स्वतन्त्रता भिलाषिणी, अद् भुत शौर्यशालिनी, वीरांगना झाँसी रानी लक्ष्मीबाई

झाँसी की रानी

झाँसी की पुण्य.कीर्ति महारानी लक्ष्मीबाई का जन्म भागीरथी बाई की कोख से पुण्य नगरी काशीपुरी में अस्सी घाट पर कार्तिक बदी 14 संवत् 1891 (15 नवम्बर 1835) को हुआ था। पेशवा बाजीराव के भाई चिमाजी अप्पा के नियोजन में “मोरोपन्त तावे“ नामक एक महाराष्ट्रीय सज्जन थे अप्पा उस समय सरकार से कुछ पेन्शन लेकर काशी में रहते थे।

चतुर्दशी की पुण्य तिथि को मोरोपंत को एक कन्या की प्राप्ति हुई। इस रत्न का नाम मनूबाई रखा गया। यह रत्न मोरोपन्त के घर का ही रत्न न था, वह भारत माता का एक दैदीप्यमान रत्न हुआ। संसार के अमर इतिहास में सबसे ऊपर जड़ा जाने वाला यह रत्न निकला। तीन-चार साल के अन्दर ही चिमोजी अप्पा और मनूबाई की माता का देहान्त हो जाने से मोरापन्त इस रत्न को लेकर ब्रह्मवर्त हो गये।

कानपुर के समीप गंगा के किनारे बिठूर का ब्रह्मवर्त नामक एक गाँव हैं। सम्राज्य बना कर हिन्दुस्तान पर एक समय राज्य करने वाले पेशवाओं के आखिरी पेशवा बाजीराव प्रतिवर्ष 8 लाख की पेन्शन लेकर अंग्रेजों का दिया हुआ अन्न खाते हुए इसी बिठूर गाँव के एक राजमहल में अपने आखिरी दिन काट रहे थे। पर बिठूर में गंगा किनारे बालू पर उस समय एक अभूतपूर्व उत्साह फैला था। 1857 के क्रांन्ति युद्ध में जो अमर हो गये हैं उनमें से बहुत से उस समय बिठूर की बालू पर किले बना रहे थे, घोड़ों पर चढ़ रहे थे, तलवार, बरछी, भाला, पठा इत्यादि युद्ध विद्याओं की शिक्षा प्राप्त कर रहे थे।

पेशवा बाजीराव के दो पुत्र नाना साहब और बाला साहब, पौत्र राव साहब तथा क्रांन्ति युद्ध के वीरवर सेनापति धैर्य मूर्ति तात्यां टोपे अपने गुरू द्वारा उस बालू पर वीर रस से भरी हुई रामायण, महाभारत की कथाऐं सुन रहे थे उनमें एक महिला भी थी। मनुबाई की शिक्षा, घुड़सवारी, युद्ध विद्या बाजीराव के दत्तक पुत्र नाना धुन्धूपन्त एवं राव साहिब के साथ हुई। मोरोपन्त ताँबे की मनूबाई ने अपने अद्वितीय रूप, गुण, चातुर्य से बिठूर के लोगों को मोहित कर लिया था। वह बालिका पेशवा के राजमहल में छबीली हो गई थी। छबीली नाम उनको बाजीराव ने दिया था। यह छबीली आगे जाकर झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई हुई और उसके बाद ग्वालियर में यह वीर भारत की स्वतन्त्रता के लिए लड़ते-लड़ते झाँसी की बिजली कहला कर अन्त्रध्यान हो गई थी।
झांसी महाराज पेशवा गंगाधर राव की पहली स्त्री का देहान्त हो गया। उनके कोई पुत्र न था इसलिए उनकी दूसरी शादी बिठूर के राजमहल में पलने वाली इस बालिका से हो गई। झाँसी में आने के बाद उनका नाम लक्ष्मीबाई रखा गया। सन् 1851 में रानी के एक लड़का हुआ पर तीन ही महीने के अन्दर वह काल का ग्रास हो गया। इस धक्के से 21 नवम्बर 1853 को गंगाधर राव नामक अपने ही खानदान के एक लड़के को गोद ले लिया था जिसका नाम दामोदर राव था।

