प्रकार  शाहजहांपुर हथियार पहुंचाए।

किस लिए !
देश की आजादी के लिए !!

धिक्कार है हमें,

आजादी के बाद बिस्मिल  का मात्र 35 गज का दो छोटे छोटे कमरों का एक मकान मोहल्ला खिरनी बाग शाहजहां को इसी शास्त्री देवी  ने गरीबी से तंग आकर बेचा।
यह मकान जिसमें बिस्मिल व शास्त्री देवी ने अपना बचपन गुजारा  एक राष्ट्रीय धरोहर बननी चाहिए थी ।

पर अफसोस ऐसा नहीं हो हुआ।

बिस्मिल ने अपने बचपन के सहपाठी सुशीलचंद्र सेन के  देहांत पर उनकी स्मृति में ‘ निहिलिस्ट रहस्य‘ का अनुवाद करना शुरू किया और सुशील वाला के नाम से ग्रंथ वाला में “बोल्शेविकों की करतूत” व ” मन की लहर”  छपवाई ।

मैनपुरी में गेंदालाल जी दीक्षित के नेतृत्व में कुछ हथियार खरीद कर इकट्ठे किए गए थे। इस बात का पुलिस को पता चल गया पुलिस की धड़त पकड़ शुरू हो गई।
एक साथी सोमदेव पुलिस मुखबिर बन गया सारे राज खुलने से गेंदालाल जी गिरफ्तार कर लिए गए व राम प्रसाद बिस्मिल फरार हो गए ।

प्रथम महायुद्ध के बाद सरकार ने  20 फरवरी 1920 राजनीतिक कैदियों की माफ़ी की ।

इस घोषणा के होने  से बिस्मिल का अज्ञातवास समाप्त हुआ।
बिस्मिल शाहजहांपुर वापस आए तो लोग उनसे मिलने से कतराने लगे दूर से ही नमस्ते करके चल देते थे लोगों को यह डर लगता था कि क्रांतिकारी के संपर्क से उनकी जान किसी खतरे में न पड़ जाए।
इसीलिए बिस्मिल ने कहा होगा-

‘ इम्तहां  सबका कर लिया हमने,
सारे आलम को आजमा देखा ।
  नजर आया न कोई अपना अजीज,
आंख जिसकी तरफ उठा देखा।। कोई अपना ना निकला महरमे राज,
जिसको देखा तो बेवफा देखा । अलगरज  सबको इस जमाने में अपने मतलब का आशना देखा।।”‘

काकोरी एक्शन के बाद बिस्मिल गोरखपुर जेल में रहे व इसी जेल में दिनाँक 19 दिशम्बर 1927 को बिस्मिल को फाँसी दी गयी थी। फांसी से पूर्व बिस्मिल से दुखी हृदय से लिखा-

मालिक तेरी रजा रहे और तू ही तू रहे
बाकी ने मैं रहूं , न मेरी आरजू रहे।।
जब तक कि तन में जान ,
रगों में लहू रहे।
तेरा ही जिक्र या तेरी ही जुस्तजू रहे।।

उनकी अंतिम गर्जन थी

I wish the downfall of British Empire

फांसी से एक दिन पूर्व बिस्मिल की माताजी बिस्मिल से मिलने जेल में गई  । माँ को देख कर बिस्मिल मां के पैर छूकर गले से लिपटा तो बिस्मिल की आँखों मे आंशू आ गए ।
माँ ने कहा मैं तो समझती थी मेरा बेटा बहादुर है ,जिसके नाम से अंग्रेज सरकार भी कांपती है ।
बिस्मिल ने  बड़ी श्रद्धा से कहा  ये आंशू मौत के डर से नहीं है मां ये तो माँ के प्रति मोह के है।
मैं मौत से मैं नहीं डरता मां तुम विश्वास करो ।
तभी माँ ने शिवराम वर्मा का हाथ पकड़कर आगे कर दिया और बिस्मिल से कहा यह तुम्हारे आदमी है पार्टी के बारे में जो भी चाहो , इनसे कह सकते हो।
धन्य जननी , जो एकमात्र बेटे की फांसी से एक दिन पहले क्रांतिकारी दल का सहयोग कर रही है।
ऐसी कोख़ से ही ऐसा वीर जन्म लेता है।।

फाँसी वाले दिन भी बिस्मिल हमेशा की तरह सो कर उठे, स्नान किया, वंदना की और धोती कुर्ता पहनकर जेल के सभी अधिकारियों, कर्मचारियों एवं अन्य बंदियों से हंस-हंसकर बातें करते हुए चल पड़े ।
भारत माता की जय
वंदे मातरम के नारे लगाते हुए फांसी के तख्ते के  समीप पहुंचकर स्वयं ही फांसी के तख्ते पर चढ गए और कहा

मरते’ बिस्मिल, ‘ ‘लाहरी, ‘अश्फाक’ अत्याचार से ।
होंगे पैदा सैकड़ों इनके रुधिर की धार से।।
और अंतिम बार धरती माता को प्रणाम किया धूली को माथे पर चंदन की तरह लगाया और वंदेमातरम कहते हैं फंदे से झूल गए।
शत शत नमन क्रांतिवीर को।

