क्रांतिवीर वारिन्द्र घोष उर्फ वारिन्द्र नाथ

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वारिन्द्र नाथ उर्फ वारिन्द्र घोष “मानिकतला दल“, “गोदघर“ व “देवघर दल“ के अग्रणीय क्रांतिकारियों में से एक थे। श्री वारिन्द्र घोष का जन्म डाॅ. कृष्णधन एवं श्रीमती स्वर्णलता के घर क्रायडन (लंदन के पास) दिनांक 05 जनवरी, 1880 को हुआ था। वारिन्द्र घोष ने इंग्लेण्ड में शिक्षा प्राप्त की। श्री वारिन्द्र घोष सन् 1902 में भारत आ गये उस समय बड़ोदा नरेश के निजी सचिव रहे तथा नेशनल काॅलेज, कलकत्ता के प्राचार्य रहे।

वारिन्द्र अपने आपको राष्ट्रीय आंदोलन से दूर नहीं रख पाये और उन्होनें शसस्त्र क्रांति की नींव रखी। घोष ने श्री जतिन्द्र मुखर्जी के साथ “अनुशीलन समिति“ का गठन किया जिसे मानिकतला व देवघर के नाम से जाना जाता है। इस समिति ने 1906 में मानिकतला के बगीचे में बम्ब बनायें इसलिये इनके क्रांतिकारी कृत्य को मानिकतला के नाम से जाना जाता है। इस समिति के क्रांतिकारियों का केन्द्र “देवघर“ में स्थापित किया गया था इसलिये इस क्रांतिदल को देवघर क्रांति के नाम से भी जाना जाता है।

महान क्रांतिवीर खुदीराम बोस व प्रफुल्ल चाकी इसी क्रांति दल के सदस्य थे। उस समय कसाई काजी के नाम से कुख्यात जज किंग्सफोर्ड का वध करने का बीड़ा प्रफुल्ल चाकी व खुदीराम बोस ने संभाला था।

वारिन्द्र के इस क्रांतिकारी दल के द्वारा 6 दिसम्बर 1907 को बंगाल गर्वनर की हत्या हेतु रेलवे लाईन उड़ाई गई थी परन्तु दुर्भाग्यवश गर्वनर बच गया। 23 दिसम्बर 1907 को ढ़ाका कलेक्टर पर गोली चलाई गई व 30 अप्रेल 1908 को मुज्जफरपुर के सेशन जज किंग्सफोर्ड का वध करने हेतु उसकी गाड़ी पर बम्ब फैंका गया। कलकत्ता में एक पुलिस इन्सपेक्टर को गोली से उड़ा दिया गया।

जेल से छूटने के बाद वारिन्द्र 1920 में वापिस कलकत्ता आये व समाचार पत्र “नारायण“, “बिजली“, “युगान्तरण“, “दैनिक बासुमती“ का सम्पादन किया।

वारिन्द्र दल के क्रांतिकारियों को फिरंगियों ने “अलीपुर षड़यन्त्र“ का नाम दिया व मुकद्दमे बनाये, जिनमे प्रथम बम्ब षड़यन्त्र मामले में वारिन्द्र व उल्लासकर दत्त को प्राण दण्ड की सजा दी गई थी परन्तु हाईकोर्ट द्वारा इसे दिपान्तरवास में बदल दिया था।
सर्व श्री हेमचन्द्र दास, उपेन्द्रनाथ बनर्जी, सलेन्द्रनाथ बोस, भभुति भूषण रास और 6 अन्य व्यक्तियों को कालापानी तथा कई को दस.दस साल की सजा दी गई।

बंगाल में इस केस की बड़ी चहल.पहल रही। सिर्फ इसलिए नहीं कि अब तक तमाम केसों में बड़ा केस था बल्कि इसलिए कि इस केस के मुखबिर नरेन्द्र गोस्वामी को मुकद्दमें की सुनवाई आरम्भ होने से पहले ही जेल में कन्हाई दत्त और यतीन्द्र नाम के नौजवानों ने मौत के घाट उतार दिया था। जिस वकील ने नरेन्द्र गोस्वामी के कत्ल के मुकद्दमें में सरकारी वकील की हैसियत से पैरवी की उसे 10 फरवरी 1909 को कलकत्ते में गोली से उड़ा दिया गया। इसके बाद अपील के दौरान हाइकोर्ट में पैरवी करने वाले पुलिस सुपरिन्टेन्डेट को भी गोली से मार दिया गया।

