शहीद ऊधम सिंह

शहीद ऊधम सिंह – क्रांति के भीष्म प्रतिज्ञा धारक

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के वीर सपूतों में शहीद ऊधम सिंह का नाम क्रांति के भीष्म के रूप में अमर है। मात्र 18 वर्ष की आयु में उन्होंने 13 अप्रैल 1919 को जलियांवाला बाग में अंग्रेजों द्वारा किए गए वीभत्स नरसंहार को अपनी आंखों से देखा था। उस दिन दो हजार से अधिक निहत्थे पुरुष, महिलाएं और बच्चे मौत के घाट उतार दिए गए। ऊधम सिंह ने तभी संकल्प लिया कि इस हत्याकांड के दोषियों को दंडित किए बिना चैन नहीं लेंगे।

प्रारंभिक जीवन

शहीद ऊधम सिंह का जन्म 26 दिसंबर 1899 को पंजाब के संगरूर ज़िले के सुनाम गांव में हुआ था। उनके पिता सरदार टहल सिंह उर्फ़ चूहड़ सिंह उपाली रेलवे में चौकीदार थे। मात्र दो वर्ष की उम्र में उनकी माताजी (1901 में) और फिर 1905 में पिताजी का निधन हो गया। उनके बड़े भाई मुक्ता सिंह का भी 1917 में देहांत हो गया।

वह बचपन में शेर सिंह नाम से जाने जाते थे। माता-पिता के निधन के बाद, भाई किशन सिंह रागी ने 24 अक्टूबर 1907 को उन्हें और उनके भाई को अमृतसर स्थित पुतलीगढ़ अनाथालय (Central Khalsa Orphanage) में दाखिल करवाया। वहीं भाई किशन सिंह ने उन्हें अमृत छका कर नया नाम दिया – उधम सिंह

जलियांवाला बाग से प्रतिज्ञा तक

वैशाखी 1919 को वे जलियांवाला बाग में जल सेवा कर रहे थे, जब ब्रिगेडियर जनरल डायर ने निर्दोष जनसमूह पर अंधाधुंध गोलियां चलवाईं। इस खौफनाक दृश्य ने उनके मन पर गहरा असर डाला। उन्होंने उसी दिन स्वर्ण मंदिर के पवित्र सरोवर में स्नान करके प्रतिज्ञा ली – इस हत्याकांड का बदला लूंगा।

क्रांतिकारी पथ की ओर

इसके बाद ऊधम सिंह ने नैरोबी में गदर पार्टी से जुड़ाव बनाया और भारत लौटकर भगत सिंह तथा हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन से सक्रिय रूप से जुड़ गए। जुलाई 1927 में वे हथियार लेकर भारत आए लेकिन 30 अगस्त को 25 क्रांतिकारियों के साथ गिरफ्तार कर लिए गए। उन्हें 4 वर्षों तक जेल में रखा गया।

1931 में जेल से रिहा होने के बाद उन्होंने अमृतसर में साइन बोर्ड पेंटर का काम शुरू किया और नया नाम रखा – राम मोहम्मद सिंह आज़ाद – जो उनके हिंदू-मुस्लिम-सिख एकता के आदर्शों का प्रतीक था।

दुनिया भर की यात्रा, एक लक्ष्य – बदला

अपने मिशन को पूरा करने हेतु उन्होंने कई छद्म नामों – शेर सिंह, उद्यान सिंह, उदय सिंह आदि – से कश्मीर, अफ्रीका, नैरोबी, ब्राज़ील और अमेरिका की यात्रा की। 1934 में वे लंदन पहुंचे और 9, एल्डर स्ट्रीट कमर्शियल रोड पर रहने लगे।

प्रतिशोध का दिन – 13 मार्च 1940

13 मार्च 1940 को लंदन के काक्सटन हॉल में रॉयल सेंट्रल एशियन सोसायटी की बैठक आयोजित थी, जहां जलियांवाला बाग के समय पंजाब का गवर्नर माइकल ओ डायर बतौर मुख्य वक्ता आमंत्रित था। ब्रिगेडियर डायर तो पहले ही मर चुका था, लेकिन ओ डायर अभी जीवित था – और ऊधम सिंह का असली लक्ष्य भी वही था।

उन्होंने एक मोटी किताब में रिवॉल्वर छिपाकर सभा में प्रवेश किया। जैसे ही ओ डायर बोलने खड़ा हुआ, ऊधम सिंह ने दो गोलियां दागीं – जिससे ओ डायर वहीं ढेर हो गया।

अदालत में ऊधम सिंह का बयान

उन्होंने भागने की कोशिश नहीं की। सभा में उपस्थित लोगों को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा:

“जलियांवाला बाग का हत्याकांड मैंने अपनी आंखों से देखा था और उसी दिन से अंग्रेजी राज व यह व्यक्ति मेरी घृणा का पात्र बन गया। ओ डायर का क्रूर और नृशंस शासन, हृदय विदारक अत्याचार और भयानक दमन मेरी स्मृति से कभी नहीं मिट सके। उसी दिन मैंने प्रतिज्ञा की थी कि मैं इस खून का बदला लूंगा। मुझे हर्ष है कि मैं अपने प्राणों की बाजी लगाकर 21 वर्ष बाद उस हत्याकांड का बदला ले रहा हूं और इस प्रकार अपनी मातृभूमि के चरणों में अपने प्राणों को यह तुच्छ भेंट प्रस्तुत कर सका हूं।”

न्याय और बलिदान

उन्हें हत्या का दोषी पाया गया और 4 जून 1940 को फांसी की सजा सुनाई गई। दिनांक 31 जुलाई 1940 को उन्हें लंदन की पेंटनविले जेल में फांसी दी गई। अपनी अंतिम इच्छा में उन्होंने कहा कि फांसी के समय उनके हाथ न बांधे जाएं और उनकी अस्थियों को भारत भेजा जाए।

देश की प्रतिक्रिया

गांधी जी ने अपनी आदत के अनुसार इस कृत्य पर शोक जताते हुए कहा –

“The outrage has caused me deep pain. I regard it as an act of insanity.”

जबकि अमृतबाजार पत्रिका ने उनकी बहादुरी की खुले दिल से सराहना की। अप्रैल 1940 में रामगढ़ कांग्रेस सभा में लोगों ने ‘ऊधम सिंह ज़िंदाबाद’, ‘इंकलाब ज़िंदाबाद’ के नारों से उन्हें श्रद्धांजलि दी।

अस्थियों की वापसी और सम्मान

भारत के आज़ाद होने के 26 वर्षों बाद तक ऊधम सिंह की अस्थियां मातृभूमि की ओर लौटने की राह देखती रहीं। तत्कालीन पंजाब मुख्यमंत्री ज्ञानी जैल सिंह के प्रयासों से 1973 में यह कार्य संभव हुआ। पंजाब विकास कमिश्नर मनोहर सिंह गिल इंग्लैंड से उनके लिखे पत्र लेकर आए।

फिर 23 जुलाई 1974 को पंजाब सरकार के मंत्री श्री उमराव सिंह और विधायक श्री साधु सिंह ऊधम सिंह जी की अस्थियां भारत लेकर आए। प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने अपने मंत्रिमंडल के साथ एयरपोर्ट पर उनका सम्मान किया।

अस्थियां कपूरथला में दर्शनार्थ रखी गईं, फिर एक सम्मानजनक जुलूस के साथ उन्हें 31 जुलाई 1974 को कीर्तिपुर में जल प्रवाहित किया गया।

शत शत नमन क्रांति के लिए भीष्म प्रतिज्ञा निर्वहन करने वाले महान क्रांतिवीर को ।

प्रीतिलता वादेदार

वीरांगना प्रीतिलता वादेदार: भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की अमर शहीद

जन्म – 5 मई 1911, चटगांव (वर्तमान बांग्लादेश)
शहादत – 23 सितम्बर 1932

भारत के स्वतंत्रता संग्राम में नारी शक्ति की अनगिनत मिसालें हैं, लेकिन उनमें से एक अद्वितीय नाम है – प्रीतिलता वादेदार, जिनकी वीरता, बुद्धिमत्ता और बलिदान आज भी हर भारतीय को गर्व से भर देती है।

प्रीतिलता वादेदार एक मेधावी छात्रा थीं। इंटरमीडिएट की परीक्षा में उनका ढाका बोर्ड में पाँचवाँ स्थान आया था। स्नातक की पढ़ाई पूरी करने के बाद वह चटगांव के एक विद्यालय में प्रधानाध्यापिका बनीं।

क्रांति की ज्वाला उनके भीतर तब धधकी जब वे मास्टर सूर्यसेन (मास्टर दा) के विचारों और व्यक्तित्व से प्रभावित होकर इंडियन रिपब्लिकन आर्मी में शामिल हो गईं। उस दौर में क्रांतिकारी रामकृष्ण विश्वास को कलकत्ता के अलीपुर जेल में फाँसी की सज़ा सुनाई गई थी। उन दिनों जेल में बंद क्रांतिकारियों से मिलना लगभग असंभव था, लेकिन प्रीतिलता लगभग चालीस बार उनसे मिलने में सफल रहीं और कभी किसी अधिकारी को शक नहीं होने दिया।

14 सितम्बर 1932 को मास्टर दा, प्रीतिलता और अन्य क्रांतिकारी सावित्री नामक महिला के घर घलघाट में छिपे हुए थे। जब पुलिस ने चारों ओर से घेर लिया, तो मुठभेड़ में क्रांतिकारी अपूर्व सेन और निर्मल सेन शहीद हो गए। वहीं मास्टर दा की गोली से कैप्टन कैमरान मारा गया। भारी गोलाबारी के बीच मास्टर दा और प्रीतिलता वहां से भागने में सफल रहे।

चटगांव के “यूरोपियन क्लब” पर लिखा हुआ था – “Dogs and Indians not allowed”। यह घृणास्पद अपमान इंडियन रिपब्लिकन आर्मी को असहनीय था और क्लब को नष्ट करना उनके प्रमुख एजेंडे में शामिल था।

पहले इस कार्रवाई की जिम्मेदारी क्रांतिकारी शैलेश्वर चक्रवर्ती को दी गई। योजना थी कि वे क्लब के सामने बम और रिवॉल्वर के साथ तैयार रहें और अन्य क्रांतिकारी बारात के रूप में आकर आतिशबाजी करें। उसी समय क्लब पर बम फेंका जाना था। लेकिन शैलेश्वर असफल रहे और उन्होंने ज़हर खाकर आत्मबलिदान दे दिया।

इसके बाद प्रीतिलता वादेदार ने मास्टर दा से अनुमति लेकर 24 सितम्बर 1932 की रात 10:30 बजे क्लब पर आक्रमण किया।
उन्होंने पहले क्लब की खिड़की से बम फेंका, फिर गोलियों की बौछार की। इस हमले में एक यूरोपीय महिला मारी गई, 13 फिरंगी अधिकारी घायल हुए, और बाकी लोग भाग गए।

प्रीतिलता ने अपने साथियों को सुरक्षित रवाना कर दिया और स्वयं मोर्चा संभाले रहीं। लेकिन दुर्भाग्यवश एक गोली उनके पैर में लगी, जिससे वे भाग नहीं सकीं। क्रांतिकारी सिद्धांतों के अनुसार उन्होंने पोटेशियम सायनाइड खा लिया और आत्म बलिदान कर दिया।

उनके शहीद होने के बाद अंग्रेज अधिकारियों को उनकी जेब से एक पत्र मिला, जिसमें उन्होंने फिरंगियों को यह संदेश दिया था कि –
जब तक भारत स्वतंत्र नहीं हो जाता, संघर्ष जारी रहेगा।

प्रीतिलता ने कोलकाता के बेथुन कॉलेज से दर्शनशास्त्र में स्नातक की पढ़ाई पूरी की थी, लेकिन उनकी क्रांतिकारी गतिविधियों के चलते उन्हें डिग्री नहीं दी गई। भारत की आज़ादी के बाद, उन्हें मरणोपरांत उनकी डिग्री प्रदान की गई


नमन उस वीरांगना को

प्रीतिलता वादेदार सिर्फ एक क्रांतिकारी नहीं, बल्कि एक प्रेरणा थीं – साहस, बलिदान और नारी शक्ति की साकार मूर्ति। उनका नाम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में दर्ज है।

उनका जीवन हमें यह सिखाता है कि जब मातृभूमि पुकारे, तो बेटियाँ भी रणभूमि में उतरकर दुश्मन को उसकी औकात दिखा सकती हैं।

इंकलाब जिंदाबाद!
प्रीतिलता वादेदार अमर रहें!

स्वतंत्रता संग्राम की वीरांगना प्रीतिलता

शत शत नमन वीरांगना को

सुपर एक्शन चटगांव

सुपर एक्शन चटगांव : आज़ादी की ज्वाला में दहकता एक अध्याय

भारतीय सशस्त्र क्रांति के इतिहास में 18 अप्रैल 1930 का दिन स्वर्ण अक्षरों में दर्ज है। इस दिन महान क्रांतिवीर सूर्य सेन “मास्टर दा” के नेतृत्व में चटगांव के क्रांतिकारियों ने वह साहसिक कार्य किया, जिसने अंग्रेजों की चूलें हिला दीं।

जब चटगांव बना क्रांति का गढ़

मास्टर दा के नेतृत्व में गठित क्रांतिकारी दल “इंडियन रिपब्लिकन आर्मी” (जिसे स्थानीय रूप से “इंडियन नेशनल आर्मी” कहा गया) ने चटगांव में पुलिस और सहायक बलों के शस्त्रागार पर कब्ज़ा कर लिया। संचार व्यवस्था ठप कर दी गई, और यूनियन जैक उतारकर भारत का तिरंगा फहराया गया। क्रांतिकारियों ने न केवल अंग्रेजी सत्ता को चुनौती दी, बल्कि कुछ समय के लिए अपना प्रशासन स्थापित कर दिया।

“साम्याश्रम” से “इंडियन रिपब्लिकन आर्मी” तक

मास्टर सूर्य सेन एक शिक्षक थे, जो “साम्याश्रम” नामक क्रांतिकारी संस्था से जुड़े थे। असहयोग आंदोलन के दौरान ये कांग्रेस से जुड़े, पर आंदोलन की वापसी से उनका मोहभंग हो गया। दिसंबर 1928 में कांग्रेस का 40वां अधिवेशन कलकत्ता में हुआ, जहां “साम्याश्रम” के सदस्य भी शामिल हुए।

सुभाष चंद्र बोस के नेतृत्व में जब 7000 स्वयंसेवकों ने सैनिक गणवेश में कांग्रेस अध्यक्ष मोतीलाल नेहरू को गार्ड ऑफ ऑनर दिया, तो इन युवाओं को सैनिक अनुशासन और संगठन की प्रेरणा मिली। चटगांव लौटकर इन्होंने अपने संगठन का नाम “इंडियन रिपब्लिकन आर्मी” रख लिया और सशस्त्र क्रांति की तैयारी शुरू की।

क्रांति की तारीख और योजना

इंडियन रिपब्लिकन आर्मी ने 20 सूत्रीय कार्यक्रम तय किया और क्रांति की तारीख 18 अप्रैल 1930 निश्चित की गई। योजना के अनुसार—

  • तार व संचार व्यवस्था ठप करना,
  • रेल की पटरियों को उखाड़ना,
  • वायरलेस व्यवस्था बंद करना,
  • गणेश घोष और आनंद सिंह द्वारा पुलिस शस्त्रागार पर कब्ज़ा,
  • लोकनाथ बल द्वारा फौज के शस्त्रागार पर अधिकार प्राप्त करना शामिल था।

65 क्रांतिकारियों, जिनमें कुछ बच्चे भी शामिल थे, ने इस योजना को सफलतापूर्वक अंजाम दिया।

जलालाबाद की वीरगाथा

क्रांतिकारी जलालाबाद पहाड़ियों पर डेरा जमाए हुए थे। 22 अप्रैल 1930 को हजारों अंग्रेज सैनिकों ने इन पहाड़ियों को घेर लिया। हुए भीषण युद्ध में 80 से अधिक अंग्रेज सैनिक मारे गए, जबकि 12 क्रांतिकारी शहीद हो गए।

मास्टर दा ने अपने साथियों को छोटे-छोटे समूहों में बांटकर गांवों में भेज दिया। कुछ बच निकले, कुछ गिरफ्तार हुए। इसके बाद अंग्रेजों ने बड़े पैमाने पर छापेमारी शुरू कर दी।

त्याग, बलिदान और गिरफ्तारी

मास्टर दा के निर्देश पर अनंत सिंह ने चंदननगर से कलकत्ता आकर आत्मसमर्पण किया ताकि पहले से गिरफ्तार क्रांतिकारियों का मनोबल टूटने न पाए।

कुछ समय बाद पुलिस आयुक्त चार्ल्स टेगार्ट ने एक मुठभेड़ में कई क्रांतिकारियों को घेरा, जिसमें जीबन घोषाल शहीद हो गए।

प्रीतिलता वादेदार का वीर अंत

प्रीतिलता वादेदार ने 20 सूत्रीय कार्यक्रम के तहत उस यूरोपीयन क्लब पर हमला किया, जिसके गेट पर लिखा था – “Dogs and Indians Not Allowed”सितंबर 1932 में उन्होंने साहसपूर्वक हमला किया, लेकिन भारी अंग्रेजी उपस्थिति के चलते अपने साथियों को बचाकर खुद घायल हो गईं। अंततः उन्होंने जहर खाकर आत्मबलिदान दिया।

अन्य वीर शहीद और सज़ा

कलारपोल में मुठभेड़ में देब गुप्ता, मनोरंजन सेन, रजत सेन और स्वदेशंजन रे शहीद हो गए। सुबोध और फनी घायल होकर गिरफ्तार कर लिए गए।

मुकदमे के बाद—

  • 12 क्रांतिकारियों को आजीवन कारावास,
  • 2 को तीन-तीन वर्ष की सजा हुई।
    गणेश घोष, लोकनाथ बल, आनंद गुप्ता और अनंत सिंह को कुख्यात अंडमान की सेलुलर जेल भेजा गया।

विश्वासघात और मास्टर दा की गिरफ्तारी

नेत्रसेन नामक व्यक्ति ने इनाम के लालच में मास्टर दा की मुखबिरी कर दी। 16 फरवरी 1933 को मास्टर दा गिरफ्तार कर लिए गए। लेकिन चटगांव के क्रांतिकारियों ने अंग्रेज़ों के इनाम देने से पहले ही नेत्रसेन को उसका “इनाम” गोलियों के रूप में दे दिया।

फांसी और अंतिम प्रणाम

जेल में मास्टर दा और उनके साथी तारेश्वर दस्तीदार को अमानवीय यातनाएं दी गईं। 12 जनवरी 1934 को उन्हें फांसी दे दी गई।


नमन है उन क्रांतिकारी आत्माओं को

चटगांव का यह आंदोलन स्वतंत्रता संग्राम का एक अद्भुत और प्रेरणास्पद अध्याय है। मास्टर दा और उनके साथियों का साहस, संगठन, बलिदान और देशभक्ति आने वाली पीढ़ियों को प्रेरणा देती रहेगी।

शत शत नमन उन वीरों को जिन्होंने देश की खातिर अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया।