शहादत के बाद का बिस्मिल चित्र

:- क्रांति -:

समय का धर्म गति गति है। हमारे शरीर की तरह हमारा समाज है। कई बार हम तरह तरह की वस्तुएं खा लेते हैं तो हमारे पेट में बदहजमी हो जाती व अफारा आजाता है जिसे निकालने के लिए जुलाब लेना पड़ता है।

ठीक इसी तरह से समाज का पेट बुराइयों से भर जाता है और हमारी पाचन शक्ति की तरह हमारी सामाजिक और न्यायव्यवस्था निष्फल हो जाती है तो समाज में जुलाब के रूप में क्रांति होती है ।

हमारे समाज की सहनशीलता या दूसरे शब्दों में कायरता अधिक है। मुट्ठीभर फ़िरंगियों ने 40 करोड़ लोगों को 200 वर्षो तक दबाए रखा ।

आज के परिपेक्ष्य में देखिए । करोड़ों लोगों को भरपेट खाना नहीं मिलता पशुओं से भी बुरी स्तिथि में दिन काट रहे हैं।यह सहनशीलता है यही दब्बू प्रवर्ति है।

आज़ादी दो क़दम दूर थी

आज़ादी दो कदम दूर थी
        21फरवरी 1915

भारतीय क्रांतिवीरों द्वारा समस्त भारत मे एक ही दिन आज़ादी की लड़ाई लड़ना तय कर योजना बनाई पर हमारे ही ग़द्दारों के द्वारा इसकी सूचना अंग्रेजों को देदी जिसके कारण क्रांतिकारी यह लड़ाई बिना लड़े ही हार गए।
       भारतीय क्रांतिकारी गंभीर अध्ययन के बाद इस निष्कर्ष पर पहुंचे की देश को अंग्रेजों से आजाद कराने के लिए उनके पास आदमियों व हथियारों  की कमी है तथा हथियार खरीदने के लिए धन भी नहीं है।
क्रांतिकारीयों ने इन कमियों को दूर करने के लिए यह योजना बनाई कि ब्रिटेन के दुश्मन देशों से सहयोग लिया जावे , अंग्रेजी सेना में जो भारतीय सैनिक है उन्हें भी आज़ादी के लिए अंग्रेजों के विरुद्ध  युद्ध के लिए तैयार किया जावे व धन उपार्जन हेतु अमीर लोगों व सरकारी खजानों को लूटा जाय।
समस्त तैयारी के बाद देश के समस्त  क्रांतिकारियों को एक निश्चित तिथि व समय पर अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ाई का आह्वान किया जावे।
युद्ध की तैयारी के क्रम में देश मे बम्ब बनाने का कारखाना लगाने के उद्देश्य से हेमचंद्र कानूनगो व  पांडुरंग एम बापथ को बम्ब बनाने की प्रक्रिया सीखने हेतु विदेश भेजा गया उन्होंने रूसी क्रांतिकारी निकोलस सर फ्रांसकी से बम बनाना सिख कर आये व भारत मे बम्ब बनाने का कारखाना लगाया। पिंगले 10 ऐसे शक्तिशाली बम्ब लेकर मेरठ  छावनी पहुंच गए थे। जिनके पकड़े जाने के बाद अंग्रेजी सरकार की रिपोर्ट थी कि इन मेसे एक बम्ब से सारी छावनी को तबाह किया जा सकता था ।
बाघा जतिन ने वीरेंद्र नाथ चट्टोपाध्याय @ चट्टो को सैनफ्रांसिस्को भेजा । चट्टोपाध्याय ने ग़दर पार्टी के सदस्यों की भारत को  हथियार भेजने हेतु जर्मन राजदूत थियोडर हेलफरीश से  सौदा किया ।
भारतीय क्रांतिकारियों के दिमाक में  यह बात स्पष्ट थी कि कहीं अंग्रेजों से पीछा छुड़ाकर  जर्मनी और जापान वालों के अधीन न हो जाए । इसलिए जर्मनी से  हथियारों की सहायता हेतु जो करार किया गया उसमें स्पष्ट लिखा गया कि हथियारों की कीमत आजादी के बाद जर्मनी को दी जाएगी ।आजादी के बाद जर्मनी का भारत पर किसी तरह का कोई दावा नहीं होगा ।जर्मन फ़ौज भारत मे प्रवेश नहीं करेगी।
संगठन व छावनियों में भारतीय सैनिकों से  सम्पर्क के क्रम में  फिरोजपुर में  संगठन भार रासबिहारी बोस और करतार सिंह सराभा को सौंपा गया ।
जबलपुर, अजमेर ,बरेली, बनारस, दानापुर, गुवाहाटी, मेरठ व  रावलपिंडी की सैनिक छावनियों में सम्पर्क का भार  नलिनी मोहन मुखोपाध्याय, प्रताप सिंह बारठ,  दामोदर स्वरूप, शचींद्रसान्याल , नरेंद्र नाथ, विष्णु गणेश पिंगले,  तथा निधान सिंह को सौंपा गया।
हिरदेराम को जालंधर छावनी, प्यारा सिंह को कपूरथला छावनी तथा डॉक्टर मथुरा सिंह को पेशावर की छावनी में भेजा गया।
सभी छावनियों में भारतीय सैनिकों ने अंग्रेजों को मार भगाने हेतु साथ देने का विश्वास दिलाया।

