भारतीय सशस्त्र क्रांति के इतिहास में 18 अप्रैल 1930 का दिन स्वर्ण अक्षरों में लिखा जाने योग्य है।
इस दिन भारत के महान क्रांतिवीर सूर्य सेन “मास्टर दा” के नेतृत्व में चटगांव के क्रांतिकारी दल “इंडियन रिपब्लिकन आर्मी “ ने चटगांव के पुलिस और सहायक बलों के शस्त्रागार के हथियारों को अपने कब्जे में ले लिया।
चटगांव का समस्त संचार तंत्र समाप्त कर अपना प्रशासन स्थापित कर लिया।
चटगांव जिला मुख्यालय पर यूनियन जैक को उतार कर भारत का तिरंगा लहरा दिया व फ़िरंगियों को उनकी औकात बतादी।
चार दिन तक चटगांव का प्रशासन क्रांतिकारीयों के हाथ मे रहा।
चटगांव में एक अध्यापक मास्टर सूर्य सेन ने “साम्याश्रम ” के नाम से एक क्रांतिकारी दल की स्थापना की । जिसने चटगांव के युवाओं व बच्चों में क्रांति ऊर्जा भर दी ।
ये लोग गांधी जी के आव्हान पर असहयोग आंदोलन के समय कांग्रेस में शामिल हो गए।
पर चोराचोरी घटना के बाद गांधी जी ने आंदोलन वापस ले लिया तो इनका अहिंसा से विश्वास उठ गया।
दिसंबर 1928 में कांग्रेस का 43वां अधिवेशन कलकत्ता में था। इस अधिवेशन में चटगांव ” साम्याश्रम” के सदस्यों की एक टीम भी शामिल हुइ।
सुभाष चंद्र बोस के नेतृत्व में 7000 स्वयं सेवको ने सैनिक वर्दी में कांग्रेस अध्यक्ष मोतीलाल नेहरू को गार्ड ऑफ ऑनर प्रदान किया जिसे देख चटगांव की टीम अतिप्रभवित हुई ।
टीम ने चटगांव आकर मास्टर दा व साथियों को बताया । विमर्श किया गया व साम्याश्रम का नाम “इंडियन रिपब्लिकन आर्मी” रख लिया तथा सशस्त्र क्रांति की तैयारी में लग गए।
चटगांव क्रांतिकारीयों ने चंद्रशेखर आजाद से भी संपर्क किया था। आजाद जी ने इन्हें सहायता का आश्वासन दिया तथा दो बढ़िया रिवॉल्वर भी दिए।
चटगांव इंडियन रिपब्लिकन आर्मी के अध्यक्ष मास्टर सूर्य सेन थे ।
आर्मी के आदर्श संगठन, साहस और बलिदान तय किये गए।
इंडियन रिपब्लिकन आर्मी ने अपने 20 लक्ष्य निर्धारित किये ।
(1) ऑग्ज़ीलियरी फोर्स ऑफ इंडिया के शस्त्रागार को लूटना
(2) पुलिस के शस्त्रागार को लूटना।
(3) आयूरोपियन क्लब के सदस्यों का वध कर क्लब के शोध संस्थान को नष्ट करना।
4)चटगांव के निकटवर्ती रेलवे स्टेशन की पटरियां उखाड़ देना ।
(5) टेलीफोन एक्सचेंज के तार काटकर अन्य स्थानों से उसका संबंध विच्छेद करना।
( 6)तार व्यवस्था नष्ट करना ।
(7)डाकघर को अधिकार में लेना। (8)बंदरगाह की वायरलेस व्यवस्था भंग कर देना।
(9) जेल तोड़कर कैदियों को मुक्त कर देना और राजनीतिक कैदियों को मुक्ति सेना में सम्मिलित करना।
(10)नगर की हथियारों की दुकान लूट लेना।
( 11 )इंपीरियल बैंक और कोष लूटकर धन प्राप्त करना ।
(12)नगर के उन मार्गों को नियंत्रण । (13)पुलिस लाइन के कार्यालय पर अधिकार करके उसे मुक्ति सेना का कार्यालय बनाना।
(14)चटगांव में स्वतंत्र सरकार की स्थापना करना।
(15)यूनियन जैक उतार कर उसके स्थान पर तिरंगा ध्वज फहराना। (16)गुरिल्ला युद्ध के योग्य स्थलों की खोज करना।
(17)फ्रांस अधिकृत प्रदेश में आश्रय स्थलों की खोज करना।
(18)अंग्रेज भक्त अवसरों का वध करना।
