:- रामप्रसाद बिस्मिल -:

      :- क्रांति के देवता -:
  :-पंडित रामप्रसाद बिस्मिल -:

पंडित रामप्रसाद बिस्मिल का जन्म ज्येष्ठ शुक्ल 11 स. 1954 ( 12 जून 1897)
शाहजहांपुर ,उत्तर प्रदेश में हुआ।

बिस्मिल उनका कवि नाम था। वो भारतीय सशस्त्र क्रांतिं के देवता थे।
आजादी की लड़ाई में बिस्मिल व अश्फाक की जोड़ी प्रेरणा रही है।
 

बिस्मिल बचपन मे शरारती प्रवर्ति के बालक थे और पढ़ाई से कतराते थे।

एक बार आपके द्वारा “उ” शब्द नहीं लिखा जा सका तो पिताश्री ने आपको थप्पड़- घूंसे ही नहीं लोहे के गज के पीटा।

भला हो उन पुजारी जी का जिनके सानिध्य से सुधरकर बिस्मिल सात्विक बन गए।
आप स्वामी दयानंद जी के ब्रह्मचर्य पालन से अत्यधिक प्रभावित हुए और तख्त या जमीन पर सोना तथा रात्रिभोज नहीं करना शुरू कर दिया ।

बिस्मिल के पिताजी कट्टर सनातनी थे और बिस्मिल बन गए आर्यसमाजी । धर्म के नाम पर एक दिन तो पिताजी ने बिस्मिल को रात को ही घर से बाहर कर दिया।

देवयोग से आपको स्वामी सोमदेव जी जैसे गुरु मिले जिनकी लाला हरदयाल जैसे क्रांतिकारी पुरूष से भी  निकटता थी ।
सन 1916 में प्रथम लाहौर एक्शन के समय क्रांतिकारी भाईपरमानन्द जी की पुस्तक तवारीख़-ए -हिन्द से प्रभावित हुए।

लाहौर प्रथम एक्शन में भाई परमानंद को फांसी की सजा का समाचार पढ़कर आपने  इस फांसी का बदला लेने की प्रतिज्ञा की और यहीं से आपके क्रांतिकारी जीवन का सूत्रपात हुआ।
इसी वर्ष लखनऊ में अखिल भारतीय कांग्रेसका अधिवेशन था।

अधिवेशन में आधुनिक स्वतंत्रता संग्राम के जनक लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के पधारने का कार्यक्रम भी था।
नरम दल के लोग तिलक जी के स्वागत में कम ध्यान दे रहे थे । 
कांग्रेस की स्वागतकारिणी समिति का प्रोग्राम था कि ट्रेन से तिलक जी को मोटरकार के द्वारा बिना जुलूस के ले जाया जावे।
बिस्मिल व अन्य युवा भी तिलक जी को सुनने को आतुर थे और उनके स्वागत हेतु स्टेशन पर आए हुए थे ।

जैसे ही गाड़ी आई स्वागत कारिणी समिति ने आगे होकर तिलक जी को घेरकर मोटरगाड़ी में बिठा लिया ।

बिस्मिल भावुक होकर मोटर कार के आगे लेट गए और कहे जा रहे थे

मोटर मेरे ऊपर से निकाल ले जाओ,
मोटर मेरे ऊपर से निकाल ले जाओ

एक अन्य युवक ने जोश में आकर मोटर कार का डायर काट दिया। लोकमान्य जी समझा रहे थे, लेकिन युवा जोश के आगे कोई असर नहीं दिया।
युवाओं ने एक किराए की घोड़ागाड़ी  ली व तिलक जी को बच्चे की तरह सिर से कंधों पर बैठा कर  गाड़ी में  बैठा दिया
और घोड़ागाड़ी से  घोड़े को खोलकर बिस्मिल  खुद ही गाड़ी को खींचने में लग गए ।
युवाओं ने अपने कंधों से घोड़ागाड़ी खींचते हुए तिलक जी को एक जुलूस के रूप में धूमधाम से लेकर गए ।

तिलक जी के स्वागत में युवाओं द्वार आयोजित इस को जुलूस देखने योग्य जन समुदाय जुड़ा ।
इस कार्यक्रम का एक लाभ यह हुआ कि बिस्मिल का जोश देख कर कुछ क्रांतिकारीयों व गरम दल के नेताओं से बिस्मिल का संपर्क हुआ ।

बिस्मिल और उनके क्रांतिकारी दल का नाम हिदुस्तान, रिपब्लिकन एसोसिएशन था । जिसके नाम में कालांतर में भगतसिंह ने “सोशलिस्ट” शब्द और जोड़ा था।
            

बिस्मिल ने दल के लिए हथियार खरीदने हेतु  अपनी माताजी से ₹200 लेकर एक पुस्तक ” अमेरिका को स्वाधीनता कैसे मिली’ लिखकर छपवाई पर  इसमें मात्र ₹200 की बचत हुई ।
        उसी समय संयुक्त प्रांत के सुप्रसिद्ध क्रांतिकारी गेंदालाल जी दीक्षित को ग्वालियर में गिरफ्तार कर लिया ।
बिस्मिल ने “देशवासियों के नाम संदेश” शीर्षक से कई जिलों में पर्चे लगाए व वितरित किये।

क्रांतिकारियों के पास हथियारों की खरीद हेतु रुपयों की हमेशा ही कमी रही और देश में जहां कहीं भी क्रांतिकारी आंदोलन चल रहे थे सभी ने हथियारों के लिए जनता को लूटनेवाले जमींदारों,सेठ साहूकारों के यहां डाके डाल कर रुपयों का इंतजाम किया।

इन डकेतियों से जन भावना क्रांतिकारियों के खिलाफ होती थी तथा धन भी कम मिलता था ।

इसलिए दल ने रेलवे का सरकारी खजाना लूटने का कार्यक्रम बनाकर ।
9 अगस्त 1925 को काकोरी एक्शन लिया व काकोरी के पास ट्रेन से सरकारी खजाना लूटा।
इस घटना से फ़िरंगियों की सरकार हिल गयी ।
काकोरी एक्शन के बारे में विस्तार से  अलग लेख लिखा गया है। जिस आप पढ़ सकते हैं।

एक बार बिस्मिल के अन्य साथी गंगा सिंह , राजाराम व देवनारायण ने कोलकाता में वायसराय की हत्या करने का कार्यक्रम बनाया ।

बिस्मिल इस कार्यक्रम से सहमत नहीं थे ।
इन तीनों ने तो  बिस्मिल को ही ठिकाने लगाने का आयोजन कर दिया व इलाहाबाद के त्रिवेणी तट पर संध्या कर रहे बिस्मिल पर तीन गोलियां चलाई दो गोली निशाने पर नहीं लगी तीसरा कारतूस चला ही नहीं।
आजादी के खतरनाक मिशन में अपनी बहन को साथ लेना बलिदान की पराकाष्ठा है।
बिस्मिल अपनी बहन शास्त्री देवी की जांघो पर बंदूके बांधकर हथियार छिपाकर लाते थे ।
शास्त्री देवी ने कई बार इस प्रकार  शाहजहांपुर हथियार पहुंचाए।

किस लिए !
देश की आजादी के लिए !!

धिक्कार है हमें,

आजादी के बाद बिस्मिल  का मात्र 35 गज का दो छोटे छोटे कमरों का एक मकान मोहल्ला खिरनी बाग शाहजहां को इसी शास्त्री देवी  ने गरीबी से तंग आकर बेचा।
यह मकान जिसमें बिस्मिल व शास्त्री देवी ने अपना बचपन गुजारा  एक राष्ट्रीय धरोहर बननी चाहिए थी ।

पर अफसोस ऐसा नहीं हो हुआ।

बिस्मिल ने अपने बचपन के सहपाठी सुशीलचंद्र सेन के  देहांत पर उनकी स्मृति में ‘ निहिलिस्ट रहस्य‘ का अनुवाद करना शुरू किया और सुशील वाला के नाम से ग्रंथ वाला में “बोल्शेविकों की करतूत” व ” मन की लहर”  छपवाई ।

मैनपुरी में गेंदालाल जी दीक्षित के नेतृत्व में कुछ हथियार खरीद कर इकट्ठे किए गए थे। इस बात का पुलिस को पता चल गया पुलिस की धड़त पकड़ शुरू हो गई।
एक साथी सोमदेव पुलिस मुखबिर बन गया सारे राज खुलने से गेंदालाल जी गिरफ्तार कर लिए गए व राम प्रसाद बिस्मिल फरार हो गए ।

प्रथम महायुद्ध के बाद सरकार ने  20 फरवरी 1920 राजनीतिक कैदियों की माफ़ी की ।

इस घोषणा के होने  से बिस्मिल का अज्ञातवास समाप्त हुआ।
बिस्मिल शाहजहांपुर वापस आए तो लोग उनसे मिलने से कतराने लगे दूर से ही नमस्ते करके चल देते थे लोगों को यह डर लगता था कि क्रांतिकारी के संपर्क से उनकी जान किसी खतरे में न पड़ जाए।
इसीलिए बिस्मिल ने कहा होगा-

‘ इम्तहां  सबका कर लिया हमने,
सारे आलम को आजमा देखा ।
  नजर आया न कोई अपना अजीज,
आंख जिसकी तरफ उठा देखा।। कोई अपना ना निकला महरमे राज,
जिसको देखा तो बेवफा देखा । अलगरज  सबको इस जमाने में अपने मतलब का आशना देखा।।”‘

काकोरी एक्शन के बाद बिस्मिल गोरखपुर जेल में रहे व इसी जेल में दिनाँक 19 दिशम्बर 1927 को बिस्मिल को फाँसी दी गयी थी। फांसी से पूर्व बिस्मिल से दुखी हृदय से लिखा-

मालिक तेरी रजा रहे और तू ही तू रहे
बाकी ने मैं रहूं , न मेरी आरजू रहे।।
जब तक कि तन में जान ,
रगों में लहू रहे।
तेरा ही जिक्र या तेरी ही जुस्तजू रहे।।

उनकी अंतिम गर्जन थी

I wish the downfall of British Empire

फांसी से एक दिन पूर्व बिस्मिल की माताजी बिस्मिल से मिलने जेल में गई  । माँ को देख कर बिस्मिल मां के पैर छूकर गले से लिपटा तो बिस्मिल की आँखों मे आंशू आ गए ।
माँ ने कहा मैं तो समझती थी मेरा बेटा बहादुर है ,जिसके नाम से अंग्रेज सरकार भी कांपती है ।
बिस्मिल ने  बड़ी श्रद्धा से कहा  ये आंशू मौत के डर से नहीं है मां ये तो माँ के प्रति मोह के है।
मैं मौत से मैं नहीं डरता मां तुम विश्वास करो ।
तभी माँ ने शिवराम वर्मा का हाथ पकड़कर आगे कर दिया और बिस्मिल से कहा यह तुम्हारे आदमी है पार्टी के बारे में जो भी चाहो , इनसे कह सकते हो।
धन्य जननी , जो एकमात्र बेटे की फांसी से एक दिन पहले क्रांतिकारी दल का सहयोग कर रही है।
ऐसी कोख़ से ही ऐसा वीर जन्म लेता है।।

फाँसी वाले दिन भी बिस्मिल हमेशा की तरह सो कर उठे, स्नान किया, वंदना की और धोती कुर्ता पहनकर जेल के सभी अधिकारियों, कर्मचारियों एवं अन्य बंदियों से हंस-हंसकर बातें करते हुए चल पड़े ।
भारत माता की जय
वंदे मातरम के नारे लगाते हुए फांसी के तख्ते के  समीप पहुंचकर स्वयं ही फांसी के तख्ते पर चढ गए और कहा

मरते’ बिस्मिल, ‘ ‘लाहरी, ‘अश्फाक’ अत्याचार से ।
होंगे पैदा सैकड़ों इनके रुधिर की धार से।।
और अंतिम बार धरती माता को प्रणाम किया धूली को माथे पर चंदन की तरह लगाया और वंदेमातरम कहते हैं फंदे से झूल गए।
शत शत नमन क्रांतिवीर को।

शहादत के बाद का बिस्मिल चित्र

:- क्रांति -:

समय का धर्म गति गति है। हमारे शरीर की तरह हमारा समाज है। कई बार हम तरह तरह की वस्तुएं खा लेते हैं तो हमारे पेट में बदहजमी हो जाती व अफारा आजाता है जिसे निकालने के लिए जुलाब लेना पड़ता है।

ठीक इसी तरह से समाज का पेट बुराइयों से भर जाता है और हमारी पाचन शक्ति की तरह हमारी सामाजिक और न्यायव्यवस्था निष्फल हो जाती है तो समाज में जुलाब के रूप में क्रांति होती है ।

हमारे समाज की सहनशीलता या दूसरे शब्दों में कायरता अधिक है। मुट्ठीभर फ़िरंगियों ने 40 करोड़ लोगों को 200 वर्षो तक दबाए रखा ।

आज के परिपेक्ष्य में देखिए । करोड़ों लोगों को भरपेट खाना नहीं मिलता पशुओं से भी बुरी स्तिथि में दिन काट रहे हैं।यह सहनशीलता है यही दब्बू प्रवर्ति है।

आज़ादी दो क़दम दूर थी

आज़ादी दो कदम दूर थी
        21फरवरी 1915

भारतीय क्रांतिवीरों द्वारा समस्त भारत मे एक ही दिन आज़ादी की लड़ाई लड़ना तय कर योजना बनाई पर हमारे ही ग़द्दारों के द्वारा इसकी सूचना अंग्रेजों को देदी जिसके कारण क्रांतिकारी यह लड़ाई बिना लड़े ही हार गए।
       भारतीय क्रांतिकारी गंभीर अध्ययन के बाद इस निष्कर्ष पर पहुंचे की देश को अंग्रेजों से आजाद कराने के लिए उनके पास आदमियों व हथियारों  की कमी है तथा हथियार खरीदने के लिए धन भी नहीं है।
क्रांतिकारीयों ने इन कमियों को दूर करने के लिए यह योजना बनाई कि ब्रिटेन के दुश्मन देशों से सहयोग लिया जावे , अंग्रेजी सेना में जो भारतीय सैनिक है उन्हें भी आज़ादी के लिए अंग्रेजों के विरुद्ध  युद्ध के लिए तैयार किया जावे व धन उपार्जन हेतु अमीर लोगों व सरकारी खजानों को लूटा जाय।
समस्त तैयारी के बाद देश के समस्त  क्रांतिकारियों को एक निश्चित तिथि व समय पर अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ाई का आह्वान किया जावे।
युद्ध की तैयारी के क्रम में देश मे बम्ब बनाने का कारखाना लगाने के उद्देश्य से हेमचंद्र कानूनगो व  पांडुरंग एम बापथ को बम्ब बनाने की प्रक्रिया सीखने हेतु विदेश भेजा गया उन्होंने रूसी क्रांतिकारी निकोलस सर फ्रांसकी से बम बनाना सिख कर आये व भारत मे बम्ब बनाने का कारखाना लगाया। पिंगले 10 ऐसे शक्तिशाली बम्ब लेकर मेरठ  छावनी पहुंच गए थे। जिनके पकड़े जाने के बाद अंग्रेजी सरकार की रिपोर्ट थी कि इन मेसे एक बम्ब से सारी छावनी को तबाह किया जा सकता था ।
बाघा जतिन ने वीरेंद्र नाथ चट्टोपाध्याय @ चट्टो को सैनफ्रांसिस्को भेजा । चट्टोपाध्याय ने ग़दर पार्टी के सदस्यों की भारत को  हथियार भेजने हेतु जर्मन राजदूत थियोडर हेलफरीश से  सौदा किया ।
भारतीय क्रांतिकारियों के दिमाक में  यह बात स्पष्ट थी कि कहीं अंग्रेजों से पीछा छुड़ाकर  जर्मनी और जापान वालों के अधीन न हो जाए । इसलिए जर्मनी से  हथियारों की सहायता हेतु जो करार किया गया उसमें स्पष्ट लिखा गया कि हथियारों की कीमत आजादी के बाद जर्मनी को दी जाएगी ।आजादी के बाद जर्मनी का भारत पर किसी तरह का कोई दावा नहीं होगा ।जर्मन फ़ौज भारत मे प्रवेश नहीं करेगी।
संगठन व छावनियों में भारतीय सैनिकों से  सम्पर्क के क्रम में  फिरोजपुर में  संगठन भार रासबिहारी बोस और करतार सिंह सराभा को सौंपा गया ।
जबलपुर, अजमेर ,बरेली, बनारस, दानापुर, गुवाहाटी, मेरठ व  रावलपिंडी की सैनिक छावनियों में सम्पर्क का भार  नलिनी मोहन मुखोपाध्याय, प्रताप सिंह बारठ,  दामोदर स्वरूप, शचींद्रसान्याल , नरेंद्र नाथ, विष्णु गणेश पिंगले,  तथा निधान सिंह को सौंपा गया।
हिरदेराम को जालंधर छावनी, प्यारा सिंह को कपूरथला छावनी तथा डॉक्टर मथुरा सिंह को पेशावर की छावनी में भेजा गया।
सभी छावनियों में भारतीय सैनिकों ने अंग्रेजों को मार भगाने हेतु साथ देने का विश्वास दिलाया।