इस क्रांति को और बल मिला जब  कनाडा सरकार ने भारतीय लोगों को कनाडा से बाहर निकालने के लिए मजबूर कर रही थी और कामागाटामारू जहाज के कलकत्ता पहुंचने पर जहाज में सवार प्रवासी भारतीयों को बजबज में रेलगाड़ी द्वरा बलपूर्वक पंजाब लाये जाने की कोशिश की गई जिसमें  कुछ सिखों को मार दिया व कुछ को गिरफ्तार किया गया।
इस घटना का समाचार देश विदेश में पहुंच गया । विदेशों में ग़दर पार्टी आजादी के लिए सक्रिय थी।
विदेशों में खबर फेल गई कि अंग्रेजों को भारत से भगाने के लिए जंग होनेवाला है ।
इस प्रतिक्रिया में प्रवासी भारतीयों ने भी भारत आकर अंग्रेजों को भारत से मार भगाने की तैयारियों के भारत का रुख किया ।
अलग अलग जहाजों से  प्रवासी भारतीय जिनमे अधिकतम सिख व गदर पार्टी के सदस्य थे, अपने हाथों में  हथियार लिए गदर की गूंज मचाते हुए कोरिया टोषामारू, माशियामारू, कवाचिमारू सलमिस नामक व अन्य जहाजों से भारत पहुंचे। जिनकी कुल संख्या लगभग 8000 थी।
रासबिहारी बोस ने क्रांतिकारी चिंताकरण पिल्ले को एक जापानी पनडुब्बी से अंडमान भेजा ताकि वह वीर सावरकर अन्य क्रांतिकारियों को जेल से मुक्त कराकर भारत ले आये ।  पिल्ले बंगाल की खाड़ी जाने में सफल नहीं हो सके और उनकी पनडु्बी नष्ट कर दी गई । क्योंकि इसकी सूचना अंग्रेजों को पहले से हो चुकी थी ।

