शचींद्रनाथ सान्याल

शचींद्रनाथ सान्याल: वो क्रांतिकारी जिसने ताज नहीं, तोपों से आज़ादी का सपना देखा

जब देश गुलामी की जंजीरों में जकड़ा था, तब कुछ लोग थे जो खामोशी से जल रहे थे — शब्दों से नहीं, शस्त्रों से जवाब देने को तैयार। उन्हीं में से एक थे — शचींद्रनाथ सान्याल, भारतीय सशस्त्र क्रांति के अघोषित सेनापति।

काशी की गलियों से उठी क्रांति की आवाज़

साल था 1893। बनारस की पवित्र धरती पर जन्मा एक बालक, जिसे न किताबों में रुचि थी और न आराम में, बल्कि उसकी रुचि थी — बदलाव में। नाम था शचींद्रनाथ सान्याल। महज़ 15 साल की उम्र में इन्होंने काशी में क्रांतिकारियों का पहला संगठन बना डाला। सोचिए, जब लोग स्कूल के होमवर्क से परेशान होते हैं, तब सान्याल क्रांति की नींव रख रहे थे!

जब दो क्रांतिकारी रास्ते मिले…

1909 में क्रांतिकारी रमेशाचार्य के प्रयास से सान्याल का संगठन योगेश चटर्जी के कलकत्ता दल से जुड़ा। यहीं से जन्म हुआ उस संगठन का, जिसने बाद में अंग्रेजी हुकूमत की नींदें उड़ा दीं — हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन (HRA)

इलाहाबाद, कानपुर, मेरठ, शाहजहांपुर — पूरा उत्तर भारत इस संगठन की क्रांति की आँच में तप रहा था। राम प्रसाद बिस्मिल जैसे धधकते नाम इसी दल से जुड़े।

‘हम लूटेंगे… लेकिन सिर्फ़ शोषकों को!’

दल को क्रांति के लिए हथियार चाहिए थे, और हथियारों के लिए धन। पर यह पैसा आए कहाँ से? तब सान्याल और उनके साथियों ने रास्ता चुना — साहूकारों और जमींदारों को लूटने का, जो गरीबों का खून चूसते थे। बसमेंली, द्वारकापुरी जैसे गांव गवाह बने इन डाकों के।

और फिर हुआ वो धमाका जिसने अंग्रेजी हुकूमत को झकझोर कर रख दिया — काकोरी एक्शन (1925)। इस कार्रवाई के पीछे वही संगठन था, जिसकी सोच का नक्शा सान्याल ने तैयार किया था।

एक क्रांति जो समय से पहले पकड़ी गई

1915 में रासबिहारी बोस के नेतृत्व में देशभर में फौजियों को संगठित कर एक साथ विद्रोह की योजना बनी। सान्याल इस योजना की रीढ़ थे। लेकिन एक मुखबिर की खबर से सबकुछ ध्वस्त हो गया। सान्याल गिरफ्तार हुए, और 1916 में उन्हें काला पानी की सजा दे दी गई।

‘बंदी जीवन’ में लिखा दर्द

1920 में रिहा होकर बाहर आए, तो कांग्रेस से मिले, लेकिन वहां क्रांतिकारी को वही पुराना अपमान मिला। उन्होंने अपनी आत्मकथा ‘बंदी जीवन’ में यह सब दर्ज किया — वह दर्द, वह अकेलापन, वह अनदेखा बलिदान।

क्रांति को संविधान मिला

1924 में संगठन का पुनर्गठन हुआ। अब साथ में थे — भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु। सान्याल ने संगठन का संविधान लिखा, जिसमें क्रांति का सपना सिर्फ सत्ता बदलने का नहीं था, बल्कि शोषण रहित समाज गढ़ने का था।

‘The Revolutionary’ और अंतिम लड़ाई

1925 में उन्होंने The Revolutionary नामक घोषणापत्र तैयार कर देशभर में बाँटा। बाँकुड़ा में उन पर मुकदमा चला और दो साल की सजा हुई। फिर उन्हें काकोरी केस में आजीवन कारावास की सजा दी गई।

1937 में कांग्रेस सरकार के आने पर रिहा हुए, लेकिन राजनीति से मोहभंग हो गया। वे फारवर्ड ब्लॉक से जुड़े और काशी से ‘अग्रगामी’ नामक पत्र निकालने लगे।

और फिर… वो हमेशा के लिए मौन हो गए

1941 में उन पर जापान से संबंध रखने का आरोप लगा और उन्हें देवली शिविर भेजा गया। वहां वे तपेदिक का शिकार हुए। 7 फरवरी 1942 को गोरखपुर जेल में उनका निधन हुआ — चुपचाप, लेकिन इतिहास में गूंजती आवाज़ के साथ


अंतिम प्रणाम

शचींद्रनाथ सान्याल का जीवन एक मिशाल है उन क्रांतिकारियों की, जिन्होंने सिर्फ आज़ादी का सपना नहीं देखा, बल्कि उसके लिए अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया। वे कोई नेता नहीं थे, पर वे वो मशाल थे, जिसने भगत सिंह जैसे नायकों को रोशनी दी।

उनके लिए कोई बड़ी मूर्ति नहीं बनी, न कोई राजकीय सम्मान मिला… लेकिन इतिहास की धड़कन में वे आज भी जिंदा हैं।

शत-शत नमन उस योद्धा को, जिसकी लेखनी, जिसकी बंदूक और जिसकी आत्मा — सब आज़ादी को समर्पित थे।