(19)नागरिक क्षेत्रों में सुरक्षा की भावना उत्पन्न करके उन्हें अपने पक्ष में करना।
(20)खतरे की स्थिति में बाहर की क्रांतिकारी पार्टियों से सहायता प्राप्त करना।
इस रूपरेखा के अनुरूप तैयारियां करने के बाद दिनाँक 18 अप्रैल 1930 को इंडियन रिपब्लिकन आर्मी के सभी सैनिक वर्दी पहन कर निजाम पलटन के मैदान में एकत्रित हुए।
रात्रि के ठीक 9:45 बजे सभी टुकड़ियों के दल नायकों को आक्रमण का आदेश दिया गया ।
निश्चित योजना अनुसार समय पर सभी टुकड़ियों ने अपने अपने कार्य में जुट गए।
तार व्यवस्था को ठप किया , रेल की पटरीयों को उखाड़ा , वायरलेस व्यवस्था ठप्प की , शस्त्रागार पर कब्जा कर हथियार कब्जे में लिये,
गणेश घोष और अनंत सिंह पुलिस अफसरों की वर्दी पहने अपनी गाड़ी में पुलिस शस्त्रागार के अंदर तक जा पहुंचे।
पहरे पर तैनात बंदूकधारी ने समझा बड़े अफसर निरीक्षण के लिए आए हैं।
सिपाही कुछ समझता इससे पहले ही गोली का शिकार हुआ।
क्रांतिकारीयों ने माल खाने से हथियार व अपने लिए उपयोगी सामान गाड़ी में लाद लियाया तथा शेष को पेट्रोल छिड़ककर आग लगा दी ।
लोकनाथ बल कर मिलिट्री की वर्दी में हेलमेट लगाए हुए सेना के शस्त्रागार तक पहुंचे ।
सामने एक सिपाही खड़ा था। जिसे गोली मार दी गई।
अंग्रेज अफसरों का भोजनालय पास में ही था । वहां से कुछ सैनिक आये । गोलियां चली जिसमें सार्जेंट मेजर केरल मारा गया ।
फौज के शस्त्रागार का ताला तोड़कर सफलतापूर्वक सारे हथियार कब्जे में लिए गए।
मास्टर दा सूर्यसेन एक्शन मौजूद थे ।उन्होंने चटगांव जिला मुख्यालय यूनियन जैक को उतारकर भारत का तिरंगा ध्वज फहराया और संक्षिप्त भाषण भी दिया।
अर्धेन्दू एक्शन से एक दिन पूर्व बम्ब बनाते हुए घायल हो गए थे फिर भी एक्शन में भाग लिया।
अर्धेन्दू को 22 अप्रेल 1930 को घायल अवस्था मे गिरफ्तार किया गया था । अगले दिन अपने प्राणों की आहुति दी।
इस एक्शन में बच्चों सहित कुल 65 क्रांतिकारीयों ने भाग लिया।
एक्शन के बाद दिनाँक 22 अप्रैल 1930 को क्रांतिकारीयों ने जलालाबाद पहाड़ी पर डेरा लगा रखा था। पहले पुलिस ने घेरा डाला।
क्रांतिकारीयों ने एक सार्जेंट सहित कई सिपाहियों को मार डाला।
तीन दिन बाद अंग्रेजों ने गोरखा राइफल्स बटालियन के 15000 जवान और भेजे ।
22 अप्रेल को शाम 5 बजे बंगाल की भूमि पर क्रांतिकारीयों व फ़िरंगियों की फ़ौज व पुलिस के दलों में कई घंटों तक अनोखा लड़ाई हुई ।
क्रांतिकारियों ने दो मोर्चे बनाएं एक मोर्चे को मास्टर दा खुद संभाल रहे थे।
दूसरे को लेफ्टिनेंट लोकनाथ दल संभाल रहे थे ।
इस लड़ाई की शुरुआत देखने योग्य थी 13 वर्ष का एक बाल क्रांतिकारी हरि गोपाल राइफल लेकर मोर्चे से बाहर निकल कर फौज के सामने खड़े होकर फायरिंग की और अकेले ने ही फौज के 6 जवानों को ढेर कर दिया और ख़ुद शहीद हो गया।
इसी प्रकार 13 वर्षीय 11 वर्षीय बालक निर्मल लाल और फिर भट्टाचार्य आदि शहीद हुए।
आधुनिक हथियारों से सज्जित गोरखा राइफल व पुलिस की सयुंक्त टीम से बाल क्रांतिकारियों के साथ अंतिम लड़ाई के परिणाम की संभावना को समझ यामास्टर दा ने मध्य रात्रि में अपने साथियों को पहाड़ी से निकल अलग अलग गांवो में जाकर छिपने के आदेश दे दिए ।
