:- पुरुष प्रातः स्मरणीय-: -; अशफ़ाक़ उल्ला खाँ-;

    :-शहीद अशफ़ाक़ उल्ला खाँ-:

भारतीय सशस्त्र क्रांति का इतिहास अधूरा रहेगा यदि हम क्रांतिवीर अशफाक उल्ला खान की शहादत और शौर्य का जिक्र नहीं करेंगे।       अशफाक उल्ला  वारसी हसरत शाहजहांपुर के निवासी थे । अशफ़ाक़ जी के परिवार की गिनती वहां के रईसों परिवारों होती थी । 
अशफ़ाक़ को बचपन से ही तैरने , घोड़े की सवारी करने और भाई की बंदूक लेकर शिकार करने में बड़ा आनंद आता था ।
अशफ़ाक़ शारिरिक रूप से स्वस्थ व  सुडोल सुंदर जवान थे । जिनका चेहरा हमेशा ही खिला हुआ और बोली में प्रेम रहता था ।
अशफ़ाक़ अच्छे कवि भी थे और
” हसरत” कवि नाम से लिखते थे काकोरी वीर अदालत में आते जाते अशफाक की लिखी कविताएं गाते थे ।
अशफाक हिंदू मुस्लिम एकता के बड़े कट्टर समर्थक थे ।एक बार शाहजहांपुर  भी हिन्दुमुस्लिम दंगो की चपेट में आ गया। पंडित राम प्रसाद बिस्मिल व अशफ़ाक ने मिलकर लोगों को समझाया।
काकोरी एक्शन में अशफाक ने अपने शक्तिशाली हाथों से सरकारी खजाने वाले मजबूत संदूक को तोड़ा था ।
अशफ़ाक़ क्रांतिकारी दल “हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन ” के सदस्य थे । अशफ़ाक़ पर कुल 5 अभियोग लगाए गए जिनमेसे तीन में फाँसी व 2 में उम्रकैद की सजा दी गयी ।
अदालत में अशफ़ाक़ को रामप्रसाद बिस्मिल का “लेफ्टिनेंट” कहा गया।
  अशफ़ाक़ को फैजाबाद जेल में दिनांक 19 दिसंबर 1927 को फांसी दी गई थी ।
अशफाक उल्ला की जिंदगी के कुछ किस्सों का ‘ हिंदू पंच के बलिदान अंक “जो 1930 में प्रकाशित हुआ था व श्री कृष्ण सरल की पुस्तक क्रांतिकारी कोष से लिये है ।
काकोरी एक्शन वाले दिन आप
” कुंवर जी “बने हुए थे और गाड़ी को रोकने हेतु  ड्रामा किया था कि कुँवर जी का जेवरों का बक्सा जो उनके हाथ में था , जिसमें 20 हजार रुपये के जेवर थे, प्लेटफॉर्म  पर भूल गए व शचीन्द्र बख्शी ने चैन खींच कर गाड़ी रोकी ।
काकोरी एक्शन में अशफ़ाक़ व शचीन्द्र नाथ बख्शी गिरफ्तार नहीं हुए थे । इसलिए  गिरफ्तारी के बाद दोनों पर काकोरी मुकदमा  पूरक रूप में चलाया गया था ।
अशफ़ाक 8 सितम्बर 1926 में दिल्ली में गिरफ्तार किए गए व शचीन्द्र बख़्शी को उन्ही दिनों में गिरफ्तार कर लखनऊ लाया गया अदालत में अशफ़ाक व  शचीन्द्र बक्शी को अलग अलग गाड़ियों से लाया गया और दोनों को मिलने नहीं दिया गया ।अदालत में दोनों अजनबी बन कर रहे ।
अदालत के बाद पुलिस यह गुप्त रूप से देखना चाहती थी कि अशफाक व बक्शी एक दूसरे को पहचानते हैं या नहीं ?
अदालत के बाद दोनों अपरिचित से खड़े थे जेल अधिकारी ने अशफ़ाक को सुनाते हुए बख्शी जी को नाम लेकर पुकारा ।
अशफ़ाक ने बख्शी जी की ओर देख कर कहा
” अच्छा आप ही शचीन्द्र बक्शी हैं ! मैंने आपकी बड़ी तारीफ सुन रखी है। “
बख्शी जी ने जेल अधिकारी से पूछा क्या आप मुझे इनका परिचय देंगे जो मुझसे सवाल कर रहे हैं। जेल के अधिकारी ने बक्शी जी से कहा ये
“प्रसिद्ध क्रांतिकारी अशफाक उल्ला खां है “
बक्शी जी ने जानबूझकर बनते हुए अशफ़ाक को संबोधित करते हुए कहा
“अच्छा आप ही अशफ़ाकउल्लाह खां है मैंने भी आपकी बहुत तारीफ सुन रखी है”।
लोग कोतुहल से देख रहे थे । इसके बाद दोनों अपनी भावनाओं पर लगाम नहीं लगा सके व एक दूसरे की भुजाओं में बंधे हुए एक दूसरे को दबोच कर मिल रहे थे।  इनको मिलते हुए देखकर पुलिस वाले भी अपने आप को ताली बजाने से रोक नहीं सके।
स्पेशल मजिस्ट्रेट सैयद अईनुदीन  ने अशफ़ाक से पूछा
“आपने मुझे कभी देखा है?”
अशफ़ाक ने कहा मैं तो आपको बहुत दिनों से देख रहा हूं। जब से काकोरी का मुकदमा आप की अदालत में चल रहा है। तब से मैं कई बार यहां आकर देख गया हूँ।
मजिस्ट्रेट ने पूछा कि कहां बैठते थे?
तो अशफाक ने बताया कि वे आम दर्शकों के साथ एक राजपूत के भेष में बैठा करते था।
लखनऊ में एक दिन पुलिस अधीक्षक खान बहादुर ने अशफ़ाक को मुसलमान होने की दुहाई देकर कुछ कहा देश आज़ाद भी हो गया तो हिन्दू राज्य होगा। अशफ़ाक ने जबाब दिया” HINDU INDIA IS BETTER THAN BRITISH INDIA”
  फ़रारी के दिनों में अशफ़ाक राजस्थान के क्रांतिकारी श्री अर्जुन लाल सेठी के घर रुके थे उनके घर  अशफ़ाक  को काफ़ी स्नेह मिला । सेठी जी पुत्री अशफ़ाक का इतना ध्यान रखती थी कि अशफ़ाक यह महसूस करने लग गए कि कहीं इनका स्नेह बंधन न बन जाये और अशफ़ाक ने सेठी जी से अनुमति लेकर अन्यत्र चले गए ।
अशफ़ाक की फाँसी की खबर से सेठी जी की पुत्री को इतनाधक्का लगा कि वह बीमार पड़ गयी और बच नहीं सकी ।
फ़रारी के समय अशफ़ाक दिल्ली में शाहजहांपुर के ही एक मुसलमान साथी के घर रुके थे उनका सहपाठी भी था।पर साथी दगा कर गया व  ईनाम के लालच में अशफ़ाक को गिरफ्तार करवाया दिया।
उस साथी के घर के पास एक  इंजीनियर साहब का घर था जहाँ अशफ़ाक का आना जाना था । इंजीनियर साहब की कन्या ने तो अशफ़ाक के समक्ष विवाह का प्रस्ताव भी रख दिया । बड़ी मुश्किल से अशफ़ाक ने पीछा छुड़ाया।
फांसी से पहले दिन अशफ़ाक दूल्हे की तरह सजधजकर तैयार हुए व  बहुत खुश दिखाई देते थे। मिलने आये मित्रों से कह रहे थे मेरी शादी है । अगले दिन सुबह 6:30 बजे अशफाक को फांसी दी गई थी। शहादत के दिन अशफ़ाक हंसी खुशी के साथ कुरान शरीफ का बस्ता कंधे से टांगे हाजियों की तरह लवेक  कहते और कलमा पढ़ते,  फाँसी के तख्ते के पास गए तख्त को चुंबन किया और फाँसी के समय  उपस्थित लोगों से कहा “मेरे हाथ इंसानी खून से कभी नहीं रंगें। मेरे ऊपर जो इल्जाम लगाया गया है ,वह गलत है। खुदा के यहां मेरा इंसाफ होगा “”
अशफाक ने फांसी से पहले दिन अपने भाई साहब को प्रेषित करने हेतु एक तार दिया जो गणेश शंकर विद्यार्थी को उनके पते पर भेजना था। तार भेज दिया गया । तार में अशफ़ाक ने
“” लिखा था 19 दिसंबर को दिन 2:00 बजे लखनऊ स्टेशन पर मुलाकात करें। उम्मीद है ,आप मेरी इल्तिजा कुबूल फरमाएंगे”‘
यह घटना बहुत ही मार्मिक है गणेश शंकर विद्यार्थी को पता चल चुका था कि 19 दिशम्बर को  अशफाक को फांसी दी जानी है।इसलिए वे समाचार पत्र का संपादकीय लेख अशफ़ाक पर ही लिख रहे थे ।  इस बीच वह तार प्राप्त हुआ उन्होंने तार को मेज पर रख दिया और अपने काम में लग गए ।
इत्तफाक से हवा का झोंका आया और तार उड़कर गणेश शंकर विद्यार्थी के हाथ की कलम के आगे आ गया । विद्यार्थी जी ने तार खोल कर पढ़ा तो सब समझ में आ गया और विद्यार्थी जी साथियों सहित   फूलमालाएँ लेकर अशफाक को मिलने  गए ।
  अशफाक ने अपने अंतिम समय में देश वासियों के नाम  एक संदेश छोड़ा था जिस का सारांश इस प्रकार है ।
भारत माता के रंगमंच का अपना पाठ अब हम अदा कर चुके।जो हमने किया वह स्वतंत्रता प्राप्ति की भावना से किया ।हमारे इस काम की कोई प्रशंसा करेंगे और कोई निंदा किंतु हमारे साहस और वीरता की प्रशंसा हमारे दुश्मनों तक को करनी पड़ी है। क्रांतिकारी बड़े वीर योद्धा और बड़े अच्छे वेदांती होते हैं ।
हम तो कन्हैयालाल दत्त खुदीराम बोस गोपीमोहन साहा आदि की स्मृति में फांसी पर चढ़ जाना चाहते थे।
भारत वासियों आप कोई हो चाहे जिस धर्म या संप्रदाय के अनुयाई हो परंतु आप देशहित के कामों में एक  होकर योग दीजिए आप लोग व्यर्थ में लड़ झगड़ रहे हैं । सब धर्म एक है ,रास्ते चाहे भिन्न-भिन्न हो परंतु लक्ष्य है सबका एक ही है । फिर झगड़ा बखेड़ा क्यों ? हम मरने वाले आपको कह रहे हैं आप एक हो जाइए और सब मिलकर नौकरशाही का मुकाबला कीजिए। यह सोचकर की सात करोड़ मुसलमान भारत वासियों में सबसे पहला मुसलमान हूं ।जो भारत की स्वतंत्रता के लिए फांसी पर चढ़ रहा हूं। मन ही मन अभिमान का अनुभव कर रहा हूं ।
आज भी अशफ़ाक के शब्द कानों में गूंज रहे है :-

