जब शासकों में अथवा राज-सत्ता में भ्रष्टाचार फैलता है, तब देश के लोगों में स्वार्थपरता की मात्रा इतनी बढ़ जाती है कि वे दूसरों के दुःख की तनिक भी परवाह नहीं करते -शोषण अपनी चरम सीमा पर पहुँच जाता है तब क्राँति का होना अनिवार्य हो जाता है।
सन् 1857 के गदर के बाद कम्पनी के स्थान पर जब ब्रिटिश जाति का भारत पर शासन हो गया और ज्यों-ज्यों समय बीतता गया, ब्रिटिश जाति अपने शासन को मजबूत और भारतीयों के हितों का अपहरण तथा उनके आत्माभिमान का हनन करने लगी।
सन् 1885 ईस्वी में काँग्रेस कायम हो चुकी थी। देश के बड़े कहलाने वाले लोग उसमें शामिल हो रहे थे। वे बड़ी मीठी आवाज में ब्रिटिश सरकार से अपने फौलादी पंजे को शनैः शनैः ढीला करने और हिन्दुस्तानियों को आर्थिक, सामाजिक और राजनैतिक सुविधायें देने की माँग कर रहे थे किन्तु मदोन्मत शासक काँग्रेस के आवेदनों की कोई भी परवाह नहीं कर रहे थे। सरकार के इस प्रकार के रूख और रोज-रोज हिन्दुस्तानियों को दबाने के नये-नये प्रयत्नों से नौजवान भारतीयों के अन्दर तिलमिलाहट पैदा हो रही थी।
देश के हर कोने में किसी न किसी रूप में अंग्रेज शासकों के काले कारनामें का विरोध होने लगा। महाराष्ट्र में श्री बाल गंगाधर तिलक ने कड़कती आवाज में अंग्रेज शासकों की आलोचना आरम्भ कर दी। उन्होनें ’मराठा’ और ’केसरी’ नामक पत्रों का प्रकाशन किया और उनके द्वारा वे भारतीय जनता के पक्ष को सामने रखने और नौकरशाही के रवैये की पौल खोलने का काम करने लगे। इतनी बात पर ही उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और सर विलियम हण्टर, सर रिचर्ड गाथ, प्रो0 मैक्समूलर, मि0 विलियम कैन जैसे उदार यूरोपियनों तथा दादा भाई जैसे भारतीय महानुभावों की प्रार्थना पर उन्हें छोड़ा गया। इसी बीच ताजीराज हिन्द में 124, 153 जैसी धाराएं जोड़ दी गई।
1893 ई0 में बम्बई में हिन्दू मुस्लिम दंगों के बाद महाराष्ट्र में हिन्दु धर्म सरंक्षिणी सभा की स्थापना हुई। गणेश पूजा व शिवाजी उत्सव के आयोजन होने लगे और इन सबका संचालन चित्पावन ब्राहम्ण दामोदर व बालकृष्ण चापेकर ने किया। इन क्रान्तिवीरों ने गणपति पूजा व शिवाजी श्लोक को अपनी तरह से समझाया और लोगों की कायरता को ललकारा।
गणपति पूजा श्लोक “गुलामी से आत्महत्या ठीक है कसाई गौ वध करते हैं इसे दूर करो। मरो तो अंग्रेजो को मार कर मरो। चुप मत बैठो कुछ करो। अंग्रेजी राज वाजिब नहीं है।“
शिवाजी श्लोक “केवल शिवाजी गीत गाने से आजादी नहीं मिल सकती। शिवाजी व बाजीराव की तरह लड़ना होगा।“
सन् 1897 ई0 में पूना में प्लेग का प्रकोप हुआ। महामारी व दरिद्रता से जनता कराह रही थी। दूसरी तरफ 22 जून, 1897 को विक्टोरिया राज्यरोहन की 60वीं वर्षगांठ (हीरक जयंति) बनाई जा रही थी। प्लेग उपचार हेतु गर्वनर मिस्टर रैण्ड नामक अंग्रेज को बस्तियाँ खाली कराने का काम सौंपा गया। रैण्ड ने भारतीय महिलाओं के साथ अभद्र व्यवहार करना शुरू कर दिया। इस पर तिलक जी ने भी अपने तेवर बदले और इशारे को समझकर दामोदर चापेकर व उनके साथी द्रविड ने गर्वनर मिस्टर रैण्ड व लैफटिनेन्ट कर्नल आर्यस्ट का वध कर माँ भारती का सर गर्व से ऊपर उठाया।
द्रविड सरकारी गवाह बना व मुखबरी की जिस पर दामोदर चापेकर गिरफ्तार कर लिये गये। परन्तु क्रान्तिकारियों के कानून में गद्दार की सजा मौत से कम नहीं होती थी। बालकृष्ण चापेकर ने भरी अदालत में गद्दार द्रविड को मौत की सजा दी। वासुदेव, रानाडे व चार अन्य को फाँसी की सजा हुई।
“केसरी“ में दिनांक 15.06.1897 को हमारे मार्ग में बाधा डालने वालों को खत्म कर दिया जायेगा, क्रान्ति व अफजल जैसे लोगों का वध पाप नहीं होता जैसे समाचार प्रकाशित हुये।
अपने मुकद्दमें के दौरान प्रथम दोनों चापेकर बन्धुओं ने यह स्वीकार किया कि दोनों अंग्रेज हमारी ही गोली से मारे गये किन्तु हमारा लक्ष्य केवल गवर्नर मिस्टर रैण्ड था, लेफटिनेन्ट कर्नल आयस्र्ट तो अनायास ही मारे गये इसका हमें खेद भी है।
दामोदर चापेकर को दिनांक 18 अप्रेल 1898, वासुदेव चापेकर को 8 मई, 1899 व बालकृष्ण चापेकर को 12 मई, 1899 को फाँसी दे दी गई। तीनों भाई हँसते-हँसते फाँसी के तख्ते पर चढ़ गये। देशवासियों ने चापेकर बन्धुओं की शहादत पर बहुत गौरव महसूस किया। महाराष्ट्र के लोग उन्हें दत्तात्रेय के समान मानने लगे। भगतसिंह, राजगुरू और सुखदेव को चापेकर बन्धुओं का अवतार माना।
यह कहा जा सकता है कि समस्त भारत में चापेकर बन्धु ही ऐसे प्रथम क्रांतिकारी शहीद थे जिन्होने हिंसा द्वारा अंग्रेजों को सबक देने का मार्ग अपनाया था।