जलालाबाद की इस लड़ाई में 12 क्रांतिकारी शहीद हुए व गोरख राइफल व पुलिस के 160 जवानों को मौत के घाट उतार दिया ।
शहीदों में हरि गोपाल बल ,त्रिपुर सेन, निर्मल लाला , विधुभूषण भट्टाचार्य, नरेश रे, शंशाकदत्त, मधुसूदन दत्त , पुलिन विकासघोष, जितेंद्र दास गुप्त, प्रभास बल और मोतीलाल कानून को थे।
एक्शन के बाद अमरेंद्र नंदी चटगांव चटगांव के एक विद्यालय में छिपे हुए थे जिसकी पुलिस खबर लग गई । नंदी स्कूल से निकल भागकर एक पुलिया के नीचे छिपे पर पुलिस ने पीछा कर पुलिया को चारों तरफ से घेर लिया और गोलियां चलाने लगी।
कुछ देर तक नंदी मुकाबला करते रहे और गोलियां खत्म हो गई तो ख़ुद को गोली मारकर आत्म बलिदान किया ।
चटगांव जिला का कुमीरा गांव एक चूड़ी वाला रंग बिरंगी चूड़ियां बेचते हुए घूम रहा था।
एक लड़की ने आवाज लगाई चूड़ी वाला भैया चूड़ियां दिखाना जरा और चूड़ीवाला लड़की को चूड़ियां दिखाने लगा ।
इसी बीच लड़की ने एक कागज का टुकड़ा चूड़ी वाले के हाथ में थमा दिया
चूड़ी वालों ने देखा कागज बिल्कुल सफेद है ।
चूड़ी वाले ने कागज पर डाला तो उस पर कुछ अक्षर उभर आये
‘”‘ कच्ची पक्की रोटियां और पतली दाल खाते खाते हम लोग परेशान हैं। लड्डू जलेबियाँ भिजवाने का प्रबंध कीजिए ।”
यह चूड़ी वाला कोई और नहीं मास्टर दा सूर्य सेन थे और लड़की उनकी शिष्या कूदनी कुमुद थी ।
जो क्रांतिकारियों के पोस्ट बॉक्स के रूप में काम करती थी ।
यह समाचार सांकेतिक भाषा में जेल से क्रांतिकारीयों ने भिजवाया था ।
लड्डू जलेबियाँ मतलब बम्ब व हथियार।
जेल से फ़रार होने की योजना बानी । क्रांतिकारियों को जेल में विस्फोटक पदार्थ , डायनामाइट आदि भिजवाए गए ।
सुरंग बनने लगी जेल के पास में एक मकान किराए पर लिया गया। जिसमें बम व डायनामाइट लगाए गए ।
जेल से भी डायनामाइट से विस्फोट कर रास्ता बनाकर भाग लिया जाए ।
सब कुछ तैयारियां चल रही थी ।
दुर्भाग्य से एक दिन मकान मालकिन झाड़ू लगा रही थी तो उसे दीवार के नीचे दबे तार देख कर आसपास के लोगों को इकट्ठा कर लिया।
बात पुलिस तक पहुंच गई और पुलिस को पता चल गया । मकान की तलासी में विस्फोटक आदि पकड़ लिए गए ।
इसे घटना को डायलॉग डायनामाइट नाम से जाना जाता है।
इस घटना के बाद प्रशासन पर दबाव पड़ा और प्रशासन ने क्रांतिकारियों के साथ यह समझौता किया कि डायनामाइट मामले में किसी भी क्रांतिकारी के विरुद्ध कोई केस नहीं बनाया जाएगा तथा चटगांव एक्शन शस्त्र आगरा लूटने के मामले में सरकार बड़ी सजाएं नहीं देगी।
यह बहुत बड़ी जीत थी।
जनवरी 1932 में एक्शन के बाद में गिरफ्तार किए गए लोगों पर मुकदमा चलाया गया ।
मुकदमा का निर्णय 1 मार्च 1932 को दिया गया। गणेश घोष, लोकेनाथ ‘आनन्द गुप्ता (सोलह वर्षीय) अनन्त सिंह सहित 12 क्रांतिकारीयों अजीवन निर्वासन की सजा देकर अंडमान भेज दिया गया।
दो को तीन साल की जेल की सजा मिली । शेष 32 व्यक्तियों को बरी कर दिया गया।
क्रांतिकारियों को पकड़ने के लिये एक तीव्र छापेमारी शुरू हुई।