अमरीका से तोशामारू जहाज से सोहन सिंह जी , निधान सिंह जी, अरुण सिंह जी, केसर सिंह जी पंडित जगत राम हरियाणवी आदि भारत आए 29 अक्टूबर को यह जहाज कोलकाता पहुंचा परंतु पुलिस को पूर्व में खबर हो चुकी थी।जहाज भारत पहुंचते ही 173 सिखों को गिरफ्तार कर लिया गया । जिनमें से 73  तो जेल से भाग निकले ।
देश के गद्दार हमेशा ही देश का दुर्भाग्य बने है । इस बार भी यही हुआ एक पुलिस अधिकारी ने कृपाल सिंह नामक एक व्यक्ति को क्रांतिकारी दल में शामिल करवा दिया जो सारी खबरें अंग्रेजों को देने लगा।
भारतीय क्रांतिकारियों ने इस महान युद्ध के लिए 21 फरवरी 1915 की तिथि निश्चित करते हुए सब जगह सूचना  दे दी । गद्दार कृपाल सिंह ने इस कि सूचना अंग्रेजों को दे दी ।
इसपर जंग की तिथी दो दिन पहले यानी 19 फ़रवरी तय की गई । करतार सिंह जी को ज्ञान नहीं था कि कृपालसिंह गद्दार है उन्होंने परिवर्तित तिथि भी कृपाल सिंह को बता दी ।
यह खबर भी अंग्रेजों तक पहुंच गई फिर क्या होना था ?
अंग्रेजों ने छावनियों में भारतीय सैनिकों से हथियार ले लिए व क्रान्तिकारीयों की धर पकड़ शुरू हो गई ।
  क्रांतिकारियों ने  बंगाल व महाराष्ट्र के क्रांतिकारी प्रथा के अनुसार कृपालसिंह गोली मार देते तो ठीक रहता  ।
हालांकि बाद में 1931 में गदरी बाबा हरनाम सिंह ने रामशरण दास व अमर सिंह के साथ कृपाल सिंह का वध करना चाहा परंतु वह बच गया । अंततोगत्वा ग़द्दार को सजा तो मिलनी ही थी ।कुछ दिनों बाद इस गद्दार को जांबाजों ने उसके घर पर ही मार दिया । मरनेवालों का पता ही नहीं चला
उधर जर्मन काउंसलर की मार्फत हत्यारों का जहाज “मेवरिक “की भी सूचना किसी ग़द्दार ने अंग्रेजों को दे दी।
संभवतः हथियार एक अन्य जहाज Amber Larsen द्वारा लाये जाने थे व रास्ते में कहीं इस जहाज से हथियार मेवरिक में रखे जाने थे। और मेवरिक को भारत आना था।Amber Larsen जहाज वाशिंगटन में पकड़ लिया गया था।
इसी कारण यह मेवरिक को हथियार नहीं दे सका तभी मेवरिक कि बटेविया (जावा) में तलाशी ली गई तो इसमें हथियार नहीं थे।
हेनरी नामक जहाज भी मनीला में पकड़ लिया गया व हथियार उतरवा लिए गए।
एक पुस्तक में लिखेनुसार गदर पार्टी के रामचंद्र व जर्मन राजदूत ने केलिफोर्निया के सेनपेड्रो बंदरगाह से मेवरिक में हथियार भेजे थे जिसमें  25  लोग ईरानी वेशभूषा में थे ।
एक किताब में यह भी लिखा है कि रामचंद्र को  गदरी बाबा ने पार्टी हितों के खिलाफ काम करने के कारण अदालत में ही मार दिया था
    मेवरिक में हथियार M N रॉय @ नरेंद्र नाथ  भट्टाचार्य छदम नाम C Martin द्वारा लाये जाने थे जो जर्मन सहायत के पक्ष में नहीं था । फिर जब  मेवरिक की तलाशी  हुई तो उसमें हथियार नहीं थे । नरेन्द्र भी नहीं था। । यह भी कहा जाता है वो रूस भाग गए ।
कुछ भी हो भी शोध का विषय है कि मेवरिक की खबर अंग्रेजों तक कैसे पहुंची व हथियार मेवरिक में रखे गए या नहीं ????
एक ओर जहाज द्वारा श्याम (थाईलैंड)के राजदूत ने 5000 बंदूके व एक लाख रुपये नगद भेजे यह जहाज रायमंगल पहुँचना था ।  इसकी सूचना भी अंग्रेजों को दे दी गयी व  यह जहाज भी पकड़ा गया।
इसी बीच जर्मनी से हथियारों के दो और जहाज भेजे गए परंतु सूचना होने के कारण फिलीपाइन के पास पकड़ लिये गए।
बाघा जतिन हथियारों के इंतजार में थे जिसकी मुखवीरों ने सूचना दे दी । मुठभेड़ में बाघा शहीद हो गए व युगान्तर के सभी गुप्त ठिकानों पर छापे मारे गए ।
योजन के अनुसार विष्णु पिंगले 10 शक्तिशाली बम लेकर मेरठ छावनी पहुंच गए परंतु वहां भी नादिर खान नामक सहयोगी ने 23 मार्च 1915 को पिंगले को पकड़ा दिया।
करतार सिंह जी सराबा  योजना अनुसार करीब 80 क्रांतिकारियों को लेकर निर्धारित स्थान  मेरठ छावनी में पहुंच मजबूरन उन्हे भी वापस लौटना पड़ा ।
इस बीच शचींद्र बक्शी स्वंम मछुआरे के भेष में छोटी जहाज से 3 किलोमीटर समुन्द्र में गए व एक छोटे पार्सल लाने में सफ़ल रहे । इसमें इ 50 जर्मन माउजर थे।  अल्फ्रेड पार्क में मुठभेड़ के समय चंद्रशेखर आजाद के पास इन मे से ही प्राप्त एक था ।
यह सुनहरा मौका था देश को आज़ाद करवाने का जो ग़द्दारों के कारण चूक गए।
परिस्थितियों को समझिए ब्रिटेन प्रथम महायुद्ध में उलझा था। भारत से करीब 150000 सैनिक देश से बाहर लड़ने भेजे गए थे ।
भारत मे उस समय मात्र 15000 सैनिक थे और भारतीय छावनियों में सैनिकों ने क्रांति में साथ देने का विश्वास भी दिलाया हुआ था।
  ब्रिटिश सेना में पंजाब के गवर्नर ओ डायर ने स्वयं लिखा है””

प्रथम महायुद्ध के दौरान ब्रिटिश सरकार बहुत कमजोर हो चुकी थी हिंदुस्तान में केवल 13000 गोरी पोस्ट थी जिसकी नुमाइश बारी बारी से सारे हिंदुस्तान में करके ब्रिटिश शान को कायम रख़ने की चेष्टा की जा रही थी । ये गोरे भी बूढ़े थे। नौजवानों  तो यूरोप के क्षेत्रों में लड़ रहे थे। ऐसी स्थिति में गदर पार्टी की आवाज मुल्क तक पहुंच जाती तो निश्चय है कि हिंदुस्तान अंग्रेजों के हाथ से निकल जाता ।”””

रोना आता है हमारे राजनेताओं पर ठीक उस समय जब एक तरफ क्रांतिकारीयों ने युद्ध इस स्तर पर आज़ादी के लिए जंग की तैयारी कर रही थी ।
उस समय कांग्रेस व मुस्लिम लीग  क्या कर रही थी ।,
इसका भी उल्लेख करना है महात्मा जी बिना न्यौते के ब्रिटिश सरकार की प्रथम महायुद्ध में सहायता करने पहुंचे व सहायता की जिसके लिए 1915 में हार्डिंग ने गाँधीजी को हिन्द -ए -केसरी का खिताब दिया।यह वही हार्डिंग जो चांदनी चौक में क्रांतिकारीयों द्वारा फेंके गए बम्ब से बच गया था।प्रथम महायुद्ध में 74187 भारतीय सैनिक मारे गए थे तथा 67000 भारतीय सैनिक घायल हुए थे ।
यह कैसी अहिंसा थी?
ब्रिटिश साम्राज्यवाद को बचाने के लिए 74187 भरतीयों के प्राण लिए जा सकते है पर देश की आजदी के लिए नहीं ।
अगर बापू उस समय भारतीय सैनिकों को अंग्रेजों को देश से भगाने का आह्वान कर देते तो आजादी दूर नहीं थी ।
   कांग्रेस के 1914 में मद्रास में हुए अधिवेशन में गवर्नर ने भाग लिया। इस अधिवेशन में कांग्रेस में ब्रिटिश शासन के प्रति अटूट विश्वास होने का प्रस्ताव पारित हुआ।

