:- रामप्रसाद बिस्मिल -:

:- क्रांति के देवता -:
:-पंडित रामप्रसाद बिस्मिल -:

पंडित रामप्रसाद बिस्मिल का जन्म ज्येष्ठ शुक्ल 11 स. 1954 ( 12 जून 1897)
शाहजहांपुर ,उत्तर प्रदेश में हुआ।

बिस्मिल उनका कवि नाम था। वो भारतीय सशस्त्र क्रांतिं के देवता थे।
आजादी की लड़ाई में बिस्मिल व अश्फाक की जोड़ी प्रेरणा रही है।

बिस्मिल बचपन मे शरारती प्रवर्ति के बालक थे और पढ़ाई से कतराते थे।

एक बार आपके द्वारा “उ” शब्द नहीं लिखा जा सका तो पिताश्री ने आपको थप्पड़- घूंसे ही नहीं लोहे के गज के पीटा।

भला हो उन पुजारी जी का जिनके सानिध्य से सुधरकर बिस्मिल सात्विक बन गए।
आप स्वामी दयानंद जी के ब्रह्मचर्य पालन से अत्यधिक प्रभावित हुए और तख्त या जमीन पर सोना तथा रात्रिभोज नहीं करना शुरू कर दिया ।

बिस्मिल के पिताजी कट्टर सनातनी थे और बिस्मिल बन गए आर्यसमाजी । धर्म के नाम पर एक दिन तो पिताजी ने बिस्मिल को रात को ही घर से बाहर कर दिया।

देवयोग से आपको स्वामी सोमदेव जी जैसे गुरु मिले जिनकी लाला हरदयाल जैसे क्रांतिकारी पुरूष से भी  निकटता थी ।
सन 1916 में प्रथम लाहौर एक्शन के समय क्रांतिकारी भाईपरमानन्द जी की पुस्तक तवारीख़-ए -हिन्द से प्रभावित हुए।

लाहौर प्रथम एक्शन में भाई परमानंद को फांसी की सजा का समाचार पढ़कर आपने  इस फांसी का बदला लेने की प्रतिज्ञा की और यहीं से आपके क्रांतिकारी जीवन का सूत्रपात हुआ।
इसी वर्ष लखनऊ में अखिल भारतीय कांग्रेसका अधिवेशन था।

अधिवेशन में आधुनिक स्वतंत्रता संग्राम के जनक लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के पधारने का कार्यक्रम भी था।
नरम दल के लोग तिलक जी के स्वागत में कम ध्यान दे रहे थे ।
कांग्रेस की स्वागतकारिणी समिति का प्रोग्राम था कि ट्रेन से तिलक जी को मोटरकार के द्वारा बिना जुलूस के ले जाया जावे।
बिस्मिल व अन्य युवा भी तिलक जी को सुनने को आतुर थे और उनके स्वागत हेतु स्टेशन पर आए हुए थे ।

जैसे ही गाड़ी आई स्वागत कारिणी समिति ने आगे होकर तिलक जी को घेरकर मोटरगाड़ी में बिठा लिया ।

बिस्मिल भावुक होकर मोटर कार के आगे लेट गए और कहे जा रहे थे

मोटर मेरे ऊपर से निकाल ले जाओ,
मोटर मेरे ऊपर से निकाल ले जाओ

एक अन्य युवक ने जोश में आकर मोटर कार का डायर काट दिया। लोकमान्य जी समझा रहे थे, लेकिन युवा जोश के आगे कोई असर नहीं दिया।
युवाओं ने एक किराए की घोड़ागाड़ी  ली व तिलक जी को बच्चे की तरह सिर से कंधों पर बैठा कर  गाड़ी में  बैठा दिया
और घोड़ागाड़ी से  घोड़े को खोलकर बिस्मिल  खुद ही गाड़ी को खींचने में लग गए ।
युवाओं ने अपने कंधों से घोड़ागाड़ी खींचते हुए तिलक जी को एक जुलूस के रूप में धूमधाम से लेकर गए ।