शत शत नमन

करतारसिंह सराभा

क्रांतिवीर करतार सिंह सराभा: आज़ादी की चिंगारी जो शोला बन गई

क्रांतिवीर करतार सिंह सराभा का जन्म 24 मई 1896 को पंजाब के लुधियाना जिले के सराभा गाँव में हुआ था। बाल्यकाल में ही उनके पिता श्री मंगल सिंह का निधन हो गया। करतार सिंह अपने पिता की इकलौती संतान थे। प्रारंभिक शिक्षा लुधियाना में प्राप्त करने के बाद, उन्होंने ओडिशा के रेवनशा कॉलेज से 11वीं कक्षा तक की पढ़ाई पूरी की। मात्र 16 वर्ष की आयु में वे उच्च शिक्षा के लिए अमेरिका चले गए। वहां वे सराभा गांव के ही रुलिया सिंह के पास रहे और एक बुजुर्ग महिला के घर किराए पर रहने लगे।

अमेरिका के स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर उस महिला ने अपने घर को फूलों और वीरों के चित्रों से सजाया। यह दृश्य करतार सिंह के मन में देशप्रेम और आज़ादी की भावना की चिंगारी बन गया, जो फिर कभी शांत नहीं हुई।

विदेश में गूंजता भारत का स्वर

अमेरिका और कनाडा में भारतीय प्रवासी श्रमिक समूह बनाकर काम की तलाश में रहते थे। वहाँ भारतीयों को भारी भेदभाव और अपमान का सामना करना पड़ता था। कनाडा में संत तेजा सिंह और अमेरिका में ज्वाला सिंह इन अन्यायों के खिलाफ संघर्ष कर रहे थे। ये सभी पंजाबी सिख थे जो भारत से आए छात्रों की सहायता करते थे।

1912 में पोर्टलैंड में भारतीय मज़दूरों का एक बड़ा सम्मेलन हुआ जिसमें बाबा सोहन सिंह भकना, हरनाम सिंह टुंडीलाट और काशीराम जैसे नेताओं ने भाग लिया। उसी समय करतार सिंह ज्वाला सिंह ठट्ठीयां के संपर्क में आए और उनकी मदद से बर्कले विश्वविद्यालय में रसायन शास्त्र की पढ़ाई शुरू की।

वहीं, वे 1912 में लाला हरदयाल और भाई परमानंद के संपर्क में आए और फिरंगियों के खिलाफ उनके जोशीले भाषणों से अत्यंत प्रभावित हुए। उन्होंने गदर पार्टी की सदस्यता ली और 1 नवंबर 1913 को रघुवीर दयाल के साथ “गदर” समाचार पत्र का पहला अंक प्रकाशित किया।

इस अंक में उन्होंने फिरंगियों के खिलाफ भारत में गदर की घोषणा की। उसमें एक लेख था:

हमारा नाम: ग़दर
हमारा काम: ग़दर
ग़दर कहां होगा: हिंदुस्तान में
इस पर आवश्यकता है: उत्साही युवा वीर सैनिकों की
उजरत: मौत
इनाम: शहादत
मिशन: आज़ादी
कार्यक्षेत्र: हिंदुस्तान

गदर की तैयारी और विश्वासघात

करतार सिंह सराभा भारत लौट आए और आज़ादी की अंतिम लड़ाई की तैयारी में जुट गए। सभी क्रांतिकारियों ने तय किया कि एक साथ एक निश्चित दिन अंग्रेजों के विरुद्ध युद्ध छेड़ा जाएगा। यह तिथि 21 फरवरी 1915 निश्चित की गई।

भारत के विभिन्न हिस्सों की छावनियों से संपर्क का काम विभाजित किया गया। फिरोजपुर की छावनी का भार रासबिहारी बोस और करतार सिंह ने संभाला। जबलपुर, अजमेर, बरेली, बनारस, दानापुर, गुवाहाटी, मेरठ और रावलपिंडी की छावनियों के लिए नलिनी मोहन मुखोपाध्याय, प्रताप सिंह बारठ, दामोदर स्वरूप, शचींद्र सान्याल, नरेंद्र नाथ, विष्णु गणेश पिंगले, निधान सिंह को भेजा गया।

अन्य छावनियों में हिरदेराम, प्यारा सिंह और डॉक्टर मथुरा सिंह को भेजा गया। इन सभी स्थानों पर भारतीय सैनिकों ने क्रांतिकारियों को अंग्रेजों से लड़ने का विश्वास दिलाया।

इस योजना की गूंज विदेशों तक पहुँची और वहां के प्रवासी भारतीय, खासकर सिख और गदर पार्टी के सदस्य, हथियारों सहित भारत लौटे। वे कोरिया टोषामारू, माशियामारू, कवाचिमारू, सलमिस आदि जहाजों से आए और इनकी संख्या लगभग 8000 थी।

लेकिन देश के गद्दारों ने एक बार फिर इतिहास दोहराया। एक पुलिस अधिकारी ने कृपाल सिंह नामक व्यक्ति को क्रांतिकारियों में शामिल करा दिया, जो अंग्रेजों को सारी सूचनाएं देता रहा।

जब 21 फरवरी की तिथि तय हुई और इसकी सूचना सभी को दे दी गई, तो कृपाल सिंह ने भी यह जानकारी अंग्रेजों तक पहुंचा दी। योजना को बचाने के लिए तिथि 19 फरवरी कर दी गई, लेकिन दुर्भाग्यवश इसकी सूचना भी कृपाल सिंह को दे दी गई।

अंतिम प्रयास और गिरफ्तारी

करतार सिंह लगभग 80 क्रांतिकारियों के साथ मेरठ छावनी पहुंचे, लेकिन योजना विफल होने के कारण उन्हें लौटना पड़ा। फिर वे विदेशी सहायता के लिए काबुल जाने की तैयारी में थे।

उनके साथ जगत सिंह और हरनाम सिंह कुंडा भी थे। ब्रिटिश सीमा पार करने के बाद एक स्थान पर तीनों बैठे थे। तभी करतार सिंह गाने लगे:

“बनी सिर शेराँ दे,
की जाणा भज्ज के”

(शेरों के सिर पर आन पड़ी है, अब भागकर क्या जाएँगे?)

वे बोले — “यह गीत दूसरों के लिए गाया या अपने लिए?” फिर आत्ममंथन करते हुए बोले कि हमारे साथी जेलों में हैं और हम उन्हें छोड़कर भाग रहे हैं? उन्होंने अपना इरादा बदल दिया और भारत लौटने लगे। रास्ते में सरगोधा के पास चक नंबर 5 में पुलिस ने उन्हें पकड़ लिया।

बलिदान और अमरता

लाहौर एक्शन केस में करतार सिंह को फाँसी की सज़ा सुनाई गई। 26 नवंबर 1915 को, मात्र उन्नीस वर्ष की आयु में, वे बख्शीश सिंह, हरनाम सिंह, जगत सिंह, सुरैण सिंह, भूर सिंह, सज्जन सिंह, काशीराम, और विष्णु गणेश पिंगले जैसे वीरों के साथ लाहौर जेल में फांसी पर चढ़ गए।

करतार सिंह सराभा से भगत सिंह अत्यधिक प्रेरित थे। वे उनकी तस्वीर अपनी जेब में रखते थे और उनकी लिखी एक ग़ज़ल अक्सर गुनगुनाया करते थे। यह ग़ज़ल उनके दिल के बहुत करीब थी।

“यहीं पाओगे महशर में जबां मेरी बयाँ मेरा,
मैं बन्दा हिन्द वालों का हूँ है हिन्दोस्तां मेरा;
मैं हिन्दी ठेठ हिन्दी जात हिन्दी नाम हिन्दी है,
यही मजहब यही फिरका यही है खानदां मेरा;
मैं इस उजड़े हुए भारत का यक मामूली जर्रा हूँ,
यही बस इक पता मेरा यही नामो-निशाँ मेरा;
मैं उठते-बैठते तेरे कदम लूँ चूम ऐ भारत!
कहाँ किस्मत मेरी ऐसी नसीबा ये कहाँ मेरा;
तेरी खिदमत में ए भारत! ये सर जाये ये जाँ जाये,
तो समझूँगा कि मरना है हयाते-जादवां मेरा.”


यह लेख हमारे महान क्रांतिवीरों की याद को नमन करते हुए समर्पित है।
करतार सिंह सराभा अमर रहें!

बाघा जतिन

बाघा जतिन: भारत माता का शेर और क्रांति का अग्रदूत

“आमरा मोरबो, जगत जागबे” — “जब हम मरेंगे तभी देश जागेगा।” यह नारा देने वाले बाघा जतिन, भारत के उन महान क्रांतिकारियों में से एक थे जिन्होंने अपने साहस, दूरदृष्टि और बलिदान से आजादी की लड़ाई को एक नया मोड़ दिया।

प्रारंभिक जीवन

बाघा जतिन का असली नाम यतीन्द्र नाथ मुखर्जी था। इनका जन्म 7 दिसंबर 1879 को कायाग्राम गांव, जिला कुड़ीया, बंगाल में हुआ। जब वे मात्र पांच वर्ष के थे, उनके पिता उमेश चन्द्र का निधन हो गया। उनकी माताजी ने उनमें देशभक्ति का बीज बो दिया, जो आगे चलकर एक विशाल वटवृक्ष बना।

इंट्रेंस परीक्षा पास करने के बाद जतिन एक स्टेनोग्राफर के रूप में नियुक्त हुए, लेकिन जल्द ही नौकरी छोड़कर स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े।

‘बाघा जतिन’ कैसे बने

एक बार गांव में आतंक मचा रहे एक नरभक्षी बाघ को जतिन ने अकेले छुरी से मार गिराया और गांव को भय से मुक्त किया। तभी से वे “बाघा जतिन” के नाम से प्रसिद्ध हो गए।

क्रांतिकारी गतिविधियाँ

बाघा जतिन, क्रांतिकारी संगठन जुगांतर से जुड़े और जल्द ही फिरंगियों के लिए आतंक बन गए। उन्होंने 1905 में दार्जिलिंग मेल में चार फिरंगियों को अकेले ही पीट दिया।

एक और वाकया – जब प्रिंस ऑफ वेल्स के स्वागत जुलूस में कुछ अंग्रेजों ने गाड़ी की छत से महिलाओं की खिड़की में पैर लटका दिए, तो जतिन ने उन्हें चेतावनी दी। जब वे नहीं माने, तो जतिन खुद ऊपर चढ़े और सभी को सबक सिखाया

स्वतंत्रता के लिए हथियारों की व्यवस्था

बाघा जतिन ने बलिया घाट, गार्डन रीच, ढुलरिया जैसी जगहों पर डकैती कर हथियार और धन एकत्र किया। एक डकैती में उन्हें 22,000 रुपये मिले, वहीं एक अन्य डकैती में राडा कंपनी से लूटे पार्सल में 52 मौजर पिस्तौल और 50,000 कारतूस थे।

उन्होंने बंगाल, बिहार, उड़ीसा और संयुक्त प्रांत में क्रांतिकारियों की शाखाओं को जोड़ने का संगठित प्रयास किया।

जर्मनी और ग़दर पार्टी से संपर्क

1908 में अलीपुर बम कांड में नाम आने के बावजूद बाघा जतिन गुप्त रूप से देशभर के क्रांतिकारियों को जोड़ते रहे।

1910 में गिरफ्तार हुए लेकिन ठोस सबूत न मिलने पर रिहा कर दिए गए। उन्होंने वीरेन्द्रनाथ चट्टोपाध्याय (चट्टो) को सैन फ्रांसिस्को भेजा, जहाँ उन्होंने ग़दर पार्टी और जर्मन राजदूत थियोडर हेलफरीश से हथियार भेजने की योजना बनाई।

बाघा जतिन की सोच अत्यंत दूरदर्शी थी। उन्होंने यह सुनिश्चित किया कि आजादी के बाद जर्मनी भारत पर कोई दावा नहीं करेगा और न ही उसकी सेना भारत में प्रवेश करेगी। यह बात हथियार सौदे में स्पष्ट लिखवाई गई थी।

हथियार लाने वाले जहाज़ और अंग्रेजों की गुप्त जानकारी

  • मेवरिक नामक जहाज़ से हथियार आने थे, लेकिन इसकी सूचना किसी गद्दार ने अंग्रेजों को दे दी।
  • हथियार लाने वाला Amber Larsen जहाज़ वाशिंगटन में पकड़ लिया गया।
  • हेनरी नामक जहाज़ मनीला में पकड़ा गया।
  • श्याम (थाईलैंड) से 5,000 बंदूकें और 1 लाख रुपये नगद लेकर एक जहाज़ रायमंगल आने वाला था, लेकिन उसकी भी जानकारी अंग्रेजों को मिल गई।
  • जर्मनी से भेजे गए दो और जहाज़ फिलीपींस के पास पकड़ लिए गए।

बालासोर की अंतिम लड़ाई

9 सितंबर 1915 को बाघा जतिन अपने पांच साथियों के साथ बालासोर के पास एक पहाड़ी में वर्षा से बचने के लिए आश्रय लिए हुए थे। तभी अंग्रेज पुलिस ने उन्हें घेर लिया।

चित्ताप्रिय और अन्य साथियों ने उन्हें वहां से भाग जाने को कहा, लेकिन बाघा जतिन ने अपने साथियों को छोड़ने से इनकार कर दिया। दुर्भाग्यवश, गांववालों ने उन्हें डकैत समझ लिया और पुलिस की मदद करने लगे।

मुठभेड़ में बाघा जतिन को गोलियां लगीं और वे 10 सितंबर 1915 को शहीद हो गए। इन पांच वीरों की वीरता की प्रशंसा खुद अंग्रेज खुफिया विभाग के अधिकारी टेगर्ट ने भी की।

ब्रिटिश खुफिया अधिकारी की श्रद्धांजलि

जब बैरिस्टर जे. एन. राय ने टेगर्ट से पूछा – “क्या यतीन्द्र जीवित हैं?”
तो टेगर्ट का जवाब था:

“दुर्भाग्यवश वह मर गया। Though I had to do my duties, I have a great admiration for him. He was the only Bengali who died in open fight from trench.”

उन्होंने यह भी कहा:

“अगर यह व्यक्ति जीवित होता, तो शायद पूरी दुनिया का नेतृत्व करता।”

बाघा जतिन का असर

ब्रिटिश प्रशासन बाघा जतिन और उनके दल से इतना भयभीत था कि 1912 में कलकत्ता से राजधानी दिल्ली स्थानांतरित कर दी गई

उनकी सोच लोकतांत्रिक थी। वे कहते थे:

“पूंजीवाद समाप्त कर श्रेणीहीन समाज की स्थापना क्रांतिकारियों का लक्ष्य है। देसी-विदेशी शोषण से मुक्ति और आत्म-निर्णय द्वारा जीवनयापन का अवसर प्राप्त करना हमारी प्राथमिक मांग है।”

सम्मान और विरासत

भारत सरकार ने उनकी स्मृति में डाक टिकट जारी किया।
बाघा जतिन का बलिदान भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की प्रेरणा की मिसाल बन गया। वे न केवल वीरता, बल्कि दूरदर्शिता और संगठनात्मक कुशलता के प्रतीक थे।


बाघा जतिन की गाथा एक साहसी योद्धा की कहानी नहीं, बल्कि भारत के स्वतंत्रता संग्राम के सबसे साहसी अध्यायों में से एक है।

हेमू कालानी

हेमू कालानी – सिंध का वीर बाल क्रांतिकारी

23 मार्च 1923 को सिंध के सख्कर नगर में एक ऐसे वीर बालक ने जन्म लिया, जो देश की स्वतंत्रता के लिए फाँसी का फंदा चूमने से भी नहीं डरा। यह बालक था हेमू कालानी, जिनके पिता श्री पेशूमल और माता श्रीमती जेठीबाई थीं। हेमू बचपन से ही क्रांतिकारी विचारों से ओतप्रोत थे और देश की आज़ादी के लिए निरंतर संघर्षरत रहे।

क्रांतिकारी शुरुआत

हेमू ने विदेशी वस्त्रों के बहिष्कार और भारत छोड़ो आंदोलन में सक्रिय भागीदारी की। वे छात्र संगठन “स्वराज सेना” के सक्रिय सदस्य थे और क्रांतिकारी गतिविधियों में दिन-रात लगे रहते थे। उनके भीतर देशभक्ति की ज्वाला इस कदर धधक रही थी कि वे हर कीमत पर भारत को स्वतंत्र देखना चाहते थे।

ट्रेन पलटने की योजना

हेमू को खबर मिली कि 23 अक्टूबर 1942 को एक अंग्रेजी ट्रेन, जिसमें हथियार और सैनिक भरे हुए थे, रोहिड़ी से सख्खर होते हुए बलूचिस्तान के क्वेटा जा रही है ताकि वहाँ के आंदोलन को दबाया जा सके। इस ट्रेन को रोकने का साहसिक निर्णय लेकर हेमू ने अपने दो बाल मित्रों – नंद और किशन – के साथ मिलकर रेल की पटरियों से फिशप्लेट उखाड़ने की योजना बनाई।

लेकिन जैसे ही उनका काम शुरू हुआ, पुलिस मौके पर आ गई। हेमू ने अपने दोनों साथियों को वहां से भगा दिया, लेकिन स्वयं गिरफ्तारी दे दी।

क्रूरता और साहस

पुलिस ने क्रूरता की सारी सीमाएं पार कर दीं। हेमू को बर्फ की सिल्ली पर लिटाकर हंटरों से मारा गया, जिससे उनका पूरा शरीर छलनी हो गया, लेकिन उन्होंने अपने साथियों का नाम नहीं बताया।

जब उनके साथियों की माताएं जेल में उनसे मिलने आईं और उनके दुःख से व्यथित हुईं, तब हेमू ने संकल्प लिया कि किसी भी स्थिति में अपने साथियों का नाम उजागर नहीं करेंगे। यह आम चर्चा में था कि हेमू के साथ दो और बालक थे।

जब मजिस्ट्रेट के सामने उन्हें पेश किया गया और साथियों के नाम पूछे गए, तो हेमू ने साहसपूर्वक उत्तर दिया – “छन्नी और हथौड़ा”

अद्वितीय प्रतिकार और बलिदान

फांसी की सजा सुनानेवाले जज कर्नल रिचर्डसन के चेहरे पर हेमू ने थूक दिया। जब वायसरॉय के सामने क्षमा याचना पेश की गई, तो उसने भी साथियों के नाम बताने की शर्त रखी। लेकिन वीर हेमू ने स्पष्ट रूप से इनकार कर दिया

जेल में जब उनकी माता जेठीबाई उनसे मिलने पहुंचीं, तो उन्होंने अपने वीर बेटे को शाबाशी दी और कहा कि उन्हें अपनी कोख पर गर्व है।

शहादत

21 जनवरी 1943 को सख्खर केंद्रीय जेल में इन्कलाब ज़िंदाबाद और भारत माता की जय के नारों के साथ हेमू कालानी फांसी के फंदे पर झूल गए। फांसी से पहले जब उनकी अंतिम इच्छा पूछी गई, तो उन्होंने कहा –
“मैं फिर से भारत में जन्म लेना चाहता हूँ।”

सम्मान और स्मृति

भारत सरकार ने 1982 में हेमू कालानी पर डाक टिकट जारी कर उन्हें श्रद्धांजलि दी।
देश की तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने उनकी वीर जननी जेठीबाई को “सिंधुमाता” की उपाधि प्रदान की।


हेमू कालानी का बलिदान हमें यह सिखाता है कि देशभक्ति उम्र की मोहताज नहीं होती।
उन्होंने दिखा दिया कि एक बालक भी अत्याचार और अन्याय के खिलाफ खड़ा हो सकता है। उनका जीवन, साहस और शहादत भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में सदा अमर रहेगा।