तंग आकर हम भी उनके ज़ुल्म के बेदाद से,
चल दिये सुए अदम जिन्दाने फैज़ाबाद से।

      शहीद अमर रहे!

–  :    चापेकर एक्शन  -:

–  :    चापेकर एक्शन  -:

दामोदर हरी चापेकर,बालकृष्ण हरि चापेकर वासुदे हरि चापेकर तीनों सगे भाई थे । चापेकर बंधु वासुदेव फड़के से प्रभावित थे। अखाड़े व लाठी क्लब संचालित कर युवाओं को युद्धाभ्यास करवाते थे ।
अंग्रेजों ने फूट-डालो व राज करो कि नीति से बम्बई में दंगे करवाये । सुरक्षाहेतु चापेकर बंधुओं ने ” हिदू धर्म सरंक्षणी सभा” का संगठन किया । इसमें 200 युवा सदस्य थे।
          चापेकर बंधु गणेश पूजा व शिवाजी उत्सव पर लोगों में वीरता का संचार कर फ़िरंगियों के विरुद्ध संघर्ष हेतु प्रेरित करते थे ।
दामोदर चापेकर ने ” शिवाजी की पुकार ” शीर्षक से एक कविता छपवाई  जिसका अर्थ था
” शिवाजी कहते हैं कि मैंने दुष्टों का संहार कर भूमिका भार हल्का किया देश उद्वार कर स्वराज्य स्थापना तथा धर्म रक्षण किया ।”
चापेकर ने ललकारते हुए लिखा अब अवसर देख म्लेच्छ रेलगाड़ियों से स्त्रियों को घसीट कर बेइज्जत करते हैं।
हे कायरों तुम लोग कैसे सहन करते हो ? इसके विरूद्ध आवाज उठाओ ।   
       इस कविता के प्रकाशन पर बाल गंगाधर तिलक पर मुकदमा चलाया गया 14 सितम्बर1897 को तिलक जी को  डेढ़ वर्ष की सजा दी गई ।
महाराष्ट्र में दिसंबर 1896 में भीषण रूप से प्लेग फैलने लगा इसकी  रोकथाम हेतु सरकार ने प्लेग निवारक समिति बनाई जिसका अध्यक्ष वाल्टर रैण्ड था । रैण्ड अपनी निर्ममता हेतु कुख्यात था।जब रैण्ड सहायक कलेक्टर था तो उसने  1894 में निषिद्ध स्थान पर संगीत साधना करने के लिए 13 लोगों को कारावास से दण्डित किया था।।
प्लेग रोकथाम के लिए रैण्ड ने 300 घोड़े वाली पुलिस सहित प्लेग ग्रस्त क्षेत्र को घेर लिया व लोगों के घरों को लूटने की छूट देदी । मरीजों कैदियों की तरह हाँकते हुए  दूर शिविरों में ले गया ।शिविरों में मरीजों के साथ  मारपीत व अपमानजनक व्यवहार किया जाता था।
इंसानियत की हद को लांघते हुए दुष्ट रैण्ड द्वारा महिलाओं की जांच चोलियों को उतरा कर नंगा करके करवायी जाने लगी ।
यह सब बर्दाश्त से बाहर हो रहा था पर इस अत्याचार के विरुद्ध कोई आवाज़ नहीं उठ रही थी।
       तभी शिवाजी की जयंती पर 12 जून को विठ्ठल मंदिर पर आयोजित एक सभा में बाल गंगाधर तिलक ने रैण्ड की भर्त्सना करते हए पुणे  के युवाओं को ललकारते हुए कहा
‘ “”पुणे के लोगों में पुरुषत्व है ही नहीं, अन्यथा क्या मजाल हमारे घरों में घुस जाए ।”