उस समय भारत पर फिरंगियों के प्रतिनिधि लार्ड डलहौजी का शासन था। अंग्रेजों की सम्राज्य-तृष्णा उस समय इतनी बढ़ गई थी कि लार्ड डलहौजी सतारा, तंजौर, नागपुर और पंजाब के राज्य अंग्रेजी अमलदारी में मिला चुके थे। लार्ड डलहौजी ने इस स्त्री की भी अवहेलना की। झाँसी पर रानी का उत्कृष्ठ प्रेम था। जब रानी ने लार्ड डलहौजी की आज्ञा सूनी तो उनकी आँखों में अश्रुधारा बहने लगी, उनका गला भर आया और अभिमान से भरे हुए करूणा शब्दों में उन्होने कहा कि “मैं अपनी झाँसी नहीं दूँगी।“ रानी के इन शब्दों से ही यह अच्छी तरह मालूम हो जाता है कि झाँसी पर उनका कितना प्रेम था। 7 मार्च, 1853 को डलहौजी ने झाँसी ब्रिटिश राज्य में मिला लिया।

क्रांन्ति युद्ध की पहली चिन्गारी 29 मार्च 1857 को भड़क उठी जब बैरिकपुर की पलटन के सिपाही मंगल पाण्डेय ने बिगुल बजाकर जंग-ए-आजादी का एलान कर दिया था। 6 अप्रैल को मंगल पाण्डेय को फाॅंसी पर चढ़ा दिया गया। पर सैंकड़ों मंगल पाण्डेय 10 मई को मेरठ में तैयार हो गये और विद्रोह का झण्डा खड़ा कर दिया। 4 जून को कानपुर में नाना साहब के अधीन युद्ध की घोषणा होते ही 7 जून को झाँसी में स्वराज्य के नारे लगने लगे।

इस विद्रोह में रानी लक्ष्मीबाई का कुछ भी हाथ न था। उल्टे जितना हो सका उतनी सहायता अंग्रेजों की ही की। उन्हें गेहूँ की रोटियाँ भेजी, उन्हें दतिया में भाग जाने की सलाह दी तथा 100 सिपाही और दिन की रसद भी भेजी। अंग्रेज इतिहास लेखक और झाँसी के कत्ल से बचे हुए मार्टिन दोनों ने इस बात को स्वीकार किया है। पहले दिन के कत्ल में 75 अंग्रेज पुरूष, 19 स्त्रियाँ तथा 23 बच्चे मारे गये। कत्ल के बाद खजाना लूट कर अंग्रेजों के बंगले जला कर तथा रानी से तीन लाख रूपये जबरदस्ती लेकर सिपाही दिल्ली की तरफ चले गये। झाॅंसी बिना छत्र के हो गई पर 9 जून को राज्य व्यवस्था का काम रानी ने फिर अपने हाथ में लिया। अंग्रेजों की जो लाशें रास्ते में पड़ी थी उनको इकट्ठा कर रानी ने उनका योग्य अंतिम संस्कार किया। जबलपुर तथा आगरे के कमिश्नरों को रानी ने चिट्ठी लिख कर बता दिया कि प्रजा पर अत्याचार न हो इसलिए मैं अंग्रजों की तरफ से झाँसी पर राज कर रही हूॅं। पर ये सब चिट्ठियां किसी ने बीच में ही षड्यन्त्र कर गायब कर दी।