मुस्लिम लीग की स्तिथि स्पष्ट हो गई जब  1913 में लखनऊ अधिवेशन में लीग अध्यक्ष मोहम्मद शफी ने अपने भाषण से मुस्लिम लीग का उद्देश्य राज भक्ति तथा मुस्लिम हित रक्षा के साथ उपयुक्त स्वायत शासन हासिल करना बताया
इससे पता चलता है मुठ्ठीभर फ़िरंगियों ने 175 वर्ष 40 करोड़ भारतीयों पर कैसे राज कर गए ।
धिक्कार धिक्कार

:- पुरुष प्रातः स्मरणीय-: -; अशफ़ाक़ उल्ला खाँ-;

    :-शहीद अशफ़ाक़ उल्ला खाँ-:

भारतीय सशस्त्र क्रांति का इतिहास अधूरा रहेगा यदि हम क्रांतिवीर अशफाक उल्ला खान की शहादत और शौर्य का जिक्र नहीं करेंगे।       अशफाक उल्ला  वारसी हसरत शाहजहांपुर के निवासी थे । अशफ़ाक़ जी के परिवार की गिनती वहां के रईसों परिवारों होती थी । 
अशफ़ाक़ को बचपन से ही तैरने , घोड़े की सवारी करने और भाई की बंदूक लेकर शिकार करने में बड़ा आनंद आता था ।
अशफ़ाक़ शारिरिक रूप से स्वस्थ व  सुडोल सुंदर जवान थे । जिनका चेहरा हमेशा ही खिला हुआ और बोली में प्रेम रहता था ।
अशफ़ाक़ अच्छे कवि भी थे और
” हसरत” कवि नाम से लिखते थे काकोरी वीर अदालत में आते जाते अशफाक की लिखी कविताएं गाते थे ।
अशफाक हिंदू मुस्लिम एकता के बड़े कट्टर समर्थक थे ।एक बार शाहजहांपुर  भी हिन्दुमुस्लिम दंगो की चपेट में आ गया। पंडित राम प्रसाद बिस्मिल व अशफ़ाक ने मिलकर लोगों को समझाया।
काकोरी एक्शन में अशफाक ने अपने शक्तिशाली हाथों से सरकारी खजाने वाले मजबूत संदूक को तोड़ा था ।
अशफ़ाक़ क्रांतिकारी दल “हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन ” के सदस्य थे । अशफ़ाक़ पर कुल 5 अभियोग लगाए गए जिनमेसे तीन में फाँसी व 2 में उम्रकैद की सजा दी गयी ।
अदालत में अशफ़ाक़ को रामप्रसाद बिस्मिल का “लेफ्टिनेंट” कहा गया।
  अशफ़ाक़ को फैजाबाद जेल में दिनांक 19 दिसंबर 1927 को फांसी दी गई थी ।
अशफाक उल्ला की जिंदगी के कुछ किस्सों का ‘ हिंदू पंच के बलिदान अंक “जो 1930 में प्रकाशित हुआ था व श्री कृष्ण सरल की पुस्तक क्रांतिकारी कोष से लिये है ।
काकोरी एक्शन वाले दिन आप
” कुंवर जी “बने हुए थे और गाड़ी को रोकने हेतु  ड्रामा किया था कि कुँवर जी का जेवरों का बक्सा जो उनके हाथ में था , जिसमें 20 हजार रुपये के जेवर थे, प्लेटफॉर्म  पर भूल गए व शचीन्द्र बख्शी ने चैन खींच कर गाड़ी रोकी ।
काकोरी एक्शन में अशफ़ाक़ व शचीन्द्र नाथ बख्शी गिरफ्तार नहीं हुए थे । इसलिए  गिरफ्तारी के बाद दोनों पर काकोरी मुकदमा  पूरक रूप में चलाया गया था ।
अशफ़ाक 8 सितम्बर 1926 में दिल्ली में गिरफ्तार किए गए व शचीन्द्र बख़्शी को उन्ही दिनों में गिरफ्तार कर लखनऊ लाया गया अदालत में अशफ़ाक व  शचीन्द्र बक्शी को अलग अलग गाड़ियों से लाया गया और दोनों को मिलने नहीं दिया गया ।अदालत में दोनों अजनबी बन कर रहे ।
अदालत के बाद पुलिस यह गुप्त रूप से देखना चाहती थी कि अशफाक व बक्शी एक दूसरे को पहचानते हैं या नहीं ?
अदालत के बाद दोनों अपरिचित से खड़े थे जेल अधिकारी ने अशफ़ाक को सुनाते हुए बख्शी जी को नाम लेकर पुकारा ।
अशफ़ाक ने बख्शी जी की ओर देख कर कहा
” अच्छा आप ही शचीन्द्र बक्शी हैं ! मैंने आपकी बड़ी तारीफ सुन रखी है। “
बख्शी जी ने जेल अधिकारी से पूछा क्या आप मुझे इनका परिचय देंगे जो मुझसे सवाल कर रहे हैं। जेल के अधिकारी ने बक्शी जी से कहा ये
“प्रसिद्ध क्रांतिकारी अशफाक उल्ला खां है “
बक्शी जी ने जानबूझकर बनते हुए अशफ़ाक को संबोधित करते हुए कहा
“अच्छा आप ही अशफ़ाकउल्लाह खां है मैंने भी आपकी बहुत तारीफ सुन रखी है”।
लोग कोतुहल से देख रहे थे । इसके बाद दोनों अपनी भावनाओं पर लगाम नहीं लगा सके व एक दूसरे की भुजाओं में बंधे हुए एक दूसरे को दबोच कर मिल रहे थे।  इनको मिलते हुए देखकर पुलिस वाले भी अपने आप को ताली बजाने से रोक नहीं सके।
स्पेशल मजिस्ट्रेट सैयद अईनुदीन  ने अशफ़ाक से पूछा
“आपने मुझे कभी देखा है?”
अशफ़ाक ने कहा मैं तो आपको बहुत दिनों से देख रहा हूं। जब से काकोरी का मुकदमा आप की अदालत में चल रहा है। तब से मैं कई बार यहां आकर देख गया हूँ।