यह बात चापेकर बंधुओं के शरीर में  तीर की तरह लगी और उनकी आत्माओं को झीझोड़कर रख दिया ।
दामोदर चापेकर ने  अपने छोटे भाई  वासुदेव के साथ तीन माह तक रैण्ड की दैनिक दिनचर्या पर नज़र रखी ।
चापेकर को सूचना मिली कि  22 जून 1897 को विक्टोरिया राज  की हीरक जयंती मनाई जाएगी जिसमें रैण्ड जाएगा। चापेकर ने उस दिन रैण्ड का वध करने की ठानली ।
हीरक जयंती 22 जून 1897 को पार्टी से लौटते समय  रात्रि को 11:30 बजे जैसे ही  रैण्ड की  बग्गी गवर्नमेंट  हाउस के मुख्य फाटक से आगे पहुंची । दामोदर बघी के पीछे चढ़े व  रैंड को गोली मार दी और कूदकर झाड़ियों में लापता हो गए  ।
कुछ दूरी पर  बालकृष्ण  चापेकर   ने  आयरिस्ट एक गोली चलाई निशाना अचूक था आयरेस्ट वहीं मर गया । बालकृष्ण भी मौके से गायब हो गए ।
रैण्ड 3 जुलाई को  मर गया । घटना का कोई सबूत नहीं था। सरकार ने हत्यारों को पकड़ने के लिए ₹20000 का इनाम रखा ।  हमारे देश गदार हमेशा रहे हैं उस वक्त भी थे । इनाम के लालच में गणेश शंकर तथा रामचंद्र द्रविड़ मुखबिर बन गए व 9 अगस्त को दामोदर चापेकर को गिरफ्तार कर लिया गया ।
बालकृष्ण निजाम राज्य के जंगल में भूमिगत  हो गए ।
दिनांक 8 अक्टूबर 1997 को चीज प्रेसिडेंसी मजिस्ट्रेट के समक्ष अपने बचाव में बालकृष्ण कहा कि   “”  मैं विदेशी दासता के प्रत्येक  चिन्ह से घृणा करते हूँ ।””
उन्होंने यह भी स्वीकार किया कि अत्याचारी सम्राट की मूर्ति पर उन्होंने ही  कॉलतोर लगाकर जूतों की माला पहनाई थी व अफसरों के पंडाल में आग लगाई थी ।
हालांकि चापेकर के विरुद्ध कोई प्रमाण पुलिस को नहीं मिला था संदेह के आधार पर दामोदर को फांसी की सजा सुनाई गई।
उस समय तिलक जी भी जेल में थे दामोदर ने तिलक से गीता ली। दिनांक 18 अप्रेल 1898 यरवदा जेल में हाथ में गीता लिए हुए दामोदर फांसी  पर चढ गए ।
वासुदेव  चापेकर को थाने में प्रतिदिन उपस्थिति दर्ज करवानी पड़ती थी ।
अपनी जननी से इजाजत व आशीर्वाद लेकर  रामचंद्र व गणेश शंकर  मुखवीरों को वासुदेव व उनके दोस्त महादेव रानाडे ने 8 फ़रवरी को गोली मारी। गणेश तुरंत मर गया रामचंद्र दूसरे दिन मर गया ।
इससे पूर्व 10 फरवरी को वासुदेव ने अनुसंधान अधिकारी मिस्टर बुइन पुलिस सुपरिंटेंडेंट को गोली मारने की कोशिश की परंतु सफल नहीं हो सके ।
वासुदेव और रानाडे ने अदालत में समस्त घटनाओं को स्वीकार किया क्रांतिवीर वासुदेव को दिनांक 8 मई 1898 को क्रांतिवीर बालकृष्ण को दिनांक 12 मई 98 को सच्चे दोस्त एंव देशभक्त महादेव गोविंद रानाडे को दिनांक 10 को यरवदा जेल में ही फांसी दी गई ।
फड़के के बाद चापेकर बंधुओं के इस क्रांतिकारी एक्शन से फिरंगी बुरी तरह से डर गए ।

आपको कैसा लगेगा यह जानकर की चापेकर बंधुओं की माँ के पास देश का कोई नेता दुःख प्रकट करने नहीं गया ।
हाँ सिस्टर निवेदिता कलकत्ता से पूना उन वीरों की शौर्यमयी माँ के दर्शन करने व सांत्वना देने जरूर गई थी ।
शत शत नमन शहीदों को।

;- अलीपुर एक्शन ;

:- अलीपुर एक्शन -:

अंग्रेजों की भाषा में ‘” अलीपुर षड्यंत्र ” कहे जाने वाले को हमारी भाषा मे

” अलीपुर एक्शन ” से संबोधित करेंगे। आजादी के सशस्त्र संग्राम के क्रम में हमारे क्रांतिकारियों द्वारा किसी स्थान विशेष पर कोई हथियार रखने , बम्ब बनाने , किसी कुख्यात निर्दयी अधिकारी या गदार का वध करने जैसे क्रांतिकारी एक्शन लिये जाते थे । अंग्रेजी पुलिस व सरकार ऐसे क्रांतिकारी एक्शन को उस स्थान का नाम देकर फिरंगी साम्राज्यवाद के विरुद्ध युद्ध करना करार देकर फौजदारी मामला बना कर क्रांतिकारियों को फाँसी व कालापानी जैसी सजाए देने हेतु कार्यवाही करती थी ।। अलीपुर एक्शन बंगाल की कलकत्ता अनुशीलन समिति द्वारा बम्ब बनाने , लेफ्टिनेंट जनरल एंड्रयू फ्रेजर को मारने हेतु दिसंबर 1906 बम्ब से रेलगाड़ी उड़ाने से संबंधित था। इस दल द्वारा कोलकाता में मानिकतल्ला में स्तिथ बगीचे में सन 1908 से बम्ब बनाने का काम शुरू किया गया था। इस समिति का एक केंद्र देवघर में भी स्थापित कर लिया गया । डगलस किंग्स फोर्ड कोलकाता में चीफ प्रेसिडेंसी मजिस्ट्रेट था उसने क्रांतिकारी समाचार पत्र युगांतर , वंदे मातरम , संध्या , नवशक्ति व अन्य के संपादकों पर मुकदमा चलाकर उन्हें दंडित किया था। किंग्सफोर्ड ” कसाई काजी” के नाम से कुख्यात था। इस क्रांतिकारी दल ने किंग्सफोर्ड का वध करने का निर्णय किया । सरकार को खबर होने पर किंग्सफोर्ड का स्थानांतरण कोलकाता से मुजफ्फरपुर कर दिया गया । क्रांतिकारी प्रफुल्ल चाकी व खुदीराम बोस को किंग्सफोर्ड का वध करने का दायित्व सौंपा गया । दोनों क्रांतिकारी मुजफ्फरपुर आये व किंग्सफोर्ड की गाड़ी व गतिविधियों पर नज़र रखी तथा मौका मिलते ही दिनांक 30 अप्रेल 1908 को किंग्स फोर्ड की कार को बम्ब से उड़ा दिया । दुर्भाग्य से कार में किंग्सफोर्ड नहीं था । सरकारी वकील कैनेडी की पत्नि व पुत्री थी । पुलिस के सामने बम्ब बनाने जाने का यह पहला मामला था। इसलिये पुलिस व सरकार हिल गयी शिघ्र जांच पड़ताल की गई व दिनाँक 2 मई 1908 को इस मामले में कुल 38 क्रांतिकारियों को गिरफ्तार कर पेश किया गया विचारण में कुल 49 लोगों को अभियुक्त बनाया गया। इस बीच एक क्रांतिकारी नरेंद्र गोस्वामी सरकारी गवाह बन गया । नरेंद्र द्वारा दल की सारी जानकारी पुलिस को दी जाने का डर था । इसलिए सत्येंद्र बॉस व कन्हैलाल दत्त ने जैल में ही पिस्तौल मंगवा कर गदार नरेंद्र का जैल के अस्पताल में वध कर दिया। इसअलीपुर मामले में कुल 222 गवाहों के बयान हुए व 2000दस्तावेज पेश हुए । मामले का निर्णय 6 मई 1909 को हुआ बारीन्द्र घोष व उल्लासकर दत्त को फांसी की सजा दी गई। जो अपील में उम्रकैद करदी गयी । यह केस सम्राट बना अरबिंदो घोष के नाम से था। इसी को ही अलीपुर के अलावा मानिकतला व मुरारीपुकुर के नाम से भी जाना जाता है अलीपुर केस का निर्णय दिनांक 6 मई 19 09 को किया गया इसमें कुल 49 अभियुक्त रखे गए थे जिनमें से 13 को उम्र कैद वह उनकी संपत्ति जब्त की गई 3 को 10 वर्ष की सजा व उनकी संपत्ति जब्त की गई 3 को 7 वर्ष की सजा व एक को 1 वर्ष की सजा दी गयी । वह अरविंद घोष सहित 17 लोगों को साक्ष्य के अभाव में बरी किया गया सभी उम्र कैद वाले कैदी अंडमान जेल में भेजे गए प्रथम महायुद्ध के बाद 1920 में राजनीतिक कैदियों की सामूहिक माफी हुई तब इन सब लोगों की सजा माफ कर दी गई। कुछ क्रांतिकारीयों ने रिहाई के बाद फिर से आज़ादी के लिए लड़ाई शरू रखी। शत शत नमन क्रांतिवीरों को

::– शहीद खुदीराम बोस –::

::– शहीद खुदीराम बोस –:: जन्म 3 दिशम्बर 1889 मिदनापुर (बंगाल) शहादत 11अगस्त 1908 खुदीराम बोस कलकत्ता अनुशीलन समिति (बारीन्द्र घोष दल )के सदस्य थे । यह अनुशीलन समिति भारत को अंग्रेजों से मुक्त करवाने के लिए सशस्त्र क्रांति के रास्ते पर थी। क्रांतिकारीयों द्वारा देश एंव विदेश से अस्त्र- शस्त्र एकत्रित किए जाते थे । देश विदेश में बम्ब बनाना सीख रहे थे व भारत मे बम्ब बनाना शुरू कर दिया गया था। अंग्रेजी शासन के निर्मम व क्रूर अधिकारीयों व पुलिस मुखवीरों को क्रांतिकरी अपने निशाने पर रखते थे । ऐसा ही एक अधिकारी डगलस किंग्स फोर्ड क्रांतिकारीयों के निशाने पर था । किंग्स फोर्ड कोलकाता में चीफ प्रेसिडेंसी मजिस्ट्रेट था उसने क्रांतिकारी समाचार पत्र युगांतर , वंदे मातरम , संध्या , नवशक्ति व अन्य के संपादकों पर मुकदमा चलाकर उन्हें दंडित किया था। किंग्सफोर्ड ” कसाई काजी” के नाम से कुख्यात था। बारीन्द्र क्रांतिकारी दल ने किंग्सफोर्ड का वध करने का निर्णय किया । क्रांतिकारीयों ने किंग्फोर्ड फोर्ड को एक पार्सल बम्ब भेजा पर फोर्ड ने पार्सल खोला ही नहीं । सरकार को खबर होने पर किंग्सफोर्ड का स्थानांतरण कोलकाता से मुजफ्फरपुर कर दिया गया । क्रांतिकारी प्रफुल्ल चाकी व खुदीराम बोस को किंग्सफोर्ड का वध करने का दायित्व सौंपा गया । दोनों क्रांतिकारी मुजफ्फरपुर आये व किंग्सफोर्ड की बघी गाड़ी व गतिविधियों पर नज़र रखी तथा मौका मिलते ही दिनांक 30 अप्रेल 1908 को किंग्स फोर्ड की गाड़ी को बम्ब से उड़ा दिया । दुर्भाग्य से गाड़ी में किंग्सफोर्ड नहीं था । सरकारी वकील कैनेडी की पत्नि व पुत्री थी । गाड़ी पर बम्ब फेंकने के बाद चाकी व खुदीराम बोस अलग अलग दिशा में भागे। प्रफुल्ल चाकी ने पुलिस मुकाबले के बाद स्वयं को गोली मारकर आत्म बलिदान किया । पर खुदीराम बोस को पुलिस द्वारा पकड़ लिया गए ।मुकदमा चला व खुदीराम को मृत्यु दंड की सजा सुनाई गई तथा दिनाँक 11 अगस्त 1908 को खुदीराम बोस को फाँसी दी गयी । उस समय खुदीराम की आयु मात्र 19 वर्ष थी। शत शत नमन क्रांतिवीर को

