बाघा जतिन

बाघा जतिन: भारत माता का शेर और क्रांति का अग्रदूत

“आमरा मोरबो, जगत जागबे” — “जब हम मरेंगे तभी देश जागेगा।” यह नारा देने वाले बाघा जतिन, भारत के उन महान क्रांतिकारियों में से एक थे जिन्होंने अपने साहस, दूरदृष्टि और बलिदान से आजादी की लड़ाई को एक नया मोड़ दिया।

प्रारंभिक जीवन

बाघा जतिन का असली नाम यतीन्द्र नाथ मुखर्जी था। इनका जन्म 7 दिसंबर 1879 को कायाग्राम गांव, जिला कुड़ीया, बंगाल में हुआ। जब वे मात्र पांच वर्ष के थे, उनके पिता उमेश चन्द्र का निधन हो गया। उनकी माताजी ने उनमें देशभक्ति का बीज बो दिया, जो आगे चलकर एक विशाल वटवृक्ष बना।

इंट्रेंस परीक्षा पास करने के बाद जतिन एक स्टेनोग्राफर के रूप में नियुक्त हुए, लेकिन जल्द ही नौकरी छोड़कर स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े।

‘बाघा जतिन’ कैसे बने

एक बार गांव में आतंक मचा रहे एक नरभक्षी बाघ को जतिन ने अकेले छुरी से मार गिराया और गांव को भय से मुक्त किया। तभी से वे “बाघा जतिन” के नाम से प्रसिद्ध हो गए।

क्रांतिकारी गतिविधियाँ

बाघा जतिन, क्रांतिकारी संगठन जुगांतर से जुड़े और जल्द ही फिरंगियों के लिए आतंक बन गए। उन्होंने 1905 में दार्जिलिंग मेल में चार फिरंगियों को अकेले ही पीट दिया।

एक और वाकया – जब प्रिंस ऑफ वेल्स के स्वागत जुलूस में कुछ अंग्रेजों ने गाड़ी की छत से महिलाओं की खिड़की में पैर लटका दिए, तो जतिन ने उन्हें चेतावनी दी। जब वे नहीं माने, तो जतिन खुद ऊपर चढ़े और सभी को सबक सिखाया

स्वतंत्रता के लिए हथियारों की व्यवस्था

बाघा जतिन ने बलिया घाट, गार्डन रीच, ढुलरिया जैसी जगहों पर डकैती कर हथियार और धन एकत्र किया। एक डकैती में उन्हें 22,000 रुपये मिले, वहीं एक अन्य डकैती में राडा कंपनी से लूटे पार्सल में 52 मौजर पिस्तौल और 50,000 कारतूस थे।

उन्होंने बंगाल, बिहार, उड़ीसा और संयुक्त प्रांत में क्रांतिकारियों की शाखाओं को जोड़ने का संगठित प्रयास किया।

जर्मनी और ग़दर पार्टी से संपर्क

1908 में अलीपुर बम कांड में नाम आने के बावजूद बाघा जतिन गुप्त रूप से देशभर के क्रांतिकारियों को जोड़ते रहे।

1910 में गिरफ्तार हुए लेकिन ठोस सबूत न मिलने पर रिहा कर दिए गए। उन्होंने वीरेन्द्रनाथ चट्टोपाध्याय (चट्टो) को सैन फ्रांसिस्को भेजा, जहाँ उन्होंने ग़दर पार्टी और जर्मन राजदूत थियोडर हेलफरीश से हथियार भेजने की योजना बनाई।

बाघा जतिन की सोच अत्यंत दूरदर्शी थी। उन्होंने यह सुनिश्चित किया कि आजादी के बाद जर्मनी भारत पर कोई दावा नहीं करेगा और न ही उसकी सेना भारत में प्रवेश करेगी। यह बात हथियार सौदे में स्पष्ट लिखवाई गई थी।

हथियार लाने वाले जहाज़ और अंग्रेजों की गुप्त जानकारी

  • मेवरिक नामक जहाज़ से हथियार आने थे, लेकिन इसकी सूचना किसी गद्दार ने अंग्रेजों को दे दी।
  • हथियार लाने वाला Amber Larsen जहाज़ वाशिंगटन में पकड़ लिया गया।
  • हेनरी नामक जहाज़ मनीला में पकड़ा गया।
  • श्याम (थाईलैंड) से 5,000 बंदूकें और 1 लाख रुपये नगद लेकर एक जहाज़ रायमंगल आने वाला था, लेकिन उसकी भी जानकारी अंग्रेजों को मिल गई।
  • जर्मनी से भेजे गए दो और जहाज़ फिलीपींस के पास पकड़ लिए गए।

बालासोर की अंतिम लड़ाई

9 सितंबर 1915 को बाघा जतिन अपने पांच साथियों के साथ बालासोर के पास एक पहाड़ी में वर्षा से बचने के लिए आश्रय लिए हुए थे। तभी अंग्रेज पुलिस ने उन्हें घेर लिया।

चित्ताप्रिय और अन्य साथियों ने उन्हें वहां से भाग जाने को कहा, लेकिन बाघा जतिन ने अपने साथियों को छोड़ने से इनकार कर दिया। दुर्भाग्यवश, गांववालों ने उन्हें डकैत समझ लिया और पुलिस की मदद करने लगे।

मुठभेड़ में बाघा जतिन को गोलियां लगीं और वे 10 सितंबर 1915 को शहीद हो गए। इन पांच वीरों की वीरता की प्रशंसा खुद अंग्रेज खुफिया विभाग के अधिकारी टेगर्ट ने भी की।

ब्रिटिश खुफिया अधिकारी की श्रद्धांजलि

जब बैरिस्टर जे. एन. राय ने टेगर्ट से पूछा – “क्या यतीन्द्र जीवित हैं?”
तो टेगर्ट का जवाब था:

“दुर्भाग्यवश वह मर गया। Though I had to do my duties, I have a great admiration for him. He was the only Bengali who died in open fight from trench.”

उन्होंने यह भी कहा:

“अगर यह व्यक्ति जीवित होता, तो शायद पूरी दुनिया का नेतृत्व करता।”

बाघा जतिन का असर

ब्रिटिश प्रशासन बाघा जतिन और उनके दल से इतना भयभीत था कि 1912 में कलकत्ता से राजधानी दिल्ली स्थानांतरित कर दी गई

उनकी सोच लोकतांत्रिक थी। वे कहते थे:

“पूंजीवाद समाप्त कर श्रेणीहीन समाज की स्थापना क्रांतिकारियों का लक्ष्य है। देसी-विदेशी शोषण से मुक्ति और आत्म-निर्णय द्वारा जीवनयापन का अवसर प्राप्त करना हमारी प्राथमिक मांग है।”

सम्मान और विरासत

भारत सरकार ने उनकी स्मृति में डाक टिकट जारी किया।
बाघा जतिन का बलिदान भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की प्रेरणा की मिसाल बन गया। वे न केवल वीरता, बल्कि दूरदर्शिता और संगठनात्मक कुशलता के प्रतीक थे।


बाघा जतिन की गाथा एक साहसी योद्धा की कहानी नहीं, बल्कि भारत के स्वतंत्रता संग्राम के सबसे साहसी अध्यायों में से एक है।