प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम (1857) के महान योद्धाओं में बिहार के बुढ़े शेर बाबू कुँवर सिंह का शौर्य हमारे लिये प्रेरणादायी है। बिहार केसरी बाबू कुँवर सिंह का जन्म जगदीशपुर, जिला शाहाबाद, बिहार में सन् 1782 में हुआ। बाबू कुँवर सिंह पंवार राजपूत थे। ठाकुर कुँवर सिंह ने संस्कृत, फारसी में शिक्षा पाई थी और युद्ध-विद्या का भी पूरी तौर से अभ्यास किया था।
ठाकुर कुँवर सिंह अपने को महाराज विक्रमादित्य और राजा भोज के वंशज मानते थे। अलाउद्दीन ने जिस समय मालवा पर आक्रमण किया उस समय वहाँ के राजा शांतुन शाह अपने तीन पुत्रों सहित बिहार के भोजपुर में आ गये और इसे अपनी राजधानी बनाकर राज्य करने लगे। ठाकुर कुँवर सिंह के पिता साहबजादा सिंह जगदीशपुर में रहते थे और यहाँ से अपने इलाकों का प्रबन्ध करते थे। अब वे एक बड़े जमींदार थे।
जिस प्रकार गदर में पूर्वी उत्तर प्रदेश में मौलवी अहमदशाह, दक्षिण पश्चिम में महारानी लक्ष्मीबाई, मध्य भारत में तात्यां टोपे और महाराष्ट्र में नाना फड़नवीस ने अंग्रेजों की नाक में दम कर दिया था उसी भाँति बिहार के शाहाबाद जिले में ठाकुर कुँवर सिंह ने फिरंगियों को मात दी।
सिपाही विद्रोह के लिए 31 मई निश्चित थी किन्तु मेरठ में 10 मई को ही सूत्रपात हो गया। आगरा में जो अंग्रेजों की सैनिक छावनी थी उसमें भी विद्रोह हो गया। ऐसे समय ठाकुर कुँवर सिंह जैसे देशभक्त का चुप रहना कैसे सम्भव था। वह विद्रोह में शामिल हो गये। 27 मई 1857 को ‘आरा’ पर कब्जा कर लिया। 29 मई को कप्तान डनवर ने एक बड़ी सेना लाकर आरा को अंग्रेजी अधिकार में करना चाहा किन्तु वीर कुँवरसिंह ने कप्तान डनवर का वध कर दिया। तुरन्त दूसरा अंग्रेज अफसर एक बड़े तोपखाने के साथ आरा पर चढ़ आया। मेजर इर्रे के पाँव भी उखड़ने वाले ही थे कि एक और अंग्रेजों की फौज आ गई। अपने को फँसा हुआ देखकर ठाकुर कुँवरसिंह जगदीशपुर की ओर लौट आये।
मेजर इर्रे और दूसरे अंग्रेजों की विशाल सेनाओं ने जगदीशपुर की ओर कूच किया। बीबी गंज और दुलउर में ऐसी दो भीषण लड़ाईयाँ शुरू हुई कि अंग्रेज घबरा उठे। उनके हजारों आदमी जिनमें सैंकड़ों अंग्रेज भी थे देखते रहे।
अब ठाकुर कुँवर सिंह के पास इतने सैनिक नहीे रह गये कि वे सीधा मुकाबला कर सकें। अतः उन्होनें छापामार युद्ध की नीति अपनाई।
एक समय जबकि अंग्रेजों की बहुत सी सेनाएं लखनऊ की ओर मौलवी अहमदशाह को दबाने के लिए जा रही थी आपने आजमगढ़ पर कब्जा कर लिया और सरकारी खजाने के रूपये से हजारों आदमियों को अपनी सेना में भर्ती कर लिया। मिलमैन को जब यह समाचार मिला तो वह एक तोपखाना लेकर आजमगढ़ की ओर बढ़े किन्तु ठाकुर कुँवर सिंह ने आजमगढ़ से 25 मील दूर अतरौलिया में उनके तोपखाने पर हमला कर दिया और मिलमैन को पीछे हटना पड़ा।
मिलमैन की हार का समाचार पाकर कर्नल हाॅम्स अपना रिसाला लकर आजमगढ़ पहुँच गये। किन्तु उन्हें भी हार खानी पड़ी। इन विजयों से उत्साहित होकर ठाकुर कुँवर सिंह ने बनारस की ओर कूच किया। इस समाचार को सुन कर लार्ड कैनिंग ने जो उन दिनों इलाहाबाद आये हुए थे। लार्ड मार्कर को बड़ी सेना देकर मुकाबले के लिए भेजा। कुँवर सिंह जब एक नौका में बैठ कर गंगा को पार कर रहे थे एक अंग्रेज की गोली उनकी बाँह में लगी। आपने तलवार से बाँह काट कर गंगा में यह कहते हुए डाल दिया तू शत्रु की गोली खा चुकी है और एक हाथ से युद्ध करना शुरू किया।
अस्सी वर्ष के इस क्षत्रिय वीर ने मरते दम तक अंगेजों का सामना किया। यद्यपि अंग्रेज सभी जगह विद्रोह को दबा चुके थे तो भी 23 अप्रैल सन् 1858 को आपने शाहाबाद पर कब्जा कर लिया। वहाँ अंग्रेज लोगों ने आपका अपूर्व स्वागत किया। उनका पूरा राज्य अब स्वतन्त्र था। किन्तु वृद्धावस्था और शरीर के जख्मों की पीड़ा ने 23 अप्रैल 1858 को उन्हें इस संसार से उठा लिया।
बाबू कुँवरसिंह की भाँति ही उनके छोटे भाई अमरसिंह भी बड़े बहादुर थे। कुँवरसिंह की घायलावस्था में अमरसिंह ने सेना का नेतृत्व किया था।