:– शहीद खुदीराम बोस –::

::– शहीद खुदीराम बोस –::

        जन्म 3 दिशम्बर 1889
           मिदनापुर (बंगाल)
        शहादत 11अगस्त 1908
खुदीराम बोस कलकत्ता अनुशीलन समिति (बारीन्द्र घोष दल )के सदस्य थे । यह अनुशीलन समिति भारत को अंग्रेजों से मुक्त करवाने के लिए सशस्त्र क्रांति के रास्ते पर थी।
क्रांतिकारीयों द्वारा देश एंव विदेश से अस्त्र- शस्त्र एकत्रित किए जाते थे । देश विदेश में बम्ब बनाना सीख रहे थे व भारत मे बम्ब बनाना शुरू कर दिया गया था।
अंग्रेजी शासन के निर्मम व क्रूर अधिकारीयों व पुलिस मुखवीरों को क्रांतिकरी अपने निशाने पर रखते थे । ऐसा ही एक अधिकारी
डगलस किंग्स फोर्ड क्रांतिकारीयों के निशाने पर था ।
किंग्स फोर्ड कोलकाता में चीफ प्रेसिडेंसी मजिस्ट्रेट था उसने  क्रांतिकारी समाचार पत्र युगांतर , वंदे मातरम , संध्या , नवशक्ति व अन्य  के संपादकों पर  मुकदमा चलाकर उन्हें दंडित किया था। किंग्सफोर्ड ” कसाई काजी” के नाम से कुख्यात था।
बारीन्द्र क्रांतिकारी दल ने किंग्सफोर्ड का वध करने का निर्णय किया । क्रांतिकारीयों ने किंग्फोर्ड फोर्ड को एक पार्सल बम्ब भेजा पर फोर्ड ने पार्सल खोला ही नहीं ।
सरकार को खबर होने पर किंग्सफोर्ड का स्थानांतरण कोलकाता से मुजफ्फरपुर कर दिया गया । क्रांतिकारी  प्रफुल्ल चाकी व खुदीराम बोस को किंग्सफोर्ड का वध करने का दायित्व सौंपा गया ।
दोनों क्रांतिकारी मुजफ्फरपुर  आये व किंग्सफोर्ड की बघी गाड़ी व गतिविधियों पर नज़र रखी तथा मौका मिलते ही दिनांक 30 अप्रेल 1908 को किंग्स फोर्ड की गाड़ी को बम्ब से उड़ा दिया । दुर्भाग्य से गाड़ी में किंग्सफोर्ड नहीं था । सरकारी वकील कैनेडी की पत्नि व पुत्री थी ।
   गाड़ी पर बम्ब फेंकने के बाद चाकी व खुदीराम बोस अलग अलग दिशा में भागे। प्रफुल्ल चाकी ने पुलिस मुकाबले के बाद स्वयं को गोली मारकर आत्म बलिदान किया । पर खुदीराम बोस को पुलिस द्वारा पकड़ लिया गए ।मुकदमा चला व खुदीराम को मृत्यु दंड की सजा सुनाई गई तथा दिनाँक 11 अगस्त 1908 को              खुदीराम बोस को फाँसी दी गयी । उस समय खुदीराम की आयु मात्र 19 वर्ष थी।

शत शत नमन क्रांतिवीर को

क्रांतिवीर प्रफुल्ल चाकी

क्रांतिवीर प्रफुल्ल चाकी — स्वतंत्रता संग्राम का निर्भीक योद्धा

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में अनेक वीरों ने अपने प्राणों की आहुति दी। उन्हीं महान क्रांतिकारियों में एक अमर नाम है — प्रफुल्ल चाकी। उनका साहस, देशभक्ति और बलिदान आज भी हम सबके लिए प्रेरणास्त्रोत है।

प्रारंभिक जीवन और क्रांतिकारी पथ की शुरुआत

प्रफुल्ल चाकी का जन्म 10 दिसंबर 1888 को तत्कालीन पूर्वी बंगाल के बोगरा ज़िले (वर्तमान बांग्लादेश) में हुआ था। बचपन से ही उनमें देशभक्ति की भावना प्रबल थी। युवा अवस्था में उन्होंने कलकत्ता अनुशीलन समिति (बारीन्द्र कुमार घोष का दल) की सदस्यता ली, जो अंग्रेजों के खिलाफ सशस्त्र क्रांति के लिए कार्यरत थी।

अनुशीलन समिति के सदस्य देश–विदेश में बम बनाना सीख रहे थे और अंग्रेजी हुकूमत के अत्याचारी अधिकारियों तथा मुखबिरों को निशाना बना रहे थे। प्रफुल्ल चाकी भी बम निर्माण और उसके प्रयोग में दक्ष हो चुके थे।

किंग्सफोर्ड की हत्या का दायित्व

ब्रिटिश सरकार का अत्याचारी मजिस्ट्रेट डगलस किंग्सफोर्ड क्रांतिकारियों के निशाने पर था। उसने युगांतर, वंदे मातरम, संध्या और नवशक्ति जैसे क्रांतिकारी अखबारों के संपादकों पर मुकदमे चलाकर उन्हें दंडित किया था। अपनी कठोरता के कारण वह ‘कसाई काजी’ के नाम से बदनाम था।

बारीन्द्र घोष के नेतृत्व में किंग्सफोर्ड का वध करने की योजना बनी और इसका दायित्व प्रफुल्ल चाकी और खुदीराम बोस को सौंपा गया। सरकार को खतरे की आशंका होने पर किंग्सफोर्ड का तबादला कोलकाता से मुजफ्फरपुर कर दिया गया, लेकिन दोनों क्रांतिकारी वहाँ भी पहुँच गए।

ऐतिहासिक बम कांड

दोनों ने कई दिन तक किंग्सफोर्ड की गतिविधियों पर नज़र रखी। अंततः 30 अप्रैल 1908 की रात को उन्होंने उसकी बग्घी पर बम फेंका। दुर्भाग्यवश उस बग्घी में किंग्सफोर्ड नहीं था, बल्कि सरकारी वकील कैनेडी की पत्नी और पुत्री मौजूद थीं, जो इस हमले में मारी गईं।
इसके बाद चाकी और खुदीराम अलग–अलग दिशाओं में भाग गए।