महावीर सिंह

महावीर सिंह – गुमनाम लेकिन अमर शहीद

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में असंख्य ऐसे क्रांतिकारी हुए हैं, जिनके नाम इतिहास के पन्नों में नहीं मिलते। वे गुमनाम रहकर भी देश की आज़ादी के लिए प्राणों की आहुति दे गए। ऐसे ही महान लेकिन अल्पज्ञात क्रांतिकारी थे शहीद महावीर सिंह


प्रारंभिक जीवन

महावीर सिंह का जन्म 16 सितम्बर 1904 को उत्तर प्रदेश के एटा जिले के शाहपुर टहला गाँव में हुआ था। उनके पिता कुंवर देवी सिंह एक प्रसिद्ध वैद्य थे। बचपन से ही महावीर सिंह क्रांतिकारी विचारों के धनी थे।

साल 1922 की बात है, जब कासगंज तहसील में सरकारी अधिकारियों ने अंग्रेजों के पक्ष में एक “अमन सभा” आयोजित की। छोटे-छोटे बच्चों को भी जबरन इस सभा में बिठाया गया, जिसमें महावीर सिंह भी थे। जब सभा में अंग्रेजी राज के गुण गाए जा रहे थे, तभी महावीर सिंह ने ज़ोर से नारा लगाया – “महात्मा गांधी की जय!”
पूरा वातावरण इस नारे से गूँज उठा और अंग्रेज़ों की सभा गांधी जी के जयघोष में बदल गई।


क्रांति की राह

1925 में महावीर सिंह ने डी. ए. वी. कॉलेज, कानपुर में प्रवेश लिया। यहीं उनकी भेंट चन्द्रशेखर आज़ाद से हुई और वे हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन (HSRA) के सक्रिय सदस्य बन गए। वे भगत सिंह के प्रिय साथियों में से एक बन गए।

इसी समय उनके पिता ने विवाह के लिए पत्र भेजा, जिससे वे विचलित हो गए। शिव वर्मा की सलाह से उन्होंने अपने क्रांतिकारी पथ की जानकारी देते हुए पिताजी को पत्र लिखा। पिताजी का जो उत्तर आया, वह क्रांतिकारी इतिहास का अमूल्य दस्तावेज है:

“मुझे यह जानकर बड़ी ख़ुशी हुई कि तुमने अपना जीवन देश के काम में लगाने का निश्चय किया है… देश की सेवा का जो मार्ग तुमने चुना है वह बड़ी तपस्या का और बड़ा कठिन मार्ग है लेकिन जब तुम उस पर चल ही पड़े हो तो कभी पीछे न मुड़ना… तुम जहाँ भी रहोगे, मेरा आशीर्वाद हमेशा तुम्हारे साथ है।”
– तुम्हारा पिता, देवी सिंह


लाहौर षड्यंत्र केस और जेल यात्रा

लाहौर में पंजाब नेशनल बैंक एक्शन की योजना बनाई गई थी, लेकिन विश्वसनीय वाहन न मिलने के कारण यह टल गया। 1929 में केंद्रीय असेम्बली बम कांड के बाद वे पुलिस की गिरफ्त में आ गए।

जेल में उन्होंने 13 जुलाई 1929 से आमरण अनशन शुरू किया। 63 दिनों तक लगातार उन्हें प्रताड़ित किया गया। हर दिन नली से दूध पिलाया गया और प्रतिदिन उन्हें पीटा गया। उनके साथियों में बटुकेश्वर दत्त, गयाप्रसाद, कुंदनलाल और जितेन्द्रनाथ सान्याल शामिल थे।

लाहौर षड्यंत्र केस की अदालती सुनवाई के दौरान इन सभी ने अदालत की वैधता को चुनौती दी और एक पत्र में लिखा:

“हमारा यह दृढ विश्वास है कि साम्राज्यवाद लूटने-खसोटने के उद्देश्य से संगठित किए गये एक विस्तृत षड्यंत्र के अलावा और कुछ नहीं है… हम परिवर्तन चाहते हैं – सामाजिक, राजनैतिक तथा आर्थिक सभी क्षेत्रों में आमूल परिवर्तन…”

“क्रांतिकारी तो शांति के उपासक हैं – सच्ची और टिकाऊ शांति के, जिसका आधार न्याय और समानता हो, न कि संगीनों की नोक पर थोपे गए डर की शांति।”

सांडर्स कांड में उन्हें आजीवन कारावास की सजा मिली। पहले उन्हें बेलगाम (कर्नाटक) जेल भेजा गया और फिर जनवरी 1933 में उन्हें अंडमान की सेल्युलर जेल भेज दिया गया।


अंतिम बलिदान

12 मई 1933 से अंडमान जेल में सभी राजनैतिक कैदियों ने सम्मानजनक व्यवहार और सुविधाओं की माँग को लेकर अनशन शुरू कर दिया। महावीर सिंह ने भी भाग लिया। अनशन के छठे दिन, प्रशासन ने जबरन दूध पिलाने की प्रक्रिया शुरू की।

17 मई 1933 को 10–12 लोगों ने उन्हें ज़मीन पर पटक दिया। डॉक्टर ने एक घुटना उनकी छाती पर रखकर नली जबरदस्ती नाक में डाली, जो फेफड़ों में चली गई। इससे महावीर सिंह वीरगति को प्राप्त हो गए।

अंग्रेजों ने उनके पार्थिव शरीर को समुद्र में बहा दिया। उनके वस्त्रों में एक पत्र मिला, जो उनके पिता का था। उसमें लिखा था:

“उस टापू पर सरकार ने देशभर के जगमगाते हीरे चुन -चुनकर जमा किए हैं। मुझे ख़ुशी है कि तुम्हें उन हीरों के बीच रहने का मौक़ा मिल रहा है। उनके बीच रहकर तुम और चमको, मेरा तथा देश का नाम अधिक रौशन करो, यही मेरा आशीर्वाद है।”


महावीर सिंह भले ही इतिहास की मुख्यधारा से बाहर रहे हों, लेकिन उनके साहस, बलिदान और आदर्श आज भी क्रांतिकारियों के लिए प्रेरणा स्रोत हैं। वे उन हजारों गुमनाम लेकिन अमर शहीदों में से एक हैं, जिन्होंने भारत माता के लिए प्राणों की आहुति दी और कभी कोई पुरस्कार या प्रसिद्धि नहीं चाही।

उनकी शहादत को हमारा कोटिशः नमन।

सुखदेव

क्रांति के सूत्रधार: क्रांतिवीर सुखदेव

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में जिन युवाओं ने अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया, उनमें शहीद सुखदेव थापर का नाम सदैव स्वर्णाक्षरों में लिखा जाएगा। वह न केवल भगत सिंह और राजगुरु के अभिन्न साथी थे, बल्कि हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन (HSRA) के एक प्रखर विचारक, योजनाकार और संगठनकर्ता भी थे।

प्रारंभिक जीवन और प्रेरणा

सुखदेव का जन्म 15 मई 1907 को गांव नौधरा, जिला लुधियाना, पंजाब में हुआ था। जब वे मात्र तीन वर्ष के थे, तब उनके पिता लाला रामलाल का निधन हो गया। इसके बाद उनका पालन-पोषण उनके ताया श्री अचिन्तराम ने किया, जो 1920 में लायलपुर कांग्रेस के अध्यक्ष थे।

ताया जी ने बचपन से ही सुखदेव के मन में वीरता और क्रांति के बीज बो दिए। एक प्रसंग में जब दीवाली की पूजा के लिए माँ ने उन्हें लक्ष्मी जी की तस्वीर लाने को कहा, तो सुखदेव रानी लक्ष्मीबाई की तस्वीर ले आए और माँ को रानी की बहादुरी की कहानियाँ सुनाईं।

जलियांवाला कांड और असहयोग आंदोलन का प्रभाव

1919 में जलियांवाला बाग हत्याकांड के समय सुखदेव की आयु 12 वर्ष थी। यह घटना उनके हृदय और मस्तिष्क पर गहरा असर छोड़ गई। जब 1920 में उनके ताया जी को असहयोग आंदोलन में भाग लेने के कारण गिरफ्तार किया गया, तो उनके अंदर अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह और उग्र हो गया।

शिक्षा और क्रांतिकारी संगठन से जुड़ाव

सुखदेव ने सनातन धर्म स्कूल, लायलपुर में शिक्षा प्राप्त की। वहां उन्होंने एक अंग्रेज अफसर को परेड के दौरान सलामी देने से इनकार कर दिया। इसके बाद वे लाहौर के नेशनल कॉलेज में पढ़ने लगे, जिसे लाला लाजपत राय ने स्थापित किया था। कॉलेज का ‘द्वारका प्रसाद पुस्तकालय’ क्रांतिकारी विचारों का केंद्र था, जहां राजाराम शास्त्री और प्रोफेसर जय चंद्र जैसे प्राध्यापक छात्रों में राष्ट्रीय चेतना भरते थे। यहीं सुखदेव की मित्रता भगत सिंह, भगवती चरण वोहरा, जयदेव और जसवंत सिंह जैसे युवाओं से हुई।

साइमन कमीशन और लाला लाजपत राय का बलिदान

1928 में साइमन कमीशन के लाहौर आगमन पर सुखदेव, भगत सिंह और अन्य साथियों ने लाला लाजपत राय के नेतृत्व में जबरदस्त विरोध प्रदर्शन किया। पुलिस अधीक्षक स्कॉट के आदेश पर लाठीचार्ज हुआ और उप पुलिस अधीक्षक सांडर्स ने लाला जी के सिर पर प्रहार किया, जिससे उनकी 17 नवंबर 1928 को मृत्यु हो गई।

लाला जी के दाह संस्कार के समय ही सुखदेव और भगत सिंह ने बदला लेने का प्रण लिया और 17 दिसंबर 1928 को सांडर्स की हत्या कर दी गई।

क्रांतिकारी संगठन और भूमिगत गतिविधियाँ

1925 में ‘नौजवान भारत सभा’ का गठन हुआ, जिसमें सुखदेव अध्यक्ष, भगत सिंह महासचिव और भगवती चरण वोहरा प्रचार मंत्री बनाए गए। 1926 में यह सभा एक गुप्त क्रांतिकारी दल में परिवर्तित हो गई।

8–9 सितंबर 1928 को दिल्ली के फिरोजशाह कोटला के खंडहरों में हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन (HSRA) का गठन हुआ। इस संगठन में चंद्रशेखर आजाद को कमांडर-इन-चीफ नियुक्त किया गया, और सुखदेव को छद्म नाम ‘विलेजर’ दिया गया।

लाहौर के कश्मीरी बिल्डिंग में गुप्त रूप से बम निर्माण फैक्ट्री स्थापित की गई थी। पुलिस को मुखबिरी के जरिए इसका पता चला और 16 मार्च 1929 को सुखदेव को गिरफ्तार कर लिया गया।

विचारधारा और गांधी जी को पत्र

सुखदेव एक सच्चे विचारशील क्रांतिकारी थे। उन्होंने गांधी जी को एक ऐतिहासिक पत्र लिखा जो ‘नवजीवन’ में 30 अप्रैल 1931 को प्रकाशित हुआ। इस पत्र में उन्होंने क्रांतिकारी आंदोलन की आवश्यकता और गांधी जी के आंदोलन-विराम के निर्णय पर गंभीर प्रश्न उठाए।

“…कृपया आप क्रांतिकारियों से बात कीजिए, उनके दृष्टिकोण को समझिए या फिर ऐसी अपीलें बंद कर दीजिए। ये अपीलें सरकार की मदद करती हैं, क्रांतिकारियों को कुचलने के लिए।…”

अंतिम बलिदान

अंत में, 23 मार्च 1931 को सुखदेव, भगत सिंह और राजगुरु को निर्धारित तिथि से एक दिन पहले लाहौर सेंट्रल जेल में रात्रि 7:33 बजे फांसी दे दी गई। ब्रिटिश हुकूमत ने सभी नियमों को तोड़कर इन वीरों के शवों को सतलुज किनारे गुप्त रूप से जला दिया


शत-शत नमन

क्रांतिवीर सुखदेव ने न केवल आजादी की लौ को जलाए रखा, बल्कि संगठन, विचार और बलिदान से उस क्रांति को दिशा भी दी। उनके जीवन से आज भी प्रेरणा ली जा सकती है — साहस, विचार और संकल्प का संगम

शत-शत नमन, अमर शहीद सुखदेव को। 

अमर शहीद राजगुरु

अमर शहीद राजगुरु: देशभक्ति और बलिदान की मिसाल

अमर शहीद शिवराम हरि राजगुरु भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के ऐसे वीर सपूत थे जिन्होंने देश की आज़ादी के लिए हँसते-हँसते अपने प्राणों की आहुति दे दी। उनका जन्म 24 अगस्त 1908 को महाराष्ट्र के पुणे ज़िले के खेड़ गांव में हुआ था। जब वे मात्र 6 वर्ष के थे, तभी उनके पिता का निधन हो गया।

संघर्षमय प्रारंभिक जीवन

राजगुरु का बाल्यकाल कठिनाइयों से भरा था। सन् 1924 में, एक बार अपने बड़े भाई से नाराज़ होकर वे बिना किसी को बताए घर से निकल पड़े और घूमते-घूमते झांसी पहुंचे। वहां मन नहीं लगने पर वे काशी पहुंच गए, जहाँ एक संस्कृत विद्यालय में पढ़ाई शुरू कर दी। भाई को सूचना देने पर उन्होंने मासिक पांच रुपये भेजने शुरू किए, जो ज़रूरतों के लिए बहुत कम थे।

राजगुरु विद्यालय के गुरुजी के घर बर्तन मांजने, झाड़ू लगाने, कपड़े धोने और पैर दबाने जैसे कार्य करते थे, जिसके बदले उन्हें भोजन और बिना फीस के शिक्षा मिलती थी। मगर यह जीवन उन्हें रास नहीं आया और उन्होंने पढ़ाई छोड़ दी। बाद में वे एक प्राइमरी स्कूल में ड्रिल मास्टर बन गए।

क्रांतिकारी जीवन की शुरुआत

उसी समय उनका संपर्क गोरखपुर स्वदेश सप्ताह के सह-संपादक श्री मुनीश्वर अवस्थी से हुआ। अवस्थी जी स्वयं एक क्रांतिकारी थे, जिनके माध्यम से राजगुरु हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन (HSRA) के सदस्य बने। राजगुरु सदैव क्रांतिकारी गतिविधियों में सबसे आगे रहने की इच्छा रखते थे, परंतु उनकी शिक्षा कम होने के कारण कई बार उन्हें कुछ एक्शन में शामिल नहीं किया जाता, जिससे वे नाराज़ रहते थे।

एक बार उन्हें और शिव वर्मा को एक गद्दार का वध करने दिल्ली भेजा गया। दोनों के पास केवल एक ही रिवॉल्वर था। दूसरी रिवॉल्वर की व्यवस्था के लिए शिव वर्मा लाहौर चले गए। जब वे अगले दिन दिल्ली लौटे, तो देखा कि लक्ष्य स्थान पर किसी व्यक्ति की गोली मारकर हत्या कर दी गई है और हत्यारा फरार हो चुका है। बाद में पता चला कि राजगुरु ने अकेले ही साहसपूर्वक एक्शन ले लिया, परंतु दुर्भाग्यवश जो व्यक्ति मारा गया, वह टारगेट नहीं था

क्रांतिकारी जोश और निर्भीकता

असेंबली बम कांड के समय भी राजगुरु ने इसमें शामिल होने की ज़िद की थी। लेकिन चंद्रशेखर आज़ाद जी ने समझाया कि बम नकली है और उद्देश्य अंग्रेजों को संदेश देना है, इसके लिए अदालत में अंग्रेज़ी में बोलना होगा — जो राजगुरु के लिए कठिन था। राजगुरु ने तब कहा, “मुझे अंग्रेज़ी में लिख कर दे दो, मैं रट लूंगा।

लाला लाजपत राय की मृत्यु का बदला लेने के लिए अंग्रेज़ पुलिस अधिकारी सांडर्स को गोली मारी जानी थी। योजना के अनुसार यह कार्य भगत सिंह को करना था क्योंकि उनका निशाना भी सटीक था और रिवॉल्वर भी बेहतर थी। लेकिन उस एक्शन में भी राजगुरु ने तत्परता से अपनी पिस्तौल से सांडर्स पर गोली चला दी

गिरफ्तारी और हिम्मत

सांडर्स की हत्या के बाद राजगुरु फरार होकर पुणे चले गए। वहां उन्होंने दो-तीन बार साथियों को अपनी पहचान और सांडर्स वध की बात बता दी, जिसकी सूचना खुफिया विभाग तक पहुंच गई। इसी दौरान 27 सितंबर 1929 को जब “काल” पत्रिका के संपादक श्री शिवराम पंथ परांजपे का निधन हुआ, तब उनकी शव यात्रा में शामिल राजगुरु भावुक होकर चिल्ला उठे:

“Long Live Revolution”, “Down with Imperialism”

ये नारे लाहौर एक्शन के समय से प्रसिद्ध थे और खुफिया विभाग के लोग पहले से मौजूद थे। उन्होंने मौके का फायदा उठाकर राजगुरु को गिरफ्तार कर लिया।

जेल में हौसला और भाईचारा

जेल में जब राजगुरु की भूख हड़ताल तुड़वाई जा रही थी, तो भगत सिंह ने हँसी में उन्हें छेड़ा:

आगे भागना चाहते हो बच्चू!” और फिर दूध का गिलास उनके मुंह से लगाकर कहा:
वादा करता हूं अब तुमसे सूटकेस नहीं उठाऊंगा।

दरअसल, सांडर्स वध के बाद जब भगत सिंह बाल छोटे कर हैट लगाकर दुर्गा भाभी के साथ फरार हुए थे, राजगुरु कुली बनकर सूटकेस उठाए हुए साथ चले थे। ये क्षण उनकी मित्रता और संघर्ष का प्रतीक बन गए।

शहादत और अमरता

23 मार्च 1931 को लाहौर सेंट्रल जेल में भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु तीनों क्रांतिकारियों को फांसी दे दी गई। अंतिम क्षणों में वे तीनों निडर होकर “इंकलाब ज़िंदाबाद!” के नारों के साथ हँसते हुए फांसी के फंदे पर झूल गए।


नमन है ऐसे अमर शहीद को

राजगुरु की जीवनगाथा हमें सिखाती है कि सच्चा बलिदान कभी ज्ञान, संसाधनों या उम्र का मोहताज नहीं होता — वह केवल साहस, आत्मबल और देशभक्ति से प्रेरित होता है। उनका जीवन आज भी युवाओं के लिए एक आदर्श है।

श्यामजी कृष्ण वर्मा

क्रांतिकारी श्यामजी कृष्ण वर्मा: स्वतंत्रता संग्राम के विदेश स्थित सेनानी

श्यामजी कृष्ण वर्मा भारत के उन महान स्वतंत्रता सेनानियों में से एक थे, जिन्होंने देश से बाहर रहकर आज़ादी की अलख जगाई। उनका जन्म 4 अक्टूबर 1857 को कच्छ के मांडवी कस्बे के बलायल गांव में उनके ननिहाल में हुआ था। प्रारंभ से ही मेधावी रहे श्यामजी ने 1870 में मिडिल परीक्षा में सर्वोत्तम अंक प्राप्त किए।