इस क्रांति को और बल मिला जब  कनाडा सरकार ने भारतीय लोगों को कनाडा से बाहर निकालने के लिए मजबूर कर रही थी और कामागाटामारू जहाज के कलकत्ता पहुंचने पर जहाज में सवार प्रवासी भारतीयों को बजबज में रेलगाड़ी द्वरा बलपूर्वक पंजाब लाये जाने की कोशिश की गई जिसमें  कुछ सिखों को मार दिया व कुछ को गिरफ्तार किया गया।
इस घटना का समाचार देश विदेश में पहुंच गया । विदेशों में ग़दर पार्टी आजादी के लिए सक्रिय थी।
विदेशों में खबर फेल गई कि अंग्रेजों को भारत से भगाने के लिए जंग होनेवाला है ।
इस प्रतिक्रिया में प्रवासी भारतीयों ने भी भारत आकर अंग्रेजों को भारत से मार भगाने की तैयारियों के भारत का रुख किया ।
अलग अलग जहाजों से  प्रवासी भारतीय जिनमे अधिकतम सिख व गदर पार्टी के सदस्य थे, अपने हाथों में  हथियार लिए गदर की गूंज मचाते हुए कोरिया टोषामारू, माशियामारू, कवाचिमारू सलमिस नामक व अन्य जहाजों से भारत पहुंचे। जिनकी कुल संख्या लगभग 8000 थी।
रासबिहारी बोस ने क्रांतिकारी चिंताकरण पिल्ले को एक जापानी पनडुब्बी से अंडमान भेजा ताकि वह वीर सावरकर अन्य क्रांतिकारियों को जेल से मुक्त कराकर भारत ले आये ।  पिल्ले बंगाल की खाड़ी जाने में सफल नहीं हो सके और उनकी पनडु्बी नष्ट कर दी गई । क्योंकि इसकी सूचना अंग्रेजों को पहले से हो चुकी थी ।

अमरीका से तोशामारू जहाज से सोहन सिंह जी , निधान सिंह जी, अरुण सिंह जी, केसर सिंह जी पंडित जगत राम हरियाणवी आदि भारत आए 29 अक्टूबर को यह जहाज कोलकाता पहुंचा परंतु पुलिस को पूर्व में खबर हो चुकी थी।जहाज भारत पहुंचते ही 173 सिखों को गिरफ्तार कर लिया गया । जिनमें से 73  तो जेल से भाग निकले ।
देश के गद्दार हमेशा ही देश का दुर्भाग्य बने है । इस बार भी यही हुआ एक पुलिस अधिकारी ने कृपाल सिंह नामक एक व्यक्ति को क्रांतिकारी दल में शामिल करवा दिया जो सारी खबरें अंग्रेजों को देने लगा।
भारतीय क्रांतिकारियों ने इस महान युद्ध के लिए 21 फरवरी 1915 की तिथि निश्चित करते हुए सब जगह सूचना  दे दी । गद्दार कृपाल सिंह ने इस कि सूचना अंग्रेजों को दे दी ।
इसपर जंग की तिथी दो दिन पहले यानी 19 फ़रवरी तय की गई । करतार सिंह जी को ज्ञान नहीं था कि कृपालसिंह गद्दार है उन्होंने परिवर्तित तिथि भी कृपाल सिंह को बता दी ।
यह खबर भी अंग्रेजों तक पहुंच गई फिर क्या होना था ?
अंग्रेजों ने छावनियों में भारतीय सैनिकों से हथियार ले लिए व क्रान्तिकारीयों की धर पकड़ शुरू हो गई ।
  क्रांतिकारियों ने  बंगाल व महाराष्ट्र के क्रांतिकारी प्रथा के अनुसार कृपालसिंह गोली मार देते तो ठीक रहता  ।
हालांकि बाद में 1931 में गदरी बाबा हरनाम सिंह ने रामशरण दास व अमर सिंह के साथ कृपाल सिंह का वध करना चाहा परंतु वह बच गया । अंततोगत्वा ग़द्दार को सजा तो मिलनी ही थी ।कुछ दिनों बाद इस गद्दार को जांबाजों ने उसके घर पर ही मार दिया । मरनेवालों का पता ही नहीं चला
उधर जर्मन काउंसलर की मार्फत हत्यारों का जहाज “मेवरिक “की भी सूचना किसी ग़द्दार ने अंग्रेजों को दे दी।
संभवतः हथियार एक अन्य जहाज Amber Larsen द्वारा लाये जाने थे व रास्ते में कहीं इस जहाज से हथियार मेवरिक में रखे जाने थे। और मेवरिक को भारत आना था।Amber Larsen जहाज वाशिंगटन में पकड़ लिया गया था।
इसी कारण यह मेवरिक को हथियार नहीं दे सका तभी मेवरिक कि बटेविया (जावा) में तलाशी ली गई तो इसमें हथियार नहीं थे।
हेनरी नामक जहाज भी मनीला में पकड़ लिया गया व हथियार उतरवा लिए गए।
एक पुस्तक में लिखेनुसार गदर पार्टी के रामचंद्र व जर्मन राजदूत ने केलिफोर्निया के सेनपेड्रो बंदरगाह से मेवरिक में हथियार भेजे थे जिसमें  25  लोग ईरानी वेशभूषा में थे ।
एक किताब में यह भी लिखा है कि रामचंद्र को  गदरी बाबा ने पार्टी हितों के खिलाफ काम करने के कारण अदालत में ही मार दिया था
    मेवरिक में हथियार M N रॉय @ नरेंद्र नाथ  भट्टाचार्य छदम नाम C Martin द्वारा लाये जाने थे जो जर्मन सहायत के पक्ष में नहीं था । फिर जब  मेवरिक की तलाशी  हुई तो उसमें हथियार नहीं थे । नरेन्द्र भी नहीं था। । यह भी कहा जाता है वो रूस भाग गए ।
कुछ भी हो भी शोध का विषय है कि मेवरिक की खबर अंग्रेजों तक कैसे पहुंची व हथियार मेवरिक में रखे गए या नहीं ????
एक ओर जहाज द्वारा श्याम (थाईलैंड)के राजदूत ने 5000 बंदूके व एक लाख रुपये नगद भेजे यह जहाज रायमंगल पहुँचना था ।  इसकी सूचना भी अंग्रेजों को दे दी गयी व  यह जहाज भी पकड़ा गया।
इसी बीच जर्मनी से हथियारों के दो और जहाज भेजे गए परंतु सूचना होने के कारण फिलीपाइन के पास पकड़ लिये गए।
बाघा जतिन हथियारों के इंतजार में थे जिसकी मुखवीरों ने सूचना दे दी । मुठभेड़ में बाघा शहीद हो गए व युगान्तर के सभी गुप्त ठिकानों पर छापे मारे गए ।
योजन के अनुसार विष्णु पिंगले 10 शक्तिशाली बम लेकर मेरठ छावनी पहुंच गए परंतु वहां भी नादिर खान नामक सहयोगी ने 23 मार्च 1915 को पिंगले को पकड़ा दिया।
करतार सिंह जी सराबा  योजना अनुसार करीब 80 क्रांतिकारियों को लेकर निर्धारित स्थान  मेरठ छावनी में पहुंच मजबूरन उन्हे भी वापस लौटना पड़ा ।
इस बीच शचींद्र बक्शी स्वंम मछुआरे के भेष में छोटी जहाज से 3 किलोमीटर समुन्द्र में गए व एक छोटे पार्सल लाने में सफ़ल रहे । इसमें इ 50 जर्मन माउजर थे।  अल्फ्रेड पार्क में मुठभेड़ के समय चंद्रशेखर आजाद के पास इन मे से ही प्राप्त एक था ।
यह सुनहरा मौका था देश को आज़ाद करवाने का जो ग़द्दारों के कारण चूक गए।
परिस्थितियों को समझिए ब्रिटेन प्रथम महायुद्ध में उलझा था। भारत से करीब 150000 सैनिक देश से बाहर लड़ने भेजे गए थे ।
भारत मे उस समय मात्र 15000 सैनिक थे और भारतीय छावनियों में सैनिकों ने क्रांति में साथ देने का विश्वास भी दिलाया हुआ था।
  ब्रिटिश सेना में पंजाब के गवर्नर ओ डायर ने स्वयं लिखा है””

प्रथम महायुद्ध के दौरान ब्रिटिश सरकार बहुत कमजोर हो चुकी थी हिंदुस्तान में केवल 13000 गोरी पोस्ट थी जिसकी नुमाइश बारी बारी से सारे हिंदुस्तान में करके ब्रिटिश शान को कायम रख़ने की चेष्टा की जा रही थी । ये गोरे भी बूढ़े थे। नौजवानों  तो यूरोप के क्षेत्रों में लड़ रहे थे। ऐसी स्थिति में गदर पार्टी की आवाज मुल्क तक पहुंच जाती तो निश्चय है कि हिंदुस्तान अंग्रेजों के हाथ से निकल जाता ।”””

रोना आता है हमारे राजनेताओं पर ठीक उस समय जब एक तरफ क्रांतिकारीयों ने युद्ध इस स्तर पर आज़ादी के लिए जंग की तैयारी कर रही थी ।
उस समय कांग्रेस व मुस्लिम लीग  क्या कर रही थी ।,
इसका भी उल्लेख करना है महात्मा जी बिना न्यौते के ब्रिटिश सरकार की प्रथम महायुद्ध में सहायता करने पहुंचे व सहायता की जिसके लिए 1915 में हार्डिंग ने गाँधीजी को हिन्द -ए -केसरी का खिताब दिया।यह वही हार्डिंग जो चांदनी चौक में क्रांतिकारीयों द्वारा फेंके गए बम्ब से बच गया था।प्रथम महायुद्ध में 74187 भारतीय सैनिक मारे गए थे तथा 67000 भारतीय सैनिक घायल हुए थे ।
यह कैसी अहिंसा थी?
ब्रिटिश साम्राज्यवाद को बचाने के लिए 74187 भरतीयों के प्राण लिए जा सकते है पर देश की आजदी के लिए नहीं ।
अगर बापू उस समय भारतीय सैनिकों को अंग्रेजों को देश से भगाने का आह्वान कर देते तो आजादी दूर नहीं थी ।
   कांग्रेस के 1914 में मद्रास में हुए अधिवेशन में गवर्नर ने भाग लिया। इस अधिवेशन में कांग्रेस में ब्रिटिश शासन के प्रति अटूट विश्वास होने का प्रस्ताव पारित हुआ।

मुस्लिम लीग की स्तिथि स्पष्ट हो गई जब  1913 में लखनऊ अधिवेशन में लीग अध्यक्ष मोहम्मद शफी ने अपने भाषण से मुस्लिम लीग का उद्देश्य राज भक्ति तथा मुस्लिम हित रक्षा के साथ उपयुक्त स्वायत शासन हासिल करना बताया
इससे पता चलता है मुठ्ठीभर फ़िरंगियों ने 175 वर्ष 40 करोड़ भारतीयों पर कैसे राज कर गए ।
धिक्कार धिक्कार

:- पुरुष प्रातः स्मरणीय-: -; अशफ़ाक़ उल्ला खाँ-;

    :-शहीद अशफ़ाक़ उल्ला खाँ-:

भारतीय सशस्त्र क्रांति का इतिहास अधूरा रहेगा यदि हम क्रांतिवीर अशफाक उल्ला खान की शहादत और शौर्य का जिक्र नहीं करेंगे।       अशफाक उल्ला  वारसी हसरत शाहजहांपुर के निवासी थे । अशफ़ाक़ जी के परिवार की गिनती वहां के रईसों परिवारों होती थी । 
अशफ़ाक़ को बचपन से ही तैरने , घोड़े की सवारी करने और भाई की बंदूक लेकर शिकार करने में बड़ा आनंद आता था ।
अशफ़ाक़ शारिरिक रूप से स्वस्थ व  सुडोल सुंदर जवान थे । जिनका चेहरा हमेशा ही खिला हुआ और बोली में प्रेम रहता था ।
अशफ़ाक़ अच्छे कवि भी थे और
” हसरत” कवि नाम से लिखते थे काकोरी वीर अदालत में आते जाते अशफाक की लिखी कविताएं गाते थे ।
अशफाक हिंदू मुस्लिम एकता के बड़े कट्टर समर्थक थे ।एक बार शाहजहांपुर  भी हिन्दुमुस्लिम दंगो की चपेट में आ गया। पंडित राम प्रसाद बिस्मिल व अशफ़ाक ने मिलकर लोगों को समझाया।
काकोरी एक्शन में अशफाक ने अपने शक्तिशाली हाथों से सरकारी खजाने वाले मजबूत संदूक को तोड़ा था ।
अशफ़ाक़ क्रांतिकारी दल “हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन ” के सदस्य थे । अशफ़ाक़ पर कुल 5 अभियोग लगाए गए जिनमेसे तीन में फाँसी व 2 में उम्रकैद की सजा दी गयी ।
अदालत में अशफ़ाक़ को रामप्रसाद बिस्मिल का “लेफ्टिनेंट” कहा गया।
  अशफ़ाक़ को फैजाबाद जेल में दिनांक 19 दिसंबर 1927 को फांसी दी गई थी ।
अशफाक उल्ला की जिंदगी के कुछ किस्सों का ‘ हिंदू पंच के बलिदान अंक “जो 1930 में प्रकाशित हुआ था व श्री कृष्ण सरल की पुस्तक क्रांतिकारी कोष से लिये है ।
काकोरी एक्शन वाले दिन आप
” कुंवर जी “बने हुए थे और गाड़ी को रोकने हेतु  ड्रामा किया था कि कुँवर जी का जेवरों का बक्सा जो उनके हाथ में था , जिसमें 20 हजार रुपये के जेवर थे, प्लेटफॉर्म  पर भूल गए व शचीन्द्र बख्शी ने चैन खींच कर गाड़ी रोकी ।
काकोरी एक्शन में अशफ़ाक़ व शचीन्द्र नाथ बख्शी गिरफ्तार नहीं हुए थे । इसलिए  गिरफ्तारी के बाद दोनों पर काकोरी मुकदमा  पूरक रूप में चलाया गया था ।
अशफ़ाक 8 सितम्बर 1926 में दिल्ली में गिरफ्तार किए गए व शचीन्द्र बख़्शी को उन्ही दिनों में गिरफ्तार कर लखनऊ लाया गया अदालत में अशफ़ाक व  शचीन्द्र बक्शी को अलग अलग गाड़ियों से लाया गया और दोनों को मिलने नहीं दिया गया ।अदालत में दोनों अजनबी बन कर रहे ।
अदालत के बाद पुलिस यह गुप्त रूप से देखना चाहती थी कि अशफाक व बक्शी एक दूसरे को पहचानते हैं या नहीं ?
अदालत के बाद दोनों अपरिचित से खड़े थे जेल अधिकारी ने अशफ़ाक को सुनाते हुए बख्शी जी को नाम लेकर पुकारा ।
अशफ़ाक ने बख्शी जी की ओर देख कर कहा
” अच्छा आप ही शचीन्द्र बक्शी हैं ! मैंने आपकी बड़ी तारीफ सुन रखी है। “
बख्शी जी ने जेल अधिकारी से पूछा क्या आप मुझे इनका परिचय देंगे जो मुझसे सवाल कर रहे हैं। जेल के अधिकारी ने बक्शी जी से कहा ये
“प्रसिद्ध क्रांतिकारी अशफाक उल्ला खां है “
बक्शी जी ने जानबूझकर बनते हुए अशफ़ाक को संबोधित करते हुए कहा
“अच्छा आप ही अशफ़ाकउल्लाह खां है मैंने भी आपकी बहुत तारीफ सुन रखी है”।
लोग कोतुहल से देख रहे थे । इसके बाद दोनों अपनी भावनाओं पर लगाम नहीं लगा सके व एक दूसरे की भुजाओं में बंधे हुए एक दूसरे को दबोच कर मिल रहे थे।  इनको मिलते हुए देखकर पुलिस वाले भी अपने आप को ताली बजाने से रोक नहीं सके।
स्पेशल मजिस्ट्रेट सैयद अईनुदीन  ने अशफ़ाक से पूछा
“आपने मुझे कभी देखा है?”
अशफ़ाक ने कहा मैं तो आपको बहुत दिनों से देख रहा हूं। जब से काकोरी का मुकदमा आप की अदालत में चल रहा है। तब से मैं कई बार यहां आकर देख गया हूँ।
मजिस्ट्रेट ने पूछा कि कहां बैठते थे?
तो अशफाक ने बताया कि वे आम दर्शकों के साथ एक राजपूत के भेष में बैठा करते था।
लखनऊ में एक दिन पुलिस अधीक्षक खान बहादुर ने अशफ़ाक को मुसलमान होने की दुहाई देकर कुछ कहा देश आज़ाद भी हो गया तो हिन्दू राज्य होगा। अशफ़ाक ने जबाब दिया” HINDU INDIA IS BETTER THAN BRITISH INDIA”
  फ़रारी के दिनों में अशफ़ाक राजस्थान के क्रांतिकारी श्री अर्जुन लाल सेठी के घर रुके थे उनके घर  अशफ़ाक  को काफ़ी स्नेह मिला । सेठी जी पुत्री अशफ़ाक का इतना ध्यान रखती थी कि अशफ़ाक यह महसूस करने लग गए कि कहीं इनका स्नेह बंधन न बन जाये और अशफ़ाक ने सेठी जी से अनुमति लेकर अन्यत्र चले गए ।
अशफ़ाक की फाँसी की खबर से सेठी जी की पुत्री को इतनाधक्का लगा कि वह बीमार पड़ गयी और बच नहीं सकी ।
फ़रारी के समय अशफ़ाक दिल्ली में शाहजहांपुर के ही एक मुसलमान साथी के घर रुके थे उनका सहपाठी भी था।पर साथी दगा कर गया व  ईनाम के लालच में अशफ़ाक को गिरफ्तार करवाया दिया।
उस साथी के घर के पास एक  इंजीनियर साहब का घर था जहाँ अशफ़ाक का आना जाना था । इंजीनियर साहब की कन्या ने तो अशफ़ाक के समक्ष विवाह का प्रस्ताव भी रख दिया । बड़ी मुश्किल से अशफ़ाक ने पीछा छुड़ाया।
फांसी से पहले दिन अशफ़ाक दूल्हे की तरह सजधजकर तैयार हुए व  बहुत खुश दिखाई देते थे। मिलने आये मित्रों से कह रहे थे मेरी शादी है । अगले दिन सुबह 6:30 बजे अशफाक को फांसी दी गई थी। शहादत के दिन अशफ़ाक हंसी खुशी के साथ कुरान शरीफ का बस्ता कंधे से टांगे हाजियों की तरह लवेक  कहते और कलमा पढ़ते,  फाँसी के तख्ते के पास गए तख्त को चुंबन किया और फाँसी के समय  उपस्थित लोगों से कहा “मेरे हाथ इंसानी खून से कभी नहीं रंगें। मेरे ऊपर जो इल्जाम लगाया गया है ,वह गलत है। खुदा के यहां मेरा इंसाफ होगा “”
अशफाक ने फांसी से पहले दिन अपने भाई साहब को प्रेषित करने हेतु एक तार दिया जो गणेश शंकर विद्यार्थी को उनके पते पर भेजना था। तार भेज दिया गया । तार में अशफ़ाक ने
“” लिखा था 19 दिसंबर को दिन 2:00 बजे लखनऊ स्टेशन पर मुलाकात करें। उम्मीद है ,आप मेरी इल्तिजा कुबूल फरमाएंगे”‘
यह घटना बहुत ही मार्मिक है गणेश शंकर विद्यार्थी को पता चल चुका था कि 19 दिशम्बर को  अशफाक को फांसी दी जानी है।इसलिए वे समाचार पत्र का संपादकीय लेख अशफ़ाक पर ही लिख रहे थे ।  इस बीच वह तार प्राप्त हुआ उन्होंने तार को मेज पर रख दिया और अपने काम में लग गए ।
इत्तफाक से हवा का झोंका आया और तार उड़कर गणेश शंकर विद्यार्थी के हाथ की कलम के आगे आ गया । विद्यार्थी जी ने तार खोल कर पढ़ा तो सब समझ में आ गया और विद्यार्थी जी साथियों सहित   फूलमालाएँ लेकर अशफाक को मिलने  गए ।
  अशफाक ने अपने अंतिम समय में देश वासियों के नाम  एक संदेश छोड़ा था जिस का सारांश इस प्रकार है ।
भारत माता के रंगमंच का अपना पाठ अब हम अदा कर चुके।जो हमने किया वह स्वतंत्रता प्राप्ति की भावना से किया ।हमारे इस काम की कोई प्रशंसा करेंगे और कोई निंदा किंतु हमारे साहस और वीरता की प्रशंसा हमारे दुश्मनों तक को करनी पड़ी है। क्रांतिकारी बड़े वीर योद्धा और बड़े अच्छे वेदांती होते हैं ।
हम तो कन्हैयालाल दत्त खुदीराम बोस गोपीमोहन साहा आदि की स्मृति में फांसी पर चढ़ जाना चाहते थे।
भारत वासियों आप कोई हो चाहे जिस धर्म या संप्रदाय के अनुयाई हो परंतु आप देशहित के कामों में एक  होकर योग दीजिए आप लोग व्यर्थ में लड़ झगड़ रहे हैं । सब धर्म एक है ,रास्ते चाहे भिन्न-भिन्न हो परंतु लक्ष्य है सबका एक ही है । फिर झगड़ा बखेड़ा क्यों ? हम मरने वाले आपको कह रहे हैं आप एक हो जाइए और सब मिलकर नौकरशाही का मुकाबला कीजिए। यह सोचकर की सात करोड़ मुसलमान भारत वासियों में सबसे पहला मुसलमान हूं ।जो भारत की स्वतंत्रता के लिए फांसी पर चढ़ रहा हूं। मन ही मन अभिमान का अनुभव कर रहा हूं ।
आज भी अशफ़ाक के शब्द कानों में गूंज रहे है :-

तंग आकर हम भी उनके ज़ुल्म के बेदाद से,
चल दिये सुए अदम जिन्दाने फैज़ाबाद से।

      शहीद अमर रहे!

–  :    चापेकर एक्शन  -:

–  :    चापेकर एक्शन  -:

दामोदर हरी चापेकर,बालकृष्ण हरि चापेकर वासुदे हरि चापेकर तीनों सगे भाई थे । चापेकर बंधु वासुदेव फड़के से प्रभावित थे। अखाड़े व लाठी क्लब संचालित कर युवाओं को युद्धाभ्यास करवाते थे ।
अंग्रेजों ने फूट-डालो व राज करो कि नीति से बम्बई में दंगे करवाये । सुरक्षाहेतु चापेकर बंधुओं ने ” हिदू धर्म सरंक्षणी सभा” का संगठन किया । इसमें 200 युवा सदस्य थे।
          चापेकर बंधु गणेश पूजा व शिवाजी उत्सव पर लोगों में वीरता का संचार कर फ़िरंगियों के विरुद्ध संघर्ष हेतु प्रेरित करते थे ।
दामोदर चापेकर ने ” शिवाजी की पुकार ” शीर्षक से एक कविता छपवाई  जिसका अर्थ था
” शिवाजी कहते हैं कि मैंने दुष्टों का संहार कर भूमिका भार हल्का किया देश उद्वार कर स्वराज्य स्थापना तथा धर्म रक्षण किया ।”
चापेकर ने ललकारते हुए लिखा अब अवसर देख म्लेच्छ रेलगाड़ियों से स्त्रियों को घसीट कर बेइज्जत करते हैं।
हे कायरों तुम लोग कैसे सहन करते हो ? इसके विरूद्ध आवाज उठाओ ।   
       इस कविता के प्रकाशन पर बाल गंगाधर तिलक पर मुकदमा चलाया गया 14 सितम्बर1897 को तिलक जी को  डेढ़ वर्ष की सजा दी गई ।
महाराष्ट्र में दिसंबर 1896 में भीषण रूप से प्लेग फैलने लगा इसकी  रोकथाम हेतु सरकार ने प्लेग निवारक समिति बनाई जिसका अध्यक्ष वाल्टर रैण्ड था । रैण्ड अपनी निर्ममता हेतु कुख्यात था।जब रैण्ड सहायक कलेक्टर था तो उसने  1894 में निषिद्ध स्थान पर संगीत साधना करने के लिए 13 लोगों को कारावास से दण्डित किया था।।
प्लेग रोकथाम के लिए रैण्ड ने 300 घोड़े वाली पुलिस सहित प्लेग ग्रस्त क्षेत्र को घेर लिया व लोगों के घरों को लूटने की छूट देदी । मरीजों कैदियों की तरह हाँकते हुए  दूर शिविरों में ले गया ।शिविरों में मरीजों के साथ  मारपीत व अपमानजनक व्यवहार किया जाता था।
इंसानियत की हद को लांघते हुए दुष्ट रैण्ड द्वारा महिलाओं की जांच चोलियों को उतरा कर नंगा करके करवायी जाने लगी ।
यह सब बर्दाश्त से बाहर हो रहा था पर इस अत्याचार के विरुद्ध कोई आवाज़ नहीं उठ रही थी।
       तभी शिवाजी की जयंती पर 12 जून को विठ्ठल मंदिर पर आयोजित एक सभा में बाल गंगाधर तिलक ने रैण्ड की भर्त्सना करते हए पुणे  के युवाओं को ललकारते हुए कहा
‘ “”पुणे के लोगों में पुरुषत्व है ही नहीं, अन्यथा क्या मजाल हमारे घरों में घुस जाए ।”

यह बात चापेकर बंधुओं के शरीर में  तीर की तरह लगी और उनकी आत्माओं को झीझोड़कर रख दिया ।
दामोदर चापेकर ने  अपने छोटे भाई  वासुदेव के साथ तीन माह तक रैण्ड की दैनिक दिनचर्या पर नज़र रखी ।
चापेकर को सूचना मिली कि  22 जून 1897 को विक्टोरिया राज  की हीरक जयंती मनाई जाएगी जिसमें रैण्ड जाएगा। चापेकर ने उस दिन रैण्ड का वध करने की ठानली ।
हीरक जयंती 22 जून 1897 को पार्टी से लौटते समय  रात्रि को 11:30 बजे जैसे ही  रैण्ड की  बग्गी गवर्नमेंट  हाउस के मुख्य फाटक से आगे पहुंची । दामोदर बघी के पीछे चढ़े व  रैंड को गोली मार दी और कूदकर झाड़ियों में लापता हो गए  ।
कुछ दूरी पर  बालकृष्ण  चापेकर   ने  आयरिस्ट एक गोली चलाई निशाना अचूक था आयरेस्ट वहीं मर गया । बालकृष्ण भी मौके से गायब हो गए ।
रैण्ड 3 जुलाई को  मर गया । घटना का कोई सबूत नहीं था। सरकार ने हत्यारों को पकड़ने के लिए ₹20000 का इनाम रखा ।  हमारे देश गदार हमेशा रहे हैं उस वक्त भी थे । इनाम के लालच में गणेश शंकर तथा रामचंद्र द्रविड़ मुखबिर बन गए व 9 अगस्त को दामोदर चापेकर को गिरफ्तार कर लिया गया ।
बालकृष्ण निजाम राज्य के जंगल में भूमिगत  हो गए ।
दिनांक 8 अक्टूबर 1997 को चीज प्रेसिडेंसी मजिस्ट्रेट के समक्ष अपने बचाव में बालकृष्ण कहा कि   “”  मैं विदेशी दासता के प्रत्येक  चिन्ह से घृणा करते हूँ ।””
उन्होंने यह भी स्वीकार किया कि अत्याचारी सम्राट की मूर्ति पर उन्होंने ही  कॉलतोर लगाकर जूतों की माला पहनाई थी व अफसरों के पंडाल में आग लगाई थी ।
हालांकि चापेकर के विरुद्ध कोई प्रमाण पुलिस को नहीं मिला था संदेह के आधार पर दामोदर को फांसी की सजा सुनाई गई।
उस समय तिलक जी भी जेल में थे दामोदर ने तिलक से गीता ली। दिनांक 18 अप्रेल 1898 यरवदा जेल में हाथ में गीता लिए हुए दामोदर फांसी  पर चढ गए ।
वासुदेव  चापेकर को थाने में प्रतिदिन उपस्थिति दर्ज करवानी पड़ती थी ।
अपनी जननी से इजाजत व आशीर्वाद लेकर  रामचंद्र व गणेश शंकर  मुखवीरों को वासुदेव व उनके दोस्त महादेव रानाडे ने 8 फ़रवरी को गोली मारी। गणेश तुरंत मर गया रामचंद्र दूसरे दिन मर गया ।
इससे पूर्व 10 फरवरी को वासुदेव ने अनुसंधान अधिकारी मिस्टर बुइन पुलिस सुपरिंटेंडेंट को गोली मारने की कोशिश की परंतु सफल नहीं हो सके ।
वासुदेव और रानाडे ने अदालत में समस्त घटनाओं को स्वीकार किया क्रांतिवीर वासुदेव को दिनांक 8 मई 1898 को क्रांतिवीर बालकृष्ण को दिनांक 12 मई 98 को सच्चे दोस्त एंव देशभक्त महादेव गोविंद रानाडे को दिनांक 10 को यरवदा जेल में ही फांसी दी गई ।
फड़के के बाद चापेकर बंधुओं के इस क्रांतिकारी एक्शन से फिरंगी बुरी तरह से डर गए ।

आपको कैसा लगेगा यह जानकर की चापेकर बंधुओं की माँ के पास देश का कोई नेता दुःख प्रकट करने नहीं गया ।
हाँ सिस्टर निवेदिता कलकत्ता से पूना उन वीरों की शौर्यमयी माँ के दर्शन करने व सांत्वना देने जरूर गई थी ।
शत शत नमन शहीदों को।

;- अलीपुर एक्शन ;

:- अलीपुर एक्शन -:

अंग्रेजों की भाषा में ‘” अलीपुर षड्यंत्र ” कहे जाने वाले को हमारी भाषा मे

” अलीपुर एक्शन ” से संबोधित करेंगे। आजादी के सशस्त्र संग्राम के क्रम में हमारे क्रांतिकारियों द्वारा किसी स्थान विशेष पर कोई हथियार रखने , बम्ब बनाने , किसी कुख्यात निर्दयी अधिकारी या गदार का वध करने जैसे क्रांतिकारी एक्शन लिये जाते थे । अंग्रेजी पुलिस व सरकार ऐसे क्रांतिकारी एक्शन को उस स्थान का नाम देकर फिरंगी साम्राज्यवाद के विरुद्ध युद्ध करना करार देकर फौजदारी मामला बना कर क्रांतिकारियों को फाँसी व कालापानी जैसी सजाए देने हेतु कार्यवाही करती थी ।। अलीपुर एक्शन बंगाल की कलकत्ता अनुशीलन समिति द्वारा बम्ब बनाने , लेफ्टिनेंट जनरल एंड्रयू फ्रेजर को मारने हेतु दिसंबर 1906 बम्ब से रेलगाड़ी उड़ाने से संबंधित था। इस दल द्वारा कोलकाता में मानिकतल्ला में स्तिथ बगीचे में सन 1908 से बम्ब बनाने का काम शुरू किया गया था। इस समिति का एक केंद्र देवघर में भी स्थापित कर लिया गया । डगलस किंग्स फोर्ड कोलकाता में चीफ प्रेसिडेंसी मजिस्ट्रेट था उसने क्रांतिकारी समाचार पत्र युगांतर , वंदे मातरम , संध्या , नवशक्ति व अन्य के संपादकों पर मुकदमा चलाकर उन्हें दंडित किया था। किंग्सफोर्ड ” कसाई काजी” के नाम से कुख्यात था। इस क्रांतिकारी दल ने किंग्सफोर्ड का वध करने का निर्णय किया । सरकार को खबर होने पर किंग्सफोर्ड का स्थानांतरण कोलकाता से मुजफ्फरपुर कर दिया गया । क्रांतिकारी प्रफुल्ल चाकी व खुदीराम बोस को किंग्सफोर्ड का वध करने का दायित्व सौंपा गया । दोनों क्रांतिकारी मुजफ्फरपुर आये व किंग्सफोर्ड की गाड़ी व गतिविधियों पर नज़र रखी तथा मौका मिलते ही दिनांक 30 अप्रेल 1908 को किंग्स फोर्ड की कार को बम्ब से उड़ा दिया । दुर्भाग्य से कार में किंग्सफोर्ड नहीं था । सरकारी वकील कैनेडी की पत्नि व पुत्री थी । पुलिस के सामने बम्ब बनाने जाने का यह पहला मामला था। इसलिये पुलिस व सरकार हिल गयी शिघ्र जांच पड़ताल की गई व दिनाँक 2 मई 1908 को इस मामले में कुल 38 क्रांतिकारियों को गिरफ्तार कर पेश किया गया विचारण में कुल 49 लोगों को अभियुक्त बनाया गया। इस बीच एक क्रांतिकारी नरेंद्र गोस्वामी सरकारी गवाह बन गया । नरेंद्र द्वारा दल की सारी जानकारी पुलिस को दी जाने का डर था । इसलिए सत्येंद्र बॉस व कन्हैलाल दत्त ने जैल में ही पिस्तौल मंगवा कर गदार नरेंद्र का जैल के अस्पताल में वध कर दिया। इसअलीपुर मामले में कुल 222 गवाहों के बयान हुए व 2000दस्तावेज पेश हुए । मामले का निर्णय 6 मई 1909 को हुआ बारीन्द्र घोष व उल्लासकर दत्त को फांसी की सजा दी गई। जो अपील में उम्रकैद करदी गयी । यह केस सम्राट बना अरबिंदो घोष के नाम से था। इसी को ही अलीपुर के अलावा मानिकतला व मुरारीपुकुर के नाम से भी जाना जाता है अलीपुर केस का निर्णय दिनांक 6 मई 19 09 को किया गया इसमें कुल 49 अभियुक्त रखे गए थे जिनमें से 13 को उम्र कैद वह उनकी संपत्ति जब्त की गई 3 को 10 वर्ष की सजा व उनकी संपत्ति जब्त की गई 3 को 7 वर्ष की सजा व एक को 1 वर्ष की सजा दी गयी । वह अरविंद घोष सहित 17 लोगों को साक्ष्य के अभाव में बरी किया गया सभी उम्र कैद वाले कैदी अंडमान जेल में भेजे गए प्रथम महायुद्ध के बाद 1920 में राजनीतिक कैदियों की सामूहिक माफी हुई तब इन सब लोगों की सजा माफ कर दी गई। कुछ क्रांतिकारीयों ने रिहाई के बाद फिर से आज़ादी के लिए लड़ाई शरू रखी। शत शत नमन क्रांतिवीरों को