तिलक जी के स्वागत में युवाओं द्वार आयोजित इस को जुलूस देखने योग्य जन समुदाय जुड़ा ।
इस कार्यक्रम का एक लाभ यह हुआ कि बिस्मिल का जोश देख कर कुछ क्रांतिकारीयों व गरम दल के नेताओं से बिस्मिल का संपर्क हुआ ।

बिस्मिल और उनके क्रांतिकारी दल का नाम हिदुस्तान, रिपब्लिकन एसोसिएशन था । जिसके नाम में कालांतर में भगतसिंह ने “सोशलिस्ट” शब्द और जोड़ा था।

बिस्मिल ने दल के लिए हथियार खरीदने हेतु  अपनी माताजी से ₹200 लेकर एक पुस्तक ” अमेरिका को स्वाधीनता कैसे मिली’ लिखकर छपवाई पर  इसमें मात्र ₹200 की बचत हुई ।
उसी समय संयुक्त प्रांत के सुप्रसिद्ध क्रांतिकारी गेंदालाल जी दीक्षित को ग्वालियर में गिरफ्तार कर लिया ।
बिस्मिल ने “देशवासियों के नाम संदेश” शीर्षक से कई जिलों में पर्चे लगाए व वितरित किये।

क्रांतिकारियों के पास हथियारों की खरीद हेतु रुपयों की हमेशा ही कमी रही और देश में जहां कहीं भी क्रांतिकारी आंदोलन चल रहे थे सभी ने हथियारों के लिए जनता को लूटनेवाले जमींदारों,सेठ साहूकारों के यहां डाके डाल कर रुपयों का इंतजाम किया।

इन डकेतियों से जन भावना क्रांतिकारियों के खिलाफ होती थी तथा धन भी कम मिलता था ।

इसलिए दल ने रेलवे का सरकारी खजाना लूटने का कार्यक्रम बनाकर ।
9 अगस्त 1925 को काकोरी एक्शन लिया व काकोरी के पास ट्रेन से सरकारी खजाना लूटा।
इस घटना से फ़िरंगियों की सरकार हिल गयी ।
काकोरी एक्शन के बारे में विस्तार से  अलग लेख लिखा गया है। जिस आप पढ़ सकते हैं।

एक बार बिस्मिल के अन्य साथी गंगा सिंह , राजाराम व देवनारायण ने कोलकाता में वायसराय की हत्या करने का कार्यक्रम बनाया ।

बिस्मिल इस कार्यक्रम से सहमत नहीं थे ।
इन तीनों ने तो  बिस्मिल को ही ठिकाने लगाने का आयोजन कर दिया व इलाहाबाद के त्रिवेणी तट पर संध्या कर रहे बिस्मिल पर तीन गोलियां चलाई दो गोली निशाने पर नहीं लगी तीसरा कारतूस चला ही नहीं।
आजादी के खतरनाक मिशन में अपनी बहन को साथ लेना बलिदान की पराकाष्ठा है।
बिस्मिल अपनी बहन शास्त्री देवी की जांघो पर बंदूके बांधकर हथियार छिपाकर लाते थे ।
शास्त्री देवी ने कई बार इस प्रकार  शाहजहांपुर हथियार पहुंचाए।

किस लिए !
देश की आजादी के लिए !!

धिक्कार है हमें,आजादी के बाद बिस्मिल  का मात्र 35 गज का दो छोटे छोटे कमरों का एक मकान मोहल्ला खिरनी बाग शाहजहां को इसी शास्त्री देवी  ने गरीबी से तंग आकर बेचा।
यह मकान जिसमें बिस्मिल व शास्त्री देवी ने अपना बचपन गुजारा  एक राष्ट्रीय धरोहर बननी चाहिए थी ।

पर अफसोस ऐसा नहीं हो हुआ।

बिस्मिल ने अपने बचपन के सहपाठी सुशीलचंद्र सेन के  देहांत पर उनकी स्मृति में ‘ निहिलिस्ट रहस्य‘ का अनुवाद करना शुरू किया और सुशील वाला के नाम से ग्रंथ वाला में “बोल्शेविकों की करतूत” व ” मन की लहर”  छपवाई ।