मजिस्ट्रेट ने पूछा कि कहां बैठते थे?
तो अशफाक ने बताया कि वे आम दर्शकों के साथ एक राजपूत के भेष में बैठा करते था।
लखनऊ में एक दिन पुलिस अधीक्षक खान बहादुर ने अशफ़ाक को मुसलमान होने की दुहाई देकर कुछ कहा देश आज़ाद भी हो गया तो हिन्दू राज्य होगा। अशफ़ाक ने जबाब दिया” HINDU INDIA IS BETTER THAN BRITISH INDIA”
  फ़रारी के दिनों में अशफ़ाक राजस्थान के क्रांतिकारी श्री अर्जुन लाल सेठी के घर रुके थे उनके घर  अशफ़ाक  को काफ़ी स्नेह मिला । सेठी जी पुत्री अशफ़ाक का इतना ध्यान रखती थी कि अशफ़ाक यह महसूस करने लग गए कि कहीं इनका स्नेह बंधन न बन जाये और अशफ़ाक ने सेठी जी से अनुमति लेकर अन्यत्र चले गए ।
अशफ़ाक की फाँसी की खबर से सेठी जी की पुत्री को इतनाधक्का लगा कि वह बीमार पड़ गयी और बच नहीं सकी ।
फ़रारी के समय अशफ़ाक दिल्ली में शाहजहांपुर के ही एक मुसलमान साथी के घर रुके थे उनका सहपाठी भी था।पर साथी दगा कर गया व  ईनाम के लालच में अशफ़ाक को गिरफ्तार करवाया दिया।
उस साथी के घर के पास एक  इंजीनियर साहब का घर था जहाँ अशफ़ाक का आना जाना था । इंजीनियर साहब की कन्या ने तो अशफ़ाक के समक्ष विवाह का प्रस्ताव भी रख दिया । बड़ी मुश्किल से अशफ़ाक ने पीछा छुड़ाया।
फांसी से पहले दिन अशफ़ाक दूल्हे की तरह सजधजकर तैयार हुए व  बहुत खुश दिखाई देते थे। मिलने आये मित्रों से कह रहे थे मेरी शादी है । अगले दिन सुबह 6:30 बजे अशफाक को फांसी दी गई थी। शहादत के दिन अशफ़ाक हंसी खुशी के साथ कुरान शरीफ का बस्ता कंधे से टांगे हाजियों की तरह लवेक  कहते और कलमा पढ़ते,  फाँसी के तख्ते के पास गए तख्त को चुंबन किया और फाँसी के समय  उपस्थित लोगों से कहा “मेरे हाथ इंसानी खून से कभी नहीं रंगें। मेरे ऊपर जो इल्जाम लगाया गया है ,वह गलत है। खुदा के यहां मेरा इंसाफ होगा “”
अशफाक ने फांसी से पहले दिन अपने भाई साहब को प्रेषित करने हेतु एक तार दिया जो गणेश शंकर विद्यार्थी को उनके पते पर भेजना था। तार भेज दिया गया । तार में अशफ़ाक ने
“” लिखा था 19 दिसंबर को दिन 2:00 बजे लखनऊ स्टेशन पर मुलाकात करें। उम्मीद है ,आप मेरी इल्तिजा कुबूल फरमाएंगे”‘
यह घटना बहुत ही मार्मिक है गणेश शंकर विद्यार्थी को पता चल चुका था कि 19 दिशम्बर को  अशफाक को फांसी दी जानी है।इसलिए वे समाचार पत्र का संपादकीय लेख अशफ़ाक पर ही लिख रहे थे ।  इस बीच वह तार प्राप्त हुआ उन्होंने तार को मेज पर रख दिया और अपने काम में लग गए ।
इत्तफाक से हवा का झोंका आया और तार उड़कर गणेश शंकर विद्यार्थी के हाथ की कलम के आगे आ गया । विद्यार्थी जी ने तार खोल कर पढ़ा तो सब समझ में आ गया और विद्यार्थी जी साथियों सहित   फूलमालाएँ लेकर अशफाक को मिलने  गए ।
  अशफाक ने अपने अंतिम समय में देश वासियों के नाम  एक संदेश छोड़ा था जिस का सारांश इस प्रकार है ।
भारत माता के रंगमंच का अपना पाठ अब हम अदा कर चुके।जो हमने किया वह स्वतंत्रता प्राप्ति की भावना से किया ।हमारे इस काम की कोई प्रशंसा करेंगे और कोई निंदा किंतु हमारे साहस और वीरता की प्रशंसा हमारे दुश्मनों तक को करनी पड़ी है। क्रांतिकारी बड़े वीर योद्धा और बड़े अच्छे वेदांती होते हैं ।
हम तो कन्हैयालाल दत्त खुदीराम बोस गोपीमोहन साहा आदि की स्मृति में फांसी पर चढ़ जाना चाहते थे।
भारत वासियों आप कोई हो चाहे जिस धर्म या संप्रदाय के अनुयाई हो परंतु आप देशहित के कामों में एक  होकर योग दीजिए आप लोग व्यर्थ में लड़ झगड़ रहे हैं । सब धर्म एक है ,रास्ते चाहे भिन्न-भिन्न हो परंतु लक्ष्य है सबका एक ही है । फिर झगड़ा बखेड़ा क्यों ? हम मरने वाले आपको कह रहे हैं आप एक हो जाइए और सब मिलकर नौकरशाही का मुकाबला कीजिए। यह सोचकर की सात करोड़ मुसलमान भारत वासियों में सबसे पहला मुसलमान हूं ।जो भारत की स्वतंत्रता के लिए फांसी पर चढ़ रहा हूं। मन ही मन अभिमान का अनुभव कर रहा हूं ।
आज भी अशफ़ाक के शब्द कानों में गूंज रहे है :-