::– शहीद खुदीराम बोस –::

::– शहीद खुदीराम बोस –:: जन्म 3 दिशम्बर 1889 मिदनापुर (बंगाल) शहादत 11अगस्त 1908 खुदीराम बोस कलकत्ता अनुशीलन समिति (बारीन्द्र घोष दल )के सदस्य थे । यह अनुशीलन समिति भारत को अंग्रेजों से मुक्त करवाने के लिए सशस्त्र क्रांति के रास्ते पर थी। क्रांतिकारीयों द्वारा देश एंव विदेश से अस्त्र- शस्त्र एकत्रित किए जाते थे । देश विदेश में बम्ब बनाना सीख रहे थे व भारत मे बम्ब बनाना शुरू कर दिया गया था। अंग्रेजी शासन के निर्मम व क्रूर अधिकारीयों व पुलिस मुखवीरों को क्रांतिकरी अपने निशाने पर रखते थे । ऐसा ही एक अधिकारी डगलस किंग्स फोर्ड क्रांतिकारीयों के निशाने पर था । किंग्स फोर्ड कोलकाता में चीफ प्रेसिडेंसी मजिस्ट्रेट था उसने क्रांतिकारी समाचार पत्र युगांतर , वंदे मातरम , संध्या , नवशक्ति व अन्य के संपादकों पर मुकदमा चलाकर उन्हें दंडित किया था। किंग्सफोर्ड ” कसाई काजी” के नाम से कुख्यात था। बारीन्द्र क्रांतिकारी दल ने किंग्सफोर्ड का वध करने का निर्णय किया । क्रांतिकारीयों ने किंग्फोर्ड फोर्ड को एक पार्सल बम्ब भेजा पर फोर्ड ने पार्सल खोला ही नहीं । सरकार को खबर होने पर किंग्सफोर्ड का स्थानांतरण कोलकाता से मुजफ्फरपुर कर दिया गया । क्रांतिकारी प्रफुल्ल चाकी व खुदीराम बोस को किंग्सफोर्ड का वध करने का दायित्व सौंपा गया । दोनों क्रांतिकारी मुजफ्फरपुर आये व किंग्सफोर्ड की बघी गाड़ी व गतिविधियों पर नज़र रखी तथा मौका मिलते ही दिनांक 30 अप्रेल 1908 को किंग्स फोर्ड की गाड़ी को बम्ब से उड़ा दिया । दुर्भाग्य से गाड़ी में किंग्सफोर्ड नहीं था । सरकारी वकील कैनेडी की पत्नि व पुत्री थी । गाड़ी पर बम्ब फेंकने के बाद चाकी व खुदीराम बोस अलग अलग दिशा में भागे। प्रफुल्ल चाकी ने पुलिस मुकाबले के बाद स्वयं को गोली मारकर आत्म बलिदान किया । पर खुदीराम बोस को पुलिस द्वारा पकड़ लिया गए ।मुकदमा चला व खुदीराम को मृत्यु दंड की सजा सुनाई गई तथा दिनाँक 11 अगस्त 1908 को खुदीराम बोस को फाँसी दी गयी । उस समय खुदीराम की आयु मात्र 19 वर्ष थी। शत शत नमन क्रांतिवीर को

:– शहीद खुदीराम बोस –::

::– शहीद खुदीराम बोस –::

        जन्म 3 दिशम्बर 1889
           मिदनापुर (बंगाल)
        शहादत 11अगस्त 1908
खुदीराम बोस कलकत्ता अनुशीलन समिति (बारीन्द्र घोष दल )के सदस्य थे । यह अनुशीलन समिति भारत को अंग्रेजों से मुक्त करवाने के लिए सशस्त्र क्रांति के रास्ते पर थी।
क्रांतिकारीयों द्वारा देश एंव विदेश से अस्त्र- शस्त्र एकत्रित किए जाते थे । देश विदेश में बम्ब बनाना सीख रहे थे व भारत मे बम्ब बनाना शुरू कर दिया गया था।
अंग्रेजी शासन के निर्मम व क्रूर अधिकारीयों व पुलिस मुखवीरों को क्रांतिकरी अपने निशाने पर रखते थे । ऐसा ही एक अधिकारी
डगलस किंग्स फोर्ड क्रांतिकारीयों के निशाने पर था ।
किंग्स फोर्ड कोलकाता में चीफ प्रेसिडेंसी मजिस्ट्रेट था उसने  क्रांतिकारी समाचार पत्र युगांतर , वंदे मातरम , संध्या , नवशक्ति व अन्य  के संपादकों पर  मुकदमा चलाकर उन्हें दंडित किया था। किंग्सफोर्ड ” कसाई काजी” के नाम से कुख्यात था।
बारीन्द्र क्रांतिकारी दल ने किंग्सफोर्ड का वध करने का निर्णय किया । क्रांतिकारीयों ने किंग्फोर्ड फोर्ड को एक पार्सल बम्ब भेजा पर फोर्ड ने पार्सल खोला ही नहीं ।
सरकार को खबर होने पर किंग्सफोर्ड का स्थानांतरण कोलकाता से मुजफ्फरपुर कर दिया गया । क्रांतिकारी  प्रफुल्ल चाकी व खुदीराम बोस को किंग्सफोर्ड का वध करने का दायित्व सौंपा गया ।
दोनों क्रांतिकारी मुजफ्फरपुर  आये व किंग्सफोर्ड की बघी गाड़ी व गतिविधियों पर नज़र रखी तथा मौका मिलते ही दिनांक 30 अप्रेल 1908 को किंग्स फोर्ड की गाड़ी को बम्ब से उड़ा दिया । दुर्भाग्य से गाड़ी में किंग्सफोर्ड नहीं था । सरकारी वकील कैनेडी की पत्नि व पुत्री थी ।
   गाड़ी पर बम्ब फेंकने के बाद चाकी व खुदीराम बोस अलग अलग दिशा में भागे। प्रफुल्ल चाकी ने पुलिस मुकाबले के बाद स्वयं को गोली मारकर आत्म बलिदान किया । पर खुदीराम बोस को पुलिस द्वारा पकड़ लिया गए ।मुकदमा चला व खुदीराम को मृत्यु दंड की सजा सुनाई गई तथा दिनाँक 11 अगस्त 1908 को              खुदीराम बोस को फाँसी दी गयी । उस समय खुदीराम की आयु मात्र 19 वर्ष थी।

शत शत नमन क्रांतिवीर को

:-  क्रांतिवीर प्रफुल्ल चाकी :-

   :-  क्रांतिवीर प्रफुल्ल चाकी :-

प्रफ्फुल चाकी का जन्म10 दिसंबर 1888 को तत्समय के बोगरा जिला (वर्तमान बांग्लादेश )में हुआ था। प्रफुल्ल चाकी बाल्यकाल से ही क्रांतिकारी गतिविधियों  से जुड़ गए। वे कलकत्ता अनुशीलन समिति (बारीन्द्र घोष दल )के सदस्य थे । यह अनुशीलन समिति भारत को अंग्रेजों से मुक्त करवाने के लिए सशस्त्र क्रांति के रास्ते पर थी।
क्रांतिकारीयों द्वारा देश एंव विदेश से अस्त्र- शस्त्र एकत्रित किए जाते थे । देश विदेश में बम्ब बनाना सीख रहे थे व भारत मे बम्ब बनाना शुरू कर दिया गया था।
अंग्रेजी शासन के निर्मम व क्रूर अधिकारीयों व पुलिस मुखवीरों को क्रांतिकरी अपने निशाने पर रखते थे ।
चाकी बम्ब विस्फोट के लिए प्रशिक्षित थे । चाकी को क्रांतिकारी दल द्वारा पहला काम  पूर्वी बंगाल व जोसेफ फुल्लर को बम्ब से उड़ाने हेतु सौंपा गया था परंतु वह सफल नहीं रहा।
ऐसा ही एक  अधिकारी डगलस किंग्स फोर्ड क्रांतिकारीयों के निशाने पर था ।
किंग्स फोर्ड कोलकाता में चीफ प्रेसिडेंसी मजिस्ट्रेट था उसने  क्रांतिकारी समाचार पत्र युगांतर , वंदे मातरम , संध्या , नवशक्ति व अन्य  के संपादकों पर  मुकदमा चलाकर उन्हें दंडित किया था। किंग्सफोर्ड ” कसाई काजी” के नाम से कुख्यात था।
बारीन्द्र क्रांतिकारी दल ने किंग्सफोर्ड का वध करने का निर्णय किया । क्रांतिकारीयों ने किंग्फोर्ड फोर्ड को एक पार्सल बम्ब भेजा पर फोर्ड ने पार्सल खोला ही नहीं ।

सरकार को खबर होने पर किंग्सफोर्ड का स्थानांतरण कोलकाता से मुजफ्फरपुर कर दिया गया । क्रांतिकारी  प्रफुल्ल चाकी व खुदीराम बोस को किंग्सफोर्ड का वध करने का दायित्व सौंपा गया ।
दोनों क्रांतिकारी मुजफ्फरपुर  आये व किंग्सफोर्ड की बघी गाड़ी व गतिविधियों पर नज़र रखी तथा मौका मिलते ही दिनांक 30 अप्रेल 1908 को किंग्स फोर्ड की गाड़ी को बम्ब से उड़ा दिया । दुर्भाग्य से गाड़ी में किंग्सफोर्ड नहीं था । सरकारी वकील कैनेडी की पत्नि व पुत्री थी ।
   गाड़ी पर बम्ब फेंकने के बाद चाकी व खुदीराम बोस अलग अलग दिशा में भागे।
प्रफुल्ल चाकी कलकत्ता आने हेतु रेलगाड़ी से रवाना हुए थे उसी गाड़ी में सब इंस्पेक्टर नंदलाल बैनर्जी जा रहा था उसने प्रफुल्ल चाकी को पहचान लिया और गिरफ्तार करना चाहा  चाकी ने नंदलाल पर गोली चलाई परंतु निशाना चूक गया । चाकी ने क्रांतिकारी दलों के शौर्यमयी प्रथा के अनुसार गिरफ्तार होने की बजाय दूसरी गोली स्वयँ को मार कर आत्मबलिदान किया ।
नंदलाल सब इंस्पेक्टर ने चाकी का सिर धड़ से अलग करके कार्यवाही व पहचान हेतु कोलकाता भेजा।जिसके लिए सरकार ने उसे ईनाम दिया । नंदलाल का  यह  घिघोना कृत्य असहनीय था इसलिए श्रीसपाल व राणे गांगुली ने दिनाँक 9 नवम्बर 1098 को नंदलाल बनर्जी को  सर्पेंटाइन लेन कलकत्ता में गोलियों से उड़ा दिया । केस बनाया गया पर सबूत के अभाव में श्रीशपाल बरी हुए । चाकी का पुलिस रिकॉर्ड में नाम दिनेश चंद्र राय भी था।
प्रफुल्ल चाकी की शहादत ने बंगाल के लोगों के दिलों में गहरी जगह ली लोगों ने  पहनने के कपड़ों पर प्रफुल्ल चाकी का नाम लिखवाना शुरू कर दिया।
          शत शत नमन शहीदों को ।

:- क्रांतिवीर प्रफुल्ल चाकी :-

-: प्रफुल्ल चाकी -:

प्रफ्फुल चाकी का जन्म10 दिसंबर 1888 को तत्समय के बोगरा जिला (वर्तमान बांग्लादेश )में हुआ था। प्रफुल्ल चाकी बाल्यकाल से ही क्रांतिकारी गतिविधियों से जुड़ गए। वे कलकत्ता अनुशीलन समिति (बारीन्द्र घोष दल )के सदस्य थे । यह अनुशीलन समिति भारत को अंग्रेजों से मुक्त करवाने के लिए सशस्त्र क्रांति के रास्ते पर थी। क्रांतिकारीयों द्वारा देश एंव विदेश से अस्त्र- शस्त्र एकत्रित किए जाते थे । देश विदेश में बम्ब बनाना सीख रहे थे व भारत मे बम्ब बनाना शुरू कर दिया गया था। अंग्रेजी शासन के निर्मम व क्रूर अधिकारीयों व पुलिस मुखवीरों को क्रांतिकरी अपने निशाने पर रखते थे ।

चाकी बम्ब विस्फोट के लिए प्रशिक्षित थे । चाकी को क्रांतिकारी दल द्वारा पहला काम पूर्वी बंगाल व जोसेफ फुल्लर को बम्ब से उड़ाने हेतु सौंपा गया था परंतु वह सफल नहीं रहा।

ऐसा ही एक अधिकारी डगलस किंग्स फोर्ड क्रांतिकारीयों के निशाने पर था । किंग्स फोर्ड कोलकाता में चीफ प्रेसिडेंसी मजिस्ट्रेट था उसने क्रांतिकारी समाचार पत्र युगांतर , वंदे मातरम , संध्या , नवशक्ति व अन्य के संपादकों पर मुकदमा चलाकर उन्हें दंडित किया था। किंग्सफोर्ड ” कसाई काजी” के नाम से कुख्यात था।

बारीन्द्र क्रांतिकारी दल ने किंग्सफोर्ड का वध करने का निर्णय किया । क्रांतिकारीयों ने किंग्फोर्ड फोर्ड को एक पार्सल बम्ब भेजा पर फोर्ड ने पार्सल खोला ही नहीं । सरकार को खबर होने पर किंग्सफोर्ड का स्थानांतरण कोलकाता से मुजफ्फरपुर कर दिया गया । क्रांतिकारी प्रफुल्ल चाकी व खुदीराम बोस को किंग्सफोर्ड का वध करने का दायित्व सौंपा गया । दोनों क्रांतिकारी मुजफ्फरपुर आये व किंग्सफोर्ड की बघी गाड़ी व गतिविधियों पर नज़र रखी तथा मौका मिलते ही दिनांक 30 अप्रेल 1908 को किंग्स फोर्ड की गाड़ी को बम्ब से उड़ा दिया । दुर्भाग्य से गाड़ी में किंग्सफोर्ड नहीं था । सरकारी वकील कैनेडी की पत्नि व पुत्री थी । गाड़ी पर बम्ब फेंकने के बाद चाकी व खुदीराम बोस अलग अलग दिशा में भागे। प्रफुल्ल चाकी कलकत्ता आने हेतु रेलगाड़ी से रवाना हुए थे उसी गाड़ी में सब इंस्पेक्टर नंदलाल बैनर्जी जा रहा था उसने प्रफुल्ल चाकी को पहचान लिया और गिरफ्तार करना चाहा चाकी ने नंदलाल पर गोली चलाई परंतु निशाना चूक गया । चाकी ने क्रांतिकारी दलों के शौर्यमयी प्रथा के अनुसार गिरफ्तार होने की बजाय दूसरी गोली स्वयँ को मार कर आत्मबलिदान किया । नंदलाल सब इंस्पेक्टर ने चाकी का सिर धड़ से अलग करके कार्यवाही व पहचान हेतु कोलकाता भेजा।जिसके लिए सरकार ने उसे ईनाम दिया । नंदलाल का यह घिघोना कृत्य असहनीय था इसलिए श्रीसपाल व राणे गांगुली ने दिनाँक 9 नवम्बर 1098 को नंदलाल बनर्जी को सर्पेंटाइन लेन कलकत्ता में गोलियों से उड़ा दिया । केस बनाया गया पर सबूत के अभाव में श्रीशपाल बरी हुए । चाकी का पुलिस रिकॉर्ड में नाम दिनेश चंद्र राय भी था। प्रफुल्ल चाकी की शहादत ने बंगाल के लोगों के दिलों में गहरी जगह ली लोगों ने पहनने के कपड़ों पर प्रफुल्ल चाकी का नाम लिखवाना शुरू कर दिया। शत शत नमन शहीदों को ।