रानी ने राज्य की व्यवस्था बहुत अच्छी तरह से की। चोर और डाकुओं का दमन किया। पर एक अबला के हाथ यह राज्य देखकर रानी के पिता का एक दूर का भाई अपने को झाँसी का महाराजा कह कर झाँसी पर आक्रमण करने आया और उसने झाँसी से 30 मील दूर करेरा नाम के किले पर अपना आधिपत्य जमाया। रानी ने भी अपनी तरफ से खूब तैयारी करके उस नये झाँसी के महाराज को ग्वालियर भगा दिया। इसके बाद रानी पर फिर संकट आया। झाँसी से डेढ़ दो मील पड़ने वाले ओरछा गाँव के दीवान नत्थे खाँ ने दतिया की फौज की सहायता से झाँसी शहर को घेर लिया। रानी अपने किले पर अंग्रेजों का यूनियन झण्डा और पेशवाओं का भगवा (गेरूआं) झण्डा दोनों फहराये और मर्दाना वेष में खुद हाथ में तलवार लेकर नत्थे खाँ का सामना किया। नत्थे खाँ भाग गया। चिढ़ कर उसने अंग्रेजों को लिख दिया कि रानी विद्रोहियों में शामिल हो गई हैै।

19 मार्च 1858 तक झाँसी पर रानी लक्ष्मीबाई का शासन रहा। रानी रोज सवेरे अखाड़े में जाकर दण्ड-बैठक, मलखम्ब, जंबिया चलाना इत्यादि व्यायाम और कसरत करती थी। किसी दिन पुरूष के वेष में किसी दिन स्त्री के वेष में वह खुद दरबार में आकर हुक्म लिखती थी। तलवार के साथ कलम का भी काम रानी अच्छी तरह से जानती थी। रियासत के बड़वासागर नामक गाँव में डाकुओं ने बड़ा उपद्रव मचा रखा था। रानी खुद 15 दिन वहाँ रही और उन्होनें उन डाकुओं का दमन किया। घायल सिपाहियों की देखभाल खुद रानी किया करती थी। झाँसी की सब प्रजा रानी को माता से भी अधिक प्यार करती थी। अंग्रेज यही समझते थे कि रानी विद्रोहियों में शामिल हो गई है। रानी के राजभक्त रहते हुए भी जब अंग्रेजों ने अपने सेनापति सर ह्युरोज को 60 हजार सेना के साथ झाँसी पर भेजा तो उनका अभिमान जागृत हो गया। रानी को अंग्रेजों की कुटिल नीति से घृणा हो गई और उन्होनें उस समय मरते दम तक अंग्रेजों से लड़ते़ रहने का निश्चय किया। जोर-शोर से झाँसी के कारखानों में खुद रानी की देख भाल में बारूद बनने लगे।

20 मार्च 1858 को सर ह्युरोज ने झाँसी को घेर लिया। 22 वर्ष की इस युवती ने खुद हाथ में तलवार लेकर युद्ध विद्या में बाल सफेद करने वाले सर ह्युरोज का आह्नान स्वीकार किया। उस समय मालूम पड़ता था कि प्रत्यक्ष भगवती दुर्गा ने अवतार धारण किया है। अंग्रेजों की तोपें गर्जने लगी। रात के समय तोप के लाल-लाल गोले आकाश में घूमते तथा फूटते देख कर लोगों के हृदय थर्रा उठते थे। झाँसी की स्त्रियाँ भी इस युद्ध में अपनी शक्ति भर काम करने लगी। रानी ने गाँव में अन्न बाँटना शुरू किया।

