चंद्रशेखर ‘आज़ाद’ – स्वतंत्रता संग्राम के अजेय योद्धा
जन्म : 23 जुलाई 1906
शहादत : 27 फरवरी 1931
भारत माता के ऐसे वीर सपूत, जिनका नाम सुनते ही फिरंगियों और पुलिस की घिग्घी बंध जाती थी — चंद्रशेखर ‘आज़ाद’। उनका जन्म मध्यप्रदेश के झाबुआ जिले के गांव भाँवरा, तत्कालीन अलीराजपुर रियासत में हुआ था। उनके पिता पंडित सीताराम तिवारी एक निर्धन ब्राह्मण थे।
एक बालक से “आज़ाद” बनने तक
सविनय अवज्ञा आंदोलन के समय बनारस में 13 से 15 वर्ष की आयु के बच्चों का एक जुलूस निकाला गया। पुलिस ने जुलूस को तितर-बितर कर दिया और एक 12 वर्षीय बाल नेता को पकड़कर मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया।
जब मजिस्ट्रेट ने उसका नाम पूछा, उसने कहा:
“नाम: आज़ाद”
“पिता का नाम: स्वाधीनता”
“निवास स्थान: जेलखाना”
इस उत्तर से क्रोधित मजिस्ट्रेट ने उसे 15 बेंतों की सजा दी। हर बेंत के साथ वह बालक निडरता से नारा लगाता:
“महात्मा गांधी की जय!”
सजा पूरी होते-होते वह बेहोश हो गया। शहर में उसका स्वागत हुआ और उसे मेज पर खड़ा कर लोगों ने अभिनंदन किया। यही वह क्षण था जब ‘आज़ाद’ नाम अमर हो गया।
असहयोग आंदोलन से क्रांति पथ की ओर
गांधीजी द्वारा असहयोग आंदोलन वापस लिए जाने के बाद वही बालक, जो बेंत खाते हुए गांधीजी के नाम के नारे लगा रहा था, अब क्रांति के मार्ग पर निकल पड़ा।
बनारस में सुरेश भट्टाचार्य ‘कल्याण आश्रम’ नामक क्रांतिकारी संगठन चला रहे थे। शचींद्र सान्याल और अन्य क्रांतिकारियों के साथ मिलकर इस संगठन का विलय हुआ और एक नया क्रांतिकारी दल बना:
हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन (HRA)।
इस संगठन में शामिल थे:
- राम प्रसाद बिस्मिल (नेता, शाहजहांपुर)
- अशफाक उल्ला खान
- मन्मथनाथ गुप्त
- ठाकुर रोशन सिंह
- राजेंद्र लाहिड़ी
- रामकृष्ण खत्री, दामोदर सेठ, भूपेंद्र सान्याल आदि।
काकोरी कांड और आज़ाद की भूमिका
9 अगस्त 1925 — काकोरी में क्रांतिकारियों ने अंग्रेज़ों का खजाना लूटकर अंग्रेज हुकूमत को झटका दिया।
इस ऐतिहासिक काकोरी एक्शन में आज़ाद सबसे कम उम्र के क्रांतिकारी थे, और वे कभी पकड़े नहीं गए।
इसके बाद 31 दिसंबर 1926 को वायसराय इरविन की गाड़ी पर बम फेंका गया, पर अफसोस वह बच गया।
जंगलों से संगठन की कमान
फरारी के दौरान आज़ाद जी ने झांसी के पास ओरछा के जंगलों में ‘हरिशंकर ब्रह्मचारी’ के नाम से रहकर संगठन को तैयार किया।
8 सितंबर 1929, दिल्ली के फिरोज़ शाह कोटला में क्रांतिकारियों की गुप्त सभा हुई, जिसमें संगठन का नाम बना —
हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन (HSRA)।
- प्रचार शाखा के प्रमुख: भगत सिंह
- सेना शाखा के कमांडर-इन-चीफ़: आज़ाद
लाला लाजपत राय की शहादत और बदला
20 अक्टूबर 1928, साइमन कमीशन के विरोध में लाहौर में प्रदर्शन हुआ।
लाठीचार्ज में लाला लाजपत राय घायल हुए और 17 नवंबर को उनका देहांत हो गया।
इसका बदला लेने के लिए 17 दिसंबर 1928 को सांडर्स का वध किया गया। इस मिशन में शामिल थे — आज़ाद, भगत सिंह और राजगुरु।