आर्य समाज से जुड़ाव और शिक्षा यात्रा

श्यामजी आर्य समाज से गहरे जुड़े थे और महर्षि दयानंद सरस्वती के विचारों से अत्यंत प्रभावित थे। 1875 में जब ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के संस्कृत के प्रसिद्ध विद्वान मोनियर विलियम्स भारत आए, तो श्यामजी के संस्कृत में दिए गए प्रभावशाली भाषण से वे इतने प्रभावित हुए कि उन्हें ऑक्सफोर्ड आने का आमंत्रण दे दिया।

श्यामजी लंदन गए, जहाँ मोनियर विलियम्स के प्रयास से उन्हें ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में संस्कृत का सहायक प्रोफेसर नियुक्त किया गया। वहाँ वे संस्कृत, गुजराती और मराठी पढ़ाने लगे। इसके साथ ही उन्होंने बैलियोल कॉलेज से एम.ए. की डिग्री प्राप्त की और 1884 में बैरिस्टर बनकर भारत लौटे।

प्रशासनिक जीवन और स्वराज की प्रेरणा

भारत लौटने पर श्यामजी ने अजमेर में वकालत शुरू की और नगरपालिका के अध्यक्ष भी बने। उन्होंने रतलाम (म.प्र.), उदयपुर (राजस्थान) और जूनागढ़ (गुजरात) रियासतों में दीवान के पद पर भी कार्य किया। इसके अलावा, वे बंबई हाईकोर्ट में भी वकालत करते रहे। बाल गंगाधर तिलक से उनके अच्छे संबंध थे और चापेकर बंधुओं की कार्रवाई के बाद तिलक की गिरफ्तारी ने उन्हें बहुत व्यथित किया।

उन्होंने महसूस किया कि भारतीय राजा-महाराजा अंग्रेजों के पिछलग्गू बन चुके हैं। इसी कारण उन्होंने भारत से बाहर रहकर स्वाधीनता संग्राम का नेतृत्व करने का निश्चय किया और इंग्लैंड चले गए।

इंग्लैंड में आज़ादी की मशाल

इंग्लैंड पहुंचकर श्यामजी ने आयरलैंड के देशभक्तों और इंग्लैंड के रेडिकल नेताओं से संपर्क स्थापित किया। उन्होंने भारतीय छात्रों के लिए ₹6000 की दो छात्रवृत्तियां शुरू कीं — एक स्वामी दयानंद के नाम पर और दूसरी हरबर्ट स्पेन्सर के नाम पर। छात्रवृत्ति की शर्त यह थी कि पढ़ाई पूरी करने के बाद छात्र अंग्रेजों की नौकरी नहीं करेंगे।

एस. आर. राणा ने भी महाराणा प्रताप और शिवाजी के नाम से छात्रवृत्तियां शुरू कीं। श्यामजी, राणा और मैडम भीकाजी कामा के सहयोग से “The Indian Sociologist” नामक एक मासिक पत्रिका अंग्रेजी में शुरू की गई, जिसमें भारतीय स्वतंत्रता की बातों को मुखर रूप से प्रकाशित किया जाता था।

श्यामजी ने “होम रूल सोसायटी” की स्थापना की, जिसका लक्ष्य भारत में स्वराज्य की स्थापना करना था। इसके अंतर्गत उन्होंने लंदन के हाईगेट क्षेत्र में एक तीन मंजिला भवन खरीदा और वहाँ अपने खर्च पर भारतीय छात्रों के लिए छात्रावास की व्यवस्था की। इस भवन को नाम दिया गया — “इंडिया हाउस”

इंडिया हाउस: क्रांति की भूमि

इंडिया हाउस जल्दी ही भारतीय क्रांतिकारियों का केंद्र बन गया। यहीं से वीर सावरकर और मदनलाल ढींगरा जैसे महान क्रांतिकारी निकल कर आए। इंडिया हाउस से क्रांतिकारी साहित्य का प्रकाशन होता, हथियार और बम बनाने की कला की जानकारी भेजी जाती थी।

यह वही स्थान था जहाँ 10 मई 1857 की क्रांति की वर्षगांठ मनाकर उसे ‘प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम’ घोषित किया गया। यह बात अंग्रेजों को नागवार गुज़री और उन्होंने इंडिया हाउस को बंद करवा दिया।

पेरिस और जिनेवा की क्रांतिकारी गतिविधियाँ

श्यामजी पेरिस चले गए जहाँ पहले से ही मैडम भीकाजी कामा ‘बंदे मातरम्’ और ‘तलवार’ पत्रिकाओं का प्रकाशन कर रही थीं। श्यामजी ने उनके साथ मिलकर ‘The Indian Sociologist’ का पुनः प्रकाशन शुरू किया।

1908 में परिस्थितियों के चलते उन्हें पेरिस छोड़कर जिनेवा जाना पड़ा। 1918 में उन्होंने बर्लिन और इंग्लैंड में आयोजित विद्या सम्मेलनों में भारत का प्रतिनिधित्व किया।

वीर सावरकर को जब समुद्री मार्ग से भारत लाया जा रहा था, तो उन्हें छुड़ाने के लिए श्यामजी, मैडम कामा और एस. आर. राणा ने एक योजना बनाई। योजना अनुसार सावरकर समुद्र में छलांग लगाकर फ्रांस के मार्सेलीज़ बंदरगाह पहुंचे, लेकिन टैक्सी देर से पहुंची और वे पुनः गिरफ्तार हो गए।

अंतिम यात्रा और अस्थियों की वापसी

प्रथम विश्व युद्ध के समय श्यामजी पर कड़ी निगरानी रखी जाने लगी। वे जिनेवा चले गए और वहीं 30/31 मार्च 1930 को स्वतंत्रता का सपना संजोए स्वर्ग सिधार गए। उनकी पत्नी का भी देहांत जिनेवा में हुआ था। दोनों की अस्थियाँ जिनेवा की सेंट जॉर्ज सिमेट्री में रखी गईं और वर्षों तक वे मातृभूमि के स्पर्श की प्रतीक्षा करती रहीं।

यह प्रतीक्षा तब पूरी हुई जब 2003 में गुजरात के मुख्यमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने स्विट्ज़रलैंड सरकार से अनुरोध कर उनकी अस्थियों को भारत मंगवाया।

क्रांति-तीर्थ: मांडवी में अमर स्मृति

श्यामजी कृष्ण वर्मा के जन्म स्थान मांडवी में ‘इंडिया हाउस’ की प्रतिकृति बनाकर उसका नाम ‘क्रांति-तीर्थ’ रखा गया है, जिसमें एक पुस्तकालय भी स्थापित किया गया है। यह स्मारक भारतीय युवाओं को प्रेरित करता है कि देश की आज़ादी की लड़ाई केवल भारत में ही नहीं, बल्कि विदेशों की धरती पर भी लड़ी गई थी।

शत शत नमन

शत शत नमन
महान क्रांतिवीर को।

चंद्रशेखर “आज़ाद”

चंद्रशेखर ‘आज़ाद’ – स्वतंत्रता संग्राम के अजेय योद्धा

जन्म : 23 जुलाई 1906
शहादत : 27 फरवरी 1931

भारत माता के ऐसे वीर सपूत, जिनका नाम सुनते ही फिरंगियों और पुलिस की घिग्घी बंध जाती थी — चंद्रशेखर ‘आज़ाद’। उनका जन्म मध्यप्रदेश के झाबुआ जिले के गांव भाँवरा, तत्कालीन अलीराजपुर रियासत में हुआ था। उनके पिता पंडित सीताराम तिवारी एक निर्धन ब्राह्मण थे।

एक बालक से “आज़ाद” बनने तक

सविनय अवज्ञा आंदोलन के समय बनारस में 13 से 15 वर्ष की आयु के बच्चों का एक जुलूस निकाला गया। पुलिस ने जुलूस को तितर-बितर कर दिया और एक 12 वर्षीय बाल नेता को पकड़कर मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया।
जब मजिस्ट्रेट ने उसका नाम पूछा, उसने कहा:

“नाम: आज़ाद”
“पिता का नाम: स्वाधीनता”
“निवास स्थान: जेलखाना”

इस उत्तर से क्रोधित मजिस्ट्रेट ने उसे 15 बेंतों की सजा दी। हर बेंत के साथ वह बालक निडरता से नारा लगाता:
“महात्मा गांधी की जय!”

सजा पूरी होते-होते वह बेहोश हो गया। शहर में उसका स्वागत हुआ और उसे मेज पर खड़ा कर लोगों ने अभिनंदन किया। यही वह क्षण था जब ‘आज़ाद’ नाम अमर हो गया।

असहयोग आंदोलन से क्रांति पथ की ओर

गांधीजी द्वारा असहयोग आंदोलन वापस लिए जाने के बाद वही बालक, जो बेंत खाते हुए गांधीजी के नाम के नारे लगा रहा था, अब क्रांति के मार्ग पर निकल पड़ा।

बनारस में सुरेश भट्टाचार्य ‘कल्याण आश्रम’ नामक क्रांतिकारी संगठन चला रहे थे। शचींद्र सान्याल और अन्य क्रांतिकारियों के साथ मिलकर इस संगठन का विलय हुआ और एक नया क्रांतिकारी दल बना:
हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन (HRA)

इस संगठन में शामिल थे:

  • राम प्रसाद बिस्मिल (नेता, शाहजहांपुर)
  • अशफाक उल्ला खान
  • मन्मथनाथ गुप्त
  • ठाकुर रोशन सिंह
  • राजेंद्र लाहिड़ी
  • रामकृष्ण खत्री, दामोदर सेठ, भूपेंद्र सान्याल आदि।

काकोरी कांड और आज़ाद की भूमिका

9 अगस्त 1925 — काकोरी में क्रांतिकारियों ने अंग्रेज़ों का खजाना लूटकर अंग्रेज हुकूमत को झटका दिया।
इस ऐतिहासिक काकोरी एक्शन में आज़ाद सबसे कम उम्र के क्रांतिकारी थे, और वे कभी पकड़े नहीं गए

इसके बाद 31 दिसंबर 1926 को वायसराय इरविन की गाड़ी पर बम फेंका गया, पर अफसोस वह बच गया।

जंगलों से संगठन की कमान

फरारी के दौरान आज़ाद जी ने झांसी के पास ओरछा के जंगलों में ‘हरिशंकर ब्रह्मचारी’ के नाम से रहकर संगठन को तैयार किया।
8 सितंबर 1929, दिल्ली के फिरोज़ शाह कोटला में क्रांतिकारियों की गुप्त सभा हुई, जिसमें संगठन का नाम बना —
हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन (HSRA)

  • प्रचार शाखा के प्रमुख: भगत सिंह
  • सेना शाखा के कमांडर-इन-चीफ़: आज़ाद

लाला लाजपत राय की शहादत और बदला

20 अक्टूबर 1928, साइमन कमीशन के विरोध में लाहौर में प्रदर्शन हुआ।
लाठीचार्ज में लाला लाजपत राय घायल हुए और 17 नवंबर को उनका देहांत हो गया।
इसका बदला लेने के लिए 17 दिसंबर 1928 को सांडर्स का वध किया गया। इस मिशन में शामिल थे — आज़ाद, भगत सिंह और राजगुरु

बम से अंग्रेज़ी कुशासन का विरोध

8 अप्रैल 1929 को भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने विधानसभा में बम फेंक कर ब्रिटिश शासन की नीतियों का अंतरराष्ट्रीय स्तर पर विरोध किया।

इसके बाद भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव गिरफ्तार हुए। कई साथी सरकारी गवाह बन गए और संगठन बिखर गया।

अंतिम योजना और बलिदान

आज़ाद जी ने ग़दर पार्टी के क्रांतिकारी पृथ्वी सिंह से संपर्क किया और भगत सिंह को छुड़ाने की योजना पर कार्य शुरू किया।

27 फरवरी 1931, योजना की चर्चा के दौरान इलाहाबाद के अल्फ्रेड पार्क में पुलिस ने उन्हें घेर लिया। एक देशद्रोही ने सूचना दी थी।

भीषण मुठभेड़ हुई, और जब चारों ओर से घिर गए, तो आज़ाद जी ने अपनी आखिरी गोली खुद को मार ली। उन्होंने कहा था:

“दुश्मन की गोलियों का हम सामना करेंगे,
आज़ाद ही रहे हैं, आज़ाद ही रहेंगे।”

आज़ाद — आदर्श और नेतृत्व के प्रतीक

  • संगठन के वे सर्वश्रेष्ठ कर्ता थे।
  • ‘बिग एक्शन’ (डाका या वध) में साथी की छाया बन कर साथ रहते थे।
  • वेश बदलना, निशानेबाजी, और योजनाओं में वे अद्वितीय थे।
  • आवाज़ पहचान कर निशाना लगा देते थे।

सांडर्स कांड का रोमांचकारी क्षण

घटना के बाद भगत सिंह भागे, पीछे चनन सिंह था, जो ताकतवर था और भगत सिंह को पकड़ सकता था।
आज़ाद जी डीएवी होस्टल की छत से देख रहे थे।
पहली गोली चनन सिंह के कान के पास से गुजरी, दूसरी गोली पेट में लगी — वह ढेर हो गया।

महिलाओं के प्रति सम्मान

एक डाका एक्शन के दौरान जब एक महिला ने उनका हाथ पकड़ लिया, तो उन्होंने बल प्रयोग नहीं किया।
रामप्रसाद बिस्मिल ने आकर महिला से छुड़ाया
यह उनके संस्कारों और चरित्र की महानता को दर्शाता है।

चंद्रशेखर आज़ाद की जीवन यात्रा के कुछ अनकहे किस्से

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में चंद्रशेखर आज़ाद एक ऐसा नाम है, जो बलिदान, साहस और संकल्प का पर्याय बन चुका है। वे न केवल एक कुशल संगठनकर्ता और क्रांतिकारी थे, बल्कि मानवीय संवेदनाओं और तीव्र आत्मबल के प्रतीक भी थे। उनके जीवन से जुड़े कई ऐसे प्रसंग हैं, जो न केवल प्रेरणा देते हैं, बल्कि हृदय को भी छू जाते हैं। आइए, ऐसे ही कुछ रोचक और मार्मिक प्रसंगों पर एक दृष्टि डालते हैं।


1. जब आज़ाद बने उदासी महंत का शिष्य

एक बार रामकृष्ण खत्री ने क्रांतिकारी दल के लिए धन एकत्र करने की योजना बनाई। योजना के तहत उन्होंने आज़ाद जी को गाजीपुर में एक वृद्ध उदासी महंत का शिष्य बना दिया। आशा थी कि वृद्ध महंत के निधन के बाद मठ का पूरा नियंत्रण आज़ाद जी के हाथ में आ जाएगा, जिससे संसाधन प्राप्त होंगे। कुछ दिनों तक आज़ाद जी ने वहाँ टिके रहने की कोशिश की, लेकिन जल्द ही उनका धैर्य जवाब दे गया।

मन्मथ नाथ गुप्त और रामकृष्ण खत्री जी जब आज़ाद जी से मिलने गए, तो आज़ाद जी ने व्यंग्य में कहा —
“यह साला महंत अभी मरने वाला नहीं है, खूब दूध पीता है!”
दोनों ने उन्हें जल्द बुला लेने का आश्वासन दिया, लेकिन आज़ाद जी एक-दो दिन इंतजार करने के बाद बिना किसी को बताए ही मठ छोड़कर निकल गए।


2. जब चूड़ी आंदोलन का सामना हुआ

असहयोग आंदोलन के समय देशभर में महिलाओं ने भी स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेना शुरू कर दिया था। एक अनूठे और प्रतीकात्मक विरोध के रूप में लड़कियों ने चूड़ी आंदोलन शुरू किया। वे सड़कों पर चूड़ियाँ लेकर निकलतीं और जो भी युवक स्वतंत्रता संग्राम में भाग न लेता दिखाई देता, उसे चूड़ियाँ पहना देतीं और कहतीं —
“अगर आज़ादी की लड़ाई नहीं लड़ सकते तो चूड़ियाँ पहन कर घर बैठो।”

एक दिन कुछ बहनों का सामना चंद्रशेखर आज़ाद से हो गया। उन्होंने भी आज़ाद जी का हाथ पकड़कर चूड़ियाँ पहनाने की कोशिश की। लेकिन आज़ाद जी का हाथ इतना मजबूत और बड़ा था कि चूड़ियाँ उसमें समा ही नहीं सकीं। आज़ाद जी मुस्कराकर बोले —
“बहन, ऐसी कोई चूड़ी बनी ही नहीं जो मेरे हाथ में पहना सकें!”
यह सुनकर सब हँस पड़े, और उन बहनों को भी ज्ञात हुआ कि वे एक सच्चे योद्धा से टकरा गई थीं।


3. मशहूर मूंछों वाले फोटो का किस्सा

हम सभी चंद्रशेखर आज़ाद की वह प्रसिद्ध तस्वीर देखते हैं, जिसमें वे मूंछों पर ताव देते हुए खड़े हैं। इस ऐतिहासिक फोटो के पीछे भी एक दिलचस्प कहानी है। मास्टर रूद्र नारायण सिंह, जो एक चित्रकार और फोटोग्राफर थे, ने आज़ाद जी से अनुरोध किया कि वे उनकी एक तस्वीर लेना चाहते हैं। आज़ाद जी ने कहा —
“ठीक है, पहले मूंछों पर ताव तो लगा लेने दो।”

जैसे ही आज़ाद जी ने मूंछों पर ताव देने के लिए हाथ बढ़ाया, मास्टर जी ने बिना समय गंवाए कैमरे का शटर दबा दिया। वह क्षण अब भारत के इतिहास का हिस्सा है और राष्ट्र की अमूल्य थाती बन चुका है।


4. जब माँ की बजाय दल को चुना

यह घटना आज़ाद जी की देशभक्ति और त्याग की चरम सीमा को दर्शाती है। एक बार क्रांतिकारी गणेश शंकर विद्यार्थी जी ने उन्हें 200 रुपये दिए ताकि वे अपनी माता जी को घर भेज सकें। लेकिन उस समय पार्टी के पास खाने तक के पैसे नहीं थे। आज़ाद जी ने वह रकम दल के कार्यों में खर्च कर दी।

जब उनसे पूछा गया कि उन्होंने पैसे अपनी माँ को क्यों नहीं भेजे, तो उनका उत्तर सुनकर हर कोई भावुक हो गया। आज़ाद जी ने कहा —
“उस बूढ़ी माँ के लिए पिस्तौल की दो गोलियाँ काफ़ी हैं। विद्यार्थी जी, इस गुलाम देश में लाखों परिवारों को एक वक्त की रोटी नसीब नहीं होती। मेरी माँ दो दिन में एक बार तो खाना खा ही लेती है। लेकिन मैं पार्टी के किसी सदस्य को भूख से मरने नहीं दूँगा। मेरी माँ-पिता भूखे मर भी गए तो देश को कोई नुकसान नहीं होगा। इस लड़ाई में तो न जाने कितने ही मरते-जीते हैं।”

राजेंद्र लाहिड़ी

राजेंद्र लाहिड़ी: काकोरी के अमर क्रांतिकारी

राजेंद्र लाहिड़ी भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के उन वीर योद्धाओं में से एक थे, जिन्होंने देश की आजादी के लिए अपने प्राणों की आहुति दी। वे काकोरी कांड के प्रमुख क्रांतिकारियों में शामिल थे और उन्होंने अपने बलिदान से देश के युवाओं को स्वतंत्रता के लिए प्रेरित किया।

