गुरु रामसिंह कूका: स्वतंत्रता संग्राम के अग्रदूत और कूका आंदोलन के प्रणेता
भारत के स्वतंत्रता संग्राम में कई ऐसे वीर हुए जिन्होंने न सिर्फ ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ आवाज़ उठाई, बल्कि सामाजिक बदलाव की अलख भी जगाई। ऐसे ही महान संत और क्रांतिकारी थे गुरु रामसिंह कूका, जो कूका आंदोलन के प्रणेता और नामधारी पंथ के संस्थापक थे। उनका जन्म 3 फरवरी 1816 को भैणी साहिब, जिला लुधियाना (पंजाब) में हुआ था।
आध्यात्मिक संत से क्रांतिकारी नेता तक
रामसिंह जी पहले महाराजा रणजीत सिंह की सेना में थे, लेकिन जल्द ही उन्होंने नौकरी छोड़कर आध्यात्मिक और सामाजिक सेवा का रास्ता अपनाया। वे लोगों को गोरक्षा, नारी सुरक्षा, कन्या शिक्षा, अंतर्जातीय विवाह और सामूहिक विवाह जैसे सुधारों के लिए प्रेरित करते थे। उन्होंने दहेज प्रथा, खर्चीली शादी और कन्या भ्रूण हत्या के खिलाफ आवाज़ उठाई।
उनकी शिक्षाओं से प्रभावित होकर हजारों लोग उनके अनुयायी बन गए और धीरे-धीरे एक अलग नामधारी सिख पंथ अस्तित्व में आया। उन्होंने स्त्रियों को भी पुरुषों की तरह अमृत छका कर सिखी दी और विवाह के लिए सिर्फ सवा रुपया तय किया, जिसे आनंद कारज कहा गया। 3 जून 1863 को उन्होंने फिरोजपुर जिले के खोटे गांव में 6 अंतर्जातीय विवाह करवा कर सामाजिक क्रांति की शुरुआत की।
कूका आंदोलन और स्वतंत्रता का बिगुल
रामसिंह जी को जल्दी ही यह समझ आ गया कि सामाजिक सुधार तभी संभव हैं जब देश राजनीतिक रूप से स्वतंत्र हो। उन्होंने ब्रिटिश साम्राज्य का बहिष्कार करते हुए स्वतंत्र डाक और प्रशासनिक व्यवस्था शुरू की। उन्होंने अंग्रेजों की शिक्षा, अदालत, रेल, डाक, तार और विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार का आह्वान किया।
उन्होंने पंजाब को 22 जिलों में बाँटकर हर जिले में एक अध्यक्ष नियुक्त किया। ब्रिटिश सत्ता को नकारते हुए उन्होंने भारत को स्वतंत्र राष्ट्र घोषित किया।
बलिदान और वीरता की अमर कहानी
1871 में कूकों और कसाइयों के बीच हुए संघर्ष में कई कूकों ने कसाइयों को मार दिया। रामसिंह जी के आदेश पर सभी कूका स्वयं अमृतसर जाकर आत्मसमर्पण कर दिए। इससे ब्रिटिश अधिकारी घबरा उठे।
मकर संक्रांति 1872 को एक कूका ने मलेरकोटला में एक व्यक्ति को बैल पर अत्यधिक भार डालते देखा और टोकाटाकी की। इससे विवाद हुआ और गांव वालों ने उस कूका को पीटा, यहाँ तक कि उसके मुंह में गाय का मांस भी ठूंस दिया गया।
इस अपमान की खबर भैणी पहुंची तो कूका समुदाय में आक्रोश फैल गया। रामसिंह जी ने खुद पुलिस को सूचना दी कि अब यह मामला उनके नियंत्रण में नहीं है। 154 कूका वीरों ने मलेरकोटला पर हमला कर दिया। हालांकि बाद में उन्हें पीछे हटना पड़ा।
29 नवम्बर 1885 को रढ़ गांव के पास 68 कूकों को गिरफ्तार कर लिया गया। 17 जनवरी 1872 को लुधियाना के डिप्टी कमिश्नर कॉवन के आदेश पर 49 कूकों को तोपों से उड़ा दिया गया। इसमें 13 वर्षीय किशन सिंह भी था, जिसे देखकर कॉवन की पत्नी ने उसकी जान बख्शने की प्रार्थना की। लेकिन जब किशन सिंह ने रामसिंह जी को “गुरु” कहने से मना नहीं किया और कॉवन की दाढ़ी पकड़ ली, तो कॉवन ने क्रूरता से उसके दोनों हाथ काट कर उसे मार दिया।
18 अन्य कूकों को अगले दिन फांसी दे दी गई।
अंतिम बलिदान
इन घटनाओं के बाद गुरु रामसिंह जी को भी गिरफ्तार कर बर्मा (अब म्यांमार) की मांडले जेल में भेज दिया गया, जहाँ 1885 में उनका निधन हो गया।
यदि यह आंदोलन अचानक और असमय उग्र न होता, तो संभवतः पंजाब से फिरंगियों को खदेड़ने का सपना बहुत पहले साकार हो जाता।
शत-शत नमन उन वीर कूका योद्धाओं को, जिन्होंने भारत की स्वतंत्रता के लिए अपने प्राणों की आहुति दी।