वीरवर मंगल पॉंड़े ! [शहादत दिवस 8 अप्रेल 1857]

Mangal Panday

रचयिता— श्रीयुत छबीलदास ‘मधुर’

सिपाही—विद्रोह का आद्य बलिदान !

प्रति हिंसाके पथकी तूही हुआ प्रथम चट्टान ।
स्वतन्त्रता—वेदी पर तेरा स्वीकृत था बलिदान ।।
धर्म—दीपपर पतित हुआ, तू बनकर क्षुद्र पतंग ।
चढ़ा मातृ—मूर्ति पर मानो अग्रिम पुष्प समान ।। 1 ।।
वीरवर मंगल पॉंडे !
तू था वह चिनगारी जिससे भड़क उठी थी आग ।
तू था वह वैराग्य मिटा जिससे सारा अनुराग ।।
पारावर ज्वार जब आया तू था प्रथम तरंग ।
लूकी लपट बना तू पहले फिर झुलसा था बाग ।। 2 ।।
वीरवर मंगल पॉंड़े !
तड़ित—पतित पश्चात हुई, तू आदिम उल्कापात ।
बड़ा झकोरा होकर तू पीछे था झंझावात ।।
मूसलाधार झड़ीकी होकर बरसा पहली बूॅंद ।
चण्ड सूर्य था पीछे आगे तू था अरूण उदात्त ।। 3 ।।
वीरवर मंगल पॉंड़े !
समयातीत कार्य था यद्यपि पर तेरा वह त्याग ।
कौन कहेगा किसी स्वार्थवश था तब आत्मविराम ?
स्वधर्म—हित उन्मत्त हुआ तू होगा यह आक्षेप ।
यह दुषण है नहीं, किन्तु है भूषणाही षड़भाग !! 4 !!
वीरवर मंगल पॉंड़े !
रहे स्मृति या होवे विस्मृति सैनिकगणकी आज ।
पर तेरा स्मरणीय रहेगा नाम सदा द्विजराज ।।
और बना यदि नहीं रहेगा यह चिर ‘स्मृति—स्तम्भ’।
पद्य—पुन्ज यह पाठ करेगा जब तक सभ्य—समाज ।। 5 ।।

