मन्मंथगुप्त

काकोरी वीर मन्मंथ गुप्त: एक महान क्रांतिकारी का जीवन संघर्ष

भारत के स्वतंत्रता संग्राम में कई वीर योद्धाओं का योगदान रहा है, जिन्होंने अपने जीवन को देश की सेवा में समर्पित कर दिया। उनमें से एक महत्त्वपूर्ण नाम है मन्मंथ गुप्त का, जो अपनी निर्भीकता, साहस और संघर्ष के लिए हमेशा याद किए जाएंगे। उनका जीवन एक प्रेरणा है, जो हमें यह सिखाता है कि किस तरह एक युवा भी अपने देश के लिए अपार बलिदान दे सकता है।

प्रारंभिक जीवन और शिक्षा

मन्मंथ गुप्त का जन्म 7 फरवरी 1908 को बनारस में हुआ था। आपके पिता श्री वीरेश्वर जी एक सज्जन और उच्च विचार वाले व्यक्ति थे। मन्मंथ गुप्त ने अपनी शिक्षा काशी विद्यापीठ से प्राप्त की और विशारद की परीक्षा उत्तीर्ण की। मात्र 14 वर्ष की आयु में जब प्रिंस एडवर्ड बनारस आए थे, तो आपने क्रांतिकारी कार्य के तहत पर्चे बांटे थे। इस कृत्य के कारण आपको तीन माह की सजा भी भुगतनी पड़ी, लेकिन इसका असर उनके संकल्प पर नहीं पड़ा।

असहयोग आंदोलन और सशस्त्र क्रांति की ओर

महात्मा गांधी द्वारा असहयोग आंदोलन को वापस लेने के बाद मन्मंथ गुप्त का संपर्क बंगाल के क्रांतिकारियों से हुआ और उन्होंने सशस्त्र क्रांति के पथ पर आगे बढ़ने का निर्णय लिया। उन्होंने हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन (HRA) से जुड़कर क्रांतिकारी गतिविधियों में भाग लिया। उनका समर्पण और कड़ा संघर्ष भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में अमूल्य योगदान के रूप में उभरा।

काकोरी एक्शन में भूमिका

मन्मंथ गुप्त काकोरी एक्शन के समय भी दल के साथ थे। जब काकोरी ट्रेन में अशफाक उल्ला खान खजाने वाला बक्सा तोड़ रहे थे, तो मन्मंथ गुप्त को माउज़र दिया गया था ताकि वे ट्रैन में बैठे यात्रियों को डराकर स्थिति को नियंत्रित कर सकें। इसी दौरान एक दुर्घटना हुई, जिसमें अहमद अली नामक यात्री की मृत्यु हो गई, और मन्मंथ गुप्त को इस हत्या का दोषी ठहराया गया। हालांकि उनकी आयु कम होने के कारण उन्हें केवल 14 वर्ष की सजा सुनाई गई।

संघर्ष और जीवन की शिक्षाएँ

मन्मंथ गुप्त के पिता, श्री वीरेश्वर जी, जब उनसे मिलने जेल आए, तो वे अपने पुत्र को रोते हुए देख कर भावुक हो गए। लेकिन मन्मंथ गुप्त के पिता ने उन्हें समझाया और कहा, “I don’t expect tears in eyes of my son.” यह शब्द मन्मंथ गुप्त के जीवन का एक अहम मोड़ साबित हुए। इसके बाद उन्होंने न केवल अपनी सजा को धैर्य से सहा, बल्कि क्रांतिकारी आंदोलन में अपनी भागीदारी को भी मजबूती से जारी रखा।

लेखन और पुस्तकें

मन्मंथ गुप्त का जीवन केवल क्रांतिकारी कार्यों तक सीमित नहीं था, बल्कि वे एक लेखक भी थे। उन्होंने हिंदी, इंग्लिश और बंगाली में लगभग 120 पुस्तकें लिखीं। उनकी लिखी किताबों में ‘भारतीय क्रांतिकारी आंदोलन का इतिहास’, ‘क्रांति युग के अनुभव’, ‘चंद्रशेखर आजाद’, ‘विजय यात्रा’, ‘यतींद्र नाथ दास’, ‘कांग्रेस के सौ वर्ष’ और ‘भगत सिंह एंड हिज टाइम्स’ जैसी प्रमुख पुस्तकें शामिल हैं। उनकी पुस्तकों ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम और क्रांतिकारियों की कड़ी मेहनत और संघर्ष को लोगों के सामने रखा। आपके द्वारा लिखित पुस्तकों में “द लिवड़ डेंजरसली“, ” रेमिनीसेंसेज ऑफ़ अ रेवोल्यूशनरी“, “आधी रात के अतिथि“, ” कांग्रेस के सौ वर्ष“,  “दिन दहाड़े” ” सर पर कफन बाँध कर“, “तोड़म फोड़म“, “अपने समय का सूर्य:दिनकर“, और “शहादतनामा” मुख्य है। 

सजा और रिहाई के बाद जीवन

मन्मंथ गुप्त को 1937 में जेल से रिहा किया गया। इसके बाद, उन्होंने सूचना प्रसारण मंत्रालय में कार्य किया और देश की सेवा में अपना योगदान दिया। उनके अनुभव और विचार उनके लेखन के माध्यम से देशवासियों तक पहुंचे।

काकोरी एक्शन पर आत्ममंथन

1997 में जब डीडी ने काकोरी एक्शन के 70 वर्ष पूरे होने पर एक डॉक्यूमेंट्री बनाई, तो मन्मंथ गुप्त ने उसमें अपनी भूमिका पर आत्ममंथन किया। उन्होंने काकोरी एक्शन के समय हुई गोली चलाने की गलती को स्वीकार किया। एक समय ऐसा भी आया था जब चंद्रशेखर आजाद ने भी गलती से माउज़र को खाली समझकर मन्मंथ गुप्त पर गोली चला दी थी, लेकिन वह गोली उनके सिर के पास से निकल गई थी।

अंतिम समय और श्रद्धांजलि

मन्मंथ गुप्त का स्वर्गवास 26 अक्टूबर 2000 को हुआ। उनका जीवन भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में हमेशा एक प्रेरणा के रूप में याद किया जाएगा। उन्होंने अपनी जवानी और समर्पण से यह साबित कर दिया कि एक युवा भी बड़े से बड़े संघर्ष में भाग लेकर देश के लिए बहुत कुछ कर सकता है।

शत शत नमन शहीद मन्मंथ गुप्त को।