एक दिन अंग्रेजों का एक गोला झाँसी के बारूदखाने पर गिरा और सारे की सारे बारूद का इतने जोर से विस्फोट हुआ कि झाँसी शहर हिल उठा और 30 पुरूष तथा स्त्रियाँ वहीं ढेर हो गये। इस समय पेशवा के सेनापति तात्यां टोपे कालपी में थे। रानी ने उनके पास मदद के लिए सन्देश भेजा। तुरन्त तात्यां टोपे 22 हजार सेना लेकर आये और अंग्रेजों पर पीछे से हमला कर दिया। इसी समय अगर झाँसी वालों ने भी आगे से आक्रमण किया होता तो अंग्रेजों की हार निश्चित थी पर हमारा भारत वर्ष फूट के विष से आज तक नष्ट हो रहा है। ऐसे कठिन वक्त किले का एक हवलदार अंग्रेजों से मिल गया और उसने किले पर से एक भी गोला अंग्रेजों पर न छोड़ने दिया। अन्त में तात्यां टोपे को कालपी लौट जाना पड़ा। तात्यां टोपेे की हार सुन कर रानी ने धीरज न खोया। 4 अप्रैल को अंग्रेज शहर की दीवार पर सीढि़याँ लगाकर अन्दर आने लगे। रानी ने घनघौर संग्राम शुरू किया। रास्ते-रास्ते में घर-घर के पास अंग्रेजों का और झाँसी की सेना का युद्ध होने लगा। खुद रानी हाथ में तलवार लेकर दिन भर अंग्रेजों से लड़ती रही। अंग्रेज तलवार की लड़ाई में न टिक सके पर दीवारों की आड़ में छिप-छिप कर उन्होनें गोली चलाना शुरू कर दिया। निरूपाय होकर रानी को किले में लौटना पड़ा। फिर क्या था कत्ले.आम और आग लगाया जाना शुरू हुआ। रानी से यह न देखा गया और उन्होने “जौहर“ करने की ठानी पर कुछ विचार करने के बाद उन्होनें कालपी में रावसाहब पेशवा और तात्यां टोपे के पास जाने का निश्चय किया। अन्धकार होते ही 300 आदमियों के साथ रानी खुद ह्युरोज की छावनी में से सेना काटती हुई कालपी की तरफ चली। रानी ने पीठ पर 12 साल के लड़के दामोदरराव को बाँध लिया था। अंग्रेजों ने अपनी तोपों के साथ रानी का पीछा किया पर रानी का घोड़ा तीर के वेग से जा रहा था। उनके साथ सिर्फ एक नौकर और एक दासी बच गई थी। 21 मील तक लेफ्टनेन्ट वोकर ने उसका पीछा किया, पर भांडेर नामक गाँव के पास रानी ने वोकर साहब पर इस प्रकार तलवार चलाई कि वह उछल कर घोड़े के नीचे जा गिरा। बिना अन्न पानी के लगातार 24 घंटे में रानी 102 मील जमीन चल कर कालपी पहुंची। रानी की इस वीरता का वर्णन अंग्रेजों ने भी बड़े आदर के साथ किया है।

