क्रांति के देवता :- पंडित रामप्रसाद बिस्मिल
पंडित रामप्रसाद बिस्मिल, जिन्हें हम क्रांति के देवता के रूप में जानते हैं, भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के वो नायक हैं, जिनकी शहादत और संघर्ष का हर पहलू प्रेरणा से भरा हुआ है। उनका जन्म 12 जून 1897 को उत्तर प्रदेश के शाहजहांपुर में हुआ था, और उनका जीवन एक ऐसी गाथा बन गया, जो देशवासियों को आज भी झकझोर देती है।
एक शरारती बालक से क्रांतिकारी नेता तक
बचपन में बिस्मिल शरारती थे। पढ़ाई से बचने के लिए उनका मन कम ही लगता था, और एक बार तो अपने पिता से “उ” शब्द न लिख पाने पर उन्हें लोहे के गज से पीटा गया था। लेकिन जैसे ही वह आर्यसमाजी विचारधारा से जुड़े और स्वामी दयानंद के ब्रह्मचर्य के सिद्धांतों से प्रेरित हुए, उनका जीवन बदल गया। पिताजी के कट्टर सनातनी विचारों के बावजूद, बिस्मिल ने आर्यसमाज को अपना मार्गदर्शक बनाया और उसी समय से उनके जीवन में क्रांति की लौ जलने लगी।
एक संकल्प से क्रांतिकारी जीवन की शुरुआत
पंडित बिस्मिल का जीवन तब पूरी तरह से मोड़ लेता है, जब वे भाई परमानंद की फांसी के समाचार को सुनते हैं। यह वही पल था जब उन्होंने देश के लिए कुछ करने का संकल्प लिया। उनकी प्रेरणा का स्रोत बनते हैं स्वामी सोमदेव, जिनसे उन्हें क्रांतिकारी विचारधारा मिली। इस समय बिस्मिल का संपर्क उन क्रांतिकारियों से हुआ, जिन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ मोर्चा खोलने का ठान लिया था। यही था वह पल, जब पंडित बिस्मिल ने अपनी पूरी ज़िन्दगी का उद्देश्य स्वतंत्रता संग्राम में समर्पित कर दिया।
तिलक जी का स्वागत और युवा जोश
लखनऊ में 1916 का कांग्रेस अधिवेशन और लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक का स्वागत भी पंडित बिस्मिल के जीवन का अहम मोड़ था। तिलक जी के स्वागत में युवा जोश से भरे बिस्मिल ने मोटरकार के आगे लेट कर तिलक जी का अभिनंदन किया। न केवल उन्होंने तिलक जी का स्वागत किया, बल्कि उन्होंने अपनी क्रांतिकारी सोच से कई अन्य नेताओं को भी प्रभावित किया। इसके बाद बिस्मिल और उनके साथी एक संगठित क्रांतिकारी दल “हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन” का हिस्सा बने, जो आने वाले समय में क्रांतिकारी गतिविधियों का केंद्र बना।
काकोरी एक्शन: इतिहास का अहम मोड़
भारतीय क्रांतिकारियों ने चली आ रही सुषुप्त अवस्था को यकायक 9 अगस्त 1925 को झकझोर के जगा दिया। उस दिन क्रांतिकारियों ने सरकारी खजाने को अपने कब्जे में लिया था। इस घटना को काकोरी कांड के नाम से जाना गया लेकिन हम इसे काकोरी एक्शन के नाम से संबोधित करेंगे। इस एक्शन ने अंग्रेजी हुकूमत को हिला कर रख दिया और बिस्मिल की गूंज दूर-दूर तक सुनाई देने लगी।
व्यक्तिगत संघर्ष और समर्पण
क्रांतिकारी जीवन के साथ-साथ बिस्मिल ने अपने व्यक्तिगत संघर्षों को भी झेला। उनके साथी गंगा सिंह, राजाराम और देवनारायण ने एक बार कोलकाता में वायसराय की हत्या की योजना बनाई, लेकिन बिस्मिल इस विचार से असहमत थे। इस घटना के बाद उन पर जानलेवा हमला भी किया गया, लेकिन उनकी दीवार सी इच्छाशक्ति ने उन्हें और मजबूत किया।
बिस्मिल की बहन शास्त्री देवी का योगदान भी इस संघर्ष में अनमोल था। वह अपने भाई को हथियार छिपाकर घर से बाहर लातीं, ताकि वह स्वतंत्रता संग्राम में अपनी भूमिका निभा सकें। क्या यह कोई सामान्य परिवार था, जो अपने बच्चे को इतना बलिदान देने के लिए प्रेरित करता था? नहीं! यह वह परिवार था, जिसने भारत माता के लिए अपना सब कुछ कुर्बान कर दिया।
फांसी से पहले की अंतिम मुलाकात
19 दिसंबर 1927 को, बिस्मिल को गोरखपुर जेल में फांसी दी गई। उनकी माँ उन्हें मिलने आईं, तो बिस्मिल ने अपनी माँ के पैर छूकर गले लगाया। माँ के बारे में उनका कहना था कि इन आँसुओं का कारण मौत का डर नहीं, बल्कि माँ के प्रति मोह है। यही वह क्षण था, जब एक क्रांतिकारी ने अपनी माँ के सामने अपने अंतिम समय में भी अपना कर्तव्य निभाया।
अंतिम शब्द और शहादत
फांसी के तख्ते तक जाते हुए बिस्मिल ने जो शब्द कहे, वह आज भी हमारे दिलों में गूंजते हैं:
“मालिक तेरी रजा रहे और तू ही तू रहे, बाकी ने मैं रहूं, न मेरी आरजू रहे।”
फांसी के तख्ते पर चढ़कर उन्होंने भारत माता की जय और वंदे मातरम के नारे लगाए। अपनी शहादत से पहले बिस्मिल ने कहा,
“I wish the downfall of the British Empire”
और फिर अपने शहादत को अंजाम दिया।
बिस्मिल के जीवन से हमें यह सिखने को मिलता है कि कभी भी देशप्रेम और कर्तव्य का मार्ग नहीं छोड़ा जा सकता। उनका बलिदान, उनका संघर्ष, उनकी शहादत आज भी हमें प्रेरित करती है। वे केवल एक क्रांतिकारी नहीं थे, बल्कि वे हमारे दिलों में हमेशा जीवित रहने वाली एक शक्ति थे।
शत-शत नमन क्रांतिवीर पंडित रामप्रसाद बिस्मिल को।