प्रारंभिक जीवन

राजेंद्र लाहिड़ी का जन्म 29 जून 1901 को गांव मोहनपुर, जिला पबना, बंगाल में हुआ था। उनके जन्म के समय ही उनके क्रांतिकारी पिता श्री क्षितिमोहन मोहन और बड़े भाई अनुशीलन दल की क्रांतिकारी गतिविधियों में शामिल होने के कारण कारावास में थे। इस पृष्ठभूमि ने राजेंद्र के भीतर क्रांति का बीज बहुत पहले ही बो दिया था।

जब वे 9 वर्ष के थे, तब वे अपने मामा के घर वाराणसी आ गए और वहीं से उन्होंने अपनी शिक्षा पूरी की। उन्होंने एफ.ए. (FA) और बी.ए. (BA) की पढ़ाई इतिहास और अर्थशास्त्र विषयों में की थी। इन दोनों विषयों में उन्हें गहरी रुचि थी। उन दिनों वे इतिहास में एम.ए. (MA) कर रहे थे।

साहित्यिक एवं सांस्कृतिक योगदान

राजेंद्र लाहिड़ी को पठन-पाठन और बांग्ला साहित्य में विशेष रुचि थी। उन्होंने अपने भाइयों के साथ मिलकर अपनी माताजी की स्मृति में “बसंत कुमारी पुस्तकालय” की स्थापना की थी। वे हिंदू विश्वविद्यालय की बांग्ला साहित्य परिषद के मंत्री भी थे। उनके लेख ‘बंगवाणी‘ और ‘शंख‘ जैसे बांग्ला पत्रों में छपते थे। इसके अलावा वे “अग्रदूत” नामक हस्तलिखित पत्र के भी प्रवर्तक थे, जिसे बनारस के क्रांतिकारी तैयार करते थे।

क्रांतिकारी जीवन

राजेंद्र लाहिड़ी हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन (HRA) के सक्रिय सदस्य थे। काकोरी एक्शन के बाद उन्हें संगठन की ओर से बम निर्माण की विद्या सीखने के लिए बंगाल भेजा गया, जहाँ दक्षिणेश्वर में वे पुलिस द्वारा गिरफ्तार कर लिए गए। उन्हें अन्य साथियों के साथ 10 वर्ष की सजा सुनाई गई।

बाद में बनारसी दास ने उन्हें काकोरी कांड का संगठनकर्ता बताया, जिसके आधार पर उन्हें बंगाल से लखनऊ लाया गया और काकोरी केस में शामिल किया गया। इस केस में उन्हें भी फांसी की सजा सुनाई गई।

फांसी और अंतिम क्षण

जब अदालत ने फांसी की सजा सुनाई, तब राजेंद्र लाहिड़ी ने अपनी जिंदादिली का परिचय देते हुए जज की ओर आंख मार दी। अदालत से बाहर आते हुए उन्होंने जनसमूह को संबोधित करते हुए कहा:

दरो-दीवार पे हसरत से नजर करते हैं।
खुश रहो अहले-वतन, हम तो सफर करते हैं।

17 दिसंबर 1927 को गोंडा जेल में उन्हें फांसी दी गई। फांसी के दिन उन्होंने क्रांतिकारियों की परंपरा निभाते हुए सुबह उठकर दैनिक दिनचर्या पूरी की, गीता का पाठ किया और प्रसन्नता के साथ खुद ही फांसी के फंदे की ओर बढ़े। उन्होंने फांसी की रस्सी को चूमा, उसे अपने हाथों से गले में डाला और ‘वंदे मातरम्’ के जयघोष के साथ माँ भारती के चरणों में स्वयं को समर्पित कर दिया

अमर संदेश

राजेंद्र लाहिड़ी ने स्पष्ट कहा था:

मैं मरने नहीं जा रहा,
अपितु आज़ादी की लड़ाई को निरंतर रखने के लिए पुनर्जन्म लेने जा रहा हूँ।

नमन

ऐसे वीर सपूत को शत-शत नमन, जिन्होंने हँसते-हँसते अपने प्राणों की आहुति देकर भारत के स्वतंत्रता संग्राम को एक नई दिशा दी।

आज़ादी दो क़दम दूर थी

भारतीय क्रांतिवीरों द्वारा समस्त भारत मे एक ही दिन आज़ादी की लड़ाई लड़ना तय कर योजना बनाई पर हमारे ही ग़द्दारों के द्वारा इसकी सूचना अंग्रेजों को देदी जिसके कारण क्रांतिकारी यह लड़ाई बिना लड़े ही हार गए।
       भारतीय क्रांतिकारी गंभीर अध्ययन के बाद इस निष्कर्ष पर पहुंचे की देश को अंग्रेजों से आजाद कराने के लिए उनके पास आदमियों व हथियारों  की कमी है तथा हथियार खरीदने के लिए धन भी नहीं है।
क्रांतिकारीयों ने इन कमियों को दूर करने के लिए यह योजना बनाई कि ब्रिटेन के दुश्मन देशों से सहयोग लिया जावे , अंग्रेजी सेना में जो भारतीय सैनिक है उन्हें भी आज़ादी के लिए अंग्रेजों के विरुद्ध  युद्ध के लिए तैयार किया जावे व धन उपार्जन हेतु अमीर लोगों व सरकारी खजानों को लूटा जाय।
समस्त तैयारी के बाद देश के समस्त  क्रांतिकारियों को एक निश्चित तिथि व समय पर अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ाई का आह्वान किया जावे।
युद्ध की तैयारी के क्रम में देश मे बम्ब बनाने का कारखाना लगाने के उद्देश्य से हेमचंद्र कानूनगो व  पांडुरंग एम बापथ को बम्ब बनाने की प्रक्रिया सीखने हेतु विदेश भेजा गया उन्होंने रूसी क्रांतिकारी निकोलस सर फ्रांसकी से बम बनाना सिख कर आये व भारत मे बम्ब बनाने का कारखाना लगाया। पिंगले 10 ऐसे शक्तिशाली बम्ब लेकर मेरठ  छावनी पहुंच गए थे। जिनके पकड़े जाने के बाद अंग्रेजी सरकार की रिपोर्ट थी कि इन मेसे एक बम्ब से सारी छावनी को तबाह किया जा सकता था ।
बाघा जतिन ने वीरेंद्र नाथ चट्टोपाध्याय @ चट्टो को सैनफ्रांसिस्को भेजा । चट्टोपाध्याय ने ग़दर पार्टी के सदस्यों की भारत को  हथियार भेजने हेतु जर्मन राजदूत थियोडर हेलफरीश से  सौदा किया ।
भारतीय क्रांतिकारियों के दिमाक में  यह बात स्पष्ट थी कि कहीं अंग्रेजों से पीछा छुड़ाकर  जर्मनी और जापान वालों के अधीन न हो जाए । इसलिए जर्मनी से  हथियारों की सहायता हेतु जो करार किया गया उसमें स्पष्ट लिखा गया कि हथियारों की कीमत आजादी के बाद जर्मनी को दी जाएगी ।आजादी के बाद जर्मनी का भारत पर किसी तरह का कोई दावा नहीं होगा ।जर्मन फ़ौज भारत मे प्रवेश नहीं करेगी।
संगठन व छावनियों में भारतीय सैनिकों से  सम्पर्क के क्रम में  फिरोजपुर में  संगठन भार रासबिहारी बोस और करतार सिंह सराभा को सौंपा गया ।
जबलपुर, अजमेर ,बरेली, बनारस, दानापुर, गुवाहाटी, मेरठ व  रावलपिंडी की सैनिक छावनियों में सम्पर्क का भार  नलिनी मोहन मुखोपाध्याय, प्रताप सिंह बारठ,  दामोदर स्वरूप, शचींद्रसान्याल , नरेंद्र नाथ, विष्णु गणेश पिंगले,  तथा निधान सिंह को सौंपा गया।
हिरदेराम को जालंधर छावनी, प्यारा सिंह को कपूरथला छावनी तथा डॉक्टर मथुरा सिंह को पेशावर की छावनी में भेजा गया।
सभी छावनियों में भारतीय सैनिकों ने अंग्रेजों को मार भगाने हेतु साथ देने का विश्वास दिलाया।

आज़ादी दो कदम दूर थी
        21फरवरी 1915

इस क्रांति को और बल मिला जब  कनाडा सरकार ने भारतीय लोगों को कनाडा से बाहर निकालने के लिए मजबूर कर रही थी और कामागाटामारू जहाज के कलकत्ता पहुंचने पर जहाज में सवार प्रवासी भारतीयों को बजबज में रेलगाड़ी द्वरा बलपूर्वक पंजाब लाये जाने की कोशिश की गई जिसमें  कुछ सिखों को मार दिया व कुछ को गिरफ्तार किया गया।
इस घटना का समाचार देश विदेश में पहुंच गया । विदेशों में ग़दर पार्टी आजादी के लिए सक्रिय थी।
विदेशों में खबर फेल गई कि अंग्रेजों को भारत से भगाने के लिए जंग होनेवाला है ।
इस प्रतिक्रिया में प्रवासी भारतीयों ने भी भारत आकर अंग्रेजों को भारत से मार भगाने की तैयारियों के भारत का रुख किया ।
अलग अलग जहाजों से  प्रवासी भारतीय जिनमे अधिकतम सिख व गदर पार्टी के सदस्य थे, अपने हाथों में  हथियार लिए गदर की गूंज मचाते हुए कोरिया टोषामारू, माशियामारू, कवाचिमारू सलमिस नामक व अन्य जहाजों से भारत पहुंचे। जिनकी कुल संख्या लगभग 8000 थी।
रासबिहारी बोस ने क्रांतिकारी चिंताकरण पिल्ले को एक जापानी पनडुब्बी से अंडमान भेजा ताकि वह वीर सावरकर अन्य क्रांतिकारियों को जेल से मुक्त कराकर भारत ले आये ।  पिल्ले बंगाल की खाड़ी जाने में सफल नहीं हो सके और उनकी पनडु्बी नष्ट कर दी गई । क्योंकि इसकी सूचना अंग्रेजों को पहले से हो चुकी थी ।

अमरीका से तोशामारू जहाज से सोहन सिंह जी , निधान सिंह जी, अरुण सिंह जी, केसर सिंह जी पंडित जगत राम हरियाणवी आदि भारत आए 29 अक्टूबर को यह जहाज कोलकाता पहुंचा परंतु पुलिस को पूर्व में खबर हो चुकी थी।जहाज भारत पहुंचते ही 173 सिखों को गिरफ्तार कर लिया गया । जिनमें से 73  तो जेल से भाग निकले ।
देश के गद्दार हमेशा ही देश का दुर्भाग्य बने है । इस बार भी यही हुआ एक पुलिस अधिकारी ने कृपाल सिंह नामक एक व्यक्ति को क्रांतिकारी दल में शामिल करवा दिया जो सारी खबरें अंग्रेजों को देने लगा।
भारतीय क्रांतिकारियों ने इस महान युद्ध के लिए 21 फरवरी 1915 की तिथि निश्चित करते हुए सब जगह सूचना  दे दी । गद्दार कृपाल सिंह ने इस कि सूचना अंग्रेजों को दे दी ।
इसपर जंग की तिथी दो दिन पहले यानी 19 फ़रवरी तय की गई । करतार सिंह जी को ज्ञान नहीं था कि कृपालसिंह गद्दार है उन्होंने परिवर्तित तिथि भी कृपाल सिंह को बता दी ।
यह खबर भी अंग्रेजों तक पहुंच गई फिर क्या होना था ?
अंग्रेजों ने छावनियों में भारतीय सैनिकों से हथियार ले लिए व क्रान्तिकारीयों की धर पकड़ शुरू हो गई ।
  क्रांतिकारियों ने  बंगाल व महाराष्ट्र के क्रांतिकारी प्रथा के अनुसार कृपालसिंह गोली मार देते तो ठीक रहता  ।
हालांकि बाद में 1931 में गदरी बाबा हरनाम सिंह ने रामशरण दास व अमर सिंह के साथ कृपाल सिंह का वध करना चाहा परंतु वह बच गया । अंततोगत्वा ग़द्दार को सजा तो मिलनी ही थी ।कुछ दिनों बाद इस गद्दार को जांबाजों ने उसके घर पर ही मार दिया । मरनेवालों का पता ही नहीं चला
उधर जर्मन काउंसलर की मार्फत हत्यारों का जहाज “मेवरिक “की भी सूचना किसी ग़द्दार ने अंग्रेजों को दे दी।
संभवतः हथियार एक अन्य जहाज Amber Larsen द्वारा लाये जाने थे व रास्ते में कहीं इस जहाज से हथियार मेवरिक में रखे जाने थे। और मेवरिक को भारत आना था।Amber Larsen जहाज वाशिंगटन में पकड़ लिया गया था।
इसी कारण यह मेवरिक को हथियार नहीं दे सका तभी मेवरिक कि बटेविया (जावा) में तलाशी ली गई तो इसमें हथियार नहीं थे।
हेनरी नामक जहाज भी मनीला में पकड़ लिया गया व हथियार उतरवा लिए गए।
एक पुस्तक में लिखेनुसार गदर पार्टी के रामचंद्र व जर्मन राजदूत ने केलिफोर्निया के सेनपेड्रो बंदरगाह से मेवरिक में हथियार भेजे थे जिसमें  25  लोग ईरानी वेशभूषा में थे ।
एक किताब में यह भी लिखा है कि रामचंद्र को  गदरी बाबा ने पार्टी हितों के खिलाफ काम करने के कारण अदालत में ही मार दिया था
    मेवरिक में हथियार M N रॉय @ नरेंद्र नाथ  भट्टाचार्य छदम नाम C Martin द्वारा लाये जाने थे जो जर्मन सहायत के पक्ष में नहीं था । फिर जब  मेवरिक की तलाशी  हुई तो उसमें हथियार नहीं थे । नरेन्द्र भी नहीं था। । यह भी कहा जाता है वो रूस भाग गए ।
कुछ भी हो भी शोध का विषय है कि मेवरिक की खबर अंग्रेजों तक कैसे पहुंची व हथियार मेवरिक में रखे गए या नहीं ????
एक ओर जहाज द्वारा श्याम (थाईलैंड)के राजदूत ने 5000 बंदूके व एक लाख रुपये नगद भेजे यह जहाज रायमंगल पहुँचना था ।  इसकी सूचना भी अंग्रेजों को दे दी गयी व  यह जहाज भी पकड़ा गया।
इसी बीच जर्मनी से हथियारों के दो और जहाज भेजे गए परंतु सूचना होने के कारण फिलीपाइन के पास पकड़ लिये गए।
बाघा जतिन हथियारों के इंतजार में थे जिसकी मुखवीरों ने सूचना दे दी । मुठभेड़ में बाघा शहीद हो गए व युगान्तर के सभी गुप्त ठिकानों पर छापे मारे गए ।
योजन के अनुसार विष्णु पिंगले 10 शक्तिशाली बम लेकर मेरठ छावनी पहुंच गए परंतु वहां भी नादिर खान नामक सहयोगी ने 23 मार्च 1915 को पिंगले को पकड़ा दिया।
करतार सिंह जी सराबा  योजना अनुसार करीब 80 क्रांतिकारियों को लेकर निर्धारित स्थान  मेरठ छावनी में पहुंच मजबूरन उन्हे भी वापस लौटना पड़ा ।
इस बीच शचींद्र बक्शी स्वंम मछुआरे के भेष में छोटी जहाज से 3 किलोमीटर समुन्द्र में गए व एक छोटे पार्सल लाने में सफ़ल रहे । इसमें इ 50 जर्मन माउजर थे।  अल्फ्रेड पार्क में मुठभेड़ के समय चंद्रशेखर आजाद के पास इन मे से ही प्राप्त एक था ।
यह सुनहरा मौका था देश को आज़ाद करवाने का जो ग़द्दारों के कारण चूक गए।
परिस्थितियों को समझिए ब्रिटेन प्रथम महायुद्ध में उलझा था। भारत से करीब 150000 सैनिक देश से बाहर लड़ने भेजे गए थे ।
भारत मे उस समय मात्र 15000 सैनिक थे और भारतीय छावनियों में सैनिकों ने क्रांति में साथ देने का विश्वास भी दिलाया हुआ था।
  ब्रिटिश सेना में पंजाब के गवर्नर ओ डायर ने स्वयं लिखा है””

प्रथम महायुद्ध के दौरान ब्रिटिश सरकार बहुत कमजोर हो चुकी थी हिंदुस्तान में केवल 13000 गोरी पोस्ट थी जिसकी नुमाइश बारी बारी से सारे हिंदुस्तान में करके ब्रिटिश शान को कायम रख़ने की चेष्टा की जा रही थी । ये गोरे भी बूढ़े थे। नौजवानों  तो यूरोप के क्षेत्रों में लड़ रहे थे। ऐसी स्थिति में गदर पार्टी की आवाज मुल्क तक पहुंच जाती तो निश्चय है कि हिंदुस्तान अंग्रेजों के हाथ से निकल जाता ।”””

रोना आता है हमारे राजनेताओं पर ठीक उस समय जब एक तरफ क्रांतिकारीयों ने युद्ध इस स्तर पर आज़ादी के लिए जंग की तैयारी कर रही थी ।
उस समय कांग्रेस व मुस्लिम लीग  क्या कर रही थी ।,
इसका भी उल्लेख करना है महात्मा जी बिना न्यौते के ब्रिटिश सरकार की प्रथम महायुद्ध में सहायता करने पहुंचे व सहायता की जिसके लिए 1915 में हार्डिंग ने गाँधीजी को हिन्द -ए -केसरी का खिताब दिया।यह वही हार्डिंग जो चांदनी चौक में क्रांतिकारीयों द्वारा फेंके गए बम्ब से बच गया था।प्रथम महायुद्ध में 74187 भारतीय सैनिक मारे गए थे तथा 67000 भारतीय सैनिक घायल हुए थे ।
यह कैसी अहिंसा थी?
ब्रिटिश साम्राज्यवाद को बचाने के लिए 74187 भरतीयों के प्राण लिए जा सकते है पर देश की आजदी के लिए नहीं ।
अगर बापू उस समय भारतीय सैनिकों को अंग्रेजों को देश से भगाने का आह्वान कर देते तो आजादी दूर नहीं थी ।
   कांग्रेस के 1914 में मद्रास में हुए अधिवेशन में गवर्नर ने भाग लिया। इस अधिवेशन में कांग्रेस में ब्रिटिश शासन के प्रति अटूट विश्वास होने का प्रस्ताव पारित हुआ।

मुस्लिम लीग की स्तिथि स्पष्ट हो गई जब  1913 में लखनऊ अधिवेशन में लीग अध्यक्ष मोहम्मद शफी ने अपने भाषण से मुस्लिम लीग का उद्देश्य राज भक्ति तथा मुस्लिम हित रक्षा के साथ उपयुक्त स्वायत शासन हासिल करना बताया
इससे पता चलता है मुठ्ठीभर फ़िरंगियों ने 175 वर्ष 40 करोड़ भारतीयों पर कैसे राज कर गए ।
धिक्कार धिक्कार

-:- काकोरी वीर – :-
:- ठाकुर रोशन सिंह -:

       -:- काकोरी वीर – :-
      :- ठाकुर रोशन सिंह -:

जन्म – :- 22 जनवरी 1892

शहादत- 19 दिसम्बर 1927
       रोशन सिंह जी का जन्म एक संम्पन क्षत्रिय परिवार में फतेहगंज से 10 किलोमीटर दूर गांव नबादा तत्कालीन जनपद शाहजहांपुर  उत्तरप्रदेश में हुआ।
आप में निशानेबाजी घुड़सवारी , कुश्ती आदि के सभी गुण थे ।
आपने उत्तर प्रदेश में असहयोग आंदोलन के दौरान ग्रामीण क्षेत्र में किसानों के हक में योगदान किया था । बरेली में आंदोलन के समय  पुलिसवालों की सशस्त्र टुकड़ी ने निहत्थी जनता की तरफ बंदूकों का रुख किया ।
भला क्षत्रिय ख़ून यह कब बर्दाश्त करता आपने एक सिपाही की ही राइफल छीन कर पुलिस की तरफ अंधाधुंध फायरिंग की । हमलावर पुलिस  मैदान छोड़कर भाग गई ।इस बहादुरी के ईनाम स्वरूप आपको दो वर्ष कठोर कारावास मिला।
सजा काटने हेतु आपको बरेली सेंट्रल जेल में 2 वर्ष के लिए रखा गया था । उसी समय आपका कानपुर निवासी क्रांतिकारी पंडित राम दुलारे द्विवेदी से परिचय हुआ । जो आपको पंडित रामप्रसाद बिस्मिल के क्रांतिकारी दल हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन तक ले गया।

क्रांतिकारियों की योजना के अनुसार  25 दिसंबर 1924 को बमरोली एक्शन किया गया था जिसमें जनता का खून चूसने वाले एक सूदखोर बलदेव प्रसाद के यहां डाका डाला गया था ।
सेठ जी के पहलवान मोहन लाल ने ललकाला तो  ठाकुर रोशन सिंह की राइफल से निकली एक ही गोली ने ही मोहनलाल का काम तमाम कर दिया।
इसी एक्शन के लिए  भी ठाकुर साहब को फांसी की सजा हुई थी।
      इसके बाद काकोरी एक्शन में ठाकुर साहब शामिल  नहीं थे फिर भी केशव चक्रवर्ती की जगह रोशनसिंह जी को बताते हुए अभियोग प्रस्तुत हुआ और ठाकुर साहब को मृत्यु दण्ड सहित कारवास की सजाए हुई।
हर क्रांतिकारी एक्शन की तरह अपील व माफीनामों का ड्रामा हुआ ।
अन्ततः आपने भी क्रांतिकारी इतिहास को गति प्रदान करते हुए दिनाँक 19 दिशम्बर 1927  प्रातः उठ स्नान ध्यान पूजापाठ कर स्वयँ ही पहरेदार से कहा चलो।

फाँसी के फंदे को चूमने के बाद तीन बार इंकलाब जिंदाबाद के नारे लगाए संस्कृत में श्लोक पढ़ कर माँ भारती के चरणों मे प्राणों की आहुति दी।
फांसी से कुछ पहले ठाकुर साहब ने 13 दिसंबर 1927 को मलाका जेल की कालकोठरी से अपने मित्र को लिखें एक पत्र में लिखा

“इस सप्ताह के भीतर ही फांसी होगी। ईश्वर से प्रार्थना है कि वह आपको मोहब्बत का बदला दे । आप मेरे लिए रंज हरगिज़ न करें । मेरी मौत खुशी का बाइश होगी। दुनिया में पैदा होकर मरना जरूर है। दुनिया में बदहाली करके अपने को बदनाम न करें और मरते वक्त ईश्वर की याद रहे; यही दो बातें होनी चाहिए और ईश्वर की कृपा से मेरे साथ यह दोनों ही बातें हैं। इसलिए मेरी मौत किसी प्रकार अफसोस के लायक नहीं है दो साल से बाल- बच्चों से अलग रहा हूं । इस बीच ईश्वर भजन का खूब मौका मिला। इससे मेरा मोह छूट गया है और कोई वासना बाकी न रही । मेरा पूरा विश्वास है कि दुनिया की कष्टभरी यात्रा समाप्त करके मैं अब आराम की जिंदगी जीने के लिए जा रहा हूं। हमारे शास्त्रों में लिखा है कि जो आदमी धर्मयुद्ध में प्राण देता है उसकी वही गति होती है जो जंगल में रहकर तपस्या करने वाले ऋषि मुनियों “”।की इस पत्र के पश्चात लिखा :-


“‘ ज़िन्दगी  ज़िन्दा-दिली को तू    जान ऐ रौशन,
यों तो कितने ही हुए और फ़ना होते हैं।
शत शत नमन।

:-मैनपुरी एक्शन हीरो-: पंडित गेंदालाल दीक्षित

    :- पंडित गेंदालाल दीक्षित -:
मैनपुरी एक्शन के हीरो पंडित गेंदालाल दीक्षित का जन्म 30 नवंबर 1888 को गांव मई तहसील बाह जिला आगरा में हुआ था । जब पंडित जी की आयु 3 वर्ष की थी तो उनके माता-पिता दोनों ही स्वर्ग सिधार गए ।
पंडित जी ने  मैट्रिक के बाद डीएवी स्कूल औरैया में अध्यापन का कार्य शुरू किया । 
पंडित जी लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक से प्रभावित थे । पंडित जी ने शुरु में “शिवाजी समिति ” बनाई  थी
कालांतर में    मुकुंदी लाल , दम्मी लाल , करोड़ी लाल गुप्ता, सिद्ध चतुर्वेदी, गोपीनाथ प्रभाकर, चंद्रधर जोहटी, शिवकिशन व अन्य
क्रांतिकारी  शामिल हुए तो शिवाजी समिति  ‘ मातृदेवी “बन गयी ।
मातृदेवी में लगभग 5000 सदस्य थे । इनके पास 500 घुड़सवार व  200 पैदल सैनिक व 8 लाख रुपये कोष में थे।
क्रांतिकारी गतिविधियों में  शिक्षित लोगों का सहयोग नहीं मिला तो पंडित जी ने एक नया तजुर्बा किया  व डाकुओं  के साथ हाथ मिलाया पंडित जी का उद्देश्य  था कि डाकुओं के साथ मिलकर डाके डाले जाए और धन एकत्रित कर हथियार खरीदे जावे संगठन को मजबूत किया जाए और डाकुओं को भी अंग्रेजों के विरुद्ध प्रेरित किया जावे।
इसी क्रम में ग्वालियर के  डकैत  ब्रह्मचारी जी व पंचम सिंह मातृदेवी के साथ काम करने लगे ।
एक बार गेंदालाल जी ब्रह्मचारी जी के साथ सिरसागंज के सेठ ज्ञानचंद के घर डाका डालने जा रहे थे।
दलपतसिंह नामक गदार ने  ब्रह्मचारी जी को पकड़वाने का षड्यंत्र कर पुलिस को सूचना देदी।
लंबा रास्ता था इसलिए रास्ते मे खाने का प्रोग्राम बना।
  किसी गदार ने खाने जहर मिला दिया। ब्रह्मचारी जी ने गदार को मारने हेतु गोली चलाई पर निशाना चूक

गया ।
  पुलिस  मौका पर तैयार थी । पुलिस ने चारों तरफ से घेर लिया मुठभेड़ में 35 क्रांतिकारी साथी शहीद हो गए पंडित जी की बाई आंख में छर्रा लगा जिसके कारण आंख गयी ।

इस मुठभेड़ में 50 पुलिस वाले भी मारे गए ।
पुलिस मुखविर सूचना पर छपटी में छापेमारी कर हथियार ज़ब्त किये दल के सदस्यों को गिरफ्तार किया।
इसे ही सरकारी रिकॉर्ड में मैनपुरी षड्यंत्र कहा गया वस्तुतः आजादी की लड़ाई में लिया गया  एक्शन था।
  मुठभेड़ में गिरफ्तारी के बाद पंडित जी को आगरा किले में जेल में रखा गया। 
वहां बिस्मिल गेंदालाल जी से मिले व गुप्त योजना तैयार की जिसके अनुसार गेंदालाल जी ने सरकारी गवाह बनने की इच्छा जाहिर की।जिस पर पंडित जी को मैनपुरी लाया गया जहाँ मातृदेवी के कुछ सदस्य पहले से ही जेल में थे ।
पंडित ने पुलिस वालों को बताया कि रामनारायण से वे परिचित है व रामनारायण से मिलकर क्रांतिकारी यों के बारे में और सूचनाएं देंगे ।

चाल कामयाब हुई व  पंडित जी को  सरकारी गवाह रामनारायण के साथ एक ही हथकड़ी में जकड़ा गया ।
रात्री में पण्डित जी ने पुलिस को चकमा देकर  सरकारी गवाह रामनारायण सहित फरार हो गए।

फ़रारी के बाद  पंडित जी कोटा जाकर एक रिश्तेदार के पास रुके थे।
उस रिश्तेदार ने  पंडित जी के भाई ने जो कुछ सामान और पैसे भेजे थे, उसे लेकर चपत हो गया और पंडित जी को  एक कोठरी में बंद कर गया। बड़ी मुश्किल से 3 दिन बाद कोठरी को खुलवाया।
पंडित जी की हालत दयनीय थी। चार कदम भी नहीं चल सकते थे फिर भी जैसे तैसे आगरा पहुंचे किसी परिचित पास रुके उसने भी जबाब दे दिया तो पंडित जी दिल्ली पहुंचकर एक प्याउ पर  नौकरी करने लगे ।
बीमारी से परेशान होकर एक साथी को सूचना दी जो पंडित जी और उनकी पत्नी को लेकर गया।

आखिरी समय में पंडित जी की हालत बहुत बुरी हो गई थी।  पत्नी रोने लगी और कहने लगी मेरा इस दुनिया में कौन है।
पंडित जी ने ठंडी सांस ली और मुस्कुरा कर कहा –
आज लाखों विधवाओं का कौन है?
लाखों अनाथ हूं का कौन है ?
22 करोड़ भूखे किसानों का कौन है?
दासता की वीडियो में जकड़ी हुई भारत माता का कौन है,?
जो इन सब का मालिक है,वही तुम्हारा भी ।
तुम अपने आप को परम सौभाग्यवती समझना ,यदि मेरे प्राण इसी प्रकार देश प्रेम की लगन में निकल जावे और मैं शत्रुओं के हाथ न आऊँ।  मुझे दुख है तो केवल इतना ही कि मैं अत्याचारों को अत्याचार का बदला न दे सका ,मन ही मन में रह गई। मेरा यह शरीर नष्ट हो जाएगा ,किंतु मेरी आत्मा इन्हीं भावों को लेकर फिर दूसरा शरीर धारण करेगी ।अब की बार नवीन शक्तियों के साथ जन्म ले ,शत्रुओं का नाश करूंगा ।”

पंडित जी की पत्नी के पास इतना सामान भी नहीं था कि पंडित जी के स्वर्ग सिधारने पर  उनका दाह संस्कार कर सके ।
इसलिए पंडित जी को सरकारी अस्पताल में भर्ती करवा दिया। अस्पताल में दिनांक 21दिशम्बर 1920 व पंडित जी हमेशा के लिए अपना शरीर छोड़कर, आजादी की अधूरी लड़ाई को पुनर्जन्म में पूर्ण करने के प्रण सहित चले गए।
शत शत नमन उन हुतात्माओं को जो इस क़दर आत्मसमर्पित थे माँ भारती को।


  :- रामप्रसाद बिस्मिल -:

      :- क्रांति के देवता -:
  :-पंडित रामप्रसाद बिस्मिल -:

पंडित रामप्रसाद बिस्मिल का जन्म ज्येष्ठ शुक्ल 11 स. 1954 ( 12 जून 1897)
शाहजहांपुर ,उत्तर प्रदेश में हुआ।

बिस्मिल उनका कवि नाम था। वो भारतीय सशस्त्र क्रांतिं के देवता थे।
आजादी की लड़ाई में बिस्मिल व अश्फाक की जोड़ी प्रेरणा रही है।
 

बिस्मिल बचपन मे शरारती प्रवर्ति के बालक थे और पढ़ाई से कतराते थे।

एक बार आपके द्वारा “उ” शब्द नहीं लिखा जा सका तो पिताश्री ने आपको थप्पड़- घूंसे ही नहीं लोहे के गज के पीटा।

भला हो उन पुजारी जी का जिनके सानिध्य से सुधरकर बिस्मिल सात्विक बन गए।
आप स्वामी दयानंद जी के ब्रह्मचर्य पालन से अत्यधिक प्रभावित हुए और तख्त या जमीन पर सोना तथा रात्रिभोज नहीं करना शुरू कर दिया ।

बिस्मिल के पिताजी कट्टर सनातनी थे और बिस्मिल बन गए आर्यसमाजी । धर्म के नाम पर एक दिन तो पिताजी ने बिस्मिल को रात को ही घर से बाहर कर दिया।

देवयोग से आपको स्वामी सोमदेव जी जैसे गुरु मिले जिनकी लाला हरदयाल जैसे क्रांतिकारी पुरूष से भी  निकटता थी ।
सन 1916 में प्रथम लाहौर एक्शन के समय क्रांतिकारी भाईपरमानन्द जी की पुस्तक तवारीख़-ए -हिन्द से प्रभावित हुए।

लाहौर प्रथम एक्शन में भाई परमानंद को फांसी की सजा का समाचार पढ़कर आपने  इस फांसी का बदला लेने की प्रतिज्ञा की और यहीं से आपके क्रांतिकारी जीवन का सूत्रपात हुआ।
इसी वर्ष लखनऊ में अखिल भारतीय कांग्रेसका अधिवेशन था।

अधिवेशन में आधुनिक स्वतंत्रता संग्राम के जनक लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के पधारने का कार्यक्रम भी था।
नरम दल के लोग तिलक जी के स्वागत में कम ध्यान दे रहे थे । 
कांग्रेस की स्वागतकारिणी समिति का प्रोग्राम था कि ट्रेन से तिलक जी को मोटरकार के द्वारा बिना जुलूस के ले जाया जावे।
बिस्मिल व अन्य युवा भी तिलक जी को सुनने को आतुर थे और उनके स्वागत हेतु स्टेशन पर आए हुए थे ।

जैसे ही गाड़ी आई स्वागत कारिणी समिति ने आगे होकर तिलक जी को घेरकर मोटरगाड़ी में बिठा लिया ।

बिस्मिल भावुक होकर मोटर कार के आगे लेट गए और कहे जा रहे थे

मोटर मेरे ऊपर से निकाल ले जाओ,
मोटर मेरे ऊपर से निकाल ले जाओ

एक अन्य युवक ने जोश में आकर मोटर कार का डायर काट दिया। लोकमान्य जी समझा रहे थे, लेकिन युवा जोश के आगे कोई असर नहीं दिया।
युवाओं ने एक किराए की घोड़ागाड़ी  ली व तिलक जी को बच्चे की तरह सिर से कंधों पर बैठा कर  गाड़ी में  बैठा दिया
और घोड़ागाड़ी से  घोड़े को खोलकर बिस्मिल  खुद ही गाड़ी को खींचने में लग गए ।
युवाओं ने अपने कंधों से घोड़ागाड़ी खींचते हुए तिलक जी को एक जुलूस के रूप में धूमधाम से लेकर गए ।

तिलक जी के स्वागत में युवाओं द्वार आयोजित इस को जुलूस देखने योग्य जन समुदाय जुड़ा ।
इस कार्यक्रम का एक लाभ यह हुआ कि बिस्मिल का जोश देख कर कुछ क्रांतिकारीयों व गरम दल के नेताओं से बिस्मिल का संपर्क हुआ ।

बिस्मिल और उनके क्रांतिकारी दल का नाम हिदुस्तान, रिपब्लिकन एसोसिएशन था । जिसके नाम में कालांतर में भगतसिंह ने “सोशलिस्ट” शब्द और जोड़ा था।
            

बिस्मिल ने दल के लिए हथियार खरीदने हेतु  अपनी माताजी से ₹200 लेकर एक पुस्तक ” अमेरिका को स्वाधीनता कैसे मिली’ लिखकर छपवाई पर  इसमें मात्र ₹200 की बचत हुई ।
        उसी समय संयुक्त प्रांत के सुप्रसिद्ध क्रांतिकारी गेंदालाल जी दीक्षित को ग्वालियर में गिरफ्तार कर लिया ।
बिस्मिल ने “देशवासियों के नाम संदेश” शीर्षक से कई जिलों में पर्चे लगाए व वितरित किये।

क्रांतिकारियों के पास हथियारों की खरीद हेतु रुपयों की हमेशा ही कमी रही और देश में जहां कहीं भी क्रांतिकारी आंदोलन चल रहे थे सभी ने हथियारों के लिए जनता को लूटनेवाले जमींदारों,सेठ साहूकारों के यहां डाके डाल कर रुपयों का इंतजाम किया।

इन डकेतियों से जन भावना क्रांतिकारियों के खिलाफ होती थी तथा धन भी कम मिलता था ।

इसलिए दल ने रेलवे का सरकारी खजाना लूटने का कार्यक्रम बनाकर ।
9 अगस्त 1925 को काकोरी एक्शन लिया व काकोरी के पास ट्रेन से सरकारी खजाना लूटा।
इस घटना से फ़िरंगियों की सरकार हिल गयी ।
काकोरी एक्शन के बारे में विस्तार से  अलग लेख लिखा गया है। जिस आप पढ़ सकते हैं।

एक बार बिस्मिल के अन्य साथी गंगा सिंह , राजाराम व देवनारायण ने कोलकाता में वायसराय की हत्या करने का कार्यक्रम बनाया ।

बिस्मिल इस कार्यक्रम से सहमत नहीं थे ।
इन तीनों ने तो  बिस्मिल को ही ठिकाने लगाने का आयोजन कर दिया व इलाहाबाद के त्रिवेणी तट पर संध्या कर रहे बिस्मिल पर तीन गोलियां चलाई दो गोली निशाने पर नहीं लगी तीसरा कारतूस चला ही नहीं।
आजादी के खतरनाक मिशन में अपनी बहन को साथ लेना बलिदान की पराकाष्ठा है।
बिस्मिल अपनी बहन शास्त्री देवी की जांघो पर बंदूके बांधकर हथियार छिपाकर लाते थे ।
शास्त्री देवी ने कई बार इस प्रकार  शाहजहांपुर हथियार पहुंचाए।

किस लिए !
देश की आजादी के लिए !!

