पाण्डुरंग सदाशिव खानखोज: स्वतंत्रता संग्राम के साहसी सेनानी और क्रांतिकारी नायक
पाण्डुरंग सदाशिव खानखोज का नाम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के उन नायकों में लिया जाता है, जिन्होंने अपने प्राणों की आहुति देकर ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ संघर्ष किया। उनका जीवन, संघर्ष और बलिदान आज भी हम सभी को प्रेरित करता है। आइए जानते हैं उनके साहसिक संघर्षों के बारे में, जो उनकी महानता को उजागर करते हैं।
जर्मनी और अंग्रेजों का वायदा
प्रथम विश्व युद्ध के दौरान, पाण्डुरंग खानखोज जर्मनी के मोर्चे पर थे, जहां उन्होंने ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ अपनी लड़ाई जारी रखी। इस समय अंग्रेजों ने वायदा किया था कि युद्ध के बाद भारत को आज़ादी मिल जाएगी। लेकिन युद्ध के बाद जब अंग्रेजों ने अपना वादा तोड़ा, तो यह पाण्डुरंग खानखोज के लिए एक बड़ा झटका था। उनका गुस्सा स्वाभाविक था, और इस वायदाखिलाफी से रुष्ट होकर उन्होंने अपनी सेना की नौकरी छोड़ दी।
क्रांतिकारी दलों से जुड़ाव और संघर्ष की नई राह
इस समय दयानंद उर्फ दयाराम, एक क्रांतिकारी नेता, बंगाल से भारत के विभिन्न हिस्सों में क्रांतिकारी गतिविधियों के लिए सहायता जुटाने आए थे। पाण्डुरंग खानखोज ने उनसे संपर्क किया और अमृतसर नोजवान सभा के सदस्य बन गए, जो ब्रिटिश शासन के खिलाफ सक्रिय रूप से काम कर रही थी।
क्रांतिकारी दलों ने अपने हथियारों की आपूर्ति के लिए धन जुटाने का प्रयास किया, और इसके लिए बड़े जमीदारों के घरों पर डाके डाले जाते थे। पाण्डुरंग खानखोज भी इस संघर्ष का हिस्सा बने और मनौली गांव के जमीदार पूर्ण सिंह के घर पर शस्त्रों के लिए डाका डाला। यह घटना उनकी क्रांतिकारी यात्रा का एक महत्वपूर्ण मोड़ थी।
राजस्थान और डकैती की गिरफ्तारी
दिल्ली में शंभू नाथ आजाद के निर्देशानुसार पाण्डुरंग खानखोज ने राजस्थान में हथियार लेने के लिए यात्रा की। लेकिन एक अकल्पनीय घटना घटी। मनौली डकैती में शामिल एक सदस्य चंदन सिंह को गिरफ्तार कर लिया गया। चंदन सिंह ने सरकारी गवाह बनने का निर्णय लिया और उसकी सूचना पर पाण्डुरंग खानखोज को भी गिरफ्तार कर लिया गया।
मुकदमा और फाँसी की सजा
पाण्डुरंग खानखोज के खिलाफ मुकदमा चला, और अंततः उन्हें फाँसी की सजा सुनाई गई। उनके साथी नरेंद्र नाथ पाठक और रामचंद्र भट्ट को दस-दस वर्ष के कारावास की सजा दी गई। पाण्डुरंग खानखोज के इस बलिदान से यह साबित होता है कि स्वतंत्रता की राह में कोई भी कीमत चुकाई जा सकती थी।
फाँसी और शहादत
पाण्डुरंग सदाशिव खानखोज को 6 अप्रैल 1932 को दिल्ली केंद्रीय जेल में फाँसी दी गई। उनकी शहादत ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को एक नया दिशा और संकल्प दिया। उनका जीवन केवल संघर्ष और बलिदान का प्रतीक नहीं था, बल्कि यह उन सभी क्रांतिकारियों के लिए एक प्रेरणा था, जो ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ अपनी आवाज उठाने का साहस रखते थे।
शत शत नमन उस महान सेनानी को, जिन्होंने अपनी जान की आहुति दे कर भारत को स्वतंत्रता दिलाने की दिशा में अनमोल योगदान दिया। उनका बलिदान आज भी हमारे दिलों में जीवित है और हमें अपनी स्वतंत्रता की कीमत समझने की प्रेरणा देता है।