5 अप्रैल को झाँसी में कत्ल.आम शुरू हुआ। 5 साल से लेकर 80 साल तक जो भी पुरूष मिले सब गोली के शिकार बनाये गये। पुरूषों को बचाने के लिए स्त्रियाँ आगे आती थी। घर की दीवार तोड़-फोड़ कर देखा जाता था कि कहीं सोना तो नहीं छिपा रखा है। कितने लोग कुओं में कूदे पर वहाँ भी वे बच नहीं पाये। एक जगह अग्नि हौत्र के कुण्ड पर दौरी ढ़क दी गई गोरों ने सोचा कि उसमें सोना छिपा कर रखा है इसलिए उन्होनें उसमें हाथ डाले तो वे जल गये। तीसरे दिन भी यही हाल था। इन तीन दिनों में शहर में जो कुछ मूल्यवान था सब लूट लिया गया। करोड़ों रूपयों का माल मिला। झाँसी का प्रसिद्ध वाचनालय तथा पुस्तकालय भी नष्ट कर दिया गया। इस पुस्तकालय के लिए काशी के पंडित झाँसी जाते थे। सात दिन की इस लूट के बाद “खल्क खुदा का, मुल्क बादशाह का, अमल अंग्रेज सरकार का“ इस प्रकार की डुग्गी पीटी गई। इस काण्ड में करीब 20 हजार लोग मारे गये। बहुतों को फाॅंसी दी गई। रानी के पिता मोरोपन्त को दतिया के राजा ने विश्वासघात से अंग्रेजों को सुपुर्द कर दिया। उनको भी फाँसी दी गई।
झाँसी लेने के बाद सर हयूरोज ने कालपी लेने की बात सोची। इधर तात्यां टोपेे और रानी ने मिल कर झाँसी की तरफ सेना चलाई। दोनों सेनाओं का मुकाबला 6 मई को कुंचगांव में हुआ जिसमें रानी की हार हो गई और उनको कालपी लौट जाना पड़ा। इसके बाद 16 मई को रोज अंग्रेजी सेना के साथ कालपी पहुंचा और लड़ाई शुरू कर दी। इस लड़ाई में रानी ने अपना अद्भुत पराक्रम दिखाया। अपने 200 सवारों के साथ रानी ने अंग्रेजों का तोपखाना बन्द कर दिया। स्टुअर्ट नामक अंग्रेज अधिकारी अपनी सेना के साथ रानी की ओर चढ़ आया पर जल्दी ही उसके भी पैर उखड़ गये। रानी अब लड़ाई जितने ही वाली थी कि अंग्रेजों की एक ऊँटों की पलटन पहुंच गई और लड़ाई का रंग बदल गया। तात्यां टोपे के सिपाही भाँग पीकर लड़ रहे थे। अन्त में 24 मई को रोज का कालपी पर अधिकार हो गया।

कालपी की हार के बाद विद्रोहियों की एक सभा गोपालपुर में हुई और रानी की सलाह से तय हुआ कि अब ग्वालियर का किला अपने हाथ में कर लेना चाहिये। रानी की इस सलाह की मैलेसन नामक इतिहास लेखक ने बड़ी तरीफ की है। ग्वालियर में 23 वर्ष के जयाजीराव सिधिंया राज करते थे। राज्य का सारा प्रबन्ध उनके मन्त्री सर दिनकर राव राजबाड़े करते थे। इन दोनों ने विद्रोहियों से मिलना अस्वीकार कर दिया और अपनी सेना लेकर रानी से युद्ध करने के लिए आये। रानी ने बड़ी ही वीरता से उनको हरा दिया और 31 मई को ग्वालियर शहर और मुरार के किले पर पेशवा का कब्जा हो गया। 3 जून को फूलबाग में नाना साहब केे प्रतिनिधि की हैसियत से राव साहब का अभिषेक किया गया। दरबार हुआ और सब का योग्य सम्मान किया गया। इसके बाद पेशवा चुप्पी साध कर बैठ गये। रानी ने उनको कितना कहा कि आगरा वगैरह फिर लेना चाहिये पर उन्होने न सुना और फिर ब्राह्मण भोजन और ऐश आराम होने लगा।
कालपी लेने के बाद सर हयूरोज पेन्शन लेकर विलायत जाने की तैयारी कर ही रहे थे कि उन्होने रानी के ग्वालियर पर अधिकार जमा लेने की बात सुनी। उनकी छुट्टी नामंजूर कर दी गई। उन्होनें फिर एक चाल चली, आगरे से उन्होनें जयाजीराव सिंधिया की सेना को आगे-आगे चलाया और ग्वालियर पर आक्रमण कर दिया। कोटा की सराय की तरफ से स्मिथ ने आक्रमण किया पर 14 और 17 तारीख को दोनों दिन रानी के सामने उसकी एक न चली। 18 जून को एक तरफ से स्मिथ ने और दूसरी तरफ से सर हयूरोज ने रानी पर आक्रमण किया। रानी मर्दाना वेष में घोड़े पर सवार थी। युद्ध के बाद रानी के पास सिर्फ 10-20 सवार बचे। अंग्रेजों ने चारों तरफ से उनको घेर लिया। रानी झाँसी की सहेली महिला फौज की सैनिक झलकारी बाई ने संकट की स्थिति को भांपकर रानी झाँसी की पोशाक पहनकर लड़ते-लड़ते शहीद हुई व रानी को वहाँ से निकलने का मौका दिया। मौका पाते ही रानी ने अंग्रेजों का घेरा तोड़ कर पेशवा से मिलने हेतु निकली। रानी ने तीव्र गति से तलवार घुमाते हुए अंग्रेजों का घेरा तोड़ डाला और तीर की तरह जो सिपाही मिले उसे काटती हुई चली। स्मिथ के घुड़सवारों ने उनका पीछा किया। रानी का घोड़ा उस दिन नया ही था वह एक जगह पानी देखकर बिगड़ गया, स्मिथ के सिपाहियों ने चारों तरफ से उन पर हमला कर दिया। रानी के चेहरे पर तलवार लगने से उनकी एक आँख निकल आई, और रानी की छाती में किर्च भोंप दी जिससे पेट में संगीन से 2 बड़े घाव लगे, ऐसी दशा में भी रानी ने कितने गोरों को तलवार के घाट उतार दिया। अन्तिम समय निकट देखकर उनके विश्वासपात्र अनुचर सरदार रामचन्द्रराव उन्हे पास ही में बाबा गंगादास की कुटिया में ले गये और उनके मुँह में गंगाजल छोड़ा। उनके शरीर का उसी समय घास की चिता बना कर अग्नि-संस्कार किया गया, इस प्रकार वह वीरांगना, आधुनिक काल की देवी दुर्गा, झाँसी की बिजली ज्येष्ठ सुदी 6 तारीख 18 जून 1859 को भूमि को धन्य करती हुई परलोक को पधारी।