बम से अंग्रेज़ी कुशासन का विरोध
8 अप्रैल 1929 को भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने विधानसभा में बम फेंक कर ब्रिटिश शासन की नीतियों का अंतरराष्ट्रीय स्तर पर विरोध किया।
इसके बाद भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव गिरफ्तार हुए। कई साथी सरकारी गवाह बन गए और संगठन बिखर गया।
अंतिम योजना और बलिदान
आज़ाद जी ने ग़दर पार्टी के क्रांतिकारी पृथ्वी सिंह से संपर्क किया और भगत सिंह को छुड़ाने की योजना पर कार्य शुरू किया।
27 फरवरी 1931, योजना की चर्चा के दौरान इलाहाबाद के अल्फ्रेड पार्क में पुलिस ने उन्हें घेर लिया। एक देशद्रोही ने सूचना दी थी।
भीषण मुठभेड़ हुई, और जब चारों ओर से घिर गए, तो आज़ाद जी ने अपनी आखिरी गोली खुद को मार ली। उन्होंने कहा था:
“दुश्मन की गोलियों का हम सामना करेंगे,
आज़ाद ही रहे हैं, आज़ाद ही रहेंगे।”
आज़ाद — आदर्श और नेतृत्व के प्रतीक
- संगठन के वे सर्वश्रेष्ठ कर्ता थे।
- ‘बिग एक्शन’ (डाका या वध) में साथी की छाया बन कर साथ रहते थे।
- वेश बदलना, निशानेबाजी, और योजनाओं में वे अद्वितीय थे।
- आवाज़ पहचान कर निशाना लगा देते थे।
सांडर्स कांड का रोमांचकारी क्षण
घटना के बाद भगत सिंह भागे, पीछे चनन सिंह था, जो ताकतवर था और भगत सिंह को पकड़ सकता था।
आज़ाद जी डीएवी होस्टल की छत से देख रहे थे।
पहली गोली चनन सिंह के कान के पास से गुजरी, दूसरी गोली पेट में लगी — वह ढेर हो गया।
महिलाओं के प्रति सम्मान
एक डाका एक्शन के दौरान जब एक महिला ने उनका हाथ पकड़ लिया, तो उन्होंने बल प्रयोग नहीं किया।
रामप्रसाद बिस्मिल ने आकर महिला से छुड़ाया।
यह उनके संस्कारों और चरित्र की महानता को दर्शाता है।
चंद्रशेखर आज़ाद की जीवन यात्रा के कुछ अनकहे किस्से
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में चंद्रशेखर आज़ाद एक ऐसा नाम है, जो बलिदान, साहस और संकल्प का पर्याय बन चुका है। वे न केवल एक कुशल संगठनकर्ता और क्रांतिकारी थे, बल्कि मानवीय संवेदनाओं और तीव्र आत्मबल के प्रतीक भी थे। उनके जीवन से जुड़े कई ऐसे प्रसंग हैं, जो न केवल प्रेरणा देते हैं, बल्कि हृदय को भी छू जाते हैं। आइए, ऐसे ही कुछ रोचक और मार्मिक प्रसंगों पर एक दृष्टि डालते हैं।
1. जब आज़ाद बने उदासी महंत का शिष्य
एक बार रामकृष्ण खत्री ने क्रांतिकारी दल के लिए धन एकत्र करने की योजना बनाई। योजना के तहत उन्होंने आज़ाद जी को गाजीपुर में एक वृद्ध उदासी महंत का शिष्य बना दिया। आशा थी कि वृद्ध महंत के निधन के बाद मठ का पूरा नियंत्रण आज़ाद जी के हाथ में आ जाएगा, जिससे संसाधन प्राप्त होंगे। कुछ दिनों तक आज़ाद जी ने वहाँ टिके रहने की कोशिश की, लेकिन जल्द ही उनका धैर्य जवाब दे गया।
मन्मथ नाथ गुप्त और रामकृष्ण खत्री जी जब आज़ाद जी से मिलने गए, तो आज़ाद जी ने व्यंग्य में कहा —
“यह साला महंत अभी मरने वाला नहीं है, खूब दूध पीता है!”