वारीन्द्र घोष के कार्यों, उनके साथियों तथा उनके जीवन का पता उनके उस बयान से चलता है जो उन्होने अपने गिरफ्तार होने पर 22 मई 1908 को मजिस्ट्रेट के सामने दिया था। उन्होनें कहा था कि वह बड़ौदा में राजनीति और इतिहास का विद्यार्थी था। वहाँ से मैं इस उद्देश्य से बंगाल आया कि अपने प्रान्त के लोगों में आजादी के लिए प्रचार करूँ। मैं प्रत्येक जिले घूमा, अनेक स्थानों पर मैंने व्यायामशालाएं खुलवाई, जहाँ लड़के कसरत करें और राजनीति पर भी बातें करें। दो वर्ष तक लगातार मैंने यही काम किया। थक जाने के कारण मैं बड़ौदा लौट आया। बड़ौदा में एक साल रहने के बाद मैं फिर बंगाल आया। यहाँ उस समय तक स्वदेशी आन्दोलन आरम्भ हो चुका था। मैंने अपने कुछ साथियों के साथ “युगान्तर“ नाम का पत्र चलाया और फिर दूसरे लोगों के सुपुर्द कर दिय। मेरा विश्वास था कि एक समय क्रांति होगी और उसके लिए हमें तैयार रहना चाहिये इसलिए हमने थोड़े-थोड़े करके हथियारों का संग्रह करना आरम्भ कर दिया। मेरे साथियों में श्री उल्लासकर दत्त ने बम बनाना आरम्भ किया। श्री हेमचन्द्र अपनी जायदाद को बेचकर फ्रांस गये और वहाँ से बम बनाना सीख कर मकैनिक उल्लासकर के साथ बम बनाने के काम में जुट गये।

वारीन्द्र कुमार के साथी श्री उपेन्द्रनाथ बनर्जी ने अपने बयान में कहा था वह अपने देश के नौजवानों को अपने देश की गिरी हुई हालत का बताता था और कहता था कि हमारी उन्नति बिना आजाद हुए सम्भव नहीं और बिना लड़ाई के आजादी मिलने वाली नहीं। अतः अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए गुप्त संस्थाएं कायम करना और हथियार संग्रह करना आवश्यक है जिससे कि अवसर मिलते ही विद्रोह खड़ा किया जाये।
वारीन्द्र घोष द्वारा संस्थापित अनुशीलन समितियाँ इन संकट के दिनों में बराबर काम करती रहीं। 1918 तक तो वह काफी मजबूत हो गई थी। इन समितियों में शामिल होने वालों के लिए माँ की मूर्ति के सामने संस्था के प्रति वफादार रहने की शपथ लेनी पड़ती थी।

इस षड्यन्त्र केस में 38 अभियुक्त थे जिनमें एक नरेन्द्र गोस्वामी भी था। चीफ जस्टिस के कथनानुसार अभियुक्तों में अधिकांश मनुष्य पक्के धार्मिक विश्वासों की शिक्षा से दीक्षित थे। चीफ जज ने यह भी लिखा थाः. कि इससे पहले इन्होनें कोई कहने योग्य षड्यंत्र नहीं रचा था। यही इनका पहला बड़ा और अन्तिम षड्यंत्र था। इस षड्यंत्र में इन्होने अपनी क्रियाशीलता, सत्साहस और दृढ़ संकल्प.शक्ति का पूर्ण परिचय दिया था।

हाइकोर्ट से वारीन्द्र की सजा आजन्म काला पानी की रह गई थी। वे बारह वर्ष काले पानी में रहे। ये बारह वर्ष उन्हें मृत्यु से भी बूरे पड़े। सन् 1920 में छूटने के बाद उन्होनें श्री सी॰आर॰ दास के सहयोग में काम करना आरम्भ कर दिया। इसके बाद पांडीचेरी अपने भाई के पास चले गये जहाँ से “बिजली“ नामक पत्र निकालकर अपने विचारों का प्रचार करते रहे।

दिनांक 18.04.1959 को क्रांतिवीर देवगति को प्राप्त हुये।

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