तंग आकर हम भी उनके ज़ुल्म के बेदाद से,
चल दिये सुए अदम जिन्दाने फैज़ाबाद से।

      शहीद अमर रहे!

–  :    चापेकर एक्शन  -:

–  :    चापेकर एक्शन  -:

दामोदर हरी चापेकर,बालकृष्ण हरि चापेकर वासुदे हरि चापेकर तीनों सगे भाई थे । चापेकर बंधु वासुदेव फड़के से प्रभावित थे। अखाड़े व लाठी क्लब संचालित कर युवाओं को युद्धाभ्यास करवाते थे ।
अंग्रेजों ने फूट-डालो व राज करो कि नीति से बम्बई में दंगे करवाये । सुरक्षाहेतु चापेकर बंधुओं ने ” हिदू धर्म सरंक्षणी सभा” का संगठन किया । इसमें 200 युवा सदस्य थे।
          चापेकर बंधु गणेश पूजा व शिवाजी उत्सव पर लोगों में वीरता का संचार कर फ़िरंगियों के विरुद्ध संघर्ष हेतु प्रेरित करते थे ।
दामोदर चापेकर ने ” शिवाजी की पुकार ” शीर्षक से एक कविता छपवाई  जिसका अर्थ था
” शिवाजी कहते हैं कि मैंने दुष्टों का संहार कर भूमिका भार हल्का किया देश उद्वार कर स्वराज्य स्थापना तथा धर्म रक्षण किया ।”
चापेकर ने ललकारते हुए लिखा अब अवसर देख म्लेच्छ रेलगाड़ियों से स्त्रियों को घसीट कर बेइज्जत करते हैं।
हे कायरों तुम लोग कैसे सहन करते हो ? इसके विरूद्ध आवाज उठाओ ।   
       इस कविता के प्रकाशन पर बाल गंगाधर तिलक पर मुकदमा चलाया गया 14 सितम्बर1897 को तिलक जी को  डेढ़ वर्ष की सजा दी गई ।
महाराष्ट्र में दिसंबर 1896 में भीषण रूप से प्लेग फैलने लगा इसकी  रोकथाम हेतु सरकार ने प्लेग निवारक समिति बनाई जिसका अध्यक्ष वाल्टर रैण्ड था । रैण्ड अपनी निर्ममता हेतु कुख्यात था।जब रैण्ड सहायक कलेक्टर था तो उसने  1894 में निषिद्ध स्थान पर संगीत साधना करने के लिए 13 लोगों को कारावास से दण्डित किया था।।
प्लेग रोकथाम के लिए रैण्ड ने 300 घोड़े वाली पुलिस सहित प्लेग ग्रस्त क्षेत्र को घेर लिया व लोगों के घरों को लूटने की छूट देदी । मरीजों कैदियों की तरह हाँकते हुए  दूर शिविरों में ले गया ।शिविरों में मरीजों के साथ  मारपीत व अपमानजनक व्यवहार किया जाता था।
इंसानियत की हद को लांघते हुए दुष्ट रैण्ड द्वारा महिलाओं की जांच चोलियों को उतरा कर नंगा करके करवायी जाने लगी ।
यह सब बर्दाश्त से बाहर हो रहा था पर इस अत्याचार के विरुद्ध कोई आवाज़ नहीं उठ रही थी।
       तभी शिवाजी की जयंती पर 12 जून को विठ्ठल मंदिर पर आयोजित एक सभा में बाल गंगाधर तिलक ने रैण्ड की भर्त्सना करते हए पुणे  के युवाओं को ललकारते हुए कहा
‘ “”पुणे के लोगों में पुरुषत्व है ही नहीं, अन्यथा क्या मजाल हमारे घरों में घुस जाए ।”