खुदीराम बोस

कसाई काज़ी के नाम से कुख्यात किंग्सफोर्ड को मारने के जिम्मा दो नवयुवको खुदीराम बोस व प्रफुल चंद्र चाकी पर था । दोनों ही मुजफ्फरनगर पहुंचे। बंगाल की पुलिस को क्रांतिकारियों के इस इरादे का पता लग चुका था। किंग्स फोर्ड के मकान पर सशस्त्र पुलिस का पहरा लगने लगा। दस दिन तक इन नोजवानो को किंग्स फोर्ड को मारने का अवसर नहीं मिला। वे एक धर्मशाला में ठहरे रहे।

किंग्स फोर्ड के पास एक हरे रंग की घोड़ा गाड़ी थी वह उसी में बैठ कर क्लब से घर को जाया करता था। प्रफुल्ल व खुदीराम ने भी उस गाड़ी को खूब देख लिया। एक रात के समय वह गाड़ी क्लब से घर जब लौट रही थी मौका देख प्रफुल्ल व चाकी ने गाड़ी पर बम फैंक दिया किन्तु अफसोस कि उस बम से कैनेडी नाम के एक अंग्रेज की लड़की मारी गई और उसकी पत्नी सख्त घायल हुईं। यह घटना 30 अप्रैल सन 1908 की हैं। बम फैंकने के बाद प्रफुल चाकी समस्तीपुर की ओर तथा खुदीराम बोस मुजफ्फरनगर से बैनी की ओर भागे।
बैनी मुजफ्फरनगर से 15 मील दूर एक छोटा सा स्टेशन है। एक दुकान पर खुदीराम ने जलपान किया। वहाँ किसी ने कहा कि मुजफ्फरनगर में रात को कैनेडी की लड़की बम से मारी गई है। खुदीराम बच्चा तो थे ही उनके मुह से अचानक निकला ऐ किंग्स फोर्ड मरा क्या? लोगों को उन पर संदेह हो गया। यद्यपि उन्होंने भागने की चेष्टा की किन्तु पकड़े लिए गये और मुजफ्फरनगर को उनका चालान कर दिया गया। उधर समस्तीपुर में जब प्रफुल चाकी कलकत्ते की ओर जा रहे थे बीच में ही एक पुलिस थानेदार ने उन्हें पकड़ना चाहा। पहले तो उन्होंने थानेदार पर फायर किया किन्तु वार खाली गया तो अपने ही गोली मार ली।
खुदीराम बोस ने अदालत में बड़ी निर्भीकता से अपना अपराध स्वीकार कर लिया बांकीपुर से बुलाये गये मि0 कॉर्नडफ नाम के जज ने इनके मामले को सुना। कालिदास बॉस नाम के एक वकील ने खुदीराम की वकालत की किन्तु सात दिन ही नाटकीय समापन के बाद उन्हें दफा 302 के ताजीरात हिन्द के अनुसार फांसी की सजा दी गई। हाईकोर्ट में अपील भी हुई पर ख़ारिज कर दी गई । खुदीराम बोस ने फांसी से पहले अदालत में यह प्रार्थना की थी कि उसकी लाश कालिदास वकील के सुपुर्द कर दी जाये। ता0 11 अगस्त सन 1908 को प्रातः काल ही उन्हें फांसी पर लटका दिया गया।
कई लेखकों ने लिखा है कि उनकी अर्थी का एक बड़ा जुलूस निकाला गया था। उन पर इतने फूल बरसे की कोई ठिकाना नही, क्योंकि प्रत्येक बंगाली को उनकी शहीदी पर गर्व था।

लाहौर षड्यंत्र केस में एक क्रांतिकारी श्री शिव वर्मा ने उनकी अंत्येष्टि के संबंध में ‘नव निर्माण’ नामक एक पत्र में इस प्रकार लिखा था:- “उनकी अंत्येष्टि का दृश्य बड़ा ही ह्रदय ग्राही था। फूलो की एक सुसज्जित शय्या पर उनका शव रख दिया गया था। अर्थी भी फूल मालाओं से सजाई गई थी उनके माथे पर चंदन का तिलक चमक रहा था। अधखुले नेत्रो से अब भी एक जागृत ज्योति निकल रही थी। होंटो पर दृढ़ संकल्प की रेखा दिखाई पड़ रही थी। ‘राम नाम सत्य’ तथा ‘वंदे मातरम’ के व्योम व्यापी नारो के साथ अर्थी उठी। चारो ओर नर मुंडो का समूह उमड़ा था। हजारो आदमी इस शव यात्रा में सम्मिलित थे। अर्थी उठी। चारो ओर नर मुंडो का समूह उमड़ा था। हजारो आदमी इस शव यात्रा समिलित थे। वृहद जुलूस के साथ अर्थी शमशान पहुंची थी। फुलो से अच्छादित शव उतार कर चिता पर रखा गया। काली बाबु ने घृत, धूप और शाकल पहले से ही ला रखे थे। चिता में आग लगा दी गई। एक बार फिर वंदे मातरम की तुमुल ध्वनि से आकाश गूंज उठा और जब चिता ठंडी हो गई तो चिता भस्म के लिए जनता की पारस्परिक छीना झपटी का दृश्य भी कम ह्रदय ग्राही न था।
उस समय बंगाल के कई अखबारों ने उनके इस कृत्य की निदा भी की थी किन्तु बंगाल के घर घर मे उनका जिक्र था। उनके संबंध में बहुत दिनों तक गया जाता रहा था :-
“खुदिराम बोस जथा हाशीते,
फांसी ते कोरिलो प्रान शेष।
तुई तो मांगो तार देर जननी,
तुई तो मांगो नादेर देश।
अर्थात – खुदिराम बोस ने हंसते हंसते फांसी पर अपने प्राणो को दिया। हे जननी वही तो मैं मांगता हूं।
फांसी के तख्त पर हंसते हंसते चढ़ते हुए उन जनता ने देखा और उनका वही चित्र हर बंगाली के मानस पर खिंच गया था जो कभी कभी लोक गीतों में फुट पड़ता है।

वीर वीरांगना क्रांतिकारी महिला कल्पना दत्त

(जन्म: 27 जुलाई, 1913 – मृत्यु: 8 फ़रवरी 1995)

देश की आज़ादी के लिए संघर्ष करने वाली महिला क्रांतिकारियों में से एक थीं। इन्होंने अपनी क्रांतिकारी गतिविधियों को अंजाम देने के लिए क्रांतिकारी सूर्यसेन के दल से नाता जोड़ लिया था।

1933 ई. में कल्पना दत्त पुलिस से मुठभेड़ होने पर गिरफ़्तार कर ली गई थीं। राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी और रवीन्द्रनाथ टैगोर के प्रयत्नों से ही वह जेल से बाहर आ पाई थीं। अपने महत्त्वपूर्ण योगदान के लिए कल्पना दत्त को ‘वीर महिला’ की उपाधि से सम्मानित किया गया था।
जन्म तथा क्रांतिकारी गतिविधियाँ कल्पना दत्त का जन्म चटगांव (अब बांग्लादेश) के श्रीपुर गांव में एक मध्यम वर्गीय परिवार में हुआ था।
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चटगांव में आरम्भिक शिक्षा के बाद वह उच्च शिक्षा के लिए कोलकाता आईं। प्रसिद्ध क्रान्तिकारियों की जीवनियाँ पढ़कर वह प्रभावित हुईं और शीघ्र ही स्वयं भी कुछ करने के लिए आतुर हो उठीं। 18 अप्रैल, 1930 ई. को ‘चटगांव शस्त्रागार लूट’ की घटना होते ही कल्पना दत्त कोलकाता से वापस चटगांव चली गईं और क्रान्तिकारी सूर्यसेन के दल से संपर्क कर लिया। वह वेश बदलकर इन लोगों को गोला-बारूद आदि पहुँचाया करती थीं। इस बीच उन्होंने निशाना लगाने का भी अभ्यास किया।
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कारावास की सज़ा
कल्पना और उनके साथियों ने क्रान्तिकारियों का मुकदमा सुनने वाली अदालत के भवन को और जेल की दीवार उड़ाने की योजना बनाई। लेकिन पुलिस को सूचना मिल जाने के कारण इस पर अमल नहीं हो सका। पुरुष वेश में घूमती कल्पना दत्त गिरफ्तार कर ली गईं। पर अभियोग सिद्ध न होने पर उन्हें छोड़ दिया गया। उनके घर पुलिस का पहरा बैठा दिया गया। लेकिन कल्पना पुलिस को चकमा देकर घर से निकलकर क्रान्तिकारी सूर्यसेन से जा मिलीं।
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सूर्यसेन गिरफ्तार कर लिये गए और मई, 1933 ई. में कुछ समय तक पुलिस और क्रान्तिकारियों के बीच सशस्त्र मुकाबला होने के बाद कल्पना दत्त भी गिरफ्तार हो गईं।
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मुकदमा चला और फ़रवरी, 1934 ई. में सूर्यसेन तथा तारकेश्वर दस्तीकार को फांसी की और 21 वर्ष की कल्पना दत्त को आजीवन कारावास की सज़ा हो गई।
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# ऐलान_ए_इंक़लाब

महान क्रांतिवीर यतीन्द्रनाथ मुखर्जी

Bagha Jatin

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के अजेय योद्धाओं में से एक योद्धा यतिन्द्रनाथ उर्फ बाघा जतिन थे जिन्हें बंगाल के “चन्द्रशेखर आजाद“ के नाम से संबोधित किया जाता है।
वीर जतिन का जन्म 7 दिसम्बर 1879 कायाग्राम “जैसोर“ (वर्तमान बंग्लादेश) में एक ब्राहम्ण परिवार में हुआ था। आपके पिताश्री उमेशचन्द्र मुकर्जी थे। पांच वर्ष की अल्पआयु सर पर से पिता का साया उठ गया था। आपकी महान माताश्री ने आपमें देशभक्ति का मंत्र फूंका।
वीर जतिन ने इन्टरेंस पास कर कलकत्ता सचिवालय में स्टेनोग्राफर पद पर कार्य किया। वीर जतिन हृष्ट-पुष्ट और शौर्यवान पुरूष थे। जब उनकी अवस्था 27 वर्ष की थी तो नदिया जिले के एक जंगल में एक चीते से उनका मुकाबला हो गया। उसे आपने हँसिये से मार गिराया, तब से लोग आपको ’बाघा यतीन्द्र’ के नाम से पुकारने लगे थे।
वीर जतिन लाठी, तलवार, घुड़सवारी व कुश्ती के महारथी थे। आप नियमित रूप से गीता पाठ भी करते थे। कलकत्ता के आस-पास आपकी विशेष पहचान थी।
बाघा जतिन ने “पश्चिमी बंगाल अनुशीलन समिति“ की स्थापना की थी जिसे पुलिन बिहारी की अनुशीलन समिति में विलय किया गया था।
क्रांतिवीर ने 1905 में दार्जलिंग मेल में 4 सिपाहियों को पीट दिया था। बंग-भंग के बाद जतिन बाघा ने नौकरी छोड़ दी और क्रांतिकारी संगठन में जुड़ गये। सन् 1910 ई॰ में वे हावड़ा षड्यन्त्र केस में पकड़ लिये गये किन्तु एक वर्ष के कारावास के बाद उन्हें छोड़ दिया गया। पहले आपने अनुशीलन समिति के अन्दर काम किया किन्तु सरकार ने समिति के प्रायः सभी कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार करके उसके काम को ढीला कर दिया तो आपने वारीन्द्र आदि से ’युगान्तर’ का कार्य सम्भाल लिया। आप एक धार्मिक प्रवृति के उदार और दयाशील व्यक्ति थे। इससे आपका साथियों पर अच्छा खासा प्रभाव रहता था। निर्भिकता, निःस्वार्थ सेवा भाव तथा अन्यतम नेतृत्व गुणों के कारण उस समय बंगाली क्रांतिकारियों के वे सहज ही नेता बन गये थे।
पंजाब में द्वितीय स्वतंत्रता संग्राम की तैयारी के समय रास बिहारी बोस ने जतिन बाघा को उत्तर प्रदेश (बनारस) में बुलाया व स्वतंत्रता संग्राम का विशेष दायित्व संभलाया।
क्रांतिकारियों को शस्त्र खरीदने के लिये रुपयों की विशेष आवश्यकता थी जिसकी पूर्ति के लिये जतिन बाघा ने दिनांक 22 फरवरी, 1915 को एक बैंक डकैती कर 22 हजार रुपये प्राप्त किये।
सशस्त्र क्रांति के लिये देश में किसी भी क्रांतिकारी संघ को हथियार खरीदने के लिये रुपयों की आवश्यकता होती थी तो उसे बैंक डकैतियों के माहिर बाघा जतिन अपना पराक्रम दिखाकर पूर्ण करते थे। बलियाघाट व गार्डन रीच की डकैतियां प्रसिद्ध रही हैं।
बाघा ने राडा कम्पनी के 52 मोजर व 50000 कारतूस भी फिरंगियों से सफलतापूर्वक छीने थे।
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के सशस्त्र युद्ध के लिये बाघा ने जर्मनी से हथियार मंगाये थे। 4 सितम्बर, 1915 में बाघा जतिन को उनके पांच साथियों सहित फिरंगी सैना के 50 सिपाहियों ने बालेश्वर के पास घेर लिया। दो दिन तक मुकाबला चला परन्तु छापामार युद्ध में दक्ष बाघा ने फिरंगी फौज को एक कदम भी आगे नहीं बढ़ने दिया। इस मुकाबले में फिरंगी खुफिया प्रधान टैगर्ट ने कमान संभाली हुई थी। यतीन्द्र की पीठ में गोली लगी किन्तु गिरे नहीं यह देख कर उनकी टाँग में गोली मारी गई जो जाँघ को पार कर गई। वह गिर पड़े। उनके एक साथी चितप्रिय राय भी काम आये। मनोरंजन, नरेन्द्र और ज्योतिषी को पकड़ लिया गया। श्री यतीन्द्रनाथ को जंगल से उठा कर बालेश्वर के अस्पताल में पहुँचाया गया वहाँ वे 9/10 सितम्बर सन् 1915 को वीरगति को प्राप्त हुये।
बाघा जतिन के मामले में बेरिस्टर जे. एन. राय ने सी.आई.डी. प्रधान टैगर्ट से पूछा “क्या यतीन्द्र जीवित है ?“ तो टैगर्ट ने उत्तर दिया “दूर्भाग्यवश वह मर गया।“ शहीद बाघा के प्रति सम्मानजनक शब्दों पर आपत्ति किये जाने पर टैगर्ट ने कहा “Though I had to do my duties, I have a great admiration for him. He was the only Bengali who died in an open fight from trench”
यानि ”मुझे अपने कत्र्तव्य का पालन करना था किन्तु मैं यतीन्द्र की वीरता का सम्मान करता हूँ। वे अकेले बंगाली थे जो लड़ते-लड़ते मरे।“
हमारे देश का दूर्भाग्य है कि आजादी के इतिहास में हमारे क्रांतिवीरों को उग्रवादी लिखा जाता है परन्तु फिरंगी अधिकारी भी उनकी वीरता के कायल थे।
जतिन बाघा की क्रांतिकारी संस्था की योजना सन् 1857 की गदर की भँति ही एक और गदर कराने की थी। इसमे राजा महेन्द्र प्रताप और मौलवी बरकतुल्ला जैसे प्रभावशाली आदमी भी शामिल थे।
श्री भोलानाथ चटर्जी और नरेन्द्र भट्टाचार्य को बटेविया भेजा गया ताकि वे जर्मनी से दो हथियार बन्द जहाज बंगाल की खाड़ी में पहुँचा दें। इधर अमेरिकन जैक क्रांतिकारियों ने अंग्रेजों को इसकी सूचना दे दी। जर्मन अधिकारियों को इस भेद के खुल जाने का पता चल गया इससे जहाज न आ सके फिर बालासोर घाट पर हथियार लाने का प्रबन्ध किया गया। किन्तु अंग्रेजों को पहले ही पता चल गया था अतः जो भी थोड़े बहुत आये पकड़ लिये गये और स्थान-स्थान पर तलाशियों की धूम मच गई।
बाघा जतिन के क्रांतिकारी शब्द:
“पूंजीवाद समाप्त कर श्रेणीहीन समाज की स्थापना क्रांतिकारियों का लक्ष्य है। देशी-विदेशी शोषण से मुक्त कराना और आत्मनिर्णय द्वारा जीवन-यापन का अक्सर हमारी मांग है।“

शत् शत् नमन!!