धिक्कार है हमें,

आजादी के बाद बिस्मिल  का मात्र 35 गज का दो छोटे छोटे कमरों का एक मकान मोहल्ला खिरनी बाग शाहजहां को इसी शास्त्री देवी  ने गरीबी से तंग आकर बेचा।
यह मकान जिसमें बिस्मिल व शास्त्री देवी ने अपना बचपन गुजारा  एक राष्ट्रीय धरोहर बननी चाहिए थी ।

पर अफसोस ऐसा नहीं हो हुआ।

बिस्मिल ने अपने बचपन के सहपाठी सुशीलचंद्र सेन के  देहांत पर उनकी स्मृति में ‘ निहिलिस्ट रहस्य‘ का अनुवाद करना शुरू किया और सुशील वाला के नाम से ग्रंथ वाला में “बोल्शेविकों की करतूत” व ” मन की लहर”  छपवाई ।

मैनपुरी में गेंदालाल जी दीक्षित के नेतृत्व में कुछ हथियार खरीद कर इकट्ठे किए गए थे। इस बात का पुलिस को पता चल गया पुलिस की धड़त पकड़ शुरू हो गई।
एक साथी सोमदेव पुलिस मुखबिर बन गया सारे राज खुलने से गेंदालाल जी गिरफ्तार कर लिए गए व राम प्रसाद बिस्मिल फरार हो गए ।

प्रथम महायुद्ध के बाद सरकार ने  20 फरवरी 1920 राजनीतिक कैदियों की माफ़ी की ।

इस घोषणा के होने  से बिस्मिल का अज्ञातवास समाप्त हुआ।
बिस्मिल शाहजहांपुर वापस आए तो लोग उनसे मिलने से कतराने लगे दूर से ही नमस्ते करके चल देते थे लोगों को यह डर लगता था कि क्रांतिकारी के संपर्क से उनकी जान किसी खतरे में न पड़ जाए।
इसीलिए बिस्मिल ने कहा होगा-

‘ इम्तहां  सबका कर लिया हमने,
सारे आलम को आजमा देखा ।
  नजर आया न कोई अपना अजीज,
आंख जिसकी तरफ उठा देखा।। कोई अपना ना निकला महरमे राज,
जिसको देखा तो बेवफा देखा । अलगरज  सबको इस जमाने में अपने मतलब का आशना देखा।।”‘

काकोरी एक्शन के बाद बिस्मिल गोरखपुर जेल में रहे व इसी जेल में दिनाँक 19 दिशम्बर 1927 को बिस्मिल को फाँसी दी गयी थी। फांसी से पूर्व बिस्मिल से दुखी हृदय से लिखा-

मालिक तेरी रजा रहे और तू ही तू रहे
बाकी ने मैं रहूं , न मेरी आरजू रहे।।
जब तक कि तन में जान ,
रगों में लहू रहे।
तेरा ही जिक्र या तेरी ही जुस्तजू रहे।।

उनकी अंतिम गर्जन थी

I wish the downfall of British Empire

फांसी से एक दिन पूर्व बिस्मिल की माताजी बिस्मिल से मिलने जेल में गई  । माँ को देख कर बिस्मिल मां के पैर छूकर गले से लिपटा तो बिस्मिल की आँखों मे आंशू आ गए ।
माँ ने कहा मैं तो समझती थी मेरा बेटा बहादुर है ,जिसके नाम से अंग्रेज सरकार भी कांपती है ।
बिस्मिल ने  बड़ी श्रद्धा से कहा  ये आंशू मौत के डर से नहीं है मां ये तो माँ के प्रति मोह के है।
मैं मौत से मैं नहीं डरता मां तुम विश्वास करो ।
तभी माँ ने शिवराम वर्मा का हाथ पकड़कर आगे कर दिया और बिस्मिल से कहा यह तुम्हारे आदमी है पार्टी के बारे में जो भी चाहो , इनसे कह सकते हो।
धन्य जननी , जो एकमात्र बेटे की फांसी से एक दिन पहले क्रांतिकारी दल का सहयोग कर रही है।
ऐसी कोख़ से ही ऐसा वीर जन्म लेता है।।

फाँसी वाले दिन भी बिस्मिल हमेशा की तरह सो कर उठे, स्नान किया, वंदना की और धोती कुर्ता पहनकर जेल के सभी अधिकारियों, कर्मचारियों एवं अन्य बंदियों से हंस-हंसकर बातें करते हुए चल पड़े ।
भारत माता की जय
वंदे मातरम के नारे लगाते हुए फांसी के तख्ते के  समीप पहुंचकर स्वयं ही फांसी के तख्ते पर चढ गए और कहा

मरते’ बिस्मिल, ‘ ‘लाहरी, ‘अश्फाक’ अत्याचार से ।
होंगे पैदा सैकड़ों इनके रुधिर की धार से।।
और अंतिम बार धरती माता को प्रणाम किया धूली को माथे पर चंदन की तरह लगाया और वंदेमातरम कहते हैं फंदे से झूल गए।
शत शत नमन क्रांतिवीर को।

शहादत के बाद का बिस्मिल चित्र

:- क्रांति -:

समय का धर्म गति गति है। हमारे शरीर की तरह हमारा समाज है। कई बार हम तरह तरह की वस्तुएं खा लेते हैं तो हमारे पेट में बदहजमी हो जाती व अफारा आजाता है जिसे निकालने के लिए जुलाब लेना पड़ता है।

ठीक इसी तरह से समाज का पेट बुराइयों से भर जाता है और हमारी पाचन शक्ति की तरह हमारी सामाजिक और न्यायव्यवस्था निष्फल हो जाती है तो समाज में जुलाब के रूप में क्रांति होती है ।

हमारे समाज की सहनशीलता या दूसरे शब्दों में कायरता अधिक है। मुट्ठीभर फ़िरंगियों ने 40 करोड़ लोगों को 200 वर्षो तक दबाए रखा ।

आज के परिपेक्ष्य में देखिए । करोड़ों लोगों को भरपेट खाना नहीं मिलता पशुओं से भी बुरी स्तिथि में दिन काट रहे हैं।यह सहनशीलता है यही दब्बू प्रवर्ति है।

आज़ादी दो क़दम दूर थी

आज़ादी दो कदम दूर थी
        21फरवरी 1915

भारतीय क्रांतिवीरों द्वारा समस्त भारत मे एक ही दिन आज़ादी की लड़ाई लड़ना तय कर योजना बनाई पर हमारे ही ग़द्दारों के द्वारा इसकी सूचना अंग्रेजों को देदी जिसके कारण क्रांतिकारी यह लड़ाई बिना लड़े ही हार गए।
       भारतीय क्रांतिकारी गंभीर अध्ययन के बाद इस निष्कर्ष पर पहुंचे की देश को अंग्रेजों से आजाद कराने के लिए उनके पास आदमियों व हथियारों  की कमी है तथा हथियार खरीदने के लिए धन भी नहीं है।
क्रांतिकारीयों ने इन कमियों को दूर करने के लिए यह योजना बनाई कि ब्रिटेन के दुश्मन देशों से सहयोग लिया जावे , अंग्रेजी सेना में जो भारतीय सैनिक है उन्हें भी आज़ादी के लिए अंग्रेजों के विरुद्ध  युद्ध के लिए तैयार किया जावे व धन उपार्जन हेतु अमीर लोगों व सरकारी खजानों को लूटा जाय।
समस्त तैयारी के बाद देश के समस्त  क्रांतिकारियों को एक निश्चित तिथि व समय पर अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ाई का आह्वान किया जावे।
युद्ध की तैयारी के क्रम में देश मे बम्ब बनाने का कारखाना लगाने के उद्देश्य से हेमचंद्र कानूनगो व  पांडुरंग एम बापथ को बम्ब बनाने की प्रक्रिया सीखने हेतु विदेश भेजा गया उन्होंने रूसी क्रांतिकारी निकोलस सर फ्रांसकी से बम बनाना सिख कर आये व भारत मे बम्ब बनाने का कारखाना लगाया। पिंगले 10 ऐसे शक्तिशाली बम्ब लेकर मेरठ  छावनी पहुंच गए थे। जिनके पकड़े जाने के बाद अंग्रेजी सरकार की रिपोर्ट थी कि इन मेसे एक बम्ब से सारी छावनी को तबाह किया जा सकता था ।
बाघा जतिन ने वीरेंद्र नाथ चट्टोपाध्याय @ चट्टो को सैनफ्रांसिस्को भेजा । चट्टोपाध्याय ने ग़दर पार्टी के सदस्यों की भारत को  हथियार भेजने हेतु जर्मन राजदूत थियोडर हेलफरीश से  सौदा किया ।
भारतीय क्रांतिकारियों के दिमाक में  यह बात स्पष्ट थी कि कहीं अंग्रेजों से पीछा छुड़ाकर  जर्मनी और जापान वालों के अधीन न हो जाए । इसलिए जर्मनी से  हथियारों की सहायता हेतु जो करार किया गया उसमें स्पष्ट लिखा गया कि हथियारों की कीमत आजादी के बाद जर्मनी को दी जाएगी ।आजादी के बाद जर्मनी का भारत पर किसी तरह का कोई दावा नहीं होगा ।जर्मन फ़ौज भारत मे प्रवेश नहीं करेगी।
संगठन व छावनियों में भारतीय सैनिकों से  सम्पर्क के क्रम में  फिरोजपुर में  संगठन भार रासबिहारी बोस और करतार सिंह सराभा को सौंपा गया ।
जबलपुर, अजमेर ,बरेली, बनारस, दानापुर, गुवाहाटी, मेरठ व  रावलपिंडी की सैनिक छावनियों में सम्पर्क का भार  नलिनी मोहन मुखोपाध्याय, प्रताप सिंह बारठ,  दामोदर स्वरूप, शचींद्रसान्याल , नरेंद्र नाथ, विष्णु गणेश पिंगले,  तथा निधान सिंह को सौंपा गया।
हिरदेराम को जालंधर छावनी, प्यारा सिंह को कपूरथला छावनी तथा डॉक्टर मथुरा सिंह को पेशावर की छावनी में भेजा गया।
सभी छावनियों में भारतीय सैनिकों ने अंग्रेजों को मार भगाने हेतु साथ देने का विश्वास दिलाया।

इस क्रांति को और बल मिला जब  कनाडा सरकार ने भारतीय लोगों को कनाडा से बाहर निकालने के लिए मजबूर कर रही थी और कामागाटामारू जहाज के कलकत्ता पहुंचने पर जहाज में सवार प्रवासी भारतीयों को बजबज में रेलगाड़ी द्वरा बलपूर्वक पंजाब लाये जाने की कोशिश की गई जिसमें  कुछ सिखों को मार दिया व कुछ को गिरफ्तार किया गया।
इस घटना का समाचार देश विदेश में पहुंच गया । विदेशों में ग़दर पार्टी आजादी के लिए सक्रिय थी।
विदेशों में खबर फेल गई कि अंग्रेजों को भारत से भगाने के लिए जंग होनेवाला है ।
इस प्रतिक्रिया में प्रवासी भारतीयों ने भी भारत आकर अंग्रेजों को भारत से मार भगाने की तैयारियों के भारत का रुख किया ।
अलग अलग जहाजों से  प्रवासी भारतीय जिनमे अधिकतम सिख व गदर पार्टी के सदस्य थे, अपने हाथों में  हथियार लिए गदर की गूंज मचाते हुए कोरिया टोषामारू, माशियामारू, कवाचिमारू सलमिस नामक व अन्य जहाजों से भारत पहुंचे। जिनकी कुल संख्या लगभग 8000 थी।
रासबिहारी बोस ने क्रांतिकारी चिंताकरण पिल्ले को एक जापानी पनडुब्बी से अंडमान भेजा ताकि वह वीर सावरकर अन्य क्रांतिकारियों को जेल से मुक्त कराकर भारत ले आये ।  पिल्ले बंगाल की खाड़ी जाने में सफल नहीं हो सके और उनकी पनडु्बी नष्ट कर दी गई । क्योंकि इसकी सूचना अंग्रेजों को पहले से हो चुकी थी ।

अमरीका से तोशामारू जहाज से सोहन सिंह जी , निधान सिंह जी, अरुण सिंह जी, केसर सिंह जी पंडित जगत राम हरियाणवी आदि भारत आए 29 अक्टूबर को यह जहाज कोलकाता पहुंचा परंतु पुलिस को पूर्व में खबर हो चुकी थी।जहाज भारत पहुंचते ही 173 सिखों को गिरफ्तार कर लिया गया । जिनमें से 73  तो जेल से भाग निकले ।
देश के गद्दार हमेशा ही देश का दुर्भाग्य बने है । इस बार भी यही हुआ एक पुलिस अधिकारी ने कृपाल सिंह नामक एक व्यक्ति को क्रांतिकारी दल में शामिल करवा दिया जो सारी खबरें अंग्रेजों को देने लगा।
भारतीय क्रांतिकारियों ने इस महान युद्ध के लिए 21 फरवरी 1915 की तिथि निश्चित करते हुए सब जगह सूचना  दे दी । गद्दार कृपाल सिंह ने इस कि सूचना अंग्रेजों को दे दी ।
इसपर जंग की तिथी दो दिन पहले यानी 19 फ़रवरी तय की गई । करतार सिंह जी को ज्ञान नहीं था कि कृपालसिंह गद्दार है उन्होंने परिवर्तित तिथि भी कृपाल सिंह को बता दी ।
यह खबर भी अंग्रेजों तक पहुंच गई फिर क्या होना था ?
अंग्रेजों ने छावनियों में भारतीय सैनिकों से हथियार ले लिए व क्रान्तिकारीयों की धर पकड़ शुरू हो गई ।
  क्रांतिकारियों ने  बंगाल व महाराष्ट्र के क्रांतिकारी प्रथा के अनुसार कृपालसिंह गोली मार देते तो ठीक रहता  ।
हालांकि बाद में 1931 में गदरी बाबा हरनाम सिंह ने रामशरण दास व अमर सिंह के साथ कृपाल सिंह का वध करना चाहा परंतु वह बच गया । अंततोगत्वा ग़द्दार को सजा तो मिलनी ही थी ।कुछ दिनों बाद इस गद्दार को जांबाजों ने उसके घर पर ही मार दिया । मरनेवालों का पता ही नहीं चला
उधर जर्मन काउंसलर की मार्फत हत्यारों का जहाज “मेवरिक “की भी सूचना किसी ग़द्दार ने अंग्रेजों को दे दी।
संभवतः हथियार एक अन्य जहाज Amber Larsen द्वारा लाये जाने थे व रास्ते में कहीं इस जहाज से हथियार मेवरिक में रखे जाने थे। और मेवरिक को भारत आना था।Amber Larsen जहाज वाशिंगटन में पकड़ लिया गया था।
इसी कारण यह मेवरिक को हथियार नहीं दे सका तभी मेवरिक कि बटेविया (जावा) में तलाशी ली गई तो इसमें हथियार नहीं थे।
हेनरी नामक जहाज भी मनीला में पकड़ लिया गया व हथियार उतरवा लिए गए।
एक पुस्तक में लिखेनुसार गदर पार्टी के रामचंद्र व जर्मन राजदूत ने केलिफोर्निया के सेनपेड्रो बंदरगाह से मेवरिक में हथियार भेजे थे जिसमें  25  लोग ईरानी वेशभूषा में थे ।
एक किताब में यह भी लिखा है कि रामचंद्र को  गदरी बाबा ने पार्टी हितों के खिलाफ काम करने के कारण अदालत में ही मार दिया था
    मेवरिक में हथियार M N रॉय @ नरेंद्र नाथ  भट्टाचार्य छदम नाम C Martin द्वारा लाये जाने थे जो जर्मन सहायत के पक्ष में नहीं था । फिर जब  मेवरिक की तलाशी  हुई तो उसमें हथियार नहीं थे । नरेन्द्र भी नहीं था। । यह भी कहा जाता है वो रूस भाग गए ।
कुछ भी हो भी शोध का विषय है कि मेवरिक की खबर अंग्रेजों तक कैसे पहुंची व हथियार मेवरिक में रखे गए या नहीं ????
एक ओर जहाज द्वारा श्याम (थाईलैंड)के राजदूत ने 5000 बंदूके व एक लाख रुपये नगद भेजे यह जहाज रायमंगल पहुँचना था ।  इसकी सूचना भी अंग्रेजों को दे दी गयी व  यह जहाज भी पकड़ा गया।
इसी बीच जर्मनी से हथियारों के दो और जहाज भेजे गए परंतु सूचना होने के कारण फिलीपाइन के पास पकड़ लिये गए।
बाघा जतिन हथियारों के इंतजार में थे जिसकी मुखवीरों ने सूचना दे दी । मुठभेड़ में बाघा शहीद हो गए व युगान्तर के सभी गुप्त ठिकानों पर छापे मारे गए ।
योजन के अनुसार विष्णु पिंगले 10 शक्तिशाली बम लेकर मेरठ छावनी पहुंच गए परंतु वहां भी नादिर खान नामक सहयोगी ने 23 मार्च 1915 को पिंगले को पकड़ा दिया।
करतार सिंह जी सराबा  योजना अनुसार करीब 80 क्रांतिकारियों को लेकर निर्धारित स्थान  मेरठ छावनी में पहुंच मजबूरन उन्हे भी वापस लौटना पड़ा ।
इस बीच शचींद्र बक्शी स्वंम मछुआरे के भेष में छोटी जहाज से 3 किलोमीटर समुन्द्र में गए व एक छोटे पार्सल लाने में सफ़ल रहे । इसमें इ 50 जर्मन माउजर थे।  अल्फ्रेड पार्क में मुठभेड़ के समय चंद्रशेखर आजाद के पास इन मे से ही प्राप्त एक था ।
यह सुनहरा मौका था देश को आज़ाद करवाने का जो ग़द्दारों के कारण चूक गए।
परिस्थितियों को समझिए ब्रिटेन प्रथम महायुद्ध में उलझा था। भारत से करीब 150000 सैनिक देश से बाहर लड़ने भेजे गए थे ।
भारत मे उस समय मात्र 15000 सैनिक थे और भारतीय छावनियों में सैनिकों ने क्रांति में साथ देने का विश्वास भी दिलाया हुआ था।
  ब्रिटिश सेना में पंजाब के गवर्नर ओ डायर ने स्वयं लिखा है””

प्रथम महायुद्ध के दौरान ब्रिटिश सरकार बहुत कमजोर हो चुकी थी हिंदुस्तान में केवल 13000 गोरी पोस्ट थी जिसकी नुमाइश बारी बारी से सारे हिंदुस्तान में करके ब्रिटिश शान को कायम रख़ने की चेष्टा की जा रही थी । ये गोरे भी बूढ़े थे। नौजवानों  तो यूरोप के क्षेत्रों में लड़ रहे थे। ऐसी स्थिति में गदर पार्टी की आवाज मुल्क तक पहुंच जाती तो निश्चय है कि हिंदुस्तान अंग्रेजों के हाथ से निकल जाता ।”””

रोना आता है हमारे राजनेताओं पर ठीक उस समय जब एक तरफ क्रांतिकारीयों ने युद्ध इस स्तर पर आज़ादी के लिए जंग की तैयारी कर रही थी ।
उस समय कांग्रेस व मुस्लिम लीग  क्या कर रही थी ।,
इसका भी उल्लेख करना है महात्मा जी बिना न्यौते के ब्रिटिश सरकार की प्रथम महायुद्ध में सहायता करने पहुंचे व सहायता की जिसके लिए 1915 में हार्डिंग ने गाँधीजी को हिन्द -ए -केसरी का खिताब दिया।यह वही हार्डिंग जो चांदनी चौक में क्रांतिकारीयों द्वारा फेंके गए बम्ब से बच गया था।प्रथम महायुद्ध में 74187 भारतीय सैनिक मारे गए थे तथा 67000 भारतीय सैनिक घायल हुए थे ।
यह कैसी अहिंसा थी?
ब्रिटिश साम्राज्यवाद को बचाने के लिए 74187 भरतीयों के प्राण लिए जा सकते है पर देश की आजदी के लिए नहीं ।
अगर बापू उस समय भारतीय सैनिकों को अंग्रेजों को देश से भगाने का आह्वान कर देते तो आजादी दूर नहीं थी ।
   कांग्रेस के 1914 में मद्रास में हुए अधिवेशन में गवर्नर ने भाग लिया। इस अधिवेशन में कांग्रेस में ब्रिटिश शासन के प्रति अटूट विश्वास होने का प्रस्ताव पारित हुआ।