यह बात चापेकर बंधुओं के शरीर में  तीर की तरह लगी और उनकी आत्माओं को झीझोड़कर रख दिया ।
दामोदर चापेकर ने  अपने छोटे भाई  वासुदेव के साथ तीन माह तक रैण्ड की दैनिक दिनचर्या पर नज़र रखी ।
चापेकर को सूचना मिली कि  22 जून 1897 को विक्टोरिया राज  की हीरक जयंती मनाई जाएगी जिसमें रैण्ड जाएगा। चापेकर ने उस दिन रैण्ड का वध करने की ठानली ।
हीरक जयंती 22 जून 1897 को पार्टी से लौटते समय  रात्रि को 11:30 बजे जैसे ही  रैण्ड की  बग्गी गवर्नमेंट  हाउस के मुख्य फाटक से आगे पहुंची । दामोदर बघी के पीछे चढ़े व  रैंड को गोली मार दी और कूदकर झाड़ियों में लापता हो गए  ।
कुछ दूरी पर  बालकृष्ण  चापेकर   ने  आयरिस्ट एक गोली चलाई निशाना अचूक था आयरेस्ट वहीं मर गया । बालकृष्ण भी मौके से गायब हो गए ।
रैण्ड 3 जुलाई को  मर गया । घटना का कोई सबूत नहीं था। सरकार ने हत्यारों को पकड़ने के लिए ₹20000 का इनाम रखा ।  हमारे देश गदार हमेशा रहे हैं उस वक्त भी थे । इनाम के लालच में गणेश शंकर तथा रामचंद्र द्रविड़ मुखबिर बन गए व 9 अगस्त को दामोदर चापेकर को गिरफ्तार कर लिया गया ।
बालकृष्ण निजाम राज्य के जंगल में भूमिगत  हो गए ।
दिनांक 8 अक्टूबर 1997 को चीज प्रेसिडेंसी मजिस्ट्रेट के समक्ष अपने बचाव में बालकृष्ण कहा कि   “”  मैं विदेशी दासता के प्रत्येक  चिन्ह से घृणा करते हूँ ।””
उन्होंने यह भी स्वीकार किया कि अत्याचारी सम्राट की मूर्ति पर उन्होंने ही  कॉलतोर लगाकर जूतों की माला पहनाई थी व अफसरों के पंडाल में आग लगाई थी ।
हालांकि चापेकर के विरुद्ध कोई प्रमाण पुलिस को नहीं मिला था संदेह के आधार पर दामोदर को फांसी की सजा सुनाई गई।
उस समय तिलक जी भी जेल में थे दामोदर ने तिलक से गीता ली। दिनांक 18 अप्रेल 1898 यरवदा जेल में हाथ में गीता लिए हुए दामोदर फांसी  पर चढ गए ।
वासुदेव  चापेकर को थाने में प्रतिदिन उपस्थिति दर्ज करवानी पड़ती थी ।
अपनी जननी से इजाजत व आशीर्वाद लेकर  रामचंद्र व गणेश शंकर  मुखवीरों को वासुदेव व उनके दोस्त महादेव रानाडे ने 8 फ़रवरी को गोली मारी। गणेश तुरंत मर गया रामचंद्र दूसरे दिन मर गया ।
इससे पूर्व 10 फरवरी को वासुदेव ने अनुसंधान अधिकारी मिस्टर बुइन पुलिस सुपरिंटेंडेंट को गोली मारने की कोशिश की परंतु सफल नहीं हो सके ।
वासुदेव और रानाडे ने अदालत में समस्त घटनाओं को स्वीकार किया क्रांतिवीर वासुदेव को दिनांक 8 मई 1898 को क्रांतिवीर बालकृष्ण को दिनांक 12 मई 98 को सच्चे दोस्त एंव देशभक्त महादेव गोविंद रानाडे को दिनांक 10 को यरवदा जेल में ही फांसी दी गई ।
फड़के के बाद चापेकर बंधुओं के इस क्रांतिकारी एक्शन से फिरंगी बुरी तरह से डर गए ।

आपको कैसा लगेगा यह जानकर की चापेकर बंधुओं की माँ के पास देश का कोई नेता दुःख प्रकट करने नहीं गया ।
हाँ सिस्टर निवेदिता कलकत्ता से पूना उन वीरों की शौर्यमयी माँ के दर्शन करने व सांत्वना देने जरूर गई थी ।
शत शत नमन शहीदों को।