पाण्डुरंग सदाशिव खानखोज

पाण्डुरंग सदाशिव खानखोज | Pandurang Sadashiv Khankhoje

पाण्डुरंग सदाशिव खानखोज—एक ऐसा नाम, जो भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के साहसी नायकों में शुमार है। उनका जीवन संघर्ष, साहस और निष्ठा से भरा हुआ था। इस लेख में हम जानेंगे, कैसे एक छोटे से गाँव का युवक अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ संघर्ष करता हुआ भारत की स्वतंत्रता की राह में अपने योगदान को अमर कर गया।

जन्म और प्रारंभिक जीवन

पाण्डुरंग सदाशिव खानखोज का जन्म 17 नवंबर 1883 को महाराष्ट्र के वर्धा जिले में हुआ। अपनी प्रारंभिक शिक्षा उन्होंने नागपुर के नील सिटी हाई स्कूल से प्राप्त की। एक साधारण से परिवार में जन्मे खानखोज का दिल पहले से ही स्वतंत्रता के विचारों से भरा हुआ था। उनका जीवन संघर्षों से परिपूर्ण था, और इसी संघर्ष ने उन्हें भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का एक अडिग सेनानी बना दिया।

विदेश में क्रांतिकारी गतिविधियाँ

1906 में, लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के मार्गदर्शन में पाण्डुरंग खानखोज ने भारत छोड़ने का निर्णय लिया और संयुक्त राज्य अमेरिका की ओर रुख किया। अमेरिका में, उन्होंने केलिफोर्निया और पोर्टलैंड में कृषि का अध्ययन किया, लेकिन पढ़ाई के साथ-साथ उनका मन स्वतंत्रता संग्राम में भी पूरी तरह से रमा हुआ था। अमेरिका में रहते हुए, वे क्रांतिकारी गतिविधियों में शामिल हुए और “हिंदुस्तान एसोसिएशन” की स्थापना की, जिसमें लाला हरदयाल, पंडित काशीराम, विष्णु गणेश पिंगले, वीरेंद्रनाथ चट्टोपाध्याय और भूपेंद्रनाथ दत्त जैसे महान नेता शामिल थे।

यह संगठन बाद में “गदर पार्टी” के रूप में विकसित हुआ, और पाण्डुरंग खानखोज को गदर पार्टी के “प्रहार” विभाग का प्रमुख नियुक्त किया गया, जिसमें उनका मुख्य कार्य हथियारों और बमों की आपूर्ति करना था।

गदर पार्टी का “प्रहार” विभाग और युद्ध की योजना

प्रथम विश्व युद्ध के दौरान, गदर पार्टी ने ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ युद्ध की योजना बनाई। पाण्डुरंग खानखोज को भारत भेजा गया, लेकिन रास्ते में उन्होंने कुस्तुन्तुनिया में तुर्की के शाह अनवर पाशा से मुलाकात की और उनके साथ मिलकर ब्रिटिशों के खिलाफ युद्ध की रणनीति बनाई। इसके बाद, खानखोज ने बलूचिस्तान का रुख किया, जहाँ जर्मन सेना के अधिकारी विल्हेम वासमस से मिलकर उन्होंने बलूचों का संगठन तैयार किया और एक अस्थायी सरकार की घोषणा की।

हालांकि, अंग्रेजों ने बलूचियों के अमीर को अपने साथ मिला लिया, और खानखोज को वहां से भागना पड़ा। इसके बाद उन्होंने नेपरिन और फिर शिरॉज (ईरान) का रुख किया, जहां उन्हें सूफी अम्बाप्रसाद की हत्या की सूचना मिली। फिर भी उन्होंने हार नहीं मानी और ईरान की सेना में भर्ती हो गए।

रूस, बर्लिन और लेनिन से मुलाकात

पाण्डुरंग खानखोज का संघर्ष यहीं नहीं रुका। 1919 में वे भारत लौटे, लेकिन यहां की परिस्थितियाँ उनके संघर्ष के लिए उपयुक्त नहीं थीं। इसके बाद वे बर्लिन गए और फिर भूपेन्द्रनाथ दत्त और वीरेंद्रनाथ चट्टोपाध्याय के साथ रूस का रुख किया। रूस में उनका लेनिन से संपर्क हुआ और वे वहां 1924 तक रहे।

भारत लौटने और काली सूची का सामना

1949 में, पाण्डुरंग खानखोज कृषि सलाहकार के रूप में भारत लौटे, लेकिन उनका नाम भारतीय “काली सूची” में था। उन्हें कई बार अपमानजनक स्थितियों का सामना करना पड़ा, जैसे अप्रैल 1949 में मध्य प्रदेश एयरपोर्ट पर 12 घंटे इंतजार करना पड़ा। इसके बावजूद, उन्होंने कभी भी संघर्ष की राह नहीं छोड़ी।

अंतिम वर्ष और सम्मान

1961 में, पाण्डुरंग खानखोज को भारतीय नागरिकता प्रदान की गई और 1955 में वे स्थायी रूप से नागपुर लौटे। उनका जीवन संघर्षों और बलिदानों से भरा हुआ था, और उन्होंने अपनी पूरी जिंदगी भारत की स्वतंत्रता के लिए समर्पित कर दी। 22 जनवरी 1967 को उनका निधन हुआ, लेकिन उनका योगदान हमेशा याद रखा जाएगा।

पाण्डुरंग खानखोज का जीवन यह साबित करता है कि स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए न केवल अपने देश में, बल्कि दुनिया भर में संघर्ष करना पड़ता है। उनका साहस और दृढ़ता हमें यह सिखाती है कि सच्ची देशभक्ति में कोई सीमा नहीं होती।

शत शत नमन उस महान योद्धा को, जिन्होंने अपनी जीवन यात्रा के माध्यम से न केवल भारत, बल्कि पूरी दुनिया में स्वतंत्रता संग्राम की मिसाल पेश की।