क्रान्तिवीर उल्लासकर दत्त

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“Look, Look! the man is going to be hanged and he laughs,”(देखो! देखो! इस आदमी को फाँसी दी जाने वाली है और वह हँस रहा है) “Yes, I know they all laugh at death,” (हाँ, हाँ, मैं जानता हूँ, मौत उनके लिए दिल्लगी है।)

यह बातचीत उन दो यूरोपियन पहरेदारों के मध्य तब हुई जब फाँसी की सजा सुनकर उल्लासकर दत्त हँसता हुआ अपनी कोठरी को लौट रहा था। उसने जज के मुँह से फाँसी की सजा सुनकर हँसते हुए एक अंगड़ाई लेकर कहा था ”चलो एक बड़े झंझट से छूटकारा मिला।“

उनका नाम उल्लासकर दत्त था और उन्होनें अपने जेल जीवन में अपने नाम को सार्थक ही किया। अलीपुर बम केस में श्री वारीन्द्र घोष, उपेन्द्रनाथ बनर्जी, हेमचन्द्र आदि के साथ आपको भी पकड़ लिया गया। सेशन जज ने तो आपको फाँसी की सजा दी थी किन्तु हाईकोर्ट से काले पानी की रह गई थी। उल्लासकर साहसी नौजवानों में से थे। एक बार उनकी पुलिस वालों के साथ भिड़न्त हो गई। आपने भी उन्हें पीटा और आपकी भी उन्होनें खूब पिटाई कर दी। पुलिस ने आप पर मुकद्दमा भी चलाया किन्तु प्रमाणों के अभाव में आप छूट गये।

जिन दिनों उल्लासकर बम्बई के इंजिनियरिंग क्लास में शिक्षा पा रहे थे उन्हीं दिनों बंगाल में बंग-भंग के सरकारी ऐलान से आन्दोलन उठ खड़ा हुआ। आप वहाँ पर ’युगान्तर’ के गर्म-गर्म लेख पढ़ते थे। उन पर भी असर पड़ा और वे बम्बई से कलकत्ता आ गये। यहाँ स्वदेशी आन्दोलन में भाग लेना आरम्भ कर दिया। स्वदेशी आन्दोलन के कर्णधार थे बंगाल में उन दिनों बाबू विपिनचन्द्र पाल और श्री सुरेन्द्रनाथ बनर्जी। उनके भाषणों और श्री रवीन्द्रनाथ ठाकुर की कविताओं का आप पर बड़ा असर पड़ा। इन भाषणों के सुनने से उनमें देशभक्ति का उत्तरोत्तर प्रवाह बढ़ता ही गया।

स्वदेशी आन्दोलन में काम करते हुए उन्हें ज्ञान हुआ कि बिना डर या भय के अंग्रेज भारत छोड़ने वाले नहीं है। अतः उनकी प्रवृति आंतकवाद की ओर हुई। उन्होनें बम बनाना सीखना आरम्भ कर दिया और उस काम में वे थोड़े ही दिनों में निपुण हो गये।

कलकत्ते में उन दिनों वारीन्द्र घोष की गुप्त समिति की भी चर्चा थी। वे भी उसमें शामिल हो गये और इसमें सन्देह नहीं था कि उनके उस समिति में शामिल होने से कार्य को काफी प्रगति मिली।

वैद्यनाथ धाम में जब वारीन्द्र ने बम फैक्टरी खोली तो उसके संचालक उल्लासकर ही थे। इसके अलावा उल्लासकर ने दो अन्य स्थानों पर भी बम की फैक्ट्रीयां कायम की थी जिनमें से एक उनके घर में तथा दूसरी मुरारीपुरकर रोड़ के पास के एक मकान में थी।

बम बनाने के काम में श्री उल्लासकर ने श्री हेमचन्द्र से आर्थिक सहायता लेकर उसे अच्छा रूप दे दिया था। श्री हेमचन्द्र ने अपनी जायदाद का एक हिस्सा बेच कर उसमें से कुछ रूपया बम के कारखाने में लगाया और कुछ से विदेशों में जा कर वे बम बनाना सीख कर आये।

क्रांतिवीर वारिन्द्र घोष उर्फ वारिन्द्र नाथ

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वारिन्द्र नाथ उर्फ वारिन्द्र घोष “मानिकतला दल“, “गोदघर“ व “देवघर दल“ के अग्रणीय क्रांतिकारियों में से एक थे। श्री वारिन्द्र घोष का जन्म डाॅ. कृष्णधन एवं श्रीमती स्वर्णलता के घर क्रायडन (लंदन के पास) दिनांक 05 जनवरी, 1880 को हुआ था। वारिन्द्र घोष ने इंग्लेण्ड में शिक्षा प्राप्त की। श्री वारिन्द्र घोष सन् 1902 में भारत आ गये उस समय बड़ोदा नरेश के निजी सचिव रहे तथा नेशनल काॅलेज, कलकत्ता के प्राचार्य रहे।

वारिन्द्र अपने आपको राष्ट्रीय आंदोलन से दूर नहीं रख पाये और उन्होनें शसस्त्र क्रांति की नींव रखी। घोष ने श्री जतिन्द्र मुखर्जी के साथ “अनुशीलन समिति“ का गठन किया जिसे मानिकतला व देवघर के नाम से जाना जाता है। इस समिति ने 1906 में मानिकतला के बगीचे में बम्ब बनायें इसलिये इनके क्रांतिकारी कृत्य को मानिकतला के नाम से जाना जाता है। इस समिति के क्रांतिकारियों का केन्द्र “देवघर“ में स्थापित किया गया था इसलिये इस क्रांतिदल को देवघर क्रांति के नाम से भी जाना जाता है।

महान क्रांतिवीर खुदीराम बोस व प्रफुल्ल चाकी इसी क्रांति दल के सदस्य थे। उस समय कसाई काजी के नाम से कुख्यात जज किंग्सफोर्ड का वध करने का बीड़ा प्रफुल्ल चाकी व खुदीराम बोस ने संभाला था।

वारिन्द्र के इस क्रांतिकारी दल के द्वारा 6 दिसम्बर 1907 को बंगाल गर्वनर की हत्या हेतु रेलवे लाईन उड़ाई गई थी परन्तु दुर्भाग्यवश गर्वनर बच गया। 23 दिसम्बर 1907 को ढ़ाका कलेक्टर पर गोली चलाई गई व 30 अप्रेल 1908 को मुज्जफरपुर के सेशन जज किंग्सफोर्ड का वध करने हेतु उसकी गाड़ी पर बम्ब फैंका गया। कलकत्ता में एक पुलिस इन्सपेक्टर को गोली से उड़ा दिया गया।

जेल से छूटने के बाद वारिन्द्र 1920 में वापिस कलकत्ता आये व समाचार पत्र “नारायण“, “बिजली“, “युगान्तरण“, “दैनिक बासुमती“ का सम्पादन किया।

वारिन्द्र दल के क्रांतिकारियों को फिरंगियों ने “अलीपुर षड़यन्त्र“ का नाम दिया व मुकद्दमे बनाये, जिनमे प्रथम बम्ब षड़यन्त्र मामले में वारिन्द्र व उल्लासकर दत्त को प्राण दण्ड की सजा दी गई थी परन्तु हाईकोर्ट द्वारा इसे दिपान्तरवास में बदल दिया था।
सर्व श्री हेमचन्द्र दास, उपेन्द्रनाथ बनर्जी, सलेन्द्रनाथ बोस, भभुति भूषण रास और 6 अन्य व्यक्तियों को कालापानी तथा कई को दस.दस साल की सजा दी गई।

बंगाल में इस केस की बड़ी चहल.पहल रही। सिर्फ इसलिए नहीं कि अब तक तमाम केसों में बड़ा केस था बल्कि इसलिए कि इस केस के मुखबिर नरेन्द्र गोस्वामी को मुकद्दमें की सुनवाई आरम्भ होने से पहले ही जेल में कन्हाई दत्त और यतीन्द्र नाम के नौजवानों ने मौत के घाट उतार दिया था। जिस वकील ने नरेन्द्र गोस्वामी के कत्ल के मुकद्दमें में सरकारी वकील की हैसियत से पैरवी की उसे 10 फरवरी 1909 को कलकत्ते में गोली से उड़ा दिया गया। इसके बाद अपील के दौरान हाइकोर्ट में पैरवी करने वाले पुलिस सुपरिन्टेन्डेट को भी गोली से मार दिया गया।

वारीन्द्र घोष के कार्यों, उनके साथियों तथा उनके जीवन का पता उनके उस बयान से चलता है जो उन्होने अपने गिरफ्तार होने पर 22 मई 1908 को मजिस्ट्रेट के सामने दिया था। उन्होनें कहा था कि वह बड़ौदा में राजनीति और इतिहास का विद्यार्थी था। वहाँ से मैं इस उद्देश्य से बंगाल आया कि अपने प्रान्त के लोगों में आजादी के लिए प्रचार करूँ। मैं प्रत्येक जिले घूमा, अनेक स्थानों पर मैंने व्यायामशालाएं खुलवाई, जहाँ लड़के कसरत करें और राजनीति पर भी बातें करें। दो वर्ष तक लगातार मैंने यही काम किया। थक जाने के कारण मैं बड़ौदा लौट आया। बड़ौदा में एक साल रहने के बाद मैं फिर बंगाल आया। यहाँ उस समय तक स्वदेशी आन्दोलन आरम्भ हो चुका था। मैंने अपने कुछ साथियों के साथ “युगान्तर“ नाम का पत्र चलाया और फिर दूसरे लोगों के सुपुर्द कर दिय। मेरा विश्वास था कि एक समय क्रांति होगी और उसके लिए हमें तैयार रहना चाहिये इसलिए हमने थोड़े-थोड़े करके हथियारों का संग्रह करना आरम्भ कर दिया। मेरे साथियों में श्री उल्लासकर दत्त ने बम बनाना आरम्भ किया। श्री हेमचन्द्र अपनी जायदाद को बेचकर फ्रांस गये और वहाँ से बम बनाना सीख कर मकैनिक उल्लासकर के साथ बम बनाने के काम में जुट गये।

वारीन्द्र कुमार के साथी श्री उपेन्द्रनाथ बनर्जी ने अपने बयान में कहा था वह अपने देश के नौजवानों को अपने देश की गिरी हुई हालत का बताता था और कहता था कि हमारी उन्नति बिना आजाद हुए सम्भव नहीं और बिना लड़ाई के आजादी मिलने वाली नहीं। अतः अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए गुप्त संस्थाएं कायम करना और हथियार संग्रह करना आवश्यक है जिससे कि अवसर मिलते ही विद्रोह खड़ा किया जाये।
वारीन्द्र घोष द्वारा संस्थापित अनुशीलन समितियाँ इन संकट के दिनों में बराबर काम करती रहीं। 1918 तक तो वह काफी मजबूत हो गई थी। इन समितियों में शामिल होने वालों के लिए माँ की मूर्ति के सामने संस्था के प्रति वफादार रहने की शपथ लेनी पड़ती थी।

इस षड्यन्त्र केस में 38 अभियुक्त थे जिनमें एक नरेन्द्र गोस्वामी भी था। चीफ जस्टिस के कथनानुसार अभियुक्तों में अधिकांश मनुष्य पक्के धार्मिक विश्वासों की शिक्षा से दीक्षित थे। चीफ जज ने यह भी लिखा थाः. कि इससे पहले इन्होनें कोई कहने योग्य षड्यंत्र नहीं रचा था। यही इनका पहला बड़ा और अन्तिम षड्यंत्र था। इस षड्यंत्र में इन्होने अपनी क्रियाशीलता, सत्साहस और दृढ़ संकल्प.शक्ति का पूर्ण परिचय दिया था।

हाइकोर्ट से वारीन्द्र की सजा आजन्म काला पानी की रह गई थी। वे बारह वर्ष काले पानी में रहे। ये बारह वर्ष उन्हें मृत्यु से भी बूरे पड़े। सन् 1920 में छूटने के बाद उन्होनें श्री सी॰आर॰ दास के सहयोग में काम करना आरम्भ कर दिया। इसके बाद पांडीचेरी अपने भाई के पास चले गये जहाँ से “बिजली“ नामक पत्र निकालकर अपने विचारों का प्रचार करते रहे।

दिनांक 18.04.1959 को क्रांतिवीर देवगति को प्राप्त हुये।

महाराष्ट्र के वीर चापेकर बन्धु

Damodar Chapekar

जब शासकों में अथवा राज-सत्ता में भ्रष्टाचार फैलता है, तब देश के लोगों में स्वार्थपरता की मात्रा इतनी बढ़ जाती है कि वे दूसरों के दुःख की तनिक भी परवाह नहीं करते -शोषण अपनी चरम सीमा पर पहुँच जाता है तब क्राँति का होना अनिवार्य हो जाता है।

सन् 1857 के गदर के बाद कम्पनी के स्थान पर जब ब्रिटिश जाति का भारत पर शासन हो गया और ज्यों-ज्यों समय बीतता गया, ब्रिटिश जाति अपने शासन को मजबूत और भारतीयों के हितों का अपहरण तथा उनके आत्माभिमान का हनन करने लगी।

सन् 1885 ईस्वी में काँग्रेस कायम हो चुकी थी। देश के बड़े कहलाने वाले लोग उसमें शामिल हो रहे थे। वे बड़ी मीठी आवाज में ब्रिटिश सरकार से अपने फौलादी पंजे को शनैः शनैः ढीला करने और हिन्दुस्तानियों को आर्थिक, सामाजिक और राजनैतिक सुविधायें देने की माँग कर रहे थे किन्तु मदोन्मत शासक काँग्रेस के आवेदनों की कोई भी परवाह नहीं कर रहे थे। सरकार के इस प्रकार के रूख और रोज-रोज हिन्दुस्तानियों को दबाने के नये-नये प्रयत्नों से नौजवान भारतीयों के अन्दर तिलमिलाहट पैदा हो रही थी।

देश के हर कोने में किसी न किसी रूप में अंग्रेज शासकों के काले कारनामें का विरोध होने लगा। महाराष्ट्र में श्री बाल गंगाधर तिलक ने कड़कती आवाज में अंग्रेज शासकों की आलोचना आरम्भ कर दी। उन्होनें ’मराठा’ और ’केसरी’ नामक पत्रों का प्रकाशन किया और उनके द्वारा वे भारतीय जनता के पक्ष को सामने रखने और नौकरशाही के रवैये की पौल खोलने का काम करने लगे। इतनी बात पर ही उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और सर विलियम हण्टर, सर रिचर्ड गाथ, प्रो0 मैक्समूलर, मि0 विलियम कैन जैसे उदार यूरोपियनों तथा दादा भाई जैसे भारतीय महानुभावों की प्रार्थना पर उन्हें छोड़ा गया। इसी बीच ताजीराज हिन्द में 124, 153 जैसी धाराएं जोड़ दी गई।

1893 ई0 में बम्बई में हिन्दू मुस्लिम दंगों के बाद महाराष्ट्र में हिन्दु धर्म सरंक्षिणी सभा की स्थापना हुई। गणेश पूजा व शिवाजी उत्सव के आयोजन होने लगे और इन सबका संचालन चित्पावन ब्राहम्ण दामोदर व बालकृष्ण चापेकर ने किया। इन क्रान्तिवीरों ने गणपति पूजा व शिवाजी श्लोक को अपनी तरह से समझाया और लोगों की कायरता को ललकारा।