बलिदान की अमर गाथा

प्रफुल्ल चाकी कलकत्ता लौटने के लिए रेलगाड़ी से रवाना हुए। उसी ट्रेन में सब–इंस्पेक्टर नंदलाल बैनर्जी भी यात्रा कर रहा था। उसने प्रफुल्ल चाकी को पहचान लिया और पकड़ने का प्रयास किया। चाकी ने नंदलाल पर गोली चलाई लेकिन निशाना चूक गया।
गिरफ्तारी से बचने और राज़ उजागर न होने देने के उद्देश्य से प्रफुल्ल चाकी ने दूसरी गोली खुद को मार ली और वीरगति को प्राप्त हुए।

घृणित रूप से, नंदलाल ने चाकी का सिर काटकर पहचान हेतु कोलकाता भेजा और इसके लिए इनाम पाया। इस कुकृत्य का बदला क्रांतिकारी श्रीसपाल और राणे गांगुली ने लिया। उन्होंने 9 नवम्बर 1908 को कलकत्ता के सर्पेंटाइन लेन में नंदलाल को गोलियों से भून डाला। केस बनाया गया पर सबूत के अभाव में श्रीशपाल बरी हुए । चाकी का पुलिस रिकॉर्ड में नाम दिनेश चंद्र राय भी था। प्रफुल्ल चाकी की शहादत ने बंगाल के लोगों के दिलों में गहरी जगह ली लोगों ने  पहनने के कपड़ों पर प्रफुल्ल चाकी का नाम लिखवाना शुरू कर दिया।

अमर बलिदान और प्रेरणा

प्रफुल्ल चाकी की शहादत ने बंगाल के युवाओं के दिलों में अग्नि प्रज्वलित कर दी। लोगों ने अपने वस्त्रों पर उनका नाम लिखवाना शुरू कर दिया। ब्रिटिश दमन के सामने न झुकने और प्राणों की आहुति देने वाला यह वीर क्रांतिकारी सदा स्मरणीय रहेगा।

शत–शत नमन है उस अमर बलिदानी को, जिसने स्वतंत्रता के यज्ञ में अपने प्राण अर्पित किए।

खुदीराम बोस

कसाई काज़ी के नाम से कुख्यात किंग्सफोर्ड को मारने के जिम्मा दो नवयुवको खुदीराम बोस व प्रफुल चंद्र चाकी पर था । दोनों ही मुजफ्फरनगर पहुंचे। बंगाल की पुलिस को क्रांतिकारियों के इस इरादे का पता लग चुका था। किंग्स फोर्ड के मकान पर सशस्त्र पुलिस का पहरा लगने लगा। दस दिन तक इन नोजवानो को किंग्स फोर्ड को मारने का अवसर नहीं मिला। वे एक धर्मशाला में ठहरे रहे।

किंग्स फोर्ड के पास एक हरे रंग की घोड़ा गाड़ी थी वह उसी में बैठ कर क्लब से घर को जाया करता था। प्रफुल्ल व खुदीराम ने भी उस गाड़ी को खूब देख लिया। एक रात के समय वह गाड़ी क्लब से घर जब लौट रही थी मौका देख प्रफुल्ल व चाकी ने गाड़ी पर बम फैंक दिया किन्तु अफसोस कि उस बम से कैनेडी नाम के एक अंग्रेज की लड़की मारी गई और उसकी पत्नी सख्त घायल हुईं। यह घटना 30 अप्रैल सन 1908 की हैं। बम फैंकने के बाद प्रफुल चाकी समस्तीपुर की ओर तथा खुदीराम बोस मुजफ्फरनगर से बैनी की ओर भागे।
बैनी मुजफ्फरनगर से 15 मील दूर एक छोटा सा स्टेशन है। एक दुकान पर खुदीराम ने जलपान किया। वहाँ किसी ने कहा कि मुजफ्फरनगर में रात को कैनेडी की लड़की बम से मारी गई है। खुदीराम बच्चा तो थे ही उनके मुह से अचानक निकला ऐ किंग्स फोर्ड मरा क्या? लोगों को उन पर संदेह हो गया। यद्यपि उन्होंने भागने की चेष्टा की किन्तु पकड़े लिए गये और मुजफ्फरनगर को उनका चालान कर दिया गया। उधर समस्तीपुर में जब प्रफुल चाकी कलकत्ते की ओर जा रहे थे बीच में ही एक पुलिस थानेदार ने उन्हें पकड़ना चाहा। पहले तो उन्होंने थानेदार पर फायर किया किन्तु वार खाली गया तो अपने ही गोली मार ली।
खुदीराम बोस ने अदालत में बड़ी निर्भीकता से अपना अपराध स्वीकार कर लिया बांकीपुर से बुलाये गये मि0 कॉर्नडफ नाम के जज ने इनके मामले को सुना। कालिदास बॉस नाम के एक वकील ने खुदीराम की वकालत की किन्तु सात दिन ही नाटकीय समापन के बाद उन्हें दफा 302 के ताजीरात हिन्द के अनुसार फांसी की सजा दी गई। हाईकोर्ट में अपील भी हुई पर ख़ारिज कर दी गई । खुदीराम बोस ने फांसी से पहले अदालत में यह प्रार्थना की थी कि उसकी लाश कालिदास वकील के सुपुर्द कर दी जाये। ता0 11 अगस्त सन 1908 को प्रातः काल ही उन्हें फांसी पर लटका दिया गया।
कई लेखकों ने लिखा है कि उनकी अर्थी का एक बड़ा जुलूस निकाला गया था। उन पर इतने फूल बरसे की कोई ठिकाना नही, क्योंकि प्रत्येक बंगाली को उनकी शहीदी पर गर्व था।

लाहौर षड्यंत्र केस में एक क्रांतिकारी श्री शिव वर्मा ने उनकी अंत्येष्टि के संबंध में ‘नव निर्माण’ नामक एक पत्र में इस प्रकार लिखा था:- “उनकी अंत्येष्टि का दृश्य बड़ा ही ह्रदय ग्राही था। फूलो की एक सुसज्जित शय्या पर उनका शव रख दिया गया था। अर्थी भी फूल मालाओं से सजाई गई थी उनके माथे पर चंदन का तिलक चमक रहा था। अधखुले नेत्रो से अब भी एक जागृत ज्योति निकल रही थी। होंटो पर दृढ़ संकल्प की रेखा दिखाई पड़ रही थी। ‘राम नाम सत्य’ तथा ‘वंदे मातरम’ के व्योम व्यापी नारो के साथ अर्थी उठी। चारो ओर नर मुंडो का समूह उमड़ा था। हजारो आदमी इस शव यात्रा में सम्मिलित थे। अर्थी उठी। चारो ओर नर मुंडो का समूह उमड़ा था। हजारो आदमी इस शव यात्रा समिलित थे। वृहद जुलूस के साथ अर्थी शमशान पहुंची थी। फुलो से अच्छादित शव उतार कर चिता पर रखा गया। काली बाबु ने घृत, धूप और शाकल पहले से ही ला रखे थे। चिता में आग लगा दी गई। एक बार फिर वंदे मातरम की तुमुल ध्वनि से आकाश गूंज उठा और जब चिता ठंडी हो गई तो चिता भस्म के लिए जनता की पारस्परिक छीना झपटी का दृश्य भी कम ह्रदय ग्राही न था।
उस समय बंगाल के कई अखबारों ने उनके इस कृत्य की निदा भी की थी किन्तु बंगाल के घर घर मे उनका जिक्र था। उनके संबंध में बहुत दिनों तक गया जाता रहा था :-
“खुदिराम बोस जथा हाशीते,
फांसी ते कोरिलो प्रान शेष।
तुई तो मांगो तार देर जननी,
तुई तो मांगो नादेर देश।
अर्थात – खुदिराम बोस ने हंसते हंसते फांसी पर अपने प्राणो को दिया। हे जननी वही तो मैं मांगता हूं।
फांसी के तख्त पर हंसते हंसते चढ़ते हुए उन जनता ने देखा और उनका वही चित्र हर बंगाली के मानस पर खिंच गया था जो कभी कभी लोक गीतों में फुट पड़ता है।

