हरिपद भट्टाचार्य: बाल क्रांतिकारी की शौर्य गाथा
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में कई वीरों ने अपने प्राणों की आहुति दी, लेकिन कुछ कहानियां ऐसी हैं, जो साहस, समर्पण और निष्ठा की मिसाल बनकर सामने आती हैं। एक ऐसी ही कहानी है बाल क्रांतिकारी हरिपद भट्टाचार्य की, जिन्होंने अपनी छोटी सी उम्र में अंग्रेजों के खिलाफ एक साहसी संघर्ष का उदाहरण प्रस्तुत किया। यह कहानी न केवल क्रांतिकारी साहस की प्रतीक है, बल्कि हमें यह भी दिखाती है कि संघर्ष का कोई भी रूप छोटा या बड़ा नहीं होता।
चटगांव क्रांति और मास्टर सूर्य सेन
हरिपद भट्टाचार्य का संबंध उस ऐतिहासिक घटना से था, जिसे चटगांव क्रांति के नाम से जाना जाता है। 18 अप्रैल 1930 को मास्टर सूर्य सेन “दा” द्वारा गठित इंडियन रिपब्लिकन आर्मी ने चटगांव के पुलिस और फौज के शस्त्रागार पर हमला किया था। इस हमले में उन्होंने अंग्रेजों का यूनीयन जैक उतारकर भारतीय ध्वज फहराया और चार दिनों तक चटगांव में क्रांतिकारी प्रशासन स्थापित किया।
लेकिन यह संघर्ष लंबा नहीं चला। 23 अप्रैल 1930 को जलालाबाद पहाड़ी पर क्रांतिकारियों और अंग्रेजी फौज के बीच भीषण संघर्ष हुआ, जिसमें कई क्रांतिकारी शहीद हो गए। शेष बच गए क्रांतिकारी गांवों में छिप गए। उन क्रांतिकारियों में एक था हरिपद भट्टाचार्य, जो मात्र 15 वर्ष का बालक था, लेकिन उसके दिल में अपने देश के लिए अदम्य साहस और राष्ट्रभक्ति का जज्बा था।
इंस्पेक्टर खान बहादुर का अत्याचार
चटगांव के क्रांतिकारियों की पराजय के बाद, पुलिस इंस्पेक्टर खान बहादुर अशमुल्ला ने क्रांतिकारियों के परिवारों पर अमानवीय अत्याचार शुरू कर दिए थे। हरिपद यह सब देख नहीं सका और उसने मास्टर सूर्य सेन से खान बहादुर का वध करने की अनुमति मांगी। मास्टर “दा” ने न केवल उसे रिवॉल्वर चलाने का प्रशिक्षण दिया, बल्कि एक अच्छा रिवॉल्वर देकर आशीर्वाद भी दिया।
खान बहादुर का अंत
हरिपद को यह पता चला कि खान बहादुर अशमुल्ला फुटबॉल का शौकीन था और उसकी टीम का कोहिनूर टीम के साथ 30 अगस्त 1931 को रेलवे कप के लिए मुकाबला था। हरिपद ने इसे एक सुनहरा अवसर समझा और 30 अगस्त को खान बहादुर को उसकी टीम के साथ खेल के दौरान मैदान में ही गोली मार दी।
खान बहादुर अपने जीत के बाद खुश था, और खेल मैदान में लोग उसे बधाई दे रहे थे। उसी वक्त, हरिपद ने अपने रिवॉल्वर से खान बहादुर को चार गोलियां मारी। खान बहादुर की मौत निश्चित हो गई। लेकिन हरिपद घटना स्थल पर खड़ा रहा, यह सुनिश्चित करने के लिए कि खान की मौत हो गई है।
गिरफ्तारी और यातनाएं
इतना होते ही पुलिस ने हरिपद को पकड़ लिया। उसे बुरी तरह लातों से मारा गया और चटगांव थाना में बंद कर दिया गया। पुलिस ने उसके वृद्ध पिता और परिवार को भी अमानवीय यातनाएं दीं। पुलिस और अपराधियों के गठजोड़ ने तीन दिन तक चटगांव गांव को लूटा और महिलाओं से छेड़छाड़ की।
मुकदमा और सजा
16 सितंबर 1931 को हरिपद भट्टाचार्य के खिलाफ मुकदमा चला। और 22 दिसंबर 1932 को अदालत ने फैसला सुनाया। चूंकि हरिपद की आयु कम थी, उसे मृत्युदंड नहीं दिया गया। उसे आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई, और उसे कालापानी की सजा भी दी गई।
शहादत और प्रेरणा
हरिपद भट्टाचार्य का यह साहसिक कदम हमें यह सिखाता है कि कभी भी किसी की उम्र, शारीरिक ताकत या स्थिति को देख कर किसी के साहस का मूल्यांकन नहीं किया जा सकता। वह मात्र 15 वर्ष का था, लेकिन उसके दिल में देश की आज़ादी की चाहत इतनी प्रबल थी कि उसने अपनी जान की परवाह किए बिना अत्याचारियों से बदला लिया।
शत शत नमन उस बाल क्रांतिकारी को, जिसने अपने साहस और राष्ट्रभक्ति से न केवल चटगांव में अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष किया, बल्कि हम सभी को यह सिखाया कि स्वतंत्रता के लिए किसी भी संघर्ष की कोई उम्र नहीं होती।
उनका बलिदान और संघर्ष हमेशा हमारे दिलों में जीवित रहेगा, और वे हमेशा हमें प्रेरित करेंगे।