बैरिकपुर छावनी [बंगाल] सिपाही नं. 1446 पल्टन नं0 34 का यह बागी सिपाही कन्नोजिया ब्राहम्ण कब जाकर बंगाल स्थित बैरिकपुर छावनी की सेना में भर्ती हो गया था। किन्तु जिस दिन वह विद्रोही हुआ, उस दिन सेना में काम करते हुये उसे सात वर्ष हो चुके थे। मंझला कद और कसा हुआ बदन उसके एक अच्छे सिपाही होने की निशानी थे। वह धर्म—प्राण ब्राहम्ण सिपाही हेाते हुए भी अपनी सेना में आदर का पात्र था।
एक दिन वह शहर गया वहां उसे टोंटी से पानी पिलाया गया। उसके पूछने पर पानी पिलाने वाली औरत ने कहा, महाराज काहे के ब्राहम्ण हो, गो मांस से बनाये कारतूसों के फन्दे को तो दॉंतो से खोलते हो। मंगल पॉंड़े को यह बात चाट गई। इसकी चर्चा पहले भी हो रही थी किन्तु अंग्रेज अफसरों ने समझाना बुझाना आरम्भ कर दिया था।
इस दिन से मंगल पॉंड़े बहुत ही दु:खी रहने लगा। उसे धर्म—नाश की आंशका बराबर सताने लगी। वह बहुतेरा अपने मन को समझाता था और अंग्रेज अफसरों की बात पर यकीन करना चाहता था किन्तु उसे शान्ति नहीं मिल रही थी।
26 मार्च सन् 1857 को बैरिकपुर की छावनी में इस समाचार से और भी खलबली मच गई कि विलायत से गोरों की फौज आ रही है। मंगल पॉंड़े ने जब कि वे भॉंग के नशे में धत्त थे हथियार निकाल लिये और बाहर आकर कहने लगा कि इन क्रिस्टानों से धर्म और जाति को बचाना ही पड़ेगा। आओ बन्धुओं हमारी पल्टन में जो अंग्रेज है उन्हें कैद कर लें। बिगुलर से कहा कि बिगुल बजाओ जिससे सब लोग इकट्ठे हो जायें। मंगल पॉंड़े के हो—हल्ले को सुनकर एक अंग्रेज अपनी बैरिक के सामने खड़ा होकर सुनने लगा। मंगल पॉंड़े की ज्यों ही उस पर निगाह पड़ी गोली छोड़ दी परन्तु वह बच गया। इतने में सेना एडज्यूटेंट बक नाम का अंग्रेज घोड़ा दौड़ाता हुआ आ गया। मंगल पॉंड़े ने उस पर भी गोली छोड़ी वह घायल हो गया किन्तु उसका घोड़ा मर गया। बक ने भी मंगल पर वार किया किन्तु गोली चूक गई। बक ने तलवार संभाली और मंगल पर टूट पड़ा। एक दूसरा गोरा अफसर भी तलवार लेकर मंगल पर टूटा किन्तु मंगल ने अपने को बचाते हुये उनमें से एक अंग्रेज को घायल करके गिर गया। दूसरे अंग्रेज को बचाने के लिए शेख पल्टू नाम का मुसलमान सिपाही आगे बढ़ा और उसने मंगल पॉंड़े को पिछे से पकड़ लिया। दोनों अंग्रेज लहू—लूहान हो गये और प्राण बचाने के लिये भाग गये। फौज का जनरल हैयर्स था उसे जब यह खबर लगी तो वह अपने दोनों जवान लड़कों को लेकर मंगल को पकड़ने के लिये आया।
मंगल ने देखा कि सारे सिपाही तमाशा देख रहे हैं तो उसने भी बजाय अंग्रेजों के हाथ आने से मरने के खुद ही गोली मार ली। उसे घायल अवस्था में अस्पताल ले जाया गया। वह जितने दिन भी अस्पताल में रहे अपने को बेचैन नहींं होने दिया न अपने किये पर अफसोस ही जाहिर किया और जिन दिन फॉंसी का हुक्म हुआ बड़ी शान्ति से ही फॉंसी पर लटक गये। यह दिन सन् 1857 की 8 वीं अप्रैल का था।
मंगल पॉंड़े के सिवा अंग्रेज सेनापतियों ने एक जमादार को भी फॉंसी दे दी। अपराध उसका यह बताया कि उसने मंगल पॉंड़े की बगावत का प्रतिरोध नहीं किया। जमादार को फॉंसी का हुक्म 10 अप्रैल 1857 को हुआ और 21 अप्रैल को उसे फॉंसी पर लटका दिया गया।
यह ठीक है कि उस दिन बैरिकपुर छावनी की उस 34 नम्बर की पलटन ने कोई बगावत नहीं की किन्तु मंगल पॉंड़े की फॉंसी सब के चुभ गई और वह विद्रोह के लिए वीर सिपाहियों के लिए आह्वान करके रही।

शत् शत् नमन् !!