गणपति पूजा श्लोक “गुलामी से आत्महत्या ठीक है कसाई गौ वध करते हैं इसे दूर करो। मरो तो अंग्रेजो को मार कर मरो। चुप मत बैठो कुछ करो। अंग्रेजी राज वाजिब नहीं है।“

शिवाजी श्लोक “केवल शिवाजी गीत गाने से आजादी नहीं मिल सकती। शिवाजी व बाजीराव की तरह लड़ना होगा।“

सन् 1897 ई0 में पूना में प्लेग का प्रकोप हुआ। महामारी व दरिद्रता से जनता कराह रही थी। दूसरी तरफ 22 जून, 1897 को विक्टोरिया राज्यरोहन की 60वीं वर्षगांठ (हीरक जयंति) बनाई जा रही थी। प्लेग उपचार हेतु गर्वनर मिस्टर रैण्ड नामक अंग्रेज को बस्तियाँ खाली कराने का काम सौंपा गया। रैण्ड ने भारतीय महिलाओं के साथ अभद्र व्यवहार करना शुरू कर दिया। इस पर तिलक जी ने भी अपने तेवर बदले और इशारे को समझकर दामोदर चापेकर व उनके साथी द्रविड ने गर्वनर मिस्टर रैण्ड व लैफटिनेन्ट कर्नल आर्यस्ट का वध कर माँ भारती का सर गर्व से ऊपर उठाया।

द्रविड सरकारी गवाह बना व मुखबरी की जिस पर दामोदर चापेकर गिरफ्तार कर लिये गये। परन्तु क्रान्तिकारियों के कानून में गद्दार की सजा मौत से कम नहीं होती थी। बालकृष्ण चापेकर ने भरी अदालत में गद्दार द्रविड को मौत की सजा दी। वासुदेव, रानाडे व चार अन्य को फाँसी की सजा हुई।

“केसरी“ में दिनांक 15.06.1897 को हमारे मार्ग में बाधा डालने वालों को खत्म कर दिया जायेगा, क्रान्ति व अफजल जैसे लोगों का वध पाप नहीं होता जैसे समाचार प्रकाशित हुये।

अपने मुकद्दमें के दौरान प्रथम दोनों चापेकर बन्धुओं ने यह स्वीकार किया कि दोनों अंग्रेज हमारी ही गोली से मारे गये किन्तु हमारा लक्ष्य केवल गवर्नर मिस्टर रैण्ड था, लेफटिनेन्ट कर्नल आयस्र्ट तो अनायास ही मारे गये इसका हमें खेद भी है।

दामोदर चापेकर को दिनांक 18 अप्रेल 1898, वासुदेव चापेकर को 8 मई, 1899 व बालकृष्ण चापेकर को 12 मई, 1899 को फाँसी दे दी गई। तीनों भाई हँसते-हँसते फाँसी के तख्ते पर चढ़ गये। देशवासियों ने चापेकर बन्धुओं की शहादत पर बहुत गौरव महसूस किया। महाराष्ट्र के लोग उन्हें दत्तात्रेय के समान मानने लगे। भगतसिंह, राजगुरू और सुखदेव को चापेकर बन्धुओं का अवतार माना।

यह कहा जा सकता है कि समस्त भारत में चापेकर बन्धु ही ऐसे प्रथम क्रांतिकारी शहीद थे जिन्होने हिंसा द्वारा अंग्रेजों को सबक देने का मार्ग अपनाया था।

प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम के योद्धा शहीद बाबू कुँवरसिंह

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प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम (1857) के महान योद्धाओं में बिहार के बुढ़े शेर बाबू कुँवर सिंह का शौर्य हमारे लिये प्रेरणादायी है। बिहार केसरी बाबू कुँवर सिंह का जन्म जगदीशपुर, जिला शाहाबाद, बिहार में सन् 1782 में हुआ। बाबू कुँवर सिंह पंवार राजपूत थे। ठाकुर कुँवर सिंह ने संस्कृत, फारसी में शिक्षा पाई थी और युद्ध-विद्या का भी पूरी तौर से अभ्यास किया था।

ठाकुर कुँवर सिंह अपने को महाराज विक्रमादित्य और राजा भोज के वंशज मानते थे। अलाउद्दीन ने जिस समय मालवा पर आक्रमण किया उस समय वहाँ के राजा शांतुन शाह अपने तीन पुत्रों सहित बिहार के भोजपुर में आ गये और इसे अपनी राजधानी बनाकर राज्य करने लगे। ठाकुर कुँवर सिंह के पिता साहबजादा सिंह जगदीशपुर में रहते थे और यहाँ से अपने इलाकों का प्रबन्ध करते थे। अब वे एक बड़े जमींदार थे।

जिस प्रकार गदर में पूर्वी उत्तर प्रदेश में मौलवी अहमदशाह, दक्षिण पश्चिम में महारानी लक्ष्मीबाई, मध्य भारत में तात्यां टोपे और महाराष्ट्र में नाना फड़नवीस ने अंग्रेजों की नाक में दम कर दिया था उसी भाँति बिहार के शाहाबाद जिले में ठाकुर कुँवर सिंह ने फिरंगियों को मात दी।

सिपाही विद्रोह के लिए 31 मई निश्चित थी किन्तु मेरठ में 10 मई को ही सूत्रपात हो गया। आगरा में जो अंग्रेजों की सैनिक छावनी थी उसमें भी विद्रोह हो गया। ऐसे समय ठाकुर कुँवर सिंह जैसे देशभक्त का चुप रहना कैसे सम्भव था। वह विद्रोह में शामिल हो गये। 27 मई 1857 को ‘आरा’ पर कब्जा कर लिया। 29 मई को कप्तान डनवर ने एक बड़ी सेना लाकर आरा को अंग्रेजी अधिकार में करना चाहा किन्तु वीर कुँवरसिंह ने कप्तान डनवर का वध कर दिया। तुरन्त दूसरा अंग्रेज अफसर एक बड़े तोपखाने के साथ आरा पर चढ़ आया। मेजर इर्रे के पाँव भी उखड़ने वाले ही थे कि एक और अंग्रेजों की फौज आ गई। अपने को फँसा हुआ देखकर ठाकुर कुँवरसिंह जगदीशपुर की ओर लौट आये।

मेजर इर्रे और दूसरे अंग्रेजों की विशाल सेनाओं ने जगदीशपुर की ओर कूच किया। बीबी गंज और दुलउर में ऐसी दो भीषण लड़ाईयाँ शुरू हुई कि अंग्रेज घबरा उठे। उनके हजारों आदमी जिनमें सैंकड़ों अंग्रेज भी थे देखते रहे।

अब ठाकुर कुँवर सिंह के पास इतने सैनिक नहीे रह गये कि वे सीधा मुकाबला कर सकें। अतः उन्होनें छापामार युद्ध की नीति अपनाई।

एक समय जबकि अंग्रेजों की बहुत सी सेनाएं लखनऊ की ओर मौलवी अहमदशाह को दबाने के लिए जा रही थी आपने आजमगढ़ पर कब्जा कर लिया और सरकारी खजाने के रूपये से हजारों आदमियों को अपनी सेना में भर्ती कर लिया। मिलमैन को जब यह समाचार मिला तो वह एक तोपखाना लेकर आजमगढ़ की ओर बढ़े किन्तु ठाकुर कुँवर सिंह ने आजमगढ़ से 25 मील दूर अतरौलिया में उनके तोपखाने पर हमला कर दिया और मिलमैन को पीछे हटना पड़ा।

मिलमैन की हार का समाचार पाकर कर्नल हाॅम्स अपना रिसाला लकर आजमगढ़ पहुँच गये। किन्तु उन्हें भी हार खानी पड़ी। इन विजयों से उत्साहित होकर ठाकुर कुँवर सिंह ने बनारस की ओर कूच किया। इस समाचार को सुन कर लार्ड कैनिंग ने जो उन दिनों इलाहाबाद आये हुए थे। लार्ड मार्कर को बड़ी सेना देकर मुकाबले के लिए भेजा। कुँवर सिंह जब एक नौका में बैठ कर गंगा को पार कर रहे थे एक अंग्रेज की गोली उनकी बाँह में लगी। आपने तलवार से बाँह काट कर गंगा में यह कहते हुए डाल दिया तू शत्रु की गोली खा चुकी है और एक हाथ से युद्ध करना शुरू किया।

अस्सी वर्ष के इस क्षत्रिय वीर ने मरते दम तक अंगेजों का सामना किया। यद्यपि अंग्रेज सभी जगह विद्रोह को दबा चुके थे तो भी 23 अप्रैल सन् 1858 को आपने शाहाबाद पर कब्जा कर लिया। वहाँ अंग्रेज लोगों ने आपका अपूर्व स्वागत किया। उनका पूरा राज्य अब स्वतन्त्र था। किन्तु वृद्धावस्था और शरीर के जख्मों की पीड़ा ने 23 अप्रैल 1858 को उन्हें इस संसार से उठा लिया।

बाबू कुँवरसिंह की भाँति ही उनके छोटे भाई अमरसिंह भी बड़े बहादुर थे। कुँवरसिंह की घायलावस्था में अमरसिंह ने सेना का नेतृत्व किया था।

प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के योद्धा शहीद जियालाल

लखनऊ के नवाब वाजिदअली ने भी जियालाल जी को नसरत जंग का खिताब उनकी बहादुरियों पर खुश होकर दिया था। यह वीर कमाण्डर के ओहदे पर अवध की सेना में काम करता था। इन्हें गंगाघाट पर कानपुर की ओर से लखनऊ पर धावा न हो, इसके लिए नवाब वाजिदअली ने सीमा-रक्षक नियुक्त किया था। इंग्लैण्ड जाते हुए नवाब वाजिद अली ने अपने एक पुत्र बरजिल्स को गद्दी देकर अपनी तीसरी बेगम को उनका संरक्षक नियुक्त किया था। वाजिदअली कलकते में बीमार हो गये और इधर गदर आरम्भ हो गया। कानपुर की ओर से लखनऊ पर हमला करने वाली फौजों को रोकने के लिए नसरत जंग जियालाल ने इंच-इंच भूमि पर अंग्रेजी सेनाओं का मुकाबला किया। जब उसके पास बहुत थोड़े आदमी रह गये तो इसकी सूचना देने के लिए बेगम साहिबा के पास लखनऊ आया। लखनऊ वह थोड़े से आदमियों के साथ अंग्रेजीं सेना के द्वारा घेर लिया गया। जहाँ लखनऊ के टावर पावर के पास अंग्रेजों की शहीदी के स्मारक बने हुए हैं वहीं वीर जियालाल भी शहीद हुआ।

जियालाल नवाब वाजिदअली की सेनाओं के कमाण्डर श्री दर्शनसिंह के पुत्र थे और डाली बाग में रहते थे। यह डाली बाग दर्शनसिंह ने ही बनवाया था।

स्वतन्त्रता भिलाषिणी, अद् भुत शौर्यशालिनी, वीरांगना झाँसी रानी लक्ष्मीबाई

झाँसी की रानी

झाँसी की पुण्य.कीर्ति महारानी लक्ष्मीबाई का जन्म भागीरथी बाई की कोख से पुण्य नगरी काशीपुरी में अस्सी घाट पर कार्तिक बदी 14 संवत् 1891 (15 नवम्बर 1835) को हुआ था। पेशवा बाजीराव के भाई चिमाजी अप्पा के नियोजन में “मोरोपन्त तावे“ नामक एक महाराष्ट्रीय सज्जन थे अप्पा उस समय सरकार से कुछ पेन्शन लेकर काशी में रहते थे।

चतुर्दशी की पुण्य तिथि को मोरोपंत को एक कन्या की प्राप्ति हुई। इस रत्न का नाम मनूबाई रखा गया। यह रत्न मोरोपन्त के घर का ही रत्न न था, वह भारत माता का एक दैदीप्यमान रत्न हुआ। संसार के अमर इतिहास में सबसे ऊपर जड़ा जाने वाला यह रत्न निकला। तीन-चार साल के अन्दर ही चिमोजी अप्पा और मनूबाई की माता का देहान्त हो जाने से मोरापन्त इस रत्न को लेकर ब्रह्मवर्त हो गये।

कानपुर के समीप गंगा के किनारे बिठूर का ब्रह्मवर्त नामक एक गाँव हैं। सम्राज्य बना कर हिन्दुस्तान पर एक समय राज्य करने वाले पेशवाओं के आखिरी पेशवा बाजीराव प्रतिवर्ष 8 लाख की पेन्शन लेकर अंग्रेजों का दिया हुआ अन्न खाते हुए इसी बिठूर गाँव के एक राजमहल में अपने आखिरी दिन काट रहे थे। पर बिठूर में गंगा किनारे बालू पर उस समय एक अभूतपूर्व उत्साह फैला था। 1857 के क्रांन्ति युद्ध में जो अमर हो गये हैं उनमें से बहुत से उस समय बिठूर की बालू पर किले बना रहे थे, घोड़ों पर चढ़ रहे थे, तलवार, बरछी, भाला, पठा इत्यादि युद्ध विद्याओं की शिक्षा प्राप्त कर रहे थे।

पेशवा बाजीराव के दो पुत्र नाना साहब और बाला साहब, पौत्र राव साहब तथा क्रांन्ति युद्ध के वीरवर सेनापति धैर्य मूर्ति तात्यां टोपे अपने गुरू द्वारा उस बालू पर वीर रस से भरी हुई रामायण, महाभारत की कथाऐं सुन रहे थे उनमें एक महिला भी थी। मनुबाई की शिक्षा, घुड़सवारी, युद्ध विद्या बाजीराव के दत्तक पुत्र नाना धुन्धूपन्त एवं राव साहिब के साथ हुई। मोरोपन्त ताँबे की मनूबाई ने अपने अद्वितीय रूप, गुण, चातुर्य से बिठूर के लोगों को मोहित कर लिया था। वह बालिका पेशवा के राजमहल में छबीली हो गई थी। छबीली नाम उनको बाजीराव ने दिया था। यह छबीली आगे जाकर झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई हुई और उसके बाद ग्वालियर में यह वीर भारत की स्वतन्त्रता के लिए लड़ते-लड़ते झाँसी की बिजली कहला कर अन्त्रध्यान हो गई थी।
झांसी महाराज पेशवा गंगाधर राव की पहली स्त्री का देहान्त हो गया। उनके कोई पुत्र न था इसलिए उनकी दूसरी शादी बिठूर के राजमहल में पलने वाली इस बालिका से हो गई। झाँसी में आने के बाद उनका नाम लक्ष्मीबाई रखा गया। सन् 1851 में रानी के एक लड़का हुआ पर तीन ही महीने के अन्दर वह काल का ग्रास हो गया। इस धक्के से 21 नवम्बर 1853 को गंगाधर राव नामक अपने ही खानदान के एक लड़के को गोद ले लिया था जिसका नाम दामोदर राव था।

उस समय भारत पर फिरंगियों के प्रतिनिधि लार्ड डलहौजी का शासन था। अंग्रेजों की सम्राज्य-तृष्णा उस समय इतनी बढ़ गई थी कि लार्ड डलहौजी सतारा, तंजौर, नागपुर और पंजाब के राज्य अंग्रेजी अमलदारी में मिला चुके थे। लार्ड डलहौजी ने इस स्त्री की भी अवहेलना की। झाँसी पर रानी का उत्कृष्ठ प्रेम था। जब रानी ने लार्ड डलहौजी की आज्ञा सूनी तो उनकी आँखों में अश्रुधारा बहने लगी, उनका गला भर आया और अभिमान से भरे हुए करूणा शब्दों में उन्होने कहा कि “मैं अपनी झाँसी नहीं दूँगी।“ रानी के इन शब्दों से ही यह अच्छी तरह मालूम हो जाता है कि झाँसी पर उनका कितना प्रेम था। 7 मार्च, 1853 को डलहौजी ने झाँसी ब्रिटिश राज्य में मिला लिया।

क्रांन्ति युद्ध की पहली चिन्गारी 29 मार्च 1857 को भड़क उठी जब बैरिकपुर की पलटन के सिपाही मंगल पाण्डेय ने बिगुल बजाकर जंग-ए-आजादी का एलान कर दिया था। 6 अप्रैल को मंगल पाण्डेय को फाॅंसी पर चढ़ा दिया गया। पर सैंकड़ों मंगल पाण्डेय 10 मई को मेरठ में तैयार हो गये और विद्रोह का झण्डा खड़ा कर दिया। 4 जून को कानपुर में नाना साहब के अधीन युद्ध की घोषणा होते ही 7 जून को झाँसी में स्वराज्य के नारे लगने लगे।