वीर वीरांगना क्रांतिकारी महिला कल्पना दत्त

(जन्म: 27 जुलाई, 1913 – मृत्यु: 8 फ़रवरी 1995)

देश की आज़ादी के लिए संघर्ष करने वाली महिला क्रांतिकारियों में से एक थीं। इन्होंने अपनी क्रांतिकारी गतिविधियों को अंजाम देने के लिए क्रांतिकारी सूर्यसेन के दल से नाता जोड़ लिया था।

1933 ई. में कल्पना दत्त पुलिस से मुठभेड़ होने पर गिरफ़्तार कर ली गई थीं। राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी और रवीन्द्रनाथ टैगोर के प्रयत्नों से ही वह जेल से बाहर आ पाई थीं। अपने महत्त्वपूर्ण योगदान के लिए कल्पना दत्त को ‘वीर महिला’ की उपाधि से सम्मानित किया गया था।
जन्म तथा क्रांतिकारी गतिविधियाँ कल्पना दत्त का जन्म चटगांव (अब बांग्लादेश) के श्रीपुर गांव में एक मध्यम वर्गीय परिवार में हुआ था।
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चटगांव में आरम्भिक शिक्षा के बाद वह उच्च शिक्षा के लिए कोलकाता आईं। प्रसिद्ध क्रान्तिकारियों की जीवनियाँ पढ़कर वह प्रभावित हुईं और शीघ्र ही स्वयं भी कुछ करने के लिए आतुर हो उठीं। 18 अप्रैल, 1930 ई. को ‘चटगांव शस्त्रागार लूट’ की घटना होते ही कल्पना दत्त कोलकाता से वापस चटगांव चली गईं और क्रान्तिकारी सूर्यसेन के दल से संपर्क कर लिया। वह वेश बदलकर इन लोगों को गोला-बारूद आदि पहुँचाया करती थीं। इस बीच उन्होंने निशाना लगाने का भी अभ्यास किया।
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कारावास की सज़ा
कल्पना और उनके साथियों ने क्रान्तिकारियों का मुकदमा सुनने वाली अदालत के भवन को और जेल की दीवार उड़ाने की योजना बनाई। लेकिन पुलिस को सूचना मिल जाने के कारण इस पर अमल नहीं हो सका। पुरुष वेश में घूमती कल्पना दत्त गिरफ्तार कर ली गईं। पर अभियोग सिद्ध न होने पर उन्हें छोड़ दिया गया। उनके घर पुलिस का पहरा बैठा दिया गया। लेकिन कल्पना पुलिस को चकमा देकर घर से निकलकर क्रान्तिकारी सूर्यसेन से जा मिलीं।
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सूर्यसेन गिरफ्तार कर लिये गए और मई, 1933 ई. में कुछ समय तक पुलिस और क्रान्तिकारियों के बीच सशस्त्र मुकाबला होने के बाद कल्पना दत्त भी गिरफ्तार हो गईं।
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मुकदमा चला और फ़रवरी, 1934 ई. में सूर्यसेन तथा तारकेश्वर दस्तीकार को फांसी की और 21 वर्ष की कल्पना दत्त को आजीवन कारावास की सज़ा हो गई।
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# ऐलान_ए_इंक़लाब

बाबा पृथ्वी सिंह आज़ाद

क्रांतिवीर बाबा पृथ्वी सिंह “आज़ाद” — एक अमर बलिदानी का जीवन

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के अनगिनत सपूतों ने अपना सर्वस्व अर्पित कर देश को परतंत्रता की बेड़ियों से मुक्त कराने का स्वप्न देखा और उसे साकार करने के लिए असंख्य कठिनाइयाँ झेली। ऐसे ही एक महान क्रांतिवीर थे बाबा पृथ्वी सिंह “आज़ाद”, जिनका जीवन देशभक्ति, संघर्ष और बलिदान की अद्वितीय गाथा है।

प्रारंभिक जीवन और गदर आंदोलन से जुड़ाव

बाबा पृथ्वी सिंह का जन्म 15 सितम्बर 1892 को पंजाब के पटियाला रियासत के गांव लबरु रायपुररानी में हुआ था। बचपन से ही उनमें देशभक्ति की भावना प्रबल थी। वे उन चंद क्रांतिकारियों में से थे जो गदर पार्टी के संस्थापक सदस्यों में शामिल रहे। गदर पार्टी का उद्देश्य था भारत को अंग्रेजों के क्रूर शासन से मुक्त कराना और देश में स्वतंत्र गणराज्य की स्थापना करना।

लाहौर षड्यंत्र और काला पानी की सज़ा

ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ सशस्त्र क्रांति की योजना बनाने के आरोप में बाबा पृथ्वी सिंह को लाहौर षड्यंत्र (प्रथम) मामले में गिरफ्तार कर लिया गया। उन्हें पहले फाँसी की सज़ा सुनाई गई, परंतु अपील के बाद सज़ा को आजीवन कारावास में बदलकर उन्हें काला पानी यानी अंडमान की सेलुलर जेल भेज दिया गया।

कारागार से भागने का ऐतिहासिक साहस

अंडमान जेल से बाद में उन्हें नागपुर केंद्रीय जेल स्थानांतरित किया जा रहा था। इसी यात्रा के दौरान, दिनांक 29 नवम्बर 1922 को बाबा पृथ्वी सिंह ने चलती ट्रेन से कूदकर भागने का दुस्साहसिक निर्णय लिया और ब्रिटिश हुकूमत की गिरफ्त से आज़ाद हो गए। इसके बाद वे पूरे 16 वर्षों तक फरार रहे और भूमिगत रहकर स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय रहे।