मुस्लिम लीग की स्तिथि स्पष्ट हो गई जब  1913 में लखनऊ अधिवेशन में लीग अध्यक्ष मोहम्मद शफी ने अपने भाषण से मुस्लिम लीग का उद्देश्य राज भक्ति तथा मुस्लिम हित रक्षा के साथ उपयुक्त स्वायत शासन हासिल करना बताया
इससे पता चलता है मुठ्ठीभर फ़िरंगियों ने 175 वर्ष 40 करोड़ भारतीयों पर कैसे राज कर गए ।
धिक्कार धिक्कार

:- पुरुष प्रातः स्मरणीय-: -; अशफ़ाक़ उल्ला खाँ-;

    :-शहीद अशफ़ाक़ उल्ला खाँ-:

भारतीय सशस्त्र क्रांति का इतिहास अधूरा रहेगा यदि हम क्रांतिवीर अशफाक उल्ला खान की शहादत और शौर्य का जिक्र नहीं करेंगे।       अशफाक उल्ला  वारसी हसरत शाहजहांपुर के निवासी थे । अशफ़ाक़ जी के परिवार की गिनती वहां के रईसों परिवारों होती थी । 
अशफ़ाक़ को बचपन से ही तैरने , घोड़े की सवारी करने और भाई की बंदूक लेकर शिकार करने में बड़ा आनंद आता था ।
अशफ़ाक़ शारिरिक रूप से स्वस्थ व  सुडोल सुंदर जवान थे । जिनका चेहरा हमेशा ही खिला हुआ और बोली में प्रेम रहता था ।
अशफ़ाक़ अच्छे कवि भी थे और
” हसरत” कवि नाम से लिखते थे काकोरी वीर अदालत में आते जाते अशफाक की लिखी कविताएं गाते थे ।
अशफाक हिंदू मुस्लिम एकता के बड़े कट्टर समर्थक थे ।एक बार शाहजहांपुर  भी हिन्दुमुस्लिम दंगो की चपेट में आ गया। पंडित राम प्रसाद बिस्मिल व अशफ़ाक ने मिलकर लोगों को समझाया।
काकोरी एक्शन में अशफाक ने अपने शक्तिशाली हाथों से सरकारी खजाने वाले मजबूत संदूक को तोड़ा था ।
अशफ़ाक़ क्रांतिकारी दल “हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन ” के सदस्य थे । अशफ़ाक़ पर कुल 5 अभियोग लगाए गए जिनमेसे तीन में फाँसी व 2 में उम्रकैद की सजा दी गयी ।
अदालत में अशफ़ाक़ को रामप्रसाद बिस्मिल का “लेफ्टिनेंट” कहा गया।
  अशफ़ाक़ को फैजाबाद जेल में दिनांक 19 दिसंबर 1927 को फांसी दी गई थी ।
अशफाक उल्ला की जिंदगी के कुछ किस्सों का ‘ हिंदू पंच के बलिदान अंक “जो 1930 में प्रकाशित हुआ था व श्री कृष्ण सरल की पुस्तक क्रांतिकारी कोष से लिये है ।
काकोरी एक्शन वाले दिन आप
” कुंवर जी “बने हुए थे और गाड़ी को रोकने हेतु  ड्रामा किया था कि कुँवर जी का जेवरों का बक्सा जो उनके हाथ में था , जिसमें 20 हजार रुपये के जेवर थे, प्लेटफॉर्म  पर भूल गए व शचीन्द्र बख्शी ने चैन खींच कर गाड़ी रोकी ।
काकोरी एक्शन में अशफ़ाक़ व शचीन्द्र नाथ बख्शी गिरफ्तार नहीं हुए थे । इसलिए  गिरफ्तारी के बाद दोनों पर काकोरी मुकदमा  पूरक रूप में चलाया गया था ।
अशफ़ाक 8 सितम्बर 1926 में दिल्ली में गिरफ्तार किए गए व शचीन्द्र बख़्शी को उन्ही दिनों में गिरफ्तार कर लखनऊ लाया गया अदालत में अशफ़ाक व  शचीन्द्र बक्शी को अलग अलग गाड़ियों से लाया गया और दोनों को मिलने नहीं दिया गया ।अदालत में दोनों अजनबी बन कर रहे ।
अदालत के बाद पुलिस यह गुप्त रूप से देखना चाहती थी कि अशफाक व बक्शी एक दूसरे को पहचानते हैं या नहीं ?
अदालत के बाद दोनों अपरिचित से खड़े थे जेल अधिकारी ने अशफ़ाक को सुनाते हुए बख्शी जी को नाम लेकर पुकारा ।
अशफ़ाक ने बख्शी जी की ओर देख कर कहा
” अच्छा आप ही शचीन्द्र बक्शी हैं ! मैंने आपकी बड़ी तारीफ सुन रखी है। “
बख्शी जी ने जेल अधिकारी से पूछा क्या आप मुझे इनका परिचय देंगे जो मुझसे सवाल कर रहे हैं। जेल के अधिकारी ने बक्शी जी से कहा ये
“प्रसिद्ध क्रांतिकारी अशफाक उल्ला खां है “
बक्शी जी ने जानबूझकर बनते हुए अशफ़ाक को संबोधित करते हुए कहा
“अच्छा आप ही अशफ़ाकउल्लाह खां है मैंने भी आपकी बहुत तारीफ सुन रखी है”।
लोग कोतुहल से देख रहे थे । इसके बाद दोनों अपनी भावनाओं पर लगाम नहीं लगा सके व एक दूसरे की भुजाओं में बंधे हुए एक दूसरे को दबोच कर मिल रहे थे।  इनको मिलते हुए देखकर पुलिस वाले भी अपने आप को ताली बजाने से रोक नहीं सके।
स्पेशल मजिस्ट्रेट सैयद अईनुदीन  ने अशफ़ाक से पूछा
“आपने मुझे कभी देखा है?”
अशफ़ाक ने कहा मैं तो आपको बहुत दिनों से देख रहा हूं। जब से काकोरी का मुकदमा आप की अदालत में चल रहा है। तब से मैं कई बार यहां आकर देख गया हूँ।
मजिस्ट्रेट ने पूछा कि कहां बैठते थे?
तो अशफाक ने बताया कि वे आम दर्शकों के साथ एक राजपूत के भेष में बैठा करते था।
लखनऊ में एक दिन पुलिस अधीक्षक खान बहादुर ने अशफ़ाक को मुसलमान होने की दुहाई देकर कुछ कहा देश आज़ाद भी हो गया तो हिन्दू राज्य होगा। अशफ़ाक ने जबाब दिया” HINDU INDIA IS BETTER THAN BRITISH INDIA”
  फ़रारी के दिनों में अशफ़ाक राजस्थान के क्रांतिकारी श्री अर्जुन लाल सेठी के घर रुके थे उनके घर  अशफ़ाक  को काफ़ी स्नेह मिला । सेठी जी पुत्री अशफ़ाक का इतना ध्यान रखती थी कि अशफ़ाक यह महसूस करने लग गए कि कहीं इनका स्नेह बंधन न बन जाये और अशफ़ाक ने सेठी जी से अनुमति लेकर अन्यत्र चले गए ।
अशफ़ाक की फाँसी की खबर से सेठी जी की पुत्री को इतनाधक्का लगा कि वह बीमार पड़ गयी और बच नहीं सकी ।
फ़रारी के समय अशफ़ाक दिल्ली में शाहजहांपुर के ही एक मुसलमान साथी के घर रुके थे उनका सहपाठी भी था।पर साथी दगा कर गया व  ईनाम के लालच में अशफ़ाक को गिरफ्तार करवाया दिया।
उस साथी के घर के पास एक  इंजीनियर साहब का घर था जहाँ अशफ़ाक का आना जाना था । इंजीनियर साहब की कन्या ने तो अशफ़ाक के समक्ष विवाह का प्रस्ताव भी रख दिया । बड़ी मुश्किल से अशफ़ाक ने पीछा छुड़ाया।
फांसी से पहले दिन अशफ़ाक दूल्हे की तरह सजधजकर तैयार हुए व  बहुत खुश दिखाई देते थे। मिलने आये मित्रों से कह रहे थे मेरी शादी है । अगले दिन सुबह 6:30 बजे अशफाक को फांसी दी गई थी। शहादत के दिन अशफ़ाक हंसी खुशी के साथ कुरान शरीफ का बस्ता कंधे से टांगे हाजियों की तरह लवेक  कहते और कलमा पढ़ते,  फाँसी के तख्ते के पास गए तख्त को चुंबन किया और फाँसी के समय  उपस्थित लोगों से कहा “मेरे हाथ इंसानी खून से कभी नहीं रंगें। मेरे ऊपर जो इल्जाम लगाया गया है ,वह गलत है। खुदा के यहां मेरा इंसाफ होगा “”
अशफाक ने फांसी से पहले दिन अपने भाई साहब को प्रेषित करने हेतु एक तार दिया जो गणेश शंकर विद्यार्थी को उनके पते पर भेजना था। तार भेज दिया गया । तार में अशफ़ाक ने
“” लिखा था 19 दिसंबर को दिन 2:00 बजे लखनऊ स्टेशन पर मुलाकात करें। उम्मीद है ,आप मेरी इल्तिजा कुबूल फरमाएंगे”‘
यह घटना बहुत ही मार्मिक है गणेश शंकर विद्यार्थी को पता चल चुका था कि 19 दिशम्बर को  अशफाक को फांसी दी जानी है।इसलिए वे समाचार पत्र का संपादकीय लेख अशफ़ाक पर ही लिख रहे थे ।  इस बीच वह तार प्राप्त हुआ उन्होंने तार को मेज पर रख दिया और अपने काम में लग गए ।
इत्तफाक से हवा का झोंका आया और तार उड़कर गणेश शंकर विद्यार्थी के हाथ की कलम के आगे आ गया । विद्यार्थी जी ने तार खोल कर पढ़ा तो सब समझ में आ गया और विद्यार्थी जी साथियों सहित   फूलमालाएँ लेकर अशफाक को मिलने  गए ।
  अशफाक ने अपने अंतिम समय में देश वासियों के नाम  एक संदेश छोड़ा था जिस का सारांश इस प्रकार है ।
भारत माता के रंगमंच का अपना पाठ अब हम अदा कर चुके।जो हमने किया वह स्वतंत्रता प्राप्ति की भावना से किया ।हमारे इस काम की कोई प्रशंसा करेंगे और कोई निंदा किंतु हमारे साहस और वीरता की प्रशंसा हमारे दुश्मनों तक को करनी पड़ी है। क्रांतिकारी बड़े वीर योद्धा और बड़े अच्छे वेदांती होते हैं ।
हम तो कन्हैयालाल दत्त खुदीराम बोस गोपीमोहन साहा आदि की स्मृति में फांसी पर चढ़ जाना चाहते थे।
भारत वासियों आप कोई हो चाहे जिस धर्म या संप्रदाय के अनुयाई हो परंतु आप देशहित के कामों में एक  होकर योग दीजिए आप लोग व्यर्थ में लड़ झगड़ रहे हैं । सब धर्म एक है ,रास्ते चाहे भिन्न-भिन्न हो परंतु लक्ष्य है सबका एक ही है । फिर झगड़ा बखेड़ा क्यों ? हम मरने वाले आपको कह रहे हैं आप एक हो जाइए और सब मिलकर नौकरशाही का मुकाबला कीजिए। यह सोचकर की सात करोड़ मुसलमान भारत वासियों में सबसे पहला मुसलमान हूं ।जो भारत की स्वतंत्रता के लिए फांसी पर चढ़ रहा हूं। मन ही मन अभिमान का अनुभव कर रहा हूं ।
आज भी अशफ़ाक के शब्द कानों में गूंज रहे है :-

तंग आकर हम भी उनके ज़ुल्म के बेदाद से,
चल दिये सुए अदम जिन्दाने फैज़ाबाद से।

      शहीद अमर रहे!

–  :    चापेकर एक्शन  -:

–  :    चापेकर एक्शन  -:

दामोदर हरी चापेकर,बालकृष्ण हरि चापेकर वासुदे हरि चापेकर तीनों सगे भाई थे । चापेकर बंधु वासुदेव फड़के से प्रभावित थे। अखाड़े व लाठी क्लब संचालित कर युवाओं को युद्धाभ्यास करवाते थे ।
अंग्रेजों ने फूट-डालो व राज करो कि नीति से बम्बई में दंगे करवाये । सुरक्षाहेतु चापेकर बंधुओं ने ” हिदू धर्म सरंक्षणी सभा” का संगठन किया । इसमें 200 युवा सदस्य थे।
          चापेकर बंधु गणेश पूजा व शिवाजी उत्सव पर लोगों में वीरता का संचार कर फ़िरंगियों के विरुद्ध संघर्ष हेतु प्रेरित करते थे ।
दामोदर चापेकर ने ” शिवाजी की पुकार ” शीर्षक से एक कविता छपवाई  जिसका अर्थ था
” शिवाजी कहते हैं कि मैंने दुष्टों का संहार कर भूमिका भार हल्का किया देश उद्वार कर स्वराज्य स्थापना तथा धर्म रक्षण किया ।”
चापेकर ने ललकारते हुए लिखा अब अवसर देख म्लेच्छ रेलगाड़ियों से स्त्रियों को घसीट कर बेइज्जत करते हैं।
हे कायरों तुम लोग कैसे सहन करते हो ? इसके विरूद्ध आवाज उठाओ ।   
       इस कविता के प्रकाशन पर बाल गंगाधर तिलक पर मुकदमा चलाया गया 14 सितम्बर1897 को तिलक जी को  डेढ़ वर्ष की सजा दी गई ।
महाराष्ट्र में दिसंबर 1896 में भीषण रूप से प्लेग फैलने लगा इसकी  रोकथाम हेतु सरकार ने प्लेग निवारक समिति बनाई जिसका अध्यक्ष वाल्टर रैण्ड था । रैण्ड अपनी निर्ममता हेतु कुख्यात था।जब रैण्ड सहायक कलेक्टर था तो उसने  1894 में निषिद्ध स्थान पर संगीत साधना करने के लिए 13 लोगों को कारावास से दण्डित किया था।।
प्लेग रोकथाम के लिए रैण्ड ने 300 घोड़े वाली पुलिस सहित प्लेग ग्रस्त क्षेत्र को घेर लिया व लोगों के घरों को लूटने की छूट देदी । मरीजों कैदियों की तरह हाँकते हुए  दूर शिविरों में ले गया ।शिविरों में मरीजों के साथ  मारपीत व अपमानजनक व्यवहार किया जाता था।
इंसानियत की हद को लांघते हुए दुष्ट रैण्ड द्वारा महिलाओं की जांच चोलियों को उतरा कर नंगा करके करवायी जाने लगी ।
यह सब बर्दाश्त से बाहर हो रहा था पर इस अत्याचार के विरुद्ध कोई आवाज़ नहीं उठ रही थी।
       तभी शिवाजी की जयंती पर 12 जून को विठ्ठल मंदिर पर आयोजित एक सभा में बाल गंगाधर तिलक ने रैण्ड की भर्त्सना करते हए पुणे  के युवाओं को ललकारते हुए कहा
‘ “”पुणे के लोगों में पुरुषत्व है ही नहीं, अन्यथा क्या मजाल हमारे घरों में घुस जाए ।”

यह बात चापेकर बंधुओं के शरीर में  तीर की तरह लगी और उनकी आत्माओं को झीझोड़कर रख दिया ।
दामोदर चापेकर ने  अपने छोटे भाई  वासुदेव के साथ तीन माह तक रैण्ड की दैनिक दिनचर्या पर नज़र रखी ।
चापेकर को सूचना मिली कि  22 जून 1897 को विक्टोरिया राज  की हीरक जयंती मनाई जाएगी जिसमें रैण्ड जाएगा। चापेकर ने उस दिन रैण्ड का वध करने की ठानली ।
हीरक जयंती 22 जून 1897 को पार्टी से लौटते समय  रात्रि को 11:30 बजे जैसे ही  रैण्ड की  बग्गी गवर्नमेंट  हाउस के मुख्य फाटक से आगे पहुंची । दामोदर बघी के पीछे चढ़े व  रैंड को गोली मार दी और कूदकर झाड़ियों में लापता हो गए  ।
कुछ दूरी पर  बालकृष्ण  चापेकर   ने  आयरिस्ट एक गोली चलाई निशाना अचूक था आयरेस्ट वहीं मर गया । बालकृष्ण भी मौके से गायब हो गए ।
रैण्ड 3 जुलाई को  मर गया । घटना का कोई सबूत नहीं था। सरकार ने हत्यारों को पकड़ने के लिए ₹20000 का इनाम रखा ।  हमारे देश गदार हमेशा रहे हैं उस वक्त भी थे । इनाम के लालच में गणेश शंकर तथा रामचंद्र द्रविड़ मुखबिर बन गए व 9 अगस्त को दामोदर चापेकर को गिरफ्तार कर लिया गया ।
बालकृष्ण निजाम राज्य के जंगल में भूमिगत  हो गए ।
दिनांक 8 अक्टूबर 1997 को चीज प्रेसिडेंसी मजिस्ट्रेट के समक्ष अपने बचाव में बालकृष्ण कहा कि   “”  मैं विदेशी दासता के प्रत्येक  चिन्ह से घृणा करते हूँ ।””
उन्होंने यह भी स्वीकार किया कि अत्याचारी सम्राट की मूर्ति पर उन्होंने ही  कॉलतोर लगाकर जूतों की माला पहनाई थी व अफसरों के पंडाल में आग लगाई थी ।
हालांकि चापेकर के विरुद्ध कोई प्रमाण पुलिस को नहीं मिला था संदेह के आधार पर दामोदर को फांसी की सजा सुनाई गई।
उस समय तिलक जी भी जेल में थे दामोदर ने तिलक से गीता ली। दिनांक 18 अप्रेल 1898 यरवदा जेल में हाथ में गीता लिए हुए दामोदर फांसी  पर चढ गए ।
वासुदेव  चापेकर को थाने में प्रतिदिन उपस्थिति दर्ज करवानी पड़ती थी ।
अपनी जननी से इजाजत व आशीर्वाद लेकर  रामचंद्र व गणेश शंकर  मुखवीरों को वासुदेव व उनके दोस्त महादेव रानाडे ने 8 फ़रवरी को गोली मारी। गणेश तुरंत मर गया रामचंद्र दूसरे दिन मर गया ।
इससे पूर्व 10 फरवरी को वासुदेव ने अनुसंधान अधिकारी मिस्टर बुइन पुलिस सुपरिंटेंडेंट को गोली मारने की कोशिश की परंतु सफल नहीं हो सके ।
वासुदेव और रानाडे ने अदालत में समस्त घटनाओं को स्वीकार किया क्रांतिवीर वासुदेव को दिनांक 8 मई 1898 को क्रांतिवीर बालकृष्ण को दिनांक 12 मई 98 को सच्चे दोस्त एंव देशभक्त महादेव गोविंद रानाडे को दिनांक 10 को यरवदा जेल में ही फांसी दी गई ।
फड़के के बाद चापेकर बंधुओं के इस क्रांतिकारी एक्शन से फिरंगी बुरी तरह से डर गए ।

आपको कैसा लगेगा यह जानकर की चापेकर बंधुओं की माँ के पास देश का कोई नेता दुःख प्रकट करने नहीं गया ।
हाँ सिस्टर निवेदिता कलकत्ता से पूना उन वीरों की शौर्यमयी माँ के दर्शन करने व सांत्वना देने जरूर गई थी ।
शत शत नमन शहीदों को।