इस विद्रोह में रानी लक्ष्मीबाई का कुछ भी हाथ न था। उल्टे जितना हो सका उतनी सहायता अंग्रेजों की ही की। उन्हें गेहूँ की रोटियाँ भेजी, उन्हें दतिया में भाग जाने की सलाह दी तथा 100 सिपाही और दिन की रसद भी भेजी। अंग्रेज इतिहास लेखक और झाँसी के कत्ल से बचे हुए मार्टिन दोनों ने इस बात को स्वीकार किया है। पहले दिन के कत्ल में 75 अंग्रेज पुरूष, 19 स्त्रियाँ तथा 23 बच्चे मारे गये। कत्ल के बाद खजाना लूट कर अंग्रेजों के बंगले जला कर तथा रानी से तीन लाख रूपये जबरदस्ती लेकर सिपाही दिल्ली की तरफ चले गये। झाॅंसी बिना छत्र के हो गई पर 9 जून को राज्य व्यवस्था का काम रानी ने फिर अपने हाथ में लिया। अंग्रेजों की जो लाशें रास्ते में पड़ी थी उनको इकट्ठा कर रानी ने उनका योग्य अंतिम संस्कार किया। जबलपुर तथा आगरे के कमिश्नरों को रानी ने चिट्ठी लिख कर बता दिया कि प्रजा पर अत्याचार न हो इसलिए मैं अंग्रजों की तरफ से झाँसी पर राज कर रही हूॅं। पर ये सब चिट्ठियां किसी ने बीच में ही षड्यन्त्र कर गायब कर दी।

रानी ने राज्य की व्यवस्था बहुत अच्छी तरह से की। चोर और डाकुओं का दमन किया। पर एक अबला के हाथ यह राज्य देखकर रानी के पिता का एक दूर का भाई अपने को झाँसी का महाराजा कह कर झाँसी पर आक्रमण करने आया और उसने झाँसी से 30 मील दूर करेरा नाम के किले पर अपना आधिपत्य जमाया। रानी ने भी अपनी तरफ से खूब तैयारी करके उस नये झाँसी के महाराज को ग्वालियर भगा दिया। इसके बाद रानी पर फिर संकट आया। झाँसी से डेढ़ दो मील पड़ने वाले ओरछा गाँव के दीवान नत्थे खाँ ने दतिया की फौज की सहायता से झाँसी शहर को घेर लिया। रानी अपने किले पर अंग्रेजों का यूनियन झण्डा और पेशवाओं का भगवा (गेरूआं) झण्डा दोनों फहराये और मर्दाना वेष में खुद हाथ में तलवार लेकर नत्थे खाँ का सामना किया। नत्थे खाँ भाग गया। चिढ़ कर उसने अंग्रेजों को लिख दिया कि रानी विद्रोहियों में शामिल हो गई हैै।

19 मार्च 1858 तक झाँसी पर रानी लक्ष्मीबाई का शासन रहा। रानी रोज सवेरे अखाड़े में जाकर दण्ड-बैठक, मलखम्ब, जंबिया चलाना इत्यादि व्यायाम और कसरत करती थी। किसी दिन पुरूष के वेष में किसी दिन स्त्री के वेष में वह खुद दरबार में आकर हुक्म लिखती थी। तलवार के साथ कलम का भी काम रानी अच्छी तरह से जानती थी। रियासत के बड़वासागर नामक गाँव में डाकुओं ने बड़ा उपद्रव मचा रखा था। रानी खुद 15 दिन वहाँ रही और उन्होनें उन डाकुओं का दमन किया। घायल सिपाहियों की देखभाल खुद रानी किया करती थी। झाँसी की सब प्रजा रानी को माता से भी अधिक प्यार करती थी। अंग्रेज यही समझते थे कि रानी विद्रोहियों में शामिल हो गई है। रानी के राजभक्त रहते हुए भी जब अंग्रेजों ने अपने सेनापति सर ह्युरोज को 60 हजार सेना के साथ झाँसी पर भेजा तो उनका अभिमान जागृत हो गया। रानी को अंग्रेजों की कुटिल नीति से घृणा हो गई और उन्होनें उस समय मरते दम तक अंग्रेजों से लड़ते़ रहने का निश्चय किया। जोर-शोर से झाँसी के कारखानों में खुद रानी की देख भाल में बारूद बनने लगे।

20 मार्च 1858 को सर ह्युरोज ने झाँसी को घेर लिया। 22 वर्ष की इस युवती ने खुद हाथ में तलवार लेकर युद्ध विद्या में बाल सफेद करने वाले सर ह्युरोज का आह्नान स्वीकार किया। उस समय मालूम पड़ता था कि प्रत्यक्ष भगवती दुर्गा ने अवतार धारण किया है। अंग्रेजों की तोपें गर्जने लगी। रात के समय तोप के लाल-लाल गोले आकाश में घूमते तथा फूटते देख कर लोगों के हृदय थर्रा उठते थे। झाँसी की स्त्रियाँ भी इस युद्ध में अपनी शक्ति भर काम करने लगी। रानी ने गाँव में अन्न बाँटना शुरू किया।

एक दिन अंग्रेजों का एक गोला झाँसी के बारूदखाने पर गिरा और सारे की सारे बारूद का इतने जोर से विस्फोट हुआ कि झाँसी शहर हिल उठा और 30 पुरूष तथा स्त्रियाँ वहीं ढेर हो गये। इस समय पेशवा के सेनापति तात्यां टोपे कालपी में थे। रानी ने उनके पास मदद के लिए सन्देश भेजा। तुरन्त तात्यां टोपे 22 हजार सेना लेकर आये और अंग्रेजों पर पीछे से हमला कर दिया। इसी समय अगर झाँसी वालों ने भी आगे से आक्रमण किया होता तो अंग्रेजों की हार निश्चित थी पर हमारा भारत वर्ष फूट के विष से आज तक नष्ट हो रहा है। ऐसे कठिन वक्त किले का एक हवलदार अंग्रेजों से मिल गया और उसने किले पर से एक भी गोला अंग्रेजों पर न छोड़ने दिया। अन्त में तात्यां टोपे को कालपी लौट जाना पड़ा। तात्यां टोपेे की हार सुन कर रानी ने धीरज न खोया। 4 अप्रैल को अंग्रेज शहर की दीवार पर सीढि़याँ लगाकर अन्दर आने लगे। रानी ने घनघौर संग्राम शुरू किया। रास्ते-रास्ते में घर-घर के पास अंग्रेजों का और झाँसी की सेना का युद्ध होने लगा। खुद रानी हाथ में तलवार लेकर दिन भर अंग्रेजों से लड़ती रही। अंग्रेज तलवार की लड़ाई में न टिक सके पर दीवारों की आड़ में छिप-छिप कर उन्होनें गोली चलाना शुरू कर दिया। निरूपाय होकर रानी को किले में लौटना पड़ा। फिर क्या था कत्ले.आम और आग लगाया जाना शुरू हुआ। रानी से यह न देखा गया और उन्होने “जौहर“ करने की ठानी पर कुछ विचार करने के बाद उन्होनें कालपी में रावसाहब पेशवा और तात्यां टोपे के पास जाने का निश्चय किया। अन्धकार होते ही 300 आदमियों के साथ रानी खुद ह्युरोज की छावनी में से सेना काटती हुई कालपी की तरफ चली। रानी ने पीठ पर 12 साल के लड़के दामोदरराव को बाँध लिया था। अंग्रेजों ने अपनी तोपों के साथ रानी का पीछा किया पर रानी का घोड़ा तीर के वेग से जा रहा था। उनके साथ सिर्फ एक नौकर और एक दासी बच गई थी। 21 मील तक लेफ्टनेन्ट वोकर ने उसका पीछा किया, पर भांडेर नामक गाँव के पास रानी ने वोकर साहब पर इस प्रकार तलवार चलाई कि वह उछल कर घोड़े के नीचे जा गिरा। बिना अन्न पानी के लगातार 24 घंटे में रानी 102 मील जमीन चल कर कालपी पहुंची। रानी की इस वीरता का वर्णन अंग्रेजों ने भी बड़े आदर के साथ किया है।

5 अप्रैल को झाँसी में कत्ल.आम शुरू हुआ। 5 साल से लेकर 80 साल तक जो भी पुरूष मिले सब गोली के शिकार बनाये गये। पुरूषों को बचाने के लिए स्त्रियाँ आगे आती थी। घर की दीवार तोड़-फोड़ कर देखा जाता था कि कहीं सोना तो नहीं छिपा रखा है। कितने लोग कुओं में कूदे पर वहाँ भी वे बच नहीं पाये। एक जगह अग्नि हौत्र के कुण्ड पर दौरी ढ़क दी गई गोरों ने सोचा कि उसमें सोना छिपा कर रखा है इसलिए उन्होनें उसमें हाथ डाले तो वे जल गये। तीसरे दिन भी यही हाल था। इन तीन दिनों में शहर में जो कुछ मूल्यवान था सब लूट लिया गया। करोड़ों रूपयों का माल मिला। झाँसी का प्रसिद्ध वाचनालय तथा पुस्तकालय भी नष्ट कर दिया गया। इस पुस्तकालय के लिए काशी के पंडित झाँसी जाते थे। सात दिन की इस लूट के बाद “खल्क खुदा का, मुल्क बादशाह का, अमल अंग्रेज सरकार का“ इस प्रकार की डुग्गी पीटी गई। इस काण्ड में करीब 20 हजार लोग मारे गये। बहुतों को फाॅंसी दी गई। रानी के पिता मोरोपन्त को दतिया के राजा ने विश्वासघात से अंग्रेजों को सुपुर्द कर दिया। उनको भी फाँसी दी गई।
झाँसी लेने के बाद सर हयूरोज ने कालपी लेने की बात सोची। इधर तात्यां टोपेे और रानी ने मिल कर झाँसी की तरफ सेना चलाई। दोनों सेनाओं का मुकाबला 6 मई को कुंचगांव में हुआ जिसमें रानी की हार हो गई और उनको कालपी लौट जाना पड़ा। इसके बाद 16 मई को रोज अंग्रेजी सेना के साथ कालपी पहुंचा और लड़ाई शुरू कर दी। इस लड़ाई में रानी ने अपना अद्भुत पराक्रम दिखाया। अपने 200 सवारों के साथ रानी ने अंग्रेजों का तोपखाना बन्द कर दिया। स्टुअर्ट नामक अंग्रेज अधिकारी अपनी सेना के साथ रानी की ओर चढ़ आया पर जल्दी ही उसके भी पैर उखड़ गये। रानी अब लड़ाई जितने ही वाली थी कि अंग्रेजों की एक ऊँटों की पलटन पहुंच गई और लड़ाई का रंग बदल गया। तात्यां टोपे के सिपाही भाँग पीकर लड़ रहे थे। अन्त में 24 मई को रोज का कालपी पर अधिकार हो गया।

कालपी की हार के बाद विद्रोहियों की एक सभा गोपालपुर में हुई और रानी की सलाह से तय हुआ कि अब ग्वालियर का किला अपने हाथ में कर लेना चाहिये। रानी की इस सलाह की मैलेसन नामक इतिहास लेखक ने बड़ी तरीफ की है। ग्वालियर में 23 वर्ष के जयाजीराव सिधिंया राज करते थे। राज्य का सारा प्रबन्ध उनके मन्त्री सर दिनकर राव राजबाड़े करते थे। इन दोनों ने विद्रोहियों से मिलना अस्वीकार कर दिया और अपनी सेना लेकर रानी से युद्ध करने के लिए आये। रानी ने बड़ी ही वीरता से उनको हरा दिया और 31 मई को ग्वालियर शहर और मुरार के किले पर पेशवा का कब्जा हो गया। 3 जून को फूलबाग में नाना साहब केे प्रतिनिधि की हैसियत से राव साहब का अभिषेक किया गया। दरबार हुआ और सब का योग्य सम्मान किया गया। इसके बाद पेशवा चुप्पी साध कर बैठ गये। रानी ने उनको कितना कहा कि आगरा वगैरह फिर लेना चाहिये पर उन्होने न सुना और फिर ब्राह्मण भोजन और ऐश आराम होने लगा।
कालपी लेने के बाद सर हयूरोज पेन्शन लेकर विलायत जाने की तैयारी कर ही रहे थे कि उन्होने रानी के ग्वालियर पर अधिकार जमा लेने की बात सुनी। उनकी छुट्टी नामंजूर कर दी गई। उन्होनें फिर एक चाल चली, आगरे से उन्होनें जयाजीराव सिंधिया की सेना को आगे-आगे चलाया और ग्वालियर पर आक्रमण कर दिया। कोटा की सराय की तरफ से स्मिथ ने आक्रमण किया पर 14 और 17 तारीख को दोनों दिन रानी के सामने उसकी एक न चली। 18 जून को एक तरफ से स्मिथ ने और दूसरी तरफ से सर हयूरोज ने रानी पर आक्रमण किया। रानी मर्दाना वेष में घोड़े पर सवार थी। युद्ध के बाद रानी के पास सिर्फ 10-20 सवार बचे। अंग्रेजों ने चारों तरफ से उनको घेर लिया। रानी झाँसी की सहेली महिला फौज की सैनिक झलकारी बाई ने संकट की स्थिति को भांपकर रानी झाँसी की पोशाक पहनकर लड़ते-लड़ते शहीद हुई व रानी को वहाँ से निकलने का मौका दिया। मौका पाते ही रानी ने अंग्रेजों का घेरा तोड़ कर पेशवा से मिलने हेतु निकली। रानी ने तीव्र गति से तलवार घुमाते हुए अंग्रेजों का घेरा तोड़ डाला और तीर की तरह जो सिपाही मिले उसे काटती हुई चली। स्मिथ के घुड़सवारों ने उनका पीछा किया। रानी का घोड़ा उस दिन नया ही था वह एक जगह पानी देखकर बिगड़ गया, स्मिथ के सिपाहियों ने चारों तरफ से उन पर हमला कर दिया। रानी के चेहरे पर तलवार लगने से उनकी एक आँख निकल आई, और रानी की छाती में किर्च भोंप दी जिससे पेट में संगीन से 2 बड़े घाव लगे, ऐसी दशा में भी रानी ने कितने गोरों को तलवार के घाट उतार दिया। अन्तिम समय निकट देखकर उनके विश्वासपात्र अनुचर सरदार रामचन्द्रराव उन्हे पास ही में बाबा गंगादास की कुटिया में ले गये और उनके मुँह में गंगाजल छोड़ा। उनके शरीर का उसी समय घास की चिता बना कर अग्नि-संस्कार किया गया, इस प्रकार वह वीरांगना, आधुनिक काल की देवी दुर्गा, झाँसी की बिजली ज्येष्ठ सुदी 6 तारीख 18 जून 1859 को भूमि को धन्य करती हुई परलोक को पधारी।

रानी के शौर्य की तारीफ उनके शत्रुओं ने भी की है। सर हयूरोज, लो, मार्टिन, अर्नोल्ड, टाॅरेन्स, म्याकर्थी इत्यादि अनेक लेखकों ने रानी की बड़ी प्रशंसा की है। 17 दिन दिन तक रानी झाँसी के किले को बचाया। अंग्रेजों के झाँसी लेने पर उनकी आँखों के सामने वह जादू की तरह कालपी की ओर दौड़ गई। ग्वालियर लेने की बात उनकी राजनीतिक निपुणता प्रकट करती है। के.आर.मैलसैन नाम के दो इतिहासकारों ने यहाँ तक कहा है कि हिन्दुओं की दृष्टि से रानी अपने धर्म और स्वराज्य के लिए लड़ी। उनके राज्य ले लेने में अन्याय किया गया। उनके साथ बर्बरतापुर्ण कार्य किया गया। जहाँ लार्ड कर्जन जैसे आदमियों ने रानी की तारीफ की है तब औरों की क्या बात। झाँसी के विद्रोह में उनका हाथ न था। दस महीने का उनका राज्य रामराज्य कहलाता था। गोद लिये पुत्र को हमेशा युद्ध में भी पीठ पर बाँधकर सँभालते देखकर उनके पुत्र-प्रेम की जितनी प्रशंसा की जाये थोड़ी है। रानी लक्ष्मीबाई भारत के इतिहास में बिजली की तरह चमकती रहेगी। एक हरे बदन की, गोरी, सुन्दर युवती ने घंटों, दिनों, घोड़े पर बैठ कर युद्ध किया। वे भारत की स्वातन्त्रतय लक्ष्मी थी। क्रांति-युद्ध को लोग भूल जावेगें पर महारानी लक्ष्मीबाई का नाम नहीं भूल सकेंगे। भारत के इतिहास में रानी का नाम अमर रहेगा। संसार के रमणी-रत्नों में रानी का नम्बर पहला होगा।