दोनों ने उन्हें जल्द बुला लेने का आश्वासन दिया, लेकिन आज़ाद जी एक-दो दिन इंतजार करने के बाद बिना किसी को बताए ही मठ छोड़कर निकल गए।
2. जब चूड़ी आंदोलन का सामना हुआ
असहयोग आंदोलन के समय देशभर में महिलाओं ने भी स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेना शुरू कर दिया था। एक अनूठे और प्रतीकात्मक विरोध के रूप में लड़कियों ने चूड़ी आंदोलन शुरू किया। वे सड़कों पर चूड़ियाँ लेकर निकलतीं और जो भी युवक स्वतंत्रता संग्राम में भाग न लेता दिखाई देता, उसे चूड़ियाँ पहना देतीं और कहतीं —
“अगर आज़ादी की लड़ाई नहीं लड़ सकते तो चूड़ियाँ पहन कर घर बैठो।”
एक दिन कुछ बहनों का सामना चंद्रशेखर आज़ाद से हो गया। उन्होंने भी आज़ाद जी का हाथ पकड़कर चूड़ियाँ पहनाने की कोशिश की। लेकिन आज़ाद जी का हाथ इतना मजबूत और बड़ा था कि चूड़ियाँ उसमें समा ही नहीं सकीं। आज़ाद जी मुस्कराकर बोले —
“बहन, ऐसी कोई चूड़ी बनी ही नहीं जो मेरे हाथ में पहना सकें!”
यह सुनकर सब हँस पड़े, और उन बहनों को भी ज्ञात हुआ कि वे एक सच्चे योद्धा से टकरा गई थीं।
3. मशहूर मूंछों वाले फोटो का किस्सा
हम सभी चंद्रशेखर आज़ाद की वह प्रसिद्ध तस्वीर देखते हैं, जिसमें वे मूंछों पर ताव देते हुए खड़े हैं। इस ऐतिहासिक फोटो के पीछे भी एक दिलचस्प कहानी है। मास्टर रूद्र नारायण सिंह, जो एक चित्रकार और फोटोग्राफर थे, ने आज़ाद जी से अनुरोध किया कि वे उनकी एक तस्वीर लेना चाहते हैं। आज़ाद जी ने कहा —
“ठीक है, पहले मूंछों पर ताव तो लगा लेने दो।”
जैसे ही आज़ाद जी ने मूंछों पर ताव देने के लिए हाथ बढ़ाया, मास्टर जी ने बिना समय गंवाए कैमरे का शटर दबा दिया। वह क्षण अब भारत के इतिहास का हिस्सा है और राष्ट्र की अमूल्य थाती बन चुका है।
4. जब माँ की बजाय दल को चुना
यह घटना आज़ाद जी की देशभक्ति और त्याग की चरम सीमा को दर्शाती है। एक बार क्रांतिकारी गणेश शंकर विद्यार्थी जी ने उन्हें 200 रुपये दिए ताकि वे अपनी माता जी को घर भेज सकें। लेकिन उस समय पार्टी के पास खाने तक के पैसे नहीं थे। आज़ाद जी ने वह रकम दल के कार्यों में खर्च कर दी।
जब उनसे पूछा गया कि उन्होंने पैसे अपनी माँ को क्यों नहीं भेजे, तो उनका उत्तर सुनकर हर कोई भावुक हो गया। आज़ाद जी ने कहा —
“उस बूढ़ी माँ के लिए पिस्तौल की दो गोलियाँ काफ़ी हैं। विद्यार्थी जी, इस गुलाम देश में लाखों परिवारों को एक वक्त की रोटी नसीब नहीं होती। मेरी माँ दो दिन में एक बार तो खाना खा ही लेती है। लेकिन मैं पार्टी के किसी सदस्य को भूख से मरने नहीं दूँगा। मेरी माँ-पिता भूखे मर भी गए तो देश को कोई नुकसान नहीं होगा। इस लड़ाई में तो न जाने कितने ही मरते-जीते हैं।”
