रचयिता— श्रीयुत छबीलदास ‘मधुर’
सिपाही—विद्रोह का आद्य बलिदान !
प्रति हिंसाके पथकी तूही हुआ प्रथम चट्टान ।
स्वतन्त्रता—वेदी पर तेरा स्वीकृत था बलिदान ।।
धर्म—दीपपर पतित हुआ, तू बनकर क्षुद्र पतंग ।
चढ़ा मातृ—मूर्ति पर मानो अग्रिम पुष्प समान ।। 1 ।।
वीरवर मंगल पॉंडे !
तू था वह चिनगारी जिससे भड़क उठी थी आग ।
तू था वह वैराग्य मिटा जिससे सारा अनुराग ।।
पारावर ज्वार जब आया तू था प्रथम तरंग ।
लूकी लपट बना तू पहले फिर झुलसा था बाग ।। 2 ।।
वीरवर मंगल पॉंड़े !
तड़ित—पतित पश्चात हुई, तू आदिम उल्कापात ।
बड़ा झकोरा होकर तू पीछे था झंझावात ।।
मूसलाधार झड़ीकी होकर बरसा पहली बूॅंद ।
चण्ड सूर्य था पीछे आगे तू था अरूण उदात्त ।। 3 ।।
वीरवर मंगल पॉंड़े !
समयातीत कार्य था यद्यपि पर तेरा वह त्याग ।
कौन कहेगा किसी स्वार्थवश था तब आत्मविराम ?
स्वधर्म—हित उन्मत्त हुआ तू होगा यह आक्षेप ।
यह दुषण है नहीं, किन्तु है भूषणाही षड़भाग !! 4 !!
वीरवर मंगल पॉंड़े !
रहे स्मृति या होवे विस्मृति सैनिकगणकी आज ।
पर तेरा स्मरणीय रहेगा नाम सदा द्विजराज ।।
और बना यदि नहीं रहेगा यह चिर ‘स्मृति—स्तम्भ’।
पद्य—पुन्ज यह पाठ करेगा जब तक सभ्य—समाज ।। 5 ।।
बैरिकपुर छावनी [बंगाल] सिपाही नं. 1446 पल्टन नं0 34 का यह बागी सिपाही कन्नोजिया ब्राहम्ण कब जाकर बंगाल स्थित बैरिकपुर छावनी की सेना में भर्ती हो गया था। किन्तु जिस दिन वह विद्रोही हुआ, उस दिन सेना में काम करते हुये उसे सात वर्ष हो चुके थे। मंझला कद और कसा हुआ बदन उसके एक अच्छे सिपाही होने की निशानी थे। वह धर्म—प्राण ब्राहम्ण सिपाही हेाते हुए भी अपनी सेना में आदर का पात्र था।
एक दिन वह शहर गया वहां उसे टोंटी से पानी पिलाया गया। उसके पूछने पर पानी पिलाने वाली औरत ने कहा, महाराज काहे के ब्राहम्ण हो, गो मांस से बनाये कारतूसों के फन्दे को तो दॉंतो से खोलते हो। मंगल पॉंड़े को यह बात चाट गई। इसकी चर्चा पहले भी हो रही थी किन्तु अंग्रेज अफसरों ने समझाना बुझाना आरम्भ कर दिया था।
इस दिन से मंगल पॉंड़े बहुत ही दु:खी रहने लगा। उसे धर्म—नाश की आंशका बराबर सताने लगी। वह बहुतेरा अपने मन को समझाता था और अंग्रेज अफसरों की बात पर यकीन करना चाहता था किन्तु उसे शान्ति नहीं मिल रही थी।
26 मार्च सन् 1857 को बैरिकपुर की छावनी में इस समाचार से और भी खलबली मच गई कि विलायत से गोरों की फौज आ रही है। मंगल पॉंड़े ने जब कि वे भॉंग के नशे में धत्त थे हथियार निकाल लिये और बाहर आकर कहने लगा कि इन क्रिस्टानों से धर्म और जाति को बचाना ही पड़ेगा। आओ बन्धुओं हमारी पल्टन में जो अंग्रेज है उन्हें कैद कर लें। बिगुलर से कहा कि बिगुल बजाओ जिससे सब लोग इकट्ठे हो जायें। मंगल पॉंड़े के हो—हल्ले को सुनकर एक अंग्रेज अपनी बैरिक के सामने खड़ा होकर सुनने लगा। मंगल पॉंड़े की ज्यों ही उस पर निगाह पड़ी गोली छोड़ दी परन्तु वह बच गया। इतने में सेना एडज्यूटेंट बक नाम का अंग्रेज घोड़ा दौड़ाता हुआ आ गया। मंगल पॉंड़े ने उस पर भी गोली छोड़ी वह घायल हो गया किन्तु उसका घोड़ा मर गया। बक ने भी मंगल पर वार किया किन्तु गोली चूक गई। बक ने तलवार संभाली और मंगल पर टूट पड़ा। एक दूसरा गोरा अफसर भी तलवार लेकर मंगल पर टूटा किन्तु मंगल ने अपने को बचाते हुये उनमें से एक अंग्रेज को घायल करके गिर गया। दूसरे अंग्रेज को बचाने के लिए शेख पल्टू नाम का मुसलमान सिपाही आगे बढ़ा और उसने मंगल पॉंड़े को पिछे से पकड़ लिया। दोनों अंग्रेज लहू—लूहान हो गये और प्राण बचाने के लिये भाग गये। फौज का जनरल हैयर्स था उसे जब यह खबर लगी तो वह अपने दोनों जवान लड़कों को लेकर मंगल को पकड़ने के लिये आया।
मंगल ने देखा कि सारे सिपाही तमाशा देख रहे हैं तो उसने भी बजाय अंग्रेजों के हाथ आने से मरने के खुद ही गोली मार ली। उसे घायल अवस्था में अस्पताल ले जाया गया। वह जितने दिन भी अस्पताल में रहे अपने को बेचैन नहींं होने दिया न अपने किये पर अफसोस ही जाहिर किया और जिन दिन फॉंसी का हुक्म हुआ बड़ी शान्ति से ही फॉंसी पर लटक गये। यह दिन सन् 1857 की 8 वीं अप्रैल का था।
मंगल पॉंड़े के सिवा अंग्रेज सेनापतियों ने एक जमादार को भी फॉंसी दे दी। अपराध उसका यह बताया कि उसने मंगल पॉंड़े की बगावत का प्रतिरोध नहीं किया। जमादार को फॉंसी का हुक्म 10 अप्रैल 1857 को हुआ और 21 अप्रैल को उसे फॉंसी पर लटका दिया गया।
यह ठीक है कि उस दिन बैरिकपुर छावनी की उस 34 नम्बर की पलटन ने कोई बगावत नहीं की किन्तु मंगल पॉंड़े की फॉंसी सब के चुभ गई और वह विद्रोह के लिए वीर सिपाहियों के लिए आह्वान करके रही।
शत् शत् नमन् !!