शहीदेभ्य नमः एक आह्वान शहीदों के नाम

भ्रष्‍टाचार, नैतिक अनाचारों से कंलकित शासन व्‍यवस्‍था के दुर्ग जो शान्ति और श्रंखला की नींव पर खडे् होते है, को कमायमान कर जड् से उखाड्ने के लिए परिवर्तन या इंकलाब का आना एतिहासिक घटना होती है।
फ्रांस की क्रान्ति ने वहां के विलासी शासकों की सत्‍ता का अन्‍त किया। जब इटली में शासकों की स्‍वेच्‍छाचारिता परकाष्‍ठा को पहुंच गई तो मेजिनी, गेरीबॉल्‍डी ने देश का उद्धार किया। जब रूस के नृशंस शासक ने अपनी सैनिक शक्ति से उन्‍मत होकर नि.सहाय प्रजा के रक्‍त से होली खेलनी शुरू की तो लेनिन और ट्रोजकी के वीर बोल्‍शेविको के बलिदान ने सम्राट को मुकुट सहित धूल में मिला दिया।
जब तुर्की का स्‍वेच्‍छाचारी सुल्‍तान सैंकडों वेश्‍याओं के साथ विहार करने लगा तो मुस्‍तफा कमाल के देशभक्‍त सहयोगियों ने उसका नाश किया। चीन के मंचू शासक के हाथों चीन की तबाही को डॉ. सन-याट-सेन के बलिदानी वीरों ने रोका।
आक्रमणकारियों ने हमारे देश का वैभव लूटा, ऐश्‍वर्य लूटा। सन् 1757 तक सम्‍पूर्ण भारत वर्ष पर फिरंगीयों का राज था और ब्रिटिश सम्राज्‍यवाद के संबंध में यह कहा जाता था कि ब्रिटिश सम्राज्‍यवाद में कभी सूर्यास्‍त नहीं होता। सन् 1857 तक यह सोचा भी नहीं जा सकता था कि हम फिरंगीयों की गुलामी से आजाद हो पायेंगे।
सन् 1857 में हमारे राष्‍ट्र ने सैंकडों वर्षो बाद नींद से जाग कर अंगडाई ली और उठ कर खड़़ा हो गया। हमारा प्रथम स्‍वतन्‍त्रता संग्राम कई कारणों से सफल तो नहीं हो सकता परन्‍तु सन् 1857 से सन् 1947 तक बलिदानों का एक सिलसिला चला। अनगिनत ज्ञात व अज्ञात क्रान्तिवीरों ने भारत के अपमान का बदला लिया। वॉयसराय लॉर्ड हॉर्डिंग्‍स की बग्‍घी पर चान्‍दनी चौक में रास बिहारी बॉस व उनके साथियों ने बम फैंका, भारतीय नारियों की चोली उतरवाकर जांच कर माताओं और बहनों का अपमान करने वाले दुष्‍ट रैण्‍ड एवं कोचवान ऐयर्स्‍ट को चापेकर बन्‍धुओं और रानाडे ने विक्‍टोरिया की हीरक जयन्‍ती की पार्टी के अवसर पर गोली से उड़ाया, मैक मेन्‍सन का सिर काटकर किले के द्वार पर लटका दिया गया, लाला लाजपत राय के बलिदान का बदला भगत सिंह व उनके साथियों ने साण्‍डर्स का वध करके लिया, कसाई काजी किंग्‍सफोर्ड को दण्‍ड देने हेतु उसकी गाड़ी पर बम फैंका, जलियांवाला बाग काण्‍ड के हत्‍यारे ऑ डायर को इंग्‍लैण्‍ड के कैक्‍शन हॉल में जाकर शहीद-ए-आजम उधम सिंह ने सरेआम मारा, इंग्‍लैण्‍ड के ही जहांगीर हॉल में मदनलाल धींगड़ा ने कर्नल वॉयली का गोली मारकर वध किया, काेमा-गाता-मारू जहाज में कनाडा से गदर पार्टी के सैनानी करतार सिंह सराभा व उनके साथी सशस्‍त्र क्रान्ति करने भारत आये, नेताजी सुभाष चन्‍द्र बोस के नेतृत्‍व में आजाद हिन्‍द फौज देश को आजाद करवाने सिंगापुर तक पहुंच गई। इन सब वीरतापूर्ण घटनाओं ने फिरंगीयों के हौसलें पस्‍त कर दिये और फिरंगीयों के समझ में आने लग गया कि भारतीय क्रान्तिकारी खून अब ठण्‍डा नहीं होगा। तब जाकर हमें आजादी मिली। हम भूल गये कि हमें आजादी भीख में नहीं शहीदों के खून से मिली। आजादी के बाद हमने हमारे शहीदों और क्रान्तिवीरों को भूला दिया तथा स्‍वतन्‍त्र भारत के इतिहास को तोड़-मरोड़ कर लिखा गया। इतिहास के पन्‍नों में भारतीय क्रान्तिवीरों को सही स्‍थान नहीं दिया गया। हमारे ही शहीदों को आज भी इतिहास की पुस्‍तकों में उग्रवादी बताकर वीरों की शहादत का अपमान किया जा रहा है। भगत सिंह व उनके साथियों के विरूद्ध गवाही देने वाले गद्दार के नाम से मार्ग व चौक बनाये जा रहे हैं। आज भी सरकार यह सुनिश्चित नहीं कर रही है कि द्वितीय विश्‍व युद्ध के अपराधिेंयों की सूची में आजाद हिन्‍द फौज के सर्वोच्च सेनापति नेताजी का नाम नहीं है। शर्मिन्‍दा है हम, कि हमने शहादत का सम्‍मान नहीं किया शहीदों के खून से मिली आजादी को गुण्‍डों, तस्‍करों और भू-माफियाओं के हाथों सौंप दिया। आजाद हिन्‍द फौज के खिलाफ लडने वाले आजादी के विरोधियों को आज भी स्‍वतन्‍त्रता दिवस पर हमारे राष्‍ट्रपति सलाम करने जाते है।
हमारे ज्ञात व अज्ञात क्रान्तिवीरों को श्रद्धांजली हेतु इस वेबसाईट को बनाया जा रहा है। इस साईट पर आजादी से पूर्व की पुस्‍तकों ‘हिन्‍दु पंच के बलिदान अंक’, ‘चॉंद फॉंसी अंक’ इत्‍यादि पुस्‍तकों और नेट पर अन्‍यत्र उपल्‍ब्‍ध सामग्री से संकलन किया है। आप सब से आग्रह है कि भारतीय क्रान्तिवीरों के संबंध में उपलब्‍ध सामग्री को इस वेबसाईट पर जरूर पोस्‍ट करें। इस साईट का उद्देश्य भारतीय क्रान्तिवीरों की स्‍मृति के रूप में भावी पीढि़यों के लिए अक्षुण्ण रखना है।

