सूफ़ी अंबा प्रसाद

सूफ़ी अंबा प्रसाद | Sufi Amba Prasad

सूफ़ी अंबा प्रसाद: क्रांतिकारी साहस और भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के अदृश्य नायक

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में कई महान क्रांतिकारियों ने अपनी जान की आहुति दी और शौर्य की मिसाल पेश की। उन्हीं अद्वितीय क्रांतिकारियों में से एक थे सूफ़ी अंबा प्रसाद, जिनका जीवन एक साहसिक संघर्ष और देशभक्ति से प्रेरित था। उनके अद्वितीय कार्यों और बलिदानों ने न केवल भारत में बल्कि विदेशों में भी भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की ज्वाला को प्रज्वलित किया। उनका जीवन एक अद्भुत कहानी है, जिसमें संघर्ष, साहस, और देशभक्ति की अपार शक्ति निहित है।

जन्म और प्रारंभिक जीवन

अंबा प्रसाद भटनागर, जिन्हें हम आज सूफ़ी अंबा प्रसाद के नाम से जानते हैं, का जन्म 21 जनवरी 1858 को मुरादाबाद, उत्तर प्रदेश में हुआ था। बचपन से ही उनके दाहिने हाथ का अभाव था, लेकिन इससे उनके जीवन के उत्साह और साहस में कोई कमी नहीं आई। उन्होंने अपनी शिक्षा में खूब मेहनत की और एफ.ए. (Intermediate) करने के बाद जालंधर से वकालत की पढ़ाई की।

पत्रकारिता और सविनय अवज्ञा आंदोलन

अंबा प्रसाद ने अपने जीवन की शुरुआत पत्रकारिता से की, और “जाम्युल इलूम” जैसे उर्दू साप्ताहिक पत्रिका का संपादन किया। उनका लेखन, ब्रिटिश साम्राज्य और भारतीय समाज में व्याप्त कुंठित व्यवस्था के खिलाफ था। वे हिंदू-मुस्लिम एकता के पक्षधर थे और उनके लेख देशभक्ति से ओत-प्रोत थे। उनके ऐसे लेखों के कारण, 1897 में उन्हें राजद्रोह के आरोप में डेढ़ साल की सजा हुई और वे जेल भेजे गए।

गुप्तचरों की दुलत्ती और ब्रिटिश रेजिडेंट के खिलाफ संघर्ष

1890 में अंबा प्रसाद ने एक अत्यधिक साहसिक कदम उठाया। वे अमृत बाजार पत्रिका के लिए समाचार प्राप्त करने के उद्देश्य से अंग्रेज रेजिडेंट के घर नौकर के रूप में काम करने लगे। इसके बाद उन्होंने रेजिडेंट के काले कारनामों की सूचना अमृत बाजार में प्रकाशित कर दी। इस कार्य के कारण रेजिडेंट को नगर छोड़ना पड़ा, लेकिन उनके खिलाफ खबर देने वाले गुप्तचरों को पकड़वाने के लिए रेजिडेंट ने ईनाम की घोषणा की।

इस दौरान, एक मजेदार घटनाक्रम घटित हुआ। रेजिडेंट के घर काम करने वाला एक “पागल” नौकर, जिसने गुप्त समाचार दिए थे, बिना किसी लालच के रेजिडेंट से कहता है:
“अगर मैं आपको उस भेदिए का नाम बता दूं तो क्या आप मुझे ईनाम देंगे?”
रेजिडेंट ने कहा:
“हाँ, मैं तुम्हें ईनाम दूंगा।”
नौकर ने कहा:
“तो सुनिए, वह मैं ही था!”

रेजिडेंट की स्थिति हास्यास्पद हो गई। जब उसने सूफ़ी अंबा प्रसाद को देखा तो वो चुपचाप मुँह में घड़ी की पट्टी रखकर बोला,
“यह लो, यह तुम्हारा ईनाम और मैं तुम्हें CID में अफसर बना सकता हूं, 1800 रुपये महीने!”
इस पर सूफ़ी अंबा प्रसाद का जवाब था:
“अगर मुझे वेतन का लालच होता तो क्या मैं आपके रसोईघर में झूठे बर्तन धोता?”

कारावास और संघर्ष की लंबी यात्रा

साल 1899 में सूफ़ी अंबा प्रसाद को फिर से जेल भेजा गया, और उन्होंने वहां अमानवीय यातनाएँ सहन कीं। लेकिन उनके आत्मबल में कोई कमी नहीं आई। एक बार अंग्रेज़ जेलर ने कहा, “तुम मरे नहीं?”
स्माइली के साथ उन्होंने जवाब दिया,
“जनाब, तुम्हारे राज का जनाजा उठाए बिना मैं कैसे मर सकता हूँ?”

विदेश में संघर्ष

1906 में जेल से रिहा होने के बाद सूफ़ी अंबा प्रसाद ने हैदराबाद और लाहौर की यात्रा की, जहाँ उन्होंने भारत माता सोसायटी के साथ काम करना शुरू किया। इस दौरान उन्होंने “बागी मसीहा” (विद्रोही ईसा) नामक पुस्तक लिखी, जिसे ब्रिटिश सरकार ने आपत्तिजनक माना और उन्हें गिरफ्तार करने की योजना बनाई। गिरफ्तारी से बचने के लिए सूफ़ी अंबा प्रसाद नेपाल भाग गए, लेकिन वहाँ भी पकड़कर उन्हें भारत लाया गया।

ईरान में गदर पार्टी और ब्रिटिश विरोध

ईरान में सूफ़ी अंबा प्रसाद ने भारतीय क्रांतिकारियों के साथ मिलकर गदर पार्टी का नेतृत्व किया। उन्होंने वहां के क्रांतिकारियों को भी ब्रिटिश शोषण के खिलाफ जागरूक किया और “आबे हयात” नामक समाचार पत्र निकाला। उनका उद्देश्य था ब्रिटिश साम्राज्य को ईरान में भी चुनौती देना। शीराज में ब्रिटिश काउंसलर के घर धावा बोलते हुए सूफ़ी अंबा प्रसाद ने ब्रिटिश सेना से जमकर मुकाबला किया।

शहादत और विरासत

अंततः 1915 में, सूफ़ी अंबा प्रसाद को पकड़ा गया और उनका कोर्ट मार्शल हुआ। कहा जाता है कि 21 फरवरी 1915 को उन्होंने समाधि लेकर अपने प्राणों का त्याग किया। अंग्रेज़ों ने उनका पार्थिव शरीर रस्सी से बांधकर गोली मारी। ईरान में वे “आका सूफ़ी” के नाम से प्रसिद्ध हो गए, और आज भी उनके मकबरे पर उर्स लगता है, जहाँ लोग चादर अर्पित कर मन्नतें मांगते हैं।

शत शत नमन

सूफ़ी अंबा प्रसाद का जीवन हमें यह सिखाता है कि क्रांतिकारी संघर्ष कभी अकेला नहीं होता। उनका संघर्ष केवल भारत के स्वतंत्रता संग्राम के लिए नहीं, बल्कि पूरी दुनिया में शोषण और अत्याचार के खिलाफ था। उनका जीवन आज भी प्रेरणा का स्रोत है, और उनका नाम भारतीय इतिहास में हमेशा अमर रहेगा।

शत शत नमन उस वीर क्रांतिकारी को, जिन्होंने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में अपना सर्वस्व समर्पित किया और ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ शहादत दी।