इस दौरान उनका संपर्क महान क्रांतिकारी चंद्रशेखर आज़ाद और उनके संगठन हिंदुस्तान रिपब्लिकन सोशलिस्ट एसोसिएशन (HRSA) से बना रहा।

गवर्नर हैली की हत्या की योजना और साहसी अभियान

भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को फाँसी दिए जाने के पश्चात् बाबा पृथ्वी सिंह ने इस क्रूर अंग्रेजी शासन से बदला लेने का निश्चय किया। उन्होंने दुर्गा भाभी और सुखदेव राज के साथ मिलकर बंगाल के गवर्नर मैल्कल्म हैली की हत्या की योजना बनाई। दिनांक 8 अक्टूबर 1930 को तीनों क्रांतिकारी कलकत्ता (अब कोलकाता) पहुँचे और लेमिंगटन रोड स्थित गवर्नर के आवास तक जा पहुँचे। हालांकि, वहाँ भीड़ अत्यधिक होने के कारण वे कार्रवाई नहीं कर सके।

इसके पश्चात तीनों ने एक पुलिस थाना पर हमला करने का निश्चय किया। हमले के दौरान थाने के बाहर खड़े एक यूरोपीयन दंपति पर दुर्गा भाभी और पृथ्वी सिंह ने गोलियाँ चलाईं, जिससे वे मारे गए। साथ ही एक ब्रिटिश अधिकारी सार्जेंट टेलर भी घायल हुआ। इस साहसी कार्रवाई के बाद तीनों क्रांतिकारी सुरक्षित रूप से घटनास्थल से निकल गए।

घटना के समय उनके कार चालक बापट थे, जिन्होंने बाद में इस घटना की जानकारी दी। हालांकि न्यायालय ने उनके बयान को अमान्य करार दिया।

गांधीजी के समक्ष आत्मसमर्पण और रिहाई

बाबा पृथ्वी सिंह ने वर्ष 1938 में महात्मा गांधी के समक्ष आत्मसमर्पण किया। इसके पश्चात् उन्हें फिर से जेल भेज दिया गया। द्वितीय विश्व युद्ध समाप्त होने के बाद, वर्ष 1939 में सरकार ने सभी राजनीतिक बंदियों को आम माफी दी, जिसके तहत उन्हें भी रिहा कर दिया गया।

स्वतंत्र भारत में योगदान

स्वतंत्रता के पश्चात् बाबा पृथ्वी सिंह को “जिन्दा शहीद” की संज्ञा दी गई। उन्होंने प्रसिद्ध पुस्तक ‘लेनिन के देश में’ लिखी, जो उस काल में व्यापक रूप से चर्चित रही। इसके अतिरिक्त, वे पंजाब सरकार (भीम सेन सचर सरकार) में मंत्री भी रहे। साथ ही वे भारत की पहली संविधान सभा के सदस्य भी चुने गए।

बाबा पृथ्वी सिंह आजादी के बाद भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के मुख्यालय अजय भवन, नई दिल्ली में जीवन पर्यंत निवास करते रहे। वर्ष 1977 में भारत सरकार ने उनके अपूर्व योगदान को सम्मानित करते हुए उन्हें पद्म भूषण से अलंकृत किया।

दिवंगति और अमर स्मृति

5 मार्च 1989 को 96 वर्ष की दीर्घायु में इस महान क्रांतिकारी का निधन हो गया। उन्होंने अपना संपूर्ण जीवन मातृभूमि की स्वतंत्रता और सेवा में समर्पित कर दिया। शत-शत नमन है इस अद्वितीय क्रांतिवीर को, जिनकी गाथा भारतीय इतिहास के स्वर्णिम पृष्ठों में सदैव अंकित रहेगी।

      

आपका जन्म 15 सितम्बर 1892 में गांव लबरु रायपुररानी,   पटियाला, पंजाब में हुआ था।

आप गदर पार्टी के संस्थापक सदस्य थे।
लाहौर षड्यंत्र(प्रथम) के नाम से चलाये गए  मुकदमा में आपको  फांसी की सजा दी गई थी लेकिन अपील में इसे उम्र कैद काला पानी की सजा में बदल कर आपको अंडमान सेल्युलर  जेल में भेज दिया गया।

अंडमान जेल से आपको नागपुर केंद्रीय जेल में भेजा जा रहा था।इस यात्रा में आप दिनाँक 29 नवंबर 1922 को चलती ट्रेन से फरार हो गए व 16 वर्ष तक फरार रहे।
  आप का संपर्क चंद्र शेखर आज़ाद व हिदुस्तान रिपब्लिकन सोसलिस्ट एसोसिएशन था।

सुखदेव ,भगत सिंह ,राजगुरु को फांसी दिए जाने के पश्चात आप दुर्गा भाभी व सुखदेव राज के साथ बंगाल के गवर्नर  मैल्काल्म हैली का वध करने की योजना बना कर कलकत्ता गए ।

दिनांक 8 अक्टूबर 1930 को
आप ,दुर्गाभाभी व  सुखदेवराज एक कार में लेमिंगटन रोडकलकत्ता में बंगाल गवर्नर के घर तक पहुंच गए पर वहां पर भीड़ ज्यादा होने के कारण एक्शन नहीं लिया जा सका।

इसलिए आप लोगों ने पुलिस थाना पर आक्रमण करने की योजना बनाई।

थाने के आगे यूरोपीयन जोड़ा खड़ा था जो दुर्गा भाभी व आपके द्वारा की गई फायरिंग से मारा गया और एक अधिकारी का सार्जेंट टेलर घायल हुआ।

आप सब इस एक्शन के बाद फरार हो गए।
एक्शन के समय आपकी कार के चालक रहे , बापट ने अपने बयानों यह इस घटना के बारे में बताया।
पर इसे न्यायालय द्वारा स्वीकार नहीं किया गया ।

सन 1938 में आपने महात्मा गांधी के समक्ष आत्मसमर्पण किया तो आपको  गिरफ्तार कर जेल में भेज दिया गया।
  
द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद 1939 में सरकार द्वारा राजनीतिक कैदियों  सार्वजनिक माफी देकर छोड़ा गया तब आपको भी रिहाई मिली।

आपको  ‘जिन्दा शहीद’  के नाम से भी जाना जाता है।

आपके द्वारा लिखित पुस्तक ‘लेनिन के देश में’ बहु चर्चित रही।
स्वतंत्रता के पश्चात वे पंजाब के भीम सेन सचर सरकार में मन्त्री रहे।
भारत की पहली संविधान सभा के भी सदस्य रहे।
सन 1977 में भारत सरकार ने आपको पद्मभूषण से अलंकृत किया।

दिनाँक 5 मार्च 1989 को 96 वर्ष की आयु में आपका स्वर्गवास हुआ।आजादी के बाद भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के मुख्यालय अजय भवन में जीवन पर्यन्त रहे।

नमन