जय हिन्‍द। वन्‍दे मातरम। इंकलाब जिन्‍दाबाद।

(भारतीय स्वतंत्रता—संग्राम के ज्ञात—अज्ञात क्रांतिवीरों की पुण्य स्मृतियों को अक्षुण्ण बनाये रखने हेतु)

वंदे मातरम् ! इन्कलाब जिन्दाबाद !! जय हिन्द !!!

मारे गए है सर्वश्रेष्ठ वीर !!
दफना दिये गये है वे चुपचाप, एक निर्जन भूमि में,
कोई आँसू नहीं बहे उन पर, अजनबी हाथों ने,
उन्हें पहुंचा दिया कब्र में,
कोई सलीब नहीं, कोई घेरा नहीं,
कोई समाधि-लेख नहीं जो बता सके उनके गौरवशाली नाम
घास उग रही है उन पर, एक दुर्बल पत्ती ढुकी हुई,
जानती है इस रहस्य को, बस एकमात्र साक्षी थी उफनती लहरे,
जो प्रचंड आघात करती है तट पर,
लेकिन वे प्रचंड लहरे भी नहीं ले जा सकती
अलविदा के सन्देश उनके सूदूर घर तक !!

फांसीर मंचे गेये, गेलो जारा, जी बने जयगान;
असि अलदो दाण्डायेछे तारा।
दिबे कौन प्रतिदान?

-(काजी नज़रुल इस्लाम)

प्रतिदान !?

कोई प्र​तिदान संभव है क्या इस नि:स्वार्थ सर्वस्व त्याग का ?
बेड़ीबद्ध मॉं भारती की मुक्ति हेतु जिन्होंने अपनी अस्थि—मज्जा गला—जलाकर स्वातंन्त्रय—यज्ञ में होम कर दी ताकि चिरकाल से सुलगती चिन्गारी धधकता ज्वालपुञ्ज बनकर भारतमाता की बेड़ियों को गला डालें।
जिस स्वप्निल स्वर्णिम प्रत्युष की चिराशा में जिन्होनें अहर्निश कठोर कारावास के दारुण दु:ख सहे और हा हंत! उसके उदयाचल आगमन से पूर्व ही फॉंसी के फंदों से झूल गये उन्हें हम क्या प्रतिदान दे सकते हैं ?
अस्तु उनकी पुनीत और प्रेरक पुण्य स्मृतियों को संजोयें रखने हेतु हम उन्हें चंद शब्द, चंद पंक्तियॉं श्रद्धावनत समर्पित कर रहे हैं, यथा :

कलम! आज उनकी जय बोल!

जला अस्थियॉं अपनी सारी,
छिटकाई जिनने चिन्गारी;
चढ़ गये जो पुण्यवेदी पर,
लिये बिना गर्दन का मोल;
कलम! आज उनकी जय बोल!
जो अगणित लघु दीप हमारे,
तूफानों में एक किनारे;
जल—जल कर बुझ गये ​एक दिन,
मांगा नहीं स्नेह मुह खोल;
कलम! आज उनकी जय बोल!
अंधा चकाचौध का मारा,
क्या जाने इतिहास बैचारा;
साखी हैं उनकी महिमा के,
सूर्य—चन्द्र, भूगोल; खगोल;
कलम! आज उनकी जय बोल!

इस वेबसाइट का सृजन इसी लक्ष्य की पूर्ति हेतु एक छोटा—सा प्रयास है। पर, अपने सीमित ज्ञान और सामर्थ्य से हम इस महोद्देश्य को प्राप्त नहीं कर सकते। अत: आप सबसे साग्रह अनुरोध है कि इससे संबंधित उपलब्ध सामग्री को इस वेबसाइट पर अवश्य पोस्ट करें ताकि यह संकलन क्रांतिकाल की अखण्ड और अप्रतिम आस्था अप्रतिहत और लौमहर्षक संघर्ष, दुर्दुम्य और दुर्धर्ष शोर्य और सर्वस्वत्याग की गौरवगाथा के रूप में हमारी भावी पीढ़ियों के लिए अक्षुण्ण रहे।

— डॉ. औमप्रकाश सुथार