हरि किशन सरहदी

हरि किशन सरहदी | Hari Kishan Sarhadi

हरि किशन सरहदी: क्रांतिकारी साहस और बलिदान की मिसाल

पंजाब विश्वविद्यालय का दीक्षांत समारोह – 23 दिसंबर 1930

23 दिसंबर 1930, एक ऐतिहासिक दिन था जब पंजाब विश्वविद्यालय के दीक्षांत समारोह के बाद, एक वीर युवा क्रांतिकारी ने अपनी साहसिक कार्यवाही से सभी को चौंका दिया। कार्यक्रम के बाद, जैसे ही पंजाब गवर्नर, ज्योफ्रे डी मोरमोरेंसी, विश्वविद्यालय हॉल से बाहर जाने लगे, एक युवा युवक ने पिस्तौल से गवर्नर पर दो गोलियां दाग दी। एक गोली गवर्नर के कंधे पर और दूसरी उनके पीठ पर लगी। इस हमले में कई लोग घायल हुए, जिनमें से एक पुलिसकर्मी बाद में अपनी चोटों से मर गया।

युवक को मौके पर गिरफ्तार कर लिया गया और उसकी पहचान हुई – क्रांतिकारी हरि किशन सरहदी।

हरि किशन सरहदी का जीवन और संघर्ष

हरि किशन सरहदी का जन्म 1909 में उत्तर-पश्चिमी सीमांत प्रांत के मर्दन शहर के पास गल्ला ढेर गांव में हुआ था। उनके पिता श्री गुरुदास मल बड़े जमींदार थे। उनके परिवार में क्रांतिकारी सोच और देशभक्ति का माहौल था, और उनके भाई भगतराम भी पेशावर जेल में थे।

हरि किशन ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में योगदान देने का संकल्प लिया। उनका आदर्श रामप्रसाद बिस्मिल और अशफ़ाक़ उल्ला ख़ाँ जैसे महान क्रांतिकारी थे, जो ब्रिटिश शासन के खिलाफ सशस्त्र संघर्ष कर रहे थे। खास तौर पर केंद्रीय असेम्बली प्रकरण में भगत सिंह द्वारा अदालत में दिए गए बयानों ने उन्हें गहरे प्रभावित किया।

गवर्नर पर हमला

23 दिसंबर 1930 को पंजाब विश्वविद्यालय के दीक्षांत समारोह में हरि किशन ने अपनी क्रांतिकारी योजना को अंजाम दिया। उन्होंने गवर्नर मोरमोरेंसी पर पिस्तौल से छह गोलियां चलाईं। इनमें से दो गोलियां गवर्नर को लगीं, जबकि बाकी गोलियां उन्होंने अपनी रक्षा के लिए चलाईं। इस हमले का उद्देश्य केवल गवर्नर को मारना था, और यह बिना किसी अनहोनी के पूरा किया गया।

अदालत में, हरि किशन सरहदी ने अपनी सफाई में कहा, “मैं यहां गवर्नर को मारने के लिए आया था, और मैंने जो किया वह मेरी इच्छा से किया है।” उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि उन्होंने केवल अपनी रक्षा के लिए गोलियां चलाईं, और उन्हें यह बताने की जरूरत नहीं कि उन्होंने यह कार्य क्यों किया।

मुकदमा और फांसी की सजा

हरि किशन पर मुकदमे की सुनवाई लाहौर की बोस्टन जेल में 3 जनवरी 1936 को शुरू हुई। उन्होंने किसी भी तरह की सफाई देने से इंकार कर दिया और वकील भी नियुक्त नहीं किया। उन्होंने सीधे अदालत में यह स्वीकार किया कि उनका उद्देश्य गवर्नर को मारना था, और उनके द्वारा पेश की गई गोलियां और पिस्तौल उनकी थीं।

इस मामले में उन्हें फांसी की सजा सुनाई गई, जो बाद में अपील करने के बावजूद यथावत रही। 9 जून 1931 को मियांवाली जेल में उन्हें फांसी दे दी गई।

अंतिम इच्छाएं और सरकार का रवैया

हरि किशन सरहदी ने अपनी अंतिम इच्छा जाहिर की थी कि उनके पार्थिव शरीर को उनके रिश्तेदारों को सौंप दिया जाए और उनका अंतिम संस्कार उसी स्थान पर किया जाए जहां सरदार भगत सिंह का हुआ था। लेकिन सरकार ने उनकी अंतिम इच्छा को अस्वीकार कर दिया, और उनका शरीर बिना किसी धार्मिक रीति-रिवाज के, पास के मुस्लिम कब्रिस्तान में जलाया गया।

शहादत की याद

हरि किशन सरहदी का बलिदान भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में एक महत्वपूर्ण अध्याय बन गया। उनका साहस और उनकी शहादत आज भी हमें यह सिखाती है कि स्वतंत्रता की प्राप्ति के लिए हमें अपने जीवन की आहुति देने से भी पीछे नहीं हटना चाहिए।

शत शत नमन शहीदों को!

यह लेख एक प्रेरणा है, एक साहसी और निडर क्रांतिकारी की कहानी, जिसने अपनी जीवन की सबसे बड़ी कुर्बानी दी, ताकि हम स्वतंत्रता के साथ जी सकें। उनकी शहादत और बलिदान हमेशा हमारे दिलों में जीवित रहेंगे।

वे हमेशा हमारे दिलों में एक महान नायक के रूप में याद किए जाएंगे।