पूर्व मे गिरफ्तार क्रांतिकारियों का जेल की यातनाओं से मनोबल न कम नहीं हो इसलिए मास्टर दा के निर्देशानुसार अनंत सिंह दिनाँक 28 जून 1930 को चंदन नगर से कलकत्ता आकर आत्मसमर्पण किया व गिरफ्तार हुए।
इस एक्शन में अंनत सिंह द्वारा हथियारों व बम्बो की व्यवस्था की गई थी।
एक्शन में अनंत सिंह पुलिस शस्त्रागार को लूटने में गणेश घोष के मुख्य सहायक थे।
दिनांक 22 अप्रैल 1930 को चटगांव हिंदुस्तान रिपब्लिकन आर्मी के कुछ क्रांतिकारी जलालाबाद की पहाड़ियों में पुलिस से युद्ध कर रहे थे
उसी दिन गणेश घोष ,अनंत सिंह जीवन घोषाल और आनंद गुप्त चटगांव में थे ।
उन्होंने अपने घायल साथी हिमांशु को अपने एक मित्र के यहां छोड़ा था ।
दोनों ने चटगांव से कलकत्ता जाने का प्रोग्राम बनाया । तब तक रेलवे सर्विस शुरू हो चुकी थी ।
दूरदर्शिता से काम में लेते हुए दोनों ने कलकत्ता की बजाय फैनी स्टेशन के लिए टिकेट लिए।
स्टेशन मास्टर को शक हो गया उसने फैनी स्टेशन मास्टर को तार से सूचना दे दी ।
जब चारों कांतिवीर फैनी पहुंचे तो पुलिस का तैयार पाया।
पुलिस ने काफी देर तक गोलियां चलाई।मुकाबले में पुलिस को हराकर भागने सफल हुए।
ये चंद्रनगर (फ्रांस अधिकार क्षेत्र )में एक मकान में छुपे हुए थे। लोकनाथ भी चंद्र नगर आ गए।
वरिष्ठ पुलिस अधिकारी चार्ल्स टेगार्ट खूंखार और होशियार पुलिस अधिकारी था ।
टेगार्ट ने गुप्त रूप से योजना बनाई तथा अपने साथ सारे फिरंगी सिपाही व पुलिस अधिकारी लिए।
किसी को कोई ख़बर नहीं होने दी।
वादेदार ने इंडियन रिपब्लिकन आर्मी के 20 सूत्रीय कार्यक्रम में से यूरोपीयन क्लब जिसके गेट पर लिखा होता था Dogs and Indian not allowed पर 24 सितंबर 1932 को हमला किया क्लब में अधिक फ़िरंगियों के होने के कारण अपने साथियों को सुरक्षित भेजा।
प्रीतिलता के गोली लगने से वह घायल हो गयी । इसलिए जहर खाकर आत्म बलिदान किया।
क्रांतिकारियों को पता चला कि पुलिस महा निरीक्षक मिस्टर किंग क्रेग कोलकाता से चटगांव दौरे पर आने वाला है क्रांतिकारियों की योजना थी बनी की निरीक्षण के बाद पुलिस सुरक्षा कम होगी इसलिए करेक्ट को निरीक्षण के बाद वापस लूटते हुए मारा जाए।
रामकृष्ण विश्वास व काली पद चक्रवर्ती ने अपनी योजना के अनुसार हथियार लेकर ट्रेन में सवार हो गए ।
गाड़ी 1 दिसंबर 1930 को कानपुर स्टेशन पर चांदपुर स्टेशन पर रुकी तो चांदपुर स्टेशन पर इंस्पेक्टर तारिणी मुखर्जी ट्रेन से उतरा तो वहां खड़े एक पुलिस वाले ने तारिणी मुखर्जी को सेल्यूट किया।
मुखर्जी की पीठ क्रांतिकारियों की तरफ थी। उन्होंने मुखर्जी को अपना टारगेट समझ कर गोलियां चलादी।
मिस्टर क्रैक ट्रेन में बैठा था उसने खिड़की से क्रांतिकारियों को गोलियां चलाते देखा व क्रांतिकारियों पर गोलियां चलाई।
पुलिस से मुकाबला हुआ दोनों पकड़े गए। राम विश्वास के पास जिंदा बम्ब और दोनों के पास एक एक रिवाल्वर बरामद हुआ।
पुलिस इंस्पेक्टर तारिणी मुखर्जी हॉस्पिटल ले जाते वक्त रास्ते मे मर गया।
रामकृष्ण विश्वास को फांसी व पद चक्रवर्ती को आजन्म काला पानी की सजा हुई । रामकृष्ण विश्वास को अलीपुर सेंट्रल जेल में 4 अगस्त 1931 को फांसी दी गई
