वहाबी आंदोलन: भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का अज्ञात पहलू
भारत के स्वतंत्रता संग्राम की परिभाषा हमेशा से वही रही है, जिसमें भारतीय समाज के हर वर्ग ने अपनी जान की आहुति देकर विदेशी ताकतों को चुनौती दी। हालांकि, इतिहास में कुछ ऐसे क्रांतिकारी आंदोलन भी हुए हैं, जिन्हें अक्सर उतनी चर्चा नहीं मिल पाई, जितनी कि वे हकदार थे। इनमें से एक प्रमुख आंदोलन था वहाबी आंदोलन, जो 1820 से 1870 के बीच भारतीय उपमहाद्वीप में फैला था और जिसका केंद्र पटना था।
वहाबी आंदोलन का जन्म और उद्देश्य
वहाबी आंदोलन की जड़ें इस्लामिक धार्मिक उन्नति और एक विशिष्ट समाजवादी दृष्टिकोण में निहित थीं, लेकिन इस आंदोलन ने ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ भी संघर्ष किया। वहाबी आंदोलन के नेता भारतीय समाज की परिस्थितियों से गहरे प्रभावित थे। उनका उद्देश्य था समाज में सुधार लाना और ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ एक सशस्त्र संघर्ष शुरू करना। इसके लिए उन्होंने धार्मिक उन्मुक्तता के बजाय ब्रिटिश शासन के खिलाफ एक ठोस रणनीति अपनाई, जिससे आंदोलन ने एक राजनीतिक रूप लिया।
वहाबी नेताओं की शहादत और ब्रिटिश क्रूरता
1863 में, सीमा प्रांत के बहावियों के मल्का किले पर ब्रिटिश वायसराय एलगिन ने सैनिकों को भेजकर उस पर कब्जा कर लिया। यह एक महत्त्वपूर्ण क्षण था, क्योंकि यह वहाबी नेताओं के लिए एक स्पष्ट संकेत था कि ब्रिटिश साम्राज्य अपने कड़े शासन को और भी मजबूत करने की योजना बना चुका था। इसके बाद वहाबी नेताओं के साथ ब्रिटिश सरकार ने क्रूरता की सारी हदें पार कर दीं। उन्हें सार्वजनिक रूप से कोड़े मारे गए, अंग-भंग की सजा दी गई, और कई नेताओं को फांसी दी गई। इसके अलावा कई क्रांतिकारी नेताओं को काला पानी की सजा दी गई और अंडमान की कुख्यात जेल में भेजा गया।
इन सब घटनाओं के बावजूद, वहाबी नेता अपनी मुक्ति की लड़ाई से पीछे नहीं हटे। इनमें से एक प्रमुख नेता आमिर खान को भी Regulating Act 1818 के अंतर्गत गिरफ्तार कर लिया गया था, और उनकी सुनवाई कलकत्ता हाई कोर्ट में की गई थी। हालांकि, न्यायालय में उनकी अपील को अस्वीकार कर दिया गया।
अब्दुल्ला का प्रतिशोध और नॉर्मन की हत्या
अब्दुल्ला नामक एक वहाबी नेता ने इन अन्यायपूर्ण कार्यों के खिलाफ आक्रोश व्यक्त किया। 20 सितंबर 1871 को उसने जॉन पैक्सटन नॉर्मन, जो उस समय कलकत्ता हाई कोर्ट के कार्यवाहक मुख्य न्यायाधीश थे, पर छुरे से हमला कर दिया। यह हमला ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ प्रतिशोध की एक मिसाल बन गया। नॉर्मन की मृत्यु 21 सितंबर 1871 को हो गई, और इस कृत्य ने भारतीयों में ब्रिटिश न्यायपालिका के खिलाफ गहरा आक्रोश उत्पन्न किया।
इसके बाद ब्रिटिश सरकार ने अब्दुल्ला को पकड़ा, और उसे फांसी की सजा दी। उसकी पार्थिव शरीर को सड़कों पर घसीटकर जला दिया गया, ताकि यह एक नज़र के लिए एक चेतावनी बने। इस अत्याचार ने केवल वहाबी नेताओं में नहीं, बल्कि पूरे भारतीय समाज में प्रतिरोध की भावना को और भी प्रबल कर दिया।
लॉर्ड मेयो की हत्या: वहाबी नेताओं का प्रतिशोध
ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ प्रतिशोध की एक और बड़ी घटना 8 फरवरी 1872 को हुई, जब वहाबी नेता शेरअली आफरीदी ने लॉर्ड मेयो, जो उस समय ब्रिटिश गवर्नर जनरल थे, को अंडमान जेल में चाकू से हमला कर हत्या कर दी। शेरअली आफरीदी को अपनी उम्रभर की कालापानी सजा के दौरान यह महसूस हुआ था कि उसे झूठे मुकदमे में फंसाया गया है और न्याय नहीं मिला। उसकी यह हत्या ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ एक बड़ा प्रतिशोध था।
वहाबी आंदोलन: एक स्वतंत्रता संग्राम की जड़ें
वहाबी नेताओं के कृत्य सिर्फ इस्लाम या धर्म तक सीमित नहीं थे। उनका मुख्य उद्देश्य ब्रिटिश साम्राज्य को भारतीय धरती से उखाड़ फेंकना था। उन्होंने अपनी जान की परवाह किए बिना यह कार्य किया, और यही कारण था कि उन्हें भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का एक अभिन्न हिस्सा माना जाना चाहिए। इन क्रांतिकारियों के कृत्य इस बात का प्रतीक थे कि भारतीयों ने सिर्फ सामाजिक और धार्मिक उत्थान के लिए नहीं, बल्कि विदेशी शासकों के खिलाफ स्वतंत्रता की लंबी लड़ाई के लिए भी संघर्ष किया।
वहाबी नेता: भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के नायक
यह सच है कि वहाबी नेता धार्मिक रूप से इस्लाम के अनुयायी थे, लेकिन उन्होंने भारत से अंग्रेजों को भगाने का लक्ष्य भी रखा था। यही कारण है कि अब्दुल्ला और शेरअली को भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के सिपाही के रूप में देखना उचित है। उन्होंने अपनी जान की बाजी लगाकर वहाबी आंदोलन को एक नया मोड़ दिया, जो कि भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की नींव रखने में सहायक साबित हुआ।
वहाबी आंदोलन भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का एक महत्वपूर्ण अध्याय है, जिसे शायद उतनी सजीवता से नहीं बताया गया है, जितना कि वह इसके हकदार थे। वहाबी नेताओं ने ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ अपनी जान की बाजी लगाकर एक नई राह दिखाई। उनके संघर्षों ने यह साबित कर दिया कि भारतीयों के स्वतंत्रता संग्राम में सिर्फ एक वर्ग नहीं, बल्कि सभी वर्गों ने अपनी जान की कुर्बानी दी।
शत शत नमन उन महान क्रांतिकारियों को, जिन्होंने हमें यह दिखाया कि किसी भी न्यायपूर्ण संघर्ष में आस्था और दृढ़ संकल्प से भरी हुई भूमिका होती है, चाहे वह किसी भी धर्म, वर्ग या जाति से संबंधित हो।