रानी के शौर्य की तारीफ उनके शत्रुओं ने भी की है। सर हयूरोज, लो, मार्टिन, अर्नोल्ड, टाॅरेन्स, म्याकर्थी इत्यादि अनेक लेखकों ने रानी की बड़ी प्रशंसा की है। 17 दिन दिन तक रानी झाँसी के किले को बचाया। अंग्रेजों के झाँसी लेने पर उनकी आँखों के सामने वह जादू की तरह कालपी की ओर दौड़ गई। ग्वालियर लेने की बात उनकी राजनीतिक निपुणता प्रकट करती है। के.आर.मैलसैन नाम के दो इतिहासकारों ने यहाँ तक कहा है कि हिन्दुओं की दृष्टि से रानी अपने धर्म और स्वराज्य के लिए लड़ी। उनके राज्य ले लेने में अन्याय किया गया। उनके साथ बर्बरतापुर्ण कार्य किया गया। जहाँ लार्ड कर्जन जैसे आदमियों ने रानी की तारीफ की है तब औरों की क्या बात। झाँसी के विद्रोह में उनका हाथ न था। दस महीने का उनका राज्य रामराज्य कहलाता था। गोद लिये पुत्र को हमेशा युद्ध में भी पीठ पर बाँधकर सँभालते देखकर उनके पुत्र-प्रेम की जितनी प्रशंसा की जाये थोड़ी है। रानी लक्ष्मीबाई भारत के इतिहास में बिजली की तरह चमकती रहेगी। एक हरे बदन की, गोरी, सुन्दर युवती ने घंटों, दिनों, घोड़े पर बैठ कर युद्ध किया। वे भारत की स्वातन्त्रतय लक्ष्मी थी। क्रांति-युद्ध को लोग भूल जावेगें पर महारानी लक्ष्मीबाई का नाम नहीं भूल सकेंगे। भारत के इतिहास में रानी का नाम अमर रहेगा। संसार के रमणी-रत्नों में रानी का नम्बर पहला होगा।

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