महावीर सिंह

महावीर सिंह – गुमनाम लेकिन अमर शहीद

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में असंख्य ऐसे क्रांतिकारी हुए हैं, जिनके नाम इतिहास के पन्नों में नहीं मिलते। वे गुमनाम रहकर भी देश की आज़ादी के लिए प्राणों की आहुति दे गए। ऐसे ही महान लेकिन अल्पज्ञात क्रांतिकारी थे शहीद महावीर सिंह


प्रारंभिक जीवन

महावीर सिंह का जन्म 16 सितम्बर 1904 को उत्तर प्रदेश के एटा जिले के शाहपुर टहला गाँव में हुआ था। उनके पिता कुंवर देवी सिंह एक प्रसिद्ध वैद्य थे। बचपन से ही महावीर सिंह क्रांतिकारी विचारों के धनी थे।

साल 1922 की बात है, जब कासगंज तहसील में सरकारी अधिकारियों ने अंग्रेजों के पक्ष में एक “अमन सभा” आयोजित की। छोटे-छोटे बच्चों को भी जबरन इस सभा में बिठाया गया, जिसमें महावीर सिंह भी थे। जब सभा में अंग्रेजी राज के गुण गाए जा रहे थे, तभी महावीर सिंह ने ज़ोर से नारा लगाया – “महात्मा गांधी की जय!”
पूरा वातावरण इस नारे से गूँज उठा और अंग्रेज़ों की सभा गांधी जी के जयघोष में बदल गई।


क्रांति की राह

1925 में महावीर सिंह ने डी. ए. वी. कॉलेज, कानपुर में प्रवेश लिया। यहीं उनकी भेंट चन्द्रशेखर आज़ाद से हुई और वे हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन (HSRA) के सक्रिय सदस्य बन गए। वे भगत सिंह के प्रिय साथियों में से एक बन गए।

इसी समय उनके पिता ने विवाह के लिए पत्र भेजा, जिससे वे विचलित हो गए। शिव वर्मा की सलाह से उन्होंने अपने क्रांतिकारी पथ की जानकारी देते हुए पिताजी को पत्र लिखा। पिताजी का जो उत्तर आया, वह क्रांतिकारी इतिहास का अमूल्य दस्तावेज है:

“मुझे यह जानकर बड़ी ख़ुशी हुई कि तुमने अपना जीवन देश के काम में लगाने का निश्चय किया है… देश की सेवा का जो मार्ग तुमने चुना है वह बड़ी तपस्या का और बड़ा कठिन मार्ग है लेकिन जब तुम उस पर चल ही पड़े हो तो कभी पीछे न मुड़ना… तुम जहाँ भी रहोगे, मेरा आशीर्वाद हमेशा तुम्हारे साथ है।”
– तुम्हारा पिता, देवी सिंह


लाहौर षड्यंत्र केस और जेल यात्रा

लाहौर में पंजाब नेशनल बैंक एक्शन की योजना बनाई गई थी, लेकिन विश्वसनीय वाहन न मिलने के कारण यह टल गया। 1929 में केंद्रीय असेम्बली बम कांड के बाद वे पुलिस की गिरफ्त में आ गए।

जेल में उन्होंने 13 जुलाई 1929 से आमरण अनशन शुरू किया। 63 दिनों तक लगातार उन्हें प्रताड़ित किया गया। हर दिन नली से दूध पिलाया गया और प्रतिदिन उन्हें पीटा गया। उनके साथियों में बटुकेश्वर दत्त, गयाप्रसाद, कुंदनलाल और जितेन्द्रनाथ सान्याल शामिल थे।

लाहौर षड्यंत्र केस की अदालती सुनवाई के दौरान इन सभी ने अदालत की वैधता को चुनौती दी और एक पत्र में लिखा:

“हमारा यह दृढ विश्वास है कि साम्राज्यवाद लूटने-खसोटने के उद्देश्य से संगठित किए गये एक विस्तृत षड्यंत्र के अलावा और कुछ नहीं है… हम परिवर्तन चाहते हैं – सामाजिक, राजनैतिक तथा आर्थिक सभी क्षेत्रों में आमूल परिवर्तन…”

“क्रांतिकारी तो शांति के उपासक हैं – सच्ची और टिकाऊ शांति के, जिसका आधार न्याय और समानता हो, न कि संगीनों की नोक पर थोपे गए डर की शांति।”

सांडर्स कांड में उन्हें आजीवन कारावास की सजा मिली। पहले उन्हें बेलगाम (कर्नाटक) जेल भेजा गया और फिर जनवरी 1933 में उन्हें अंडमान की सेल्युलर जेल भेज दिया गया।


अंतिम बलिदान

12 मई 1933 से अंडमान जेल में सभी राजनैतिक कैदियों ने सम्मानजनक व्यवहार और सुविधाओं की माँग को लेकर अनशन शुरू कर दिया। महावीर सिंह ने भी भाग लिया। अनशन के छठे दिन, प्रशासन ने जबरन दूध पिलाने की प्रक्रिया शुरू की।

17 मई 1933 को 10–12 लोगों ने उन्हें ज़मीन पर पटक दिया। डॉक्टर ने एक घुटना उनकी छाती पर रखकर नली जबरदस्ती नाक में डाली, जो फेफड़ों में चली गई। इससे महावीर सिंह वीरगति को प्राप्त हो गए।

अंग्रेजों ने उनके पार्थिव शरीर को समुद्र में बहा दिया। उनके वस्त्रों में एक पत्र मिला, जो उनके पिता का था। उसमें लिखा था:

“उस टापू पर सरकार ने देशभर के जगमगाते हीरे चुन -चुनकर जमा किए हैं। मुझे ख़ुशी है कि तुम्हें उन हीरों के बीच रहने का मौक़ा मिल रहा है। उनके बीच रहकर तुम और चमको, मेरा तथा देश का नाम अधिक रौशन करो, यही मेरा आशीर्वाद है।”


महावीर सिंह भले ही इतिहास की मुख्यधारा से बाहर रहे हों, लेकिन उनके साहस, बलिदान और आदर्श आज भी क्रांतिकारियों के लिए प्रेरणा स्रोत हैं। वे उन हजारों गुमनाम लेकिन अमर शहीदों में से एक हैं, जिन्होंने भारत माता के लिए प्राणों की आहुति दी और कभी कोई पुरस्कार या प्रसिद्धि नहीं चाही।

उनकी शहादत को हमारा कोटिशः नमन।