खुदीराम बोस

कसाई काज़ी के नाम से कुख्यात किंग्सफोर्ड को मारने के जिम्मा दो नवयुवको खुदीराम बोस व प्रफुल चंद्र चाकी पर था । दोनों ही मुजफ्फरनगर पहुंचे। बंगाल की पुलिस को क्रांतिकारियों के इस इरादे का पता लग चुका था। किंग्स फोर्ड के मकान पर सशस्त्र पुलिस का पहरा लगने लगा। दस दिन तक इन नोजवानो को किंग्स फोर्ड को मारने का अवसर नहीं मिला। वे एक धर्मशाला में ठहरे रहे।

किंग्स फोर्ड के पास एक हरे रंग की घोड़ा गाड़ी थी वह उसी में बैठ कर क्लब से घर को जाया करता था। प्रफुल्ल व खुदीराम ने भी उस गाड़ी को खूब देख लिया। एक रात के समय वह गाड़ी क्लब से घर जब लौट रही थी मौका देख प्रफुल्ल व चाकी ने गाड़ी पर बम फैंक दिया किन्तु अफसोस कि उस बम से कैनेडी नाम के एक अंग्रेज की लड़की मारी गई और उसकी पत्नी सख्त घायल हुईं। यह घटना 30 अप्रैल सन 1908 की हैं। बम फैंकने के बाद प्रफुल चाकी समस्तीपुर की ओर तथा खुदीराम बोस मुजफ्फरनगर से बैनी की ओर भागे।
बैनी मुजफ्फरनगर से 15 मील दूर एक छोटा सा स्टेशन है। एक दुकान पर खुदीराम ने जलपान किया। वहाँ किसी ने कहा कि मुजफ्फरनगर में रात को कैनेडी की लड़की बम से मारी गई है। खुदीराम बच्चा तो थे ही उनके मुह से अचानक निकला ऐ किंग्स फोर्ड मरा क्या? लोगों को उन पर संदेह हो गया। यद्यपि उन्होंने भागने की चेष्टा की किन्तु पकड़े लिए गये और मुजफ्फरनगर को उनका चालान कर दिया गया। उधर समस्तीपुर में जब प्रफुल चाकी कलकत्ते की ओर जा रहे थे बीच में ही एक पुलिस थानेदार ने उन्हें पकड़ना चाहा। पहले तो उन्होंने थानेदार पर फायर किया किन्तु वार खाली गया तो अपने ही गोली मार ली।
खुदीराम बोस ने अदालत में बड़ी निर्भीकता से अपना अपराध स्वीकार कर लिया बांकीपुर से बुलाये गये मि0 कॉर्नडफ नाम के जज ने इनके मामले को सुना। कालिदास बॉस नाम के एक वकील ने खुदीराम की वकालत की किन्तु सात दिन ही नाटकीय समापन के बाद उन्हें दफा 302 के ताजीरात हिन्द के अनुसार फांसी की सजा दी गई। हाईकोर्ट में अपील भी हुई पर ख़ारिज कर दी गई । खुदीराम बोस ने फांसी से पहले अदालत में यह प्रार्थना की थी कि उसकी लाश कालिदास वकील के सुपुर्द कर दी जाये। ता0 11 अगस्त सन 1908 को प्रातः काल ही उन्हें फांसी पर लटका दिया गया।
कई लेखकों ने लिखा है कि उनकी अर्थी का एक बड़ा जुलूस निकाला गया था। उन पर इतने फूल बरसे की कोई ठिकाना नही, क्योंकि प्रत्येक बंगाली को उनकी शहीदी पर गर्व था।

लाहौर षड्यंत्र केस में एक क्रांतिकारी श्री शिव वर्मा ने उनकी अंत्येष्टि के संबंध में ‘नव निर्माण’ नामक एक पत्र में इस प्रकार लिखा था:- “उनकी अंत्येष्टि का दृश्य बड़ा ही ह्रदय ग्राही था। फूलो की एक सुसज्जित शय्या पर उनका शव रख दिया गया था। अर्थी भी फूल मालाओं से सजाई गई थी उनके माथे पर चंदन का तिलक चमक रहा था। अधखुले नेत्रो से अब भी एक जागृत ज्योति निकल रही थी। होंटो पर दृढ़ संकल्प की रेखा दिखाई पड़ रही थी। ‘राम नाम सत्य’ तथा ‘वंदे मातरम’ के व्योम व्यापी नारो के साथ अर्थी उठी। चारो ओर नर मुंडो का समूह उमड़ा था। हजारो आदमी इस शव यात्रा में सम्मिलित थे। अर्थी उठी। चारो ओर नर मुंडो का समूह उमड़ा था। हजारो आदमी इस शव यात्रा समिलित थे। वृहद जुलूस के साथ अर्थी शमशान पहुंची थी। फुलो से अच्छादित शव उतार कर चिता पर रखा गया। काली बाबु ने घृत, धूप और शाकल पहले से ही ला रखे थे। चिता में आग लगा दी गई। एक बार फिर वंदे मातरम की तुमुल ध्वनि से आकाश गूंज उठा और जब चिता ठंडी हो गई तो चिता भस्म के लिए जनता की पारस्परिक छीना झपटी का दृश्य भी कम ह्रदय ग्राही न था।
उस समय बंगाल के कई अखबारों ने उनके इस कृत्य की निदा भी की थी किन्तु बंगाल के घर घर मे उनका जिक्र था। उनके संबंध में बहुत दिनों तक गया जाता रहा था :-
“खुदिराम बोस जथा हाशीते,
फांसी ते कोरिलो प्रान शेष।
तुई तो मांगो तार देर जननी,
तुई तो मांगो नादेर देश।
अर्थात – खुदिराम बोस ने हंसते हंसते फांसी पर अपने प्राणो को दिया। हे जननी वही तो मैं मांगता हूं।
फांसी के तख्त पर हंसते हंसते चढ़ते हुए उन जनता ने देखा और उनका वही चित्र हर बंगाली के मानस पर खिंच गया था जो कभी कभी लोक गीतों में फुट पड़ता है।