हिंदुस्तान रिपब्लिकन आर्मी चटगांव के 6 क्रांतिकारियों का एक दल मुकाबले के बाद अलग हो गया था।
इन लोगों ने चटगांव के यूरोपियन क्लब पर आक्रमण करने की योजना बनाई।
यूरोपियन क्लब चटगांव क्रांतिकारियों के एजेंडे में था।
स्वदेश रे , रजत सेन देव प्रसाद गुप्ता और मनोरंजन सेन पूरी तैयारी के साथ चले ।
पुलिस को इसकी सूचना मिल गई और पुलिस ने पीछा किया कालारपोल स्थान पर पुलिस ने घेर लिया।
यहां से मुकाबला करते हुए निकल गए व रात्रि को पास ही जुलडा गांव में रुके
पुलिस रात भर पीछा करती हुई वहां पर भी पहुंच गई पुलिस ने चारों तरफ से घेर लिया फायरिंग शुरू हुई ।
क्रांतिकारियों के पास गोलियां खत्म होने लगी तो इन्होंने निर्णय लिया कि पुलिस के हाथों गिरफ्तार होने से पुलिस को सम्मान मिलेगा व जेल यातनाएं झेलने से अच्छा है आत्म बलिदान करें।
सब ने एक दूसरे के गोली मारकर आत्मबल दान का एक विचित्र उदाहरण पेश किया ।
तारकेश्वर दस्तीदार व दल के कुछ क्रांतिकारी ‘गोहिरा” नामक गांव में रुके हुए थे पुलिस को सूचना मिल गई दिनांक 19 मई 1933 को पुलिस ने मकान को घेर कर निराकरण कर दिया कुछ देर दोनों तरफ से मुकाबला हुआ तारकेश्वर दस्तीदार और 1 साथी भागने में सफल हुए। पूर्ण चंद तालुकदार और मनोरंजन दास पुलिस फायरिंग में शहीद हो गए।
एक 15 वर्ष के बाल क्रांतिकारी हरिपद भट्टाचार्य ने 30 अगस्त 1931 को पुलिस इंस्पेक्टर खान बहादुर असनुल्ला का वध करने हेतु फुटबॉल मैदान में खान को गोलियों से उड़ा दिया
बालक भागा नहीं मौका पर पकड़ लिया गया ।
बाल क्रांतिकारी की मुक्कों व ठोकर से पिटाई गई। गिरफ्तारी के बाद मुकदमा व दिनाँक 22 दिशम्बर 1931 को हरिपद को हत्या एवं अवैध हथियार रखने के जुर्म में आजीवन काला पानी की सजा दी गई।
दिनाँक 31 अगस्त 1930 रात्रि को चंदननगर मकान को लिया गया ।दोनों तरफ से मुकाबला हुआ एक क्रांतिकारी जीवन घोषाल को गोली लगी और गणेश घोष, लोकनाथ बल व आनंद गुप्त को गिरफ्तार कर लिया गया। इस एक्शन को “मिडनाइट ड्रामा” के नाम से जाना जाता है।
चटगांव क्षेत्र के पाटिया नामक स्थान के थानेदार माखनलाल दीक्षित ने कोइराला गांव के एक जमीदार नेत्रसेन को अपने साथ मिला लिया और उसे 10000 रुपये का प्रलोभन दिया।
इस षड्यंत्र के द्वारा नेत्रसेन ने मास्टर दा को अपने पास बुलाया।
मास्टर दा दिनांक 16 फरवरी 1933 को रात्रि को अपने आठ साथियों के साथ गांव कोइराला में नेत्रसेन के पास मेहमान बन पहुंच गए ।
उनके साथ दल की एक महिला सैनिक कल्पना दत्त भी थी।
नेत्रसेन ने इनाम के लालच में मुखबिरी की जिस पर मास्टर दा को 16 फरवरी 1933 को गिरफ्तार कर लिया गया । लेकिन चटगांव क्रांतिकारियों ने नेत्र सेन को ब्रिटिश सरकार से इनाम के 10,000 रुपये प्रप्त करने से पहले कुछ गोलीयां इनाम में दे दी।
जेल में अमानवीय यातनाओं को सहने के बाद 12 जनवरी 1934 मास्टर दा व तारेश्वर दस्तीदार को फांसी दी गयी।
मास्टर दा ने आखरी सांस बंदे मातरम् के साथ लिया।
अत्याचारियों ने शव को फांसी के तख्ते लटका दिया।
उसी रात तारकेश्वर दस्तीदार को भी फाँसी दे दी गई ।
दोनों की शवों को समुद्र में फेंक दिया गया।