मैनपुरी में गेंदालाल जी दीक्षित के नेतृत्व में कुछ हथियार खरीद कर इकट्ठे किए गए थे। इस बात का पुलिस को पता चल गया पुलिस की धड़त पकड़ शुरू हो गई।
एक साथी सोमदेव पुलिस मुखबिर बन गया सारे राज खुलने से गेंदालाल जी गिरफ्तार कर लिए गए व राम प्रसाद बिस्मिल फरार हो गए ।

प्रथम महायुद्ध के बाद सरकार ने  20 फरवरी 1920 राजनीतिक कैदियों की माफ़ी की ।

इस घोषणा के होने  से बिस्मिल का अज्ञातवास समाप्त हुआ।
बिस्मिल शाहजहांपुर वापस आए तो लोग उनसे मिलने से कतराने लगे दूर से ही नमस्ते करके चल देते थे लोगों को यह डर लगता था कि क्रांतिकारी के संपर्क से उनकी जान किसी खतरे में न पड़ जाए।
इसीलिए बिस्मिल ने कहा होगा-

‘ इम्तहां  सबका कर लिया हमने,
सारे आलम को आजमा देखा ।
नजर आया न कोई अपना अजीज,
आंख जिसकी तरफ उठा देखा।। कोई अपना ना निकला महरमे राज,
जिसको देखा तो बेवफा देखा । अलगरज  सबको इस जमाने में अपने मतलब का आशना देखा।।”‘

काकोरी एक्शन के बाद बिस्मिल गोरखपुर जेल में रहे व इसी जेल में दिनाँक 19 दिशम्बर 1927 को बिस्मिल को फाँसी दी गयी थी। फांसी से पूर्व बिस्मिल से दुखी हृदय से लिखा-

मालिक तेरी रजा रहे और तू ही तू रहे
बाकी ने मैं रहूं , न मेरी आरजू रहे।।
जब तक कि तन में जान ,
रगों में लहू रहे।
तेरा ही जिक्र या तेरी ही जुस्तजू रहे।।

उनकी अंतिम गर्जन थी

I wish the downfall of British Empire

फांसी से एक दिन पूर्व बिस्मिल की माताजी बिस्मिल से मिलने जेल में गई  । माँ को देख कर बिस्मिल मां के पैर छूकर गले से लिपटा तो बिस्मिल की आँखों मे आंशू आ गए ।
माँ ने कहा मैं तो समझती थी मेरा बेटा बहादुर है ,जिसके नाम से अंग्रेज सरकार भी कांपती है ।
बिस्मिल ने  बड़ी श्रद्धा से कहा  ये आंशू मौत के डर से नहीं है मां ये तो माँ के प्रति मोह के है।
मैं मौत से मैं नहीं डरता मां तुम विश्वास करो ।
तभी माँ ने शिवराम वर्मा का हाथ पकड़कर आगे कर दिया और बिस्मिल से कहा यह तुम्हारे आदमी है पार्टी के बारे में जो भी चाहो , इनसे कह सकते हो।
धन्य जननी , जो एकमात्र बेटे की फांसी से एक दिन पहले क्रांतिकारी दल का सहयोग कर रही है।
ऐसी कोख़ से ही ऐसा वीर जन्म लेता है।।

फाँसी वाले दिन भी बिस्मिल हमेशा की तरह सो कर उठे, स्नान किया, वंदना की और धोती कुर्ता पहनकर जेल के सभी अधिकारियों, कर्मचारियों एवं अन्य बंदियों से हंस-हंसकर बातें करते हुए चल पड़े ।
भारत माता की जय
वंदे मातरम के नारे लगाते हुए फांसी के तख्ते के  समीप पहुंचकर स्वयं ही फांसी के तख्ते पर चढ गए और कहा

मरते’ बिस्मिल, ‘ ‘लाहरी, ‘अश्फाक’ अत्याचार से ।
होंगे पैदा सैकड़ों इनके रुधिर की धार से।।
और अंतिम बार धरती माता को प्रणाम किया धूली को माथे पर चंदन की तरह लगाया और वंदेमातरम कहते हैं फंदे से झूल गए।
शत शत नमन क्रांतिवीर को।

शहादत के बाद का बिस्मिल चित्र
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